शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष -5
शेखर जोशी जन्म दिन विशेष
की पांचवी कड़ी में प्रस्तुत है शैलेय का आलेख ‘कोसी का घटवार यानी प्रेम नदी का
सागर’
शैलेय
कोसी का घटवार
यानी
प्रेम नदी का
सागर
प्रेम जहां सघन
हो जाता है तो उसमें सहज ही एक प्रकार की आत्मीय सादगी आ जाती है। सादगी का यह
औदार्य ही शेखर जोशी कृत ‘कोसी का घटवार’
कहानी का मूल उत्स है। कहानी जिस तरह अपने
समूचे परिवेश के साथ उठ खड़ी होती है वह कहानीपन को तो उठान देता ही है, पाठक की संवेदना
का परिष्करण भी साथ-साथ करती चलती है। यही कारण है कि कहानी अपने चरम पर पहुंच कर
एक ऐसी टीस पैदा करती है जो पाठक की संवेदना और चेतना को एक गहरे प्रेमाकुल भावबोध
से भर देती है। यहां यह महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि इस प्रेमाकुल भावबोध में कहानी
सामाजिक विसंगतियों तथा व्यक्तिगत जीवन की विडंबनाओं की पोल खोलती हुई पाठक को एक
सहज स्वातंत्र्यपूर्ण वातावरण निर्मित हेतु प्रेरित भी करती है।
एक अच्छी कहानी
सर्वप्रथम अपने परिवेश को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील और सतर्क होकर चलती है। ताकि
मूल कथा के विकास के विभिन्न सोपान भी पाठक को सहज बोधगम्य होते रह सकें। इस
दृष्टि से ‘कोसी का घटवार’ वातावरण निर्माण एवं संचयन का उत्कृष्ट उदाहरण
है। कहानी अपने केन्द्रीय विषय तक पहुंचने की यात्रा को अपने समूचे वातावरण के साथ
क्रियाशीलता के साथ बांधते हुए चलती है। यथा-‘‘चक्की के निचले खण्ड में छच्चिर-छच्चिर की आवाज के साथ पानी
को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर
में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी
को अपनी बात सुनाई नहीं देती और अब तो भले नदी पार कोई बाले, तो बात यहां सुनाई दे जाय।’’
वातावरण निर्माण
की यह क्रियाशीलता ‘कोसी का घटवार’ के अंत तक कथासूत्र का साथ दिये चलती है। यहां
तक कि कहानी ही उसके परिवेश की विशिष्ट गतिविधि के साथ अपने अंतिम सोपान को ग्रहण
करता है -‘‘घट के अंदर की काठ की
चिड़िया अब भी किट-किट की आवाज कर रही थी, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही
थी, और कोई स्वर नहीं,
अब सुनसान, निस्तब्ध!’’
अच्छी कहानी
वातावरण निर्माण के साथ-साथ के समानान्तर रूप से अपने पात्रों को भी खड़ा करती चलती
है। ‘कोसी का घटवार’ कहानी में पात्रों की नींव इतनी सहज रूप से
पड़ती है मानो पाठक को जैसे स्वयं की जड़ें मिल रही हों- ‘‘घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड़ को गुसाईं ने
खोला। गूल के चलते हुए थोड़ा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह
शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से
मुंह हटाया। उसके होठों पर बांये कोने पर हल्की सी मुस्कान उभर आयी। बीती बातों की
याद ....गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की
बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है।......नहीं,याद करने का मन नहीं करता।............
