अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह की उमाशंकर सिंह परमार द्वारा की गयी समीक्षा


अजय कुमार पाण्डेय

कवि अजय कुमार पाण्डेय का एक कविता संग्रह “यही दुनियां है” पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ। अजय पाण्डेय अधिकतर छोटी कविताएँ लिखते हैं। छोटी होने के बावजूद उनकी कविताएं अधिक मारक या कह लें प्रभावकारी होती हैंइस संग्रह की जो और जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हो पायी क्योंकि अजय लिखने में विश्वास करते हैं, समीक्षाएं लिखने-लिखवाने में नहीं। आज साहित्य भी जोड़-जुगाड़ की जगह बन गया है। अजय इन सबसे विरत हैं। उनके संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है उमाशंकर परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं अजय कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार द्वारा लिखी गयी समीक्षा             

अस्मिता के सवालों से मुठभेड़ करती कविताएँ 

उमाशंकर सिंह परमार
 

हाल के कुछ वर्षों में विश्वव्यापी पूँजीगत परिवर्तनों द्वारा अनेक विमर्श सुझाए गए हैं। ये तमाम विमर्श जनवादी चिन्तन के विपरीत अपनी पहचान बनाते हुए तमाम अस्मिताओं व अवधारणाओं को बाजार के साथ जोडने का काम कर रहे हैं। जनवादी चिन्तन सामूहिकता की अवधारणा पर समय और वस्तु की परख करता है। उसके लिए इतिहास के द्वन्दात्मक प्रतिफलन और वैचारिकता से अन्तर ग्रथित युग-बोध दोनो को नकारना बेहद कठिन है। यदि इतिहास और विचार दोनो को अस्वीकृत किया गया तो लेखन और उसके सरोकार व सामाजिक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व सब के सब खतरे में आ जाएंगे। जनवादी समझ के यही आधारभूत बिन्दु हैं। लेकिन हम नवउदारवाद द्वारा पैदा किए गए नये हाशिए व उनकी अस्मिता का सवाल साधारण तौर पर टाल नहीं सकते हैं। क्योंकि यह नयी सामाजिक संरचना के अनुकूल है और  नयी अस्मिताओं के  उभार व उनके समक्ष व्याप्त जीवन के खतरनाक संकटों का आईना है। हम हाशिए की उपेक्षा करके वर्तमान में प्रभावी भूमंडलीकृत दमनकारी शक्तियों के साथ पक्षपात ही करेंगे। अत:  आज की कविता के समझ सबसे बडा संकट अस्तित्वबोध और हाशिए की तमाम अस्मिताओं की पहचान का है। हाशिए का अस्तित्बोध आज का जरूरी विमर्श है और भूमंडलीकरण के साहित्यिक संस्करण उत्तर आधुनिकता के विरुद्ध यदि मुकम्मल लोकधर्मी हस्तक्षेप करना है तो अस्मिताओं की बात करना आज की कविता का मुख्य अभिकथन होना चाहिए। यह दौर विश्वव्यापी परिवर्तनों का दौर है हमारे परम्परागत समाजों की आधारिक सरंचनाएं आज बदल रही है़ ये परिवर्तन पूँजीगत परिवर्तनों से सम्बद्ध है। जो कुछ पुराना था वह या तो टूट गया है या टूटने वाला है। इन परिवर्तनों ने केवल तोडा भर नहीं है बल्कि नयी संरचनाएं भी उत्पन्न कर दी हैं। यदि परिवर्तन केवल टूटने तक होता तो आज का कवि अपने अतीत को बचाने की बेचैनीपूर्ण जिद द्वारा अपने उत्तर दायित्व का निर्वहन कर लेता। पर कविता के समक्ष असली संकट तो नयी अस्मिताओं के उभार का है। अजय की कविता हाशिए की अस्मिताओं पर उसी शिद्दत के साथ बात करती है जितनी की आज के विमर्शों में है। आज का कोई भी विमर्श बाजार व सर्वअधिकारवाद का प्रतिरोध नहीं करता सब घूम फिर कर बाजार के पक्ष में तर्क बनकर उपस्थित हो जाते हैं। लेकिन अजय  के हाशिए लोक जीवन की कठिन जिजीविषा से गढे गए हैं। उनका विजन भले ही आधुनिक हो पर यथार्थ वही है जो लोक में घटित है। इसलिए अजय द्वारा किया गया अस्मिताओं का विमर्श जनवादी नवसंरचना का बेहतरीन उदाहरण है। अजय की कविता में लोक की इस नई बहुलता का मिलना भविष्य में उत्तर आधुनिकता के विरूद्ध एक नयी संरचना का आगाज है। 


