अमरकान्त जी पर शिवानन्द मिश्र का संस्मरण 'आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!’
अमरकान्त जी हमारे लिए सिर्फ लेखक ही नहीं बल्कि हम सब के अभिभावक भी थे। हम सब उन्हें सम्मान और आत्मीयता से दादा कहते थे। वे हमसे उसी अधिकार से बातें भी करते थे जैसे घर का बुजुर्ग किया करता है। जब भी उनसे भेंट होती वे हमसे बलिया के बारे में जरुर पूछते। वे उस घर के बारे में भी जरुर पूछते जिसमें बैठ कर उन्होंने हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य की उत्कृष्ट कहानियाँ लिखीं। उनकी बातों में उनका बलिया, नगरा और भगमलपुर जरुर आता। फिर वे कविता-कहानी की बात करते। कथाकार रवीन्द्र कालिया विश्व के जिन चार उत्कृष्ट कथाकारों का जिक्र करते हैं उनमें चेखव, अर्नेस्ट हेमिग्वे और मंटो के साथ अमरकान्त का नाम शामिल है। अमरकान्त जी आज हमारे बीच नहीं हैं। पिछली फरवरी हम सब के लिए क़यामत ले कर आई और दादा सत्रह विगत फरवरी को हमें अकेले छोड़ कर उस सफ़र पर निकल गए जिससे आज तक कोई भी वापस नहीं लौटा। आज उनके नवासीवें (89वें) जन्मदिन पर हम उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कथाकार शिवानन्द मिश्र का यह संस्मरण
'आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!’
शिवानन्द मिश्र
अमरकांत जी का
हमारे बीच से जाना मुझे उस दिन की याद दिला गया जब मैं उनसे पहली बार मिला था।
मैंने उनके प्रति लिखी कुछ पंक्तियाँ एक पन्ने पर नोट कर ली थीं। मैंने वो पन्ना
अमरकांत जी को पढ़ने को दिया। उसमें लिखा था,
वट वृक्ष सा
अवलम्ब दें, हम लता सम लग बढ़ चलें।
पारस सदृश सानिध्य
से बिन ज्ञान भी प्रतिमान हम कुछ गढ़ चलें।।
प्रतिक्रिया थी,
‘अच्छा! .......... आपने लिखी है? देखें।‘ एक बाल सुलभ
निश्छल मुस्कान के साथ पढ़ते रहे। कहा, ‘अच्छी है। अवलम्ब मत लीजिए, खुद आगे बढ़िए।‘ फिर वही निश्छल
मुस्कान। पंक्तियाँ अच्छी हैं मेरे लिए तो यही टिप्पणी बहुत थी। मुझे गुरूमंत्र
मिल गया था। मैं खुश था। मैं बोला, ‘लेकिन आपके स्नेह का सदा आकांक्षी रहूँगा।‘ इस बार हंसे।
फिर तो अमरकांत जी
के नेह छॉव में जुड़ाने का अवसर सहज ही सुलभ होता रहा। मैं उनके यहाँ जब भी जाता,
मुझ जैसे साधारण
व्यक्ति से भी उसी आत्मीयता से मिलते, जैसे कोई अपने परिजनों से मिलता है। उनसे
मिल कर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं हिंदी साहित्य के इतने बड़े हस्ताक्षर से मिल
रहा हूँ जिसके सामने मेरी कोई हैंसियत नहीं। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे हर
छोटे-बड़े के साथ बड़ी ही आत्मीयता के साथ मिलते थे। बड़े ही सहृदय व्यक्ति थे
अमरकांत जी। सच पूछिए तो आज के दौर में ऐसे लोगों का मिलना मुश्किल है जिन्हें
घमंड छू तक न गया हो।
ऐसा कभी नहीं हुआ
कि मैं उनके यहाँ गया होऊँ और उनसे बिना मिले वापस आना हुआ हो। इस बात के लिए उनके