....वैसी ही पैंट
पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फौज में गया था।पर फौज से लौटा ,तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके
साथ आ गया।’’
तब आती हैं जीवन
स्थितियां और पात्रों का विकासक्रम। ‘कोसी का घटवार’ में अपने पात्रों
के विकासक्रम को लेकर विलक्षण सजगता है। जीवन समाज में आई हलचल के सुख-दुख पात्रों
की मनःस्थिति का निर्धारक होती हैं। इस आरोह-अवरोह के मध्य पात्र समय सापेक्ष
स्वरूप और व्यक्तित्व ग्रहण करते चले जाते हैं। ‘कोसी का घटवार’ में व्यक्तित्व गठन की यह प्रक्रिया बहुत ही सहज और सजीव है। यथा -‘‘सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी।
गुसाईं को उसका स्वर परिचित सा लगा। चौंक कर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कपड़े में
पिसान ढीला बंधे होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुसाईं
उसे ठीक से नहीं देख पाया। लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का
समाधान करने के लिए वह बाहर की ओर मुड़ा, लेकिन तभी फिर अंदर जा कर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़िया
किट-किट बोल रही थी और उसकी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा
था।
घट के छोटे कमरे
में चारों ओर पिसे हुए अन्न का चूर्ण फैला
हुआ था, जो अब तक गुसाईं के पूरे
शरीर पर छा गया था। इस र्कतिम सफेदी के कारण वह बृद्ध सा दिखाई दे रहा था। स्त्री
ने उसे नहीं पहचाना।’’
इसी मरह एक अन्य
उदाहरण-‘‘हताश सा वह कुछ क्षणों तक
उसे जाता हुआ देखता रहा और फिर अपने हाथ तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़ कर एक-दो कदम आगे बढा।
उसके अन्दर किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने
को बाध्य कर दिया।’’
मनोविज्ञान की
दृष्टि से ‘कोसी का घटवार’ के पात्र अत्यंत पारदर्शी हैं। जटिल से जटिल
संवेदनात्मक उद्धेलन के क्षणों में भी पात्रों की मनःस्थिति और कार्यव्यापार पाठक
के लिए सहज बोधगम्य है। यथा- ‘‘इतनी देर बाद
सहसा गुसाईं का ध्यान लक्षमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेरू-सुहाग
चिन्ह- नहीं था। हतप्रभ सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी अव्यावहारिक अज्ञानता पर
उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी।’’..........‘‘गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल
सहानुभूति की दृष्टि से उसे देखता भर रहा।
दाडि.म के वृक्ष से पीठ टिकाये लक्षमा घुटने मोड़ कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पन्द्रह-सोलह साल
किसी की जिन्दगी में कोई कम नहीं होते। पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पन्द्रह वर्ष पहले की लक्षमा को
देख रहा है।’’
हमारे किसी भी
कार्यव्यापार के लिए हमारी जीवन दृष्टि ही अंतिम रूप से जिम्मेदार होती है।
निर्णायक तथ्य। इसी से हमारी संवेदनात्मक गहराई और चेतनागत उदात्ता का परिचय मिलता
है। इस दृष्टि से ‘कोसी का घटवार’
दर्शन के उस उच्चतम शिखर को स्पर्श करती है
जहां मनुष्यता ही जीवन का सर्वोत्तम मूल्य है -‘‘गुसाईं को लक्षमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज
में बोला- ‘‘दुख-तकलीफ के
वक्त ही आदमी-आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब!
पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया।
पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी !’’
परन्तु गुसाईं के
इस तर्क के बावजूद भी लक्षमा अड़ी रही, बच्चे के सिर पर
हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, ‘‘गंगानाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन
निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम में हंस-बोल दें, तो वही बहुत है
दिन काटने के लिए।’’
इस तरह कहानी ‘कोसी का घटवार’ अपने समापन पर पाठक को एक ऐसे शांत विरेचन पर पहुंचाती है
जहां जीवन के क्षणिक आवेगों की निस्सारता पर एक हल्की स्मित के साथ एक गहरे धैर्य
में उतरा जा सकता है। शायद इसीलिए-‘‘गुसाईं ने गौर से लक्षमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और
तूफान का वहां कोई चिन्ह शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंध कर शान्त हो
चुका था।’’
शैलेय के अभी तक दो कविता
संग्रह ‘या’ और ‘तो’ प्रकाशित हो चुके हैं और पर्याप्त चर्चित रहे हैं. सम्प्रति
उत्तराखंड के सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रूद्रपुर में हिन्दी
के प्राध्यापक हैं.
संपर्क
मोबाईल- 09760971225
e-mail: shailey66@gmail.com
बहुत बढ़िया आलेख है...मैंने ये कहानी पढ़ी है..लेख में बातों को अर्थ मिला है...
जवाब देंहटाएंबढिया आलेख
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी
बहुत अच्छा लेख
जवाब देंहटाएंइस कहानी को मैंने दो बार पढ़ी बहुत ही प्रेरणादायक कहानी है और मनोभाव को झकझोरने वाली कहानी है।