संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ।


संजय कुमार शाण्डिल्य


अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी संकोच या भय की वजह से वे बातें नहीं कह पाते जो अपने समय की जरुरी और ईमानदार बातें होती हैं। एक कवि इसे न केवल महसूस करता है बल्कि अपनी कविता में इसे कुछ इस तरह दर्ज करता है ‘जो मैं बोल नहीं पाता हूँ / वह सबसे जरूरी बात होती है।’ संजय कुमार शांडिल्य ऐसे ही महत्वपूर्ण युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में आम आदमी की तकलीफें, दिक्कतें, बातें और भावनाएँ सहज ही देखी और महसूस की जा सकती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं युवा कवि संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ।  

संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ

बहुत ताकतवर हवाओं में 

बहुत ताकतवर हवाओं में
टोपियाँ सँभाली नहीं जा सकती
लगातार वेग से उङती हैं चीजें
न जाने कहाँ चली जाती हैं

घोङे के जाँघ की हड्डियाँ
चूर-चूर हैं 
समुद्र की मछलियां उन पर अंतरिक्ष में पहुँचती हैं
और वापिस बरसती हैं समुद्र पर

एक जीर्ण और पीला पत्ता
दिखाई नहीं पङते हुए उड़ रहा है
किसी गुप्त दराज़ से गायब हो गये हैं
प्रेम-पत्रों के अक्षर 
लिखे जाते वक्त की असीम थरथराहटों के साथ
दुःख दाढ़ी बढ़ा कर जी रहा है
कामकाजी चिठ्ठियों के डाकखाने स्मार्ट
हो गए हैं

बहुत ताकतवर हवाओं में
किसानों ने स्थगित रखा है
खलिहान में ओसवन

आप दुआ करते हैं कि जब बहुत ताकतवर हों हवाएँ
यात्रा खत्म कर लौट चुके हों आपके अपने
दरख्त अपनी जङों से जकड़ लेते हैं पृथ्वी को
बहुत ताकतवर हवाओं में।

हम जहाँ नहीं रह जाते हैं

जो मैं बोल नहीं पाता हूँ 
वह सबसे जरूरी बात होती है
एक दिन ऐसी सभी बातें
इकट्ठा हो जाती हैं

कोई उस पर से गुजरता है
जैसे किसी जलते 
हुए मलबे से गुजरता है

जिस पर हम चल नहीं पाते हैं
वह सबसे जरूरी रास्ता होता है
एक दिन ऐसे सभी रास्ते
इकट्ठा हो जाते हैं

लोग ऐसे रास्तों पर
बातें करने लगते हैं
जैसे लोग लाशों पर
बातें करते हैं

हम जहाँ नहीं रह जाते हैं
वह हमारा सबसे जरूरी पता
होता है।


सुबह की सैर वाली कविता

कनस्तर पर कनस्तर गिन रहा
वह नगर श्रेष्ठी अपने जिस्म के
मांस में डूब रहा है
क्या वह मेरी कविता पढ़ेगा 
थोड़ा वक्त निकाल कर

और वह उजड्ड अफसर 
उस पेशाबघर का इस्तेमाल करेगा
जिसमें जाते हैं क्लर्क और चपरासी

अपने अकेलेपन में पागल 
हो जाने से पहले
किसी उकाब की तरह गर्दन अकड़ाए
वह पागल जो नाली की पुलिया पर
समरकंद के बादशाह की तरह
बैठा रहता है आजकल
क्या वह मेरी कविता पढ़ेगा

वह जो अपने घर के खाली मर्तबानों 
की वजह से 
लगातार हँसे जा रहा है
उसकी हँसी से गाफिल है जो
उसका पड़ोसी
क्या इतना समय निकाल पाएगा
जितने में सुबह की सैर से
नया हो जाता है पिछली रातों की
धुन्ध में हदबदाया हुआ फेफड़ा

इस सूनेपन और सन्नाटे में
कोलाहल से भरे हुए लफ्जों 
तुम मेरी कविता में उतरो
जैसे दोपहर के बाद 
थके हुए कबूतर उतरते हैं 
मेरे घर की छत पर

ये जो बिखरे हुए दाने हैं
वह मैंने उस किसान से माँगे हैं 
जिसका चालीस फर्दों का परिवार
बीस वर्षों से भूखा है
अपनी उदास भाषा में 

मैं एक शोर भरी कविता लिख कर
कुछ बिना छत की दीवार जैसे 
लोगों को सुनाना चाहता हूँ
क्या इतना वक्त निकाल सकोगे
मेरी कविताओं के लिए
जितने में एक सैर भरा हुआ फेफड़ा
नया हो जाता है
दिन भर की गैर-आमद थकान के लिए।

फाँक
गाँव ऊँचे और निचले में नहीं बँटा था
ऊपर से नीचे दो फाड़ था

यह तो 
...

सम्पर्क-
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज,

पत्रालय- हथुआ, जिला- गोपालगंज (बिहार) 841436

मोबाईल - 9431453709

ई मेल - shandilyasanjay1974@gmail.com

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं