उषा राय की कहानी ‘डबरे का पानी’।

उषा राय



                                                            
जन्म -  1 मार्च 1963

शिक्षा -  एम. ए., पी-एच. डी.।
पुस्तक- समकालीन हिंदी कविता : व्यंग्य और शिल्प।
अन्य प्रकाशन - हंस, पाखी, लमही, कथादेश, समकालीन जनमत आदि पत्रिकाओं में कहानी कविता एवं समीक्षा
प्रलेस लखनऊ इकाई एवं साहित्यिक पत्रिका ‘कल के लिए’ के सम्पादन से संबद्ध । 

सम्प्रति - अध्यापन 


स्त्री का जीवन तमाम विडंबनाओं से भरा होता है। इन विडंबनाओं के बीच से ही उसे अपनी राह बनानी होती है। लेकिन यह राह भी इतनी आसान कहाँ होती है। कदम-कदम पर उसे दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है। कदम-कदम पर उसे अपने को साबित करना पड़ता है। उषा राय ने अपनी कहानी ‘डबरे का पानी’ के माध्यम से इन्हीं दुश्वारियों को उजागर करने का प्रयास किया है। कहानी कथ्यों और घटनाओं के जरिये आगे बढ़ती है। इसमें कहानीकार अपनी तरफ से कोई वक्तव्य नहीं देती। कहानी की यह वह खासियत होती है जिससे पाठक अनायास ही कहानी के प्रवाह में बहता चला जाता है। उषा अपनी कहानी में यह करने में सफल रही हैं और इसीलिए यह कहानी सशक्त बन पडी है। तो आइए आज पढ़ते हैं उषा राय की कहानी ‘डबरे का पानी’। 

                 
डबरे का पानी
                                                                     उषा राय


कल तक जो गांव नई बहुरिया के आने से बिना तेल के बरी की तरह उछल रहा था। पूरी बखीर और कोहँड़ा की तरकारी खा के छनन-मनन हो रहा था। दान दहेज के चर्चा में मगन था। आज वहां सन्नाटा हो गया। जितने मुंह उतनी बातें, कहीं फुसफुसा के तो कहीं सांय सांय। चौका बासन कर के कमकरीन बाहर क्या निकली सबने घेर लिया .. “नवकी दुल्हिन कैसी हैं?”

“का बतायें चौबाइन जी! हैं तो इंदर की परी की तरह एपर माथा न गरम है। “भगवान जाने भूत है कि चुरइल है। पता नाही काहें ऐसा करती हैं। इस ठंडी में सबके ऊपर पानी फेंक रही है। रंग लगा रही है। कहती है.. कि फगुआ है फगुआ। आप लोग फगुआ क्यों नहीं मना रहें हैं।”

“हमको तो लगता है कि पंडिताइन की बहू नइहरे की बिगड़ैल है। देखो, नई बहू को सुरु से ही सासन में रखना चाहिए।” 
“हम चलते हैं, ए चाची लोग हमारा नाम मत लगाइयेगा, मैंने कुछ नहीं बताया। नहीं तो मालकिन हमको खा जाएँगी।”
“हाँ-हाँ पर ये तो बताओ, जा कहां रही हो, कौनो जरूरी काम है?” चौबाइन और ललाइन एक साथ पूछी।
“अरे सब पूछिये के मानेगी चाची लोग! तो सुनिए, हम डोली कहांर खोजने जा रहे हैं।”
“क्या??  देखीं ललाइन! आजकल की इन नई बहुरियों का कौनो भरोसा नाही है। कुछ जियान नुकसान की होगी तभी तो पंडिताइन भगा रहीं हैं।”
“वैसे भी ससुराल में खपना आसान थोड़ी होता है।”
“जब तक सास जिन्दा रहीं हमने सूरज की रोसनी नहीं देखी।”
“हमारे भी ससुर मरे हैं, तभी पूजा की डोलची उठाई है। चलो चलो आज हमें गंगा स्नान की देर हो गयी।” 

“हईला रे हचक। हईला रे हचक।” कँहार बोलते हुए चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे बच्चे गाते हुए.... “लाली लाली डोलिया के लाली रे ओहार, घुंघटा उलट के जो देखीं एई त हई दिदिया हमार।”

डोली देवान जी के दरवाजे पर रुकी। देवान जी फुलगेना की दादी हैं। घर भर में चीखो पुकार मच गयी। फुलगेना वापस आ गयी... फूलगेना वापस आ गयी।  फूलगेना की माँ और चाची राग में गाते हुए रोईं ...
 
“बछिया रे बछिया। का कईलू ए बछिया। किया कइलू चोरी एकिया हो छिनारी एकिया दिहू सासू के जबाब। काहे आईलु अकेल” फूलगेना चुप्प एकदम चुप्प थी। वह सबसे गले मिल रही थी।

देवान जी दूर से देख रहीं थीं। पैर छूने गयी तो बोलीं – “ठीक है कुछ खा कर आराम करो, बाद में बात करेंगे।” तब लगा कि फुलगेना भोकार छोड़ के रोयेगी, लेकिन देवान जी का रुख देख कर सहम गयी। जब सब लोग चले गए तब वह उनके पास पहुंची। देवान जी पूछा ....
“हाँ...  बताओ! कहाँ की चुरइल और भूत लगा तुमको और पागलपन? सब बताओ। तुम क्या-क्या बताओगी कि कैसे तुमने बाप की पगड़ी उछाली है। कैसे  ससुराल से उल्टे पांव वापस कर दी गयी हो।”

“बताउंगी आजी सब बताउंगी।”
“क्या बताओगी कि आजी माई ने कुछ नहीं सिखाया। लड़की के लक्षन ख़राब थे  इसलिए खप नहीं पाई। अरियात करियात गांव गिरांव सब जगह खबर फ़ैल गयी होगी।”

फूलगेना की माँ का दिल टूक-टूक  हो रहा था। लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोली ...  “अम्मा जी! हम आपके हाथ जोड़ते हैं। न जाने क्या-क्या बीती है इस गरीब पर। आज मत पूछिये। अब आ गयी है तो बताएगी ही।

“चलो...  उठो!  मेरे कमरे में चलो।” वे फुलगेना की बांह पकड़ के उठाने लगती हैं।
“हाँ-हाँ बहू ले जाओ। लेकिन तुम्हारा आँचल इतना बड़ा नहीं है कि - इसे तुम दुनिया की निगाह से छुपा सको।” 

आज फुलगेना कितनी अकेली थी। वही घर! वही आँगन जो उसका अपना था वह  सहेलियों को भी धमका देती कि – ‘तुम हमारे घर मत आना!’ एक फीकी हँसी  उसके होठों पर तैर गयी। और तो और देवान जी के कितने करीब थी वह? आज  देवान जी उसे देखना भी नहीं चाहती।
आज वह डबरे के पानी की तरह व्यर्थ थी। न कोई सुध लेने वाला, ना कोई उम्मीद।



उसे याद आये पुराने दिन... अभी मुश्किल से साल डेढ़ साल पहले की ही तो बात है। ददरी मेला जाने की तैयारी थी। दोनों बड़ी दिदिया भी अपने परिवार के साथ आयीं थीं। फुलगेना बीते हुए दिनों में विचरण करने लगी है।  
देवान जी! बड़की मचिया पर बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ा रहीं थीं। गांव के पंडित जी पतरा लेकर बैठे थे। शुभ दिन का विचार हो रहा था, मेला देखने जाने के लिए। घर के सब लोग इकट्ठा थे। ‘‘घर की दोनों बैलगाड़ियाँ जाएँगी। लेकिन एक गाड़ी की और जरूरत पड़ेगी, जिसमें तिरपाल, पानी रखने के घईली, खाना बनाने के बरतन, सुजनी, बिछौना, चदरा और रसद रखने के लिए एक तो लोहे का बक्सा जायेगा ही। कातिक के महीने में हलकी ठण्ड पड़ने लगती है। इसके अलावा बैलों का भूसा भी रखना होता है। इस बार जर्सी गाय खरीदने का मन बन रहा है।  क्यों बेटा ठीक है न! पिछली बार हम लोगों ने दो मजबूत कन्धों वाले जौनपुरी बैल खरीदे थे। गांव में सबने तारीफ़ की थी।

“आप सबकी मदद भी तो करती हैं देवान जी! आप का परिवार गांव का सम्मानित परिवार है। दोनों बेटे और बहुएं आपका कहना मानते हैं।” कहते हुए पंडित जी ने शुभ दिन बिचार कर बता दिया। 

देवान जी के बारे में गांव में बहुत सी कहानियाँ प्रचलित हैं। एक बार देवान जी  किसी के घर गयीं थीं। उनके घर, बुढ़ौती में बेटा क्या हुआ, पत्थर पर दूब जमा।  खूब लहक के साथ सोहर चल रहा था। देवान जी भी बड़की मचिया पर बैठ कर पान में सौंफ इलायची मिश्री मुंह में दबा कर खूब गा रही थीं। तभी खबर आई कि देवान जी के घर बड़ी बहू की तीसरी बेटी हुई है। तो धीरे से किसी ने कहा...

“हे दइया! इस बार भी बेटी। नुकसाने नुकसान है। कहाँ ब्याही जाएँगी ये लड़कियां। “देवान जी ने उगलदान मंगायाए पान थूका और सोहर के बोल कढाईं।
“अरे हट। सोहर सुन!”
जमहि के रहले जदुनन्दन अवरी रघुनंदन हो
अरे माई जनमि गइली धिया सुटुकाही
एक गो बियहबों कोसलहियापुर एक गो गजनहियापुर हो।
अरे माई एक गो बियहबों पटनहियापुर - मोरी तीन गो हितइया भइली “
(जन्मना था राम कृष्ण की तरह बेटा, पर जनम गयी बेटी, वह भी खूब ज़बान चलाने वाली। पर कोई बात नहीं मैं कोसलपुर, ग़ाज़ीपुर और पटना में उनकी शादियां करूंगी, मेरे तीन हितैषी हो जायेंगे।)

चलो लोग, अब हमारे यहां चल के एक दो सोहर गा दो। वैसे भी बेटी के बिना अमीरी दिखाई कहाँ देती है। फिर-फिर बेटियों के बारे में इस तरह की हीन बातें उनसे किसी ने नहीं कही। लेकिन बेटियां जानती थीं कि आजी के रूप में देवान जी कितनी कड़क थीं।

