कमलजीत चौधरी की कविताएँ

कमलजीत चौधरी

परिचय 

'हंस', 'मंतव्य', 'अनहद', 'नया ज्ञानोदय', 'गाथान्तर', 'रेतपथ', 'यात्रा', 'हिमाचल मित्र,बया,अभिव्यक्ति,दस्तक,अभियान,अक्षर पर्व,परस्पर, सृजन-संदर्भ’, शब्दयोग,चिंतन दिशा,उत्तर प्रदेश,लोक गंगा,शीराज़ा,युगवाणी,शब्द सरोकार,अमर उजाला,दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर  आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँसमीक्षाएँ और आलेख प्रकाशित

'
स्वर एकादश (सम्पादन) – राज्यवर्द्धन
शतदल (सम्पादन) विजेंद्र  

और


'तवी जहां से गुज़रती है’ (सम्पादन) अशोक कुमार में कुछ कविताएँ शामिल हैं

'सिताब दियारा', 'पहली बार', 'जानकी पुल', 'अनुनाद', 'कृत्या', 'आई. एन. वी. सी.', 'आओ हाथ उठाएँ हम भी', 'बीइंग पोएट', 'संवेद स्पर्श', 'इण्डियारी', 'तत्सम', 'खुलते किवाड़' आदि पर भी इन्हें पढ़ा जा सकता है


'
अनुनाद सम्मानसे सम्मानित


पहला कविता संग्रह  'हिन्दी का नमकइसी साल दखल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है

सम्प्रति ;- उच्च शिक्षा विभाग (जे० के०) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 

रचनाधर्मिता ही नहीं बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में काम करते हुए भी एक स्पष्ट दृष्टि का होना आवश्यक होता है युवा कवि कमलजीत चौधरी ने अपनी कविता में इसी दृष्टि की बात की है - 'आँख -/ जो मैली न हो/ जिसमें मोतियाबिंद न हो/ जो सोते महल/ जागती झोपड़ी/ बन्दूक की मक्खी/ हल की हत्थी में फर्क जान सके।'  आज ऐसी ही दृष्टि वाले संभावनाशील कवि कमलजीत की कविताएँ आपके लिए पहली बार पर प्रस्तुत हैं 
 

कमलजीत चौधरी की कविताएँ


डिस्कित आंगमों                             

डिस्कित आंगमो!
तुम बताती हो
पिता की तन्दूरनुमा छोटी सी कब्र की विवशता
लकड़ी का कम होना
तुम बताती हो
ना जाने भाई ने क्या सोच
आरी का काम सीख लिया


मेरी दोस्त
तुम पढ़ना चाहती हो
मगर लकड़ी तुम्हारा साथ नहीं देती
देखो
मुझे छूओ
मैं लकड़ी हूँ
चलाओ आरी मुझ पर
मैं कागज़ बनूँगा
कलम बनूँगा
तुम्हारे घर का दरवाज़ा - खिड़की बनूँगा
मेरे बुरादे से तुम
पौष में अलाव सेंकना
अपनी गर्महाट से
मैं तुम्हारे हाथ चुमूंगा ...
डिस्कित आंगमों !
 


किताबें डायरियां और कलम

किताबें
बंद होती जा रही हैं
बिना खिड़कियाँ - रोशनदान
वाले कमरों में

डायरियां
खुली हुई फड़फड़ा रही हैं
बीच चौराहों में

कलम
बचा है सिर्फ
हस्ताक्षर के लिए
 

कविता की तीसरी आँख

पेड़ पर सुबह
सूरज की जगह
कर्ज़ में डूबी
दो बीघा ठण्डी ज़मीं टंगी थी
नीचे नमक बिखर रहा था ...

यह सामने दिख रहा था

पर तुम इसे चीर कर पार सूर्य को
उचक - उचक कर
नमामि - नमामि करते रहे
यह बताते हुए कि
कविता की तीसरी आँख होती है 
 


नाव का हम क्या करते

वहां
एक नदी थी
जहां हम खड़े थे
सिद्धहस्त
अपनी अपनी कलाओं में -

तुम डूबने से ज्यादा
तैरना जानते थे
मैं तैरने से ज्यादा डूबना ...

