मदन कश्यप का आलेख 'कविता के पचास वर्ष'
(चित्र : मदन कश्यप)
हिन्दी के जाने-माने कवि मदन कश्यप का जन्म बिहार के वैशाली जिले में 29 मई 1954 को हुआ।
मदन जी की प्रमुख कृतियाँ हैं - गूलर के फूल नहीं खिलते (1990), लेकिन उदास है पृथ्वी (1993),नीम रौशनी में (2000), कुरुज, दूर तक चुप्पी
वर्ष 2009 में इन्हें शमशेर सम्मान प्रदान किया गया।
यह वर्ष मुक्तिबोध के निधन का पचासवां वर्ष है। मुक्तिबोध के निधन के वर्ष से लेकर आज तक हिन्दी कविता ने भी अपने प्रस्थान के पचास वर्ष पूरे कर लिए हैं। हिन्दी कविता के इस सफर का एक मूल्यांकन कर रहे हैं हमारे समय के महत्वपूर्ण और वरिष्ठ कवि मदन कश्यप। यद्यपि यह आलेख संशोधित प्रारूप में बया के अप्रैल-जून 2014 अंक में प्रकाशित हो चूका है। लेकिन पहली बार पर हम इसे उस सम्पूर्णता में प्रस्तुत कर रहे हैं जैसा कि मदन जी ने अपने मूल प्रारूप में लिखा था।
कविता के पचास वर्ष
मदन कश्यप
27 मई को भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर
लाल नेहरू के निधन के 50 वर्ष पूरे हो गए, इसी
वर्ष 11 सितंबर को मुक्तिबोध के निधन के भी पचास वर्ष
हो जाएँगे। पिछले पचास वर्ष की हिंदी कविता पर निस्संदेह नेहरू के बाद के भारतीय
लोकतंत्र की उथल-पुथल के बीच निर्मित हो रहे नए समाज और मुक्तिबोध की अग्रगामी
राजनीतिक चेतना संपन्न कविता का गहरा प्रभाव है। 1950 के
दशक में हिंदी के बौद्धिक समाज और कविता पर नेहरू के विचारों का असर था, आज़ादी
और लोकतंत्र के प्रति उत्साह का भी उसमें योगदान था। भले ही नागार्जुन जैसे आमजन
की तकलीफों को देखने वाले कवि का मोहभंग शुरुआती दौर में ही हो गया था लेकिन नई
कविता के अज्ञेय ही नहीं, मुक्तिबोध भी नेहरू से प्रभावित थे। इस तरह, प्रगतिशील
कविता की भी दो धाराएँ थीं, जो किसी न किसी रूप में आज तक हैं और भेद सिर्फ
शिल्प का नहीं था, कहीं न कहीं से विचार के स्तर पर भी टकराहट थी।
खैर, 1962 के चीन युद्ध के बाद तो लगभग पूरे बौद्धिक
समाज का नेहरू से मोहभंग हो गया। उसके बाद कविता और समाज में जो बदलाव आए उनका आपस
में बहुत ही गहरा रिश्ता रहा है। लेकिन हिंदी की दरिद्र आलोचना में कविता को समय
से जोड़ कर देखने का कोई उपक्रम किया ही नहीं गया।
(चित्र : मुक्तिबोध)
हिंदी कविता पर मुक्तिबोध के प्रभाव का
अध्ययन तो थोड़ा बहुत हुआ भी, लेकिन नेहरू के बाद के तेज़ी से बदलते हुए
भारतीय समाज और लोकतंत्र की पृष्ठभूमि में कविता में आने वाले बदलावों को रेखांकित
करने की कोशिश शायद नहीं हुई। केवल नक्सलवाड़ी आंदोलन के असर को लेकर कुछ
टिप्पणियाँ की गईं। उनमें भी ज़्यादातर नकारात्मक टिप्पणियाँ हैं। वास्तव में
भारतीय समाज में आज़ादी के बाद सबसे बड़ा बदलाव 1965
में आया था। 1962 की लड़ाई में हालाँकि सरकार ने उतने
गोला-बारूद और पेट्रोलियम आदि खर्च नहीं किये, जितने
कि इस प्रकार के सीमा युद्ध में होते हैं और मृत सैनिकों को मुआवज़े भी नाम मात्र
के ही दिये गए फिर भी अर्थव्यवस्था की कमर टूट ही गई। रही-सही कसर 1965
में पाकिस्तान-युद्ध ने पूरी कर दी। इन सबका नतीजा था, 1965 का
वह भयावह अकाल, जिसने कम से कम हिंदी-पट्टी को बहुत बुरी तरह
प्रभावित किया। इसके बहुत सारे पक्षों पर तो लिखा जा चुका है और जो नहीं भी लिखा गया
है, उस पर अलग से विचार अपेक्षित है, लेकिन
एक पक्ष जिसका जि़क्र यहाँ ज़रूरी है, वह यह कि इस अकाल के दौरान भारतीय समाज
का ज़बरदस्त नैतिक पतन हुआ। इसका एक छोटा सा उदाहरण मैं यहाँ देना चाहूँगा।
मेरे ननिहाल के गाँव, जहाँ