अजय कुमार पांडेय का युग उदारीकरण के फलस्वरूप उपजे व्यक्ति व समाज के स्तर पर छाए तमाम संकटों का युग है। वह जिस पीढी के कवि है उस पीढी ने बाजारवाद का दंश सबसे अधिक भोगा है। जाहिर उनकी कविता उनकी निजी अनुभूतियों से निर्मित संकल्पों व विकल्पों द्वारा निसृत है। यदि कवि अपनी कविता से पृथक हो कर लिखता है तो कविता यथार्थ को उस रूप में अंगीकार नहीं कर पाती जैसा होना चाहिए। कविता यथार्थ का बीहड और सच्चा दर्शन तभी करा सकती है जब कवि अपनी कविता में उपस्थित हो कर संवाद करता है। यह लोकधर्मी कविता की जरूरी शर्त है कि कवि की जमीन और कविता की जमीन में कोई फर्क न हो। कवि की अनुभूति व कवि की चेतना के बीच कोई फर्क न हो। कवि का परिवेश और कविता के अन्तरग्रथित परिवेश में कोई फर्क न हो। यदि कवि कविता से पृथक होकर अन्य पुरुष बन कर आता है या नेपथ्य में चला जाता है तो कवि के सरोकारों की कायरतापूर्ण मौत के साथ साथ कविता भी महज वदतोव्याघात बन जाती है। मैने अजय पांडेय को बहुत पढा है उनका व्यक्तित्व  व उनके अनुभव उनकी कविता में गहरे तक उतर गये हैं। बुनावट की अन्तर तहों में अनुभवों का जटिल अन्तर्जाल है। बेचैनियों व ऊब की सघन प्रतिच्छाया है। समय के कटु अनुभवों में बौखलाए आदमी की तडप और चीख उनकी समूची अस्मिता के साथ विद्यमान है। अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह “यही दुनियां है” इसी साल प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में उनकी लगभग चौरानबे कविताएं संग्रहित हैं जो समय समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन कविताओं का रचनाकाल भारत में बाजारवादी साम्राज्य के विस्तार व घोर पूँजीवादी संक्रमण का काल है। चूंकि अजय की उपस्थिति ही उनकी कविता की वैयक्तिकता है इसलिए जाहिर है अजय ने इस नये युग के हर एक सन्दर्भ को परखा है। देखा है। अजय की कविता का समाजशास्त्र पुरातन समाजशास्त्र से अलग है। उनका समाजशास्त्र आज के नयी सामाजिक संरचनाओं के बरक्स जनवादी नजरिए का समाजशास्त्र है। इसका मूल कारण है कि आज भूमंडलीकरण ने सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत कुछ बदल दिया है और हमारी परम्परागत विरासत में पाए जाने वाले कई प्रगतिशील सांस्कृतिक मूल्य व  परम्परागत सामाजिक संरचनाएं विखंडन की ओर बढ रही है़। इस विखंडन व ध्वंस के दौरान भी आवारा पूँजी नयी अस्मिता और हाशिये उत्पन्न कर रही है। यह एक ऐसी दोहरी स्थिति है जब हम जब पुराने मूल्यों को खोते जा रहे हैं और नये विमर्शों को पहचान नहीं पा रहे है़ या फिर नये विमर्शों को अपने पुरातन नजरिए से देखने की कोशिश कर रहे हैं। 


