शेखर जोशी के नाम एक खुला पत्र
हम सब के शेखर दादा इस १०
सितम्बर को ८० बरस के हो जायेंगे. हिन्दी कथा साहित्य को कई अप्रतिम कहानियाँ देने
वाले कोसी के घटवार के जन्मदिन पर पहली बार उन पर केन्द्रित कुछ नवीनतम सामग्री श्रृंखलाबद्ध
ढंग से प्रस्तुत करने जा रहा है. यह सुखद है कि शेखर जी पर लिखने वाले सभी साथी
युवा हैं और उनके मन में शेखर जी के प्रति गहरा आदर और सम्मान है. इस यादगार अवसर
के लिए हमारे आग्रह पर शेखर दादा ने पहली बार के लिए एक संस्मरण भी लिखा है जिसे
हम उनके जन्म दिन १० सितम्बर को प्रस्तुत करेंगे.
इस क्रम में पहली कड़ी के
रूप में प्रस्तुत है युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा का शेखर जी के नाम खुला पत्र.
आदरणीय शेखर जोशी
जी ,
’मेरा पहाड़’ के प्रथम संस्करण के प्रकाशन के लगभग दो दशक बाद पिछले
दिनों एक बार पुनः मैंने आपके इस कहानी संग्रह की कहानियाँ पढ़ी। बहुत मार्मिक और
यथार्थपरक कहानियाँ हैं जो देर तक कहीं भीतर गूँजती रहती हैं। इनमें कुमाउँ का
समाज और प्रकृति जिस तरह जीवंत हो उठते है उससे आपकी अपनी जमीन के प्रति गहरी
संपृक्ति का पता चलता है। इन कहानियों में आए पात्रों और उनकी जीवन-स्थितियों से
लगभग रोज ही मिलना हो जाता है, कभी घर के भीतर
तो कभी घर के बाहर। उनसे बातें भी होती हैं। उनके दुःख-दर्द तथा हर्ष-उल्लास का
हिस्सा भी बनता हूँ। आज मन हुआ कि आपको एक पत्र लिखूँ और बताऊँ कि आपका देखा-भोगा
पहाड़ आज कैसा है? आपकी कहानियों में आए पात्र आज किन हालातों में हैं और उनकी
परिस्थितियाँ कितनी बदली हैं। शायद आप भी इन बातों को जानने के इच्छुक हों।
इस कोण से जब मैंने इन कहानियों का पाठ किया
तो शेखर जी आपको आश्चर्य होगा कि अभी भी पहाड़ की परिस्थितियाँ और समस्याएं बहुत
अधिक नहीं बदली हैं, जब कि इन कहानियों को लिखे जाने और पढ़े जाने के बीच एक बड़ा
परिवर्तन घटित हुआ है -उत्तराखंड एक पृथक राज्य का दर्जा पा चुका है। जैसा कि आप
पृथक राज्य आंदोलन के संघर्ष और उससे जुड़ी स्थानीय जनता की आशाओं-आकांक्षाओं और
स्वप्नों से अवगत ही हैं। लोगों को लगा था कि यदि पृथक राज्य बन जाएगा तो सरकार
जनता के करीब आएगी। वह जनता की भावनाओं और जरूरतों को अच्छी तरह समझेगी। पहाड़ की
परिस्थितियों के अनुसार योजनाएं बनेंगी। रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे। फलस्वरूप
जनता के हालातों में अंतर आएगा। जनता के स्वप्नों का उत्तराखंड कैसा होगा ?