मैं रहता था और आसपास के इलाके में 1960 के दशक की शुरुआत में विद्युतीकरण
आरंभ हो गया था, लेकिन युद्ध के बाद गति काफी धीमी हो गई थी, जहाँ-तहाँ
सड़क किनारे लकड़ी के विशाल चक्के पर लपेटे बिजली के बड़े-बड़े केबल रखे पड़े थे।
उनकी कोई रखवाली भी नहीं की जाती थी। बस लोगों के बीच एक एहसास था कि यह सरकारी
संपत्ति है और इसे छूना नहीं है। 1965 के पहले तक तो सचमुच उन्हें कोई छूता नहीं था।
कुछ दुस्साहसी बच्चे कौतूहलवश तार काटने की कोशिश भी करते तो कोई न कोई उन्हें भगा
देता। लेकिन 1965 में लोगों ने छोटे-मोटे कामों, जैसे
कि बैलगाड़ी के जुए को बाँधने अथवा अलगनी के लिए केबल काटने लगे। शुरू-शुरू में
लोग ज़रूरत भर तार ही ले जाते थे,
लेकिन धीरे-धीरे इसने सार्वजनिक
संपत्ति की चोरी का रूप ले लिया। आज हालत यह है कि सुनसान इलाके से लोग पोल के ऊपर
चढ़ कर तार काट कर ले जाते हैं,
इसके चलते कई इलाकों में महीनों बिजली
गायब रहती है और कभी-कभी तो तार जोडऩे में वर्षों लग जाते हैं।
समाज के इस नैतिक पतन को अकविता आंदोलन
से जोड़ कर देखा जाए तो उस दौर की कविता का नया पाठ बन सकता है। ठीक है कि उस
आंदोलन में फैशनपरस्ती भी थी लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि राजकमल चौधरी को विश्व स्तर
पर चल रहे कविता के नए-नए आंदोलनों और प्रयोगों की जितनी व्यापक जानकारी थी उतनी
ही गहरी ग्रामीण जीवन और समाज के बदलते यथार्थ की समझ भी थी।
(चित्र : राजकमल चौधरी)
अकाल और कमज़ोर नेतृत्व के चलते 1967 के
आम चुनाव में कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। केंद्र में बमुश्किल
उसकी सरकार बन पायी और उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम
बंगाल सहित कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। यह बहुत बड़ा परिवर्तन था।
हिंदी पट्टी में इस परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण था, समाजवादी
आंदोलन के साये में पिछड़ा वर्ग का उदय। हालाँकि उसके कुछ ही दिनों बाद डॉ. राममनोहर
लोहिया का निधन हो गया, लेकिन एक ऐतिहासिक दायित्व तो उन्होंने पूरा कर
ही दिया था। हिंदी कविता पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। उसके पहले भी पचास के दशक के
कई महत्त्वपूर्ण कवि लोहिया के मित्र और अनुयायी थे, जिनमें
रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मीकांत
वर्मा आदि तो थे ही, विजयदेव नारायण साही जैसे कवि आलोचक भी
प्रगतिशील लेखक संघ से अलग होकर लोहिया के प्रभामंडल में आ गए थे। ये सभी कवि-लेखक
लोकतंत्र को विस्तार देने और उसे उत्पीडि़त जनों की अस्मिता से जोडऩे के रचनात्मक
उपक्रम में शामिल थे। आगे चल कर आपातकाल में जब लोकतंत्र सबसे ज़्यादा कमज़ोर हुआ
तो रघुवीर सहाय उसके प्रतिकार के सबसे बड़े कवि के रूप में सामने आए और सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना ने नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित हो कर 'कुआनो
नदी’ जैसी कविता लिखी। इसीलिए 1950 के
दशक के ये दो कवि परवर्ती दौर में भी चर्चा के केंद्र में रहे।
(चित्र : सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना)
1967 में बनी पश्चिम बंगाल की गैर-कांग्रेसी सरकार
में माकपा सबसे बड़ा घटक दल थी और ज्योति बसु राज्य के गृहमंत्री थे। उसी समय
पार्टी के सिलीगुड़ी जि़ला सचिव चारु मजूमदार के निर्देशन और स्थानीय नेता, शायद
अंचल सचिव, कानु सान्याल के नेतृत्व में नक्सलवाड़ी गाँव
के संथाल किसानों ने बंगाली जमींदार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। संथालों पर
बंगाली जमींदार तब अमानुषिक अत्याचार करते थे। गाँव में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे
थे माकपा कार्यकर्ता, जंगल संथाल। इस आंदोलन का अध्ययन अलग से किया
जाना चाहिए। लेकिन यहाँ केवल इतना बताना प्रासंगिक होगा कि देश के मध्यवर्गीय
बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से में इस आंदोलन ने मज़दूरों और किसानों के संघर्ष
के प्रति नई आस्था पैदा की। इसका बहुत ही सकारात्मक प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा।
कहानी में गाँव की वापसी हुई। धूमिल और लीलाधर जगूड़ी जैसे कवियों ने अकविता के
वृत्त को तोड़कर कविता के राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों का विस्तार किया। कुमार
विकल, आलोकधन्वा, ज्ञानेन्द्रपति
और गोरख पांडेय जैसे तब के युवा कवि ही इससे नहीं जुड़े, बल्कि
नागार्जुन, त्रिलोचन और विजेन्द्र जैसे वरिष्ठ कवियों पर
भी इस आंदोलन का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। नई कविता और अकविता आंदोलनों द्वारा
विस्थापित कर दी गई प्रगतिशील धारा एक नई ज़मीन पर अवतरित हुई। लेकिन 1972
में बंगाल में सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेसी सरकार बनने के बाद चलाये गए दमन
अभियान ने आंदोलन की कमर तोड़ दी और इसमें शामिल मध्यवर्ग की कुछ खामियाँ भी सामने
आईं। उसके बाद यह मज़दूर किसान आंदोलन के रूप में नई अवधारणा के साथ सीमित दायरे
में विकसित हुआ और आगे चल कर 'भोजपुर’ इस
उभार का एक नया प्रतीक बन कर सामने आया। लेकिन 1973 और
‘74 के दमन के बाद मध्य वर्ग का इससे मोहभंग हो
गया। इसी बीच 1971 के संसदीय और 1972 के
विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्तारुढ़ कांग्रेस से गठबंधन
कर लिया था। सत्ता से शक्ति पा कर प्रगतिशील गोलबंद हुए। 1973
में गया में हुए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रगतिशील लेखक संघ का पुनर्गठन किया
गया। फिर एक नई 'समाजवादी’ कविता
की शुरुआत हुई जिसे आठवें दशक की कविता के रूप में जाना गया। गौरतलब यह भी है कि
इस अभियान के दौरान मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी अलग रास्ते पर चलते हुए अपना
संघर्ष कर रही थी, लेकिन हिंदी पट्टी पर उसका प्रभाव तब नगण्य ही
था। 1977 में पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार
बनने और कांग्रेस-भाकपा गठजोड़ के बुरी तरह पिट जाने के बाद ही हिंदी के
बुद्धिजीवियों पर माकपा का प्रभाव पड़ा। उसके समर्थक लेखकों ने 1978
में दिल्ली के सत्यवती कॉलेज में एक सम्मेलन का आयोजन किया और जनवादी लेखक संघ की
नींव डाली। हालाँकि जलेस का गठन चार वर्षों के बाद 1982
में हो सका, लेकिन आठवें दशक वाली पहचान के साथ कुछ कवि तभी
इससे जुड़ गए। उस दौर में कुछ ऐसे कवि भी सामने आये जो विचार के स्तर पर तो
नक्सलवाड़ी आंदोलन से उपजे मज़दूर-किसान संघर्षों के साथ थे लेकिन कविता का उनका
धरातल-भिन्न था—जिस पर नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन
का नहीं, बल्कि मुक्तिबोध और शमशेर का प्रभाव था।
इन्होंने एक नई ज़मीन तोड़ी जो कि आठवें दशक की कविता की सबसे मज़बूत ज़मीन थी, लेकिन
बहुत दिनों तक उन्हें मान्यता नहीं मिली। इनमें ज्ञानेंद्रपति, मंगलेश
डबराल और वीरेन डंगवाल प्रमुख थे। आगे चल कर यह श्रेय असद ज़ैदी को जाता है कि