नाव का हम क्या करते


आँख

शिक्षा के कारखाने में
जहां मैं नौकरी करता हूँ
तीन घंटों के युद्ध हेतु
जूते बनाए जा रहे हैं
जूते जो रोज़गार तलाशते
सीढ़ियाँ चढ़ते
घिस जाएंगे
उधड़ जाएंगे
मरम्मत के अभाव में
सड़क बीच टूट जाएंगे
तलवों से छूट जाएंगे
वैसे भी दुनिया जूतों से साफ़ नहीं होती
मैं समझता हूँ
जूतों से कारगर है झाड़ू
झाड़ू से कारगर है पेड़
पेड़ से बेहतर है खिड़की
खिड़की से बेहतर है आँख
आँख -
जो मैली न हो
जिसमें मोतियाबिंद न हो
जो सोते महल
जागती झोपड़ी
बन्दूक की मक्खी
हल की हत्थी में फर्क जान सके
जो सूरज को पीठ पर लाद कर
कमाई हुई रोटी
और मखमली चाँदनी तले हस्ताक्षर कर
लूटी हुई दौलत में
अंतर भेद सके
कारण छेद सके ...

आँख ही होगी
सबसे बड़ा हथियार
उस युद्ध के लिए
युद्ध जो पैरों के लिए लड़ा जाएगा
युद्ध  जो परों के लिए लड़ा जाएगा
युद्ध जो मछली के लिए लड़ा जाएगा

युद्ध जो परों और पैरों का
बेपरों और बेपैरों से होगा -
युद्ध वह अंतिम और निर्णायक होगा
जो जूतों की जगह आँख बनाएगा
वही सच्चा नायक होगा


औरत

औरत
एक डायरी होती है
इसमें हर कोई दर्ज होना चाहता है

एक किताब होती है
इसे पूरा पढ़ने के लिए
नदी से पेड़ तक की यात्रा करनी पड़ती है

बच्चे की कलम होती है
छील छील लिखती है
   
  बी  सी
   

औरत के रास्ते को कोई खींच कर
लम्बा कर देता है
सीधे सादे रास्ते का
सिर पकड़
उसे तीखे मोड़ देता है
जिसे वह उँगली थमाती है
वह बाँह थाम लेता है
जिसे वह पूरा सौंपती है
वह उँगली छोड़ देता है

औरत की चप्पल की तनी
अक्सर बीच
रास्ते में टूटती है
मरम्मत के बाद
उसी के पाँव तले
कील छूटती है
वह चप्पल नहीं बदल पाती
पाँव बदल लेती है
...

अनवरत यात्रा करती
एक युद्ध लड़ती है

इरेज़र से डरती
पर ब्लेड से प्रेम करती है
औरत ... 

हिन्दी का नमक

खेत खेत
शहर शहर
तुम्हारे बेआवाज़ जहाज
आसमान से फेंक रहे हैं
शक्कर की बोरियां

इस देश के जिस्म पर
फैल रही हैं चींटियाँ
छलांग लगाने के लिए नदी भी नहीं बची -

मिठास के व्यापारी
यह दुनिया मीठी हो सकती है
पर मेरी जीभ तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती

यह हिंदी का नमक चाटती है


सीमा

उसे नहीं पता था
वह अकालग्रस्त जिस जगह रहता था
उस पर एक लीक खींच
एक सीमा घोषित कर दी गई थी
वह बोरियों से बनाई पल्ली*
कंधे पर रखे
दराती हवा में लहराते
कोसों मील आगे बढ़ते
दूसरे देश की हवा को
अपने देश की हवा से
अलग नहीं भेद सका
हलक गीला करता
कोई प्याऊ नहीं छेद सका

मिट्टी जो कुछ कोस पीछे
गर्म तवा थी
अब पैरों को टखनों तक
ठण्डे अधरों से चूम रही थी
उसकी नज़र और दराती
सामने की हरियाली देख झूम रही थी
वह घास काटता खुश था
पर पण्ड# बनने से पहले 
वह सुरक्षा एजेंसियों द्वारा
गिरफ्तार एक जासूस था
मीडिया के लिए एक भूत था
विपक्ष के लिए आतंकी था
दुश्मन देश का फौजी था
जेलर के लिए अपराधी था
नम्बर एक कैदी था

यह लोकतंत्र का दौर था
सच कुछ और था

भूख से तड़पते उसके गाँव में
मवेशी ही अंतिम आस थी
देश की अपनी सीमा थी
पर उसकी सीमा घास थी
बस्स घास थी !!
  ---------------------