बड़की पोती फुलझरी दूसरी फूलमती और तीसरी फुलगेना। फुलझरी तो बहुत सीधी थी, माँ के साथ काम काज में लगी रहती। उसका ब्याह भी अच्छे घर में हुआ। दूसरी सजने संवरने के अलावा कुछ कामकाज भी कर लेती थी। आँख की किरकिरी थी फुलगेनवा। कुछ न कुछ गलती तो करना ही है। जब देखो आम, इमली, महुआ  बीनने बगइचा में भागी रहती है। कोई त्यौहार हो वह सबसे आगे रहती, उसे भूत परेत का भी डर नहीं लगता। पीडिया के व्रत में जब बहने भाइयों की लम्बी उमर की कामना करके शाम में खाने बैठती तो वह कुत्तों को सटीहा देती, जिससे वे जोर से भौंकते थे। सबको पता था कि यह अमंगल करवाने का काम फुलगेना है पर खाना छोड़े कौन, वे जल्दी-जल्दी खाना खाती और देवान जी से शिकायत करती। उसके काम ही ऐसे थे कि डांट न खाये ये हो नहीं सकता।

“ए फुलगेना! सबके बालों में तेल लगा है, चोटी बंधी है। तुम्हारे बाल खुले क्यों रहते हैं? घर में झाड़ू लगाने के लिए?” देवान जी अक्सर टोकतीं।

“हाँ! झाड़ू तो लगेगा, लेकिन घर में नहीं तुम्हारे संदूक में।”
“अच्छा क्या लोगी मेरे संदूक से?” वे हंस पड़तीं।
“आजी! सबसे सुंदर वाला गहना। वह जो केवल तुम्हारे पास है। मुझे दोगी न। देखो तुम्हारा गड़गड़ा (बड़ा हुक्का) मैं भरती हूँ।”

खिलखिला के हंस देती हैं देवान जी। फुलगेनवा जितनी सुंदर है उतनी ही मुंहजोर भी । क्या होगा इसका। वे अपना माथा ठोंक लेती हैं। ये तो अच्छा हुआ कि बचपने में ब्याह हो गया। अब घर वर तो गौनें के बाद ही पता चलेगा।

ददरी मेला देखने जाने के लिए गांव में गायकों की टोली कुछ दिनों के लिए आ बसी थी। सवेरे-सवेरे गाने की आवाज सुन कर एक दिन फुलगेना वहाँ पहुँच गयी। उसे पता ही नहीं चला कि - वह कब गयी और खुद भी गाने लगी।
जब से गीत सीखना शुरू किया, उसके भीतर समझदारी आने लगी थी, आजी को आते ही सुनाती है, वे दादरा के प्रेमरस से भरे गीत बड़े चाव से सुनती है जैसे.. - - ‘अंधेरिया है रात सजन रहियो की जइहो’
दूसरा ‘हमरी अटरिया पे आजा सँवरिया’ और उन्हें सबसे अच्छा लगता ‘चला रे परदेसिया।’ गीत सुने बिना देवान जी को नींद ही नहीं आती थीं।

जैसे-जैसे ददरी मेला जाने का समय नजदीक आता वैसे-वैसे काम भी बढ़ता जाता। घर में लडुआ,टिकरी, खझुली, लकठो, सोठउरा तथा बाजरा, तीसी, सांवा, कोदो की  ढूंढी, चावल का चिउरा, अगहनियां की चिउरी, बन के तैयार हो गया। कौन जाने वहां रिश्तेदार ही मिल जाएँ तो? फुलगेना ने भी इस काम में दिल से मदद की। रात में जब वह सोने गई तो यह देख कर मुस्कुराई कि माई और चाची इतना ज्यादा थक गयीं थीं कि खटिया पर पड़ते ही सो गयीं।

“देखा आजी! अब दुनिया इधर से उधर हो जाये पर ये उठने वाली नहीं हैं।”
देवान जी कुछ कहते-कहते चुप हो गयीं और मुस्कराईं, फिर रहा नहीं गया तो फुलगेना से बोलीं।
“मैं भी ऐसे ही धुत्त सोती थी, राम जाने काम कभी खत्म ही नहीं होता था। कूटन पीसन से ले कर चौका बासन सब कुछ ही तो करती थी मैं।”
“काहें आजी! अकेले ही काहें करती थी। घर में और लोग नहीं करते थे क्या?”
“अरे हम उढ़रुई थे न।”
“उढ़रुई मतलब?”
“भगाई हुई औरत।”
“क्या ???”
“अरे चुप-चुप। किसी से कहना मत। हमार किरिया खाओ।”
“नहीं हम आपन किरिया खाएंगे। हे भगवान हमरे मुंह से निकले तो हमारे लिए मरन हो।”
“इतना बड़ा किरिया खाने को किसने बोला।”

