लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘इतिहास लेखन और दर्शन’।
इतिहास अपने अतीत के यथार्थ को जानने का एक मात्र वस्तुनिष्ठ माध्यम
है। ऐसे में इतिहास सही हो यह आवश्यक होता है। क्योंकि वह हमारे भविष्य की
निर्मिति में भी एक बड़ी भूमिका निभाता है। इस क्रम में इतिहासकार को निर्मम होना
पड़ता है। उसे तथ्यों का विवेचन करते समय खुद अपने, अपने परिवार, अपने समाज और अपने
राष्ट्र के प्रति मोह से भी बचना पड़ता है। इतिहास में वस्तुनिष्ठता की समस्या एक
बड़ी समस्या के रूप में है। शायद ही कोई इतिहासकार ऐसा हो जो यह कहे कि मैंने
वस्तुनिष्ठ इतिहास नहीं लिखा है। वस्तुनिष्ठ मतलब ‘जैसा था ठीक वैसा ही’। प्रोफ़ेसर
लाल बहादुर वर्मा इतिहास के जाने माने अध्येताओं में से हैं। उनका यह आलेख इतिहास
लिखने पढने वालों के लिए ही नहीं बल्कि उन सभी के लिए महत्वपूर्ण है, जो एक बेहतर
समाज की संरचना के लिए उद्यत हैं। तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं लाल बहादुर
वर्मा का यह महत्वपूर्ण और जरुरी आलेख – ‘इतिहास लेखन और दर्शन’।
प्रोफेसार गिरिजा पांडे के लिए
इतिहास लेखन और दर्शन
लाल बहादुर वर्मा
प्रस्तावनाः
इतिहास अतीत का अध्ययन है। परन्तु अतीत
का अध्ययन हो कैसे?
क्योंकि
अतीत तो व्यतीत हो चुका है। गौर करें तो अतीत व्यतीत होता ही नहीं, क्योंकि उसकी स्मृतियां और अवशेष तो
बचे ही रह जाते हैं और काल (Time) तो अविभाज्य हैं। इसलिए अतीत, वर्तमान और भविष्य अविभाज्य रूप से
एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। हर पल भविष्य वर्तमान और वर्तमान अतीत में रूपांतरित
होता रहता है। इसलिए वर्तमान को समझने के लिए हमें अतीत में जाना पड़ता है और
वर्तमान को समझ कर ही भविष्य को संवारा जा सकता है। इसीलिए मानव जाति ने अतीत को
जानने-समझने का विज्ञान और कला विकसित किया है। अब तो लगता है कि हमें कुछ भी
समझने के लिए उसे ऐतिहासिक पद्धति से सही समझ सकते हैं। तभी तो दार्शनिक मैंडेल
बाम ने जोर देकर कहा है कि हम दो ही तरीके से चीजों को समझ सकते हैं –
1. सिंहावलोकन (Retrospection) यानी अतीत का सार-संकलन
और
2. अन्तर्ध्यान (Introspection) यानी अंतर्मथंन द्वारा।
इसलिए प्राचीन काल में ही दुनिया में
हिस्तोरिका (Historica) या ‘इतिहास’ जैसे शब्दों की रचना की गई थी। इतिहास
की अवधारणा में ही शामिल था कि अतीत को वैसा ही देखा जाए जैसा वह था ताकि उससे सबक
लिया जा सके। इसीलिए प्राचीन काल में ही भारत के शासक के शिक्षण-प्रशिक्षण का
इतिहास को अंग बनाया गया था। आधुनिक काल में, विशेष कर 19वीं शताब्दी से इतिहास के मूलभूत प्रश्नों-‘क्या, क्यों, कैसे’ पर बहुविद्या विचार किया जाता रहा है
और तरह-तरह के विचारों और विचारकों का प्रादुर्भाव होता रहा है। उनका अध्ययन न
केवल अतीत को बल्कि वर्तमान को भी समझने में हमारी मदद करता है।
उद्देश्य
इतिहास के पाठ्क्रम में इतिहास लेखन को
आधार-पाठ्य के रूप में बीसवीं सदी में ही विकसित किया गया है। वैसे इतिहास क्या है? इतिहास की उपयोगिता क्या है? इतिहास की प्रकृति क्या है? इतिहास की पद्धति क्या है? आदि प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं।
परन्तु उन्हें समन्वित कर उन्हें बाकायदा एक ऐसा पाठ्य (Text) बना देना जो इतिहास का दर्शन (Philosophy
of History) बन
सके, ऐसा बहुत बाद में ही संभव हो पाया। आज
वह इतिहास का आधारभूत तथ्य समझा जाता है। इस तरह इतिहास लेखर और दर्शन के
उद्देश्यों को निम्नलिखित सूत्रों में बांधा जा सकता हैः
1. कोई
भी विषय क्यों अस्तित्व में आया यह जानना जरूरी होता है। तभी उस विषय की प्रकृति
समझ में आती है। आर्थर मारविक ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास की प्रकृति (Nature of History) में इसी गुत्थी को सुलझाया है।
2. इसी
तरह इतिहास क्यों जरूरी है यह भी प्रश्न उठता है। इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए
इतिहास की उपयोगिता समझ में आती है। उपयोगिता को स्पष्ट करने के क्रम में इतिहास
के दुरुपयोग भी समझ में आने लगते हैं।
3. यह
प्रश्न भी उभरता है कि क्या इतिहास हमेशा से एक जैसा ही रहा है? इतिहास के बदलते स्वरूप् को देखने पर
इतिहास लेखर कैसे होता रहा है स्पष्ट होने लगता है। इस तरह इतिहास का इतिहास उजागर
होता है।
4. इतिहास
का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि हम अतीत से वर्तमान के लिए सबक लें। परन्तु जैसा
कि जर्मन दाशर्निक हेगेल का कहना है - इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम इतिहास
से कोई सबक नहीं लेते। इससे इतिहास का महत्व नहीं घटता, इससे मनुष्य की प्रकृति के दोष उजागर
होते हैं।
5. इतिहास
के आइने में ही हमारी पहचान दीखती है। मनुष्य अपनी अस्मिता को ऐतिहासिक
परिप्रक्ष्य में ही देख-समझ पाता है।
6. ऐतिहासिक
पद्धति ही मनुष्य की मनीषा का सबसे आम उपकरण है - यानी मनुष्य को चीजें ऐतिहासिक पद्धति
से ही समझ में आती है।
इतिहास क्यों यानी, उसकी जरूरत ही क्या है?
इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया आने वाले
कल की ओर भागी जा रही है बीते कल की जंजीर की क्या जरूरत? लेकिन अगर वास्तविकता यह हो कि बीते कल
में ही सभी तरह की जंजीरों और उनके काटने के उपायों के स्रोत दबे पड़े हैं तब तो वहाँ
तक जाना पड़ेगा न? यही तो काम है इतिहास का, समाज को बताना कि आदमी गुफाओं से खलाओं
(अंतरिक्ष) तक कैसे पहुँचा है और इतनी सारी जंजीरें तोड़ता हुआ भी। आज भी जंजीरें
तोड़ी हैं उससे ज्यादा से ही बंधा लगता है। इतिहास ही रूसो की उक्ति- ‘मनुष्य मुक्त पैदा होता है पर हर कहीं
जंजीरों में बंधा है’ का
मर्म बताता है।
साहित्य और कुछ नहीं करता तो मनोरंजन
ही करता है। विज्ञान नौकरी दिलवाता है। अर्थशास्त्र से घर का बजट और समाजशास्त्र
से घर का स्वरूप और समाज से समाज से रिश्ता समझ में आ जाता हो शायद, यानी, ज्ञानी-विज्ञानय, साहित्य का संबंध उससे है जिसका
अस्तित्व है। इतिहास का, अतीत
का, तो कोई प्रत्यक्ष अस्तित्व है उससे है
जिसका संबंध उससे है जो ‘था’ हम तो ‘हैं’, फिर ‘था’ का क्या करें?
सामान्यतः ऐसा सोचा जाता रहा है कि जिस
चीज की कोई तात्कालिक और प्रत्यक्ष उपयोगिता न हो उसका होना न होना बराबर है। यानी
कुल सवाल उपयोगिता का है। वही निर्णायक है।
इतिहास की उपयोगिता
इसके पहले कि हम
इतिहास को वैचारिक दार्शनिक दृष्टि से उपयोगी सिद्ध करें आइए, हम अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टि से देखें
कि इतिहास की उपयोगिता क्या है? सबसे पहले जो बात ध्यान में आती है वह यह कि फार्मों वाले देश में
कोई भी फार्म लें उसमें प्रार्थी के नाम के बाद के दो-तीन कॉलम महत्वपूर्ण होते
हैं, बाप का नाम, जन्मतिथि, पता आदि। हमें तो महज प्रार्थी से मतलब
है। तो फिर अन्य विवरणों की क्या आवश्यकता? पर हम जानते हैं कि बिना बाप के पहचान ही पूरी नहीं होगी। हमारी पूरी
पहचान के लिए हमारी जन्मतिथि और पता भी जरूरी है यानी हमें काल (जन्मतिथि) और देश
(पता) में स्थापित करके और हमें अपने अतीत यानी बाप से जोड़ा जाता है ताकि शिनाख्त
हो सके। उपर्युक्त तीन बातों से जुड़े बगैर मेरा परिचय और मेरा अस्तित्व पहचान नहीं
बन सकता, यानी वर्तमान बिना अतीत से जुड़े अनाम, अज्ञात और अज्ञेय बना रहेगा।
पॉल वाइस के अनुसार अपने को अतीत से
जोड़ने में आनंदानुभूति होती है। मनुष्य अपने स्रोत की चेतना से अपने को आश्वस्त कर
लेता है कि वह अकेला, निर्लम्ब नहीं है। मानव स्वभाव है कि
वह किसी चीज को किसी परिप्रेक्ष्य में रख कर ही पहचान सकता है, उसे पूरी तरह समझ सकता है। अब तो ‘सापेक्षता’ विज्ञान की भी स्वीकृत धारणा है। कोई
चीज किसी संदर्भ में ही मोटी, पतली,
लम्बी, छोटी, अच्छी या बुरी होती है। किसी व्यक्ति
की किसी और से तुलना कर उसकी अच्छाई या बुराई को रेखांकित और बोधगम्य बनाते है।
दूसरे शब्दों में,
तुलना
और उदाहरण बुद्धि द्वारा विकसित बौद्धिक उपकरण हैं। साहित्य में भी उपमा और रूपक
सरलीकरण और संप्रेषण के उपादान हैं और सौंदर्य बोध को समृद्ध करते हैं।
किसी समाज विशेष में कैसे
जानें-पहचानें? एक तरीका होता है उसे अन्य समाजों के
मुकाबले देखने का जैसे आज के भारत को आज के पाकिस्तान, चीन या अमेरिका के संदर्भ में देखने का
या फिर आज के भारत को कल यानी प्रारंभिक काल, मध्य काल या औपनिवेशिक काल के परिप्रेक्ष्य में देखने का। फिर आज के
भारत को पश्चिमी समाज के बगल में खड़ा करके देखने की अपेक्षा आज को बीते कल से जोड़ कर
देखने में अधिक सही पहचान बनती है। इससे विकास धारा का, इतिहास की दिशा का पता चलता है। इसलिए
वर्तमान को इतिहास से ही परिप्रेक्ष्य मिलता है। दूसरे शब्दों, हम जानते हैं कि बिना दूरी लिए कोई चीज
पूरी तरह दिखाई नहीं देती और वर्तमान से दूरी लेने का एकमात्र तरीका है उसे अतीत
से जोड़ कर उसी के क्रम में देखना।
अतीत के प्रति मनुष्य का नैसर्गिक लगाव
होता है। इतिहास इस लगाव की पहचान स्पष्ट कर सकता है- माँ से सहज ढंग से प्यार करना एक बात है और माँ की
अर्थवत्ता को समझना,
उसका
मूल्यांकन करना, दूसरी बात। वैसे ही अतीत से लगाव सबमें
होता है-सहज, नैसर्गिक, लेकिन इतिहास उस लगाव को इतिहास
बोध-में बदल सकता है, संवेदना
और भावना के यथार्थ को बौद्धिक-ज्ञान और विवेक में विकसित कर सकता है। यानी उस
लगाव को प्रासंगिक और उपयोगी बना सकता है।
इतिहास से सबक लेने की बात सबसे
व्यावहारिक मानी जाती रही है। जैसे कोई आग से जला और यह समझदारी सबकी विरासत बन गई
कि आग से आदमी जल सकता है। मुहम्मद तुगलक ने राजधानी बदली और मुसीबतें खड़ी हो गईं।
इसलिए ऐतिहासिक मुहावरा बना ‘दिल्ली से दौलताबाद’ और इसे यानी राजधानी परिवर्तन, यानी स्थान परिवर्तन को गलत मान लिया गया। इस सबक वाली बात में मुख्य
खतरा यह है कि ‘इतिहास की पुनरावृत्ति होती है’, जैसी अवधारणा पनपती है, जो गलत है। जैसे राजधानी बदलने में
कठिनाई हो पर ऐसा करना हमेशा गलत नहीं है। कभी-कभी वह जरूरी भी होता है, सफल भी होता है। कलकत्ते से दिल्ली, इलाहाबाद से लखनऊ, बर्लिन से बॉन सफल राजधानी परिवर्तन
रहे हैं। यह सबक वाली बात सीधे जुड़ती है। इस मुहावरे से - ‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता
है।’
यह अनुभवों के सार-संकलन से लाभ उठाने
का पुराना व्यवहारवादी तरीका है। कल्हण ने इन्हीं अर्थों में इतिहास को उपयोगी