अजय के इस संग्रह में कहीं भी युग की अवहेलना नहीं है़। नवजात सामाजिक संरचनाओं व इस समाज के सांस्कृतिक व आर्थिक विमर्शों की अजय को खासी पहचान है। नये सन्दर्भों व नये मूल्यों की कहीं भी अवहेलना नहीं है। युग के प्रति जैसी संवेदनशीलता अजय की “यही दुनियां है” में दिखती है वैसी चेतना बहुत कम कवियों में दिखाई देती है। अजय के इस संग्रह का मूल अभिकथन अस्मिता के सवालों का घेराव है। समूचा संग्रह हाशिए के विमर्शों में उलझा है। नव उदारवाद के प्रतिरोध में लिखे गये मैने बहुत से संग्रह पढे हैं पर जिस तरह का समाजशास्त्रीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अजय की कविता में प्राप्त होता है वह कहीं नहीं मिलता है। पहली बार किसी कवि ने उत्तर आधुनिकता के बिखंडनवादी विमर्शों का जवाब उसी के औजारों से दिया है। अजय कुमार पांडेय अपने समय की जटिल स्थितियों को केवल नव संरचनाओं का या निजत्व बोध का स्वरूप नहीं देते है़ वह आधुनिक विमर्शों में रहते हुए भी जडताओं को तोडते हैं। मतलब अस्मिताओं के जिन सवालों को विश्वपूँजी के विकट साम्राज्य ने पैदा किया है वो उन सवालों को महानगरीय मध्यमवर्गीय चिन्तन से दूर करके लोक के यथार्थ व ऐतिहासिक प्रतिफलन के आधार पर देखते हैं। उत्तर आधुनिकता ऐतिहासिक चेतना को नकारती है पर अजय पांडेय ने ऐतिहासिकता की अनिवार्यता द्वारा ही उपभुक्त विसंगतियों को उकेरा है। देखिए एक कविता जिसमें भ्रम और यथार्थ का सच्चा विभेद उपस्थित है। दरअसल बाजार यही कहता है जो हमारे द्वारा निर्मित है वही सच है। आदमी पृथक सत्ता है व चेतन सत्ता है वह जो भी अनुभव करता है वही एक मात्र आनुभविक सत्य है। यह दर्शन बाजार के पक्ष में बडा तर्क है। अजय पांडेय बडी चतुराई से बाजार द्वारा विनिर्मित संरचनाओं को भ्रम की श्रेणी में खडा कर देते है और इतिहास की भूमिका का जोरदार रेखांकन करते हुए उसे भूख से जोड देते हैं। अजय का कहना है

“यह तुम जान लो

जो तुम सोचते हो

जो तुम समझते हो वह

नहीं है असल

अपनी आँखों देखी

और कानो सुनी

होने का तुम्हारा

दावा भी महज भ्रम है

यह तुम्हारे सामने का वैभव

आभासी नजारा है। (यही दुनिया है पृष्ठ ३०)।

केवल आभासी संकेत ही नहीं करते बल्कि यथार्थ का वैज्ञानिक और सुधरा पक्ष भी समूची ऐतिहासिक भूमिका के साथ उपस्थित कर देते हैं। इसी कविता के अन्त में वे कहते है़

“कुछ भी नहीं है शाश्वत

सब कुछ है परिवर्तनशील

शाश्वत है तो

सिर्फ सदियों से जारी

भूख के खिलाफ आदमी की जंग।

इस जंग का संकेत अजय के प्रतिरोध की तार्किक अवस्थिति को पुख्ता करता है। समय व सत्ता द्वारा जो इतिहास और भ्रम सिखाया जा रहा है उसकी टूटन ऐतिहासिक चेतना की वर्गीय दृष्टि से ही सम्भव है और अजय पांडेय यही कर रहे  हैं। अजय  पाण्डेय की कविता में उत्तर आधुनिकता द्वारा सुझाए गए हर एक विमर्श का जनवादी स्वरूप प्राप्त होता है। अजय की  कविता नव विकसित अस्मिताओं की बात करते समय सामाजिक सरंचना व सांस्कृतिक संरचना के समान्तर एक मुकम्मल साहित्य संरचना का उदाहरण प्रस्तुत करती है। केवल वैयक्तिक अनुभव की स्वायत्तता का खाका खींचने वाली कविताएं अक्सर सामाजिक सोदेश्यों के प्रति असफल हो जाती हैं। जब तक लोक की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को युग और समाज के आयामों से न जोडा जाए तो सच्चे अर्थों में लोकधर्मी कहलाने की हकदार नहीं होती है। अनुभव तभी यथार्थ हो सकते है जब उन्हें जमीन के समूचे परिवेश से जोडकर एक संस्कृतिक विद्रोह का स्वरूप दिया है। आज की  कविता का यही सरोकार है। देखिए एक कविता जिसमें अजय ने परिवेश की जटिल बनावट को जटिल अनुभूतियों द्वारा बेहद सहज ढंग से उदघाटित कर दिया है

