अस्मुरारी नंदन मिश्र का आलेख 'ईदगाह : एक पुनःपाठ'
प्रेमचंद हमारे वे पुरोधा हैं जो बार-बार याद आते हैं. हिन्दी साहित्य को पढने वाला शायद ही कोई ऐसा होगा जो प्रमचंद से अपरिचित होगा. दरअसल हमारे आधुनिक कहानी-साहित्य की शुरुआत ही प्रेमचंद से होती है. आम जीवन के विविध प्रसंगों को जिस तरह उन्होंने अपनी कहानी का विषय बनाया है, वह हमें बरबस ही अपनी लगती हैं. होरी की मुसीबतें आज भी बढ़ी ही हैं. हामिद जैसा बच्चा जो गरीबी में जन्मा और पला-बढ़ा होता है, मेले से अपने लिए कोई खिलौना नहीं बल्कि अपनी दादी के लिए चिमटा लाता है. दरअसल वे परिस्थितियाँ ही होती हैं, जिनके अनुसार हम सोचने के विवश होते हैं. गरीबी का दंश झेल रहे बच्चे अपने जीने के लिए संघर्ष करते सड़कों किनारे चाय देते, खाना खिलाते या बर्तन साफ़ करते आज भी दिख जाएंगे. प्रेमचंद इसीलिए आज भी प्रासंगिक हैं कि वे परिस्थितियाँ कमोबेस आज भी जैसी की तैसी बनी हुई हैं, जो उनके समय में थीं और जिनको उन्होंने अपनी कहानी का आधार बनाया था. युवा कवि अस्मुरारी नंदन मिश्र, ने प्रेमचंद जयंती के अवसर पर पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा है. प्रेमचंद को आज इकतीस जुलाई के दिन विशेष तौर पर याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह आलेख।
ईदगाह : एक पुनःपाठ
अस्मुरारी नंदन मिश्र
समाज के एक वर्ग को उसकी जरूरतें और मजबूरियाँ चलाती हैं — चलाती आयी हैं। उसकी प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया, भावना – संवेदना, आशा – आकांक्षा पर इस
मजबूरी की नकेल है। यह जरुरत कभी भय का रूप लेती है, कभी उम्मीद
का, तो कभी मजबूरी का। और इसमें चक्कर काटता रहता है
समाज का यह दीन हीन वर्ग। प्रेमचंद की कहानी ईदगाह इस सच का खुला दस्तावेज है।
पाँच साल का बालक हामिद ईदगाह
के मेले से अपने शौक, पसंद और उत्साह की कोई चीज नहीं खरीद पाता। खरीदता
है तो अपनी बूढ़ी दादी के लिए एक चिमटा। हामिद के बालपन पर उसकी विपन्नता लदी हुई है, जो उसे समय
के पहले ही गम्भीर, चिंतनशील , समझदार और
तार्किक बना देती है। चमक-दमक, तड़क- भड़क और समृद्धि नहीं ले
पाती है, लेती है तो गम्भीरता, समझदारी और
तार्किकता। यह स्थिति विपन्नता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, किंतु क्या
प्रेमचंद इस प्रतिक्रिया के द्वारा कुछ हल भी प्रस्तुत करना चाहते हैं, कोई संदेश
भी देना चाहते हैं? क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रेमचंद कह रहे हों— जब बाजार अपने पूरे चकाचौंध से तुम्हारी आँखों को अंधा करने लगे तब तुम
वहाँ अपनी सबसे असल जरुरत को याद करो। यही मूलभूत आवश्यकता की चेतना तुम्हें बाजार
की चमक – दमक से लड़ने में मदद करेगी। मुक्तिबोध की कविता को
याद करते हुए कहा जाये तो इसे ही वर्ग चेतना कह सकते हैं। शायद उनकी ‘परम अभिव्यक्ति अनिवार आत्मसम्भवा’ कुछ ऐसी ही रही