माना था। इसी अर्थ में इतिहास प्रेरणास्रोत बनता है - अतीत नायकों के चरित्र और
उपलब्धियों के माध्यम से आज को प्रेरणा देता है। यहाँ भी खतरा यही होता है कि अगर
इतिहास की पुरावृत्ति वाली बात दिमाग में रही तो एक देश-काल में सफल नीति या
व्यक्ति को अनुकरणीय मान लिया जा सकता है, जो घातक होगा। जैसे अकबर की धार्मिक नीति को सफल मान कर आज भी उसे
लागू करने वाले मुंह के बल गिरते हैं। क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान
कांग्रेस की धार्मिक नीति या सरकारों की धर्मनिरपेक्षता अकबर की धार्मिक नीति की
तरह ही है। उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का मतलब है ‘सर्व धर्म समभाव’। लेकिन तमाम पर्दों के बावजूद यह तथ्य
आंखों में घूरता है,
अधिकांश
लोगों के मनों में चोर की तरह बैठा रहता है और मौका पाते ही सेंध लगाता है और लोग
भूल नहीं पाते कि सब कुछ करते हुए भी अकबर मुसलमान था और वही माना जाता रहा है।
उसी तरह कांग्रेस - गांधी,
नेहरू
के बावजूद एक हिंदू-प्रधान संस्था नहीं है और आज की धर्मनिरपेक्षता भी
हिन्दू-प्रधान है। और यह गलत है।
इस प्रकार एक ओर इतिहास से सबक लेने की
बात सच है तो दसरी ओर गलत सबक लेने की बात भी सच है। और सबसे ज्यादा तो सच यह है
कि हीगेल के अनुसार ‘इतिहास
की सबसे बड़ी सीख यही है कि इतिहास से कोई सीख नहीं लेता।’ न स्वयं हीगल ने कोई सीख ली, न उसके देश जर्मनी ने, न उसके विचारों की धर्मनिरपेक्षता भी
हिन्दू-प्रधान है। और यह गलत है।
अब आइए इतिहास की उपयोगिता को और
गंभीरता से परखें। हम जानते हैं कि कारण कार्य संबंधों की तलाश में प्रकृति से
आंकड़े जुटा कर प्राकृतिक परिघटनाओं (फेनामेना) को प्रयोगशाला में दोहरा कर इतने
तथ्य जुटाए गए कि उसके आधार पर सामान्यीकरण किया जा सके और निर्देशित किया जा सके -
भविष्य के बारे में बताया जा सके। प्राकृतिक विज्ञान में ऐसा संभव हुआ और मनुष्य
का आत्मविश्वास बढ़ा। जहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित न हो सके, उसे अविश्वसनीय माना गया। इसलिए देकार्त ने
इतिहास को अविश्वसनीय कहा था। आज भी बहुत से लोग इतिहास को किस्सा-कहानी ही समझते
हैं।
फिर शुरू हुई सामाजिक विकास के नियमों
की तलाश। ऐसे विचारक हुए जो समाज को समझने के नियमों और उसके परिवर्तनों को नियमबद्ध
करने, नियंत्रित और निर्देशित करने की कोशिश
करते रहे। ज्ञान के जिन क्षेत्रों में ऐसा नहीं हो सकता था उन्हें नकारा जाने लगा।
ओगुस्त कोंत ने ‘सामाजिक भौतिकी’ की तलाश कर लेने का दावा किया और ‘समाजशास्त्र का जनक’ कहलाने लगा पर वास्तव में सामाजिक
विकास के वस्तुगत नियम ढूंढने और उन्हें यथासंभव लागू करने का काम मार्क्स ने
किया।
कार्ल मार्क्स |
मार्क्स प्रकृति की द्वंद्वात्मकता से
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तक पहुँचा और उसे इतिहास पर लागू कर ऐतिहासिक भौतिकवाद तक।
उसने इतिहास के तथ्यों के विश्लेषण से ही जाना कि इतिहास कैसे गतिमान रहा है - मानव-समाज
कैसे आदिम स्थिति से पूंजीवादी व्यवस्था तक पहुँचा है। उसी विश्लेषण से उसने
सामाजिक परिवर्तन के नियम का आधार उत्पादन साधनों और उत्पादन संबंधों में परिवर्तन
को सिद्ध किया और वर्ग-संघर्ष को निर्णायक, अनिवार्य, माध्यम
बताया। उसने भविष्यवाणी की कि जैसे सामंतवाद को पराजित कर पूंजीवाद विकसित हुआ है
वैसे ही पूंजीवाद को ध्वंस कर सर्वहारा अपना राज्य कायम करेगा। 1917 की रूसी
क्रांति के बाद मार्क्स द्वारा निरूपित नियम इतिहास में कई बार सिद्ध हो चुके हैं।
इसलिए इतिहास ही वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव-कृतियों का लेखा-जोखा सुरक्षित है
और उसी आधार पर सामाजिक परिवर्तन के वस्तुगत नियम समझे जा सकते हैं - उसी के आधार
पर अतीत को समझा, वर्तमान को पहचाना और भविष्य को संवारा
जा सकता है।
इसके अलावा इतिहास संकीर्णता का शत्रु
है। इतिहास का ‘सही’ (वैज्ञानिक) अध्ययन करते ही देश-काल की
विशिष्टता तो रेखांकित होती है पर मानव-समाज की एकता उससे भी अधिक उजागर होती है।
जैसे इतिहास यह बताएगा कि भारत में असम, पंजाब या तमिलनाडु की अपनी विशिष्टता है पर यह भी कि भारतीयता भी एक
ऐतिहासिक यथार्थ है। इतिहास बताता है कि वैज्ञानिक युग के प्रारंभ यानी पंद्रहवीं
शताब्दी के बाद विश्व-समाज की एकता उजागर होती चली गई है। हर समाज और वर्ग अपने
जैसों से एकाकार महसूस कर एकजुटता प्रदर्शित करता है। इसे साहित्य, दर्शन, कला और विचार में अभिव्यक्ति मिलती रही
है।
इतिहास मनुष्य की प्रगति यात्रा के
शानदार महाकाव्य जैसा है, बिना
नायक और खलनायक के। धर्म-ग्रंथों में स्वर्ण काल के अतीत में और कयामत के दिन के
भविष्य में होने पर जोर दिया गया है। उनके अनुसार समाज पतनोन्मुख है और पाप का घड़ा
भर रहा है, एक दिन फूटेगा और प्रलय होगी। परिवर्तन
तभी संभव है। ऐसी धारणा से मनुष्य निराश और आतंकित होता है। इसके विपरीत इतिहास यह
बताता है कि मनुष्य अमीबा से आदमी बनने तक की यात्रा पूरी कर आदमी से इंसान और
इंसान से बेहतर इंसान बनाने के संघर्ष में रत है। आदिम जंगली अवस्था की प्रकृति की
गुलामी तोड़ कर मनुष्य आजाद हुआ। उसने अपने उपकरण बनाए। बुद्धि का विकास किया और
प्रकृति से संघर्ष कर उस पर नियंत्रण करने लगा। दिन-ब-दिन सभ्यता और संस्कृति का
विकास होने लगा। इस दौरान इसने स्वयं तरह-तरह के बंधन पैदा किए - वर्गों, वर्णों, गुटों में बांटा। आपस में लड़ता रहा, संहार करता रहा। फिर भी - इस सबके
बावजूद, वह धरती के अलावा आकाश-पाताल भी भेदने
लगा, इंसान बनने की लड़ाई में लगा रहा। यानी
इतिहास इंसान की लगातार बढ़ती जा रही जीतों का साक्षी है, उसके उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष कर रहा
है।
इतिहास नियतिवाद पर भयानक प्रहार करता
है। इतिहास में ही हमें पता लगता है कि इंसान की जीत हाथ पर हाथ धरने से नहीं, महापुरुषों के इंतजार से नहीं, स्वयं समवेत रूप में महाबली बनने से
संभव हुई है। इतिहास व्यक्तियों के प्रयासों और उपलब्धियों को बताता ही है, इतिहास मनुष्य के भविष्य में ही नहीं
उसकी शक्ति में भी विश्वास पैदा करता है।
इतिहास अगर मनुष्य की कृतियों का
लेखा-जोखा है तो निश्चित ही मनुष्य को समग्रता में जानने का और कोई उपाय ही नहीं
है। जिस समाज में हम रहते हैं, उसके वर्तमान स्वरूप को उसमें रहते हुए हम समग्रता में ग्रहण ही नहीं
कर सकते, देख-समझ ही नहीं सकते। उसमें दूरी लेने
कास एक तरीका है कि हम वर्तमान से अतीत तक को लें। यद्वपि संयुक्तता की संभावना
तभी भी रहती है क्योंकि इतिहास के क्षेत्र में मनुष्य लेखक भी होता है और अपने
लेखन का विषय भी, दोनों एक साथ। पर अतीत को देखने में जो
परिप्रेक्ष्य मिलता है वह कमोबेश समग्र प्रभाव छोड़ सकता है। इसलिए साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र मनुष्य के अंतरंग, निर्णायक या जरूरी पक्षों का अध्ययन कर
सकते हैं पर मानव कृतियों कुल योग इतिहास का ही विषय है।
जीव जगत का कोई अन्य प्राणी अपने अतीत
को उपयोगी बनाने को कौन कहे, उसके प्रति सचेत भी नहीं होता, किन्हीं-किन्हीं में सहजानुभूति के स्तर पर कोई लगाव हो यह चेतना हो
भी तो कम से कम उसका अर्थ समझने की और उसे अपने हित में इस्तेमाल करने की क्षमता
नहीं होती। मानव-समाज के विकास-क्रम में अतीत, वर्तमान के लिए प्रासंगिक और अनिवार्य
होता गया है। विकसित मानव ही अतीत का विश्लेषण और संकलन कर सकता है और इतिहास के
माध्यम से महसूस कर सकता है कि कालधारा में बह नहीं रहा है, तैर रहा है।
इतिहास की समझ ने हमें एक ऐतिहासिक पद्धति
दी है जिसके उपयोग से ज्ञान-मीमाँसा समृद्ध हुई है। उस पद्धति से ही हम विज्ञान और
समाज विज्ञान ही नहीं साहित्य और संस्कृति की भी पूरी अर्थवत्ता भलीभांति समझ सकते
हैं। यहाँ तक कि हमारी दैनंदिन समझ भी इस पर निर्भर होती है : जैसे आज चाय अच्छी
है इस निर्णय पर हमारा मस्तिष्क अब तक पी गई चाय से संदर्भित करने के बाद ही पहुँचता
है।
इसलिए इतिहास मनुष्य के विकास का
उद्घाटक ही नहीं प्रमाण भी है, मानव-समाज को समझने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण
है।
2. इतिहास क्या यानी
इतिहास की अंतर्वस्तु और प्रकृति क्या है?
वे लोग भी इतिहास के विषय में एकमत
नहीं हो पाते जो मानव-इतिहास का अर्थ समझते हैं। इतिहास में आदमी के कारनामों का
जिक्र होता है उन्हें आदमी ही इतिहाबद्ध करता है, इसलिए विवादों का खड़ा होना
स्वाभाविक-सा है। बस एक बात निर्विवाद और सुनिश्चत होती है कि इतिहास का संबंध
मनुष्य के अतीत से हैं। उस अतीत को देखने, उसके बारे में कोई अभिधारणा बनाने और उसकी व्याख्या में देश-काल और
व्यक्ति के अनुसार मतैक्य न हो तो इससे विशेष आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जब से मनुष्य चेतनशील हुआ है, वह अपने अतीत में, जहाँ उसके वर्तमान के स्रोत हैं, दिलचस्पी लेता रहा है। इस सहज रुचि के
साथ उसके वर्तमान के स्वार्थ, उसकी मनोवृत्ति, उसके विचार और उसकी वर्ग-चेतना की भूमिका जुड़ी होती है। इसलिए अतीत
को वह अपने ढंग से देखता रहा है और इतिहास विवादों को जन्म देता रहा है, उनका शिकार होता रहा है।
समाज विज्ञान के क्षेत्र में एक
सार्वभौम और सर्वव्यापी परिभाषा कर पाना, जो संक्षिप्त और सर्वथा उचित भी हो, प्राकृतिक विज्ञान की अपेक्षा बहुत
कठिन कार्य है। जहाँ तक इतिहास का संबंध है, उसकी परिभाषाओं में बहुत विविधता है। अमरीका के सबसे पहले और सबसे
प्रसिद्ध धनकुबेर हेनरी फोर्ड ने इतिहास को बकवास कहा था-‘हिस्ट्र इज बंक’ (उनका ऐसा कहना स्वाभाविक था क्योंकि उस
समय न तो उनका कोई इतिहास था और न उनके जैसों के देश का)। दूसरी ओर नेपोलियन
इतिहास को विवेक कहता था। हालांकि स्वयं उसमें विवेक का अभाव था और वह हीगेल के इन
शब्दों की सच्चाई साबित कर गया कि ‘इतिहास की एकमात्र सीख यही है कि हम इतिहास से कोई सीख नहीं लेते।’ फ्रांसीसी लेखक अनातोल फ्रांस ने
इतिहास की एक दिलचस्प तस्वीर खींची है। उसके अनुसार इतिहास एक अत्यंत प्रभावशाली
महिला की तरह है जो स्वभाव से दम्भी, भुलक्कड़, पक्षपाती
और झूठी है। साहित्यकार की अंतदृष्टि ने इस प्रकार इतिहास के उन दोषों की ओर इशारा
किया है जिन्हें जनमानस प्रायः इतिहास में देखता है।
इतिहासकारों और विचारकों की बात लें तो
फ्रेंच इतिहासकार मारु का मत है कि ‘इतिहास मानव के अतीत का ज्ञान है।’ और स्पष्ट शब्दों में डब्ल्यू.एच.