कनिष्ठ पुत्र अरविन्द विंदु और उनकी पुत्रवधू रीता जी का सदा ऋणी रहूँगा। अमरकांत
जी को जैसे ही इस बात की भनक लगती कि मैं उनके यहाँ पहुँचा हूँ, वे खुद ही अंदर से
तखत और कुर्सियों का टेक लेते हुए धीरे-धीरे बैठक वाले कमरे में आ जाते। पूछते,
‘और बताइए, क्या हाल है बलिया का?’ बात कुछ इस तरह से शुरू होती और फिर मेरे अंदर का पाठक,
लेखक अमरकांत की
रचनाओं की चर्चा करने का मोह त्याग नहीं कर पाता। मैं किसी रचना से एक दृश्य चुनता,
उसके शिल्प और
उसकी रचना प्रक्रिया के बारे में अपनी उत्सुकता जाहिर करता। फिर वही बाल-सुलभ
निश्छल मुस्कान हृदय उपवन से ताजगी लिए आती और चेहरे पर स्पष्ट छा जाती। अब
अमरकांत जी वाचक और हम स्रोता की स्थिति में होते। आँखें उनको बोलते हुए देख कर
अघातीं और कान सुन कर तृप्त होते रहते। अमरकांत जी के पास स्मृतियों की अकूत सम्पदा
थी। और जबर्दस्त याददास्त के मालिक थे अमरकांत जी। एक-एक घटना पूरी तफ्सील से बयान
करते। इसके पीछे उनका हर छोटी-बड़ी घटना का सूक्ष्मावलोकन छिपा है। यूँ ही बात-बात
में एक दिन अमरकांत जी जयदत्त पंत जी के साथ बिताए दिनों को याद कर रहे थे। जयदत्त
पंत जी इलाहाबाद में ही पहाड़ी लोगों के एक लॉज में रहा करते थे और कुछ महीने
अमरकांत जी ने वहाँ उनके साथ बिताए थे। वहीं एक पहाड़ी रहा करते थे खेमानन्द जोशी।
उन्हीं दिनों उनकी पत्नी पहले-पहल पहाड़ से आयी थीं। वो जब चलती थीं तो उनका पैर
हमेशा थोड़ा ऊपर उठ जाता था। अमरकांत जी ने इसे गौर किया और जब ये बात उन्होंने पंत
जी ओर जोशी जी से बताई तो वे लोग हॅसने लगे। उन्होंने बताया कि पहाड़ों पर
ऊँचे-नीचे रास्ते होते हैं और चलते समय हमेशा चढ़ना-उतरना पड़ता है, ऐसे में उनकी
पत्नी को भी थोड़ा पैर उठा कर चलने की आदत पड़ गई है और अब मैदान में भी चलती हैं तो
पैर थोड़ा उठ जाता है। सच्चाई चाहे जो रही हो, एक बात जरूर थी कि
अमरकांत जी का अपने आसपास होने वाली हर छोटी-बड़ी बात पर बड़ा ही ‘क्लोज ऑब्जर्वेशन’ होता था और वे अपने लेखन में उन्हें बड़ी ही खूबसूरती के साथ
पिरोते थे। अमरकांत जी ने अपनी कहानी ‘कलाप्रेमी’ में सुमेर की
मालती रंजन से पहली मुलाकात में मालती रंजन को प्रभावित करने की सुमेर की चेष्टाओं
का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है- ‘पहली ही मुलाकात में उसने बीमा कंपनी के एजेंट, कमजोर शिष्य,
अंग्रेजी के
प्रोफेसर और सियार के गुणों का अद्भुत मिला-जुला प्रदर्शन किया।‘ ऐसा वर्णन वही कर सकता है जिसने ऐसी मुलाकातों में मिलने
वालों के हाव-भाव को गहराई से पढ़ा हो।
हर चीज को
सूक्ष्मता से देखने और उसका विस्तार से आद्योपांत वर्णन अमरकांत की खासियत थी।
नामवर सिंह कहते हैं ‘मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि कोई भी कला ब्यौरे में, डिटेल्स में होती
है। अमरकांत भी उसी विस्तार में जाते हैं इनकी कहानियॉं पूरे शरीर में होती हैं।‘ अमरकांत ने जब भी लिखा उसमें पूर्णता रखी। कुछ छूटने न पाये,