“अच्छा ई सब छोडो ये बताओ आजी कि तुम्हारा ब्याह कैसे हुआ।”
“अभी तुम छोटी हो... सो जाओ।”
“नाहीं अभी बताओ।”
“अच्छा तो सुनो! हमारी माई मयभा थी।”
“मयभा मतलब।”
“सगी माँ नहीं सौतेली माँ।”
“फिर?”
“वह बहुत मारती थी। मैं दिन रात अपनी माई को याद करती और रोती रहती थी। हमको बाहर जाना मना था। सबसे डर लगता था। एक लड़का बँसवरिया में खड़ा हो कर मुझे देखता था। मैं उसे जानती थी, उसका नाम नरेन था। मेरी हिम्मत नहीं होती थी, बात करने के लिए। एक दिन उसने मुझे इशारे से बुलाया। बड़ा कलेजा पोढ़ करके पहुंची उसके पास। माई कहती थी कि यदि मैंने किसी से भी बात की तो वह चिमटा से दाग देगी। मैं चोरी-चोरी गई और धीरे से पूछा -
“क्या है? रोज यहां आ कर क्यों खड़े हो जाते हो।”
“अपनी पीठ दिखाओ।”
“क्या..., इसी के लिए बुलाया था। हम जा रहे हैं।”

“अरे नहीं! सुनो तो! जब तुम्हारी जाहिल माँ तुम्हें बांस के सटहे से पीट रही थी, तब मैं अपने घर की खिड़की से देख रहा था। तुम चुपचाप मार खा रही थी। तुम्हारी पीठ तो छलनी हो गयी होगी। इतनी मार!!!
तुम चोट दिखाओ पहले। ताड़का के साथ तुम कैसे रहती हो। एक दिन मार डालेगी तुम्हें।”

‘मैं तो हैरान। ये है कौन? दुबला पतला और लम्बा सा, खोई-खोई आँखों वाला। मेरी चोट की इसे इतनी चिंता। मैं तो मार खा-खा कर गंदले पानी का पत्त्थर हो गयी थी। उस दिन से  मेरे सारे घाव दुखने लगे थे। ए बिटिया मैं ये सोच रही थी कि ... मुई दवाई क्या मिली ये तो दर्द की हाट लग गयी। देवान जी कहीं खो सी गयी। ऐ हे...  बिटिया क्या-क्या सुनाऊँ तुम्हें।

“नहीं आजी! मैं पूरी बात सुन के ही सोउंगी। तुम्हारा हुक्का भर लाऊँ?”
“नहीं रे! पुराने दिन डबरे के पानी की तरह होते हैं, कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं देता।”
“फिर क्या हुआ आजी?”

 “हॉ तो उसकी बातों में सच्चाई थी। उसने रेल गाड़ी से निकल भागने को कहा। मैं तैयार हो गयी। कहां जायेंगे, सोचा नहीं। हमारे पास एक-एक झोला था। हम इंतजार कर रहे थेए रात का तीसरा पहर शुरू हुआ। हमने घर छोड़ दिया।



छिपते छिपाते, भागते-भागते मैं टीसन पहुंची। जाने कब की गाड़ी थी। नया टीसन बना था। नरेन के साथ झांक कर मैंने पहली बार घड़ी देखी और फून देखा। एक बलब जल रहा था। सब कुछ देख कर डर सा लग रहा था। घबराहट हो रही थी। सुनने में आ रहा था कि सब जगह लूट फूंक हो रही है। गोरे लोग सिपाहियों के साथ घर में घुस के कागज पत्तर जाने क्या खोजते हैं। सामान लूट लेते हैं और आग लगा देते हैं। कई गावों में लोगों ने अपने सामान को संदूक में भर के छोटी गड़हीयों में छिपा दिया था। टीसन पर तरह तरह की बातें हो रहीं थी। पता नहीं गोरे लोग इतनी बेदर्दी से मारकाट क्यों करतें हैं। मैंने किसी गोरे को नहीं देखा...।
 
नरेन मुझे बिठा कर चला गया। जैसे-जैसे समय बीत रहा था डर और घबराहट बढ़ रही थी। ए बेटी पूस माघ का जाड़ा था। लोहे की सीटें एकदम ठंडे बरफ़ के पथरों की तरह। पता नहीं नरेन कहां चला गया? कोने की सीट पर अकेले बैठे-बैठे अब आँख झपने लगी थी। तभी एक आदमी दौड़ता हुआ आया। आ कर मेरी गोद में एक थैली रख दी, मैंने जो चादर ओढ़ी थीए थोड़ा खींच कर ओढ़ लिया और फुसफुसा कर बोलने लगा ...

“डरना मत। मैं सुराजी हूँ। देस के लिए काम करता हूँ। इस समय मेरी जान खतरे में है। बस थोड़ी ही दूरी पर मेरा गांव है। अभी चला जाऊंगा।” मैंने पलट कर देखा तो उसी दिशा से सात-आठ सिपाही दौड़ते-दौड़ते आये। मैं सिमट गयी। फ़िर दिल को मजबूत किया। 
उन्होंने पूछा -
“ऐ! इधर से किसी को भागते देखा। ये कौन लेटा है”।

“चुप रहो मेरा आदमी बीमार है। भागते किसको देखा...  तुम्हीं लोग तो भाग रहे हो।”

पता नहीं कहां से हिम्मत आ गयी थी। ए बिटिया आदमी ही तो आदमी के काम आता है न। बहुत देर हो गयी न रेल आई और न नरेन आया। मैंने उस पोटली को छू कर देखा। उसमें गहने और सिक्के थे। अचानक मेरा हाथ टकराया उसे तेज बुखार था। उसने पानी माँगा। कई दिन से वह कहीं छुपा बैठा था, इसलिए उसे दवाई तो दूर कुछ खाना भी नहीं मिला। मेरे मन में उसके लिए हमदर्दी जाग उठी थी।

