विजेंद्र
प्रगतिशील जनवादी पुनर्जागरण की
आवश्यकता
प्रलेस बना 1936 में । आज़ादी मिली 1947 में । पर निराला 1923 में शोषित -उत्पीड़ित जनता के, ‘दुख के बंधन‘ तोड़ने को स्वतंत्रता का पाठ कर रहे थे -
‘स्वतंत्रता का
पाठ हम करते दुख के बंधन तोड़ें‘ ।
इसी समय उनकी
दृष्टि भूख से त्रस्त लोगों को देख उनके कवि मन को पीड़ा दे रही थी -
भूख से सूख ओठ जब
जाते
$ $ $
$
घूँट आँसुओ का पी
कर रह जाते
चाट रहे जूठी
पत्तल
वे सभी सड़क पर
खड़े हुए
और झपट लेने को
उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुये
-यानि निराला बहुत पहले से ‘गरीबों की पुकार‘ सुन रहे थे।
उन्हे ज्ञान है कि भारतीय मनुष्य की पीड़ा का अंत बिना ‘स्वाधीनता‘ पाये संभव नहीं
है। उसके लिये व्यवस्था में परिवर्तन पहली शर्त है -क्योंकि स्वाधीन हो कर ही
समग्र जाति निर्भय बन सकती है। जब जाति निर्भय होगी तभी वह अपनी स्वाधीनता के लिये
संघर्ष कर सकेगी -कवि के लिये स्वाधीन होना ही ‘निर्भय‘ का र्प्याय है - ‘स्वाधीन का ही/ एक अर्थ नर्भय है‘। इससे लगता है निराला भारतीय मुक्तिसंग्राम की चेतना से
प्रेरित होकर उन बातों को कह रहे थे जो आगे चल कर प्रलेस के भी संकल्प बनी । सब
जानते हैं कि भारतीय प्रगतिशील-जनवादी-लोकधर्मी रचनाशीलता को प्रेरित करने में भारतीय मुक्तिसंग्राम की प्रमुख भूमिका रही है। वह एक तरह से ‘भारतीय पुनर्जागरण‘ भी है।
1857 की राज्यक्रांति
साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद विरोधी थी। डा0 रामविलास शर्मा के अनुसार 20 वी सदी की ‘जनवादी क्रांतियों की लंबी अपूर्ण श्रृंखला में प्रथम
महत्वपूर्ण क्रांति‘। मुक्तिसंग्राम
का लक्ष्य था जातीय एकता, साम्राज्यवाद-सामंतवाद
से मुक्ति तथा नई समतामूलक लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना। यहाँ जोर ‘लोक‘ पर है। वह लोक जो मुक्ति संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ कर हर
तरह की कुर्बानियाँ दे रहा था। श्रमी, किसान, अन्य सामान्य जन तथा
आदिवासी आदि संगठित होकर लड़ रहे थे। यह वही ‘लोक‘ है जिसे आचार्य
भरत तीन तरह के लोगों में देखते हैं - ‘श्रमार्त‘ यानि कठोर श्रम
से दुखी जन। ‘दुखार्त‘ यानि जीवन में अनेक अभावों से प्रताड़ित जन। ‘शोकार्त‘ यानि प्राकृतिक व्याधियों के आघातों से शेाकग्रस्त जन। आज
भी लोक में ऐसे ही जनों का बाहुल्य है। सामान्य तथा अति सामान्य पर जोर होने की
वजह से ही हमने लोकतांत्रिक जीवन पद्धति
को चुना है।
कहना न होगा आज ‘लोक‘ सर्वहारा का पर्याय बन गया है। कई बार मुझे
अचरज हुआ यह जान कर कि कुछ जनवादी- प्रगतिशील ‘लोक‘ को पलायनवादियों
का ‘आरामगाह‘ कह कर उसे पिछड़ी संवेदना का प्रतीक मानते हैं।
कुछ पढ़े लिखे निरक्षर पूछते हैं कि, आखिर आज के वैज्ञानिक युग में यह ‘लाके‘ है क्या! ऐसा भ्रम इसलिए
है क्यों कि बुर्जुआ अपने मनोरंजन के लिये लोक के गान, चित्रकला, उत्सव, अंधविश्वास, वेशभूषा आदि को ही लोक मानता आया है। बड़े पैमाने पर देश
विदेश में वही प्रचारित भी किया गया है। पर उसके संघर्ष धर्मी रूप को सामने नहीं
लाया गया। लोकतंत्र में जरूरी है हम लोक की पुनर्व्याख्या कर इतिहास में
प्रतिबिंबित उसके अटूट द्वंद्व तथां संघर्ष को भी बतायें। कुछ लोग लोक को गाँव और
शहर में विभाजित कर नया भ्रम फैलाते हैं। लोक सर्वहारा के अर्थ में गाँव-शहर की
सीमा को लाँघ कर वैश्विक प्रतिरोधी तथा अपराजेय शक्ति है। हर जाति के सांस्कृतिक रूप के समानांतर उसका एक
संघर्षधर्मी रूप भी होता है। पर बुर्जुआ अपने हित के लिये उसके मनोरंजक रूप को
सामने लाता है। संघर्षधर्मी रूप को नहीं। प्रगतिशीलता या जनवाद बिना ‘लोक‘ के क्रियाहीन और निष्प्राण होंगे। किसानो, श्रमियों तथा आदिवासियों के संघर्ष को बिना समझे क्या हम
मुक्तिसंग्राम के सही रूप को समझ सकते हैं। लोक ही प्रगतिशीलता या जनवाद की
केंद्रीय शक्ति है। वही उसकी अंतर्वस्तु।
बीसवी सदी के
तीसरे-चौथे दशक में मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया के दौरान एक वामपंथी-या कहें
लोकधर्मी रुझान उभरा था। इसकी दिशा थी एक लोकधर्मी समाजवादी व्यवस्था कायम करना।
निराला 1924 के आस पास भारतीय शोषित
किसान को जगा कर बादल को ‘विप्लव का वीर ‘
कह रहे थे -यही नही वह लोक को मुकुट पहनाने के
लिये भी इच्छुक हैं - ‘विप्लव से छोटे
ही शोभा पाते‘।
धनी, वज्र - गर्जन से बादल
$ $ $
जीर्ण बाहु,
है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक
अधीर
ऐ विप्लव के वीर
चूस लिया है उसका
सार
हाड़ मास ही है
आधार -
इससे यह भी लगता है कि निराला रूस की बोल्शविक क्रांति से भी प्रेरित थे। पर
उनका ध्यान, भारतीय परिस्थिति
के अनुसार, श्रमियों के साथ किसानों
की तरफ भी था। इसे आज के कवि को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। बिना किसान और
श्रमिकों के एकजुट हुये यहाँ कोई बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं होगा। सत्ता को
प्रभावति करने में किसानों की ताकत आज भी ज्यादा असरदार है। किसान संगठित हो कर जब
आंदोलित होते हैं तो भारतीय जनशक्ति का रूप मुखर होता है। सत्ता उसके सामने झुकती
है।
इस वामपंथी रुझान
का असर उस समय की रचनाशीलता में भी प्रतिबिंबित है। यह विश्व इतिहास का वह दौर था
जब सोवियत संघ समाजवादी देश होने के नाते विश्व इतिहास में अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा
था। तीसरी दुनिया के देश उसे अपने लिये एक माडल की तरह देख रहे थे। एक तरह से पूँजीवाद
का एक सही प्रेरक विकल्प हमारे सामने था। इसका प्रभाव विश्व के लेखकों पर पड़ना सहज स्वाभाविक ही था। विश्व के
सभी देशभक्त, शांतिप्रिय तथा
समता चाहने वाले देश सोवियत संघ को अपना आदर्श मानते थे। आज की तरह उस समय भी
पूँजीवादी व्यवस्था घोर संकट का सामना कर
रही थी। इसी के परिणामस्वरूप योरुप में फासिज्म का उदय हुआ। विश्व के सभी शांतिप्रिय,
लोकतांत्रिक तथा जनवादी लोगों को फासिज्म एक
खतरनाक चुनौती था।
भारत में इस जनविरोधी प्रवृत्ति के प्रतिरोध के लिये प्रगतिशील
विचारधारा तथा समाजवादी संकल्प को मूर्त करने हेतु और दृढ़ता प्राप्त हुई। समाज तथा
राजनीतिक क्षेत्र की इन गतिविधियों का असर लेखकों पर बराबर पड़ रहा था। साहित्य में
इस पूरे परिदृश्य की मार्मिक छबियाँ तथा बिंब उभर रहे थे। पंत जी तक मध्यवर्ग, श्रमजीवी,
किसान, मार्क्स, गांधी तथा साम्राज्य जैसे विषयों को कविता में
ला रहे थे। नरेद्र शर्मा ‘देवली कैंप‘
में नज़रबंद किये गये। उनहोंने अंग्रेजी सत्ता
को चुनौती देते हुए कहा -
‘गति को कब तक
बांध सकोगे , पूछो पहरेदारों
से‘ ।
पंत के साथ केदारनाथ
अग्रवाल तथा नरेंद्र शर्मा नये प्रगतिशील पथ पर ग्रसर थे। 1940- 41 के आस पास
नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण
अग्रवाल तथा मुक्तिबोध आदि कवि मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए। यद्यपि बाद में पहले
दो ने अपना पक्ष बदल कर मार्क्स को त्याग दिया। डा0 रामविलास शर्मा गांधीवादी विचारधारा की कड़ी आलोचना ‘हंस‘ पत्रिका में लिख रहे थे। ‘तार सप्तक‘
के छपने तथा प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन में
उनकी भूमिका को बहुत ही ‘ध्वंसकारी‘ बताया जा रहा था। ध्यान रहे ‘तार सप्तक‘ के पहले और बाद में भी प्रगतिशील कविता में अति सरलीकरण तथा
यांत्रिकता की दुर्बलतायें घर कर चुकी थी। रूस की ‘लाल सेना‘ तथा ‘लाल सलाम‘ की बातें ज्यादा थी। कविता कम। केदारनाथ अग्रवाल ने ‘युग की गंगा‘ की भूमिका में अपने समय को, ‘समाजवाद, यथार्थावाद, प्रगतिवाद तथा
मार्क्सवाद का युग‘ बताया है।
त्रिलोचन भी इसी पथ के पथिक थे। एक तरह से देखा जाये तो ‘तार सप्तक‘ से आज़ादी मिलने
तक गिरिजाकुमार माथुर का ‘नाश और निर्माण‘,
केदारनाथ अग्रवाल का ‘युग की गंगा‘ तथा निराला का ‘नये पत्ते‘
प्रगतिशील काव्य परंपरा की महत्वपूर्ण कृतियाँ
हैं। नागार्जुन का लेाकधर्मी स्वर अति मुखर था। शिवमंगल सिंह ‘सुमन‘ के प्रगतिशील स्वर भी गूँज रहे थे।
मुक्तिसंग्राम की
प्रारंभिक स्थिति की तरह साहित्य में भी परिवर्तनकामी विचार निजी प्रयत्नो तक ही
सीमित नही रहे। विश्व के महान जनवादी लेखक गोंर्की ने विश्व के लेखकों से अपना पक्ष
स्पष्ट करने का आग्रह किया। प्रलेस की स्थापना इसी प्रेरणा का सुफल है। इस संगठन
को उन सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद, भारतीय सामंतवाद-उपनिवेशवाद तथा फासिज़्म
का विरोध कर रहे थे। संकेत था कि लेखकों
को भी जन विरोधी ताकतों के विरुद्ध संगठित
होकर संघर्ष के लिये आगे जान जरूरी है। यानि साहित्य को जन संघर्ष के लिये एक अस़्त्र
की तरह काम में लाने की सूझ-बूझ महसूस की गई। हमारे यहाँ आचार्य मम्मट ने काव्य के
उद्देश्यों में से एक उद्देश्य ‘शिवेतर क्षतये‘
भी बताया है। अर्थात् जो कुछ भी जनविरोधी है
समाज में साहित्य के माध्यम से उसके क्षरण के लिये संघर्ष करना। समर्थन तो प्रलेस
का रवि बाबू भी कर रहे थे । उनकी प्रसिद्ध कविता ‘निर्झरेर स्वप्न भंग‘ में मुक्तिसंग्राम की ध्वनि भी है-
भाँग भाँग भाँग
कारा
आघाते आघात कर-
लेकिन
प्रेमचंद का समग्र साहित्य ही मुक्तिसंग्राम की मूल चेतना को बहुत बड़े फलक पर
प्रतिबिंबित करता है। ‘रंगभूमि‘ में सूरदास जैसे जीवंत चरित्र के बहाने वह विदेशी
कंपनियों की शक्ल में साम्राज्यवाद के बढ़ते आतंक का विरोध करते हैं। उनके यहाँ
संगठित किसान, सामंतों तथा
अफसरशाही के विरुद्ध खड़े होते हैं। इस जन उभार को दबाने के लिये सामंतो तथा सत्ता
की साँठ गाँठ से पुलिस गोलियाँ दागती है। किसान मरते हैं। आज का कोई भी कथाकार
साम्राज्यवाद- सामंतवाद -अफसरशाही के विरुद्ध इतना तीखा तथा चुनौती पूर्ण प्रतिरोध
क्यों नहीं दिखा पा रहा है। मैं ने ‘हंस‘ में आज तक ऐसी कोई्र
कहानी नहीं पढ़ी जो प्रेमचंद के इस तीखे प्रतिरोध को और तीखा तथा आक्रामक बना कर
विकसित कर सके। जबकि स्थितियाँ पहले से कम जन विरोधी नहीं हैं! इसी लिये मुझे लगता
है कि आज अखिल भारतीय स्तर पर ‘प्रगतिशील
पुनर्जागरण‘ की बेहद जरूरत है। यही एक तरीका है जिससे आज हम प्रगतिशील-जनवादी-लोकधर्मी
विचारधारा की प्रांसगिकता को पुनः स्थापित कर पायेंगे। काश ‘नयापथ‘ के इस महत्वपूर्ण
उपक्रम को हम उक्त महान कार्य का प्रस्थान बिंदु मान पाते !