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हमारे जन कवि गिर्दा
के स्वरों में इस प्रकार व्यक्त हो रहा था – ‘बैंणी फाँसी नी खाली जाँ रौ नि पड़ाल
भाई /मेरी बाली उमर नि माजौ तलिउना कढ़ाई ।......दुःख-बिमारी में मिली जौ
दवाई-अस्पताल।....जात-पात ,नान-ठुल को नी
होलो सवाल।......मैंसन हुँ घर कुड़ि हौ, भैंसन हुँ खाल /गोरू-बाछन हुँ गोचर हौ, चाड़-प्वाथन हुँ डाल।‘ पर सारे सपने धरे के धरे रह गए।
शेखर जी, भले ही एल0पी0जी0 के प्रभावों से देश के अन्य हिस्सों की तरह पहाड़ भी अछूता नहीं है। चाउमिन,
पिज्जा, पेप्सी-कोकाकोला, मोबाइल का नेटवर्क, बाइक के शो रूम और कार के
सर्विस सेंटर दूर-दराज तक पहुँच गए हैं पर यहाँ के लोगों की पीठ से ’बोझ’ अभी भी नहीं उतरा। यात्रियों का सामान पीठ में लाद पहाड़ों की चढ़ाईयाँ नापते
हुए आपकी कहानियों में आए उम्मेद सिंह या सोबन सिंह आज भी दिख जाते हैं। हाँ! कुछ
सोबन घोड़िया जरूर टैक्सी या जीप के ड्राइवर बन गए हैं। बनी-अधबनी कच्ची सड़कों में
अपनी जान-जोखिम में डाल कभी यात्री तो कभी सामान ढो रहे हैं। रोजगार की तलाश में ’मदनों’ का होटलों में
जाकर भाने-माँजने या कोई अन्य छोटी-मोटी नौकरी करने का सिलसिला भी नहीं रूका है।
सिर्फ नगर-महानगर बढ़ गए हैं। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, इलाहाबाद के साथ-साथ अब नैनीताल, हल्द्वानी, कोटद्वार, हरिद्वार, देहरादून उनके
आश्रयस्थल बन रहे हैं। आपकी कहानी ‘दाज्यू’ की तरह नौ-दस साल के मदन पढ़ने-लिखने की उम्र
में होटल में भाने-माँजते हुए अभी भी बहुत सारे दिख जाते हैं जहाँ अब उन्हें जगदीश
बाबू जैसा कोई ऊपरी सहानुभूति दिखाने और नाम-गाम पूछने वाला भी नहीं मिलता। मदन और
जगदीश बाबू के बीच का वर्ग अंतराल और बढा है। ’देबिया’ सुनिश्चित रोजगार
के अभाव के चलते आए दिनों नए-नए रोजगार के मंसूबे बांधने के लिए मजबूर है। ’देबिया’ कहानी में आपके द्वारा किया गया चरित्र-चित्रण आज के
ग्रामीण बेरोजगारों में भी सटीक बैठता है। ज्वान-जवान जितुवा आपको आज भी मोटर सड़क
के किनारे की दुकानों में गजेड़ियों की संगत में मिल जाएगा। दिन-रात गाँजे की दम
लगा के टुन्न। बाट-घाट में अनाप-शनाप बकता। अब तो वह गाँजे-अत्तर के साथ शराब भी
पीने लगा है। अलग राज्य बनने के बाद तो शराब का प्रचलन यहां बढ़ गया है। छोटे-छोटे
कस्बों में शराब विरोधी आंदोलन करते-करते महिलाएं थक चुकी हैं। आंदोलन के बदौलत
कहीं शराब की दुकान बंद हो जाती है तो वहां तस्करी बढ़ जाती है। अंततः इस तस्करी से
परेशान लोग शराब की दुकान खोलने की मांग करने लग जाते हैं।
शेखर जी, पहाड़ की खेती अभी भी घाटे का सौदा ही बनी हुई है। आधुनिक
कृषि विधियों का कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई दे रहा है। ’मिट्टी के साथ जिंदगी मिट्टी हो गयी। रात-दिन हाय-हाय करो, फिर भी पूरा नहीं पड़ता’ आपकी कहानी के ये स्वर और तीव्र हुए हैं। गाँव के लोग खेती-बाड़ी
की माया छोड़ कर शहर में जा कर कोई छोटा-मोटा धंधा करना अधिक श्रेयस्कर समझ रहे हैं।
जो थोड़े-बहुत मजबूरीवश खेती-बाड़ी करना भी चाह रहे हैं. बंदर-लंगूर-सुअर जैसे जंगली
जानवरों के खेती पर बढ़ते आक्रमण के सामने असहाय हैं। नित्यानंद ज्यू के लिए अपने
बीस-पच्चीस सेव-वृक्ष का बगीचा बचाना भी कठिन हो गया है। अब वे और उनकी बुढ़िया
उसकी देखभाल करने के लिए गांव में अकेले रह गए हैं। बहू-बेटे तो नौकरी और बच्चों
की अच्छी शिक्षा के लिए शहर जा चुके हैं।
अभी भी गाँवों में अच्छी शिक्षा की सुविधाएं कहाँ।
आप जिस बाह्मण किसान को ’हलवाहा’ कहानी में हल
चलाते हुए दिखाते हैं वह किसान दकियानूसी और झूठी शान के चलते आज भी उन्हीं शब्दों
