एमोस ओज की हिब्रू कहानी 'प्रतीक्षा' (अनुवाद - यादवेन्द्र पाण्डेय)
एमोस ओज |
1939 में येरुशलम में जन्मे एमोस ओज आज के इस्राइल (या यूँ
कहने कि हिब्रू भाषा ) के सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक हस्ताक्षर हैं
जिन्होंने कहानियाँ ,उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त प्रचुर मात्रा में
सम सामयिक राजनैतिक लेखन किया है। अपना खानदानी नाम "क्लौस्नर" से बदल कर
उन्होंने "ओज" रख लिया जिसका शाब्दिक अर्थ होता है शक्ति। परिवार के
अधिकाँश सदस्यों का झुकाव कट्टर सियोनिज्म (zionism) की तरफ होने के कारण
शुरूआती दौर में वे भी इन विचारों के घनघोर समर्थक रहे। पर अंधभक्ति उनके
विचारशील मस्तिष्क को नहीं भायी और वे घर से भाग कर सामूहिक खेती करने वाले
यहूदी समुदाय किबुत्ज में शामिल हो गए -- बरसों वहीँ रहे और उस
जीवन शैली में लिखने पढने की कोई जगह न होने के बावजूद वे देश के सबसे बड़े
लेखक बने। दिलचस्प बात यह है कि उनकी पहली कहानी छपने के बाद किबुत्ज समुदाय
के मुखिया ने ही उनको सप्ताह में एक दिन लिखने पढने के लिए उपलब्ध कराया
,जो धीरे धीरे बढ़ता हुआ चार दिनों तक पहुँच गया। कहा जाता है कि उनकी
आधी से अधिक कहानियों का घटना स्थल उनके जन्मस्थान के आस पास का छोटा सा
इलाका ही रहा है।
वे इस्राइली सेना के लड़ाकू दस्ते में रहे और 1967 और 1973 की बहुचर्चित पर
कुख्यात लड़ाइयों में फिलिस्तीनियों के खिलाफ लड़े भी। पर आजीवन शांति
अभियानों के मुखर समर्थक रहे - यही कारण है कि इस्राइल की कट्टर और
युद्धोन्मादी सरकारों के साथ उनका वैचारिक टकराव चलता रहा। यह वैचारिक इस
हद तक बढ़ गया कि पिछले साल उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ विदेशों में
इस्राइली सरकार द्वारा आयोजित सरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करने से इनकार
कर दिया।
इसी तरह एमोस ओज आजीवन साहित्य और राजनीती की बँधी
बँधायी सीमाओं का भी अतिक्रमण करते रहे --- कभी युद्ध का समर्थन तो कभी
मुखर विरोध और युद्ध विराम की वकालत करते रहे।एक समय इस्राइली लेबर पार्टी
के शीर्ष नेतृत्व में उनका नाम शामिल हुआ पर बाद के चुनावों में वे लेबर
पार्टी के विरोध में प्रचार में उतरे। फिलिस्तीनी हमास के खिलाफ युद्ध
छेड़ने का शुरू में उन्होंने समर्थन किया पर कुछ दिनों के अमानवीय खून खराबे
वाले युद्ध के बाद युद्धविराम की पैरवी करने लगे … यहाँ तक कि इस्राइली
सेना ने जब गाज़ा पट्टी पर कब्ज़ा करना शुरू किया तो वे इसको "युद्ध अपराध" तक
का नाम देने लगे। उनका बहु प्रचारित तर्क था कि हमास एक सेना नहीं बल्कि
विचार है और आज तक दुनिया की कोई भी सेना बल प्रयोग करके किसी विरोधी विचार
को नष्ट नहीं कर पायी है ,सो हमें उस विचार से बेहतर और कारगर विचार
प्रस्तुत करके शान्ति की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। स्वतंत्र फिलिस्तीनी
देश के गठन के वे प्रबल समर्थक रहे ।
लेखक ह्रदय राज-नेताओं जैसा संवेदनशून्य नहीं हो सकता इसका उदाहरण
स्थापित करते हुए एमोस ओज ने अपनी सबसे चर्चित किताब "ए टेल ऑफ़ लव एंड
डार्कनेस" के अरबी अनुवाद की प्रति राजनैतिक विरोधी एक प्रसिद्ध मुस्लिम
नेता को यह कहते हुए सप्रेम भेंट के तौर पर भिजवायी कि विस्थापन की
हमारी पीड़ा बिलकुल वैसी ही है जैसी आपकी… इस बात पर देश के अनुदार समाज का
व्यापक विरोध उनको झेलना पड़ा।
एमोस ओज की लगभग चालीस किताबें प्रकाशित हैं जिनमें उपन्यास, कहानियाँ, बाल साहित्य, संस्मरण और वैचारिक निबंध सम्मिलित हैं। उनकी अनेक
कहानियाँ बेहद चर्चित हैं और दुनिया की अरबी सहित 42 भाषाओं में उनके
साहित्य का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। समीक्षक मानते हैं कि उनके अधिकाँश
पात्र कस्बाई और ग्रामीण परिवेश में पले बढे बेहद मामूली लोग हैं पर उनकी
पीड़ा सार्वजनीन और सब के साथ जुड़ जाने वाली है। पर अपने राजनैतिक विचारों
से बिलकुल हट कर प्रेम, एकाकीपन, प्रतीक्षा, मृत्यु, कामना और प्रवंचना
उनकी रचनाओं का केन्द्रीय स्वर है -- उनकी कहानियाँ उन लोगों की भावनाओं की
अभिव्यक्ति मानी जाती हैं जिनसे कुछ न कुछ छूट गया हो या ले लिया गया हो।
जीविका के लिए एक यूनिवर्सिटी में साहित्य की प्रोफेसरी करने वाले
एमोस ओज पिछले कई वर्षों से साहित्य के नोबेल पुरस्कार सम्भावितों में
शामिल रहे हैं।
अभी उनके बचपन के संस्मरणों पर आधारित किताब "ए
टेल ऑफ़ लव एंड डार्कनेस" पर आधारित इसी नाम की बहु प्रशंसित फ़िल्म नाताली
पोर्टमैन ने बनाई हैं।
कहानीकार अपनी
कहानी में किसी समस्या का समाधान नहीं खोजता बल्कि वह समस्याओं के ताने-बाने को
जनता के सामने जस का तस रख देता है। इसके
सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है। जहाँ भी कहानीकार ऐसा करने में असफल होते है कहानी
अपना वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती जिसके लिए उसे लिखा गया होता है। एमोस ओज को सूक्ष्म
विवेचन की इस कला में महारत हासिल है। ‘प्रतीक्षा’ शीर्षक इस कहानी में इस बानगी
को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। घटनाओं के सूक्ष्म चित्रण में एमोस ओज निःसंदेह
लाजवाब हैं। एमोस ओज की इस इस्रायली कहानी का अनुवाद पहली बार के लिए किया है
प्रख्यात अनुवादक यादवेन्द्र जी ने। तो आइए आज पढ़ते हैं एमोस ओज की यह कहानी।
इस्रायली कहानी
प्रतीक्षा
एमोस ओज
(अनुवाद - यादवेन्द्र पाण्डेय)
तेल इलान बहुत प्राचीन गाँव
था और चारो ओर से बाग़–बगीचों से भरा हुआ था। पूरब की ओर की पहाड़ियों की
ढलानें अंगूर से लदी पड़ी थीं और कहीं कहीं लाल खपरैल वाले घर ऐसे दिखाई पड़ते थे
जैसे सैकड़ों साल पुराने बादाम के घने वृक्षों की कतारों ने उन्हें अपने पंजे में
दबोच रखा हो।
यूँ तो खेती-बाड़ी
पर लोगों का ध्यान कम होता जा रहा था पर अब भी कई परिवार ऐसे थे जो बाहर से आ कर
मजदूरों के दम पर खेती कर रहे थे –- आस-पास इन मजदूरों की जैसे-तैसे खड़ी कर दी गयी
झोपड़ियाँ नजर आने लगीं थीं। लोगों ने अपने खेत बटाई पर दे दिए और अब कोई छोटा-मोटा
धन्धा करने लगे। जैसे रात भर के लिए बिस्तर और खाने का जुगाड़ करने वाले सराय खोल
लिए ... या आर्ट गैलरी खोल ली...। या आज वाली फैशन की बुटीक का काम करने लगे। बहुत
सारे लोग काम की तलाश में दूर-दराज के इलाकों में चले गए।
यहाँ के
मार्केटिंग काम्प्लेक्स में दो रेस्तरां, देशी शराब की एक दूकान और पालतू जानवरों
का एक स्टोर भी था जिसे कुछ ख़ास मछलियों के लिए जाना जाता था। एक आदमी ने एक
वर्कशॉप खोल रखा है जहाँ नकली एंटीक फर्नीचर बनाते हैं। सप्ताहान्त में यह तेल
इलीन गाँव विदेशी सैलानियों से और मोल-तोल कर के सस्ता सामान खरीदने वालों की भींड
से अंटा पड़ा होता -– पर शुक्रवार की दोपहर सब कुछ एकदम बन्द रहता। उस समय शायद ही
कोई ऐसा होता जो खा पी कर झपकी न ले रहा हो ... ... पूरा-पूरा आराम।
बेनी एवनी तेल
इलीन के जिला परिषद का प्रमुख था – लम्बा, छरहरा किन्तु झुके हुए कन्धों वाला
इंसान, जिसे तुड़े-मुड़े कपड़ों और नाप से बड़े लटकते हुए स्वेटरों से पहचाना जा सकता
था। उसकी चाल अड़ियल टट्टू जैसी थी। उसको चलते हुए देख कर ऐसा लगता जैसे सामने से
खूब तेज आँधी धकेल रही है और वह उसे चीर कर बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ रहा है।
खूबसूरत चेहरा
मोहरा... ऊँची भौंहें... सुघड़ मुँह... परदे के पीछे तक बेधती गहरी भूरी आँखें लगता
जैसे कह रही हों हाँ मैं तुम्हें जानता पहचानता हूँ। और हाँ, मुझे आपके बारे में
बहुत सारी ऐसी बातें पता हैं जिन पर आप अब तक परदा डालते रहे हैं।
उसके बारे में
सबसे ख़ास बात यह थी कि वह सामने वाले कोयह आभास दिए बिना कि उसकी बात को पूरी तरह
से ख़ारिज किए जा रहा है बड़ी कुशलता के साथ चाशनी लगी बातों के सहारे वह उसका दिल
जीतने में कामयाब होता था।
फरवरी में
शुक्रवार का एक दिन : दोपहर बाद एक बजे का समय। बेनी एवनी अपने दफ्तर में अकेला
बैठा हुआ लोगों की चिट्ठियों के जवाब लिख रहा था। हालांकि उसका आफिस शुक्रवार के
दिन जल्दी ही बन्द हो जाता है पर बेनी देर तक दफ्तर में बैठा हुआ एक चिट्ठी का
जवाब दिया करता था। उसकी नजर से एक भी चिट्ठी चूक नहीं सकती थी। सारा काम निपटाने
के बाद ही वह आफिस से निकलता। घर आ कर पहले लंच लेता फिर नहाता और दिन छिपने तक
आराम करता। शुक्रवार को बेनी एवनी और उसकी पत्नी नावा एक शौकिया क्वायर ग्रुप में
शामिल हो कर गाना गाते।
उस दिन वह अपना
काम निपटाने ही वाला था कि दरवाजे पर किसी ने एक दस्तक दी। उसका आफिस उन दिनों
मरम्मत के लिए अस्त-व्यस्त था। और अस्थायी तौर पर उसके एक डेस्क, दो कर्मियों और
एक आलमारी के भरोसे काम जैसे तैसे चल रहा था।
दरवाजे पर हुई
दस्तक ने बेनी एवनी का ध्यान खींचा। - ‘अन्दर आ जाओ।’ यह कहते हुए उसने सामने रखे
कागजों पर से निगाहें उठायीं।
एक अरब नौजवान
दरवाजा खोल कर कमरे में दाखिल हुआ .... एदेल, उसका नाम था। बेनी उसको पहले से
जानता था .... उसको उसने स्कूल में पढाया था और अब वह फ्रैंको के इस्टेट में माली
का काम करता था।
‘ओ एदेल .....
तुम यहाँ कैसे?.....बैठो’ बेनी ने मुस्कुरा कर कहा। पर दुबला पतला ठिगना सा एदेल
अपना चश्मा ऊपर नीचे करते हुए बेनी के मेज के इर्द-गिर्द घूमता रहा .... बड़े अदब
और शर्म से उसने कहा : ‘माफ़ करना साहब .... कहीं मैंने आपके काम में खलल तो नहीं डाली?
मैं जानता था कि आफिस बन्द है, पर मेरा आना जरूरी था।’
‘कोई बात नहीं....
बैठो ...बोलो क्या बात है?’
एदेल बहुत
हिचकिचाते हुए कुर्सी पर बैठ तो गया पर तना हुआ बदन बता रहा था कि उसकी पीठ कुर्सी
से बहुत दूर है।
‘बात यह है साहब
आपकी बेगम मुझे अभी सड़क पर मिलीं ...उन्होंने एक कागज दिया मुझे आपको देने के लिए
यह।’
बेनी एवनी ने हाथ
बढ़ा कर उससे कागज का मुड़ा हुआ टुकड़ा थाम लिया ; ‘कहाँ मिली वो तुम्हें?’
‘यहीं...
मेमोरियल पार्क के पास।’
‘किधर आ रही थी;
चली किस दिशा में?’
‘वे कहीं जा रही
थी साहब .... पार्क में बेंच पर बैठीं थीं।’
यह कह कर एवेल
अचकचा कर कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। पूछा – ‘वह इस सिलसिले में कुछ और मदद कर
सकता है?’