होगी।
इस दीन हीन वर्ग को नचाने वाली
जरुरतें किसी और वर्ग के इशारों पर नाचती हैं। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो एक वर्ग
दूसरे वर्ग को कठपुतली की तरह नचाता है और नाच देख कर तालियाँ बजाता है। प्रेमचन्द
इसे भी देखते हैं। वे उस वर्ग की कहानी लिखने बैठे हैं , जिनके ईद और मुहर्रम में कोई खास दूरी नहीं है। और इस दूरी को संचालित
करता है समाज का दूसरा वर्ग। सच यही है कि – ‘’चौधरी आज आँखें बदल ले तो सारी ईद मुहर्रम हो जाये।‘’ अमीना के लिए तो यह ईद भी भारी है—‘किसने बुलाया था
निगोड़ी ईद को।‘
ईदगाह कहानी में बच्चे मिठाई की
दुकानों में रखी मिठाइयों के सिलसिले में जिन्नात की बात निकाल देते हैं--- यह
जिन्नात सभी कुछ कर सकता है। बड़ा तो इतना कि सर आसमान से टकराता है, पर चाहे तो लोटे में रह सकता है, लेकिन इन जिन्नात
को वश में करने का मंतर मोहसिन और हामिद के पास नहीं है। ये तो चौधरी साहब की
अमानत हैं और उसकी हर तरह से मदद करते हैं। जुमराती के खोये हुए बछवा का पता जिन्न
की सहायता से ही चौधरी साहब ने बताया कि मवेशी खाने में है। प्रेमचन्द बड़ी
खूबसूरती से बच्चों की बातों ही बातों में पूरे शोषण तंत्र और उसके तरीकों को
खोलते चलते हैं। यह समझने में फिर दिक्कत नहीं आती है कि मवेशीखाने तक इस बछवा को
पहुँचाने वाला भी चौधरी साहब का जिन्न ही रहा होगा।
ईदगाह कोई बालकथा नहीं है, और न ही हामिद की कथा भर है। प्रेमचंद अपने चरित्रों और घटनाओं के माध्यम
से पूरे समाज को छेड़ते चलते हैं। बच्चों के संवाद पूरे जमाने की कहानी कहते हैं।
उन्हें यह जानकारी है — ‘’यह
कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो, अजी हजरत, यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर
डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं। रात को ये लोग चोरों से तो
कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’
पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं।“
उसी तरह शहर की मेमों से ये
लड़के अपनी अम्माजान की तुलना करने लगते हैं। मेमें बैट से खेलती हैं, जिन्हें घूमाते ही इनकी अम्मा शायद लुढ़क जायें। लेकिन क्या इनकी अम्माँ
इन मेमों से कमजोर हैं? नहीं —सैकड़ों
घड़े पानी निकालती हैं, मनों आटा पीस डालती है, और मोहसिन ने तो अपनी अम्मा को तेज दौड़ते हुए भी देखा है। इतना तेज कि वह
खुद उन्हें नहीं पा सका। किंतु यह दौड़ कब हुई, देखने की बात
वह है – जब उनकी गाय खुल कर चौधरी की खेत में जा पड़ी।
मुझे तो यही लगता आया है कि
प्रेमचंद की इस कहानी के भीतर कई कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ बृहत्कथा अथवा
पंचतंत्र की कहानियों की तरह एक दूसरे से श्रृंखला रूप में बद्ध और केवल किस्सागोई
के लिए नहीं हैं, बल्कि एक एक संदर्भ स्वयं एक कहानी कहता