“बड़ा कठिन है

जान पाना

कैसे

एक एक ईंट

जोड़ कर खड़ा करता है इमारत

और सारा जीवन सड़कों पर

घिस घिस

फुटपाथ

बन जाता है मजदूर।" (यही दुनिया है, पृष्ठ २५) 

यह परिवेश व्यक्ति के हक में काबिज़ पूंजीवादी बाजारवादी शक्तियों की समूची पहचान जता देती है। आदमी अपने द्वारा किये गए कार्यों से कैसे पृथक कर दिया जाता है उसे अपने हक़ और कैसे उसकी चेतना से काट कर उसके परिवेश को भी बदल दिया जाता है इस कविता में देखा जा सकता है। केवल अलगाव ही नहीं हो रहा है। केवल व्यक्ति की चेतना का पार्थक्य नहीं हो रहा है बल्कि नयी सरंचनाओं में सर्वोच्चतम अवस्था को प्राप्त वर्ग की मनुष्यता दृष्टि भी खोखली हो चुकी है। खोखलापन व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था का भी है। व्यक्ति का खोखलापन वैयक्तिक जीवन का संकट बनता है तो व्यवस्था का खोखलापन सामूहिक चेतना का संकट बन कर उभरता है। अजय पांडेय ने अपने कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ में आवारा पूँजी द्वारा उत्पन्न इस गिरावट को बडे गहरे से रेखांकित किया है। अजय समझते हैं कि मूल्यों में गिरावट ही वैयक्तिक पहचान का भीषण संकट बन कर उभरी है। जब मूल्य ही नहीं प्रासंगिक रह गये तो अस्मिता की बात करना ही बेमानी है देखिए अजय की एक कविता जिसमें मूल्यों के अपक्षरण का संकेत किया गया है 

“जो जितना बडा है

अन्दर से

उतना ही सडा है

और हिमालय सा गुरूर लिए धेले पर खडा है।"

(यही दुनियां है, पृष्ठ 35)

यह वैयक्तिक खोखलेपन का संकेत है। अजय व्यक्ति के साथ साथ व्यवस्था के खोखलेपन का भी संकेत करते हैं। खोखलापन यदि व्यक्ति तक सीमित रहता तो बात बन सकती थी मगर जब यह व्यवस्था में उतर आता है तो आम आदमी के लिए बेहद खतरनाक स्थिति हो जाती है। और सबसे खतरनाक स्थिति होती है लोकतन्त्र का अपराधी हो जाना। इस अवस्था में अपराध और कानून में फर्क नहीं रह जाता है। लोकतन्त्र चंद अभिजात्यों व अपराधियों के हाथ में खिलवाड बन कर रह जाता है। जब राजनीति में अपराधियों का बाहुल्य हो जाए तब सामान्य आदमी के जीवन पर अपने बचाए रखने का संकट छा जाता है। इस लोकतान्त्रिक खोखलेपन व अपराधीकरण का संकेत करते हुए अजय कहते हैं