बेनी एवनी
मुस्कुराया और कंधे उचका कर बोला – ‘और कुछ नहीं।’
एवेल शुक्रिया और
आदाब कर के कमरे से निकल पड़ा।
बेनी एवनी ने हाथ
में पकड़ा हुआ परचा खोल कर देखा – यह किचन में रखी हुई कापी में से फाड़ा हुआ एक
पन्ना था। नावा की सुन्दर लिखावट में उस पर चार शब्द लिखे थे – ‘मेरी फ़िक्र मत
करना।’
उन शब्दों को पढ़
कर बेनी एवनी चौंक गया। हमेशा ही वे लंच एक साथ बैठ कर खाते थे। दोपहर में वह
स्कूल – प्राईमरी स्कूल में पढ़ाती थी – से घर आ जाती और बेनी के आफिस से लौटने का
इन्तजार करती। उनकी शादी को सत्रह साल हो गए पर आपस में प्यार कम नहीं हुआ। हाँ, समय बीतने के साथ उनके दैनिक व्यवहार
में दूसरे के लिए साधी गयी विनम्रता के साथ मिले दमित अधैर्य के भाव मुखर होते गए।
नावा को उसकी अफसरशाही वाला टालमटोल का रवैया एकदम नहीं सुहाता और न ही घर में आ
कर भी काम धाम की उधेड़बुन में उलझे रहना। हालांकि वह बात-बात पर जरूरत से ज्यादा
सहज और बेतकल्लुफ दिखाई देने की भरपूर कोशिश करता। नावा की घर के आंगन में पका कर
बनाई गयी कलात्मक मूर्तियों से वह उबने लगा था...। यहाँ तक कि नावा के कपड़ों में
रच बस गयी पकी हुई मिट्टी की महक से उसे अब उबकाई आने लगी थी।
बेनी एवनी ने घर
का नम्बर आठ-नौ बार डायल किया। पर जब किसी ने उठाया नहीं तो उसे तसल्ली हो गयी कि
नावा घर पर नहीं है। ताज्जुब हुआ कि उसके घर पहुंचने का इन्तजार किए बगैर वहबाहर
कैसे निकल गयी। पर उससे भी ज्यादा जिस बात ने एवनी को अचरज में डाला वह यह कि एवेल
की मार्फत पुर्जा भेजने की जरूरत कहाँ से आन पड़ी वह भी यह बगैर बताए कि वहजा कहाँ रही
है और कब तक वापस लौटेगी। सारी बात सोचने पर फिर से उसे इस पूरे घटनाक्रम में कुछ
गड़बड़झाला लगा। वह और ज्यादा उद्विग्न होने लगा। वैसे इसमें बहुत परेशान होने की
बात नहीं थी। पहले भी कई मौकों पर उसने या नावा ने लिविंग रूम के फूलदान के पीछे एक
दूसरे के लिए पर्चे रखे थे।
बनी एवनी ने
आख़िरी दो चिट्ठियाँ निबटाईं। एक एवा दवास को लिखी चिट्ठी थी पोस्ट ऑफिस के पुनर्निर्माण
के बारे में, और दूसरी जिला परिषद के कोषाध्यक्ष को लिखी चिट्ठी जिसमें किसी
कर्मचारी के पेंशन के बारे में चर्चा की गयी थी। दोनों चिट्ठियां उसने आलमारी पर
निर्धारित स्थान पर रखीं। खिड़कियाँ दरवाजे देखे कि ठीक से बन्द तो हैं। अपना जैकेट
पहना, बाहरी दरवाजा अच्छी तरह से बन्द किया और आफिस से बाहर निकल आया।
पहले उसने
मेमोरियल पार्क की तरफ चलने का फैसला किया। जिससे नावा बेंच पर बैठी मिल जाए तो वे
दोनों साथ घर जाएँ। पर कुछ कदम चलने के पश्चात उसने लंच के लिए उलट कर अपने आफिस
का रुख कर लिया। उसे लगा वह अपना कम्प्यूटर शायद खुला छोड़ आया है, ऑफ़ करना भूल गया।
बाथ रूम की लाईट भी शायद खुली रह गयी। पर आफिस आने पर कम्प्यूटर और लाईट दोनों सही
ढंग से बन्द मिले। उसने बाहरी दरवाजा एक बार फिर से बन्द किया। उसके ताले को दुबारा
चेक किया और फिर नावा को ढूँढने पार्क की तरफ चल पड़ा।
मेमोरियल पार्क
की बेंच पर नावा का नामो-निशान नहीं मिला। हाँ, एवेल वहाँ जरुर दिख गया। अपनी गोद
में एक खुली किताब रखे वह एक बेंच पर अकेला बैठा हुआ था। उसकी निगाहें चलती-फिरती
सड़क पर टिकी हुईं थी। और सर के उपर बैठी हुई चिड़िया के गानों से वह एकदम बेखबर था।
पीछे से जा कर बेनी ने उसके कंधों पर हाथ रखा और कोमल आवाज में पूछा कि नोवा अब भी
वहीँ पार्क में है। एवेल ने बताया कि थोड़ी देर पहले तक तो वह यहीं पार्क में दिखाई
दी थी पर अब वहाँ वह नहीं है।
‘मैंने यह तो देख
लिया कि इस वक़्त वह यहाँ नहीं है’ बेनी बोला पर मुझे लगा तुम्हें शायद पता हो कि
वह किधर गयी है।
‘माफी चाहता हूँ
साहब .. मैंने देखा नहीं।’ एवेल ने थोड़ा सकपकाते हुए कहा।
बेनी एवनी ने उसके
कंधे पर हाथ रखा। ‘ठीक है... घबराओ नहीं एवन। इसमें तुम्हारी क्या खता है?’
पार्क से निकल कर
कई सड़कों को पार करता हुआ आगे बढ़ा। वह शरीर को आगे की ओर झुका कर चल रहा था। जैसे
किसी अदृश्य ताकत से लड़ता हुआ वह मुश्किल से आगे बढ़ रहा हो। रास्ते में जो भी
मिलता - मुस्कुरा कर बेनी को सलाम करता। वह लोगों के बीच खासा लोकप्रिय जो था। हर
किसी को वह बड़ी गर्मजोशी से मुस्कुरा कर जवाब देता। किसी किसी से ‘वह आप कैसे हैं?’,
‘खैरियत तो है?’ ‘कुछ नया ताजा?’ जैसे जुमले भी पूछता। किसी-किसी को उसने यह बताया
कि साथ की पैदल चलने वाली सडक की मरम्मत का काम जल्दी ही शुरू किया जाने वाला है।
उसके ठीक होते ही यह सहूलियत हो जायेगी कि दोपहर में समय पर घर पहुँच सकेंगे जिससे
खा पी कर थोड़ा सा आराम कर सकें।
घर पहुँचने पर
बेनी ने देखा सामने वाले दरवाजे पर ताला नहीं लगा था। किचन में रेडियो भी चालू था
.. हाँ, स्वर धीमा था। रेडियो पर कोई रेलवे सिस्टम का इतिहास बता रहा था। और यह भी
कि कारों के मुकाबले रेलवे कैसे बेहतर है। अंदर आकर बेनी सीधा फूलदान तक गया कि
नावा वहाँ कोई पुर्जा तो दबा कर नहीं गयी है। हालांकि उसे इसकी व्यर्थता पहले से
मालूम थी। हाँ, किचन में डाईनिंग टेबुल पर उसका खाना करीने से रखा हुआ था। एक बड़ी
सी थाली से ढका हुआ जिससे खाने की गर्मी बनी रहे – चिकेन, उबाल कर मसाले हुए आलू,
पके हुए गाजर और हरी बीन्स। प्लेट के साथ छुरी काँटा सहेजा हुआ तह लगी हुई कपडे की
नैपकिन के साथ।
बेनी एवनी ने
माईक्रोवेब के अन्दर दो मिनट रख कर अपना खाना गर्म किया। एहतियात बरतने के बावजूद
खाना ठण्डा हो गया था। उसने फ्रिज खोल कर बियर की एक बोतल निकाली। ढक्कन खोल कर
उसे मग में उड़ेला। इसके बाद किसी भुक्खड़ की तरह वह खाने पर टूट पड़ा। रेडियो पर तब
संगीत बजने लगा जिसमें संगीत कम और विज्ञापन ज्यादा थे। एक विज्ञापन के दौरान उसे
लगा जैसे दरवाजे की सीढ़ियों से नावा के कदमों की आहट आ रही है। खिडकी से झाँक कर
देखा तो बाहर सन्नाटा पसरा हुआ था। हाँ, भटकटैया की झाड़ियों और लोहे के कबाड़ के
बीच जंग लगे पहियों वाली एक सगड़ी उसे खड़ी दिखाई दी।
खाना खा कर उसने
प्लेट सिंक में डाली, रेडियो बन्द किया और किचेन से बाहर निकल आया। पूरे घर में
चुप्पी पसरी हुई थी। कोई आवाज सुनाई दे रही थी तो वह भी घड़ी की टिक-टिक। उसकी
दोनों जुड़वा बेटियां – युवाल और इन्वाल –फिल्ड ट्रिप पर अपर गैलीली गयी हुईं थीं।
नहाने की नीयत से वह बाथ रूम की तरफ बढ़ा तो बीच में लड़कियों का कमरा पड़ा। देखा, उस
कमरे का दरवाजा भिड़काया हुआ था। फिर भी उसने अन्दर झाँक कर देखा - अन्दर साबुन और
कपडे पर इस्त्री करने की गन्ध थी। उसने हौले से दरवाजा बन्द किया और बाथ रूम की
तरफ बढ़ गया। अन्दर जा कर उसने शर्ट-पैन्ट उतारे फिर अचानक कुछ सोच कर सिर्फ
अंडरवियर पहने वह टेलीफोन तक आया।
उसके मन में
घबराहट या चिंता नहीं थी। फिर भी वह खुद से यह सवाल बार-बार करता जा रहा था कि
नावा कहाँ चली गयी। हर रोज की तरह मेरे लंच पर आने का इंतज़ार उसने आज क्यों नहीं
किया?
