अपर्णा अनेकवर्णा की कविताएँ
अपर्णा
अनेकवर्णा सुनने में अपरिचित सा नाम भले ही लगे लेकिन इनकी कविताएँ पढ़ते हुए कहीं भी आभास नहीं होता कि ये किसी नवोदित की रचनाएँ हैं. दरअसल अपर्णा
अनेकवर्णा 'जीवन राग' की कवियित्री हैं जो 'जीवंत सम्भावनाओं की तलाश जारी रखे हुए' हैं. और साहित्य की ये महती जिम्मेदारी भी तो है. तो आईए पढ़ते हैं अपर्णा
अनेकवर्णा की नवीनतम कविताएँ जो' उम्मीदों की फेहरिस्त थामे हुए' कविता की अलख और उम्मीदें जगाए हुए हैं.
गोरखपुर की अपर्णा
अनेकवर्णा, अब नयी दिल्ली में अपने पति और पुत्री के साथ रहती है. एम. ए. अंग्रेजी साहित्य में किया है और लगभग ६
वर्ष पत्रकारिता एवं फिल्म प्रोडक्शन
से जुड़े रहने के बाद, विवाहोपरांत आजकल एक गृहिणी का जीवन बिता रही हैं. लेखन पिछले वर्ष आरम्भ किया है और इनकी
कवितायेँ काव्य संकलन 'गुलमोहर' में तथा 'कथादेश' (मई, २०१४ अंक) के 'आभासी संसार से' स्तम्भ में प्रकाशित हो चुकी
हैं. प्रस्तुत है अपर्णा की कुछ नवीनतम कविताएँ.
एक ठेठ /ढीठ औरत
.........................................
सुबह से दिन कंधे पे है सवार
उम्मीदों की फेरहिस्त थामे
इसकी.. उसकी.. अपनी.. सबकी..
ज़रूरतें पूरी हो भी जाएँ..
उम्मीदें पूरी करना बड़ा भारी है..
जहाँ खड़ीं हूँ.. वहां से सब दिखतें हैं
दौडूँ जाऊँ.. नज़रें बचा के..
दो-एक बातें अपनी मन वाली भी.
कर आऊँ... बिना रोक-टोक..
पर वर्जनाएं कुंठा बन गयी हैं
बिना बुरा.. वीभत्स.. हार सोचे
किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचती
ख़ुद को पुरज़ोर अंदाज़ में
सब ओर रखती हूँ
पर ऐसा करने में चालाकियां
दूसरों की नज़र आती हैं..
काटती हूँ उनको अपनी चालाकियों से...
जहाँ भांप ली जाती हूँ..
लोमड़ी करार दी जाती हूँ
जहाँ नहीं.. वहां बेचारी का मुंह बनाना
अब खूब आता है मुझको..
इस पूरी स्वांग-लीला से
घिन आती रहती है.. धीरे धीरे
पर चारा कुछ भी नहीं..
या तो बाग़ी घोषित हो जाऊँ
और अकेली झेलूँ रेंगती नज़रों..
टटोलते स्वरों को..
या ओढ़ लूँ औरतपन की चादर
और चैन की सांस लूँ अकेले..
और बेचारिगी पोत लूँ मुंह पर
जैसे ही कोई छेड़े उस छाते को...
मैं ऐसे ही एक 'ढीठ' औरत थोड़े हूँ..
मैं ऐसे ही एक 'ठेठ' औरत थोड़े हूँ...
...................................................
.........................................
सुबह से दिन कंधे पे है सवार
उम्मीदों की फेरहिस्त थामे
इसकी.. उसकी.. अपनी.. सबकी..
ज़रूरतें पूरी हो भी जाएँ..
उम्मीदें पूरी करना बड़ा भारी है..
जहाँ खड़ीं हूँ.. वहां से सब दिखतें हैं
दौडूँ जाऊँ.. नज़रें बचा के..
दो-एक बातें अपनी मन वाली भी.
कर आऊँ... बिना रोक-टोक..
पर वर्जनाएं कुंठा बन गयी हैं
बिना बुरा.. वीभत्स.. हार सोचे
किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचती
ख़ुद को पुरज़ोर अंदाज़ में
सब ओर रखती हूँ
पर ऐसा करने में चालाकियां
दूसरों की नज़र आती हैं..
काटती हूँ उनको अपनी चालाकियों से...
जहाँ भांप ली जाती हूँ..
लोमड़ी करार दी जाती हूँ
जहाँ नहीं.. वहां बेचारी का मुंह बनाना
अब खूब आता है मुझको..
इस पूरी स्वांग-लीला से
घिन आती रहती है.. धीरे धीरे
पर चारा कुछ भी नहीं..
या तो बाग़ी घोषित हो जाऊँ
और अकेली झेलूँ रेंगती नज़रों..
टटोलते स्वरों को..
या ओढ़ लूँ औरतपन की चादर
और चैन की सांस लूँ अकेले..
और बेचारिगी पोत लूँ मुंह पर
जैसे ही कोई छेड़े उस छाते को...
मैं ऐसे ही एक 'ढीठ' औरत थोड़े हूँ..
मैं ऐसे ही एक 'ठेठ' औरत थोड़े हूँ...
...................................................
अधूरापन
...............................................
अपना सिर तुम्हारे पीठ से टिकाये
जब रूह सुकूनो से भर रही होती हूँ ...
तुम हँसना नहीं तब..
न ही मुझे खींचना आगे..
अब जान गयी हूँ..
वहां मेरी लिए कोई जगह नहीं..
ढेरों किस्से हैं वहां.. पुरानी यादें..
कुछ ज़ख्म.. धीरे धीरे सूखते हुए
दिल सीने में है मगर
पीठ को भी है धड़काता हुआ
वो नर्म-नर्म सी धड़कनें
पहुँच ही जाती है मुझ तक.. मुझमें..
हाथ पीछे ले जा कर अपना
थाम लेते हो मेरा हाथ..
खींच कर धर लेते हो
जब अपने सीने पे..
सर को पीछे झुका कर तनिक सा
मेरे सर पे टेक देते हो तुम..
एक कायनात मुकम्मल हो उठती है
बाँट लेते हैं हम सातों जन्म..
ये अधूरा सा आगोश ही..
मुझे पूरा किये देता है..
रूंधें से तुम.. ये भी तो कह देते हो..
'अब मेरे पास जो आई हो तो क्या आई हो..'
('अब मेरे पास जो आई हो तो क्या
आई हो..' ~ मजाज़)
ख़याल रखना
....................................
परीक्षा ही होती हैं दूरियां..
किसी भी फ़िक्र.. घबराहट की
किसी को कोई ज़रुरत नहीं
क्यूंकि सारे सच भी..
एक फासले पर.. झूठ ही हैं
पास होना ही..
सबसे बड़ा सच होता है
अपने स्याह.. सफ़ेद रंग लिए..
स्लेटी चहबच्चे बनाता रहता है
'नज़दीकियां' साथ की
मोहताज नहीं
पर साथ के तृप्त शोर के पार..
कोशिश करना सुन सको..
दूर बैठे किसी सच को...
फ़िक्र को कोई हक़ नहीं मिलता..
वो बस जलता-गलता रहता है...
अपनी ही लगायी जठराग्नि में..
बेचारगी का तमगा भी दुनिया..
अपने कायदों से ही देती है..
इसलिए.. ख्याल रखना..
...........................................................
आदत
.................................
सांद्रता बढ़ती जाती है
हर उच्छ्वास से..
फांकती हूँ मुट्ठी भर-भर
असहाय हो चुका दुःख
घोंटती हूँ.. कड़वी गोली सी..
बिना पानी अटकी है हलक में...
घुल रही है कड़वाहट..
फ़ैल रही है..
कड़वाहट जीना..
अब आदत बनती जा रही है..
.....................................................................
हीरा-पन्ना संसार
..........................................
अपने हाथ बढ़ा कर थाम ली है...
वो नन्ही ऊँगली तुम्हारी
हर व्यस्तता के.. तुम्हारी..
बीत जाने की राह देख सकती हूँ
दम साधे अस्फुट प्रार्थनाएं करने लगती हूँ
जब सूंघ लेती हूँ मूर्ख व्यसन तुम्हारे..
नहीं कहते कभी जो मन में धरे बैठे हो
समझती हूँ.. कभी नहीं सुन सकुंगी उन्हें..
'मैं लायक नहीं तुम्हारे'.. तुमने कह
दिया..
कौन लायक हैं तुम्हारे.. जहाँ बीतते हो??
अपनी दुर्बलताओं को न मानने का
सबसे आसान तरीका यही था न..
जो भी है.. जैसा भी.. पूरा या अधूरा..
काफ़ी है मेरे लिए..
इसीलिए..
अब तो थाम ली है हाथ बढ़ा के
वो नन्ही ऊँगली तुम्हारी..
मेरी मुट्ठी में जगमगा रहा है
हीरे-पन्ने सा एक संसार
शून्य..
................................................
यानी कुछ भी नहीं..
'कुछ होने' की पूर्णतः
अनुपस्थिति...
पर जब अपनी पर आता है..
तो अपनी सभी कलाओं में
जगर-मगर
उपस्थित हो जाता है..
अंगड़ाइयाँ लेता है..
धीरे-धीरे सर घुमा कर
चारों तरफ़ का जायज़ा लेता है...
कहाँ तक फ़ैल जाना है?
किस हद तक डुबोना है?
जो नहीं हो कर भी इतना होता है..
की आप साँसों की पनाह मांगते
उपराते हैं.. उबरने की कोशिश फिसल जाती है..
आप फिर डूब जाते हैं..
अब आप हैं और आपका शून्य..
जब तक चाहेगा.. दबोचे रहेगा..
जब जायेगा तब भी किसी बाढ़ की कीच
की तरह अपने निशाँ छोड़ जायेगा..
कमाल है न.. कुछ नहीं होने के भी
होने के निशाँ होते हैं......
'शून्य का घनत्व' हम सबने भोगा
है...
कहें न कहें.. ये निशाँ हम सबने पाले हैं
...................................................................
प्रतीक्षा
............................................
अब.. बदहवास हो..
परतें उधेड़ने लगी हूँ ज़हन की..
हर परत के भीतर..
तुम्हारे होने की आहटें हैं मौजूद..
बस एक तुम ही नज़र नहीं आते...
तुम्हारे होने की एक
उड़ती सी खबर है मुझको
जब भी खुद को आवाज़ें लगाईं हैं
सब ओर से जब भी लौटीं वो बारहा
तुम्हारी ही हो कर लौटी हर बार..
कितने ही सितारे टाँके..
खुशफहमियों की रातों में..
कि रौशन रहें ये राहें तुम्हारी..
पर तमन्नाएँ भी सुर्खाब हुआ करती हैं
अपनी मर्ज़ी से परवाज़ हुआ करती हैं..
दियाले पे जलता है हरदम..
तुमसे तुमको ही मांगता हुआ...
तुम्हारे नाम का चराग़
मेरे अंधेरों को रौशन करता
मेरे हौसलों को उजाला देता
इन बिखरीं परतों को समेटूँ, चलूँ..
ठहर गयी ज़िन्दगी की खबर लूँ..
तुम तो फुर्सतों के मालिक ठहरे
जब आओगे.. तब ही आओगे...
आसमानों में रहने वाले..
भला तुम कब आओगे..
मन-रंग : 1
..............................
मेरे मन का रंग है
गाढ़ा ठुडुक लाल..
वो प्रेम भी
उसी रंग में करता है..
और घृणा भी...
हिंसक होने की हद तक..