“चुनाव की घोषणा हुई

समर्पण किया

जेल गया

चुनाव लडा

और जीत गया

इस लोकतन्त्र पर

वह थूक गया”।

इस कविता में अजय की चिन्ता मोहभंग के रूप में उपस्थित हो रही है। हाल के वर्षों में सत्ता और पूँजी के आपसी तालमेंल से जिस तरह से घोटाले हुए हैं। किसानों की जमीने छीनी गयीं हैं। मजदूरों और किसानों के प्रतिरोध को सेना और पुलिसबल द्वारा दबाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आवारा पूँजी के दौर में लोकतन्त्र महज छलावा है। विश्वव्यापी शोषणतन्त्र का हिस्सा है। ऐसे में जनकल्याण की बात करना हाशिए पर पडी अस्मिताओं की बात करना बेहद कठिन है। पूँजी और सत्ता का मिलना व्यक्ति के अस्तित्व व जीवन बोध के लिए खतरा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की वर्गीय चेतना नष्ट हो कर आदमी को नियति का गुलाम बना देती है। सत्ता और शक्ति का आदेश उसकी निजी उपस्थिति और स्वतन्त्रता पर भारी पडता है। यह स्थिति व्यक्ति को मशीनी कल पुर्जे में तब्दील कर देता है। व्यक्ति जीवन भर शोषण और जलालत के लिए अभिशप्त हो जाता है। अजय इस खतरनाक नियतिबोध से परिचित हैं। जब व्यक्ति अपनी चेतना से रहित कर दिया जाता है तो वह वाह्य परिवेश से हो रहे टकरावों में खुद को कमजोर मान लेता है। पूँजीवाद बडी कारीगरी से व्यक्ति को कमजोर करता है। बडी शिद्दत से उसकी अस्मिता का लोप करता है। देखिए अजय कि एक कविता जिसमें चेतना से पृथक व्यक्तित्व का रेखांकन है

“उसने कहा झुको

हम झुक गए

उसने कहा बैठो

हम बैठ गए

उसने कहा लेटो

हम लेट गए और

उसने कहा उठो

हम उठ गए

इसके क्रियान्वयन में

हमारे घुटने

छिलते रहे दुखते रहे

लहूलुहान होते रहे”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 69)

यह स्थिति वर्चस्ववाद की है जब व्यक्ति की चेतना और श्रम सब कुछ पूँजीवादी ताकतो के साथ में केन्द्रित हो जाए तो उसका अस्तित्व महज भ्रम हो जाता है। अस्तित्व व अलगाव की बात करना उत्तर आधुनिक विमर्शों का जवाब देने के लिए सही दर्शन है। अलगाव की स्थिति तमाम हाशिए व अस्मिताओं को एक सूत्र में बाँध देती है। कोई भी समूह हो या व्यक्ति विचार हो वह इस अलगाव की अवस्थिति से अछूता नहीं है। व्यक्ति की नियतिपूर्ण गुलामी आदमी को “फालतू” होने का मिथ्या भ्रम पैदा करती है। जब व्यक्ति खुद को फालतू समझ लेता है तो जीवन को खत्म करने की ओर एक कदम बढा देता है।

पुराने समय में विरक्ति होती थी जीवन और जगत के प्रति तब आदमी वैराग्य की ओर कदम बढाता था। पर आज फालतू बोध से उत्पन्न हताशा आदमी को आत्महनन की ओर ढकेल रही है। फालतू होने का मतलब है कि व्यक्ति अपने को कहीं भी हिस्सेदार नहीं पाता है। न तो वह व्यवस्था का भागीदार होता है न वह अपने समूह का भागीदार रह जाता है। वह व्यवस्था द्वारा तय की गयी नियति का प्यादा बन कर रह जाता है। यह फालतूपन का बोध नियति बन कर आज की पीढी में छा गया है। अलगाव का अन्तिम तकाजा यही फालतू बोध है। अकेलापन इसी फालतूपन की देन है। जब व्यक्ति अपने लिए हो रहे निर्णयों में खुद को हिस्सेदार नहीं पाता। अपनी चेतना को नियति का गुलाम महसूस करता है तो उसे लगने लगता है कि जब सब कुछ स्वत: वगैर सहमति के चन्द स्वार्थीयों द्वारा ही तय हो रहा है तो उसकी जरूरत क्या है? अजय इस फालतूपन को रेखांकित करने से नहीं चूके हैं। 

अजय बखूबी समझते हैं वर्चस्ववादी शक्तियों द्वारा व्यक्ति को अकेला व फालतू कर देना समाज की अन्दरूनी तहों में पल रहे प्रतिरोध को नष्ट करने की जरूरी प्रक्रिया है। देखिए अजय की एक कविता जिसमें फालतू बोध को बडे सधे अन्दाज में व्यंजित कर दिया गया है 

“ओ भाई

यूँ तो मैं

उगा हूं वहां

जहां फेंक दी जाती हैं

घर की सबसे फालतू चीजें

कभी उपयोग में

न आने के विश्वास में

ओ भाई

यहाँ उगने का

अपना अलग अहसास है।" (यही दुनिया है, पृष्ठ ८७)  