इस भाव से। मजे
ले-ले कर। जैसे, किसी रचना का पात्र उपवन में खड़ा है तो उपवन की खुशबू पाठक
तक भी पहुँचे, इस भाव से। पात्र को कोई कांटा चुभता है तो उसकी चुभन पाठक
तक भी पहुँचे। इस विस्तार में वो पात्र के मनोभावों तक पहुँचते हैं और पाठक से उसे
एकाकार कराते हैं। जो पात्र सोच रहा है, पाठक सोचे, वहॉं तक पहुँचे।
याद करिए ‘ग्रामसेविका’ के लखना को । पॉंच साल का, बिन मॉं का बच्चा
शरारत करता है और अपने पिता की मार से बचने के लिए गॉंव से दूर, तालाब किनारे छिप
जाता है। फिर उसका अकेले तालाब में तैरना, पीपल की डाल पर बैठ कर बेवजह पैर
हिला-हिला कर खुशी प्रकट करना। लेखक पूरे तफ्सील में जा कर पात्रों की हर छोटी-बड़ी
गतिविधियों के माध्यम से पात्र की सोच और मनोदशा से पाठक को एकाकार कराता है।
ऐसी कितनी ही
अनौपचारिक मुलाकातों में मुझे अमरकांत जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है। मसलन,
एक बार मैंने
अमरकांत जी के उपन्यासों पर कुछ लिखा था और जब उन्हें पढ़ने को दिया तो उन्होंने
हंसते हुए कहा, ‘आपने तो इसमें मेरे लिये बहुत अच्छा-अच्छा लिख दिया है।‘ मैंने कहा, ‘ये जो कुछ भी लिखा है, श्रद्धावश है और मैं आलोचनात्मक नहीं हो पाया हूँ।‘ बड़ी ही बेबाकी से उन्होंने कहा, ‘कोई भी चीज
श्रद्धा या घृणा से नहीं लिखी जा सकती। उसके लिए निष्पक्ष होना पड़ता है।‘ ये सारे
सूत्रवाक्य मैंने आज भी गाँठ बांध कर रखे हैं। एक बार उन्होंने पूछा था मुझसे कि
कब लिखते हो? मैंने कहा जब मूड होता है तभी लिखता हूँ। डाँटते हुए
उन्होंने कहा था, मूड का क्या है? मूड तो बनाने से बनता है। मैंने ‘जिंदगी और ज़ोंक’ और ‘डिप्टी कलक्टरी’ जैसी कहानियाँ बलिया
में अपने बैठक के कमरे में खिड़की के पास चारपाई पर बैठे-बैठे लिखी है। खिड़की,
बाहर बरामदे में
खुलती थी जहाँ मेरे पिता जी मुवक्किलों से बात करते थे। बाहर शोर-शराबा होता रहता
था और मैं अंदर बैठ कर लिखता था। जब शोर ज्यादा होने लगता था तो मैं खिड़की अंदर से
बंद कर लेता था। इतनी विपरीत परिस्थिति तो नहीं ही रहती होंगी? रोज लिखा करो।
इससे प्रवाह बना रहता है। अच्छे-अच्छे शब्द सहज रूप से आते हैं। अमरकांत जी नये
शब्दों के गढ़न को लेकर भी जागरूक किया करते थे। उनका कहना था कि नये शब्दों का गढ़न
भी साहित्यकार की जिम्मेदारी बनती है। याद करिये –‘ जिंदगी और जोंक’ में मरणासन्न रजुआ के प्रति भीड़ की ‘अकर्मण्य सहानुभूति’। यहाँ ‘अकर्मण्य सहानुभूति’ भीड़ का चरित्र स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। एक ‘शब्द’ और पूरी मनोदशा, सोच और वातावरण का चित्र पाठक के समक्ष
साकार, ये अमरकान्त ही कर सकते हैं।
और वैसे भी
अमरकांत जी ने जो कर दिखाया वो अमरकांत ही कर सकते थे। नामवर सिंह जी के शब्दों
में कहें तो वह ऐतिहासिक घटना थी जब ज्ञानपीठ पहली बार पुरस्कार देने के लिए खुद