“आपको तो बुखार है।”

“बस एक बार घर पहुंच जाऊं तो सब ठीक हो जायेगा।” फ़िर उसने कहा कि अगर वह उसकी जान बचाना चाहती है, तो उसे घर छोड़ कर आये। नरेन का कहीं पता नहीं था। झख मार कर उसके साथ चल पड़ी मैं। चलते चलते किरिन डूबने लगी।

उसके घर में छोटे भाई और उनकी पत्नियां थीं। वे लोग मुझे देख कर बिलकुल नहीं चौंके। उन्होंने कहा ओ...  तो इस लड़की के लिए घर छोड़ दिए थे। इतने सालों से तुम्हारा कुछ अता-पता नहीं। चलो, कोई बात नहीं, कम से कम घर आये तो सही। मुझे देख कर बोले कि - धीर गंभीर है। चलो कल ही पंडित बुला कर शादी करा देते हैं।

उसने अपने बारे में और मेरे बारे में परिवार वालों को बताया और कहा .. “इस स्त्री ने मेरी जान बचाई है। यह मेरे लिए देवान जी हैं। सब लोग इनकी इज्जत करेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।” तब से मैं देवान जी बन गयी और अपना नाम मराछी यानि मरने वाली हमेशा के लिए भूल गयी। मुझे पता चला कि वे पढ़े लिखे हैं और देस की आज़ादी के लिए घर छोड़ कर सुराजी हो गए थे।
ए बिटिया कुल पांच साल तक जिन्दा रहे तुम्हारे बाबा। ये कद्दावर देह एपर कोमल और न्यायी मन। मेरा दिल नहीं भरता था उन्हें निहारने से। पर समय तो पंख लगा कर उड़ रहा था। दो नन्हें बच्चे मेरी गोद में। वे कहते थे - देवान जी! डबरे का पानी देखा है आपने, असंख्य बिलबिलाते हुए कीड़े, हमारे लोगों की वही हालत है। इस आंदोलन सिवा हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। हम अपने लोगों को समय के भरोसे नहीं छोड़ सकते।
  
वे फिरंगियों की खूब बातें करते थे। - “हम लोग उन्हें देश छोड़ने को कह रहे हैं। हम थाने के हथियार लूटते। चार टोलियां थाने पर हमला करती थी। पांचवी टोली तैयार रहती थी लूट में सहायता के लिए। हमारे हमले का तरीका इतना गुप्त होता था कि कोई अंदाज भी नहीं लगा सकता। अंग्रेजों के तरीके से तो हम वाकिफ़ थे। उनका शुरू से एक ही तरीका था... नए गद्दार पैदा करना। हमारी टोलियों का बहुत   कड़ा प्रशिक्षण होता था। हमें विश्वास है कि एक दिन वे जरूर हमारा देस छोड़ देंगे, सुराज की स्थापना होगी, हमारे लोग डबरे के पानी की तरह नहीं, नदी के पानी की तरह ठाट से रहेंगें। किसी भी अन्याय का शिकार नहीं होंगे, उनकी देखभाल होगी , सुविधाएँ मिलेंगी।’

“वे और क्या कहते थे?”
“कहते थे कि समय मिले तो सुराजियों के लिए स्वेटर बुनना।”
‘अच्छा इसीलिए आप आज भी फौजियों को स्वेटर बनवा कर भेजतीं हैं।’ हॉ। वे दिन रात वे इसी सोच में रहते थे कि संगठन का पैसा कैसे वापस करें। फ़िर एक दिन वे फिरंगियों के हाथ लग गए, उस दिन वे गहने और पैसे संगठन को लौटा कर लौट रहे थे। सिपाही घात में थे, उन्होंने गोली चला दी। गोली पेट में लगी थी, खून से लथपथ भागते-भागते आये और मेरी गोद में सिर रख कर आखिरी साँस ली।’

उनके आँख मूंदते ही उनके परिवार का रवैया बदल गया। बहुत समय तक नन्हें दोनों बेटों को लेकर ससुराल का कष्ट सह रही थी। कुटौनी पिसौनी करने के बाद भी उन्होंने कहा कि - मेरे बेटे हरामी हैं और हराम का खाते हैं। मैं तो चीख पड़ी।

“खबरदार! जो आगे जबान कढ़ाई तो। तुम्हारे सुराजी भाई की कसम, यहीं पर पुलिस थाना सब बुला दूंगी और आखिरी साँस तक लड़ूंगी।” आखिर उन्होंने मुझे घर से बाहर जाने को कह दिया। बाहर वाली कोठरी में पड़ी पड़ी सोच रही थी कहां जाऊं, क्या करूँ।

तभी एक दिन पता नहीं कहां से घूमता घामता नरेन आया।

“हाय रे गुइयाँ!” आखिर उसे मेरी याद खींच ही लायी। तो उसने मुझे ढूंढ निकाला।  जी भर के रोई। रुखा-सूखा चेहरा लिए कैसा घुमन्तू हो गया है। न घर गया, न ब्याह किया। जहे साँझ तहे बिहान। उसके आने से बच्चों को अपना कोई मिला। उसके पास तो किस्से ही किस्से। गुस्सा हो गयी मैं।

“नरेन तुमने धोखा दिया।”


“नहीं गुइयाँ ! मैं इधर-उधर भटक रहा था और सोच रहा था कि क्या किया जाय। बल्कि एक बार यह भी सोचा कि वापस चल चलें, फिर कुछ और सोच लेंगे। यही सब कहने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा तो देखा कि तुम उस आदमी को सहारा दे कर कहीं ले जा रही हो। कई बार रोकने को मेरे हाथ बढ़े, पुकारने के लिए आवाज निकलना ही चाहती थी, कि मेरे मन में यह ख्याल आया कि कुदरत ने तुम्हारे लिए जो सोचा है वही हो रहा है।’

ए बिटिया, गुइयाँ से लड़ना तो बेकार था, वह तो सुबह की चिड़िया है जो जगा भर देती है, बाक़ी उठना तो अपने को ही पड़ता है। अगर उसकी आँखों में नई सुबह का सपना न होता तो मुझे अपने आप पर भरोसा न होता।
 
बड़ी दिक्क़त हुई। इनके भाई लोग यहां खेती करने ही नहीं देते थे। नरेन से काफ़ी सहारा मिला। जब बच्चे छोटे थे मैं खुद खेती करती थी। मेरी मेहनत और हिम्मत रंग लाई। खेतों में खूब अन्न उपजने लगा। बाद में तुम्हारे बाबू और चाचा से भी खूब मेहनत करवाती थी। तब जा कर आज ये दिन देखने को मिले।
 
आजी और पोती देर रात तक बात करते रहे थे। देवान जी ने देखा अब फुलगेना की आँखें झप गयीं हैं। लेकिन वे अब कहां सोयेंगी। कहीं कोई बिरहिन गेहूं पीस रही थी और जँतसार गाते हुए अपना दुःख गा रही थी, कभी संतान न होने का दुःख तो कभी नैहर दूर होने का दुःख। कभी सास से मार खाने का दुःख तो कभी  पति से अलग रहने का दुःख।

देवान जी ने भरे मन से आसमान की ओर देखा। चाँद पछिम की ओर लपका ही था कि शुकवा को चमकता देख ठिठक गया। अब कुछ ही घरी में पौ फटेगा और मुरगे बांग देने के लिए होड़ लगाएंगे। भुवरी गइया तो सधुनी  है... ऐसे मीठे-मीठे माई की हंकार लगाती है कि अगर एकतारा बजा दे तो भोरे ही भोरे रोने का मन कर जाये।

फुलगेना रोज भोर की ओस को सहेज कर देवान जी को देती थी। वे बरहो मास ओस से चेहरा धोती थीं, शायद उनके रंग रूप की ताज़गी का यही राज़ था। लेकिन आज फुलगेना सो रही है।        

आजी के शह देने पर फुलगेना खूब मन लगा कर संगीत सीख रही हैं। बड़ी बहन मीठा पानी ले जा रही थी।

“फुलगेना! अब देखना ददरी मेला की तैयारी कितनी जल्दी होती है। खेतहवा बाबा आये हैं। बाबा ही तो बैलगाड़ी हांक के ले जाते हैं। और देखो क्या लाये हैं सोनाचूर के चावल, चिटउर गुड़, कांकर, फूट और पता नहीं क्या क्या।”

“ये फुलगेनवा है जब पिछली बार आये थे तब यह अपने ननिहाल में थी, इसने तुम्हे देखा ही नहीं है। बहुते ढीठ है।
“आजी हम ददरी मेला देखने जायेंगे न।”
“देखो अब तुमको जितना भी सवाल पूछना हो खेतहवा बाबा से पूछो।”

फुलगेना आजी को निहारती है। जाने क्यों आज आजी बहुत सुन्दर दिख रही थी। दगदग गोरी आजी के उजले सुनहले बाल कोमल और अनछुए लगते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखे सामने वाले को भेदती हैं। आजी ही तो कहती हैं कि जब आप अपने प्रिय के साथ बैठते हैं तो आँखों की पुतरिया फैल जाती है, बड़ी दिखती हैं, सुन्दर दिखती हैं। वे रोज माथे पर चंदन का टीका लगाकर थोड़ा सा कुमकुम लगा लेती हैं। मानो डूबते चाँद के साथ उगते सूरज को भी बिठा लेती हैं। गांव के लोग कहते हैं कि वे कभी बूढी नहीं होंगी।    

‘फुलगेना इधर आओ, तुम्हें क्या अच्छा लगता है?”
“मुझे कहानी सुनना अच्छा लगता है। आप से भी कहानी सुनूंगी।”

“चलो! हम तुम्हें ददरी मेला की कहानी सुनाते हैं। एक थे दरदर मुनि। बड़े गुरु भक्त थे। उनके गुरु का नाम भृगु महाराज। भृगु ने दरदर मुनि को एक सूखा बाँस दिया और कहा कि आज कातिक मास की पूर्णिमा तिथि के दिन इसे लेकर चलते चलो जहां यह हरा हो जाये वहीं रुक जाना बस उसके चारो ओर का क्षेत्र पवित्र क्षेत्र हो जायेगा और युगों-युगों तक यहां मेला लगेगा। यह वही ददरी मेला है, जहां पहले के पन्द्रह दिन पशुओं की खरीद फरोख्त होती है और दूसरे पन्द्रह दिन गाना बजाना कबिता कहानी भाषण नौटंकी बिदेसिया वगैरह होता है। तो समझ गयीं बिटिया, दरदर मुनि के नाम पर ददरी मेला लगता है। हम लोग वहीं जायेंगे।”