उन्होंने बहुचर्चित साहिबाबाद सम्मेलन में पढ़े अपने आलेख में अपना मुख्य
प्रतिपक्षी केवल 'युवा आक्रोश’ वाली
नक्सल प्रभावित कविता को बनाया और शेष तीन धाराओं को आठवें दशक की छतरी के नीचे
एकत्र कर लिया। तब तक वाममोर्चा बन चुका था और भाकपा माकपा के छोटे पार्टनर के रूप
में उसमें शामिल हो चुकी थी, सो भाकपा समर्थक लेखकों को भी इसको लेकर कोई
आपत्ति नहीं हुई। गौरतलब है कि इनकी एकता का आधार साम्राज्यवाद विरोध और
सांप्रदायिकता विरोध से कहीं ज़्यादा नक्सलवाद विरोध था जो सदी के अंत तक आते-आते
विचारधारा विरोध में बदल गया।
यह सही है कि नौवें दशक की कविता में
राजनीतिक सरोकार कमज़ोर पड़े और उत्सवधर्मिता बढ़ी, लेकिन
यह भी सच है कि इस दौरान सामाजिक सरोकारों का विस्तार हुआ। पहली बार स्त्री, दलित
और आदिवासी को कविता में ठीक-ठाक जगह मिली। इसके पहले स्त्रियों की सांकेतिक
उपस्थिति तो राष्ट्रवादी आंदोलन से अकविता तक के विभिन्न काव्यांदोलनों में थी, लेकिन
आठवें दशक की कविता पूरी तरह मर्दवादी-सवर्णवादी है। यहाँ तक कि लीलाधर मंडलोई, ओमप्रकाश
वाल्मीकि और अनामिका जैसे 1970 के दशक में लिखना शुरू करने वाले कवियों को भी
पहचान नौवें दशक में आ कर ही मिली।
(चित्र : विजेन्द्र)
नौवें दशक की कविता की एक खास विशेषता
यह भी है कि इसने किसान चेतना की अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रतिरोध को एक नए धरातल
पर खड़ा किया। 1962 में प्रकाशित 'अभी
बिल्कुल अभी’ के बाद केदारनाथ सिंह का दूसरा संग्रह 'ज़मीन
पक रही हैं’ 18 वर्षों के बाद 1980
में आया। नई पीढ़ी पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। रघुवीर सहाय के प्रभाव में (और नक्सल
विरोध के चलते) हिंदी की कविता और काव्यभाषा बेहद शहरी हो गई थी—उसे
नए कवियों ने पूरी तरह बदल दिया। एकांत श्रीवास्तव, बोधिसत्व, निलय
उपाध्याय, अष्टभुजा शुक्ल, बद्रीनारायण
और हरीश चन्द्र पांडे जैसे कवि सामने आए। हालाँकि भाषा के स्तर पर इस बदलाव की झलक
आठवें दशक के कवि अरुण कमल की कविताओं में भी मिलती है। दूसरी तरफ अनामिका भी पहले
से ही अपनी काव्य-भाषा में बदलाव ला रही थीं लेकिन चर्चा में वे एकांत, बोधिसत्व
आदि के साथ ही आ सकीं। इसके अलावा नौवें दशक में कुमार अंबुज, विमल
कुमार, कात्यायनी, सविता
सिंह आदि जैसे नागर जीवन के समर्थ कवि भी सामने आए। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है
कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह की पीढ़ी के बाद
के पाँच महत्त्वपूर्ण कवि इसी दौरान व्यापक स्तर पर चर्चा में आ सके। ये कवि हैं—चंद्रकांत
देवताले, विजेंद्र, विनोद
कुमार शुक्ल, विष्णु खरे और ऋतुराज। इन कवियों ने लिखना तो
सन् 1960 के दशक में ही शुरू कर दिया था। लेकिन आठवें
दशक में इनकी घोर उपेक्षा हुई। इतना ही नहीं, लीलाधर
जगूड़ी, ज्ञानेंद्रपति, कुमार
विकल और वेणुगोपाल जैसे एक समय के चर्चित कवियों की वापसी भी नौवें दशक में हुई।
नौवाँ दशक बेहद संक्रमण का दशक था। प्रख्यात इतिहासकार ऐरिक हाब्स बाम ने बीसवीं
सदी का इतिहास लिखते हुए 1973 से 1990 की अवधि को भूस्खलन का काल कहा है। इस
भूस्खलन का असर भारत में नौवें दशक में ही आ सका जब सोवियत संघ के 'ग्लासनोस्त’ और 'परोस्त्रोइका’ को
लेकर बहसें शुरू हुईं। सत्ता में इंदिरा गांधी की वापसी तो हुई लेकिन पंजाब के
पृथकतावादी आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया। पूर्वोत्तर के नृजातीय समूहों की समस्याएँ