गालब्रेथ इतिहास को ‘अतीत
का वह अंश मानते हैं जिसे हम जान पाए हैं या जान पाते हैं।’ इस प्रकार निर्विवाद रूप से इतिहास
अतीत में मानव-समाज का प्राप्त और प्राप्य ज्ञान माना जाता रहा है।
समाज के संदर्भ में इतिहास की वही
भूमिका है जो मनुष्य के संदर्भ में उसकी स्मृति की। इस तरह समष्टि की। अपने अतीत
की स्मृति है, पर जब कोई व्यक्ति वैज्ञानिक अध्ययन के
सहारे इस स्मृति का संयोजन करता है, उसे लिपिबद्ध करता है या यूं कहें कि अतीत की पुनर्रचना करता है, तभी इतिहास का जन्म होता है। इतिहास की
रचना एक व्यक्ति करता है जो आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में रहता है। जीवन और परिवेश की उसकी अपनी समझदारी
होती है, उसकी अपनी एक अस्मिता होती है। ये
बातें उसके इतिहास-लेखन पर निश्चित प्रभाव डालती हैं। इस प्रकार व्यक्ति और इतिहास
के संबंध दोहरे हो जाते हैं। विख्यात फ्रांसीसी विचारक रेमो आरों के शब्दों में, ‘आदमी एक ही साथ इतिहास का कर्ता और
पात्र दोनों होता है’ (लाम्म
एताला फुआ ल स्यूजे ए लोब्जे द लिस्तुआर)। स्पष्ट शब्दों में, अतीत की मानवकृतियों का जब एक मानव
(इतिहासकार) विवेचना करता है तो उसका पूरी तरह वस्तुनिष्ठ हो पाना संभव नहीं
क्योंकि वह जिन इतिहास स्रोतों को अपना आधार बनाता है उनका वह स्वयं प्रत्यक्ष
साक्षी नहीं होता,
न
ही वह उन्हें किसी प्रयोगशाला में दुहरा सकता है। ऐसी स्थिति में वह अपने
इतिहास-लेखन में पूरी तरह तटस्थ और पूर्वाग्रह-विहीन कैसे रह सकता है? व्यक्तिगत और परिवेशगत दबावों के कारण
उसके लेखन के आत्मपरक होने की संभावना बनी रहती है।
इतिहास-लेखन एक दुष्कर कार्य है।
इतिहासकार कितना ही बड़ा शोधकर्ता क्यों न हो उसे पूरे साक्ष्य नहीं मिल पाते। फिर
जितने भी मिलेंगे उनमें से उसे चुनाव करना पड़ता है। पूरी प्रक्रिया के दौरान अक्सर
उसकी पूर्वनिश्चित धारणाएं काम करती हैं और प्रायः इतिहासकार उनके प्रति सचेत तक
नहीं होता। ऐसा भी होता है कि इतिहासकार अपने दम्भ का शिकार हो जाता है या फिर
अपने कार्य की प्रतिष्ठा के लिए अपने इतिहास को सत्य का पर्याय कह बैठता है।
इतिहासकार बरी ने कहा था कि शायद ही कोई ऐसा इतिहासकार हो जो न कहता हो कि उसका एक
मात्र लक्ष्य अतीत का निष्पक्ष और सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करना है। ऐसा कहना और
सोचना दुराग्रह है जो स्वयं इतिहासकार को नहीं, इतिहास की सीमाओं को भी नजरअंदाज करता
है।
वास्तविकता यह है कि इतिहास का सत्य
सीमित होता है और वह भी तभी विश्वसनीय होता है जब-
(1) प्रासंगिक तथ्यों के बारे में स्रोतों
का यथासंभव शोध हो और विभिन्न स्रोतों से पुष्ट तथ्य को स्वीकार किया जाय।
(2) इतिहासकार स्वयं अपने विचारों तथा पूर्वाग्रहों
के प्रति सचेत हो।
(3) तथ्यों के विश्लेषण के लिए उसके
पास कोई सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक उपकरण हो।
(4) तथ्यों के संकलन-विश्लेषण में वह जहाँ
तक हो सके जागरूक तटस्थता का निर्वाह करे।
इतिहास-लेखन की सीमाओं और संभावनाओं को
समझने के लिए यह जरूरी होगा कि हम इतिहास-दर्शन और अब तक इतिहास-लेखन पर हुए चिंतन
पर एक विहंगम दृष्टि डाल लें। दूसरे शब्दों में, इतिहास का संक्षिप्त इतिहास जान लेना
उपयोगी और आवश्यक है।
इतिहास लेखन का इतिहास
अति प्राचीन काल में भी जब इतिहास-लेखन
शुरू भी नहीं हुआ था, मनुष्य
मिथक और गाथाओं के माध्यम से अपने अतीत की कथा-स्मृति को यथासंभव सुरक्षित रखता
था। लेकिन उस समय यथार्थ और कल्पना इस तरह घुलमिल जाते थे कि एक-दूसरे को अलग कर
पाना संभव नहीं था। यद्यपि कालिंगवुड का विचार है कि मध्यपूर्व की प्राचीन
सभ्यताओं में एक प्रकार के धार्मिक इतिहास के बीज मिलते हैं पर भारतीय और चीनी
परम्परा तो मध्यपूर्व से प्राचीनतर है और वहाँ भी इतिहास बीज रूप में मौजूद है पर
समान्यतः इतिहास लेखन की शुरुआत यूनान के हेरोदोतस (पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व) भी
गाथाओं और मिथकों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके थे पर उन्होंने अपने इतिहास में
मनुष्य के कार्यों को देश-काल में स्थित करना शुरू किया और इतिहास-लेखन का
प्रारंभिक दौर शुरू हुआ।
हेरोदोतस ने मनुष्य के कार्यों को
वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखा। अपनी कुशाग्र जिज्ञासा और ईमानदार निर्णय के सहारे
उसने इतिहास लिखा। लेकिन उसके पास कोई वैज्ञानिक शोधपद्धति नहीं थी। वह प्रायः
अपनी सूचनाओं पर यथावत विश्वास कर लेता था। उसे उन लोगों की भाषाएं भी नहीं आती
थीं जिनके विषय में वह लिख रहा था। और फिर उस काल की स्वाभाविक मासूमियत का वह भी
शिकार था। इसलिए कुछ लोग तो उसे इतिहासकार मानने पर भी एतराज करते हैं। पर यह
निर्विवाद है कि वह मनुष्य को देश-काल में स्थित कर देखने लगा था। देश-काल का यही
संदर्भ इतिहास की पूर्व शर्त है।
थूसीदीदस का लेखन ज्यादा व्यवस्थित और
सूक्ष्म था। वह यथासंभव कल्पना के सहारे लिखने से बचता था। उसकी दृष्टि पैनी थी और
वह तथ्यों की जांच करता था। पर वह अंतर्ग्रस्त हो कर लिखता था कि ‘ऐसे ही लोगों को इतिहास लिखना चाहिए
जिनका घटनाओं से सीधा जुड़ाव रहा हो।’ इस तरह उसके लेखन की भी एक सीमा थी। खासतौर पर उसके अनुसार सुदूर
अतीत का इतिहास लिखने की तो संभावना ही नहीं थी।
इन दोनों पहलकर्ताओं को पूर्णतया
इतिहासकार न भी माना जाए तो इन्हें अपने युग का जीवनीकार तो मान ही सकते हैं। वैसे
उस युग में वस्तुगत इतिहास की अपेक्षा करना एक दुराग्रह ही होगा। आज भी जब इतिहास
वैज्ञानिक विधि से लिखा जाने लगा है वह गाथाओं और किंवदंतियों से पूर्णतः मुक्त कहाँ
हो पाया है?
प्राचीन इतिहासकारों में इटली के
पोलीबियस (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) ने इतिहास को सबसे सही परिप्रेक्ष्य में समझा।
उसने कहा कि यदि इतिहास के कारणों की व्याख्या, विचार और मंतव्य जैसी चीजें इतिहास से
निकाल दें तो तमाशा मात्र ही बचेगा जो मूल्यहीन होगा। उसने घटनाओं को उनके पहले और
बाद के संदर्भों से जोड़ने पर जोर दिया। उसने इतिहास के तीन पहलू बताए, लिखित अभिलेख, टेपोग्राफी और राजनीतिक बातें। उसने
इतिहासकार के दो काम बताए, सही
तथ्य का पता लगाना और किसी नीति या व्यवस्था की सफलता-असफलता के कारण ढूंढना। ऐसा
न होने पर इतिहास शिक्षाप्रद नहीं होगा। यह सब होते हुए भी वह राजनीति की प्रधानता
से उबर नहीं सका और एक प्रकार के नैतिक पूर्वाग्रह का शिकार होता गया।
ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में जब
यूनान का पतन हो रहा था, इतिहास
की महत्ता समाप्त-सी हो रही थी। ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में समाज को धर्म
प्रधान बनाना शुरू कर दिया गया था और समय की धारा के अनुकूल ही संत आगस्टाइन ने ‘इतिहास में ईश्वर को स्थापित कर दिया।’ एक नियतिवादी समाज में मनुष्य के
कार्यकलापों का क्या महत्व हो सकता है? भिक्षुओं ने, जिन्हें
जीवन और समाज की सीमित जानकारी थी, इतिहास लेखन को भी एक धार्मिक कार्य समझा। जाहिर है उनका इतिहास समाज
के विकास-क्रम पर या उसे बदलने पर रोशनी डालने को कौन कहे, व्यक्ति की सही पहचान कराने में भी
असमर्थ था। यूरोप शताब्दियों तक ऐसा ही इतिहास लिखा जाता रहा जो कैथोलिक चर्च की
सत्ता की प्रतिष्ठा और स्थायित्व बनाएं रखने में सहायक हो।
IBN KHALDUN |
चौदहवीं शताब्दी में, यूरोप में ही नहीं, अफ्रीका में, एक विलक्षण इतिहासकार पैदा हुआ-इब्न
खल्दून (1332-1406)। उसने केवल इतिहास नहीं, इतिहास-लेखन की विधि और सामाजिक संस्थाओं का महत्व समझा। उसने अपने
पहले के अरब इतिहास को साहित्य से अलग रखते हुए साधारण के माध्यम से विशिष्ट की
व्याख्या करने का तरीका अपनाया। अपनी विख्यात ‘मुकद्दिमा’ की प्रस्तावना में उसने लिखा कि वह
इतिहास इसलिए लिख रहा हैस, ताकि
शासक जान सकें कि पहले क्या हुआ और बाद में क्या होगा। यह इतिहास को काल प्रवाह और
विकास की दिशा के संदर्भ में समझने का प्रयास था और आज भी प्रासंगिक हैं इस प्रकार
वैज्ञानिक पद्धति इस्तेमाल करके इतिहासकार सिद्वांतों, मतों और पूर्वाग्रहों से बच सकता है।
इस तरह के वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाला इब्न खल्दून पहला व्यक्ति था। यह
दूसरी बात है कि वह स्वयं पूरी तरह वैसा इतिहास नहीं लिख सका। इब्न खल्दून के
मूल्याकंन का आधार यह नहीं हो सकता कि वह इतिहास को वह स्वरूप नहीं दे सका जिसकी
वह बात करता था। उसे तो इस दृष्टि से देखना चाहिए कि अपनी आलोचनात्मक पद्धति और
दार्शनिक झुकाव के कारण उसने इतिहास को वह गरिमा प्रदान की, जो यूरोप में सदियों बाद जा कर ही किया
जा सका। अंत में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह यूरोप
के पुनर्जागण के पहले लिख रहा था, और वह भी अफ्रीका में।
यूरोप में पंद्रहवीं शताब्दी में जब
पुनर्जागरण शुरू हुआ तो जीवन-दृष्टि ही बदलने लगी। चमत्कारों का प्रभाव कम होने
लगा। बिना धर्म विरोधी बने लोग धर्म के प्रति तटस्थ होने लगे। इतिहास पर भी धर्म
का प्रभाव दो तरह से कम होना शुरू हुआ। एक तो गैर भिक्षु लोग भी इतिहास-लेखन की ओर
आकर्षित हुए। दूसरे इतिहास का विषय अब ‘सेक्यूलर’ होने
लगा।
Niccolò Machiavelli |
इस समय के लेखकों में मैकियावेली
(1469-1527) का नाम प्रमुख है। राजनीति की तरह इतिहास के विषय में भी उसके अपने
दृढ़ विचार थे। उसने इतिहास को अपने विचारों के लिए उपकरण की तरह इस्तेमाल किया।
फुएटरा का तो कहना है कि अपने विचारों की पुष्टि के लिए जब उसे तथ्य नहीं मिलते थे