मेला जाने की तिथि अब नजदीक आ गयी थी। गाय बैल भैंस जिनको ले कर जाना था उन्हें नहला धुला कर उनके गले में रंग बिरंगी मोतियों की माला बांधी गयी। टुन टुन की आवाज वाली घंटियाँ और लाल पीले कपड़ों से उनकी सींगों को सजाया गया। किसी किसी के सींगों में ताम्बे और पीतल के छल्ले भी पहनाये गए थे।

“सब लोग मेला देखने जायेंगे पर फुलगेना नहीं जाएगी।” अचानक एक दिन देवान जी ने कहा।
“क्यों नहीं जाएगी?“ बाबा ने कहा ।
“क्योंकि उसके ससुराल वाले भी मेला देखने आ रहे हैं। उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।“  
“आप इतनी हृदयहीन न बनें। ये कैसे हो सकता है कि सब जायेंगे और हमारी फुलगेना नहीं जाएगी।“
“अच्छा-अच्छा ठीक है। जब सब लोग यही चाहते हैं तो यही सही।“
रुआँसी हो गयी थी फुलगेना। कितने अच्छे हैं खेतहवा बाबा। एक वही तो हैं जिनके सामने देवान जी की एक नहीं चलती है।

आखिर अनगिनत लोगों से भरी बैलगाड़ियां चल पड़ीं ददरी मेला के लिए।  फुलगेना की चाची, माँ और दोनों दिदिया उनके बच्चे। वे खूब गीत गाने में जुटी हुई थीं। खेतहवा बाबा की गुलाबी पगड़ी बार-बार खुल जा रही थी। देवान जी उसे ठीक करके फिर से पहना दे रही थीं। फुलगेना बच्चों के साथ ‘चूड़ी चियांश् खेल रही थी और बाबा से बार-बार जिद कर रही थी कि ..

“एक बार बैलों की रस्सी मेरे हाथ में दीजिये न बाबा। मैं भी गाड़ी हाँकूँगी।“
चलते-चलते उन्होंने एक जगह पर गाड़ी रोक दी। दोनों हाथों में मटका ले कर उतर गए और बोले ..
“देखे जरा! यहाँ कहीं पानी मिल जाये।“
“क्या जरूरत है। अभी चलिए।“
“अरे मैं गया और आया। देवान जी आप इतनी अधीर क्यों होती हैं।“
“तुम्हारा भरोसा नहीं है नरेन। बीच रस्ते में छोड़ दोगे।“
बाबा और आजी की नजर ने एक दूसरे से जाने क्या क्या कहा.... दुनिया की बेहद खूबसूरत बातें अनकही और अनसुनी होती हैं। वे अपनी जगह पर वापस बैठ गए। फुलगेना ने अपनी चोर निगाहों को परे फटक दिया।

एक सुंदर सजी धजी बैल गाड़ी धीरे धीरे चली आ रही थी। बैलों के गले की हिलती हुई घंटियां टुन टुन बजते हुए मधुर संगीत बजा रहीं थीं। फुलगेना चचेरे भाई का हाथ पकड़ कर बैलगाड़ी के पास गयी। चुपके से झाँका तो देखा कि गाड़ीवान सो रहा है, और बैल रेंगते हुए आराम-आराम से चल रहे हैं। फुलगेना को शरारत सूझी। वह धीरे से गाड़ी पर चढ़ गयी और गाड़ी सहित बैलों को उल्टा घुमा दिया। अब गाड़ी जिधर से आई थी, उधर ही वापस जाने लगी।

बहुत खुश! हँसी मुंह में दबाये फुलगेना जैसे ही उतरी, वैसे ही गाड़ीवान युवक धम्म से उतरा और फुलगेना को लिए-लिए कई बार जमीन पर लोट पोट हो गया। दोनों डर भी रहे थे और हंस भी रहे थे। लेकिन अगले ही पल युवक का चेहरा देख कर फुलगेना ने कान पकड़ा और कहा .. “माफ़ कर दो।” लेकिन वह कोई बात समझने को तैयार नहीं था। उसकी सवालिया आँखें उस पर से हट ही नहीं रही थीं। फुलगेना ने दुबारा से अपनी शरारत बताई और माफ़ी मांगी। पर युवक ने न तो अपनी पकड़ ढीली की और न ही कोई जवाब दिया। अजीब स्थिति दोनों जमीन पर बैठे, कोई किसी को समझने को तैयार नहीं। फुलगेना चिल्लाई .. “अपनी बात बता दी अब तुम क्या कह रहे हो, बोलोगे? बोलो न? बोल क्यों नहीं रहे। अच्छा! एक बात बोलो दोस्त कि दुश्मन?“ फिर उसे समझ में आया कि वह बोल नहीं पा रहा है। शायद गूंगा है। और युवक को समझ में आया कि फुलगेना ने केवल  शरारत की थी। तब जाकर संधि विराम हुआ।
उसने फुलगेना को बाँसुरी के इशारे से बताया कि उसका नाम मोहन है। उसने उजाले का इशारा करते हुए बताया कि वह अंजोरपुर का रहने वाला है। फुलगेना उसका हाथ पकड़ कर ले गयी सबसे मिलाते हुए देवान जी के पास गयी। देवान जी ने उसका सत्कार किया। बातों ही बातों में पता चला कि वह उनके गांव के पास के गांव के धनी घर का लड़का है।