जान पड़ता है। पाठक को इन कहानियों तक पहुँचाने के लिए लेखक बस एक संकेत का पत्थर
लगा देता है, ताकि वहाँ पहुँचने के लिए पाठक वह सब अनुभूत
करे जिसे लेखक ने देखा और अनुभूत किया है।
अब कहानी के दो दृश्यों की ओर
ध्यान दीजिए।
कल्पना कीजिए—एक दृश्य कि —मेला अपने पूरे शोर, चमक और आकर्षण के साथ लहरा रहा है। मन को अपने इंद्रजाल में उलझा
लेनेवाली सारी चीजें हैं—रंग, गंध, स्पर्श, ध्वनि, स्वाद सभी
अपने मोहक रूप में हैं। और इन सब की ओर पीठ फेरे हामिद एक हाथ में चिमटा लिये है-
काला और कुरूप चिमटा, तथा दूसरे हाथ से अपनी कुल निधि तीन
पैसे दुकानदार को भेंट कर रहा है।
यह दृश्य इस कहानी का अंतिम
दृश्य हो सकता था। नाटक या फिल्म में इसे फ्रीज कर दिया जाता। परिस्थिति अपनी सम्पूर्ण विडम्बना और विद्रूपता के साथ उस चिमटे को लिये हाथ में साकार
हो चुकी होती और हामिद के चेहरे पर तसल्ली के भाव।
मैं सोचता हूँ कि कहानी को यहीं
पर खत्म क्यों नहीं किया गया? क्या यह एक श्रेष्ठ अंत नहीं था? इसके लिए इस सीन को दुबारा- तिबारा देखता हूँ। यदि कहानी का अंत यहीं हो
जाता तो एक बड़ी बात शेष रह जाती — इस दृश्य में हामिद के
चेहरे पर उस तसल्ली के भाव को रहने दीजिए और उसकी उम्र बदलते जाइए। यह रहा छरहरा
बाँका जवान हामिद, फिर यह मूँछोंवाला प्रौढ़ हामिद और यह
झुर्रियोंवाला वृद्ध हामिद। तीनों चारों में कोई अंतर नहीं। तो क्या हामिद में
बचपना था ही नहीं? यदि सूक्ष्मता से देखा जाये तो बच्चे
हामिद में दादी से दुआ और गाँव में नाम पाने की उम्मीद भी रह सकती है, जो बड़े में नहीं आ सकती। दरअसल प्रेमचंद हामिद को वही पाँच साल का बालक
दिखाना चाहते हैं। तब कहानी आगे बढ़ती है, किंतु इस पाँच साल
के बालक में भी गजब की तार्किकता आ गयी है।
बचपना खत्म थोड़े ही हो जायेगा? उसे तो विपन्नता ने दबा लिया है। हामिद के दोस्तों ने जब उससे चिमटा
दिखाने का प्रस्ताव रखा, बदले में अपने खिलौने उसे दिये, तब प्रेमचंद लिखते हैं— ‘कितने
खूबसूरत खिलौने हैं।‘ मानो हामिद का बचपन आह भर रहा हो— ‘कितने खूबसूरत खिलौने हैं।‘
लेकिन खूबसूरत होने से क्या
होता है? हामिद के लिए तो वही भद्दा चिमटा है। भद्दा? यह हामिद के लिए भी भद्दा हो सकता है क्या? कदापि
नहीं। अपनी तार्किकता में हामिद अपने चिमटे का परिचय देता है। क्या नहीं है उसका
चिमटा—‘’अभी कंधे पर रखा बंदूक हो गयी। हाथ में लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ।“
इस वाक्य से कुछ याद आ रहा है क्या? याद कीजिए
निराला का ‘कुकुरमुत्ता’। अपने कुछ न
होने में वह सब कुछ हो जाता है। इधर हामिद का चिमटा भी ऐसा ही है। क्या यह
तसल्लीजनक बात नहीं लगती है कि उस युग के दो बड़े विचारशील साहित्यकार एक वर्ग के
कुछ न होने में सबकुछ होना देखते हैं। रूसी क्रांति के पहले लेनिन का आह्वान – सर्वहारा जनो! तैयार हो जाओ, तुम्हारे पास खोने के
लिए कुछ नहीं है।‘ खोने के लिए कुछ नहीं है यानी पाने के लिए
सबकुछ है।
अब फिल्म का अंतिम दृश्य – हामिद का घर। अमीना उतावलेपन से पूछती है—मेले में
क्या - क्या देखे, क्या खरीदा, क्या
लाये? और इन सारे प्रश्नों के जवाब में हामिद मौन रह चिमटा
आगे कर देता है। अमीना की आँखों में पहले एक खीझ तैरती है। हामिद कह रहा है—तुम्हारी अँगुलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने
इसे ले लिया।‘ अमीना की आँखों में आँसू। आँसुओं की झड़ी! उसमें दुआएँ, प्यार, ममत्व
लेकिन साथ ही अपनी स्थिति, अपनी विपन्नता की विवशताएँ। दृश्य
फ्रीज हो गया है। हाथ में चिमटा लिए हामिद और दूसरी ओर आँसू बहाती अमीना । परदे पर
लिखा आ रहा है -- ‘’बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला
था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी।“
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
* * * * *
मैं एक लोकल ट्रेन में सफर कर
रहा हूँ कि एक कोमल आवाज सीटी की तरह अन्य आवाजों को चीरती चली आती है— ‘’ले लो लेमनचूस! एक रुपये का चूस – बाल बच्चा खुस!’’ फिर दूसरी तरफ से इसी तरह की एक और
आवाज — ‘’बच्चों के लिए रंगीन किताबें, चित्रों के साथ — हिंदी-अंग्रेजी दोनों में एक साथ।‘’ कहीं से ‘’आ गया, आ गया! रंग –
बिरंगे बेल्ट! चाहे जितना छोटा करो , चाहे
जितना बड़ा! अपने नन्हे-मुन्नों के लिए।‘’ आवाजें-ही-आवाजें
-- कोई बॉगी की सफाई के लिए, कोई पानी बेच रहा, कोई शू-पॉलिश... ये सब दस से बारह साल के बच्चे हैं, और रोज – रोज अपनी ड्युटी बजाते हैं। मुझे याद आता
है हामिद – मोहसिन मिठाई की लालच दे रहा है उसे, किंतु वह अपने तीन पैसे मिठाइयों पर खर्च नहीं कर सकता। उसे अपनी दादी के
लिए चिमटा लेना है, चिमटा!! मैं इन बालकों को रोकता हूँ।
कहता हूँ—‘ ये सब तुम्हारे हैं,
तुम्हारे लिए हैं। ये लेमनचूस, ये किताबें, ये बेल्ट, शू, पानी की बोतल
सब तुम्हारे लिए हैं — सब तुम्हारे लिए।‘’ ये बच्चे मेरी बात पर विश्वास नहीं करते, जैसे बाद
में मोहसिन पर हामिद नहीं करता। कहते हैं — ‘’नहीं, ये मेरे लिए नहीं हैं। मैं इन्हें बेचूँगा।
इनसे पैसे मिलेंगे। ये पैसे मैं अपनी – अपनी अमीना को दूँगा।
‘ वह कितनी प्रसन्न होगी!’ हजारों
दुआएँ देंगी, फिर पड़ोस की औरतों को दिखायेंगी। सारे गाँव में
चर्चा होने लगेगी— ‘हामिद पैसे लाया है!’ ‘कितना अच्छा लड़का है!!’’
और मैं अभी देख रहा हूँ – बीसवीं सदी का प्रेमचंद इक्कसवीं सदी के प्रेमचंद का पार्ट खेल रहा है।
बड़ी कुशलता से खेल रहा है और खेलता ही चला जायेगा, क्योंकि
कुछ नहीं बदला! कुछ नहीं!! कुछ भी नहीं!!
सम्पर्क-
मोबाईल- 08093720177
बहुत बढ़िया सर। आँखेँ भर आयीँ।
जवाब देंहटाएंआज कालजयी रचनाकार प्रेमचन्द जी का १३४ वां जन्मदिन। नमन्। बहुचर्चित कहानी ईदगाह का पुनः पाठ ।बहुत अच्छा। धन्यवाद संतोष जी ।
जवाब देंहटाएंThik h
जवाब देंहटाएं