तो वह उन्हें गढ़ लेता था। ऐसे में इतिहास कितना निष्पक्ष होगा, यह सोचने की बात है पर यह तो निर्विवाद
है कि उसने इतिहास को लौकिक आधार प्रदान किया।
प्रबोधनकाल (एज ऑफ एनालाइटेनमेंट) में
इतिहास का स्वरूप निश्चित दिशाओं में निर्धारित होने लगा। इतिहास का क्षेत्र
धार्मिक दांव-पेंच और राजनीति के पचड़ों को पार कर विस्तृत होने लगा। समाज और
सभ्यता इतिहास के विषय होने लगे। अंधविश्वासों का प्रभाव समाप्त होने लगा। विचारों
को अधिक महत्व मिलने लगा, जिसके
कारण बाद में बौद्धिक इतिहास की शुरुआत हो पाई। मानवमात्र की समानता की बात की
जाने लगी। उनकी विविधता का आधार मोन्तेस्किउ (1689-1775) ने भूगोल को और वोल्तेयर
(1694-1778) ने जलवायु, धर्म
और संस्कारों को माना। सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि इतिहास में प्रगति का सिद्धान्त
प्रतिष्ठित हुआ। इस प्रकार स्वर्णकाल की खोज इतिहास में करने के बजाय उसकी कल्पना
भविष्य में की जाने लगी। फ्रांस के विद्वान लेखकों मान्तेस्किउ, वोल्तयर और कोंदोर्से (1743-1794) के
प्रभाव में इतिहास तर्कसंगत होने लगा।
इस प्रकार इतिहास के परिप्रेक्ष्य का
विस्तार हुआ। उसे सैद्धान्तिक आधार मिला। लेकिन ऐसा लगता था कि इस काल के लेखक ‘इतिहास से पूछने के पहले ही जानते थे
कि व्यक्ति कैसा है।’ ऐसी
स्थिति में ऐतिहासिक तथ्यों को वह सम्मान नहीं मिल पाया था जो उन्हें मिलना चाहिए
था। वस्तुनिष्ठ इतिहास तर्कसंगत होने लगा।
अब हम पिछली तीन शताब्दियों में हुए
इतिहास-चिंतन पर एक दृष्टि डालें तो हमें दो सुस्पष्ट धाराएं नजर आएंगी। एक धारा
इतिहास में कार्य-कारण-संबंधों पर वैसे ही नियम लागू करना चाहती है जैसा कि
प्राकृतिक विज्ञान में होता है ताकि सामान्यीकरण के आधार पर कुछ नियम बनाए जा
सकें। इस प्रकार इतिहास को विज्ञान बनाने की चेष्टा की जाती रही है। दूसरी ओर, इतिहास की प्रासंगिकता पर बल दिया गया
है और किसी भी सामान्यीकरण को नकारा जाता है। इसके अतिरिक्त ऐसे भी प्रयत्न हुए
हैं कि इतिहास में दोनों ही विचारों का समन्वय हो सकता है। इस प्रकार बीच के
रास्ते की वकालत होती रही है।
वैज्ञानिक इतिहास की तलाश: फ्रांसीसी
विचारक देकार्त (1596-1650) स्वयं कोई इतिहासकार नहीं था, फिर भी हमें बात उसी से शुरू करनी
पड़ेगी। उसकी दृष्टि में हर वह चीज निकृष्ट थी जो तर्क की कसौटी पर न कसी जा सके।
इसलिए वह कहता था कि सच्चा-से-सच्चा इतिहास भी रूमानियत से मुक्त नहीं हो सकता।
उसने इतिहास को मानव विज्ञान के क्षेत्र में कोई महत्व देने से इंकार कर दिया।
लेकिन उसने जो तर्क-पद्धति प्रतिपादित की उसका उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में होने
लगा और अठारहवीं शताब्दी आते-आते इतिहास के क्षेत्र में भी एक मोड़ आया।
ज्यादातर विज्ञान वोल्तेयर द्वारा
लिखित ‘लुई चतुर्दश का काल’ को ‘पहला आधुनिक इतिहास’ मानते हैं। वोल्तेयर ने इतिहास संबंधी
अपने विचारों को दिदरो की ‘इंसाइक्लोपीडिया’ में लिखा था। उसका मत था कि जैसे और क्षेत्रों में नियम हैं वैसी ही
वैज्ञानिक इतिहास-लेखन के भी नियम हो सकते हैं। पर उसे चर्च और पादरियों से घृणा
थी और वह इतिहास में ‘हीरो’ की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता
था। उसकी धारणा नैतिकवादी थी। निश्चित था कि ऐसे में वह इतिहास-लेखन में तटस्थ
नहीं रह सकता था।
बाद में कोन्दोर्से और उसके प्रभाव में
सैं सीमो (1760-1825) ने इतिहास से वे आंकड़े प्राप्त करने चाहे जिनके आधार पर
भविष्य का निर्धारण हो सके। इसी क्रम में ओगस्तु कोंत ने नियम ढूंढने चाहे जिनके
सहारे सारी इतिहास-धारा को पहले से ही जाना जा सके। वह एक प्रकार की ‘सामाजिक भौतिकी’ की प्रतिष्ठापना करना चाहता था। इन
बातों का यूरोप भर में काफी प्रभाव पड़ा। तैन (1828-1893) ने तो यहाँ तक कहा कि ‘जन्तु विज्ञान की तरह इतिहास को भी एक
तरह की ‘एनॉटमी’, मिल गई है’, यानी इतिहास वैज्ञानिक हो गया है।
कुल मिला कर इस धारा में दो बातों पर
जोर दिया गया - वैज्ञानिक शोध और सामान्यीकरण के माध्यम से नियमों का आविष्कार।
इनमें से पहले लक्ष्य ने इतिहास का बहुत भला किया। पर वैसे नियम नहीं बनाए जा सके
और इतिहास उतना अनुभवजन्य नहीं हो सकता जितना होने पर वह वैज्ञानिकता मिल पाती जो
उसे तैन और ओस्गुस्त कोंत देना चाहते थे।
जर्मनी में इस प्रवृत्ति को नीबर
(1776-1831) नामक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति में अभिव्यक्ति मिली। उसने बर्लिन
विश्वविद्यालय में पहले अपने व्याख्यानों और रचनाओं के माध्यम से इतिहास को एक
भाषाशास्त्री की दृष्टि से देखा। उसकी पुस्तक ‘रोम का इतिहास’ ने इतिहास-लेखन का एक नया आयाम
प्रस्तुत किया। लेकिन उसकी एक बहुत बड़ी कमजोरी थी। उसका ख्याल था कि जिसने घटनाओं
को पास देखा है, संपृक्त हो कर उनके साथ रोया या हंसा
है वही अच्छा इतिहास लिख सकता है। राजनेता उसके विचार से अच्छे इतिहासकार हो सकते
थे। इस प्रकार डूबकर लिखने की प्रवृत्ति इतिहास को किस कदर रंग सकती है उसे वह
नजरअंदाज करता था (यहाँ चर्चिल के उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाती है। यह सर्वज्ञाता
है कि सारी जीवन्तता और ढेर सारे तथ्यों के बावजूद चर्चिल द्वारा लिखित इतिहास
एकांगी है और विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों, विशेषकर इंग्लैंड और उसकी अपनी भूमिका
को रेखांकित करता है)।
Leopold von Ranke |
नीबर के शिष्य रांके (1795-1886) ने इस
दिशा में सबसे महत्वपूर्ण काम किया। इतिहास में रांके की रुचि का प्रारंभ ‘सन्दर्भ और महत्व’ की तलाश से शुरू हुआ। तथ्यों की निकटता, सच्चाई और आधिकारिकता को वह सर्वाधिक
महत्व देता था। उसने यूरोप के अभिलेखागार छान मारे। बहुत से पुस्तकालयों एवं
कार्यालयों से उसने दुर्लभ और अज्ञात ऐतिहासिक सामाग्री जुटाई। कुछ में प्रवेश के
लिए पहली बार उसे ही आज्ञा मिली। इन सबके आधार पर जो इतिहास उसने प्रस्तुत किया
उसने अब तक के बहुतेरे विद्वानों का सम्मान भूलुंठित कर दिया।
उसने सामान्य में विशिष्ट की तलाश को
अपनी पद्धति बनाया। अपनी पुस्तक ‘लैटिन और जर्मनिक राष्ट्रों का इतिहास’ में उसने स्पष्ट लिखा कि इतिहास में
अतीत के विषय में स्पष्ट निर्णय और वर्तमान के लिए शिक्षा की अपेक्षा की जाती है
ताकि भविष्य का सामना जागरूकता के साथ किया जा सके। वह जानता था यह पूरी तरह कर
पाना असंभव है पर उसका लक्ष्य था कि वह अतीत को ‘ज्यों का त्यों’ (जैसा वह वास्तव में था, वी एस आइगेन्टलिश गेवेसन’) प्रस्तुत करे। इसके लिए उसने कुछ सुझाव
रखेः
(1) तथ्यों को कठोर अनुशासन के साथ
प्रस्तुत किया जाए भले ही वे शुष्क लगें।
(2) घटनाओं की अंतर्निहित एकता और
विकासक्रम का विश्लेषण विस्तार से किया जाए। इसके लिए संस्थाओं और राष्ट्रों को
एक-एक करके लेना आवश्यक है।
(3) जो भी विशेष हो उसे रेखांकित करना
चाहिए क्योंकि इतिहास की पद्धति ही यही है कि विशेष की तलाश की जाए।
(4) यह तरीका कारगर हो, इसके लिए आलोचनात्मक पद्धति, तटस्थ शोध और संश्लिष्ट रचना होनी
चाहिए।
उसने स्वयं को स्वीकारा है कि ऐसा पूरी
तरह कर पाना बहुत कठिन है। वह स्वयं लूथरवादी था और प्रशा का निवासी होने के नाते
राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था। वह रूस के जार पीटर और प्रशा के शासक फ्रेडरिक जैसी
विभूतियों का प्रशंसक था। इसलिए उनके विषय लिखते समय वह एक तरह का लगाव महसूस करता
था। उसने एक बार लिखा था, ‘काश
मैं अपने को मिटा पाता।’ यह
उसी की नहीं किसी भी इतिहासकार की पीड़ा हो सकती है कि वह अपने व्यक्तिव को इतिहास-लेखन
के समय भुला दे, उसे अलग रखे, लेकिन ऐसा पूरी तरह कर पाना केवल असंभव
ही नहीं, अस्वाभाविक भी लगता है। ऐक्टन का मत है
कि रांके ने ऐसा करने में सफलता पाई, उसने अपने व्यक्तित्व के कवि, देशभक्त और राजनीतिक पक्षधर को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया। उसने जब
अपने देश के दुश्मन फ्रांस के विषय में भी लिखा तो उसका राष्ट्रप्रेम आड़े न आया और
उसका यूरोपीय परिप्रक्ष्य धूमिल नहीं हुआ। स्वयं उसने अपने देश के विषय में लिखते
समय वह भावनाओं के प्रवाह से बचा रह गया। इयेना के युद्ध की याद, जिसमें नोपोलियन द्वारा प्रशा की पराजय
हर प्रशा निवासी के अंतर्मन को सालती रहती थी, उसे उद्वेलित न कर सकी। इस प्रकार हर
व्यक्ति और घटनाओं में मानो वह समा कर लिखता था। उसकी सफलता का सबूत उसी आलोचना से
भी मिला था। सीबेल,
ड्रायसन
और ट्रइट्श्के जैसे अंध राष्ट्रभक्तों ने उसकी तटस्थता की खिल्ली उड़ाई है।
राष्ट्रवादियों ने उसकी व्यापक दृष्टि, नैतिकवादियों ने उसकी नैतिक तटस्थता और भौतिकवादियों ने उसकी अस्पष्ट
आध्यात्मिकता की आलोचना की है।
इस तरह अतीत के यथावत चित्रण जैसा
असंभव कार्य वह नहीं कर सका और न ही हमेशा पूरी तरह अपने पूर्वाग्रहों पर नियंत्रण
रख सका, पर जैसा उसने लिखा वैसा उसके पहले नहीं
लिखा गया था। उसने शुष्क किन्तु आधिकारिक इतिहास-लेखन की परंपरा को जन्म दिया। उसक
अनुयायी और शिष्य दो पीढ़ियों तक यूरोप और अमरीका के विश्वविद्यालयों में छाये रहे।
उसका प्रभाव मार्क्सवादी इतिहास-लेखन के विस्तार के बाद ही कम हुआ।
इंग्लैंड में कोंत का प्रभाव स्पष्ट
दिखता है। जान स्टुअर्ट मिल हमेशा कहता था कि जो प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में
संभव है, वह हर कहीं संभव है।
स्वयं प्रशिक्षित इतिहासकार हेनरी
टामंस बकल (1821-1862) ने भौतिक बातों का मानव सभ्यता पर प्रभाव स्पष्ट किया। उसने
मानव-विकास के नियम ढूंढ़ने की कोशिश की। अपनी पुस्तक ‘इंग्लैंड में सभ्यता का विकास’ की प्रस्तावना में उसने इस बात पर जोर
दिया कि बिना विज्ञान के इतिहास का कोई वजूद ही नहीं है। उसने कहा कि ज्ञान के हर
क्षेत्र में सामान्यीकरण की विधि अपनाई जाती है। इतिहास में भी यदि वही नहीं तो
वैसा ही करने की चेष्टा उसने की। उसने यहाँ तक कहा कि इतिहास में अब तक ऐसा इसलिए
नहीं हो सकता है क्योंकि न्यूटन या केपलर जैसी प्रतिभा वाला कोई इतिहासकार नहीं
हुआ। लेकिन उसने साबित किया कि उसमें भी वैसी प्रतिभा नहीं थी क्योंकि वह भी कोई
नियम नहीं बना सका।
बकल ने अपने सीमित दायरे में ऐसा करना
चाहा था। जे.बी.बरी ने तो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विख्यात ‘रेजियस प्रोफेसर’ के पद से घोषित किया कि ‘इतिहास एक विज्ञान है, न उससे कम न ज्यादा’ (हिस्ट्री इज सायंस, नथिंग्लेस नथिंग मोर)। उसने ‘व्यापक और संपूर्ण’ की बात की और इतिहासकारों की ट्रेनिंग
पर जोर दिया। उसे विश्वास था कि यदि प्रयास किया जाये तो इतिहास की भूलें समाप्त
की जा सकती हैं और जनमत के दिशा-निर्देशन के द्वारा बौद्धिक और राजनीतिक
स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। उसने शायद यह नहीं सोचा कि इतिहास-लेखन
में स्वतः प्रश्रय पाने वाले पूर्वाग्रह के कारण इतिहास विज्ञान नहीं हो सकेगा।
पूर्वाग्रह तभी पलने लगता है जब राजनीतिक स्वतंत्रता जैसे अस्पष्ट लक्ष्य; और वह भी बिना यह निर्धारित किए कि
किसकी स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाया गया है, को सामने रख कर इतिहास लिखा जाता है।
यहीं पर हमें उस चिंतन-धारा पर भी
विचार कर लेना चाहिए जो इतिहास में एक निश्चित धारा प्रवाहित देखती है जिसके
अनुसार इतिहास फार्मूलों पर आधारित है। हीगेल (1770-1831) के अनुसार इतिहास का
विकास उतना ही तर्कसंगत है जितना कि शतरंज का खेल। यह जरूर था कि उसने ईश्वर को
शतरंज के खिलाड़ी और महान पुरुषों को वजीर तथा दूसरों को अन्य मोहरों के रूप में
देखा।
स्पेंगलेर (1880-1936) ने एक तटस्थ
दाशर्निक भाव से अपना निराशवादी दृष्टिकोण ‘डिक्लाइन आफ द वेस्ट’ नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया और पतन के कारण ढूंढ़ते हुए पश्चिमी
सभ्यता के पतन को अवश्यंभावी बताया। बाद में ट्वायनबी ने उसी काय्र को उद्भट
विद्वता और अपेक्षतया अधिक दुष्टिकोण अपना कर बहुत वृहद स्तर पर किया। उसकी पुस्तक
‘स्टडी आफ हिस्ट्री’ इस क्षेत्र में लिखी गई अब तक की सबसे
महत्वूपर्ण पुस्तक थी। इसमें उसने कुछ मौलिक प्रश्न उठाए : मानव-जीवन के कौन से
क्षेत्र निश्चित नियमों पर आधारित हैं और किन पर मनुष्य का अपना नियंत्रण है? क्या दूसरे क्षेत्र का विस्तार हो सकता
है? यदि हाँ, तो कितना? इस संदर्भ में उसने पर्याप्त आंकड़ों का
अभाव महसूस किया, फिर भी उसने इतिहास में नियमों की बात
पर जोर दिया।
हीगेल, स्पेंगलर और ट्वायनबी ने जो किया उसे
इसाइया बर्लिन ‘हिस्टोरिजोफी’ की संज्ञा देते हुए कहता है कि
उन्होंने जो भी किया वह इतिहास में ‘विशेष’
के
महत्व को नकार देता है। इन्हें ‘स्पेकुलेटिव पाजिटिविस्ट’ की संज्ञा दे कर जे. एच. रैण्डल व्यंग करता है कि उन्होंने इतिहास
में पैटर्न ढूंढ़ना चाहा और सोचा कि वे वैज्ञानिक पद्धति अपना रहे हैं जब कि उनका
कार्य आस्था से प्रेरित था न कि विज्ञान से।
इस प्रकार यह तो स्पष्ट हो ही जाता है
कि इन्होंने इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में चाहे जितनी हलचल मचाई हो इतिहास-लेखन को
बहुत कम प्रभावित किया है।
George Macaulay Trevelyan [1876-1962] | |
उन्नीसवीं शताब्दी में रांके और उसके
शिष्यों का इतना प्रभाव था कि सारे पश्चिमी जगत के विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक
इतिहास के बातें होती रहीं पर लोकप्रिय हुई इंग्लैंड में कार्लाइल, जर्मनी में ट्राइट्श्के, फ्रांस में मिशेल और अमरीका में
बैंक्राफ्ट की पुस्तकें जो अत्यंत पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखी गई थीं। उन्हें
विद्वान इतिहासकार विद्वान नीची नजर से देखते थे, पर जब सीले जैसे जिम्मेदार इतिहासकार
ने भी मैकाले और कार्लाइल को लुच्चा कह दिया तो जी. एम. ट्रेवेल्यान ने इन विज्ञान
के पुजारियों को जवाब देने का इरादा किया।
जी. एम. ट्रवेल्यान ने बरी के जवाब में
अपना प्रसिद्ध लेख लिखा - ‘क्लियो-ए-म्यूज’। इतिहास को साहित्य से जोड़ते हुए उसने उन दिनों की याद की जब
कार्लाइल और मैकाले की पुस्तकें पाठकों को आह्लादित करती थीं। उसने प्रश्न किया कि
इतिहास तथ्यों का ढेर मात्र है या भावनात्मक और बौद्धिक मूल्यों के संदर्भ में
तथ्यों की व्याख्या है? उसने
साफ-साफ कहा कि इतिहास कभी विज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे प्याज अपने छिलके से अलग
नहीं किया जा सकता,
उसी
प्रकार ऐतिहासिक घटनाएं अपनी परिस्थितियों से अलग नहीं की जा सकती और इसलिए इतिहास
न कोई सामान्यीकरण संभव है, न कोई नियम। इतिहास जब तक एक नई मानसिकता न पैदा कर सके तब तक उसका
कोई मूल्य नहीं होता, इसलिए
इतिहास का महत्व उसकी शैक्षिक महत्ता में है। उसके अनुसार इतिहासकार को तथ्य
संग्रह करते समय वैज्ञानिक, उसका वर्गीकरण करते समय वैचारिक और प्रस्तुत करते समय साहित्यिक
दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
अमरीका के विश्वविद्यालयों में रांके
के शिष्यों का बोलबाला था पर रॉबिन्सन और बीयर्ड ने ‘द डेवलपमेंट आफ मार्डन यूरोप’ में लिखा कि इतिहास-लेखन की सबसे बड़ी
सीमा रही है, अतीत को वर्तमान से अलग करके देखना।
उन्होंने इतिहास की प्रासंगिकता पर जोर दिया। रॉबिन्सन ‘द न्यू हिस्ट्री’ में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब तक
वर्तमान अतीत का शिकार होता रहा है, अब समय आ गया है कि इसे उलटकर अतीत का वर्तमान के लिए उपयोग हो।
बीयर्ड ने इस बात को ‘अमरीका हिस्टारिकल एसोसिएशन’ के सामने और स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत
किया। उसका भाषण, जिसे एक व्यंग्यात्मक नाम : ‘द नोबल ड्रीम’ दिया गया, वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वालों पर
करारी चोट थी। उसके अनुसार, सत्य तक पहुँचने के लिए विज्ञान एकमात्र साधन नहीं है। उसने कहा कि
वस्तुगत इतिहास के पक्षपातियों के तर्क हैं:
(1) इतिहास का अपना अलग अस्तित्व है - इतिहासकार
की बुद्धि के बाहर,
इसलिए
वह ग्राह्य है - उसका वर्णन किया जा सकता है।
(2) इन सीमित दस्तावेजों में से कुछ ही
तथ्य इतिहासकार चुनता है।
(3) किसी भी लोकोत्तर तत्व जैसे ईश्वर
या आत्मा के प्रभाव से बचा जा सकता है यदि विवेक से काम लिया जाए।
बीयर्ड ने जोर देकर कहा कि इन तर्कों
की कसौटी पर रांके भी खरा नहीं उतरता। उसने ब्यौरेवार तर्क इस तरह उपस्थित किए।
(1) इतिहासकार रसायनशास्त्री की तरह
अपने तथ्यों को अपने सामने नहीं देख सकता। उसके तथ्य दस्तावेजों में होते हैं जो
कितने भी पूर्ण हों,
सभी
घटनाओं और सभी व्यक्तियों के पूर्ण दस्तावेज नहीं हो सकते।
(2) इन सीमित दस्तावेजों में से कुछ ही
तथ्य इतिहासकार चुनता है।
(3) ऐसी स्थिति में जिस इतिहास की रचना
होती है, उसका स्वरूप पूर्वाग्रह- पूर्व न हो, कैसे हो सकता है? कोई न कोई नैतिक या सौन्दर्यपरक विचार
तथ्यों को अपने रंग में रंगेगा ही। किसी न किसी तरह की ट्रांसेडेंस (लोकोत्तरता)
तो रहेगी ही, ईश्वर की न सही, वह तर्क, पदार्थ या प्रकृति संबंधी होगी।
(4) इतिहासकार कितना भी नियंत्रण और
त्याग का परिचय दे,
वह
अतीत को यथावत् चित्रित नहीं कर सकता।
(5) इस प्रकार इतिहासकार इतिहास की
वस्तुगत सच्चाई तक पहुँचने का लक्ष्य भले ही बना ले, वहाँ तक पहुँच नहीं सकता।
इतिहासकार की प्रासंगिकता के पक्षधर
लोगों की सीमा क्रोचे की उस उक्ति में मिलती है जहाँ वह साफ-साफ कहता है कि ‘पूरा इतिहास सांप्रतिक इतिहास’ है। इनके तर्कों में जो तीव्रता है वह
इसलिए कि विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के कारण वैज्ञानिकता की एक हवा चल गई थी जिसके
कारण ज्ञान के हर क्षेत्र में प्रयास होने लगे थे कि उसे विज्ञान का स्वरूप दिया
जाए। पर हर विद्या की अपनी प्रकृति होती है, एक सीमा होती है। इस प्रयास में जब उस सीमा का अतिक्रमण होने लगा तो
प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इस प्रतिक्रिया का यह परिणाम निकला कि वर्तमान का महत्व
बताते हुए इतिहास को प्रासंगिक बनाने के प्रयत्न में, इतिहास के तथ्यों का जो अपना महत्व
होता है, उनकी जो अपनी अस्मिता होती है, उसे भंग किया जाने लगा।
फासिस्ट के राजयंत्रों ने इतिहास को
राजनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और इतिहासकार को ‘इतिहास के मोर्चे का सिपाही’ घोषित कर दिया गया। रांके की कर्मभूमि
जर्मनी में हिटलर के जमाने में वस्तुगत इतिहास की परंपरा के मुख्यपत्र ‘हिस्टोरिशत्साइट्श्रिफ्ट’ का स्वरूप ही बदल दिया
गया और नात्सीवाद के प्रभाव में वाल्टर फ्रांक ने इतिहासकारों का अध्ययन किया कि
वे देश के अधिकारियों की तरह कार्य करें। माइनेके जैसे विद्वान इतिहासकार को ‘हिस्ओरिश्त्सात्साइट्श्रिफ्ट’ के सम्पादक पद से हटा दिया गया और उसकी
जगह एक नात्सी प्रचारक फान म्यूलर को संपादक बनाया गया। मूलर ने अपने पहले ही
संपादकीय में लिखा कि इतिहास का निकटतम संबंध कविता से है और इतिहास को वर्तमान की
सेवा करनी चाहिए। इसका अर्थ स्पष्ट था कि इतिहासकार हिटलर के नात्सीवाद को इतिहास