को दुहराने के लिए विवश है- ‘भैय्या, कोई दूसरी जात का आदमी होता तो खुद ही जोत-बो लेता लेकिन हम
लोगों के लिए तो इसका भी निषेध है, बिरादर लोग जात-बाहर कर देंगे। बाल-बच्चे वाले आदमी को
रोटी-बेटी दोनों का ही ख्याल रखना पड़ता है। इतना पैसा पास में नहीं कि मजदूरी पर
हलवाही करवाओ। तब चारा क्या?’’ पिरमुंवा और
जमनिया ने हल की मूँठ छोड़ जीप-ट्रक का स्टेयरिंग पकड़ लिया है अब ’हलवाहा’ की उपलब्धता और कठिन हो गई है। आपने इस कहानी में गरीब
ब्राह्मण की पीड़ा और धार्मिक जकड़बंदियों को बहुत गहराई से व्यक्त किया है। इसके
पास ब्राह्मण होने की झूठी शान के अलावा कुछ नहीं है। उसकी आर्थिक स्थिति किसी दलित सर्वहारा से भिन्न
नहीं है। आपकी ’गलता लोहा’
कहानी इसका सशक्त उदाहरण है। आपने ’हलवाहा’ कहानी में इस विडंबना को बहुत सटीक ढंग से व्यक्त किया है
कि एक व्यक्ति की सामजिक-धार्मिक मान्यताओं पर आस्था न होने के बावजूद भी वह उनसे
बाहर नहीं निकल सकता है। उन मान्यताओं को छोड़ नहीं सकता है। यह सामाजिक बदलाव में
बहुत बड़ा वैरियर है। जात-बाहर होने का डर और सामाजिक कहलाने का मोह हमें उन
मान्यताओं को मानने के लिए भी बाध्य करता है जिन पर हमारी कोई आस्था नहीं होती।
शेखर जी, मेरी दृष्टि में
एक प्रतिगामी बात और हुई है कि जो ब्राह्मण कभी हल चलाते थे आज कुलीन ब्राह्मणों
की देखा-देखी और जातीय श्रेष्ठता की आकांक्षा में उन्होंने भी हल चलाना छोड़ दिया
है।
शेखर जी, यहाँ पर मुझे एक बात सकून देती है कि भले ही एक ओर ’हलवाहा’ की कम उपलब्धता
के चलते गरीब ब्राह्ण किसान की परेशानी बड़ी है लेकिन दूसरी ओर हलवाहे, तेली-ढोली, बढ़ई, लोहार आदि की
गुंसाई राठों में निर्भरता कम हुई है। फलस्वरूप इनका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व
विकसित हो रहा है। अपनी तरह से जीना सीख रहे हैं, जो स्वागत योग्य है। पर इसका
मतलब यह कतई नहीं है कि यहाँ छुआ-छूत समाप्त हो गया हो। अभी भी घर के बाहर आँगन के
किसी कोने में उलटे रखे खाना खाने के बर्तन, सवर्ण नौलों में पानी पाने के इंतजार में खड़े लोग, स्कूलों में अलग पाँत में बैठ भोजन करते बच्चे
तथा मंदिर के कपाट एक जाति विशेष के लोगों के लिए बंद दिख जाएंगे। शहरों तक में
किराया के कमरे देने से पहले जाति पूछने का फिनोमैना आम है।
आपकी ’समर्पण’ कहानी के बचुवा
का जाति असमानता के विरुद्ध संघर्ष अभी भी जारी है। उसने और उसकी जाति विरादरी ने
जनेऊ भी डाल लिया है। संध्या-पूजा भी करने लगे हैं। पर सवर्णों की नजर में वही हैं
जो पहले थे। छुपते-छुपाते ही सही उनके
स्पर्श के दोष से मुक्त होने के लिए अभी भी ’शुद्धि-शुद्धि’ कह कर जल के छींटे डालने के उदाहरण दिख जाएंगे। उसकी जाति-बिरादरी के मजदूर
अभी भी दरवाजे तक ही प्रवेश पा सकते हैं। हाँ, कानून की डर से होटलों या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर
चाय-पानी के गिलास या खाने के बर्तन धो कर अलग से नहीं रखने पड़ते हैं। गाँवों में
शिल्पकारों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। बी0पी0एल0 के अन्तर्गत सबसे अधिक
संख्या उन्हीं की है। आपकी कहानी के सेवक जी का यह विश्वास कि यदि अछूत लोग भी
यज्ञोपवीत धारण कर लेंगे तो वे उच्च वर्ग के धरातल पर आ जाएंगे, झूठा साबित हुआ है। ऐसा होना ही था क्योंकि
सेवक जी का जाति मुक्ति का यह प्रयास गलत दिशा में था। आपने इस कहानी में सवर्ण
मानसिकता पर बहुत गहरा व्यंग्य किया है। जाति से ऊपर उठ कर ही ऐसा व्यंग्य संभव
है। यह कहानी जहाँ समाप्त होती है उससे यह बात निकल कर आती है कि आर्थिक स्वालंबन
के बिना जाति सम्मान की लड़ाई लड़ना संभव नहीं है। मुझे लगता है बचुवा की