उसने गिला स्टीनर
को फोन किया। पूछा नावा उसके पास तो नहीं आयी। ‘नहीं, मेरे पास तो नहीं आयी। उसने
आने को कहा था क्या?’ गिला ने सवाल किया।
‘यही तो बात है...।
नावा ने यह नहीं बताया वह कहाँ जा रही है।’ बेनी ने जवाब दिया।
गिला बोली –
‘जेनरल स्टोर दो बजे तक खुला रहता है... शायद कुछ लेने वहाँ चली गयी हो।’
‘ठीक है गिला
शुक्रिया। मुझे नावा के जल्दी घर लौट आने का भरोसा है। चिन्ता की कोई बात नहीं है’
– बेनी ने कहा।
हालांकि फ़िक्र की
बात तो थी। उसने जेनरल स्टोर का नम्बर मिलाया। देर तक घंटी बजती रही। फिर एक बूढ़े
ने फोन उठाया और रटी रटायी शैली में बोला – ‘येस प्लीज, मैं स्टोर से श्लोमो
लाईबरसन बोल रहा हूँ। बोलिए, क्या खिदमत करूँ?’
बेनी एवनी ने
नावा के बारे में उससे पूछा। पर उधर से जवाब मिला – ‘सॉरी कॉमरेड एवनी, आपकी बेगम
आज स्टोर में नहीं दिखायी दीं हैं। हमें उनका स्वागत करने का मौक़ा अब तक नहीं मिला।
देखें कब मिल पाता है?’
फोन से हट कर
बेनी एवनी नहाने के लिए फिर बात रम में आ गया। गीजर में पानी गरम किया और देर तक
नहाता रहा। जब वह बदन पोछ रहा था तो एक बार दरवाजा खुलने का अन्देशा हुआ। अंदर से
ही उसने आवाज लगाई – ‘नोवा तुम हो?’ पर बाहर से कोई जवाबी आवाज नहीं आयी। कपड़े पहन
कर वह बाथ रूम से बाहर निकल आया। किचन की तरफ देखने गया फिर बड़े कमरे में चला आया। वहाँ टी. वी.
के सामने उसे कुर्सियां पड़ी हुईं दिखाई दीं। उसके बाद बेड रूम से होता हुआ वह छत
पर आया। वहाँ नावा ने अपना ‘क्रिएटिव स्टूडियो’ बना रखा था।
वह काम करने के लिए अक्सर
इस ढकी हुई छत को बन्द कर लिया करती थी और मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करती थी। कभी-कभी
अजीबोगरीब शक्लो-सूरत वाले जीव, तो कभी-कभी टूटी नाक और खिसके जबड़ों वाले
मुक्केबाजो के सिर। पीछे के आँगन में उसकी भट्ठी थी। बेनी निकल कर भट्ठी तक गया,
बत्ती जलायी और कुछ देर तक खड़ा खड़ा कुछ सोचता रहा। उसकी आँखें खुलीं और बन्द हुईं,
पर वहाँ उसे टूटी-फूटी मूर्तियों और ठण्डी भट्ठी के सिवा कुछ न दिखायी पड़ा। हाँ,
दीवारों पर काले धब्बों पर जरुर निगाहें टिकीं।
बेनी ने खुद से
पूछा कि क्या उसे थोड़ी देर बिस्तर पर लेट जाना चाहिए और नावा के घर पर लौटने का
इंतज़ार करना चाहिए। फिर वह किचेन में चला आया और अपनी जूठी प्लेट साफ़ करने के लिए
डिश-वाश में डाल दी। उसने इधर-उधर निगाह मारी घर से निकलने के पहले नावा ने कुछ
खाया या नहीं। शायद कुछ भी नहीं खाया। डिशवाशर अन्दर से बिल्कुल भरा हुआ था और यह
पता करना मुश्किल था कि उसमें ताजे रखे हुए बर्तन कौन से हैं और पहले के इस्तेमाल
किये हुए कौन से।
चूल्हे पर पके
हुए चिकेन का भगोना रखा हुआ था। पर उसे देख कर अंदाजा लगाना कठिन था कि नावा ने
खुद अपना खाना खा लिया था और उसके हिस्से का चिकेन छोड़ गयी थी। बेनी फिर फोन के
पास चला गया। बात्या रूबिन को फोन मिलाया कई बार घंटी बजती रही। दस बार... पन्द्रह
बार...पर किसी ने उठाया नहीं। खीझ कर खुद को समझाया ‘क्या बेवकूफों जैसी हरकत कर
रहे हो?’ फिर धीरे-धीरे चलता हुआ बेडरूम में चला आया। सोचा थोड़ी देर आराम क्यों न
कर लिया जाए।
बिस्तर के नीचे
नावा की चप्पलें रखीं थीं। छोटी, एड़ी पर थोड़ी घिसी हुई। रंग-विरंगी। उसे लगा जैसे
बच्चों की खेलने वाली नावें हों। बिस्तर पर वह चुपचाप पड़ा रहा – बगैर हिले-डुले और
छत को निहारता रहा। इन दिनों नावा बात-बात पर झुँझला जाया करती थी। और बीतते समय
में उसे समझ आने लगा था कि बातों से उसे समझाने की तमाम कोशिशें माहौल और बिगाड़ ही
देती थीं। और बेनी ने संयम बरतने और और समय बीतने का रास्ता अख्तियार कर लिया।
शायद इसी से नावा का रोष कुछ कम हो जाए। वह उन बातों और घटनाओं से उबर तो आती थी
पर उन्हें एकदम से भुला दे, ऐसा कभी नहीं हुआ।
एक बार की बात है
– नावा की अन्तरंग सहेली डॉक्टर गिला स्टीनर ने बेनी से कहा कि क्यों न परिषद की
गैलरी में नावा की बनाई मूर्तियों की प्रदर्शनी लगाई जाए। बेनी ने तपाक से इस प्रस्ताव
पर गौर करने का वायदा तो कर लिया पर धीरे-धीरे उसके मन में बात घर करती चली गयी कि
इससे उसकी सार्वजनिक छवि पर असर पड़ सकता है। वह यह खतरा उठाने को तैयार नहीं था।
उसे लगा कि नावा की बनाई मूर्तियों में क्या ऐसा ख़ास है? वैसी चीजें तो घर बैठी
कोई मामूली स्त्री शौकिया तौर पर बना सकती है। साधारण मूर्तियाँ ही तो हैं। इन्हें
तो किसी प्राईमरी स्कूल में प्रदर्शित किया जा सकता है बस...। परिषद् की गैलरी में
प्रदर्शित करने से कोई यह आरोप न लगा दे कि मैं अपने घर वालों को बढ़ावा दे रहा हूँ।
यह सुन कर नावा एक शब्द भी न बोली पर अगली कई रातों वह भोर के तीन-चार बजे तक
कपड़ों पर इस्त्री करने में बिताती रही। घर का एक-एक कपड़ा उसने न छोड़ा। यहाँ तक कि
तौलिया और फेंके जाने के लिए इकट्ठा कर रखे गए फटे-पुराने चिथड़ों तक।
बेनी करीब बीस
मिनट तक लेटा होगा फिर अचानक उठा और अँधेरे बेसमेंट में उतर गया। बत्ती जलाई तो
फतिंगे असहज हो कर इधर-उधर उड़ने लगे। उसने एक-एक बक्सा खोल-खोल कर देखा।
इलेक्ट्रिक ड्रिल को छू कर देखा... शराब का बैरल ठकठका कर देखा, आवाज से मालूम हुआ
कि खाली होने लगा है। बत्ती बुझाई और उपर किचेन में आ गया। थोड़ी देर के लिए ठिठका
भी। फिर अपना जैकेट बदन पर डाला हालांकि मोटा सा स्वेटर पहले ही पहने हुए था। और
घर से बाहर निकल आया.. बगैर दरवाजे में ताला लगाए। वह आगे झुक कर चलने लगा जैसे
