विश्वनाथ त्रिपाठी का संस्मरण 'कहा बापुरो इंद्र!'
अब तक आपने शेखर जोशी पर युवा मित्रों के आलेख पढ़े। शेखर जोशी जन्म दिन विशेष की आखिरी कड़ी में आज प्रस्तुत है विश्वनाथ त्रिपाठी का आलेख जो न केवल हमारे समय के वरिष्ठ आलोचक हैं अपितु वे शेखर जी के घनिष्ठ मित्रों में से एक हैं। यद्यपि यह आलेख २००३ में ही छप चुका है और अभी हाल ही में मेरे मित्र अनुराग जी ने अपने ब्लॉग 'लेखक मंच' पर इसे पेश किया था। फिर भी हम यहाँ इसे एक बार फिर से इसलिए प्रस्तुत कर रहे हैं कि यह देखा जा सके कि किस तरह एक बेहतरीन संस्मरण लिखा जाता है। जो वाकई एक समय न केवल जिया गया है अपितु बहुत निकट से देखा और महसूस किया गया है, शेखर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को शिद्दत से रेखांकित करता यह संस्मरण विश्वनाथ जी के लेखन की एक बानगी है जिसमें हम उतरते हैं तो अनायास ही बहते चले जाते हैं। तो प्रस्तुत है विश्वनाथ त्रिपाठी जी का संस्मरण 'कहा बापुरो इंद्र!'
विश्वनाथ त्रिपाठी
'कहा बापुरो इंद्र!'
शेखर जोशी को मैंने पहली बार
देखा तो वे अमरकांत के ही साथ थे।
अनुमानत: 1956 या १९५७ की बात होगी। काशी
विश्वविद्यालय में एम.ए. फाइनल में
रहा हूंगा या रिसर्च ज्वाइन करने की तैयारी में। मेरे मित्र थे अक्षोभ्येश्वरी प्रताप, जो बहुतों के
मित्र थे। भारत के सीमावर्ती नेपाल क्षेत्र के
समृद्ध ब्राह्मण जमींदार के घर के। एक मकान गोरखपुर-बेतिया हाता में। चलते-पुर्जे। बढ़-चढक़र बोलने वाले। विजयमोहन
सिंह के साथी। कहानियाँ लिखते थे। साहित्यकारों से
मेल-जोल बढ़ाने में माहिर। कालांतर में दूरदर्शन में
उच्च पदाधिकारी- शायद समाचार सम्पादक हो गये थे। तब यानी विद्यार्थी
जीवन में बिड़ला हॉस्टल में रहते थे। उन्हीं के कमरे में अमरकांत और
शेखर जोशी मिले। अक्षोभ्येश्वरी प्रताप ही मुझे भैरव जी (भैरव प्रसाद गुप्त) के घर ली ले गये थे। इन दोनों का नाम
मैंने सुन रखा था। अक्षोभ्येश्वरी ने रोब जमाने हुए कि इलाहाबाद के
मशहूर साहित्यकारों से उनका रब्त-जब्त है, मुझसे कहा- ‘ये
हैं शेखर जोशी और ये हैं-अमरकांत। मिलिए। कल रात को
मेरे कमरे में ही थे।‘ मेरे ऊपर यथोचित प्रभाव पड़ा। शेखर जोशी बिल्कुल किशोर लगते थे। देखनउस। नाजुक सुंदर। अच्छे
अमरकांत भी लगते थे। वे किशोर नहीं युवक लगते थे। मुझे
याद है, मैंने कहा- अमरकांत की कहानी
पढ़ी है और शेखर जोशी की फोटो पत्रिका में देखी है।
अमरकांत ने चुटकी ली। हँसते रहे। मैंने
गौर किया कि शेखर जोशी इस पर दब कर शर्माए नहीं। सहज
बने रहे। मुझे लगा कि यह बाहर से देखनउस किशोर अंदर से मजबूत
हैं।
इलाहाबाद मैं बहुत जाता था। 1956 में मेरी शादी इलाहाबाद में ही हुई। सबसे ज्यादा
भेंट मार्कण्डेय से होती थी। क्योंकि मिंटो रोड मेरी ससुराल से बहुत
नजदीक थी। एक बार मार्कण्डेय ने बताया- ‘हम लोग बैठे थे। बालकृष्ण राव
आये। सब लोग उठ पड़े। शेखर बैठा रहा। मैंने चुपचाप नोट किया- यह भी अंदर