जाति-बिरादरी के लोग आत्मनिर्भर होते तो उन्हें इस तरह अपने मालिक राठों के यहाँ ’समर्पण’ नहीं करना पड़ता। वे अपनी लड़ाई को मजबूती से लड़ सकते थे।
आपने ’गलता लोहा’ कहानी में सवर्ण-दलित सर्वहारा की जिस एकता का
सपना देखा था उस दिशा में आज भी कोई प्रगति नहीं दिखाई देती है। बल्कि एक नए तरह
का तनाव उनके बीच पैदा हो गया है। सवर्णों को लगता है दलितों को मिलने वाले आरक्षण
से उनकी परेशानियाँ बड़ी हैं और उनके अवसर छिने हैं। पदोन्नति में आरक्षण समाप्त
करने को ले कर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के सामने आने के बाद तो यह तनाव मुखर
होकर सामने आ गया है। इन दिनों आरक्षण के समर्थन और विरोध में दो अलग-अलग आंदोलन
चल पड़े हैं जो दलित-सवर्णों के बीच एक नयी वैमनस्यता को जन्म दे रहे हैं। आने वाले
समय में किसी अप्रिय घटना की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
शेखर जी, आप ’गोपुली बुबु’ के हाल-समाचार जानना चाह रहे होंगे। वह आज भी अपने पुरखों
का घर देखने पहाड़ आने वाले भाई-भद्यौओं को पुराने दिनों के किस्से सुना रही है। आज
भी वह यही कह रही-दूध-दही का रोज ही अकाल हुआ हमारे गाँव में।......इन
डाँडों-टीलों वाले बज्जर देहात में क्या हो सकता था, न दवा न डाँक्टर ! ओ माँ-ओ बबा करती जाती रही बेचारी। मेरी
कुंतुली भी ऐसे ही छटपटाती हुई गई। (एक सौ आठ या खुशियों की सवारी चल गई हैं भला
पर उन्हीं स्थानों तक है इनकी पहुँच जहाँ तक सड़क है।) उसका तकिया कलाम ही हो गया
है- काल आ गया होगा, जाती रही। (ये काल भी कितना निर्दयी है गरीब-गुरबों के लिए
ही आता है।) शेखर जी, अस्पताल जरूर खुल
गए हैं जो उस समय ही खुल चुके थे जब आप यहीं थे लेकिन उनमें डॉक्टर और दवाइयाँ अभी
तक नहीं पहुँची। गोपुली बुबु उसी के इंतजार में बैठी है। अभी तक उसको यह संतोष
नहीं मिल पाया है - ’’हमारी तो कट गई ,अब जो बाल-बच्चे हैं वे अच्छे दिन देख लेते यही हमारा संतोष
था।’’ माफियाओं के बढ़ते प्रभाव
के चलते पर्यावरण पहले से अधिक खराब हो चुका है जिसने गोपुली बुबु की चिंता और अधिक
बढा दी है- ’’पहाड़ सब खोखले कर
दिए हैं। पेड़-पौधों का कहीं नाम नहीं है। जहाँ जिसके हाथ लग जाता है वह डाल-पात
नोच-काट ले जाता है। छोटे-छोटे लोग छोटे पेड़ों को उजाड़ते हैं बड़े लोग बड़ों को।
अजीब गदर मचा रखा है रे! ’’ इसी गदर का फल है
शेखर जी कि कहीं बादल फटता है या सामान्य से कुछ अधिक बारिश हो जाती है तो उससे
होने वाला नुकसान पहले से कई गुना बढ़ जाता है। पिछले दिनों उत्तर काशी के बारे में
तो आपने मीडिया में सुना-देखा ही होगा। एक दो-साल पहले यदि आप अल्मोड़ा आए होंगे तो
गरमपानी से काकड़ीघाट के बीच का दृश्य देखा ही होगा? पर क्या किया जाय गोपुली बुबु की कौन सुनता है।
’गोपुली बुबु’ के माध्यम से
आपने पहाड़ के साथ-साथ पहाड़ की स्त्री के दुःख-दर्द और संघर्ष को भी बहुत बारीकी और
मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। ’कोसी का घटवार’ भले ही एक प्रेम कहानी के रूप में अधिक चर्चित
है पर मुझे उसमें भी उस पहाड़ी औरत का संघर्ष दिखाई देता है जो कम उम्र में ही
विधवा हो कठिन संघर्ष कर अपने बच्चों को पाल-पोस रही हैं। चाहे आज पहाड़ों में घट
बहुत कम रह गए हों पर ’लछमाओं’ की कमी नहीं है। ’कथा-व्यथा’ की जीवंती की
व्यथा-कथा कहाँ कम हुई। उसकी पीढ़ियाँ गुजर गई है सत्यनारायण की कथा इस आशा में
सुनते हुए कि- ’’उसका जीवन दुःख-दारिद्रय, रोग-शोक से मुक्त हो कर
सुखमय व्यतीत होगा।’’ अभी भी वह इन्हीं
कल्पनाओं में खोई हुई है कि- ‘भगवान उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहेंगे-जीवंती! अब तेरे
जीवन में रोग-शोक, दुःख दारिद्रय मिट गए हैं! तेरी भगवती को मैं पुत्ररत्न
दूँगा। तेरे जमाई को देश में रोजगार मिल गया है! दा’जी के पास गिरवी पड़े अपने खेत तू इस वर्ष छुड़ा लेगी!-तेरे
गोठ में दो बैल बँध जाएंगे।‘ पर सत्यनारायण की
कथा में इतना दम जो होता तो पहाड़ की व्यथा कब के खतम हो चुकी होती। हर पूर्णमासी
या संक्रांति को घर-घर में यह कथा आम है।
शेखर जी, आप सोचते होंगे कि अब पहाड़ों में शिक्षा का बहुत
प्रचार-प्रसार हो गया है। लोग पढ़-लिख गए हैं। अंधविश्वास और रूढ़िवादिता खत्म हो
चली होगी। पर ऐसा नहीं है आपको आश्चर्य होगा कि आपकी ’रंगरूट’ कहानी की ये
पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रमाणिक हैं जितनी उस समय जब यह कहानी लिखी गई होगी ‘गांव में
रोग-व्याधि फैल जाए, सूखा पड़े या वर्षा-पाले की तबाही हो, लोग फूल-पाती, भेंट-चढ़ावा या
मुर्गा-नारियल ले कर झाऊ बाबा के थान पहुंच जाते।‘ आज भी झाऊ बाबा
के चमत्कार जिंदा हैं बल्कि गांव से शहर बस चुके लोगों के साथ शहर आ चुके हैं। ’गण्त-पूछ’ बदस्तूर जारी है। अंधविश्वास कहीं से भी कम हुआ नहीं लगता
है। अब हाइटेक हो चुका है। दिल्ली में बसे किसी व्यक्ति को पहाड़ के किसी गांव से
ही विभूति लगा दी जाती है। आपने सुना होगा पिछले साल मंदिरों में कटरा की बलि न
देने के संबंध में कोर्ट का आदेश आया था जिसका स्वागत होना चाहिए था। एक ऐसे पशु
को जिसका माँस कोई भी नहीं खाता उसे काट कर फेंक देना कहाँ तक उचित है? पर इस निर्णय को ले कर लोगों में गहरी नाराजगी
है। आपने अपनी कहानी में पहाड़ी समाज में व्याप्त अंधविश्वास का जिस सूक्ष्मता से
चित्रण किया है कहीं से नहीं लगता कि वह दो-तीन दशक पूर्व लिखी कहानी है। वह आज की
ही कहानी लगती है और बिल्कुल सच्ची। इधर इसमें एक विकास यह हुआ है कि पहले लोग झाऊ
बाबा के चमत्कारों के कायल थे अब सद्गुरु बाबा के चमत्कार भी गाँव-गाँव तक पहुँच
चुके हैं। खासकर महिलाओं में इनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। खेती-बाड़ी का जरूरी
काम छोड़ महिलाएं इनके प्रवचन सुनने को सत्संग केंद्रों की ओर उमड़ पड़ रहीं हैं।
शायद आपको उत्सुकता होगी कि ’आदमी का डर’ कहानी का हुणिया अब कहीं दिखता है या नहीं। आपकी तरह अपने
बचपन में हमने भी हुणियों को देखा था लेकिन अब ये कहीं नहीं दिखते। अब-’ले जंबू’ की हाँक कहीं नहीं सुनाई देती हैं। आपने इस कहानी में बच्चे
के मनोविज्ञान का जो जीवंत चित्रण किया है वह लाजबाब है। मुझे अपना बचपन याद हो
आया। पर आज के बच्चों के लिए वह बीते जमाने की बात हो चुकी है।
कुल मिला कर आपकी कहानियों ने एक बार पुनः पूरे
पहाड़ के अतीत और वर्तमान को देखने का अवसर दे दिया। मैं समझता हूँ इस रूप में ये
कहानियां हमेशा प्रासंगिक बनी रहेंगी। ये दलितों-वंचितों-स्त्रियों के जीवन की प्रामाणिक
प्रस्तुति हैं। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि पहाड़ को जानने-समझने के लिए
आपकी ये कहानियां महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। इन कहानियों में पहाड़ का जन-जीवन ही
नहीं बल्कि मानवीय संवेदनाओं और अंतर्द्वंद्वों का बारीक चित्रण भी बहुत कुशलता से
हुआ है। आप अपने पात्रों के अंतरतम में प्रवेश कर जाते हैं। साधारण बातचीत की भाषा
में जीवन की गहरी व्यंजनाओं को उभार देते हैं। आपकी भाषा-बोली जीवंत और
पात्रानुकूल है। भाषा में भी पूरा कुमाउँनी परिवेश उपस्थित हो उठता है। आपको यह जान कर दुःखद आश्चर्य होगा कि इन कहानियों
में आए लोक बोली के बहुत सारे शब्द आज लुप्त हो चुके हैं। आपकी इन कहानियों में
मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी आपके तमाम पात्र स्वाभिमान से भरे हुए हैं। गरीबी और
अभावों के बावजूद वे झुकते नहीं हैं। अंतिम हद तक संघर्ष करते हैं। साथ ही इन
कहानियों में आपकी, दुनिया के तलछट में पड़े लोगों के प्रति गहरी उष्मा और
आत्मीयता दिखाई देती है।
’वागर्थ’ के अप्रैल 1996 के अंक में चंद्रा पांडेय ने आपकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ’’शेखर जोशी की कहानियाँ सहज सीधे कथानक के सहारे
विकसित अति जटिल और सघन आंतरिक बुनावट की कहानियाँ हैं जो किसी निष्कर्ष का आग्रह
नहीं करती बल्कि आरंभ में एक आभास देकर ज्यों-ज्यों आगे बढती है, घनीभूत और
संवेदनापूर्ण होती जाती हैं।’’ मैं उनकी इस
टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ। आपका बिना शोरगुल के बहुत कुछ कह देना और जबरदस्ती
का कोई निष्कर्ष न प्रस्तुत करना प्रीतिकर लगता है। इसलिए ये कहानियाँ बार-बार
पढ़ने पर भी ऊब नहीं पैदा करती हैं। मुझे विश्वास है इनकी यह ताजगी हमेशा बनी
रहेगी। अभी इतना ही अधिक फिर कभी........यह सुखद संयोग है कि मैं यह पत्र लिख ही
रहा था समाचार मिला है कि आपको श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान प्रदान
किया जाएगा। निश्चित रूप से आप इस सम्मान के अधिकारी हैं। यह हाशिए में खड़े उन
तमाम पात्रों का सम्मान है जो आपकी कहानियों में आए हैं। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
आपका
महेश
चंद्र पुनेठा
जोशी
भवन
निकट लीड बैंक
पिथौरागढ़ 262501
(महेश चंद्र पुनेठा
एक जाने-माने युवा कवि और आलोचक हैं.)
पुनेठा जी को बधाई और धन्यवाद इस पत्र के लिए. शेखर जोशी की कहानियों को आज के पहाड़ की वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में पढ़ना और पुनर्पाठ करना प्रासंगिक लगा और यह देखना दुखद कि आज भी पहाड़ की स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं. प्रेमचंद ने एक बार कहा था कि मेरे साहित्य की सफलता इसी में है कि मेरा साहित्य अप्रासंगिक हो जाये और समाज में व्यापक खुशहाली कायम हो. शेखर दादा भी यही सोचते होंगे. हर बड़ा साहित्यकार यही सोचता है.
जवाब देंहटाएंयह हमारी विफलता है कि पहाड़ पर बदलाव सकारात्मक नहीं नजर आते.
शेखर दादा के लिए वास्तविकताएं अनजानी तो नहीं होंगी लेकिन उन्हें यह जरूर सुकून देने वाला लगेगा कि उन्होंने जो नजर दी है वह आज भी हमारे लिए पथ-प्रदर्शक है.
संतोष सर को बधाई, इस पत्र को यहाँ साझा करने के लिए.
महेश का यह खत इसलिए नहीं याद रखा जायेगा कि यह ८० वर्ष की उम्र पा रहे कथाकार को संबोधित है बल्कि इसलिए भी कि लगभग ६० साल पुराने इतिहास से टकराने के लिए वे ्शेखरदा की कहानियों को आधार बना रहे हैं। इस पत्रनुमा लेख के लिए महेश को बधाई और शेखरदा के ८० बसन्त को सलाम। शेखरदा पिछले इतिहास से समकालीन जीवन तक की यात्रा महेश ने आलेख के रूप में की उम्मीद है आप उसे भविष्य में किसी कथा के रूप में तलाशना चाहेगें। सच इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंपूरा पत्र पढ़ कर भावुक हो गई.. कहानी के पात्रों को जीवन में रोप कर किस तरह आपने पहाड की समस्याओं की और ध्यान आकृष्ट किया है वह लाजवाब है.. किसी लेखक के लिए इससे अच्छा तोहफा और क्या होगा..जोशी जी को जन्मदिन की शुभकामनाये.. पत्र लेखक को सलाम
जवाब देंहटाएंमहेश जी ,
जवाब देंहटाएंयक़ीनन शेखर जी महान रचनाकार हैं .उनके रचनाकर्म से पूरा देश वाकिफ है .आपने जिस तरह से अपने पत्र के माध्यम से उनके पात्रों से रूबरू करवाया है वह अद्भुत है .यह कठिन कार्य आप ही कर सकते थे .क्योंकि आपने उनके पात्रों का जीवंत स्वरूप देखा /जाना है .आप का पत्र पढकर यहाँ शेखर जी के पात्रों से गहरी सवेदना से जुड़ने का अवसर मिला वहीँ आपके संवेदनापूर्ण विश्लेष्ण से उन पात्रों को नई दृष्टि तथा वर्तमान संदर्भों में भी समझने का अवसर भी मिला .यक़ीनन आप साधुवाद के हकदार हैं ..
महत्वपूर्ण पत्र !
जवाब देंहटाएंमहेश जी जब लिखते है तब बस लिखते ही हैं, ऐसा कि पढने वाले को अतीत, वर्तमान और भविष्य के साक्षात दर्शन हो जायें. शेखर जी को दुर्भाग्य से मैंने पढा नही लेकिन जिन कहानियों का आपने जिक्र किया है उससे आभास हुआ कि उन्हें पहाड पर पत्ता भी हिले, उसकी खबर है. लेखक का यही धर्म भी है जिसे वह बखूबी निभा रहे हैं...पिछले वर्ष नैनीताल जाना हुआ था, मन ही मन रोता रहा कि प्रकृति ने कितना कुछ दिया है लेकिन इंसान ने उसे जरा भी न सराहा...रस्सी कंधों पर लादे पोर्टर्स को देखा तो लगा अभी भी आदिकाल में ही हैं हम. ५००० करोड के घर में रहने वाले गरीब भुक्कड इंसान जैसे ने देश के इस हिस्से को खूबसूरत बनाने, इसे सैलानियों से भरते, रोज़गार बढाने, आधारभूत निवेश करने में कोताही बरती है. सरकार ने पहाड बेच बेच कर अपने नेताओं की भुखमरी खत्म की और जनता तडपती ही रही..यही कर्राहटे शेखर जी का निचोड हैं. महेश जी आपका आभार इस परिचय के लिये, मेरा प्रणाम भी स्वीकारें शेखर जी के लिये भी, आपके लिये भी.
जवाब देंहटाएंसच में, लोहा आज भी गला नहीं है।
जवाब देंहटाएंसाथी महेश , आप ने संवादधर्मी समीक्षा का नया शिल्प खोजा है .पहले की सभी टेपों से मेरी भी सहमति है , विजय और लीनाजी से सब से ज़्यादा .
जवाब देंहटाएंमहेश जी यह केवल खुला पत्र नहीं है अपितु शेखर जी की कहानियों पर अद्भुत विमर्श भी है। साथ ही यह इन कहानियों की आज भी प्रासंगिकता को तर्कपूर्ण सामने लाने वाला पत्र है। आशुतोष जी की टिप्प्णी से सहमत कि यह प्रस्तुति संवादधर्मी समीक्षा का नया शिल्प ही है। आभार पुनेठा जी।
जवाब देंहटाएंपहली बार इस शैली में लिखा हुआ लेख पढ़ रहा हूँ ........महेश भाई जहाँ बात तो शेखर जोशी जी से कर रहे हैं पर संवाद के एक सिरे पर पहाड़ भी है और एक पर पाठक भी .........और पाठक जो भले ही शेखर जी की कहानियों से अनजान हो और पहाड़ के कठीन जीवन से भी ........मगर लेख के अंत तक वह शेखर जी के कथा संसार से भी परिचित हो जाता है और पहाड़ के जीवन की असल तहों से भी .............महेश भाई का अंदाज़ निराला है ........ संतोष भाई आपका ब्लॉग लगातार बेहतर कर रहा है .......और इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं |
जवाब देंहटाएंपत्र क्या है एक युवा साहित्यकार का अपने बुजुर्ग के कंधे पर सर रखकर दुःख दर्द साझा करने का प्रयास भी है और उसकी लड़ाई को आगे बढाने का संकल्प भी. उत्तराखंड आन्दोलन की विफलता हमारे समय में इस बात की एक गवाह है कि व्यवस्था के भीतर जनसंघर्षों से हासिल जीतें भी जनता के खिलाफ इस्तेमाल कर ली जाती हैं. महेश जी गद्य में बेहद सहज और प्रवाहमान नज़र आते हैं...लगभग हमेशा ही.