तेज हवा को ढकेलना पड़ रहा हो। बेनी एवनी अपनी पत्नी नावा को ढूँढने के लिए घर से
निकल पड़ा।
शुक्रवार का दिन
होने के नाते सड़कें खाली और सुनसान थीं। सभी लोग रात की गहमागहमी से पहले खा पी कर
आराम कर रहे थे। काफी नीचे उतर आये बादल छतों से लटके हुए थे और कोहरे के टुकड़े
यहाँ-वहाँ नजर आ रहे थे। हल्का अँधेरा और नमी भरा दिन था। हर घर के इर्द-गिर्द
उनींदेपन का साम्राज्य था। तभी कहीं से उड़ता हुआ अखबार का पन्ना वहाँ आ गया। बेनी
ने उसे पकड़ कर कूड़ेदान में डाल दिया। जब बेनी वेटेरन गार्डन के पास पहुँचा जाने
कहाँ से एक बड़ा सा मिश्रित नस्ल का कुत्ता आ टपका। पीछे-पीछे चलता हुआ वह दांत
निकाल कर गुर्राता जा रहा था। बेनी रुक कर उसे घुड़का, पर वह और आक्रामक हो गया।
लगा, वह बेनी के उपर ही झपट पड़ेगा। झुक कर बेनी ने एक पत्थर उठाया और उसकी ओर
फेंका। पिछली दोनों टांगों के बीच अपनी दुम दबा कर वह पीछे मुड़ा भी... पर फिर पलट
के बेनी के पीछे-पीछे चलने लगा। इस बार थोड़ी दूरी बना कर। करीब दस मीटर का फासला
बना कर थोड़ी देर वे आगे-पीछे चलते रहे। फिर बाएं रास्ते पर मुड़ गए। इस सड़क पर भी
सभी दुकानों के शटर गिरे हुए थे। यह लोगों के आराम करने का समय था। अधिकाँश शटर
ग्रे रंग में रंगे हुए थे। पर अब उनका रंग धुंधला पड़ने लगा था।
कभी उसके अपने घर
के सामने वाले बाग़ में पुरानी प्रजाति के खजूर के दो पौधे हुआ करते थे। पर कोई चार
बरस पहले नावा ने उन्हें कटवा दिया – हवा चलने पर दीवार से टकरा कर बिस्तर के
सामने की खिड़की पर उसकी पत्तियाँ रात को जैसे सरसराया करती थीं, उससे उसे नींद
नहीं आती थी। जाने क्यों उन्हें देख कर उसका मन गहरी उदासी से भर जाता था।
आँगन में चमेली
और शतावरी की लतरें भी थीं। खजूर के पेड़ के नीचे और भी कई झाड़ियाँ उग आयीं थीं। और
हवा चलने पर उनके दाएँ-बाएँ झूलने को देखने में मजा आता था। बेनी एवनी आस-पास की
सड़कों से होता हुआ एक बार फिर मेमोरियल पार्क में आ गया। वह उस बेंच तक आया जहाँ
नावा के बैठे होने की बात एवेल ने बतायी थी। और जहाँ बैठ कर उसने उसके लिए एक
पुर्जा भेजा था – ‘मेरी फ़िक्र मत करना।’
उस बेंच के पास
बैठ कर बेनी एवनी पल भर को ठिठका। कुत्ता भी उसके साथ ठिठका, पर दस मीटर का फासला
बना कर। इस वक्त कुत्ता न तो गुर्रा रहा था न खींसे निपोर रहा था पर बेनी एवनी पर चौकस
निगाहें जरुर रखे हुए था।
जब वे दोनों तेल
अबीब यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे – तभी शादी से पहले नावा को गर्भ ठहर गया। नावा
टीचर्स सेमिनरी की स्टूडेंट थी और वह बिजनेस स्कूल का। फौरन ही आपसी रजामंदी से
उन्होंने एबार्शन का फैसला कर लिया, पर एक प्राईवेट क्लिनिक में ऑपरेशन से दो घंटे
पहले नावा का मन पलट गया और उसने एबार्शन कराने से मना कर दिया। नावा बेनी एवनी के
सीने पर सर टिका कर देर तक रोती रही। बेनी ने उससे नादानी न करने की बात कही और
पूछा – उन परिस्थितियों में एबार्शन न कराने का उनके सामने क्या विकल्प है?
बेनी ने उसे
आश्वासन दिया कि एबार्शन की पूरी प्रक्रिया उतनी ही संक्षिप्त है जैसे अक्ल का
दांत उखड़वाने की। बेनी क्लिनिक के बाहर सड़क पार के कैफे में बैठ कर पुराने अखबार
के पन्ने उलटते रहा। दो घण्टे भी पूरे नहीं हुए थे कि नावा क्लिनिक के बाहर आ गयी।
उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी। वे एक टैक्सी ले कर डर्मिटरी के कमरे पर गए। पर
वहाँ शोर मचाते हुए छः साथ स्टूडेंट्स बेनी की प्रतीक्षा में इकट्ठा थे। दरअसल
बेनी ने वहाँ पहले से कोई मीटिंग तय कर रखी थी। वहाँ पहुँच कर नावा एक कोने में
कम्बल ओढ़ कर लेट गयी। पर उनके बीच जिस ढंग की बहसबाजी, नोक-झोंक और मजाक हो रहे थे
– साथ में सिगरेट का धुंआ –सब कुछ नावा के कम्बल को बेध कर दाखिल हो रहा था।
कमजोरी और उबकाई – टायलेट की तलब – जैसे-जैसे एनेस्थीसिया का असर उतर रहा था, शरीर
के अन्दर की चीर-फाड़ का दर्द बढ़ता जा रहा था। बाथ रूम के अन्दर से उसे सड़क पार का
नजारा दिखायी दे रहा था। - एक बन्दा उल्टी कर रहा था, सो वह खुद पर भी काबू नहीं
रख पायी और ढेर सारी उल्टी कर बैठी। शर्म से वह देर तक बाथ रूम के अंदर ही बन्द
रही। अपनी बाँहों के बीच में सिर रख कर सिसकती रही। उसे समय का एहसास तब हुआ जब
कमरे में काँव-काँव करते हुए लड़के चले गए और बेनी ने आकर उसे थामा। बुरी तरह से
काँपती हुई नावा को बेनी बिस्तर तक ले कर आया।
शादी उन्होंने इस
वाकये के दो साल बाद की। पर नावा को फिर से गर्भधारण में मुश्किलें आने लगीं। एक
के बाद एक उन्होंने अनेक डॉक्टरों को दिखाया और उनका इलाज भी चलाया। पाँच वर्ष की
मशक्कत के बाद नावा ने दो जुड़वा बेटियों को जन्म दिया- युवाल और इन्वाल। हालांकि
अजीब बात यह हुई कि एबार्शन वाले वाकये पर उन्होंने बाद में कभी बातचीत नहीं की –
एक बार भी नहीं। जैसे अपने-अपने मन में चुपचाप दोनों ने मान लिया हो कि उस घटना पर
बात करने का कोई मतलब नहीं था।
नावा स्कूल में
पढ़ाती थी और मुखाकृतियाँ गढ़ती थी। इत्तेफाक की बात है कि बेनी एवनी तेल इलान जिला
परिषद का अध्यक्ष चुन लिया गया। उस शहर में वह अच्छा खासा लोकप्रिय था। और लोगबाग
उसकी धैर्यपूर्वक सबकी बात सुनने की और समस्याओं के तत्काल निबटारे की कार्य-शैली
के कायल थे।
बेनी को सामने
वाले को काबू में करने की कला में महारत हासिल थी और फिर दिलचस्प बात यह थी कि
सामने वाले को इस बात का कत्तई अंदेशा नहीं होता था कि बेनी उन्हें अपने भ्रमपाश
में लपेटे जा रहा है।
चलते-चलते वह एक
जगह रुका। यह देखने के लिए कि कुत्ता अब भी उसके पीछे चल रहा है। कुत्ता कुछ दूरी
पर खड़ा हुआ था। अपने पैरों के बीच में दुम दबाये, थोड़ा सा मुँह खोले, धैर्यपूर्वक बेनी की तरफ
टकटकी लगाए। धीमी आवाज में बेनी बोला – ‘इधर आओ।’ यह सुन कर हांफते हुए कुत्ते ने
अपने कान नीचे गिरा लिए और और गुलाबी जीभ निकाल कर हवा में लहराने लगा। जाहिर था,
बेनी से वह दोस्ती करने को तैयार था। मगर बहुत नजदीक जाने को तैयार न था। दिन का
वह ऐसा समय था जब पूरे शहर में एक परिन्दा भी नहीं दिखाई दे रहा था। सिर्फ बेनी
एवनी, वह कुत्ता और पेड़ों की ऊँचाई तक नीचे उतर आये बादल थे जो सड़क पर दिखाई पड़
रहे थे।
पानी की टंकी के
पास एक भूमिगत सार्वजनिक बम शेल्टर था। बेनी एवनी ने उसका लोहे का गेट धकेला। उस
पर ताला नहीं लगा था। वह अन्दर घुस गया पर वहाँ धुप्प अन्धेरा था। दीवार पर हाथ
मार कर बेनी ने स्विच तो ढूंढ लिया पर बिजली का कनेक्शन कटा हुआ था। साहस कर के वह
बारह सीढियां उतर गया। नमी से चिप-चिप करती गन्दी-संदी फर्श पर आगे बढ़ा तो उसके
पैर से बिस्तरों का ढेर और आलमारियों के दराज टकराए। जब उसकी नाक में सड़ी-गली
चीजों की गंध आने लगी तो उलटे कदम सीढ़ियों तक वापस हो लिया। उपर निकल कर उसने
दोबारा स्विच आन कर के देखा। लोहे का भारी दरवाजा बन्द किया और सूनी सड़क पर निकल
आया।
हवा रुक गयी थी,
सो कोहरा ज्यादा घना होता जा रहा था। इतना घना कि मकानों की शक्लें धुंधली पड़ गयीं।
कुछ घर तो एक सौ साल से भी ज्यादा पुराने थे। ज्यादातर मकानों के छज्जे पुराने पड़
कर उखड़ गए थे। जिनसे सामने की दीवारों पर बड़े-बड़े चकत्ते उभर आये थे। अहातों में
चीड़ के पेड़ों की कतारें दिखाई दे रही थीं पर बीच-बीच की दीवार लगभग सटे हुए मकानों
को एक दूसरे से अलग करती थीं। खाली जगहों पर झाड़ियाँ उग आयीं थीं और उनके बीच
कहीं-कहीं कोई पुरानी टूटी-फूटी चीज नजर आ जाती थी।
बेनी एवनी ने
सीटी बजा कर, कुत्ते को पास बुलाने की कोशिश की, पर वह दूर ही खड़ा रहा। जब करीब सौ
साल पहले यह शहर बसाया गया था तब का बना हुआ सायनागाग ... उसके प्रवेश द्वार पर एक
खोखा सा खड़ा था। बेनी एवनी ने नजदीक से जा कर देखा तो वहाँ सिनेमा और शराब घरों के
विज्ञापन चिपके हुए थे। एक बोर्ड जिला परिषद् के इश्तहारों के लिए भी था। जिस पर
बेनी ने अपने हस्ताक्षरों वाली नोटिसें भी देखीं। उन्हें पढ़ते हुए उसे एकबारगी
महसूस हुआ कि अब वे बेमानी हो चुकी हैं। कुछ मायनों में भ्रामक भी। अब तक बेनी को
लगा जैसे सड़क जहाँ सामने खत्म होती है वहाँ कोई झुक कर खड़ा है। पर जब उसने गौर से
देखा तो कोहरे के अन्दर छुपती हुई झाड़ियाँ दिखाई दीं। सायनागौग की छत धातु की टोपी
की बनी हुई थी। उसके दरवाजों पर शेर और सितारे जड़े हुए थे। बेनी पाँच सीढियाँ चढ़
कर दरवाजे तक पहुँचा और दरवाजे को हिला कर देखा कि खुला है या बन्द। अन्दर घुसा तो
अन्धेरा था... हवा सर्द। सामने आर्क को ढके हुए परदे के सिरहाने तक मोमबत्ती
टिमटिमा रही थी। उसने नजरें गड़ा कर देखा -- लिखा था -- ‘ईश्वर सदैव मेरे सामने खड़ा
होता है।’ अँधेरे में ही बेनी ने बेंचों के बीच से ऊपर जाने की सीढियाँ ढूँढ
निकालीं। वहाँ बेंचों के ऊपर प्रार्थना की कई कटी-फटी पुरानी काली किताबें फेंकी
हुई थीं – पसीने की और पुरानी खंडहरनुमा इमारत की मिली-जुली गन्ध। उसने एक बेंच पर
अपना हाथ फिराया... उसे लगा था उस पर किसी का शाल या स्कार्फ छूट गयी थी।
सायनागौग से निकल
कर उसने देखा कुत्ता सीढ़ियों के नीचे बैठा उसके आने का इन्तजार कर रहा है। बेनी
एवनी ने जमीन पर पैर पटकते हुए कहा : ‘भागो... धत्त।’ कुत्ते ने बड़े इत्मीनान से
अपनी गर्दन घुमायी और हाँफता रहा। जैसे उससे दरियाफ्त कर रहा हो कि तुम्हारी इतनी
हिम्मत हुई कैसे? बेनी भला उस कुत्ते को सफाई क्यों देता। वह वहाँ से जाने के लिए
मुड़ा... कन्धा उचकाया तो उसका भारी-भरकम स्वेटर जैकेट से बाहर झाँकने लगा।
लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ वह ऐसे चल रहा था जैसे तेज लहरों की दीवार तोड़ता हुआ कोई
जहाज। कुत्ता फिर उसके पीछे-पीछे चलने लगा। हालाँकि नजदीक आने से निरंतर बचता हुआ।
आखिर नावा गयी तो
गयी कहाँ? हो सकता है किसी सहेली के यहाँ गयी हो और लौटने में किसी कारण से देर हो
गयी हो। या हो सकता है स्कूल में ही कोई काम अचानक आन पड़ा हो। यह भी हो सकता है
किसी डॉक्टर के यहाँ गयी हो। अभी कुछ ही हफ्ते तो हुए किसी बात पर बहसबाजी में
उसने कहा था कि तुम्हारी भलमनसाहत दुनिया को दिखाने वाला मुखौटा है और कोई इस
मुखौटे के अन्दर जा कर देखे तो उसे मिलेगा – साईबेरिया। बेनी ने यह कटाक्ष सुन कर
भी कोई जवाब नहीं दिया। बस हलके से मुस्कुरा दिया जैसे वह नावा के क्रोध में होने
पर हमेशा किया करता है। उसके इस बर्ताव से नावा का पारा और चढ़ गया और जोर से
चिल्ला पड़ी – ‘तुम्हें किसी की फ़िक्र नहीं है, न मेरी न बच्चों की।’ वह बेशर्मी से
मुस्कुराता रहा और हाथ बढा कर नावा के कन्धों पर रख दिया। नावा ने झटक कर उसे परे
कर दिया। कुर्सी से उठी और कमरे से बाहर जा कर दरवाजा धड़ाम से बन्द कर दिया। करीब
एक घंटे बाद बेनी नावा के स्टूडियो में गर्म हर्बल टी के कप में शहद डाल कर ले कर
आया। उसे लगा मौसम सर्द है कहीं नावा ठण्ड न खा जाय पर नावा को सर्दी महसूस नहीं
हो रही थी। हालांकि उसने चुपचाप चाय का कप थाम लिया था और बोली – थैंक्स, इसकी कोई
जरूरत थी नहीं।
उसके मन में तभी
यह ख्याल आया कि कहीं ऐसा न हो कि नावा को इस घने कोहरे में यहाँ-वहाँ ढूंढ रहा है
और वह उसके पीछे से घर लौट आयी हो। उसने सोचा एक बार लौट कर घर देख आए – पर
खाली-खाली घर का ख्याल – ख़ास तौर पर खाली बेड रूम में पलंग के नीचे करीने से संभाल
कर रखी हुई खिलौने वाली नावों सरीखी उसकी रंग-विरंगी चप्पलों की छवियाँ उसे घर
लौटने का जोखिम उठाने से रोकने में सफल हुईं। वह न चाहते हुए भी घर लौटने की बजाए
आगे बढ़ गया। बीच की सड़कों को पार करता हुआ वह नावा के स्कूल तक आ गया। अभी मुश्किल
से महीना भी नहीं बीता था जब उसने जिला परिषद् में विरोधियों द्वारा शिक्षा परिषद
के उस प्रस्ताव पर जोरदार बहस की थी जिसमें नावा के स्कूल को अतिरिक्त धन-राशि
मुहैया कराने के प्रस्ताव को ही हरी झण्डी न दिखाने की बात कही गयी थी। और उसके
तर्कों के बलबूते उस स्कूल को चार नए क्लास रूम्स और जिम्नेजियम बनाने के लिए पैसे
स्वीकृत किये गये थे।
आने वाले त्यौहार
के मद्देनजर स्कूल के लोहे के फाटक पर भारी-भरकम ताला डाल दिया गया था। स्कूल भवन और
खेल के मैदान को चारो ओर से... उपर से भी लोहे की जालियों से घेरा गया था। बेनी
एवनी ने उस घेरे के दो चक्कर काटे कि शायद कहीं से ऐसा चोर रास्ता मिल जाए जिससे
हो कर अन्दर घुसा जा सके, पर सफल नहीं हो पाया। सडक के दूसरे किनारे चल रहे कुत्ते
को उसने इशारे से पास बुलाया और एक जगह लोहे के खम्भों का सहारा ले कर जाली के
अन्दर कूद गया। इस कोशिश में वह घायल हो कर खून भी निकलवा बैठा। टखनों पर घाव
ज्यादा था। पर इसी हालत में उसने लंगड़ाते-लंगड़ाते मैदान पार किया।
सामने से नहीं बाजू के किसी
दरवाजे से वह दरवाजे के अन्दर दाखिल हुआ और एक लम्बे हाल में पहुँच गया। इस हाल के दोनों तरफ कतार
में क्लास रूम बने हुए थे। वहाँ की हवा में पसीने
इधर-उधर फेंके हुए खाने के अवशेष और ब्लैक-बोर्ड पर लिखने वाले चाक के कणों की गंध
बसी हुई थी। यहाँ-वहाँ फर्श पर नारंगी के छिलके और कागज़ के तुड़े-मुड़े
टुकड़े बिखरे हुए थे। एक अधखुले दरवाजे को
धकेलता हुआ बेनी एवनी एक क्लास रूम में घुस गया। टीचर की मेज पर ब्लैक
बोर्ड साफ़ करने का डस्टर और कापी के कुछ लिखे हुए पन्ने पड़े हुए थे। उलट पुलट का कर देखने पर
उसे लगा कि यह किसी स्त्री की लिखावट है। गौर किया तो यह साफ़ हो गया
कि यह नावा की लिखावट नहीं थी। उन पन्नों को पकड़ने से
उसकी चोट के खून के निशान उन पन्नों पर भी लग गए। उसने डेस्क का ढक्कन उठा
कर उन पन्नों को उसके अन्दर डाल दिया। फिर ब्लैक बोर्ड की ओर
ताकने लगा। उसी जनाना लिखावट में ब्लैक बोर्ड भी कुछ पर लिखा था। बोर्ड पर होम वर्क में
किसी ख़ास पाठ के तीन चैप्टर्स को बुधवार तक पूरा करने का निर्देश दिया गया था। बोर्ड के ऊपर स्टेट के
राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के चित्र टंगे हुए थे। साथ में संदेशों वाले कुछ
रंगीन इश्तेहार भी लगाए गए थे।
क्लास में डेस्क
जिस तरह से रखे हुए थे उसे देख कर समझ आ रहा था कि घंटी बजने पर बच्चे एक साथ
दौड़ते हुए इन्हें इधर-उधर धकेलते हुए बाहर निकले होंगे। खिड़कियों पर रखे गमलों में
पौधे सूख रहे थे। टीचर की मेज के सामने इज्रायल का एक बड़ा सा नक्शा टांगा हुआ था
जिसमें तेल इलान की जगह पर हरे रंग का एक गोला बनाया हुआ था। खूँटी पर एक लावारिस
जैकेट भी टंगा हुआ था।
बेनी एवनी क्लास
रूम से बाहर निकला और लंगड़ाता-लंगड़ाता सूने कारीडोर में चलता गया। उसके घाव से
रिस-रिस कर खून फर्श पर अपने निशान छोड़ता रहा। हाल पार कर उसे बात रूम दिखाई दिए
और बगैर आगा-पीछे किए वह लेडीज बाथ रूम में घुस गया। अन्दर पाँच कमरे थे। वह हर
कमरे में घुसा। दरवाजे से अन्दर जा कर एक-एक चीज का मुआयना करता रहा। वहाँ से बाहर
निकल कर बेनी एवनी दूसरे हाल की ओर गया... फिर तीसरे हाल की तरफ। इन सबको पार कर
के वह टीचर्स लाउंज के सामने पहुँचा। पल भर को दरवाजे पर वह ठिठका। दरवाजे पर लिखे
निर्देश की तरफ उसका ध्यान गया – टीचर्स लाउंज। छात्रों को बगैर इजाजत अन्दर आना
मना है। उसने उन शब्दों को छू कर देखा जैसे ब्रेल लिपि में लिखा गया हो। उसके मन
में एकदम से आया कहीं अन्दर कोई मीटिंग न चल रही हो। वह उसमें व्यवधान डालना नहीं
चाहता था। और न ही अन्दर घुस कर देखने का लोभ संवरण कर पा रहा था। अन्दर पहुँच कर
उसने देखा वहाँ सन्नाटा और अँधेरा पसरा हुआ था। खिड़कियाँ पूरी तरह से बंद थीं और
परदे खींचे हुए थे। इस लम्बे-चौड़े कमरे में किताबों की दो लम्बी बुक-शेल्फ थी। बीच
में रखी लम्बी मेज के इर्द-गिर्द करीब बीस कुर्सियाँ रखी हुईं थीं। मेज पर चाय के
कई कप, कुछ किताबें, कुछ बेंतें और कुछ पर्चे रखे हुए थे। लाउंज के अंतिम छोर पर
एक बड़ा सा कैबिनेट रखा हुआ था जिसमें हर अदद टीचर के लिए अलग-अलग ड्रावर बने हुए
थे। नाम पढ़ते-पढ़ते उसे नावा का ड्रावर मिल गया. उसने खींच कर खोला। अन्दर कापियों
का एक बण्डल, चाक का एक बाक्स, गले की खराश के लिए कुछ गोलियाँ और धूप के चश्मे का
एक खाली डब्बा दिखायी पड़ा। कुछ देर बेनी उसे देखता रहा और कुछ सोच कर ड्रावर को
अपनी जगह पर रख दिया।
मेज के अंतिम छोर पर जो
कुर्सी पड़ी थी उसके ऊपर रखा स्कार्फ उसे पहचाना सा लगा– नावा के पास एक ऐसी ही
स्कार्फ है। पर इतनी धीमी रौशनी में वह पहचाने भी तो कैसे। फिर भी