के माध्यम से स्वीकार्य और शक्तिशाली बनाए।
वर्तमान के हाथों पूरी तरह बिका इतिहास
इस प्रकार न केवल घोर पक्षपात का शिकार हो जाता है, बल्कि विनाश की पृष्ठिभूमि तैयार करने
में भी मदद करता है। यह हिटलरशाही के दौरान जर्मनी में अच्छी तरह उजागर हुआ।
भौतिकवादी इतिहास या
ऐतिहासिक भौतिकवादी
इन सबसे अलग इतिहास की एक विशिष्ट
व्याख्या कार्ल मार्क्स ने प्रस्तुत की है। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या पर, जिसने अतीत को समझने का वैज्ञानिक
उपकरण प्रस्तुत किया है, शुरू
से ही प्रहार किया जाता रहा है। फ्रांसीसी इतिहासकार मारु ने व्यंग्य किया है कि
यह पद्धति इतिहास और इतिहासदर्शन को दो भागों में बांट कर इतिहास को मात्र दर्शन
की पुष्टि के लिए इस्तेमाल करती है। रेनियर ने आरोप लगाया है कि मार्क्सवादी
इतिहास की स्वतंत्र अस्मिता को समाप्त कर देते हैं और उसे समाजशास्त्र का अंग बना
देते हैं।
ऐसी आलोचनाओं के बावजूद यह निर्विवाद
है कि इतिहास के अध्ययन-लेखन का मार्क्सवादी तरीका अन्य पद्धतियों से अधिक
वैज्ञानिक है।
कार्ल मार्क्स ने हीगेल, फायरबाख और सैंसीमों का विशेष रूप से
अध्ययन किया था। अंत में वह इस नतीजे पर पहुँचा कि मनुष्य परिस्थितियों को पैदा
भले करता हो, वह स्वयं भी परिस्थितिजन्य होता है।
उसके अनुसार इतिहास मृत तथ्यों का संग्रह नहीं है जैसा कि ‘पॉजिटिविस्ट’ लोगों की व्याख्या से लगता है, न ही मनमाने ढंग से देखे गए अतीत के
कारनामों का जमघट है जैसा कि आदर्शवादियों की व्याख्या से लगता है। उसके अनुसार, इतिहास वर्ग-संघर्ष के माध्यम से
निरंतर विकासोन्मुख मानव-समाज के अध्ययन का आधार है।
मार्क्स ने इस बात की आलोचना की कि अब
तक मनष्य और प्रकृति के संबंधों को इतिहास से अलग करके देखा गया है। ऐसा समझने
वाले इतिहासकारों ने राजनीतिक कार्यकलापों और विभिन्न प्रकार के धार्मिक तथा सैद्धान्तिक
संघर्षों में ही इतिहास को देखा है। इस तरह हर काल के भ्रमों का इतिहास भी साझीदार
रहा है।
पर सच यह है कि मनुष्य और प्रकृति के
भौतिक स्वरूप का विशद्-अध्ययन इतिहास ही नहीं करता, पर उसकी शुरूआत इन्हीं प्राकृतिक
आधारों और उनमें मनुष्य द्वारा किए गए परिवर्तनों के अध्ययन से होती है। मनुष्य
जैसा होता है वैसी ही उनकी अभिव्यक्ति होती है और वह कैसा है, इसका सीधा संबंध उसके उत्पादन से, वह क्या उत्पादन करता है और कैसे
उत्पादन करता है, से संबंधित होता है। मनुष्य का स्वभाव
उसकी भौतिक स्थितियों पर निर्भर करता है, जो निश्चित ही उत्पादन प्रणाली पर आधारित होती है।
जीवन्त मनुष्य तक पहुँचने के लिए किया
गया अध्ययन मनुष्य के कथन, कल्पना
या अभिधारणाओं से नहीं शुरू होता, न ही इस आधार पर कि मनुष्य का कैसा वर्णन हुआ है, इसके बारे में क्या सोचा गया है, क्या कल्पना की गई है, अभिधारणा बनाई गई है। मार्क्सवादी
दर्शन वास्तविक क्रियाशील मनुष्य के जीवन से शुरू होता है, उसके वास्तविक जीवक्रम का अध्ययन करता
है। इसके अनुसार जीवन चेतना से निर्धारित नहीं होता है, चेतना जीवन से निर्धारित होती है।
इतिहास की भौतिकवादी अभिधारणा की
शुरूआत इस सिद्धान्त से होती है कि सामाजिक संरचना का आधार जीवन क्रम को जारी रखने
के लिए किया गया उत्पादन और उत्पाद का विनियम है, कि हर समाज में संपत्ति का वितरण और
समाज का वर्गों में विभाजन इस बात पर मुनहसर (आधारित) होता है कि उत्पादन क्या और
कैसे होता है और उत्पाद का विनियम किस प्रकार होता है। इस दृष्टिकोण के हर सामाजिक
परितर्वन और राजनीतिक क्रांति के मूलभूत कारण मनुष्य के मस्तिष्क में या ‘अंतिम सत्य और न्याय’ के प्रति मनुष्य की अंतर्दृष्टि में
नहीं बल्कि उत्पादन और विनियम के साधनों में हुए परिवर्तनों में प्राप्त होते हैं।
उनकी तलाश दर्शन में नहीं, आर्थिक
स्थितियों में करनी पड़ती है।
लेकिन यह कहना गलत होगा कि आर्थिक आधार
एकमात्र आधार होता है। आर्थिक स्थितियां आधार होती हैंस पर अधिरचना (सुपर
स्ट्रक्चर) के विभिन्न तत्व जैसे संघर्ष के राजनीतिक स्वरूप् और संघर्ष के परिणाम, विजेता वर्ग द्वारा निर्मित संविधान, न्यायिक संगठन, संघर्षरत व्यक्तियों की मानसिक
स्थितियां, राजनीतिक, न्याय संबंधी एवं दार्शनिक सिद्धान्त, धार्मिक विचार और उसके मताग्रह भी
इतिहास के विकास पर प्रभाव डालते हैं और कभी-कभी तो हावी दिखाई पड़ते हैं। मूलतः
आर्थिक तत्वों की भूमिका निर्णायक होती है।
प्रकृति में कार्यरत और उद्घाटित
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को समाज तक विस्तृत करने से ऐतिहासिक भौतिकवाद का जन्म हुआ
जो मार्क्सवाद की विशेष देन है। इसके अनुसार मानव-समाज का समस्त इतिहास
वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। उत्पादन प्रणाली तथा तज्जन्य उत्पादन संबंधों के अनुसार
मानव-समाज को इस प्रकार का शुरुआती साम्यवाद (प्रिमिटिव कम्यूनिज्म) था, फिर व्यक्तिगत संपत्ति के साथ दास
प्रथा का अविर्भाव हुआ। इसके बाद सामंतवाद की दौर आया और उसी के गर्भ से पूंजीवाद
का जन्म् हुआ। पूंजीवाद में पूंजीपति के साथ ही सर्वहारा यानी अपनी मेहनत की ही
कमाई खा कर जीने के ही संघर्ष में रत वर्ग का भी जन्म होता है। वही समाजवाद का
वाहक बनता है। उनके क्रांतिकारी संघर्ष से ही समाजवादी क्रांति हो सकती है जो
वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करेगी। उस दौरान सर्वहारा के शासन में पूंजीवाद के
विरुद्व व्यापक संघर्ष जारी रहेगा। व्यक्तिगत संपत्ति के उन्मूलन के बाद धीरे-धीरे
वर्ग का आकार खिसकेगा और फिर वर्ग-संघर्ष भी समाप्त होगा और एक वर्गविहीन समाज
बनेगा। वही साम्यवाद (कम्युनिज्म) कहलाएगा।
अपने प्राथमिक रूप में 1871 ई. में
मार्क्स-एंगेल्स के जीवनकाल में ही, पेरिस में कम्यून बना और कुछ पप्तों के जीवनकाल में ही उसने समाजवाद
की संभावनाओं को उजागर कर दिया। वास्वत में लेनिन के नेतृत्व में रूस में अक्टूबर
1917 में हुई समाजवाद क्रांति ने मार्क्स-एंगेल्स के विश्लेषण को सही साबित कर
दिया और इतिहास वैज्ञानिकता के क्षेत्र में एक कदम आगे बढ़ गया।
सोवियत यूनियन के विघटन ने ऐतिहासिक
भौतिकवाद के विज्ञान को नहीं झुठलाया है, उसने बस यह सिद्ध किया है कि सोवियत यूनियन के प्रयोग में गलतियां
हुईं जो अंततः विस्फोटक सिद्ध हुई। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि इतिहास की
भौतिकवादी व्याख्या ने एक ऐसी पद्धति प्रदान की है, जिसके माध्यम से मनुष्य के ‘ज्ञान’ द्वारा ‘अस्तित्व’ को समझने के स्थान पर उसके ‘अस्तित्व’ के माध्यम से उसके ‘ज्ञान’ को समझा जा सकता है।
इस प्रकार मारू और रेनियर जैसे
विद्वानों की आलोचना भी मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लगती है। सवाल यह नहीं
है कि इतिहास की स्वतंत्र अस्मिता बनी रहती है या नहीं या कि वह किसी सामाजिक
संरचना और उसके विकास को पूर्व निश्चित ढंग से देखता या निर्धारित करता है। सवाल
यह है कि इतिहास एक तरीका है वर्तमान को अतीत के माध्यम से समझने का, जिससे मनुष्य की सतत प्रगतिशील यात्रा
का स्वरूप स्पष्ट होता है, मनुष्य
के संघर्ष के मुद्दे और जय-पराजय के कारण समझ में आते हैं और उसे भविष्य के प्रति
आश्वस्त किन्तु उसके लिए संघर्षरत रहने की प्रेरणा मिलती है।
इस विहंगम सर्वेक्षण के बाद दो धारांए
स्पष्ट होती हैं:
(1) इतिहास में पूर्वाग्रहों से मुक्ति
नहीं मिल सकती, इसलिए इतिहास का वर्तमान के लिए उपयोगी
होना ही उसकी परिणति हैं।
(2) इतिहास को बिना पूरी तरह विज्ञान
बनाए उसका कोई महत्व नहीं हो सकता।
इन धाराओं को समझने और इतिहास की
स्वीकार्य पद्धति का निर्धारण करने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि इतिहास लिखा
क्यों जाता है? इतिहास लिखने का एक कारण यह हो सकता है
कि व्यक्ति को सहज ही अपने अतीत से लगाव होता है, उसकी याद करने में, जैसा कि पाल वाइस का मत है कि एक
प्रकार आनंद मिलता है कि हम अकेले नहीं हैं, हम एक ऐसे समाज के अंग हैं जो वर्षों से जिंदा हैं। इसे यूं भी कह
सकते हैं कि जीवित लोग मृत लोगों के बीच अपना स्रोत स्थापित करके आश्वस्त हो लेते
हैं।
इसके अतिरिक्त इतिहास के माध्यम से
किसी गरिमामय घटना,
किसी
महान व्यक्ति या किसी गौरवशाली काल को जीवन्त किया जाता है ताकि वर्तमान पीढ़ी को
प्रेरणा मिल सके। वर्तमान के लिए अतीत से कोई सीख मिले, इसलिए भी इतिहास लिखा जाता है। इतिहास
इसलिए भी लिखा जाता है कि मानव सभ्यता की विकास प्रक्रिया के पैटर्न का पता चल जाय
ताकि ऐसे समीकरण बन सकें जिनके माध्यम से मानव के इतिहास को उसकी नियति से जोड़ा जा
सके, कुछ नियम, कानून बनाए जा सकें। प्राकृतिक विज्ञान
के कारण-कार्य संबंधों के आधार पर वर्तमान का कारण अतीत में ढूंढ़ने के लिए भी
इतिहास लिखा जाता है। इतिहास मात्र इतिहास मात्र इसलिए भी लिखा जाता है कि अतीत को
जाना जाए, कालक्रम में अपनी स्थिति समझी जाए, अपने को जाना जाए। अन्त में इतिहास
लिखने की यह भी अनिवार्यता है कि मानव के विकास-क्रम को समझने का, मनुष्य की यात्रा की मंजिलों-पहाड़ों और
गंतव्यों को समझने का, यही
तरीका है।
इनमें से कोई भी लक्ष्य हो, इतिहासकार हमेशा यही कहता है कि उसने
सच्चा इतिहास लिखा है - जब भी जबकि वह ऐतिहासिक तथ्य को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर
रहा हो या जानता हो कि जो वह लिख रहा है वह आंशिक सत्य है। ऐसी स्थिति में यह तो
मानना ही पड़ेगा कि इतिहासकार भले ही सत्य की स्थापना न कर पा रहा हो उसका लक्ष्य
यही होता है।