जवाब देंहटाएंसबसे पहले बधाई महेश जी.............आपने जिन बिन्दुओं को रेखांकित किया है वास्तव में यह चिरकालिक हैं जो न कभी बदले थे और न कबी बदलेंगे हां ! ये अलग बात है कि उनका स्वरूप अवश्य बदल रहा है।
जवाब देंहटाएंवास्तव में देखा जाए तो सोवियत रूस के अनुकरण पर भारत में भी जब पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुई थीं । नवनिर्माण और विकास की प्रक्रिया में छोटे-छोटे अंचलों की ओर ध्यान दिया जाना स्वभाविक था । ऐसे में इन क्षेत्रों के प्रति इन लेखकों का ध्यान गया और इन्होंने पूरे विश्वास के साथ ‘इस समाज’ का चित्रं किया...... भविश्य की आशा के साथ, लेकिन यह आशा फलदायी न हो सकी.....और आपके अनुसार “... शेखर जी आपको आश्चर्य होगा कि अभी भी पहाड़ की पस्थितियां और समस्याएं बहुत अधिक नहीं बदली हैं,जबकि इन कहानियों को लिखे जाने और पढ़े जाने बीच एक बड़ा परिवर्तन घाटित हुआ है।”
वास्तव में समाज का एक वर्ग ही ऊंचा उठता जा रहा है जबकि दूसरे वर्ग की स्थिति करीब-करीब वैसी ही है। एक बार और बधाई महेश जी कि आपने लेखाक का ध्यान इस ओर खींचा है कि अब लेखक की कल्पना समाज के बदलते हुए दष्टिकोण से कहीं पीछे छूटती जा रही है।
किसी भी लेख्क के लिए इस तरह की खोज उसकी रचना को वास्तविकता से जोड़ती है।
अगला आलेख पढ़ने की आशा के साथ पुन: बधाई.......सुनील मानव
अफ़सोस कि पहाड़ का होते हुए मैं शेखर जी की कहानियाँ पढ़ नहीं पाया. खैर आपके पत्र को पढने के बाद पात्रों और घटनाओं से खुद को जुड़ा महसूस कर रहा हू. बहुत ही खूबसूरत अवलोकन किया है आपने कहानियों और वर्तमान परिस्थितियों का. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंbahut badhiya aur atmeeya
जवाब देंहटाएंशेखर जोशी की कहानियों का विस्तार से परिचय कराने के लिए महेश जी को धन्यवाद | वास्तव में यह एक परिचय न होकर एक साझा दर्द है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनवरत चला आया है.. दर्द है कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है कहने को तो हमने कई प्रयास कार लिए.. इन्ही प्रयासों में है-- अलग राज्य का निर्माण . लेकिन कटु सच्चाई है कि उस समय का बना कोई भी राज्य अपने उद्देश्यों को नहीं पा सका है, चाहे वह उत्तराखंड हो या झारखण्ड और छत्तीसगढ़.| शेखर जोशी की कहानियों के माध्यम से प्रेषक ने अपने ही दर्द को सामने रखा है..
जवाब देंहटाएंपत्र शैली में लिखे इस आलेख में अपने अग्रज के प्रति एक भावपूर्ण सम्मान है देते हुए महेश जी शेखर जी की कहानियों का पुर्नपाठ सा प्रस्तुत करते हैं'इस रूप में ये कहानियां हमेशा प्रसागिक बनी रहेंगी.'
जवाब देंहटाएंउतराखंड के नवनिर्माण ने किस तरह से उसे खंड -खंड कर दिया है. विकास के नाम पर नई आई बाजारवादी संस्कृति ने किस से तरह से पहाड़ की संस्कृति को अपने में लील लिया है , और इससे आम लोगो का जीवन जो जोशी जी कहानियों में व्यक्त है और अधिक दुभर और कठिन हो गया है .
पहाड़ में वर्तमान दर्द को जोशी जी की कहानियों के माध्यम से ...अपनी सादा व सरल भाषा में बहुत सजीव उकेरता आलेख ...
पुनेठा जी आपके पत्र के माध्यम से शेखर जोषी जी के साहित्य को समझने का अवसर प्राप्त हुआ, आप के पास शेखर जोषी जी की रचनाओं के लिंक हों तो कृप्या पेरे साथ साझा करें ....इतने अच्छे समीक्षात्मक पत्र के लिए बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंapki chitthi pahad nke peeda ke bheetar tak jati hai. achchha laga.
जवाब देंहटाएंमैंने शेखर जी की कुछ ही कहानियां पढ़ी हैं म्गर आपके इस पत्र ने बहुत कुछ अहसास करा दिया कि क्या होगा उनमें। मगर अब मैं जरूर पढ़ूंगी और आपके आलेख की जितनी भी प्रशंसा की जाए...कम ही है। आपने कल और आज के हालात को बेहतर एंग से प्रस्तुत किया है....बधाई।
जवाब देंहटाएंsame here punethaji/
हटाएंPatre ke andaj me Shekhar da ki khaniyoun ke madhyam se aaj ke uttrakhand ko tatolna achha laga.
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