श्रीराम त्रिपाठी का केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित आलेख 'सोच-समझ कर ही गढ़ते हैं'
वरिष्ठ आलोचक श्रीराम
त्रिपाठी का आज जन्मदिन है. इस अवसर पर उनके दीर्घायु और सतत रचनाशील रहने की कामना करते हुए हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं उन्हीं का लिखा एक आलेख जो जन कवि केदार नाथ अग्रवाल पर केन्द्रित है. तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख
सोच-समझ कर ही गढ़ते हैं
श्रीराम
त्रिपाठी
जिस तरह हम अपने परिवेश (प्राकृतिक-सामाजिक) से जूझते हैं,
उसी
तरह एक कवि भी जूझता है। वह अपने समय में चलते वाद से संघर्ष करता है। यह संघर्ष
ही विवाद है। विशेष वाद अथवा विरुद्ध वाद। छायावादी कविता की सबसे बड़ी देन है,
कविता
में आत्म का आवेगपूर्ण प्रवेश। इसको साधते हुए उससे समाज की उपेक्षा हुई,
जिसे
प्रगतिवादी कविता ने साधा। व्यक्ति का भीतर, बाहर
से जितना संघर्ष करता है और उसे जितना और जैसे आत्मसात करता है,
उतना
और वैसे ही वह ख़ुद को बनाता है। उसका बाहर से जितना और जैसा संबंध होगा,
उसका
भीतर भी उतना और वैसा ही बनेगा। इसका मतलब है कि बाहरी संबंध ही उसके आत्म की
पहचान है। इसे अगर ठीक से जानना-समझना हो, तो छायावादी कविता और केदारनाथ अग्रवाल
की कविता को एक-दूसरे के बरक्श रखकर देखना मुनासिब होने के साथ कौतुकपूर्ण भी है।
दोनों कविताओं में प्रकृति है। एक में सामाजिक संबंधों से तक़रीबन हीन,
तो
दूसरी में सामाजिक संबंधों से ओत-प्रोत। ‘बसंती
हवा’ में हवा,
हवा
कहाँ रहती है! वह तो फगुवा में मस्त, हुड़दंग
मचाती, कर्मशीलता से
ओत-प्रोत रमती इनसान बन जाती है। इसीलिए केदारनाथ अग्रवाल सच्चे अर्थों में लोक के
कवि हैं। वे प्रगतिशील कवियों में इसी कारण अलग नज़र आते हैं।
प्रगतिशील कवियों में
केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन
और नागार्जुन साथ याद किये जाते हैं। तीनों में लोक है और तीनों लोक में हैं,
मगर
अलग-अलग रूप में। नागार्जुन का ध्यान कई बार बँटता हुआ नज़र आता है,
जब
वे प्रतिक्रियात्मक कवितायें लिखते हैं, विशेषकर
राजनीति पर। केदारनाथ अग्रवाल ने भी ऐसा किया है, मगर
बहुत कम। यह कर्मशीलों की ज़मीन नहीं है। कर्मशील एक तो प्रतिक्रिया नहीं करता,
दूसरे
बहुत कम बोलता है। प्रतिक्रिया कमज़ोर लोग करते हैं। कर्मशील मजबूत होता है। वह
प्रतिक्रिया नहीं, क्रिया
करता है। क्रिया वही करता है, जो क्रिया को आत्मसात करने में समर्थ होता है।
साहित्य में भी अज्ञानता के कारण शब्द में ऐसे अर्थ आरोपित कर दिये जाते हैं,
जिनका उस शब्द से कोई सरोकार नहीं होता। मिसाल के तौर पर अकसर कवि-लेखक अपनी रचना
पर ‘राय’
की जगह ‘प्रतिक्रिया’
माँगते
हैं। वे भूल जाते हैं कि कविता आत्मसात की जाएगी, तब तो उस पर कोई राय बनेगी, और
आत्मसात नहीं होगी, तब तो प्रतिक्रिया व्यक्त होगी। क्योंकि प्रतिक्रिया तो क्रिया
के बराबर और विरोधी क्रिया होती है। क्रिया को आत्मसात करने के बाद जो उपजता है,
वही क्रिया भी है और सर्जन भी है। उसमें पहली क्रिया के अंश मौजूद होंगे। इस
प्रकार वह पहली क्रिया का विकास होगी। केदारनाथ अग्रवाल की ज़मीन किसान की है। जिस
तरह एक किसान करने में ज़ियादा और कहने में कम मानता है, उसी
तरह केदारनाथ अग्रवाल भी करते ज़ियादा हैं और कहते बहुत कम। कर्ता को कहने की फ़ुरसत
कहाँ! वह तो न छुटके ही बोलता है। और जब बोलता है तो वह भी उसका करना ही होता है।
क्योंकि वह जो भी बोलता है, रच-पचकर बोलता है। प्रतिक्रिया में रचना-पचना नहीं
होता। लोक की एक विशेषता यह भी है कि वह दुख को भी गान में तब्दील कर देता है।
उसके यहाँ रोना मानो वर्जित है। क्रिया में इस आत्म का रचाव ही केदारनाथ अग्रवाल
की कविताओं में आवेगपूर्ण आत्मीयता भरता है, जिसमें माटी की महक और खनक है। आइए,
उदाहरण
के साथ इसे जाना-समझा जाए। इसके बिना तो सब कुछ लफ़्फ़ाजी है। थोथा है।
एक छोटी-सी कविता है,
‘भिक्षुक दुख’।
सामान्यतया कहा जाता है कि दुख ही जीवन है। निराला ने भी कहा है कि
"दुख ही जीवन की कथा रही"। मगर यहाँ तो उलट है। दुख तो
भिखारी बन गया है। क्यों? इसलिए
कि ‘मैंने आँसू सोख लिये हैं’।
‘पोंछ लिये हैं’
नहीं, ‘सोख लिये हैं’।
सोखना माटी का गुण है। किसान का मन माटी का होता है। सोखना भीतरी ताक़त का परिचायक
है। उसने अपने आँसू सोख लिये हैं, केवल
इतना ही नहीं है। अगर इतना ही होता तो कौन बड़ी बात होती! बड़ी बात इसलिए है:
और पिये हैं
बेला औ चम्पा गुलाब के
डब-डब आँसू,
मौलसिरी के
छल-छल आँसू,
जैसे सूरज पी
लेता है
हरी घास के लकदक आँसू!
अपना तो केवल ‘आँसू’
है, जो सोख लिये जाने के कारण
दिखता नहीं है, मगर दूसरों का तो ‘डब-डब’
और ‘छल-छल’
आँसू है, जो दिखता है। ‘डब-डब’
और ‘छल-छल’
में रागधर्मियों को केवल नाद सौंदर्य मिलेगा, जबकि
यहाँ अर्थ सौंदर्य भी है। क्रमशः आँसू की बढ़ती मात्रा। मात्राभेद के साथ आँसू के यहाँ
चार रूप हैं। आँसू, डब-डब
आँसू, छल-छल आँसू और लकदक
आँसू। इनमें से शुरू के तीन का संबंध कवि से है और चौथे का सूरज से। अर्थसौंदर्य
कर्णधर्मी नहीं, लोचनधर्मी होता है।
मन माटीधर्मी तो है ही, सूरजधर्मी
भी है, तब ही तो ‘जैसे
सूरज पी लेता है’ जैसा कथन अऱ्तवान
बनता है। तो कवि का आत्म दोनों विरोधियों, माटी
और सूरज, के गुणों को आत्मसात
किये है। यही है द्वंद्वात्मक संयोजन, किसान और सर्जक की विशेषता है। किसान के लिए
माटी और सूरज, दोनों बड़े काम के
हैं। ऐसे इनसान के सामने दुख की क्या बिसात! दुख यानी, भीतर
से खोखला। भिखारी यानी, खाली।
जिस इनसान में माटी और सूरज का गुणधर्म हो, उसमें
दुख के लिए जगह कहाँ! कितना ताक़तवर और उदार मन है:
वह जो लेता
है
देता हूँ;
जाता है जब
तब मैं उससे
आने का
वादा लेता
हूँ!
जो दुख को भी देता हो, और
महज़ देता ही नहीं, फिर
से आने का वादा लेता हो, वह
कितना ताक़तवर होगा! वही दुख के साथ इस तरह पेश आ सकता है। लगता है कहीं से कि दुख
के साथ पेश आया जा रहा है! ऐसे तो पहुना के साथ पेश आया जा जाता है,
दुख
के साथ नहीं। याद है! किसान साँप को भी दूध पिलाता है। ऐसा वह मूर्खता के कारण
नहीं करता, अपनी संस्कृति के
कारण करता है। कर्म की संस्कृति हमेशा जोड़ती और जुड़ती है। यही दुख को भी सुख देने
में समर्थ है। उसके यहाँ से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। सही अर्थों में वही शंकर
है। लोगों की रक्षा के लिए वह विष भी पीता है, बावजूद
इसके मरता नहीं, बल्कि रमता है। तो लिए
बिना देना मुमकिन नहीं। आँसू का लेना है और बदले में दुख जो भी माँगता है,
देना
है। आँसू का लेना यानी, दुख
का लेना। मुहावरा है न कि दुख को न्योतना। वही है यह। और जब उसको न्योता है तो उसे
खाली हाथ कैसे बिदा किया जाएगा। इसीलिए वह जो कुछ माँगता है,
उसे
देकर ही बिदा किया जाता है। इतने पर ही बस नहीं है, बल्कि
उससे फिर आने का वादा लिया जाता है। क्या नहीं लगता कि दुख जैसे भानजा हो। यानी,
दुख
ने कवि को खाली-खम नहीं कर दिया है। दुख को देने के लिए उसके पास अभी बहुत कुछ है।
‘वह जो लेता है देता हूँ’,
में
कहीं बेबसी या मजबूरी दिखती है? नहीं
न। मन के मजबूत लोग बिना लाग-लपेट के बोलते हैं। फिर तो उनका बोलना,
बोलना
कहाँ, करना हो जाता है। इस कविता का सहज, सरल
और सादगीपूर्ण गठन अचम्भित करनेवाला है। कहीं कोई ताम-झाम नहीं। गागर में सागर इसी
को तो नहीं कहते! अध जल गगरी छलकत जाय। यानी, जल
से आधी भरी गगरी ही चिल्लाती चलती है कि उसमें पानी है। भरी गगरी तो चुपचाप चलती
है। वह कहाँ चिल्लाती है कि उसमें पानी है। आपको जानना है तो उसके पास जाकर न केवल
ख़ुद ही देख लीजिए, बल्कि पानी का स्वाद भी ले लीजिए। ऐसा है इस कविता के कवि का
व्यक्तित्व।
एक कविता है, ‘चिट्ठी
का व्यंग’। व्यंग्य नहीं,
व्यंग।
देसी, बात-चीत की शैली है
इसकी। आइए, देखें:
ऐसा लगता है
जैसे मैं बंद पड़ा हूँ,
इस समाज में
कील-जड़ा हूँ,
मेरा मस्तक
टूट गया है,
मेरा कोई
पता-ठिकाना नहीं रहा है।
कह सकते हो -
मैं जीवित हूँ,
खा लेता हूँ,
गा
लेता हूँ,
रो लेता हूँ।
लेकिन
खाना, गाना,
रोना
-
यह जीवन के
नहीं चिह्न हैं,
और बहुत कुछ
मुझे चाहिए,
वही नहीं है,
यही मृत्यु है।
यह आत्म और अपनी स्थिति, दोनों
का आलोचन है। कितने ऐसे लोग हैं, जो
इस तरह की आलोचना करते हैं? अधिकतर
लोगों के लिए खाना, गाना
और रोना ही जीवन के चिह्न हैं। ‘और
बहुत कुछ मुझे चाहिए’, मगर
जो चाहिए ‘वही नहीं है’।
यह ