शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष-3
शेखर दादा ने आज के दिन अपनी
उम्र का अस्सीवाँ पड़ाव पूरा कर लिया. संयोगवश अभी कल ही दादा के नए कविता संग्रह ‘न
रोको उन्हें शुभा’ का इलाहाबाद में विमोचन हुआ साथ ही उन्हें उल्लेखनीय साहित्यिक
सेवाओं के लिए ‘मीरा स्मृति सम्मान’ से नवाजा गया. इलाहाबाद का समूचा साहित्यिक
तबका इस समारोह का साक्षी बना. दादा न केवल लेखन बल्कि अपने जीवन के जरिये भी सतत रचनाशील
रहे हैं. रचनाशीलता दादा के लिए हमेशा एक जीवन मूल्य की तरह रही है. हिंदी कथा साहित्य
के इस बेमिसाल शिल्पी का जीवन इतनी सादगी और विनम्रता से भरा है कि एकबारगी हमें
यकीन ही नहीं होता कि हमारे समय का एक बेजोड़ रचनाकार ऐसा भी हो सकता है. जन्मदिन के
अवसर पर दादा के शतायु होने की कामनाओं के साथ प्रस्तुत है दादा द्वारा ‘पहली बार’
के लिए लिखा गया यह विशेष संस्मरण.
यायावर की डायरी
(1) भुवालीः
वैकल्पिक मार्ग की जरूरत
मई के अन्तिम
सप्ताह में पारिवारिक कारणों से दो दिन के लिए हल्द्वानी जाना पड़ा तो हम पहाड़ छू
आने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। अन्य मैदानी शहरों की तरह ही हल्द्वानी में भी
आसमान से आग बरस रही थी। कई मित्रों, परिचितों से
मिलने का मन था लेकिन मौसम की मार ने घर पर ही पंखे की गर्म हवा में झुलसने को
मजबूर कर दिया। सिर्फ स्वर्गीय शेर दा और मटियानी जी के परिजनों के साथ सुबह
दो-ढाई घण्टे मुलाकात हो पायी।
तीसरे दिन सुबह
ही हम भुवाली के लिए चल पड़े। भुवाली में भी गर्मी से राहत नहीं मिली। अपनी आतिथेय
उषा से मैंने कहा कि एक पैडस्टल पंखा अब खरीद ही लो। क्यों कि आने वाले वर्षों में
गर्मी और भी प्रचण्ड रूप धारण कर सकती है। तब शायद कूलर और ए सी का सहारा लेना
पड़े।
भुवाली बाजार में
सड़क पार करना अब सबके बूते की बात नहीं रही। इतनी कारें, मोटर गाड़ियॉ और
मोटर साइकिल सड़क पर आते-जाते रहते हैं कि पैदल चल पाना कठिन हो गया है।
एक परिचित
दुकानदार ने शिकायत के स्वर में मुझे बाजार न आने का उलाहना दिया तो मैंने कहा,
‘साह जी, पहले लोग टी बी के इलाज के लिए दूर-दूर से भुवाली आते थे लेकिन
अब यहॉ इतना वायु प्रदूषण हो गया है कि अच्छा भला आदमी दो-चार दिल कुछ घण्टे यहॉ
गुजार ले तो वह मरीज हो जायेगा।’
‘आप भी गलत नहीं
कह रहे हो’ साह जी ने सहमति जताई। ‘हमारी तो मजबूरी है, कहॉ जाएँ।’ घण्टों जाम लगा
रहता है और गाड़ियों के धुएँ से हवा जहर बन जाती है।’
संकरे बाजार में
भीमताल रामगढ की ओर से जाने वाली गाड़ियों के लिए अन्य कोई वैकल्पिक मार्ग (पी
डब्ल्यू डी परिसर से हो कर आगे गधेरे के उपर पुल बना देने से इसकी संभावना हो सकती
है।) अथवा फ्लाई ओवर की कल्पना की फुरसत किसे है। दिल्ली मेट्रो के स्थापत्य को देखने
के बाद किसी प्रकार के फ्लाई ओवर की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जब तक यह
नहीं होता तब तक जहरीली हवा में सांस लेना और प्रदूषित खाद्य पदार्थों का सेवन
करना भुवाली के नागरिकों की बाध्यता है।
(2) प्रणम्य जनसेवक
लोगों ने बताया
कि नैनीताल में भी अब दो-दो घण्टे का जाम लगा रह रहा है। एक दिन जोखिया आश्रम
(भूमियाधार के उपर नैनीताल-भुवाली मोटर मार्ग पर) जाने का प्रोग्राम बनाया। भुवाली
और नैनीताल के बीच चलने वाली बस के चालक बुजर्ग सज्जन जिस कौशल और धैर्य के साथ
गाड़ी चला रहे थे वह देखने लायक था। यात्रा समाप्ति पर उनसे बतियाने का मन हुआ।
‘कितने फेरे लगते
हैं दिन भर में ?’ मैंने पूछा।
‘सात तो हो ही
जाते हैं।’ उन्होंने प्रसन्न मुद्रा
में बताया।
‘रिटायरमेण्ट भी
अब होने ही वाला होगा?’ मैंने अपना
अनुमान जताया।
‘न न, अभी पॉच साल हैं’ कह क रवह भेद भरी मुस्कान के साथ बोले जैसे इस तथ्य के पीछे
कोई रहस्य छिपा हो।
मैंने विदा लेते
हुए उनसे हाथ मिलाया और उनके स्वस्थ जीवन की कामना की।
याद आया, पिछले बरस पुणे प्रवास के दौरान महाराष्ट्र
परिवहन निगम की ओर से लम्बी अवधि तक दुर्घटनामुक्त सेवा के लिए वहॉ अनेक सार्वजनिक
वाहन चालकों को एक समारोह में नागरिक सम्मान दिया गया था। उन प्रौढ और वृद्ध
चालकों की संतोष और गर्व से दीप्त छवियॉ
आज भी ऑखों के सामने तैर जाती है। क्या हमारा उत्तराखण्ड परिवहन निगम इस प्रथा का
अनुकरण कर अपने उन चालकों को कभी याद करेगा जो खतरनाक मोड़ों, धॅसकते पहाड़ों, टूटी सड़कों और लापरवाह वाहन चालकों से बचाते अपनी सवारियों
को वर्षों से निरापद ढंग से उनके गंतव्य तक पहॅुचाते रहे हैं ?
संयोग से जोखिया
आश्रम में उस दिन नैनीताल के के के साह जी से भेंट हो गयी। साह जी के संबंध में
सुनता आया था कि पहाड़ की बैठकी होली की परम्परा को संरक्षित रखने में उनका
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सुप्रसिद्ध ध्रुपद गायक पं चन्द्रशेखर पन्त जी,
प्रख्यात होली गायक तारादत्त पाण्डे, हेमदा से ले कर नयी पीढी के नामवर गायकों ने
उनके घर की बैठकी होली में अपना योगदान दिया है और यह क्रम आज भी चल रहा है। साह
जी ने आगामी होली के अवसर पर नैनीताल आने का निमन्त्रण दिया जो मेरे लिए एक सुखद
आमन्त्रण था।
(3) मुक्तेश्वरः केवल विज्ञापनों में ही पर्यटक स्थल
विगत सात दशक से
प्रायः प्रतिवर्ष कुछ दिनों के लिए भुवाली जाते रहने के बावजूद मैंने अभी तक
मुक्तेश्वर नहीं देखा था। इस बार निश्चय किया कि इस संक्षिप्त प्रवास में एक दिन
मुक्तेश्वर जरूर जायेंगे।
मेरी कल्पना थी
कि आकर्षक पर्यटन स्थल होने के कारण उत्तराखण्ड प्रशासन ने वहॉ आने जाने के लिए
अच्छी व्यवस्था कर रखी होगी। लेकिन स्थिति बिल्कुल विपरीत निकली। भुवाली से एक बस
प्रातः 9-10 बजे मुक्तेश्वर के लिए जाती है जो हमारे पहॅुचने तक भर चुकी थी। एक
साझा टैक्सी में प्रायः घण्टे भर तक अन्य सवारियों का इन्तजार करने के बाद हम
रवाना हुए। भुवाली की सीमा पर श्याम-खेत के निकट निर्माणाधीन भवनों की संख्या देख
कर भविष्य में जलआपूर्ति की समस्या से निपटने के लिए प्रशासन की क्या योजना है यह
जानने की उत्सुकता बनी रही। अनियन्त्रित आवासीय निर्माण भविष्य में नागरिकों के
लिए कई प्रकार की समस्याएँ पैदा कर सकता है यह हम मैदानी क्षेत्रों के अनुभव से
जानते हैं।
उत्तरोतर चढाई पर
आगे बढती जीप और मनोरम चीड़ बनों के मध्य रामगढ मल्ला और रामगढ तल्ला के आकर्षक
दृश्यों के बीच मैं महादेवी जी के ‘साहित्यकार आवास’
के साथ ही उस स्थल को खोजने का भी प्रयास कर
रहा था जहॉ मेरी जिद के कारण लखनऊ दूरदर्शन की टीम को वास्तविक घट की तलाश करनी
पड़ी थी जब वे लोग ‘कोसी का घटवार’
फिल्म की शूटिंग के लिए वहॉ
पहॅुचे थे।
यद्यपि इन दिनों
पहाड़ में दावानल का प्रकोप हो रहा था और धुएँ के कारण दृश्य स्पष्ट नहीं हो रहा था
तो भी ज्यों ज्यों जीप उपर जाती रही एक अद्भुत अनुभूति होती रही।परस्पर हम विनोद
में इस स्थिति को पाण्डवों के स्वर्गारोहण से जोड़ रहे थे यद्यपि मार्गदर्शक कोई
श्वान वहॉ नहीं था।
अन्ततः जीप
भटेलिया नामक बस्ती और छोटे बाजार के पास पहॅुची तो अधिकांशतः यात्री उतर गए। हमें
और आगे मुक्तेश्वर जाना था। ड्राइवर ने जीप आगे बढायी। अब दृश्य और भी अधिक मनोरम
हो गया। देवदार के जंगल के बीच आई. वी. आर. आई. का क्षेत्र और अन्त में सबसे उॅचाई
वाले स्थान जी. आई. सी. के पास हमें गाड़ी से उतार कर जीप लौट गयी।
भोजन का समय हो
गया था और भूख लग आयी थी। निकट ही एक छोटे रेस्त्रां में हमें साफ सुथरे परिवेश
में सुस्वादु भोजन ही नहीं बढिया आइसक्रीम का स्वाद लेने का अवसर भी मिल गया।
इधर-उधर घूमने की
अपेक्षा अब हमारी चिन्ता लौटने के लिए उपलब्ध वाहन के निर्धारित समय की थी। लोगों
से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तीन बजे के आसपास एक छोटी सी गाड़ी शिक्षकों को लेने आती
है। उसमें यदि जगह हुई तो शायद आपको ले जाए। यह अनिश्चितता वाली स्थिति थी। आवश्यक
नहीं कि उस छोटी सी गाड़ी में हमारे लिए जगह निकल ही आए।
उस ऊँचाई वाले
स्थान से, बावजूद दावानल के कारण
फैले धुंधलके के, बहुत मनोरम दृश्य
दिखायी पड़ रहा था। यदि यह धुंधलका न होता तो शायद अल्मोड़ा नगर का दृश्य भी दिखायी
न दे जाता। पर अब मुख्य चिन्ता लौटने के साधन की थी। एक टैक्सी वाला पास ही अपनी
गाड़ी की साफ-सफाई कर रहा था। वह शायद भांप गया था कि ये तीनों साठोत्तरी वाले
पर्यटक भटेलिया के 6 किमी मार्ग को पैदल नहीं नाप पायेंगे। भटेलिया में कोई साधन मिल जायेगा ऐसा लोगों ने बताया था।
अन्ततः 6 किमी
दूर स्थित भटेलिया पहुँचाने के लिए 150 रुपये पर सौदा तय हुआ और हमने मन मसोस कर
मुक्तेश्वर से विदा ली। ‘मैं किसी को ठगता
नहीं साब!’ देशी हो या पहाड़ी हो।’ टैक्सी वाले ने अपना स्पष्टीकरण दिया। भटेलिया में भुवाली जाने
वाली टैक्सी में हमे बिठा कर वह चला गया था। थोड़ी देर बाद वही टैक्सी हमारी गाड़ी
के निकट आ कर रूकी और उसकी टैक्सी में छूट गए कैमरा को हमें लौटाते हुए उसने केवल
इतना ही कहा ‘आपका कैमरा मेरी
गाड़ी में रह गया था।’ हमने उसके
पूर्वकथित वक्तव्य को याद कर उसके जज्बे को सलाम किया। वह जा चुका था।
जिस अनुपात में
उत्तराखण्ड का पर्यटन विभाग पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों की भरमार कर देता है
उसी अनुपात में यदि परिवहन की सुविधा, सस्ते दर पर पर्यटन स्थलों पर आवासीय एवम भोजन की सुविधा भी सुनिश्चित कर दे
तो स्थानीय जनता ही नहीं बाहरी लोग भी हमारे इस सुरम्य प्रदेश को देखने का सुख ले
सकते हैं। मुझे याद है मेघालय में शिलांग से चेरापॅूजी तक पर्यटकों को ले जाने के
लिए ‘कण्डक्टेड टूरिज्म’ की व्यवस्था है। जिसके अन्तर्गत दर्शनीय स्थलों को
दिखाने के अलावा पैक्ड लंच की भी व्यवस्था रहती है और टूरिस्ट लोगों के लिए उनकी
वह यात्रा जीवन भर स्मरणीय बन जाती है। ऐसे ‘कण्डक्टेड टूरिज्म’ के लिए उत्तराखण्ड
में न जाने कितने आकर्षक स्थल हैं। क्या यह कभी संभव होगा ?
(4) हमारे ये पूर्वज
दो-तीन वर्ष
पूर्व तक भुवाली में घर के आस पास सीढीदार खेतों में कई तरह के फलों के पेड़ थे।
सेब, प्लम, खुबानी, आड़ू से ले कर एक पेड़ बादाम का भी था। पहाड़ी नीबू और कुछ पेड़
नारंगी के थे। बीच बीच में बुलाने पर हार्टीकल्चर विभाग के लोग आ कर उनकी छंटाई कर
जाते थे। फलों की तैयारी के बाद आने -जाने वालों को घर वाले उपहार में छोटी टोकरी
या प्लास्टिक का थैला भर कर फल देते थे। धीरे -धीरे पेड़ों की संख्या कम होती गई।
कुछ पेड़ों के नष्ट होने का कारण बर्फबारी भी रही होगी। इस बार जा कर देखा सभी पेड़
काट दिये गये हैं। देख कर बुरा लगा। पूछने पर भाई ने बताया ’ये सामने काफल का पेड़ देख रहे हो ? अभी फल हरे ही हैं लेकिन बन्दरों की डार आ कर इन्हें भी
उजाड़ जा रही है। पहाड़ी नीबू के फलों को तोड़ कर उनका मोटा छिलका कुतर जाते हैं। और
शेष गूदे से हरभजन सिंह की तरह बालिंग कर देते हैं। कुछ न मिलने पर गुलाब की कलियॉ
ही नोच खाते हैं।’
एक दिन प्रत्यक्ष
देखा, दो तीन भीमाकार बन्दरों
की अगुवाई में बच्चों को छाती से चिपकाए बन्दरियां और छोटे आकार के बन्दरों का
झुण्ड काफल के पेड़ पर चढा है और चुन चुन कर कच्चे-पक्के काफज खा रहा है। पालतू
कुतिया घर के अन्दर छिपने की कोशिश कर रही है। मुझे कुतिया का यह व्यवहार
अस्वाभाविक लगा, उसे तो भूंक-भूंक
कर आसमान सिर पर उठा लेना चाहिए। पता चला कि कुछ दिन पहले एक बन्दर सरदार ने उसे
जम कर झापड़ रसीद कर दिया था तब से सहमी हुई है। बदकिस्मती से पड़ोसियों का कुत्ता
अपना कर्तव्य निभाने बाहर निकला तो एक बन्दर ने दौड़ा लिया।
ये हमारे
शाकाहारी पूर्वज भी क्या करें. जंगल सिकुड़ रहे
हैं। आग का प्रकोप अलग है। काफल जैसे उत्पाद बाजार की मांग की आपूर्ति कर रहे हैं।
उनके लिए पेट की आग बुझाने के लिए वहॉ कुछ नहीं है इसलिए बस्ती में आ कर भोजन की
तलाश करते हैं।
बन विभाग यदि
वृक्षारोपण के दौरान केवल चीड़ के पौधे तक सीमित न रह कर काफल बेड़ू ,मिहल, बमौर, हिस्यालू, घिंघारू जैसे फलदार वृक्षों का रोपण जंगलों में
प्रचुर मात्रा में कर दे तो हमारे ये बिरादर अपने ही इलाके में रहें और हम लोगों
के लिए परेशानी का कारण न बनें। अरुणाचल प्रदेश में मैंने जंगलों में प्रचुर मात्रा
में केले के पेड़ देखे हैं। शायद वहॉ के निवासियों में पशु जगत के लिए अधिक
मित्रभाव है इसलिए उन्होंने यह व्यवस्था कर रखी है।
यायावरी की डायरी बहुत ही शानदार है। दाज्यू ने इसके माध्यम से जिन विसंगतियों की ओर ध्यान दिलाया है, काश उन पर उत्तराखंड सरकार कुछ करती।
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय
जवाब देंहटाएंबेहतर जानकारी
शेखर दादा को जन्मदिन की बधाई |
जवाब देंहटाएंयायावर को सलाम और जन्मदिन की बधाइयाँ!
जवाब देंहटाएंइस यात्रा वृतांत में पहाड़ के बदलते रूप को देखा जा सकता है. विकास की भेंट चढ़ रहे हैं पहाड़ और लगातार टीस दे रहे हैं. शेखर दादा के अपने घर पहुँचने की ख़ुशी देखी जा सकती है.लेकिन उस दर्द को भी महसूस किया जा सकता है जो बेतरतीब विकास की वजह से उभर आये हैं.
बस के चालक से बतिया लेने का अंदाज दादा के स्वभाव को ही नहीं दर्शाता बल्कि उनकी जन पक्षधरता को भी दर्शाता है.मुझे वह प्रसंग पढ़कर नागार्जुन की कविता का ख्याल आया..घिन तो नहीं आती है. शेखर दादा को तो किसी अपने का साहचर्य मिला होगा..
बधाइयाँ फिर से..
utkrishtha prasang..
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