दुखता है तो
इतना गाढ़ा हो उठता है
कि जामनी हो जाता है...
कत्थई का अंत..
बैगनी की शुरुआत..
बस कभी कभी..
माँ.. शिशु.. प्रकृति.. इष्ट..
के आस-पास..
सफ़ेद होने लगता है ...
हो नहीं पाता..
मद्धिम गुलाबी के..
अलग-अलग वर्ण लिए
रह जाता है..
उस सफ़ेद का
बहुत इंतज़ार है
.......................................................
मन-रंग : 2
...................................
अंचरा भर खोइंछा
मन भर आशीष
कंठ में ऐंठ गए
रुंधे घुटते विदा-गीत .
पीतल के लोटे में हाथ भिगोये..
आँगन में छूटती जाती माँ..
मैं कातर..
बस उसे मुड कर ताकती हूँ...
सब धीरे से धुंधला जाता है
बस उसी समय चढ़ता है वो रंग..
तब से बस गहराता चला जाता है...
वही मन का स्त्री-रंग कहलाता है..
..................................................................
नदी चुपचाप बहती है
.....................................
नीली नदी एक बहती है
चुपचाप..
सरस्वती है वो.. दिखती नहीं..
बस दुखती रहती है..
सब यूँ याद करते हैं जैसे बीत गयी हो...
नहीं खबर.. न परवाह किसी को भी कि..
धकियाई गयी है सिमट जाने को
अब हर ओर से खुद को बटोर..
अकेली ही बहती रहती है..
नित नए.. रंग बदलते जहां में..
अपना पुरातन मन लिए एक गठरी में..
बदहवास भागी थी..
कहीं जगह मिले...
हर उस हाथ को चूम लिया
जिसने अपना हाथ भिगोया..
फिर ठगी देखती रही..
राही उठ चल दिया था..
पानी पी कर उठे मुसाफिर..
कब रुके हैं नदियों के पास?
उन्हें सफर की चिंता और मंज़िलों की तलाश है
नदियां बस प्यास बुझाती हैं
यात्रा की क्लांति सोख कर
पुनर्नवा कर देती हैं...
और जाने वाले को..
स्नेह से ताकती रहती हैं
जानती हैं.. वो लौटेंगे..
फिर से चले जाने के लिए..
पर सरस्वती सूख गयी..
पृथु-पुत्रों का रूखपन सहन नहीं कर सकी
माँ की कोख में लौट गयी..
अब विगत से बहुत दूर..
चुप चाप बहती रहती है...
दिखती नहीं.. सिर्फ दुखती रहती है..
कविता
.................................................
उँगलियों के नाखूनों के साथ ही..
चबा जाती हूँ खुद पे भरोसा अपना..
आत्मसंदेह से आत्मविश्वास तक का पुल..
कच्चा सा है.. डोलने लगता है
तब कुछ स्नेही बढ़ कर.. थाम लेते हैं
कुछ तो घबराये से.. पास आ जाते हैं
कुछ दूर से.. चमकती मुस्काने ओढ़े..
धड़कता दिल छुपाये.. भरोसा दिलाते हैं
इस तरह.. मैं थोड़ी सी.. ज़रा सी कविता
और बुन.. गुन.. कह.. लिख लेती हूँ...
.....................................................................
कामना
......................................................
हवाओं से झगड़ती.. रूठती..
रोती गिड़गिड़ाती..
अनंत में खोये घरों..
अपनों.. का पता पूछती..
स्टेशनों चौराहों पर अक्सर
अस्त-व्यस्त सी भटकती-डोलती
बावरियों को देखा है??
लगभग हर महानगर के
आमो-ख़ास रास्तों.. नुक्कड़ पर..
बुझ गयी आग के आस-पास
देखा है न सिकुड़े बच्चों को..
राख में ख़ाक हुए मुस्तकबिल को
हारी हुयी उँगलियों से खंगालते रहते हैं
मैं भी..