कहना न होगा
प्रलेस से जुडे लेखकों ने मुक्तिसंग्राम में संघर्षरत अपने तत्काल पूर्व के लेखकों
द्वारा बनाई गई संघर्षधर्मी परंपरा को विकसित किया। उसे धारदार बनाया। सही दिशा दी।
अग्रगामी साहित्य की प्रक्रिया को सुनिश्चित कर और आगे बढ़ाया। एक प्रकार से उसे
पुनःजीवित किया। प्रलेस के गठन से हमें कुछ नये वैचारिक-दार्शनिक आयाम मिले। एक तो
हमने यह जाना कि अब तक आविर्भूत समूचे समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष तथा वर्ग
द्वंद्व का इतिहास रहा है। अर्थात् शोषक तथा शोषित वर्गशत्रु के रूप में एक दूसरे के
साथ सह-अस्तित्व रखते हुये भी परस्पर विरुद्ध तथा संघर्षरत रहे हैं। विपरीत तत्वों
की एकरूपता का यह मार्क्सीय सिद्धांत इस तरह आज तक अटल है। इस संघर्ष में या तो
समाज का क्रांतिकारी पुनर्गठन होता है। जनांदोलनों की गति तीव्र होती है। या फिर
संघर्षरत वर्गों का ध्वंस। दूसरे, हमें एक ऐसी
बिल्कुल नई विश्वदृष्टि प्राप्त हुई जो सर्वहारा की वैश्विक क्रांतिकारी शक्ति को
हर स्थिति में अपराजेय मानती है। सामंतवाद, पूँजीवाद तथा
साम्राज्यवाद की अमानवीय क्रूरताओं पर हम सर्वहारा की शक्ति से विजय पा सकते हैं।
तीसरे, हमें एक ऐसा द्वंद्वपरक
भौतिकवादी दर्शन प्राप्त हुआ जो हमें दुनिया को समझने के साथ-साथ उसे मूलतः बदलने
की वैज्ञानिक प्रविधि बताता है।
प्रलेस से जुड़े लेखकों की यही वैचारिक शक्ति थी -
आज भी है -जो उन्हें लोक तथा संघर्षशील जनता के साथ एकात्म करती है। लेखकों की
संगठित शक्ति का समाज को भी एहसास हुआ। कदाचित यह पहली बार माना गया कि लेखक बिना
जनता के संघर्ष में शिरकत किये न तो बड़ा बन सकता है। न अपना सामाजिक दायित्व निभा
सकता है। पूर्ववर्ती लेखक मुक्तिसंग्राम
की प्रेरणा से संघर्ष तो कर रहे थे। पर उनकी सही सांस्कृतिक दिशा क्या हो -इसके
बारे में वे बहुत साफ न थे। हमारी रचना का केंद्रीय कथ्य क्या हो। जनता के संघर्ष
को कलात्मक पूर्णता के साथ कैसे असरदार
बनायें। प्रलेस से जुड़े लेखकों का यह एक नैतिक दायित्व माना गया कि उनके सृजन में
भारतीय संघर्षशील जनता की धड़कने सुनाई पड़ें। उनका लेखन सिर्फ मुठ्ठी भर लोगों या
राजदरबार तक सीमित न होकर जनता तक पहँचे।
लेखकों का ‘सृजनविजन‘ अब स्वाधीन भारत में एक समाजवादी समाज की स्थापना
का था। साहित्य में यह अभिलक्षणा एकदम नई तथा मौलिक थी। पर जड, रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी राजनीति से जुड़े लेखक
इस नई प्रगतिशील सृजन विश्वदृष्टि को राजनीतिक प्रचार कह कर इसका विरोध कर रहे थे।
तीखे प्रहार भी। उनके अनुसार साहित्य राजनीति निरपेक्ष सृजन है। कला का लक्ष्य
सिर्फ ‘कला‘ ही है। औेर कुछ नहीं। ये दोनों परस्पर विरोधी
प्रवृत्त्यिाँ साहित्य में आज भी मुखर हैं। उनसे जनवादियों का संघर्ष जारी है। जब
प्रगतिशीलों तथा कलावादियों में संघर्ष तीखा तथा तेज़ हुआ तो प्रगतिशील-जनवादी
साहित्य के लिये व्यापक समर्थन मिलने लगा। ‘इप्टा‘ तथा अन्य भारतीय
भाषाओं के अग्रगामी साहित्यिक संगठनों ने प्रगतिशील साहित्य का व्यापक समर्थन किया
।
प्रलेस संगठन
बनने के एक दशक बाद 1947 में हमें
राजनीतिक आज़ादी मिली। सत्ता हस्तांतरण की इस महान घटना से देश में नई जाग्रति पैदा
हुई। पर दुर्भाग्य से मुक्तिसंग्राम प्रक्रिया के दौर में एकत्र हुये लेखक टूट गये।
मतभेद गहरे हुए। सत्ता का वर्ग चरित्र तथा आगे की दिशा को ले कर उठे विवादों ने
लेखकों को विभाजित कर दिया। मार्क्सवादियों ने अपनी विश्वदृष्टि तथा लक्ष्य साफ
किये। गैरमार्क्सवादियों से अपने मतभेदों के पुख्ता कारक भी बताये। पर बात न बनने
से प्रलेस विभाजित हुआ। मार्क्सवादियों तथा गैर-मार्क्सवादियों में संघर्ष गहरा
तथा तीखा होने लगा। यह संघर्ष लगातार आज तक जारी है। हालांकि उसमें न तो उतना
तीखापन है। न उतनी आक्रामकता। बाद में साम्यवादी दल में विभाजन हुआ। प्रलेस के
समानांतर जलेस वजूद मे आया। अब यह संघर्ष त्रि-आयामी बना। प्रलेस तथा जलेस सत्ता
के वर्ग चरित्र को लेकर संघर्षरत रहे। प्रलेस वर्ग संघर्ष तथा सर्वहारा के वर्चस्व
का विचार त्याग कर वर्ग सहयोग तथा बुर्जुआ सत्ता से साँगाँठ की राजनीति में रस
लेने लगा। वह आज भी है। इससे प्रलेस से जुड़े लेखकों में ‘उदारता‘ के नाम पर घोर अवसरवाद पनपना शुरू हो गया। अब
इन्हें मार्क्सवाद से पहले ‘मानवतावाद‘, ‘अस्मिता‘ तथा लेखक की समाज से ‘निस्संगता‘ याद आने लगे।
मार्क्सवाद तथा अस्तित्ववाद का घालमेल कर नये भ्रम पैदा किये गये। यानि मार्क्सवाद
मानवतावाद से जैसे कोई अलग चीज़ हो। इस तर्क ने प्रलेस के लेखकों को वर्गचेतना,
सर्वहारा की अजेय शक्ति, समाज में चल रहे वर्ग संघर्ष तथा इतिहास की अटल द्वंद्वमयता
के प्रति अन्यमन बनाया। अब मार्क्सवादियों को एक तरफ उदारपंथियों से लड़ना पड़ा।
दूसरी तरफ व्यक्तिनिष्ठ-कलावादी तथा रूपवादियों से संघर्ष तीखा हुआ। अज्ञेय 1947 में ‘प्रतीक‘ के माध्यम से प्रगतिशील
विरोधी रुख अपना रहे थे। उन्हें वर्गचेतना, सर्वहारा, वर्गसंघर्ष, समाजवाद तथा
सामाजिक यथार्थ की बाते बेतुकी तथा अप्रासंगिक लग रही थीं। उसी समय प्रयोगवादियों
ने प्रगतिशीलों पर गहरे प्रहार किये। बल्कि कहें ‘प्रयोगवाद‘ का आरंभ ही प्रगतिशीलता
के तीखे विरोध से हुआ था। 1952 के आस पास डा0 नामवर सिंह भी प्रयोगवादियों के साहित्य को ‘समाजनिरपेक्ष - मध्यवर्गीय मानसिक बीमारियों का
सहानुभूतिपूर्ण औेर मोहक अलंकरण‘ मानते थे । पर 1968 में उनकी यह धारणा बदल गई। 1958 के आसपास श्रीकांत वर्मा प्रगतिशील समीक्षकों
को, ‘ मनुष्य की आत्मा को
कुचलने वाली सैनिक प्रकृति‘ से ग्रस्त बताने
लगे थे। पूरा ‘परिमल समूह‘
- धर्मवीर भारती तथा विजयदेवनारायण साही आदि –मार्क्सवादी
लेखकों पर चारों तरफ से प्रहार कर रहे थे। इस तीखे वैचारिक संघर्ष के बावजूद
प्रगतिशील-जनवादी काव्यधारा तथा मार्क्सवादी समीक्षा बराबर विकसित होते रहे। प्रो0 चंद्रबली सिंह, डा0 रामविलास शर्मा,
शिवदान सिंह चौहान तथा प्रकाशचंद्र गुप्त आदि
गैरमार्क्सवादियों के तर्कों का विधिवत उत्तर दे रहे थे।
निराला
प्रगतिशील-जनवादी चेतना की उर्वरभूमि ‘तोड़ती पत्थर‘, ‘कुकुरमुत्ता‘
तथा ‘नये पत्ते‘ में तैयार कर
चुके थे। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,
मुक्तिबोध, त्रिलोचन तथा शील आदि ने उसे और धारदार तथा लक्ष्यसूचित
बनाया। इनमें सबसे प्रतिरोधी तथा आक्रामक स्वर नागार्जुन तथा केदार बाबू का था। 1952 में प्रकाशचंद्र गुप्त की समीक्षा पुस्तक,
‘हिंदी साहित्य: एक दृष्टि‘ छपी थी। इस पुस्तक की दृष्टि पूरी तरह
मार्क्सवादी थी। जैसे ‘आलोचना का
मार्क्सवादी आधार‘ , ‘प्रगतिशील आलोना
के मान‘ , ‘हिंदी आलोचना में
प्रगतिवाद‘, ‘मार्क्सवाद और
भाषा की समस्या‘ तथा ‘प्रेमचंद की परंपरा‘ आदि ऐसे आलेख है जिन में उस समय के वैचारिक संघर्ष का
प्रतिबिंबन साफ झलकता है। यह पुस्तक छपी भले ही 1952 में, पर 1946 में इन आलेखों को लिखना प्रारंभ कर दिया था। इस पुस्तक के परिशिष्ट में तीन
महत्वपूर्ण आलेख और है। एक, ‘साहित्य में
संयुक्त मोर्चा‘. दो,
‘साहित्य और राजनीति‘। तीन, ‘साहित्य और जनता‘। इन आलेखों को पढ़ कर लगता है कि उन दिनों
साहित्यिक संघर्ष कितना तीखा तथा लक्ष्यसूचक था। क्या यह संघर्ष आज भी उतना ही
तीखा और लक्ष्यसूचक है! यदि नहीं तो क्यों?
हम उसे और तीखा क्यों नहीं बना पा रहे हैं जबकि स्थितियाँ पहले से भी ज्यादा
जनविरोधी तथा आक्रामक हैं। पूँजी का शिकंजा क्रूर हुआ है। साम्राज्यवाद ज्यादा
खतरनाक- एकध्रुवीय।
प्रगतिशील-जनवादी
संघर्षशील साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को 1968 में गहरा आघात पहुँचा। आघात पहँचाया ‘कविता के नये प्रतिमान‘ पुस्तक ने। क्रूर विडंबना यह कि लेखक स्वयं ख्यातिलब्ध
प्रगतिशील आलोचक हैं। सबसे पहले डा0 रामविलास शर्मा
ने इस पुस्तक को बड़ी गंभीरता से जाँचा परखा। उसे ‘प्रगतिशील कविता के विरोध में खड़ी‘ पुस्तक बताया। उनके आरोप
न सिर्फ सही थे बल्कि बड़े गंभीर भी थे। डा0 शर्मा के अनुसार, ‘नामवर सिंह ने इलियट और सार्त्र को ही नहीं, विस्मार्ट, क्लीन्थ ब्रुक्स, डेनाल्ड डेवी, फ्रैंक कर्मोड, विलियम एम्पसन, गिलबर्ट राइल, रिचर्ड ब्लैकमर आदि से‘ ‘औपनिवेशिक
आधुनिकता‘ तथा ‘रूपवाद‘ निचोड़ कर इस पुस्तक को अमरीकी नई समीक्षा का हिंदी संस्करण
बना दिया है। यह वह प्रस्थान बिंदु है जहाँ एक ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी कहे जाने
वाले लेखक द्वारा जनवादी-प्रगतिशील कविता
को ‘अमरीकी नई समीक्षा‘
के भरोसे छोड़ दिया गया। बड़ी चतुराई से प्रगतिशील-जनवादी
आन्दोलन को रूपवादी-कलावादी मोड़ देने के प्रस्ताव किये गये। मार्क्सीय शब्दाली
जैसे वर्ग चेतना, वर्गसंघर्ष, सर्वहारा, ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता आदि शब्दों को वर्जित समझा गया।
मार्क्सीय मुहावरा ‘सापेक्ष
सवायत्तता‘ की जगह अस्तित्ववादी शब्द
‘अस्मिता‘ पर जोर दिया गया।
कविता को सामाजिक संदर्भों से
अलगा कर देखने का तर्क सामने आया। मुक्तिबोध को परिशिष्ट में रख ‘अँधेरे में‘ कविता को ‘परम अभिव्यक्ति
की खोज‘ कहा गया। नागार्जुन,
केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन को मुख्य धारा से ढकेल हाशिये से भी बाहर कर दिया
गया। इस पुस्तक को कलावादी-रूपवादी तक, प्रमाण स्वरूप, अपने पक्ष में
व्याख्यायित करने लगे। ‘भारत भवन समूह‘
लगातार प्रगतिशील-जनवादी कविता को राजनीतिक
प्रचार बताने में आगे आया। सहारा लिया गया,‘कविता के नये प्रतिमान‘ का। विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, कुँवरनारायण आदि हाशिये के कवि ‘कविता के नये प्रतिमान‘ में मुख्यधारा के कवि लगने लगे। प्रगतिशील -जनवादी कविता के
विरोध में खड़ी इस पुस्तक का पर्याप्त विरोध क्यों नहीं हुआ? साहित्येतर कारणों से
विश्वविद्यालीय पेशेवर समीक्षक समकालीन कविता को परखने के लिये इसे माडल के रूप
में प्रस्तुत करते रहे। नतीजा यह हुआ कि कविता के पाठकों में ‘औपनिवेशिक आधुनिकतावादी‘ आस्वाद निर्मित होता गया। उसका असर प्रगतिशीलों-जनवादियों
दोनों पर पड़ा है। कविता से ‘लोक‘ की दूरी बनाई गई। श्रमियों तथा किसानों के
क्रियाशील बिंब कविता से गायब होने लगे। सिर्फ मध्यवर्गीय जीवन के सीमित चित्रों
की कविता में भरमार हुई। किसानों- श्रमियों के कठिन जीवन के चित्र विरल हुये। संघर्षधर्मी
लोक, खेत–खलिहानों,
जनपदों तथा प्रकृति के प्रतिबिंबन को पिछड़ी
मानसिकता कहा जाने लगा। तब से आज तक यह स्थिति बनी हुई है। उक्त समीक्षा पुस्तक से
प्रगतिशील कविता तथा समीक्षा की जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना बहुत कठिन है।
इसमें संदेह नहीं कि हमारे बड़े प्रगतिशील-जनवादी
कवि नागार्जुन आदि की घोर उपेक्षा के बावजूद उनकी लोकधर्मी कविता निरंतर विकसित