Arnold J. Toynbee |
अर्नाल्ड ट्वॉयनबी (Arnold J. Toynbee)
बीसवीं शताब्दी में प्रथम महायुद्ध के
बाद ब्रिटेन के उच्च वर्ग से आए इतिहासकार अर्नाल्ड ट्वॉयनबी ने इतिहास लेखन को एक
नई दिशा दी। आर्थर मारविक के अनुसार ट्वॉयनबी को औद्योगिक क्रांति की अवधारणा के
आविष्कार नहीं तो प्रसार का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए। उसकी विशेष रुचि उस
दुष्प्रभाव के अध्ययन में थी जो औद्योगिक क्रांति के कारण निम्म वर्गों पर पड़ रहा
था। ट्वॉयनबी की अमरकृति है - ‘स्टडी ऑफ हिस्ट्री’, जिसके पहले तीन भाग 1934 में प्रकाशित हुए और दूसरे तीन भाग बीस साल
बाद 1954 में।
ट्वॉयनबी ने शुरूआत की थी यूनान के इतिहास
और साहित्य से। वह इस क्षेत्र का पंडित माना जाता था। 1919 से 1924 तक वह लंदन
विश्वविद्यालय में ‘बाईजेंन्टाईन और आधुनिक ग्रीक भाषा
साहित्य और इतिहास’
नामक
पीठ पर प्रोफेसर था। उसके बाद लंदन के ‘रॉयल इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्टरनेशल अफेयर्स’ में तीस वर्षों तक ‘डायरेक्टर ऑफ स्टडीज’ बना रहा। उसके निर्देशन में हर साल ‘सर्वे ऑफ इण्टरनेशल अफेयर्स’ प्रकाशित होता रहा। इन सर्वेक्षणों में
इतनी आधिकारिक सूचना होती थी कि इन्हें समकालीन इतिहास लेखन का मॉडल माना जाने
लगा।
धीरे-धीरे उसके सामने समस्त मानव
इतिहास की छवि प्रकट होने लगी। उसे लगने लगा कि मानव इतिहास की पूरी धारा का उसके
अंदर ही प्रवेश हो गया है। तब उसने इतने विराट इतिहास की इकाईयां चिन्ह्ति करनी
शुरू की।
इस बीच फ्रांस के आर्थिक विचारक तूरजो
से प्रभावित अमरीकी दार्शनिक एफ. जे. टेगार्ट का अध्ययन किया। वहाँ उसे यह विचार
मिला कि इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करने का सबसे अच्छा तरीका यह हो सकता है कि
सबसे पहले इतिहास की मौजूदा इकाईयों की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया जाए और
उनमें समानता तथा भिन्नता चिन्हित की जाए। फिर क्रमशः उनके इतिहास में घुसा जाए।
और उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जाय।
ट्वॉयनबी से पहले स्पेंगलर ने भी बृहद
इतिहास की रूप-रेखा प्रस्तुत की। उसका लेखन निराशावदी था, क्योंकि उसने अपनी पुस्तक का नाम ही
रखा था ‘दि क्लाइन ऑफ द वेस्ट’ (पाश्चात्य् का पतन)। ट्वॉयनबी ने पहले
तो स्पेंगलर की राह पर चलना शुरू किया। पर जल्दी ही उसे लगा कि यह राह उसकी नहीं
हो सकती। फिर उसने अनुभववादी तथा आगमनात्मक पद्धति का सहारा लिया। वह बराबर इस बात
पर जोर देता रहा कि यही उसकी पद्धति है। पर जब वह अपनी विशाल पुस्तक के अंतिम चार
भाग लिख रहा था। तब उसमें एक प्रकार का मसीहापन आने लगा था। पिछले बीस वर्षों में
उसने बहुत कुछ पढ़ा था। और बढ़ती उम्र के साथ उसमें एक प्रकार की उपदेशात्मकता आती
जा रही थी। अब वह देख रहा था कि जिन सभ्यताओं का पतन हुआ है उनमें कुछ में आशा की
किरण है। इस तरह मानव सभ्यता का भविष्य अंधकार में नहीं है। अगर कुछ पुरानी बातों
को पुनर्जीवित कर दिया जाय।
उसने सारी दुनिया की मानव सभ्यता में
इक्कीस इकाईयां चुनी थी। और उनमें एक प्रकार का ‘पैटर्न’ देखा। उसने देखा कि सभी सभ्यताएं
धीरे-धीरे विकसित होती हैं। विकास के दौरान कठिनाईयां आती हैं। जिन पर वह पहले
विजय प्राप्त करते हैं। उसके बाद अपने उत्कर्ष पर पहुँच कर सभ्यताएं बिखरने लगती
हैं। और अन्ततः उनके द्वारा निर्मित ‘सार्वभौम राज्य’ का अवसान हो जाता है। अगर इस विकास-क्रम से प्राप्त तथ्यों के आधार
पर इतिहास का कोई नियम बनाना हो तो वह होगा ‘चुनौती का उत्तर’ यानी इतिहास में चुनौतियां पैदा होती हैं और सभ्यताएं उनका उत्तर
ढूंढने का कोशिश करती हैं। सभ्यताओं में टूटने और बिखरने का दौर कई बार आता है। पर
अंततः वे बच नहीं पाते। उनका जो अवशेष बचता है। उसमें पुनर्जीवन की कहीं-कहीं
संभावना बची रहती है। इस तरह पहले के छः भागों में ट्वॉयनबी निराशावादी लगते हैं।
अंतिम चार भागों में यह निराशावादिता
पूरी तरह खत्म तो नहीं होती। पर यह तो होता ही है कि ट्वॉयनबी समकालनी सभ्यता के
पुनुर्थान के प्रति आशान्वित लगने लगते हैं। इसका प्रमुख कारण यह हो सकता है कि
प्रथम विश्व युद्ध के बाद इतनी भयानक निराशा उपजी थी कि अधिकांश लोग हतोत्साहित हो
गए। यह हताशा साहित्य-कला और दर्शन सब में एक मोहभंग के रूप में अभिव्यक्त हुई थी।
ट्वॉयनबी ने अपने पहले छः भाग इसी प्रभाव में लिखे।
एक जर्मन पत्रकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध
के बाद एक बड़ी सटीक टिप्पणी की थी। उसके अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध में भौतिक
विध्वंस से अधिक मानसिक विध्वंस हुआ था। फासीवाद जैसी प्रवृत्तियां उसी का परिणाम
थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अभूतपर्व भौतिक विध्वंस हुआ। पर दुनिया मानसिक विध्वंस
से उबरने लगी। इस टिप्पणी का एक आधार यह भी था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के
पहले ही दशक के दौरान इतना भारी पुनर्निर्माण हुआ था कि यूरोप की गाड़ी मानो पटरी
पर आ गई थी। और पूंजीवाद के इतिहास में सबसे बड़ा विकास कार्यक्रम शुरू हो गया। ऐसे
में आश्चर्य नहीं कि ट्वॉयनबी को भी लगने लगा था कि मानव सभ्यता बच सकती है। उसने
लिखा कि ऐसा लगता है कि ‘एक
दैवीय योजना के अनुसार सभ्यताओं की असफलता के कारण उत्पन्न दुख से ऐसी शिक्षा मिट
सकती है जो प्रगति की नई राह प्रशस्त करे।’
ट्वॉयनबी का इतिहास लेखन अकादमिक
मान्यताओं के अनुकूल नहीं था। उसमें वर्तमान केन्द्रिता अधिक थी उसकी दिलचस्पी
वर्तमान से भविष्य की ओर जाने में अधिक थी। वह कहता थाः ‘हमारी पीढ़ी के इतिहासकार को गांधी, लेनिन, अतातुर्क और रूजवेल्ट का अध्ययन अवश्य
करना चाहिए ताकि वह हम्बूरावी, तिखना दाओन आबोस और बुद्व को अपने पाठकों के सामने और अधिक जीवंत रूप
में प्रस्तुत कर सकें।’
वह इतिहास में नियमों नियमितताओं, समानताओं और पुनरावृत्तियों की तलाश
करता है। यानी वह अपनी वैज्ञानिक पद्धति विकसित करना चाहता है। पर ऐसा करने के लिए
तथ्यों का अपार संग्रह जरूरी था - वह भी एक नहीं इक्कीस सभ्यताओं का। ऐसा एक ही
सभ्यता में कर पाना कठिन हो जाता है तो इतनी विविध और बहुधालुप्त सभ्यताओं के बारे
में वह कहाँ से तथ्य जुटा पाता। वह तो इतनी विविध सभ्यताओं की भाषाओं और पुरातत्व
से भी पूरी तरह परिचित नहीं था। उसके लेखन में चितंन-मनन तो बहुत है पर शोध उतना
नहीं। अधिकांशतः तो उसने दूसरे कोटि की सामग्री से काम चलाया है - यानी उन विषयों
पर स्वयं शोध न कर उन पर लिखी किताबों के आधार पर नतीजे निकाले।
जाहिर है, इसीलिए बहुत से लोग उसे
इतिहासकार ही नहीं मानते। पर इससे उसको कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि वह अकादमिक इतिहास लेखर को
बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता था। उसके ख्याल से उसने जो लिखा है वह इतिहास
नहीं, बल्कि एक ‘विशेष अध्ययन’ है।
उसने किसी देश और काल का इतिहास न लिख कर
एक तरह से इतिहास का ही इतिहास लिखा है। इसलिए उसकी रचना को इतिहासकारों से ज्यादा
सामान्य पाठक पढ़ते हैं। वह मार्क्सवादी नहीं था। पर उसने इतिहास के नियम ढूंढने का
प्रयास किया। पर तथ्यपरकता और वस्तुपरकता के मानदंड पर पूरी तरह सफल न हो पाने के
कारण उसका इतिहास लेखन पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा। इसलिए उसकी पुस्तक को
अप्रासंगिक करार दिया जा सकता है। पर उसके लेखन में ऐसा निरालापन था कि वह इतिहास
लेखन की विधा के रूप में इतिहास के इतिहास में दर्ज रहेगी।
oswald spengler |
ओसवाल्ड स्पेंगलर (oswald spengler)
प्रथम विश्वयुद्ध तब तक का इतिहास का सबसे
विध्वंसक युद्ध था। उसके बाद दुनिया में इतनी हताशा छा गई कि लोगों को लगने लगा कि
धरती पर मनुष्य के जीवन का अर्थ ही क्या है। अगर इतनी प्रगति के बाद भी आदमी इतना
विनाशकारी हो सकता है। लोगों का सभ्यता और संस्कृति से मानो मोहभंग होने लगा। काफ्का
ने मनुष्य को अपनी लंबी कहानी ‘मेटामार्फोसिस’ में मनुष्य को एक उलट गए कॉकरोच के रूप में चित्रित किया। उल्टा हुआ
कॉकरोच जीवित तो रहता है पर कुछ कर नहीं सकता। यह एक प्रकार से असहाय हो गए मनुष्य
का चित्रण था। कामू ने अपने उपन्यासों में बेसहारा होते जा रहे मनुष्य का चित्रण
किया।
इसी तरह इतिहास के क्षेत्र में जर्मनी
के एक इतिहास शिक्षक स्पेंगलर ने पूरे हताशा के साथ यह लिखा कि पाश्चात्य् सभ्यता
का पतन शुरू हो गया। उसने अपनी किताब का नाम रखा Decline
of the west
(पाश्चात्य् का पतन)। उसने सभ्यताओं की तुलना मानव जीवन से की। मनुष्य जन्म लेता
है फिर युवा होता है, फिर
वयस्क होकर बहुत कुछ करता है, फिर उम्र ढलने लगती है वह बूढ़ा हो जाता है और अंत में मर जाता है।
उसके अनुसार ऐसा ही जीवन चक्र है सभ्यताओं का। वे जन्मती हैं, विकसित होती हैं, फूलती-फलती हैं और फिर नष्ट हो जाती
हैं।
बेनेदेतो क्रोचे (1866
से 1952) (Benedetto Croce)
इतिहास दर्शन में क्रोचे को सबसे
ज्यादा इसलिए याद किया जाता है कि उसने इतिहास में अतीत की निर्णायकता की जगह
वर्तमान की निर्णायकता स्थापित की। समस्त इतिहास समकालीन होता है। यह क्रोचे की
सबसे अधिक उद्धृत एक प्रकार की सूक्ति है। इसने इतिहास लेखन को गहराई से प्रभावित
किया है।
उन्नीसवीं शताब्दी में समाज विज्ञान के
क्षेत्र में वस्तुनिष्ठता का बहुत जोर था। जो अध्ययन वस्तुनिष्ठ न हो उसे
विश्वसनीय ही नहीं माना जाता। ऐसे में ही जर्मनी के इतिहासकार रांके ने प्रयास
किया था कि अतीत को वैसा ही प्रस्तुत किया जाए जैसा कि वह था (वी.एस. आईगेन्टलिस्ट
गेवेशन) इसका मतलब यह था कि इतिहास लेखन में वर्तमान का यानी इतिहासकार का कम से
कम हस्तक्षेप हो।
यह इतिहास को विज्ञान बनाने का दौर था।
पर इसी के प्रतिकार में सापेक्षतावादी तर्क दिए जाने लगे। इन तर्कों का चरमोत्कर्ष
तो यहाँ तक पहुँच गया कि इतिहास तो कोई विषय ही नहीं है, क्योंकि इतिहास अतीत पर आधारित होता
है। और अतीत तो व्यतीत हो चुका है उसका तो अस्तित्व ही नहीं होता।
क्रोचे ने इसी तर्क को विकसित किया। और
उसे यहाँ तक पहुँचा दिया कि इतिहास लेखन में वर्तमान का पूर्वाग्रह सर्वोपरि होता
है। इतिहासकार अपने वर्तमान में ही जीता है और वह अपने पूर्वाग्रहों से कभी मुक्त
नहीं हो सकता। इसलिए वह जो भी लिखता है। वह अतीत की वर्तमान की दृष्टि से
प्रस्तुति होती है। ऐसे में निर्णायक तो वर्तमान ही हुआ।
क्रोचे ने इतिहास पर काफी चिंतन किया
था। पर वह अपने विचारों में कभी स्पष्ट नहीं हुआ। ऐसा कम ही होता है कि दार्शनिक
प्रवृत्ति का व्यक्ति बहुत अच्छा इतिहासकार भी बन पाए। उसकी रुचि तो राजनीति में
भी थी। और वह सक्रिय राजनीति में भी हिस्सा लेता था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब
इटली में जनतांत्रिक सरकार बनी तो उसमें वह शिक्षामंत्री भी बना दिया गया। पर
जल्दी ही इटली में फांसीवाद का कब्जा हो गया। क्रोचे अंदर-अंदर फांसीवाद का विरोध
करता रहा। मरने से पहले उसे संतोष था कि उसने अपने देश में फांसीवाद का अंत देख
लिया था।
वह आदर्शवादी दर्शन का पक्षधर था और इस
बात पर जोर देता था कि वैज्ञानिक ज्ञान और ऐतिहासिक ज्ञान में मूलभूत अंतर है। वह
ऐतिहासिक ज्ञान को बौद्धिक अंतर्दृष्टि से जोड़ता था। और यही अंतर्दृष्टि तो
निर्णायक होती है। उसके अनुसार इतिहास में अनिवार्य सापेक्षता के कारण इतिहास की
महत्ता कम नहीं होती। इससे तो मनुष्य की बौद्धिकता और कल्पनाशीलता की पुष्टि ही
होती है। उसके इस प्रयास से इतिहासकारों में थोड़ा आत्मविश्वास जरूर पैदा हुआ। पर इसका
लाभ उन लोगों ने ज्यादा उठाया जो इतिहास का मनमाना इस्तेमाल करते रहे हैं।
कॉलिनवुड (R G Collingwood)
क्रोचे के विचार अभी तक याद किए जाते
हैं, क्योंकि कॉलिनवुड की उपयोगिता समझकर
उन्हें और स्पष्ट और सरस शब्दों में प्रस्तुत किया है। जब से कॉलिनवुड के भाषणों
का संग्रह Idea of history (इतिहास का विचार) नाम से प्रकाशित हुआ है। कॉलिनवुड को
इतिहास-दर्शन के एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता के रूप में सम्मान मिला है।
कॉलिनवुड ब्रिटेन में ऑ Gक्सफर्ड
यूनिवर्सिटी में दर्शन का प्रोफेसर था। उस जमाने में विद्वान विविध विषयों के
ज्ञाता होते। और ‘स्पेशलाइजेशन’ का इतना जोर नहीं था कि विद्वान
अकादमिक जातिवाद का शिकार हो जायं। यानी उन्हें एक ही विषय का और उसमें भी एक
विशिष्ट क्षेत्र का ही प्रवक्ता माना जाय।
कॉलिनवुड की पुरातत्व में रुचि थी। और
उसने रोमन साम्राज्य के समय के इंग्लैंड का अच्छा अध्ययन किया था। इसलिए वह
विश्वविद्यालय में इतिहास का भी प्रवक्ता था। इतिहास के दार्शनिक के रूप में उसे
जीवनपर्यन्त नहीं जाना गया। पर 1944 में जब इतिहास संबंधी उसके विचारों का प्रकाशन
हुआ तो उसकी इतिहास दार्शनिक के रूप में स्थापना हो गई। आजकल उसके विचारों का इतना
महत्व नहीं माना जाता। फिर भी उसे मील का पत्थर तो समझा ही जाता है। खासतौर से
इसलिए कि क्रोचे के विपरीत उसकी भाषा सरल और काव्यात्मक है।
उन्नीसवीं शताब्दी में जहाँ एक ओर
क्रांति के विचार को स्थापित किया जा रहा था वहीं दूसरी ओर उसकी प्रतिक्रिया में
भी विचार रखे जा रहे थे। उसने इन प्रतिक्रियाओं का विशेष अध्ययन किया। 1930 में
उसने ब्रिटेन के ‘हिस्टॉरिकल एसोसिएशन’ के लिए लिए ‘फिलॉस्फी ऑफ हिस्ट्री’ के
नाम से एक पुस्तिका लिखी इस पुस्तिका को विद्वानों के बीच अधिक सम्मान नहीं मिला।
पर यह तो स्पष्ट हो ही गया कि कॉलिनवुड इतिहासकार से अधिक इतिहास चिंतक है। यह
पुस्तिका कॉलिनवुड के दार्शनिक विचारों में आसानी से प्रवेश करा देती।
कॉलिनवुड के अनुसार इतिहास अतीत का
पर्यायवाची नहीं होता। इतिहास वास्तव में इतिहासकार की रचना होता है। वह शुरू ही
तब होता है जब इतिहासकार अतीत से प्रश्न करता है और उत्तर ढूंढ लेता है। इन
उत्तरों से ही इतिहास का जन्म होता है। उसने इस मत का प्रतिकार किया कि इतिहास के
तथ्यों में से इतिहासकार को चयन करना पड़ता है। उसने कहा कि अतीत के सभी तथ्य
इतिहास के तथ्य नहीं होते। वे ऐतिहासिक तथ्य तब बनते हैं जब इतिहासकार अपने चिंतन
से उनका महत्व समझ कर उन्हें संदर्भित करता है। वह तो यहाँ तक जाता है कि इतिहास
की पुस्तक भी अगर आलमारी में पड़ी रहे तो वह इतिहास नहीं। वह तभी इतिहास बनती है जब
कोई जिज्ञासु इतिहास जानने के लिए उसे पढ़ना शुरू करता है। यह बेहद महत्वूपर्ण बात
है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि साहित्य तभी चरितार्थ होता है। जब पढ़ा जाए, संगीत जब सुना जाए और चित्र जब देखा
जाए। दूसरे शब्दों में रचनाकार का स्व जब पर (पाठक-स्रोता-दर्शक) तब पहुँचता है।
यह बात किसी भी तरह की रचना की एक सुन्दर दार्शनिक व्याख्या है। कॉलिनवुड के
इतिहास संबंधी विचार को उसकी शब्दों में देखें :
हर पाठक इतिहास के अध्ययन में अपने
मस्तिष्क का उपयोग करता है। वह स्वयं अपने और अपनी पीढ़ी के दृष्टिकोण से इतिहास को
देखता है। इस तरह जाहिर है कि कोई काल या व्यक्ति किसी विशेष ऐतिहासिक घटना में वह
देख लेता है जो दूसरा नहीं देख सकता। इस आत्मनिष्ठता को अगर नकारा जाए तो यह ईमानदार
बात नहीं होगी। इसका मतलब तो यह होगा कि वस्तुनिष्ठता का दावा करने वाला अपना
दृष्टिकोण तो बनाए रखना चाहता है पर दूसरों को अपना दृष्टिकोण त्याग देने के लिए
कहता है। असलियत यह है कि ऐसा प्रयास सफल भी नहीं हो सकता। अगर सफल हो जाए तब तो
इतिहास का अंत ही हो जाएगा।
कोई कह सकता है कि इस तरह तो इतिहास
में मनमानी चलने लगेगी। इस संदेह के निवारण के लिए कॉलिनवुड का तर्क महत्वपूर्ण
है। वह कहता है अगर किसी एक व्यक्ति के जूलियस सीजन के बारे में विचार उसके संबंध
में प्रसिद्ध इतिहासकार मॉमसन के विचारों से भिन्न हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि उस
व्यक्ति का विचार गलत और मॉमसन का ही सत्य होगा। वास्तव में दोनों के लक्ष्य
भिन्न-भिन्न हैं। उस व्यक्ति का विचार उसके अतीत के बारे में है। और मॉमसन के
विचार उसके अतीत के बारे में। कई अर्थों में दोनों के अतीत एक जैसे हो सकते हैं और
कई अर्थों में अलग-अलग। अगर दोनों की पीढ़िया और संस्कृतियां अलग-अलग हैं। एक-दूसरे
के अतीत में प्रवेश करने के लिए लचीलापन तो चाहिए ही।
कॉलिनवुड के अनुसार अतीत अपने में कुछ
नहीं। हर व्यक्ति की तरह इतिहासकार का भी लक्ष्य वर्तमान में ही होता है। पर
इतिहासकार जो कि विचारशील प्राणी है इसलिए वह वर्तमान के किसी पहलू में विशेष
दिलचस्पी लेने पर उसे यह जानना पड़ सकता है कि जो है वह कैसे बना? और इस क्रम में उसे अतीत में जाना पड़
सकता है। तब वह देश सकता है कि अतीत तो वर्तमान का ही एक पहलू है।
क्रोचे की तरह कॉलिनवुड भी वर्तमान को
निर्णायक मानता है। इसलिए अतीत के अस्तित्व को करीब-करीब नकारता है। यह अतीत के
अस्तित्व को इसलिए इतिहास के ही अस्तित्व को नकारने जैसा है।
कॉलिनवुड के इतिहास संबंधी विचार उसकी
आत्मकथा में और भी स्पष्ट रूप में आएं। उसने वहाँ लिखा कि उस समय तक का अधिकांश
इतिहास ‘कैंची और गोंद’ के माध्यम से लिखा गया है, क्योंकि इतिहास का मुख्यतः स्रोतों का
पता लगाते रहे हैं और उन्हें इकट्ठा प्रस्तुत करते रहे हैं। इतिहासकार स्रोतों से
बंधा रहता है। स्रोत कभी छोटे रहते हैं तो कभी बड़े। इसलिए इतिहासकार स्रोत की
रस्सी में बंधा हुआ उसी क्षेत्र में विचरण करने को मजबूर होता था जहाँ तक जाने की
इजाजत रस्सी देती हो। वह क्षेत्र बहुत उपजाऊ और हरा-भरा हो सकता है। पर इतिहासकार वहाँ
भी तो जाना चाह सकता है जहाँ अधिकारी स्रोत उपलब्ध ही न हो। फिर तो वहाँ रेगिस्तान
होगा। जिसमें अज्ञान के बालू के अलावा। कल्पना की मृगतृष्णा ही होगी।
उसने यह भी कहा कि ऐतिहासिक ज्ञान
इसलिए भी सर्वोच्च है, क्योंकि
वैज्ञानिक भी उसका इस्तेमाल करता है। जब वह जानना चाहता है कि कौन से प्रयोग पहले
हुए और उनका क्या महत्व था। क्रोचे की तरह कॉलिनवुड भी विश्वास करता था ‘समस्त इतिहास विचारों का इतिहास है।’
जीवन के अंतिम दिनों में कॉलिनवुड ने
घोषणा की थी कि हम एक ऐसे समय में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें इतिहास दुनिया के लिए
उसी प्रकार महत्वपूर्ण होगा जैसे पिछली तीन शताब्दियों के दौरान प्राकृतिक विज्ञान
रहा है। इतिहास के प्रति उसके इस विश्वास के कारण भी इतिहास में उसका महत्व बना
रहेगा। पर उसके इसी विश्वास के कारण बहुत से लोग उसके ही नहीं पूरे इतिहास के
शत्रु हो गए। उसके ऊपर यह इल्जाम लगा कि वह तो अंतर्बोध (इंस्टिन्ट) के सहारे ही
इतिहास लिख सकता है। ऐसे इतिहास की क्या विश्वसनीयता?
बहरहाल, क्रोचे और कॉलिनवुड ने यह तो किया ही
कि इतिहास को और इतिहासकार को उपयोगी साबित कर दिया। आज की दुनिया में एक ओर
इतिहास की नई व्याख्या हो रही है तो उसकी उपयोगिता पर भी नए सिरे से ध्यान दिया जा
रहा है। ऐसे में उन्हें एकदम अप्रासंगिक नहीं करार दिया जा सकता।
सम्पर्क –
मोबाईल - 09454069645
इसमे एतिहासिक बस्तुनिस्थता का आयाम नहि हैं
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