फालतू होने का अहसास व्यक्ति के सामूहिक जीवन के अहसास का हनन है यह स्थिति तभी आती है जब हम दूसरों की थोपी गयी स्थिति और निर्णय को अपना कहने के लिए या अपना स्वीकार करने के लिए अभिशप्त होते है़। जैसा कि उपर के उदाहरणो में अजय ने दिखाया है कि व्यक्ति की अपनी चेतना व चिन्तन से पृथक कर उसे मशीन का पुर्जा बना देने की साजिश इस पूँजीवादी वर्चस्ववाद का जरूरी तकाजा है। 


अजय पांडेय के कविता संग्रह “यही दुनिया है” में सबसे महत्वपूर्ण सवाल स्त्री को लेकर खडे किए गए हैं। स्त्री सम्बन्धी कविताओं पर चर्चा किए बगैर अजय की चेतना और अस्मिताओं के विमर्श का यथार्थ नहीं समझा जा सकता है। अजय ही क्यों कोई भी कवि हो जो खुद को समकालीन कहे और आधी आबादी के इस पक्ष से रहित हो उसे समकालीन कहने में संकोच होता है। स्त्री विमर्श आधुनिक विश्वपूँजी द्वारा उत्पन्न सबसे सशक्त विमर्श है जिसका जवाब देने में जनवादी और लोकधर्मी कविता भी असहज हो सकती है या यूं कहा जाय कि जनवादी लेखन स्त्री विमर्श की  देहवादी अवधारणा का मुकम्मल जवाब नहीं खोज पाया है। बहुत से लोकधर्मी लेखक आलोचक और कवि भी “देहविमर्श” की अनजाने में स्वीकृति दे जाते हैं। इस सन्दर्भ में अजय के सवाल और समस्या दोनो अलग है़। अजय हाशिए पर ढकेली गयी अस्मिताओं के पक्ष में अधिक संवेदनशील हैं। उन्हें इनकी विकास की चिन्ता है। इसलिए स्त्री के साथ साथ वो बच्चों पर भी बराबर कविता लिख रहे हैं। आज देह के नाम पर स्त्री की यौनिकता व सम्भोग बिम्बों का प्रतिचित्रण उसके परिवेश में सदियों से काबिज उत्पीडनकारी रूपों को खारिज करता है। ऐतिहासिक आग्रहों को अस्वीकार करता है। मगर अजय यह नहीं भूलते कि स्त्री विरोधी संस्कृति हमारी ही देन है। पुरुष प्रधान समाज में जाति धर्म संचालित मानसिकता की क्रूरतम अभिव्यक्तियां आज भी मौजूद हैं। एक मात्र संस्कार और संस्कृति के तर्क से इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। पुरुषों द्वारा गढे गए शुचिता के भयावह सिद्धांत व स्त्री धर्म की मीमांसा ही उसे सामन्ती उत्पीडन व अलगाव की आग झोंक रही है। यह अलगाव स्त्री के उपस्थिति के खिलाफ उसकी निजी अस्मिता व अस्तित्व के विरुद्ध ठोस तर्क है। अजय अपनी एक कविता में कहते हैं

“अच्छी औरतें

अकेली कहीं नहीं जाती हैं

पति के बाद खाती हैं

अच्छी औरतें

हर मामले में

अनुशासित होती हैं

यानी आदमी होने की

शर्तों से निर्वासित होती हैं। (यही दुनिया है, पृष्ठ 12)