अपनी हथेलियों को यूँ ही देखा करती हूँ
कब से.. लाख उलट-पुलट चुकी..
नेह की रेख मिलती ही नहीं
कच्ची माटी की थी जब.. तूने
तब खींची ही नहीं थी क्या..
मेरे रब जी??
कहाँ से लाऊँ.. पा जाऊं..
चलूँ.. किसी टूटते सितारे से
मांग लूँ एक टूटा टुकड़ा उसका..
कांच की किरचों से..
उसके नुकीले पैनेपन से
खुरच खुरच बना लूँ वो रेख..
जिसे दुनिया
'प्रेम की लकीर' कहती है
.......................................
जीवन-राग
...........................................
हर दिन.. एक पर्व.. एक अध्याय..
किसी महाग्रन्थ का सा..
अपनी अनिश्चितता पर बंद होता है
आप दिन भर अकेले रहे या भीड़ में
अवसादग्रस्त रहे.. या शांत..
राग-मग्न या वियोग-व्यग्र..
कुछ ढूढ़ते रहे... या फिर पा ही लिया..
कल भी यूँ ही होगा.. क्या पता...
हर जगह कुछ घेरे हैं..
हर घेरे में कुछ चेहरे..
कुछ जाने-पहचाने.. कुछ अनजाने..
कुछ तथाकथित अपने..
कुछ बड़े परिचित से दूजे
पहचान बने.. बनी रहे.. या रीत जाये..
उपक्रम जारी रहने तक जीवन जीवित है..
जीवन राग बेहद एकरस है...
जीवंत संभावनाओं की तलाश..
जारी है...
................................................................
माँ
.....................................
ये कपड़े माँ ने दिए हैं..
वो कर्णफूल भी..
और हाँ.. दायें बाजू पर एक नन्हा तिल..
लोग कहते हैं, अपनी झलक दी है..
और पिता कहते हैं, अपना स्वभाव भी..
बहुत कुछ दिया है माँ ने मुझे जीवन के साथ..
पर मुझे लगता है.. अपना सब्र रख लिया है अपने पास..
अब भी शांत बैठ कर मेरी बेचैनी
सुनती गुनती रहती हैं..
और अपनी 'सर्वज्ञ' मुस्कान
लिए..
हर बार की तरह.. एक बार फिर..
थाम लेती हैं.. साथ देती हैं..
मेरे मौन में भी भांप लेती हैं
मेरी उदासी, ऊब, बिमारी..
इतने वर्षों में बस ये बदला है..
की अब मुझ से पहले रेवा है उनके लिए..
मूल से सूद प्यारा जो होता है
शाम और अवसाद
................................
शाम हो चुकी..
उदास चाँद
गोल गोल और
मुर्दा सा पीला..
भीतर सोये भेड़िये
जाग उठे..
बदन को ऐंठा
हवाओं को सूंघ कर
पक्का कर लिया..
अवसाद पूरा पक चुका अब
आओ झुण्ड..सब आओ
मुंह उठायें और पुकारें
सब मिल कर
अनंत को अनंत में..
कुछ तो खर्च कर दें
और यूँ ही बचा लें
ज़िन्दगी अपनी....
सम्पर्क :
अपर्णा की कवितायेँ अपने आप में चमत्कृत करती हैं :) शुभकामनयें !!
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर कवितायें लिखती हैं अपर्णा......उनका लेखन बहुत ही प्रभावशाली और मन को छूने वाला है..
जवाब देंहटाएंढेरों शुभकामनाएं उन्हें !
अनु
कभी हरसिंगार सी हौले से झरती हैं, कभी इन्द्रधनुष सी चमकती हैं, अपर्णा की कविताएं सीधे मन में उतरती हैं
जवाब देंहटाएंनमिता
Beautiful images, well-picked words
जवाब देंहटाएंअपू दी की लेखनी को सलाम । इनकी कवितायेँ मन में अलग छवि बनाती हैं ।अपने आप में अलग पहचान बनाती ।
जवाब देंहटाएं