उसने स्कार्फ उठाया। घाव से रिसते खून को उससे पोछा और तहा कर अपने जैकेट की जेब
में रख कर बाहर निकल आया। टीचर्स लाउंज से बाहर आ कर वह फिर हाल के अन्दर घुस गया।
एक-एक क्लास रूम में झाँक कर देखा। स्कूल के हेल्थ सेंटर वाला दरवाजा खोल कर बेनी
ने पूरे कमरे पर निगाह मारी और स्कूल भवन से बाहर चला आया। इस बार उसने दूसरे
दरवाजे का इस्तेमाल किया, जिससे अंदर आया था उसका नहीं। खेल का मैदान पार करते हुए
वह अब भी लंगड़ा कर चल रहा था। जाली के पास पहुँच कर उसने पहले जैसा ही लोहे के
खम्भों का सहारा लिया और बाहर जाली के पार कूद गया। इस बार वह दोबारा चोट खाने से
तो बच गया पर जैकेट में लम्बा चीरा लग ही गया।
बाहर आ कर थोड़ी
देर जाली की जड़ में ध्यान लगाए खड़ा रहा। किस लिए ... किसके इन्तजार में... उसको यह
तब पता चला जब उसकी नजर सड़क के दूसरे किनारे पर बैठे कुत्ते पर गयी। वैसे ही करीब
दस मीटर की दूरी बनाए हुए बैठा था वह। कुत्ते की निगाहें उसी की ओर थीं। ...उत्सुक
निगाहें। उस क्षण एकबारगी उसके मन में आया वह कुत्ते को पाल ले। पर कुत्ता था कि
वहाँ से उठा। अपने बदन को सीधा किया और उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। सुरक्षित दूरी
बरकरार रखते हुए।
करीब पंद्रह मिनट
तक बेनी एवनी सूनी सड़क पर कुत्ते के पीछे-पीछे लचक-लचक कर चलता रहा। चारखाने के स्कार्फ
को अपने जेब से निकाल कर उसने अपना जख्म पोछा। वह स्कार्फ जाने नावा का था या उसके
स्कार्फ से मिलता जुलता किसी और का था, पक्का नहीं मालूम। नीचे उतर आये भूरे रंग
के बादलों के टुकडे पेड़ों की फुनगियों से उलझ रहे थे। घरों के अहाते में कोहरे का
साम्राज्य था। उसे लगा चेहरे की नंगी चमड़ी को पानी की एकाध बूँद छू गयी। पर उसने न
तो उसकी परवाह की और न पक्के तौर पर उसे उन बूंदों के होने या न होने का ही पता चला
था। सामने आ खड़ी हुई दीवार पर उसे लगा कोई चिड़िया बैठी हुई है। पर जैसे जैसे वह
नजदीक चलता चला गया उसे अहसास हुआ वह कोई चिड़िया नहीं, टीन का एक पुराना खाली
डब्बा था।
चलते-चलते अब वह
बोगेनबिलिया की दो कतारों के बीच से जाती एक संकरी गली में आ गया था। उसे याद आया
दो-चार दिन पहले ही उसने उस गली में सड़क का काम दुबारा शुरू करने के आदेश पर
दस्तखत किये थे। सुबह-सुबह की सैर के बहाने खुद आ कर वह मौके पर मुआयना भी कर गया
था। उस गली से होता हुआ वह फिर से सायनागाग के सामने जा पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर
उसे ध्यान आया कि अब कुत्ता पीछे-पीछे नहीं बल्कि आगे चलने लगा है। मानों वही उसे
रास्ता दिखा रहा हो। इस बार पहले के मुकाबले रौशनी और भी कम हो गयी थी। उसने खुद
से सवाल किया – ‘क्या अब सीधे घर नहीं जाना चाहिए?’ नावा जरुर घर लौट आयी होगी, और
अब आराम कर रही होगी। और उसे घर पर न देख कर उसे हैरान हो रही होगी। या चिन्ता भी कहीं
न कर रही हो। पर सब कुछ के बावजूद खाली घर का खौफ उसके मन पर इस कदर हावी हो जाता
था कि वह पैर की चोट को नजरअंदाज करके कुत्ते के पीछे-पीछे ही चलता रहा।
कुत्ते ने एक बार
भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। थूथन इस तरह नीचे लटकाए रहा जैसे उससे फर्श को सूंघता
चल रहा हो। इस तरह चलते-चलते अब जल्दी ही सांझ घिरने लगेगी और आसार ऐसे लग रहे थे
कि भारी बरसात होने वाली है जिसमे सब कुछ धुल कर साफ़-सुथरा हो जाएगा। वह उन तमाम
संभावनाओं के बारे में सोचता रहा जिनकी गुंजाईश थी पर उनमे से शायद एक भी सही
साबित न हो। यह सोचते-सोचते उसका मन एक बार फिर से भटक गया। नावा की घर के पिछवाड़े
के छज्जे बेटियों के साथ बैठने की पुरानी आदत थी। वे सब बैठे-बैठे नीबू के पेड़ों
की कतारों को निहारा करतीं और बीच-बीच में खुसुर-पुसुर करती रहतीं। उसे कभी यह समझ
नहीं आया कि बैठ कर क्या बतियाती हैं। और न ही कभी उनसे बातचीत करके यह जानने की
उसने परवाह ही की। अब इन बातों की याद आते ही उसके मन में उनकी खुसुर पुसुर के
विषय को जानने की लालसा तो हुई पर अब किया भी क्या जा सकता था। उसे खुद पर खींझ भी
हुई कि इतनी देर से वह यहाँ-वहाँ भटक रहा है, पर अपना मन किसी एक नतीजे पर नहीं
टिका पा रहा है। अपने काम के सिलसिले में कोई ऐसा दिन नहीं बीतता जब उसे बहुआयामी
फैसले न लेने पड़ते हों। पर इस घड़ी में तो मन पर उसके ‘शक’ हावी था। और उसे एकदम से
समझ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे। मन की उधेड़बुन चलती रही कि उसने देखा कि
कुत्ता उससे सुरक्षित दूरी - करीब दस मीटर - बना कर सड़क के उस पार बैठ गया है।
उसकी देखा-देखी बेनी एवनी भी मेमोरियल पार्क की बेंच पर बैठ गया। उसी बेंच पर जिस
पर कोई दो-तीन घंटे पहले उसकी पत्नी नावा बैठी हुई थी। घिसटते हुए वह बेंच के
बीचोबीच चला आया, स्कार्फ से अपने जख्म को पूरी तरह ढक लिया। हलकी बूंदाबादी शुरू
हो गयी थी। सो उसने अपने जैकेट के सभी बटन लगा लिए और इस तरह बेनी एवनी वहाँ बैठ
कर अपनी पत्नी की प्रतीक्षा करने लगा।
(मूल हिब्रू से
अंग्रेजी अनुवाद – एमोस ओज और जिल सैंड डी एंजेलो।)
(‘द न्यूयार्कर’ में 8
दिसम्बर 2008 को प्रकाशित।)
प्रस्तुति –
यादवेन्द्र
यादवेन्द्र |
सम्पर्क –
यादवेन्द्र - 09411100294
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ट कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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