अच्छी औरत होने के तर्क ही स्त्री के आदमी होने का लोप है। यह स्त्री के पक्ष में देह से इतर विमर्श है जो उनकी आजादी और हक के लिए मनुष्य होने की स्वीकृति माँग रही है। एक तरफ आदमी की चेतना को पूँजी ने नष्ट किया है तो स्त्री की चेतना को पुरुष ने नष्ट किया है। यहाँ पुरुष और स्त्री दोनो अलग अलग वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इसका आशय यह नहीं कि स्त्री पूँजीवादी शक्तियों से पीडित नहीं है। बाजार का प्रभाव स्त्री और पुरुष दोनो में है। पर जब स्त्री की बात आती है तो वह दोहरे उत्पीडन से ग्रसित होती है वहां लिंग और जाति के सवालों से हमें जूझना होगा। अजय ने स्त्री के पक्ष में बाजारवादी खतरों का भी उल्लेख किया है। अजय पांडेय ने बाजार के स्त्रीवादी पक्ष को सिरे से अस्वीकार किया है। नारी सौन्दर्य एक ऐसी अवधारणा थी जो स्त्री की देह को वस्तु बना रही थी। प्राचीन काल से ही दैहिक सौन्दर्य के चमकते जाल में स्त्री को फँसा कर प्रतिक्रियावादी ताकतों ने देह को उपभोग की नियति से जोड दिया था। और आज बाजार ने उसकी देह को विज्ञापन व मार्केटिंग का जरिया बना रहा है। सौन्दर्य के इस पुरुषवादी वर्चस्ववाद का अजय विरोध करते है। वो समझते हैं उत्तर आधुनिकता के स्त्री-विमर्श का सारा दरमोदार सौन्दर्य बोध की नींव पर खडा है। सौन्दर्य बोध के नव जात प्रतिमानों ने स्त्री को देह से पृथक नहीं होने दिया। उसे चेतना नहीं बनने दिया गया। इस उपभोक्तावादी बाजारी संस्कृति में देह का वस्तु में तब्दील हो जाना एक प्रकार की अपसंस्कृति है। एक ऐसी अपसंस्कृति जो इसकी तहों में अन्तर्निहित अनैतिकता व अमानवीय गैर-लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों को भी जायज ठहरा रही है। अजय लिखते हैं

“सभ्यता के विमर्शकारों सृजनहारों 

क्यों नहीं गढ पाए

नारी सौन्दर्य के

वैवेविक प्रतिमान

जब भी गढते हो

नारी सौन्दर्य का

कोई नया प्रतिमान

एक नई साजिश

रच रहे होते हो

उसके खिलाफ”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 74)

इस कविता में अजय ने बेहद जरूरी बात कह दी है यह उन लोगो के लिए एक सबक है जो स्त्री की देह को चेतना समझ कर जबरिया उसे बाजार के भोगवादी अन्धेरे में धकेल रहे हैं। दरअसल देह की चर्चा देह की आजादी चर्चा है न कि वह स्त्री की अस्मिता व परिवेश से मुक्त करने की चर्चा है। इस मामले अजय की स्त्री सम्बन्धी कविताएं जनवादी स्त्री विमर्श का पक्ष लेती हैं। वो समस्त सामन्ती बन्धनों को धता बता कर स्त्री के मनुष्य होने के अधिकार की मांग करते हैं।

व्यवस्था से लगातार गायब हो रहे आदमी के पक्ष में विमर्श के नाम पर भोथरी नारेबाजी खूब देखने को मिलती है। आजकल बहुत से कवि सपाटबयानी के बहाने कविता को बैनर अथवा पोस्टर की तरह प्रयोग कर रहे हैं। मगर नीतियों से अनुपस्थित लोक के सन्दर्भ में आज उत्तर आधुनिकता के पास कोई माकूल प्रत्युत्तर नहीं है। उपस्थिति का तर्क वजूद और आस्मिता की रक्षा का तर्क है। उपस्थिति का रास्ता संघर्षों से होकर ही गुजरता है। वैश्विक परिदृष्य में जब तक बडा सामूहिक सचेतन परिवर्तन न होगा तब तक उपस्थिति की बात बेमानी है। मगर मध्यमवर्गीय राजधानी केन्द्रित सत्ता सेवी जमातें इस सुलभ मार्ग को सिरे से नकारती है। या यूं कहा जाए कि उत्तर आधुनिकता ने प्रतिरोध के प्रतिपक्ष में ही तमाम असंगत विमर्श पैदा किए हैं तो यह गलत नहीं होगा। यदि हाशिए पैदा किए गये तो उनका हल भी होना चाहिए वगैर हल के कोई भी विचारधारा सफल व पूर्ण नहीं कही जा सकती है। 

अजय कुमार पांडेय भूमंडलीकृत विचारों की इस कमजोरी से सुपरिचित हैं तभी वो जन के पक्ष में उपस्थिति का संघर्षरत हल खोजते हैं। ये हल ही अजय को लोकधर्मी काव्य चेतना की जमात में और मजबूती से खडा कर देता है। उनका कहना है। 

“अपनी उपस्थिति के लिए

लहराओ

लहराओ अपने हाथों की

बन्द मुट्ठियां हवा की ओर

कि अब भी बदल सकते हो

हवा की दिशा

और मौसम का मिजाज”। (यही दुनिया है, पृष्ठ 22)

यहाँ अजय अस्मिताओं की उपस्थिति हेतु बन्द मुट्ठी लहराने की बात करते हैं ये सचेतन संघर्षों की पीठिका है। यह संघर्ष अचानक या फैशन के रूप में नहीं आया है। अजय पहले हाशिए के कारण खोजते हैं। फिर अलगाव व फालतूपन को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति की नियति व टूटन का वाजिक तर्क देते है़ फिर अन्त में व्यक्ति उपस्थिति के लिए जनवादी तर्क देते हैं। मतलब समूचे तर्क के साथ अस्मिताओं का संघर्ष प्रस्तावित करते हैं। यही सर्वांगता उन्हें अपनी पीढी से पृथक करके एक अलग पायदान पर खडा देती है।

अजय कुमार पांडेय का कविता संग्रह ‘यही दुनिया है’ भूमंडलीकृत विश्व में मनुष्य के वजूद पर छाए मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक व सांस्कृतिक खतरों का प्रलेख है। यह संग्रह किसी भी जगह तटस्थता व आय्यासी का शिकार नहीं होता पूरी कविताओं में मनुष्य की उपस्थिति के प्रति आक्रोश मय बेचैनी मिलती है। भले ही कविता के विषय वैविध्य पूर्ण हों परन्तु अन्तश्चेतना में अनुपस्थित अस्मिताओं के पक्ष में मुकम्मल प्रतिरोध का आवेगशील जेहादी तेवर दिखाई पडता है। कविताओं की संवादी भंगिमा व बोलचाल की शैली उनके तेवर को जनपक्षीय बनाते हुए आक्रोश व बेचैनी की नयी भाषा गढ रही है ऐसी भाषा जनभाषा कहलाती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अजय कुमार पांडेय की कविता अस्मिता के पक्ष में सृजन करती हुए भी तमाम रीतिशास्त्रीय बुर्जुवा कलात्मक मूल्यों से रहित होते हुए भी अपने कहन की संवादी भंगिमाओं व चिन्तन की सामयिक जरूरत के हिसाब से अन्त तक कविता बनी रहती है। यदि आज के युगबोध व हिन्दी साहित्य में प्रभावी आधुनिक रूपवाद के प्रतिरोध में इन कविताओं को परखा जाए तो ऐसी कविता आज की जरूरत है और भविष्य की भी जरूरत है।


उमाशंकर सिंह परमार







सम्पर्क –

मोबाईल – 09838610776

टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर समीक्षा. बढ़िया कविताएँ.

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  2. अजय पांडेय युवा पीढ़ी की मजबूत उम्मीद हैं, परन्तु जो दिखता है वो बिकता है का मुहावरा हिंदी साहित्य पर बेहिचक लागू हो रहा।अजय जी कम छपते हैं, कम चर्चा मेंं रहते हैं, इसीलिए उन ध्यान हमारा क्यों जाए? चर्चित युवा आलोचक उमाशंकर जी ने कविता की जमीनी कलम पर कलम चलाकर अपनी प्रतिबद्धता को औऱ सशक्त किया है।

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  3. अजय पांडेय युवा पीढ़ी की मजबूत उम्मीद हैं, परन्तु जो दिखता है वो बिकता है का मुहावरा हिंदी साहित्य पर बेहिचक लागू हो रहा।अजय जी कम छपते हैं, कम चर्चा मेंं रहते हैं, इसीलिए उन ध्यान हमारा क्यों जाए? चर्चित युवा आलोचक उमाशंकर जी ने कविता की जमीनी कलम पर कलम चलाकर अपनी प्रतिबद्धता को औऱ सशक्त किया है।

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  4. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
    महात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
    साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. एक ईमानदार और चुपचाप लिखने वाले पर जब भी कोई कलम चलाता है . वह अपना दायित्व निभाता है . उमा जी ने ऐसा ही किया . अजय पाण्डेय जी ज़मीनी कवि हैं . यही ज़रूरी है . अजय भाई , उमा भाई और पहलीबार को शुभकामनाएँ !!
    - कमल जीत चौधरी .

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