दीपावली पर हिन्दी कविताएँ
दीपावली पर पहली बार की तरफ से बधाई एवं शुभकामनाओं के साथ इस उत्सव पर कुछ महत्वपूर्ण कवियों की कविताएँ आप सब के लिए प्रस्तुत है.
दीपावली पर हिन्दी कविताएँ
नजीर अकबराबादी |
दिवाली
नज़ीर अकबराबादी
हमें अदाएँ
दिवाली की ज़ोर भाती हैं।
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।1।।
गुलाबी बर्फ़ियों के मुँह चमकते-फिरते हैं।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।2।।
मिठाइयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं।।
नबात[1], सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।3।।
जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं।।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।4।।
उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग।।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।5।।
दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है।।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।6।।
कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है।।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।7।।
और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं ।
और हरसू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं ।।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं ।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं ।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।8।।
अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है ।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है ।।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है ।
गरज़ में क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दिवाली है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।9।।
जो गुलाबरू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ ।
निगाहें आशिकों की हार हो गले पड़ियाँ ।।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।10।।
क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है ।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है ।।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है ।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।11।।
कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं ।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं ।।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं ।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।2।।
किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है ।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है ।।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है ।
अजब दिवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।13।।
धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान ।
गोया दरख़्त से ही उड़कर हैं बैठे आन ।।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान ।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।14।।
कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है ।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है ।।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है ।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।15।।
‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा ।
फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा ! हा ।।
निषात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा ।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।16।।
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।1।।
गुलाबी बर्फ़ियों के मुँह चमकते-फिरते हैं।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।2।।
मिठाइयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं।।
नबात[1], सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।3।।
जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं।।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।4।।
उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग।।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।5।।
दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है।।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।6।।
कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है।।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।7।।
और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं ।
और हरसू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं ।।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं ।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं ।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।8।।
अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है ।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है ।।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है ।
गरज़ में क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दिवाली है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।9।।
जो गुलाबरू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ ।
निगाहें आशिकों की हार हो गले पड़ियाँ ।।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।10।।
क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है ।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है ।।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है ।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।11।।
कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं ।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं ।।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं ।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।2।।
किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है ।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है ।।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है ।
अजब दिवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।13।।
धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान ।
गोया दरख़्त से ही उड़कर हैं बैठे आन ।।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान ।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।14।।
कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है ।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है ।।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है ।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।15।।
‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा ।
फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा ! हा ।।
निषात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा ।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।।16।।
मैथिली शरण गुप्त |
मैथिलीशरण गुप्त
दीपदान
जल, रे दीपक, जल तूजिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू
जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू
जल, रे दीपक, जल तू
अपना तिल-तिल पिरवाया है
तुझे स्नेह देकर पाया है
उच्च स्थान दिया है घर में
रह अविचल झलमल तू
जल, रे दीपक, जल तू
चूल्हा छोड़ जलाया तुझको
क्या न दिया, जो पाया, तुझका
भूल न जाना कभी ओट का
वह पुनीत अँचल तू
जल, रे दीपक, जल तू
कुछ न रहेगा, बात रहेगी
होगा प्रात, न रात रहेगी
सब जागें तब सोना सुख से
तात, न हो चंचल तू
जल, रे दीपक, जल तू!
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
दीपावली
के प्रति
पंचपद
कहाँ ऐसी छवि पाती हो;जगमगाती क्यों आती हो।
हाथ में लाखों दीपक लिये क्यों ललकती दिखलाती हो।
सजी फूलों से रहती हो,
सुन्दरी, सरसा महती हो,
ज्योति-धारा में बहती हो,
न-जाने क्या-क्या कहती हो,
झलक किस की है दृग में बसी, क्यों नहीं पलक लगाती हो।
चौगुने चावों वाली हो,
किसी मद से मतवाली हो
भाव-कुसुमों की डाली हो,
अति कलित कर की पाली हो,
मधुरिमा की कमनीय विभूति, मुग्धता-मंजुल-थाती हो।
तारकावलि-सी लसती हो,
वेलियों-सदृश विलसती हो,
उमंगों भरी विहँसती हो,
मनों नयनों में बसती हो,
मनोहर प्रकृति-अंक में खेल कला-कुसुमालि खिलाती हो।
अमावस का तम हरती हो,
रजनि को रंजित करती हो,
प्रभा घर-घर में भरती हो,
विभा सब ओर वितरती हो,
टले जिससे भारत का तिमिर, क्यों न वह ज्योति जगाती हो।
दीवाली
चौपदे
उजाला फैलाती रहती।दूर करती है अंधियाली।
कौन है? किसे खोजती है।
चाँदनी है या दीवाली।1।
अमा ने छिपा दिया विधु को।
डाल करके परदे काले।
सिता ने उसे खोजने को।
क्या बहुत से दीपक बाले।2।
देख शारद नभ में छवि से।
छलकता तारक चय प्याला।
अवनितल को सजाने आई।
क्या दीवाली दीपक माला।3।
विफल कर वैर भाव उसका।
अमा के वैभव में विलसीं।
क्या कलानिधि विलीन किरणें।
दीपकावलि में हैं विकसीं।4।
कुहू की महा कालिमा में।
खो गया रजनी का प्यारा।
खोजने में प्रदीपचय मिष।
क्या चमकता है दृग तारा।5।
बाल क्या बहु दीपक भारत।
आरती उसकी करता है।
जो कुमुद को चमकाता है।
तेज सूरज में भरता है।6।
लिये लाखों दीपक कर में।
खोजती है क्या भव-जननी
उस विभव को, जिसको, खोये।
हुई तम भरित भरत अवनी।7।
क्या अमित दीपक मिष निकली।
अमा की वह अंतरज्वाला।
छिप गया जिसके भय से रवि।
विधु गया वारिधि में डाला।8।
क्या अमा के उज्ज्वल दीपक।
भाव यह हैं भुव में भरते।
महाजन महातिमिर में धंस।
उसे हैं विभा वलित करते।9।
क्या बताती है वसुधा को।
तिमिरमय रजनी उँजियाली।
रमा की कृपा कोर होते।
अमा बनती है दीवाली।10।
दमकती दीवाली
चौपदे
कान्त कमला पग पूजन को।साथ में कमलावलि लाई।
अमा में समाँ दिखाने को।
जागती ज्योति जगा पाई।1।
स्वच्छता घर-घर में भरकर।
विलसती, हँसती, दिखलाई।
दमन करने को फैला तम।
दमकती दीवाली आई।2।
दिव्य
दीवाली
चौपदे
क्यों नहीं लक्ष्मी रूठेगी।जब कि कौड़ी के तीन बने।
मालपूआ कैसे खाते।
न मिलते हैं मूठी भर चने।1।
बच सकेगी तब पत कैसे।
कान जो जाते हैं कतरे।
न जूआ जो छूटा तो क्यों।
गले पर का जूआ उतरे।2।
जो रही सोरही भाती तो।
किसे त्योहार कभी सहता।
हार पर हार न जो होती।
भाग तो क्यों सोता रहता।3।
पास जिसके न रही कौड़ी।
कब बना वह पैसे वाला।
मनाए तब क्यों दीवाली।
निकलता जब कि है दिवाला।4।
फ़िराक गोरखपुरी |
फ़िराक गोरखपुरी
1. दीवाली के दीप जले
नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
लाखों चराग़ों से सुन कर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज 'फ़िराक़' सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
लाखों चराग़ों से सुन कर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज 'फ़िराक़' सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले
हरिबंश राय बच्चन |
हरिवंशराय बच्चन
आत्मदीप
मुझे न अपने से कुछ प्यार,
मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक,
ज्योति चाहती, दुनिया जब तक,
मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार|
पर यदि मेरी लौ के द्वार,
दुनिया की आँखों को निद्रित,
चकाचौध करते हों छिद्रित
मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार|
केवल इतना ले वह जान
मिट्टी के दीपों के अंतर
मुझमें दिया प्रकृति ने है कर
मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान|
पहले कर ले खूब विचार
तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए
कहीं न पीछे से पछताए
बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार।
कवि का दीपक
आज देश के ऊपर कैसी
काली रातें आई हैं!
मातम की घनघोर घटाएँ
कैसी जमकर छाई हैं!
लेकिन दृढ़ विश्वास मुझे है
वह भी रातें आएँगी,
जब यह भारतभूमि हमारी
दीपावली मनाएगी!
शत-शत दीप इकट्ठे होंगे
अपनी-अपनी चमक लिए,
अपने-अपने त्याग, तपस्या,
श्रम, संयम की दमक लिए।
अपनी ज्वाला प्रभा परीक्षित
सब दीपक दिखलाएँगे,
सब अपनी प्रतिभा पर पुलकित
लौ को उच्च उठाएँगे।
तब, सब मेरे आस-पास की
दुनिया के सो जाने पर,
भय, आशा, अभिलाषा रंजित
स्वप्नों में खो जाने पर,
जो मेरे पढ़ने-लिखने के
कमरे में जलता दीपक,
उसको होना नहीं पड़ेगा
लज्जित, लांच्छित, नतमस्तक।
क्योंकि इसी के उजियाले में
बैठ लिखे हैं मैंने गान,
जिनको सुख-दुख में गाएगी
भारत की भावी संतान!
***
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा ताप-भरा तन देखा,
आभारी हूँ तुमने आकर
मेरा आह-घिरा मन देखा,
करुणामय वह शब्द तुम्हारा–
’मुसकाओ’ था कितना प्यारा।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
है मुझको मालूम पुतलियों
में दीपों की लौ लहराती,
है मुझको मालूम कि अधरों
के ऊपर जगती है बाती,
उजियाला करदेनेवाली
मुसकानों से भी परिचित हूँ,
पर मैंने तम की बाहों में अपना साथी पहचाना है।
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है।
यह दीपक है, यह परवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
ज्वाल जगी है, उसके आगे
जलनेवालों का जमघट है,
भूल करे मत कोई कहकर,
यह परवानों का मरघट है;
एक नहीं है दोनों मरकर जलना औ’ जलकर मर जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
इनकी तुलना करने को कुछ
देख न, हे मन, अपने अंदर,
वहाँ चिता चिंता की जलती,
जलता है तू शव-सा बन कर;
यहाँ प्रणय की होली में है खेल जलाना या जल जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
लेनी पड़े अगर ज्वाला ही
तुझको जीवन में, मेरे मन,
तो न मृतक ज्वाला में जल तू
कर सजीव में प्राण समर्पण;
चिता-दग्ध होने से बेहतर है होली में प्राण गँवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
साथी, घर-घर आज दिवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
गोपाल दास नीरज |
गोपालदास नीरज
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
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