लगातार गंभीर होती गई और भारत में कई स्तरों पर अस्मिताओं की टकराहटों की शुरुआत
हुई। पिछड़ी जाति का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ा और मंडल कमीशन की सिफारिशों की
स्वीकृति के बाद उनकी सामाजिक हैसियत भी बदली। इन सबका प्रभाव कथा साहित्य पर
व्यापक और कविता पर आंशिक रूप से पड़ा।
(चित्र : हरीश चन्द्र पाण्डे)
उस भूस्खलन की ही परिणति थी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोवियत संघ का विघटन और राष्ट्रीय स्तर पर बाबरी मस्जिद विध्वंस। उसके बाद समाज के साथ-साथ साहित्य में सांप्रदायिकता एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आई। उस दौर में कुछ कवियों के अंदर का ब्राह्मणवाद जागृत हुआ और मुसलमानों और बाबरी विध्वंस को लेकर कुछ बहुत ही विवादास्पद कविताएँ लिखी गईं। हालाँकि पूर्ववर्ती पीढ़ी के कुछ कवि आलोचकों ने ऐसी कविताओं के औचित्य निरुपण की भरपूर कोशिशें कीं, लेकिन अंतिम दशक के नए कवियों ने उन्हें नकार दिया। उसी समय (शायद कुछ बाद में) बोधिसत्व ने 'पागलदास’ जैसी कविता लिखी, जिसमें मनुष्यता के नए सूत्र तलाशने का उपक्रम दिखा और यह कविता आगे के लिए एक आदर्श बनी। सदी के अंतिम दशक में सामने आये श्रीप्रकाश शुक्ल, पवन करण, जितेंद्र श्रीवास्तव, निरंजन श्रोत्रिय, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी, प्रताप राव कदम, आशुतोष दुबे, प्रेमरंजन अनिमेष, सुंदरचंद ठाकुर, हरिओम राजोरिया, प्रेमचंद गांधी, केशव तिवारी, अनवर शमीम, शशिभूषण द्विवेदी, शहंशाह आलम, मुकेश मानस, रमेश प्रजापति, शिरीष कुमार मौर्य, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, मोहन कुमार डेहरिया, महादेव टोप्पो, सुरेश सेन निशांत, आत्मा रंजन, सरिता सिंह बराइक, महेशचंद्र पुनेठा आदि कवियों ने अंबुज, एकांत, बोधिसत्व आदि की सांप्रदायिकता विरोधी और लोकधर्मी धारा को ही आगे ले जाने का उपक्रम किया। इनमें से कुछ आठवें दशक के अपनी पसंद के कवियों से सीधे जुड़े लेकिन नौवें दशक के दो-तीन कवियों के हेटिंग्टन के 'सभ्यताओं के संघर्ष’ से प्रभावित विवादास्पद विमर्शों और दुर्दांत शिल्प प्रयोगों से प्राय: सबने अपने को दूर ही रखा। इस तरह सदी के अंत में कविता मनुष्यता के पक्ष में बनी और बची रही। हालाँकि, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व नई सदी की कविता में ही संभव हो सका, इसीलिए इसे कविता की नई सदी भी कहा जा सकता है। इस पर आगे विस्तार से विचार करना ज़रूरी है।
संपर्क :
एफ-3/सी-78, शालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2,
गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)
मोबाईल- 09999154822
ई-मेल : madankashyap@gmail.com
मदन जी के इस आलेख या डॉक्यूमेंटेशन से एक समझ विकसित होती है और खास तौर पर मुझ जैसे पाठक को तो अपने आपको अपडेट करने में आवस्यक मदद मिलती है.
जवाब देंहटाएंमदन पाल सिंह
आदरणीय मदन जी के सुचिंतित आलेख में यदि विभिन्न दौर के अनेकानेक कवियों की नामावली प्रस्तुत कर देने के बजाए यदि हर दौर की कुछ उल्लेखनीय कविताओं का एक रचनाकार की दृष्टि से आलोचनात्मक विश्लेषण भी मौजूद होता तो संभवत: ज्यादा बेहतर होता. यह इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि मदन जी का मानना है कि अब तक 'हिन्दी की दरिद्र आलोचना में कविता को समय के साथ जोड़कर देखने का कोई उपक्रम हुआ ही नहीं है." उम्मीद है कि वे इस बाबत कुछ न कुछ ज़रूर लिखेंगे.
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