होती रही। कुमारेंद्र, मानबहादुर सिंह, कुमार विकल, शलभश्रीराम सिंह, वेणुगोपाल, आदि ने उसे अपने अपने ढंग से विकसित किया। आज
के अनेक कवि ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, अरूणकमल आदि ने उसे आगे बढ़ाने के यत्न तो किये
हैं। पर उसकी धार कुंद है। गति मंद। न तो पूँजीवाद साम्राज्यवाद के विरुद्ध तीखा
प्रतिरोध है। न उनकी कविताओं में संघर्षशील जनता की उभरती जनशक्ति का एहसास।
दूरदराज के जनपदों में युवा कवि जनवादी कविता लिख रहे हैं। पर उसे अपेक्षित
ऊँचाइयों तक ले जाने के लिये उनके सामने बड़ा संघर्ष तथा चुनौतियाँ शेष है। यह
चिंता का विषय है कि ज्यादातर लोगों का रुझान ‘रूपवाद‘ की ओर ही है।
कविता में राजनीति से परहेज़ क्रमशः बढ़ रहा है। कई बार लगता है क्या हम फिर ‘नई कविता‘ की ओर ही तो नहीं लौट रहे हैं! प्रगतिवादी-जनवादी समीक्षा
की स्थिति बहुत प्रेरक नहीं है। प्रो0 चंद्रबली सिंह, डा0 रामविलास शर्मा, शिवकुमार मिश्र, चंद्रभूषण तिवारी, कुँवरपाल सिंह,
डा0 ओमप्रकाश ग्रेवाल, डा0 आनंद प्रकाश, मुरलीमनोहर
प्रसाद सिंह आदि ने मार्क्सवादी समीक्षा को आगे बढ़ाया है। इधर मार्क्सवादी दृष्टि
से लोकधर्मी समीक्षा को डा0 जीवन सिंह,
प्रो0 रेवतीरमण तथा डा0 रमाकांत शर्मा
नया रूप देने में संघर्षरत हैं।
यह सब होते हुए
भी हमें अपने सृजन कर्म तथा वैचारिक संघर्ष से संतुष्ट होने की जरूरत नही है।
स्थिति बहुत प्रेरक भी नहीं है। सुपरिचित मार्क्सवादी समीक्षक डा0 आनंद प्रकाश ने अपनी सद्य प्रकाशित महत्वपूर्ण
समीक्षा कृति, ‘समकालीन कविता:
प्रश्न और जिज्ञासायें‘ में कुछ बहुत ही
गंभीर सवाल उठाये हैं। उन बातों पर गौर करें तो ‘पिछले दो तीन दशकों में अधिकांश कविता में‘ ,‘मानवीय सामाजिक जिम्मेदारी‘ तथा ‘जनता के शेाषण के स्वरूप को स्पष्ट दृष्टिकोण‘ से नहीं समझा जा रहा। बल्कि, ‘ हिंदी की अस्सी फीसदी कविता में बुर्जुआ कविता के रूप’ दिखाई देते हैं। अतः ‘समाजवादी या शोषण विरोधी विजन‘ के बिना सार्थक कविता संभव‘ नहीं है‘। मुझे डा0 आनंद प्रकाश की चिंतायें बहुत ही प्रासंगिक
तथा जरूरी लग रही हैं। उन पर गौर किया जाना चाहिए।
क्या वजह है
हमारा वैचारिक संघर्ष अब उतना तीखा नहीं रहा। वह उतना लक्ष्यसूचक भी नहीं है। हमने
प्रगतिशील-जनवादी कविता की गौरवशाली परंपरा को विस्मृत किया है। हमारे मन में
मुक्तिसंग्राम के जनसंघर्ष की अनुगूँजें नहीं कौंधती। हममें से अनेक ‘स्वपक्ष‘ त्याग चुके हैं। अनेक शिखरस्थ लेखक पथभ्रष्ट हुए हैं।
उन्हें ‘लेखकीय प्रतिबद्धता
, ‘गाय का खूँटा‘ लगती है। कुछ ने अपना आचरण खोया है। वे
तुच्छताओं के पीछे भाग रहे हैं। हमसे सवाल किया जाता है कि ‘जनवादी क्या ऐसे ही होते‘ हैं? ऐसे सवालों का जवाब हमें अपने उत्कृष्ट जनवादी लेखन,
मार्क्सीय वैचारिक प्रतिबद्धता तथा जनवादी आचरण से ही
देना होगा। क्या आज यह जरूरी नहीं कि हम बड़ी निर्ममता से आत्मालोचन करें। आखिर
क्या वजह है कि लेखक पाठक हमारी तरफ आकर्षित नहीं होते। जनपक्षधर पत्रिकायें बाज़ार
के प्रभाव में व्यावसायिक हो रही हैं। मार्क्सवादी विचारधारा -उसका सौंदर्यशास्त्र
तथा उसकी तत्वमीमांसा के विषय में न कोई चर्चा है, न बहस। न संवाद। ऐसा लगता है
जैसे एक बार मार्क्सवाद पढ़ कर हमने अपना दायित्व पूरा कर लिया। या फिर मार्क्सवाद
अब अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
मार्क्सवाद की
प्रासंगिता के संदर्भ में यहाँ मुझे तीन पुस्तकों की चर्चा करना उचित लग रहा है।
एक है, ‘द इथिकल डाइमैन्शन्स आफ
मार्क्सिस्ट थाट‘। यह छपी है 2008 में। इसके लेखक हैं कार्नैल वैस्ट। पुस्तक का
मुख्य तर्क है कि ,‘स्वतंत्रता सेनानियों
को मार्क्सवादी विचार -परंपरा अपरिहार्य है‘ ..... हमारे समय की
प्रमुख विडम्बना है कि सोवियत संघ के पतन के बाद मार्क्सवाद और अधिक प्रासंगिक हुआ
है‘। दूसरी पुस्तक है ‘हाउ टू चैन्ज द वर्ल्ड: टेल्स आफ मार्क्स एण्ड
मार्क्सिज्म।' पुस्तक छपी है 2011 में। लेखक हैं
ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी इतिहासकार इरिक हौब्सवाम। पुस्तक की केंद्रीय स्थापना है
कि ‘एक बार फिर मार्क्स को
गंभीरता से समझने का समय आगया है।‘ यह भी कि ‘21 वी सदी मार्क्स की सदी होगी‘। तीसरी पुस्तक है, ‘मार्क्सिस ऐकोलोजी‘। लेखक हैं जान बैलामी फोस्टर। प्रकाशन हुआ है सन 2000 में। पुस्तक में प्रकृति के अंध विदोहन के बारे में मार्क्स
की गहरी चिंता व्यक्त की गई है।
मार्क्स का मानना है कि पूँजीवादी व्यवस्था में
प्रकृति तथा मनुष्य के बीच एक ‘ ‘मैटाबोलिक रिफ्ट‘
पैदा होता हैं। अतः हम प्रकृति के प्रति क्रूर
होते जाते हैं। ये तीनो पुस्तकें इक्कीसवी सदी में मार्क्स की प्रासंगिकता की ओर
संकेत करती हैं। मेरा विचार है मार्क्सवाद लगातार पढ़ने-समझने-दुहराने की माँग
करता है। हर जनवादी लेखक को उसका अध्ययन एक सतत प्रक्रिया बने। क्रूर होते
पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद के इस दौर में मार्क्स की प्रासंगिकता बहुत ज्यादा है। दुनिया
भर में पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद की नीतियों का विरोध हो रहा है। लैटिन अमरीका
में जनपक्षधर सत्ता वजूद में आ रही हैं। मेरे बिल्कुल पड़ौस नेपाल में जनपक्षधर सरकार
वजूद में आई। बुर्जुआ भी आज मार्क्स की ‘पूँजी‘ में निहित रहस्यों को समझना चाहता है।
नये प्रगतिशील तथा जनवादी लेखकों से बातचीत करते पता चलता है कि वे मार्क्स के बारे में अनजान हैं। कुछ नये लेखक जोश में
आ कर मार्क्स को बिना पढ़े ही ‘मार्क्स से आगे‘
की बात कह रहे हैं। कैसी बिडम्बना है जिन
स्थितियों से संघर्ष करने के लिये मार्क्सवाद पैदा हुआ अभी उनसे निजात कहाँ मिली
है। तो मार्क्स से आगे की बात करना क्या हास्स्यास्पद नहीं है। जनपक्षधर पत्रिकाओं
का क्या यह दायित्व नहीं कि वे पाठकों को मार्क्सवादी तत्वमीमांसा तथा उसके
सौंदर्यशास्त्र के बारे में भी प्रशिक्षित करें। मार्क्सीय चिंतन पर कोई गंभीर लेख, बहस या विमर्श पत्रिकाओं से गायब है। हमारे
लेखक संगठन भी मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाने के लिये व्यावहारिक कार्य योजनायें
बना सकते हैं। हम प्रतिकूलतम स्थितियों में जी रहे हैं। इतिहास द्वारा प्रदत्त इन
स्थितियों में संघर्ष करके उन्हें अपने अनुकूल बनाने के सिवा अन्य कोई्र विकल्प
नहीं है। संघर्ष से ही पथ आलोकित होता है। अतः प्रगतिशील-जनवादी महान गौरवशाली
संघर्षशील परंपरा को पुनः व्यापक तथा असरदार बनाने के लिये हमें ‘प्रगतिशील पुनर्जागरण‘ की बेहद जरूरत है। जनता को विजयी नहीं तो अपराजेय तो दिखा
सके। जिधर अन्याय है आज शक्ति भी उधर है। हमें अपनी संघर्षशील जनता की अपराजेय
शक्ति पर भरोसा करने के लिये उससे एकात्म होना जरूरी है। आज जो विजेता बने हैं वे
रक्तपायी हैं -
खुला राज विजयी
कहाये हुए हैं
लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं.
ऐतिहासिक महत्व के इस लेख के लिए पहली बार को बधाई ...यह फेसबुक और ब्लॉगों की दुनिया का एक बड़ा दुर्भाग्य है , कि ऐसे महत्वपूर्ण लेख भी अदेखे रह जाते हैं ...|
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