दिल्ली के तख्त से उतर कर इलाहाबाद आया। कुंआ खुद चल कर प्यासे के पास आया।
13 मार्च 2012 की शाम मैं नहीं
भूल सकता। इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में तिल रखने की जगह नहीं थी। अवसर वर्ष 2009 के ज्ञानपीठ
सम्मान से अमरकांत जी को सम्मानित किए जाने का था। सभागार हिन्दी के नामचीन
रचनाकारों, आलोचकों, साहित्य प्रेमियों और मीडियाकर्मियों से खचाखच भरा हुआ था।
ज्यादातर लोगों को बैठने की जगह तक नहीं मिली थी लेकिन इसका मलाल किसी के चेहरे पर
नहीं था। लोगों में खुशी इस बात की थी कि वे अपने प्रिय लेखक को सम्मानित होता हुआ
देख रहे थे। इस अवसर पर उनकी कही बातें कई मायनों में आने वाली पीढ़ियों को सीख दे
गई जैसे, ‘पुरस्कार लेखक के
लिए चुनौती है। संतोष की मंजिल नहीं है वो। बल्कि उस चुनौती को स्वीकार करते हुए
अगले कदम बढ़ाने जरूरी होते हैं। पुरस्कार का यही मतलब हो सकता है एक लेखक के लिए।‘
अमरकांत जी उस दिन
काफी लय में थे। उन्होंने कहा कि जब मैंने लिखना शुरू किया तो अंग्रेजी का जमाना
था। सारी पाठ्य पुस्तकें अंग्रेजी में थी और हिन्दी को कोई पूछने वाला नहीं था। जो
हिंदी पढ़ाते थे वे भी संस्कृत पढ़ाने वाले थे और संस्कृत के ही तरीके से हिंदी
पढ़ाते थे। हम लोगों ने जब लिखना शुरू किया था तो स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ हिंदी
थी।
उसी रौ में
अमरकांत जी बोलते रहे, ‘हिंदी को बड़ी हीनता की दृष्टि से देखा जाता है यहाँ पर। आप देख लीजिए अंग्रेजी
के जितने अखबार हैं, इस ज्ञानपीठ पुरस्कार के बारे में कहीं चर्चा ही नहीं है।
आज भी देख लीजिए शासन से लेकर हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी की उपेक्षा
हो रही है। क्या हिन्दी में सोचा नहीं सोचा जाता या लिखा नहीं जाता या किताबें
नहीं लिखी जाती या सिर्फ नकल ही की जाती है अंग्रेजी की? यहाँ मौलिक लेखन
भी हो रहा है, मौलिक रूप से हिंदी में सोचा भी जा रहा है। बहुत तरह की
किताबें भी लिखी जा रही हैं। इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए।’
ऐसी ही बेबाकी से
अपनी बात रखते थे अमरकांत जी। अभी पिछले साल, दिसम्बर माह में
कवि निलय उपाध्याय जी का इलाहाबाद आना हुआ था। निलय जी के साथ कवि हरिश्चन्द्र
पाण्डे और मैं, तीनों अमरकांत जी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे।
बातों-बातों में निलम जी ने अमरकांत जी से पूछा कि, ‘अब तो लगभग सभी साहित्यकार या तो दिल्ली चले गये या फिर
इधर-उधर। एक समय था जब इलाहाबाद दिग्गज साहित्यकारों से भरा था। आप अब के इलाहाबाद
को कैसे देखते है?’ अमरकांत जी का ठसक भरा जवाब था, ‘वे आज भी यहीं
(इलाहाबाद) का मुँह देखते हैं!’
आज अमरकांत जी
हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने पीछे जीता-जागता विशाल रचना संसार छोड़ गये हैं
हमें राह दिखाने को।
सम्पर्क-
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