मेले में सबको बहुत अच्छा लगा। फुलगेना के दिल में रह गयी मोहन की यादें। वह मोहन जिसके मुँह में ज़बान ही नहीं है। फुलगेना हैरान रह गयी है, वह तो कितना बोलती है। वह मोहन के बारे में सोचती रह गयी। मोहन उसके दिल से निकला नहीं।

लेकिन जिस बात का डर था वही हुआ। फुलगेना के ससुराल वाले मिले और उन्होंने गवना का दिन दे दिया। जेठ बैसाख में फुलगेना ससुराल चली जाएगी।

इन सबसे बेखबर वह बहुत खुश थी। वह अपने ही ख्यालों में खोई रहती। वह मेले में सबके साथ खूब घूमी नौटंकी देखी। पर एक पीली बुनकी वाला लाल साफा उसने खरीद के छिपा लिया। बस ऐसे ही। उसे क्या पता था कि वह मोहन गाड़ी लेकर फगुआ खेलने उसके गांव में आ जायेगा। सखियों के ओझल होते ही उसने फुलगेना को रंग लगाया और दोनों खूब हँसे । मोहन बहुत कुछ कहना चाहता था...। लाल पगड़ी देख कर ख़ुशी के मारे उसके गले की नसें तन गयीं थी..। लगता था कोई आवाज की धारा फूट निकलेगी। फुलगेना उसे अपने गीत सुनाना चाहती थी।   

फुलगेना सोचते-सोचते अपने उलझे हुए आज में वापस आ गयी थी। अब तो साल होने को आए इन सभी बातों के। फुलगेना माँ के कमरे में फिर से सिसक पड़ी। कितने दिन हो गए देवान जी बात नहीं कर रही हैं। उस दिन उन्होंने कहा - फुलगेना ने बाप की पगड़ी उछाली है। ससुराल से भगा दी गयी।

अब वह उन्हें कैसे समझाये कि जिससे मेरा ब्याह हुआ वह उनका दामाद नहीं, कोई और है। वह उसकी कुछ नहीं लगती। सिवाय गुस्से और झेंपने के उस आदमी  पास कुछ बचा भी नहीं। इतने महीनों में उसका चिल्लाना ही जाना है उसने। जैसे ही वह कुछ कहती वह भाग खड़ा होता। माँ भूत प्रेत की पूजा करती है और बेटा हकीम वैद्य की। ऐसे ससुराल में अपनी एक रोटी बढ़ाने के सिवा क्या  करती वह।

जब खपना और मरना ही है तो अपने लोगों के बीच क्यों नहीं। अब देवान जी को कैसे समझाये। आखिर देवान जी भी तो उसकी तकलीफ़ समझने को तैयार नहीं। वैसे इस बुढ़ापे में वह उन्हें निराश नहीं करना चाहती थी। फुलगेना अब अपने हालात से समझौता कर लेती है। देवान जी बात नहीं करती हैं लेकिन उसकी सेवा को स्वीकार कर लेती हैं। उस दिन माँ के जिद करने पर उसने गीत गाया...
“अंधेरिया है रात सजन रहि हो कि जइहो... । तो देखा कि  देवान जी रो रहीं है। फुलगेना ने अपना कलेजा मजबूत कर लिया था।

अब देवान जी दोतल्ले पर अपने कमरे में ही सोने लगी थीं। उनके कमरे का एक दरवाजा अदभुत है। वहां से दूर तक रास्ते खेत बाग़ बगीचे और दूसरे गांव  दिखाई देते हैं। देवान जी का ज्यादा समय वहीं बीतता था। उनकी देखभाल के लिए फुलगेना भी वहीं सोने लगी थी।
एक दिन सुबह सुबह उसने देवान जी के गीत गाने की आवाज सुनी। उसे यकीन नहीं हो रहा था....  देखा कि देवान जी गा रही हैं। उसने मुंह से चादर हटा कर देखा तो वे मुस्कुराईं। हाय उनके इस मुस्कुराने के लिए वह कब से इंतजार कर रही  थी। 

उन्होंने उसे पास  बुलाया दूर सामने की ओर  ऊँगली से इशारा किया.... ... उसने उनकी अंगुली की दिशा में देखा। उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत दृश्य...  एक बैलगाड़ी का लंगर गिरा है दो बैल बैठे सुस्ता रहे हैं, बैलगाड़ी के पटरे पर पीली बुनकी की लाल पगड़ी बाँधे युवक न जाने कब से बैठा है। देवान जी कह रही हैं.....

“जा, उसे घर ले आ फिर मैं सब देख लूंगी। आखिर तूने मेरा सबसे सुन्दर वाला गहना ले ही लिया न।“

फुलगेना दोनों हाथों से लहँगे जैसी साड़ी को थाम कर दौड़ जाती है, जैसे धूल भागती है बारिश से बारिश में, डबरे का पानी हजारों आँखों से उचक कर देखता है बारिश को, अपने सुध लेने आने वाले को।  
                   
                                                                                                            
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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