की मजबूती की ही बात है। राव साहब ने ऐसा कुछ किया होगा, वरना शेखर किसी को सम्मान देने में कभी पीछे नहीं रहते।‘
और सम्मान देना वही जानता है, जो अपमाननीय
व्यक्तियों का अपमान करना भी जानता हो। यह दृढ़ता महंगी है।
कसाला करना पड़ता है। ‘दाज्यू’ की दृढ़ता
उसकी वैचारिक एवं जातीय दृढ़ता है। जगदीश् बाबू को
देखते ही मदन पर जाता था। जगदीश बाबू के रौब-दाब या
टिप पाने के लिये नहीं। मदन का पता चला कि जगदीश बाबू डोटालाग्यों गाँव के
निकटवर्ती गाँव के रहने वाले हैं, तो उसे इतनी खुशी हुई कि संभालता न तो ट्रे उसके हाथों से छूट पड़ती। इसी को
आत्मीयता कहते हैं। यह आत्मीयता तोड़ी जागदीश के ‘बाबूपने’ ने। वे इसे
संभाल नहीं पाए। उनमें वैसी आंतरिक दृढ़ता नहीं थी।
आत्मीयता का प्रतीक रिश्ता था- ‘दाज्यू’ होना। जब उन्होंने ‘दाज्यू’ होने से इन्कार
किया तो मदन की आत्मीयता अपने आप टूट गई। तुम
अगर दाज्यू नहीं तो मेरे कुछ नहीं हो सकते।
पात्र रचनाकारों के आत्मीय होते हैं। चारित्रिक दृढ़ता विवेक से आती है। विवेक
सकर्मकता के बिना सार्थक नहीं होता।
शेखर की एक कहानी है ‘हलवाहा’। विपत्ति के
समय लोग अपनी गृहणी से सलाह-मशविरा करते हैं लेकिन
जीवानंद का स्वभाव इसके ठीक विपरीत था। जितनी ज्यादा
विपत्ति उस पर पड़ती, वह अंतर्मुखी होता जाता था।
गृहणी उसकी मन:स्थिति को समझ रही थी लेकिन कुछ कहने का साहस उसे
नहीं होता था।
जीवानंद ने गोठ में घुस कर अपने बैल को थपथपाया। बहुत दिनों बाद उसने इतने ध्यान से अपने इस पशु को देखा था। स्वयं जीवानंद
को आश्चर्य हुआ कि उसने गाय के अतिरिक्त और किसी
पशु की ओर कभी इतना ध्यान ही नहीं दिया था। मालिक का
दुलार पाकर खैरा जुगाली करता हुआ टुकुर-टुकुर उसे ताकने लगा, जैसे कह रहा हो- तुम जो कहो, मैं करने को
तैयार हूँ।
बैल के बाद जीवानंद गोठ की दीवार पर टंगे हल को देखता है। जीवानंद ब्राह्मण है।
ब्राह्मण हल नहीं पकड़ते। अवर्ण हलवाहे छोटे ब्राह्मण किसान
जीवानंद का मखौल उड़ाते हैं। कहानी में जीवानंद को हल के बारे में सोचते, बहुत कुछ याद
करते चित्रित किया गया है। जीवानंद को निश्चय करना है कि
वह खेत बेच कर छोटी किसानी से छुट्टी ले कि नहीं। खेत को बिकवाने के लिये दलाल उसे घेरे हैं।
फिर कहानी की घटना- सरणि में अवकाश (स्पेस) है। उसके मन में क्या चल रहा है, यह बिल्कुल नहीं बताया जाता।
ऐक्शन भी नहीं वर्णित है। सिर्फ सूचना है। शेखर
जोशी द्वारा दी गई सुचना पढऩे के पहले यह जान लेना जरूरी है कि बद्री प्रधान खेत खरीदने की ताक में रहने वाले छद्म
हितैषी हैं और पदम जीवानंद से बहाने बनाने वाला अवर्ण हलवाहा।
दूसरे दिन सुबह तडक़े ही अपने आंगन के द्वार पर खड़े बद्री प्रधान ने एक नजर नदी किनारे के अपने खेतों पर डाली। उनका हलवाहा
अभी खेत में नहीं पहुँचा था लेकिन बगल वाले जीवानंद के खेत में जुताई
शुरू हो गई थी। उन्हें यह सोच कर थोड़ी निराशा हुई कि
जीवानंद ने पदम को आखिर राजी कर ही लिया है। बद्री प्रधान
अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाये। टहलते-टहलते नदी की ओर चले गये। जो कुछ उन्होंने देखा उसे देख कर उन्हें सहसा विश्वास
नहीं हुआ और क्रोध, घृणा तथा ग्लानि के कारण उनका
सारा शरीर काँपने लगा। कुलघातक जिबुआ स्वयं हल चला रहा
था। फाल की टेढ़ी-मढ़ी लकीरें उसके नौसिखुआपन की गवाही दे रही थीं।
जीवानंद के चरित्र में स्वाभिमान के साथ सांस्कृतिक शिष्टता है। स्थितियों का चुपचाप जायजा लेना- दुखों के दागों को
तमगा न बनाना और करुणा की याचना न करना। अपने दुख में
दूसरों को शरीक न करना, चुपचाप निर्णय लेना और उसे चुपचाप कार्यान्वित करना। शेखर जोशी की आंतरिक
दृढ़ता का उनकी सांस्कृतिक शिष्टता से गहरा संबंध है।
मैंने उन्हें उत्तेजित होते कभी नहीं देखा। शब्दों का अपव्यय करते- न वाचन में, न लेखन में
देखा। कहते हैं कि सुंदरता किसी तरह के ‘अतिरिक्त’ (सरप्लस) को
सहन नहीं कर सकती। आवश्यकता से अधिक यानी बड़बोलापन उनमें है ही नहीं। यही
उनकी सुंदरता का कारण और रहस्य है। एक खास तरह की सहज प्रसन्नता, मुदित भाव
उनमें है, जो वस्तुत: बहुत महंगा सौदा है।
शेखर जोशी को नौकरी, पुरस्कार, सम्मान के
लिए जुगाड़ करते किसी ने नहीं देखा। 109, लूकरगंज भैरव
प्रसाद गुप्त का पता था। 100, लूकरगंज शेखर
का। जब भैरव जी कुछ दिनों के लिए दिल्ली आ गये ‘नई कहानियाँ’ का सम्पादन
करने, तब 109 में शेखर जी
आ गये। भैरव जी दिल्ली से वापस चले आये, तब शेखर फिर 100 लूकरगंज में
लौट गये। दोनों किराये के मकान। शेखर जोशी ने अपना पता मुझे देते हुए
कहा- भैरव जी का पता मालूम है न। 109, लूकरगंज।
उसमें से फालतू अंश निकाल दो तो मेरा पता हो
जायेगा। भैरव, मार्कण्डेय, शेखर और अमरकांत में कितनी पटरी बैठती थी! इस चतुष्टयी ने हिन्दी कहानी
का इतिहास रचा है। इस पर तो अलग से बातचीत होनी
चाहिए। मैं भैरव जी के यहाँ जाता तो या तो शेखर वहाँ आ जाते
या भैरव जी मुझे शेखर के यहाँ ले जाते। शेखर के यहाँ जाता तो वे अकसर मुझे
अमरकांत के यहाँ ले जाते। भैरव जी ने बेनीगंज में मकान बनवाया। वहाँ
मुझे पहली बार शेखर ही ले गये। भैरव जी मुझसे नाराज हो गये थे। इसलिए
मैं उनसे मिलने में हिचक रहा था। शेखर ने कहा, ‘चलिए, वे कुछ नहीं कहेंगे। आपके आने से वे खुश ही होंगे।‘ मैं भैरव जी
के यहाँ गया और रूहअफजा का शर्बत पीने को मिला।
भैरव जी जिससे नाराज होते थे पानी तक नहीं पूछते थे। घर से भगा भी देते थे। एक बार मेरा ऐसा ही स्वागत हो चुका है उनके यहाँ।
तब भी शेखर मुझे 109, लूकरगंज ले
गये थे। भैरव जी ही मिले। हालचाल पूछा। लेकिन आध घंटा बीतने पर भी कुछ नहीं आया तो शेखर ने ही कहा, ‘अरे भैरव जी, वे दिल्ली से
आये हैं। कुछ पानी, चाय।’ भैरव जी ने
कहा, ‘ये तुम्हारे यहाँ से पी आये
होंगे।’
मैं उनके पुत्र बबुआ की शादी में नहीं गया था इसी से वे नाराज थे।
भैरव जी जब दिल्ली आये तो उन्हें रहने के लिये सी ब्लॉक मॉडल टाउन में किराये के मकान की व्यवस्था हुई। शेखर दिल्ली आये तो
हम और वे भैरव जी का घर ढूँढ़ने निकले। सी ब्लॉक तो
पहुँच गये लेकिन मकान नम्बर शेखर को ठीक से नहीं याद था।
फिर भी हम अनुमान से मकान ढूँढ़ते रहे। लगभग एक घंटे तक ढूँढ़ने पर
भी मकान नहीं मिला। हम निराश हो कर लौट पड़े। लौटते समय एक मकान को गौर से देखने के बाद शेखर बोले, ‘रुकिए रुकिए, यही मकान
भैरव जी का होगा।’ दरवाजे पर एक
बहुत पुराने किस्म का ताला लगा था जिसमें कलछुल जैसी लम्बी चाभी
डालकर उसे खोला जाता था। शेखर ने कहा, ‘इस ताले को
मैं पहचानता हूँ। यही 109, लूकरगंज में
भी लगता था। भैरव जी वही ताला यहाँ ले आए हैं।
नेम-प्लेट की जरूरत नहीं पड़ेगी। यह ताला तो नेम-प्लेट का भी काम करता है।’
शेखर जोशी कम बोलते हैं। मुस्कराते थोड़ा ज्यादा हैं। जिस स्थिति में लोग 20-25 मिनट तक
बोलें, उस स्थिति में शेखर सिर्फ कैंची
मुस्कराहट से काम लेते हैं। जब वे मुस्कराएं और साथ में चुटकी से राख
झाड क़र सिगरेट का कश मारें तब समझ जाइए। (गनीमत है
कि अब सिगरेट करीब-करीब छोड़ चुके हैं।) एक बार उनकी
मुस्कराहट का फल भोग चुका हूँ। हुआ यों कि दूधनाथ सिंह ने मुझे कविता सुनाने के लिये घर पर निमंत्रित किया। उन्होंने
‘कृष्णकांत’ नामक कविता लिखी थी, सम्भवत:
श्रीकांत वर्मा पर। कहा कि वे भैरवजी के यहाँ से मुझे ले
लेंगे। दूधनाथ जी को मैं वामंपंथी के रूप में नहीं जानता था। सो भैरव जी से उनका सम्पर्क देख कर मैने सचमुच
प्रसन्नतापूर्वक कहा- अच्छा, क्या अपने कोई वाम विचार को
कविता लिखी है? लेकिन पता नहीं क्यों, शेखर यह सुन कर मुस्करा दिये। बस, मेरी अभिधा
ने नया अर्थ ग्रहण कर लिया। बहरहाल, मुझे उस दिन
दोपहर का भोजन तो नहीं मिला, एक लम्बा पत्र मिला आतिथेय का। अपनों से असहमति या क्षोभ प्रकट करने का तरीका है!
तब भैरव जी की अश्क से गहरी छनती थी। और शेखर तो भैरव मंडल के सनातन सदस्य। उपेंद्रनाथ अश्क पर एक संस्मरणात्मक टाइप की
पुस्तक निकली और जैसा कि होना ही था, अश्क के अनेक
रंगीन चित्रों के साथ। शेखर उसमें लिखने का आग्रह नहीं
टाल सकते थे। और शेखर ने अश्क पर लिखा। उनके लेख का शीर्षक अश्क की ही एक काव्य पुस्तक से लिया गया था- ‘मैं चिरका
चला’। अश्क की पंक्ति भी यही थी।
अंतर केवल ‘चिरका’ और ‘चिर का’ में था।
यहाँ होठों की नहीं कलम की मुस्कान है।
शायद यह मेरे अपने कुटिल मन की लहर हो लेकिन मुझे ‘वर्ष’ में अमरकांत
पर लिखे गये लेख का शीर्षक भी कुछ ऐसा ही दिखलाई पड़ता
है। अमरकांत होली पर ‘जरि गइले एरी
से कपार’ गाते थे। यही शीर्षक शेखर ने
अमरकांत के लेख का दिया है। मुझे लगता है- ऐसा तो नहीं कि भैरव मंडली
अमरकांत केंद्रित ‘वर्ष’ की योजना से
बहुत खुश नहीं थी। खासतौर पर इसलिए कि उसे रवींद्र कालिया निकाल रहे
थे। अमरकांत पर शेखर कैसे न लिखें। लेकिन शीर्षक?
आशा करता हूँ कि मेरा यह अनुमान गलत है।
सो शेखर जोशी दिखनउस हैं, प्रतिबद्ध हैं। मित्र-व्रती हैं
किंतु सपाट नहीं
हैं। काम भर के इलाहाबादी भी हैं और यह कि आप जो भी हों अपनी इच्छा से उन्हें चालित नहीं कर सकते। ‘कांट बी टेकेन फार
ग्रांटेड।‘ चंद्रकला जी से मेरी इस विषय
पर बात नहीं हुई है लेकिन मेरा ख्याल है कि सामान्यत: संतुलित शेखर कभी-कभी अपना घोर जिद्दी रूप भी प्रकट करते
होंगे।
स्वातंत्रयोत्तर भारत में मध्यवर्ग की संपत्ति में बढ़ोतरी हुई है। हममें से अधिकांश
पहले से बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं। इस बढ़ोतरी में हिस्सा सिर्फ
तिकड़मियों, उठाईगीरों और अवसरवादियों को ही
नहीं मिला है। सीधे-सादे ईमानदार लोगों को भी मिला है। निराला और
मुक्तिबोध आज होते तो शायद उन्हें वैसी जिंदगी जीने
के लिये विवश न होना पड़ता। नागार्जुन, त्रिलोचन
उपेक्षित ही नहीं रहे, उन्हें सम्मान-पुरस्कार भी मिले।
लेकिन बढ़ोतरी के लुटेरों में और इनमें अंतर है। अंतर कहाँ
और किस बात में है?
विचारधारा और प्रतिबद्धता के साथ उसकी आचार संहिता होती है। विधि-निषेध होते हैं। एक बार उत्तरी कोरिया के दूतावास की ओर से
दिये गये भोज में गया। भोज ओबेराय में था। वहाँ पीने
की भी व्यवस्था थी। मैंने भी एक-दो जाम लिये। अगले
दिन पार्टी की ब्रांच मीटिंग में मुझे बताया गया कि भाकपा की आचरण संहिता
में विदेशी दूतावासों के प्रीति भोज में शराब पीना निषिद्ध है। आम दुश्प्रचारकों की तरह में भी सोच रहा था कि पार्टी
के लोग तो विदेशी दूतावासों में खूब शराब पीते हैं। सो प्रतिबद्धता की
आचार संहिता जरूर होती है। कला अपने उत्पादकों और
प्रशंसकों को यह संहिता जरूर देती है। कह कर न देती हों
किंतु वह सामाजिक चेतना की जलवायु और मौसम में गंध की तरह रची-बसी रहती है। शेखर उन साहित्यकारों में हैं जो निहायत सहज
एवं स्वाभाविक ढंग से साहित्य द्वारा दी गई आचार-संहिता का पालन करते
हैं। नहीं तो यारों ने- साहित्यकारों ने पिछले अनेक
दशकों में क्या-क्या जुगाड़ नहीं किये हैं। ‘अंधेरे में’ के जुलूस
बिम्ब में मंत्री, उद्योगपति, सेना, पुलिस, गुंडे के साथ आलोचक, कविगण का होना
यों ही नहीं। फैंटेसी का यथार्थ आधार है। मुक्तिबोध ने
चमचमाते प्रकाश में सुंगधित ईमान की बात की है। और शेखर जोशी की कहानी है ‘बदबू’। यह बदबू
कला की नैतिकता का प्रतीक है। जब तक इस बदबू का बोध है, तब तक
साहित्यकार की अग्नि जीवित है। शोषक की पूँछ से बांधने वाली रस्सी
से अपने को काट कर अलग करने की क्षमता की प्रतीक यह बदबू है।
देखने की बात यह है कि शेखर जोशी ने ‘बदबू’ कहानी लिखी
तो उसके अहसास बोध को बनाए रखा। इसी को पूर्ण कलाकार होना कहा जाता
है। अब यह न पूछिए कि इस अहसास को बनाये रखने के लिये
क्या-क्या करना पड़ता है। और कहीं ज्यादा जरूरी यह
जानना है कि क्या-क्या नहीं करना पड़ता।
मध्यवर्गीय ईमानदार लेखक के मन में छोटी-छोटी सुविधा इच्छाओं से उसके आदर्श का निरंतर युद्ध होता है। स्वाधीन भारत में
सुविधाएं बढ़ी हैं, चारों तरफ बढ़ी हैं, उन्हें
हथियाया गया है। जो लोग इन सुविधाओं को गांजने में सफल हुए हैं, वे पदासीन
हैं। उनके बंगलों में गाड़ियां हैं, कुत्ते हैं, बच्चे हैं जो
या तो ड्रग्स से आदी हैं या अमेरिका में हैं, प्रेमिकाएं
हैं। पुस्तकों के लोकार्पण होते हैं, सेठों-मंत्रियों
की उपस्थिति में उनके सम्मान समारोह होते हैं।
साक्षात्कार में पूछा जाता है- देश में सूखा है, सांप्रदायिक
दंगे हैं, आपकी क्या राय है? तो वे मुँह
बिचका देते हैं। कहते है, ‘‘हम चुप
रहेंगे। हमारी कृतियाँ देखो।’’
होंगे ये कुछ लोगों के लिये ईर्ष्या के पात्र। इनसे ईर्ष्या वे करते होंगे जो इन्हीं की
बिरादरी के किंतु असफल लोग हैं। मौका पाते ही ये सब हथिया लेने
की फिराक में रहते हैं। कहा भी है :
जहाँ आप पहुँचे छलांगें लगा कर
वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे।
शेखर जोशी जैसे लोग इन सफल लोगों पर मुँह बिचका कर हंसते हैं।
जो तुम्हारा अन्न है मेरे लिये विष है,
और जो मेरा विष है वह तुम्हारा अन्न है।
यह सब लिखने से एक साहित्य नायक जैसे रोमानी संघर्ष पुरुष का जो चित्र बनाता है, शेखर जोशी की
मुद्राएं बिल्कुल उससे भिन्न और विपरीत हैं। जिस संघर्ष
पुरुषत्व की बात की जा रही है, वह उनके साहित्य और व्यक्तित्व
की अंतर्वस्तु है, रूपमुद्रा
नहीं।
और यह रूपमुद्रा विहीनता प्रगतिशील जनवादी साहित्यकारों की विशेषता है। साहित्यिक मुद्राओं से रहित सहज व्यक्तित्व।
आत्ममुग्धता और आत्मश्रृंगार से दूर।
नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शमशेर, शील, भैरवप्रसाद गुप्ता, अमरकांत, हृदयेश, इजरायल आदि
ऐसे ही हैं। शेखर भीड़ में अकेले नहीं हैं। उनके
व्यक्तित्व और साहित्य में निजता भी हो यह अलग बात है। यह निजता महत्वपूर्ण है। नागार्जुन, केदारनाथ, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर सब प्रगतिशील हैं लेकिन इनकी कविताओं में निजता है। मुझे
कबीर, तुलसी, सूर, मीरा याद आते
हैं, निराला, प्रसाद, पंत, महादेवी याद
आते हैं- जो एक ही साहित्यिक आंदोलन के थे, लेकिन उनके
व्यक्तित्व और कृतित्व के तेवर अलग हैं।
शेखर की पटरी सबसे ज्यादा अमरकांत से बैठती है। लेकिन उनकी कहानियों के स्वर बिल्कुल अलग हैं। अमरकांत निम्न मध्य वर्ग और
निम्न वर्ग के काइयाँपन, निरीह मूर्खता के उद्घाटक हैं, तो शेखर उसी
वर्ग की टूटती हुई आस्था को जैसे पात्र
में निहित विवेक की शक्ति से जोड़ते हैं। इस जोड़ में रोमान, आदर्श कम, सामान्य
भारतीय का विवेक और उसकी व्यावहारिक बुद्धि है। रोमानी पात्र
असामान्य होते हैं। वे लाखों में एक होते हैं। लेकिन रोमान आदर्श असंख्य, सामान्य न
चमकने वाले व्यक्तियों में भी होता है। शेखर उनको प्रस्तुत
करने वाले कथाकार हैं। ये पात्र संकटों से अपने ढंग से लड़ते हैं और उन्हें पार करने का रास्ता भी ढूँढ़ लेते हैं।
शेखर की कहानियों में ये न चमकने वाले
पात्र कृतिम चकाचौंध को मलिन कर देते हैं। यह निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय जीवन की सहजता और श्रम मूल्यों की खोज
और स्थापना है- ‘डांगरी वाले’, ‘चिडुआ’ जैसी
कहानियों में इसे देखा जा सकता है। शेखर के वृद्ध पात्र
हिन्दी कथा-साहित्य में अनुपम हैं। स्वतंत्रता के उपरांत जिस द्रुति से जीवन और उसके संबंध बदले हैं, उसकी चोट
व्यतीत हुए पात्र कैसे झेल रहे हैं-
इसे शेखर जोशी से ज्यादा हिन्दी के किसी कथाकार ने नहीं समझा और चित्रित किया है।
गतकालिक संबंधों में जी रहे पात्रों को पुराने संबंधों-संदर्भों में फिर से जीने की छटपटाहट उनकी व्यथा
को और मार्मिक बना देती है। उन्हें महाकाल के
सामने असहाय खड़ा कर देती है। कहानीकार उस असहायता को अपनापा, सम्मान और
करुणा देता है, जिसमें थोड़ा विनोद भी होता है।
वृद्धजनों पर लिखी हुई शेखर की कहानियों में विभिन्न कोणों और
बोधों के अनेकानेक संश्लेष हैं। वे सब मिल कर इन कहानियों की
अंतर्वस्तु को जटिलता देते हैं और यह संश्लिष्ट
जटिलता रूप की सहजता का आधार है। ऐसी कहानियाँ राजेंद्र यादव जैसे
भूतपूर्व कथाकार नहीं लिख सकते। लिख पाते तो शेखर जोशी को उचित से अधिक मूल्यांकित कहानीकार न कहते।
रचनाकार अपनी रचना में जीता है, अपने पात्रों
में जीता है- एक सीमा तक। वह अपनी रचना
से स्वतंत्र नहीं होता। रचना में मुक्ति पाने का मतलब- रचना में मन, प्राण का वास
करना होता है- यह सब छद्म रचनाकारों को छद्म लगता है लेकिन रचना केवल
पाठकों को जीवन नहीं देती, अपने रचयिता को भी देती है।
मैंने शेखर को गम्भीर क्षुब्ध तो देखा है, दीन-हीन या
ईर्ष्यादग्ध कभी नहीं देखा। छोटे-से-छोटा
पुरस्कार मिल गया तो उसे चुपचाप ग्रहण कर लिया। दूसरों को
बड़ा पुरस्कार, सम्मान, नाम मिला तो
भी सहज, प्रसन्न, अविचलित। एक बेटी, दो बेटों, पत्नी और
अनेक मित्रों, रिश्तेदारों को अपने लेखकीय, गैर लेखकीय
अपनापे में समेटे शेखर जोशी किसी मित्र, रिश्तेदार, लेखक की किसी मामूली सी घटना पर मनोयोगपूर्वक घंटों बातें कर
सकते हैं- उनकी कोई रिश्तेदार मौसी हलुआ कैसे बनाती
हैं, किसी के यहाँ रोटी में कोई खास
बात कैसे पैदा हो जाती है, कभी-कभार
समझा भी देंगे कि चूँकि बात कुमायूँ गढ़वाल की है, आप ठीक से
नहीं समझ सकते।
मैं उनके घर बैठा बात कर रहा था कि एक लडक़ी नल से पानी भरते दिखलाई पड़ी। वह किसी से बात भी कर रही थी, पानी भी भर रही
थी- शेखर लगभग एक घंटा मुझे बताते रहे कि इस दृश्य को
अमरकांत किस तरह लिखते। भैरव जी को पश्चिम बंगाल की
सरकार ने कोई पुरस्कार दिया। वे अपने पोते को लेकर सम्मान ग्रहण करने गये। वहाँ का ब्यौरा विस्तार से दिया।
नागार्जुन की एक प्रेम कथा का वर्णन मौका मिले तो उनसे जरूर सुनिए। नागार्जुन कमरे में हैं- ऊपर कमरे में युवक लेखक और
प्रेमिका धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। नागार्जुन कहते हैं-
बेटी, मैं उपन्यास लिख रहा हूं। फिर मार्कण्डेय के किस्से। लेकिन सभी में मित्रों के
प्रति कोई द्वेष नहीं, दुराव नहीं। ईर्ष्या तो उनके पास
फटकी ही नहीं। मैं उनकी इस चारित्रिक विशेषता, दृढ़ता से
अभिभूत रहता हूं। सोचता हूँ आंतरिक तौर पर इस आदमी में बहुत
आत्मविश्वास होगा। यानी इसे अपने समाज और साहित्य परम्परा पर विश्वास होगा, जिससे जुड़ा
है- कहा बापुरो इंद्र!
(भारतीय
लेखक, जनवरी-मार्च
2003 में
प्रकाशित)
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