*पल्ली - घास ढोने की चादर 
#पण्ड - गठरी

लोकतन्त्र की एक सुबह

आज सूरज निकला है पैदल
लबालब पीलापन लिए
उड़ते पतंगों के रास्तों में
बिछा दी गई हैं तारें
लोग कम मगर चेहरे अधिक
देखे जा रहे हैं
नाक हैं, नोक हैं, फाके हैं
जगह-जगह नाके हैं

शहर सिमटा-सिमटा है
सब रुका रुका सा है

मुस्तैद बल पदचाप है
पैरों तले घास है
रेहड़ी खोमचे फुटपाथ सब साफ है

आज सब माफ है!

बेछत लोग
बेशर्त बेवजह बेतरतीब
शहर के कोनों
गटर की पुलियों
बेकार पाईपों में ठूंस दिए गए हैं
जैसे कान में रूई

शहर की अवरुद्ध की गयी सड़कों पर
कुछ नवयुवक
गुम हुए दिशासूचक बोर्ड ढूँढ रहे हैं
जिनकी देश को इस समय सख्त जरूरत है
बंद दूकानों के शटरों से सटे
कुछ कुत्ते दुम दबाए बैठे हैं चुपचाप
जिन्हें आज़ादी है
वे भौंक रहे हैं

होड़ लगी है
तिरंगा फहराने की
वाकशक्ति दिखलाने की

...

सुरक्षा घेरों में
बंद मैदानों में
बुलेट प्रुफों में
टीवी चैनलों से चिपक कर
स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है

राष्ट्र गान गाया जा रहा है
सावधान!
यह लोकतंत्र की आम सुबह नहीं है
 

  ००००


सम्‍पर्क  

काली बड़ी, साम्बा
जम्मू एवं कश्मीर 
पिनकोड - 184121

दूरभाष - 09419274403

ई-मेल kamal.j.choudhary@gmail.com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. bahut sundar aur marmik kavitaye....kamaljeet ji ko badhai itne sundar sarijan ke liye ..

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  2. हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि... पिछली बार 'दूसरा शनिवार' की गोष्ठी में उनकी कविताओं का पाठ हमारे अग्रज राजकिशोर राजन द्वारा किया गया था। बधाई!

    नरेन्द्र कुमार

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बधाई संतोष भाई और कमलजीत भाई को!

    राजकिशोर राजन

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी कविताएँ। कमलजीत जी को पढ़ना हमेशा कविता में विश्वास को पुख्ता करता है।

    Pradeep Saini

    जवाब देंहटाएं
  5. इसे कहते हैं KAVITA. वाह, बधाई ।

    Bharat Bhushan Joshi

    जवाब देंहटाएं
  6. आेह, कितनी अच्‍छी कविता है डिस्कित अंगमो.... इसके बाद कुछ और पढ़ने की जरूरत ही नहीं। बहुत अच्‍छी कविता, तुम्‍हें सलाम मेरे दोस्‍त।

    Yogita Yadav

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  7. Bhai parh li hain ...kya kahane..har kavita apne aap main eak sansaar hai...aap ka apna eak khaas mohawara hai...aur experience ki aag main tap kar paka hua mohawara....kafi sashakt bimb hain.... zindabad bhai

    Swami Antar Nirav

    जवाब देंहटाएं
  8. हार्दिक बधाई।

    Nida Nawaz

    जवाब देंहटाएं
  9. e
    Dil ko Jhakjhorney wali Kavitaaye_n likhte hain ........ Kamal Jeet ....... Brilliant and true expression ...... Lekhni ko Pranaam .....

    Raavi Thenameoflif

    जवाब देंहटाएं
  10. Har ek kavita ek surprise hai. Ye kehna bhi galat nhi hoga ki Har kavita ki har ek line ek surprise hai. Unparalleled poems. Unparalleled poet. Bahut bahut badhai.

    Vikas Dogra ·

    जवाब देंहटाएं
  11. सशक्त कवितायेँ, कमलजीत शुभकामनायें

    Mita Das

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  12. इन कविताओं से गुज़रना एक सुखद एहसास है

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  13. बहूत ही खूबसूरत और मन छूने वाली कविताएं

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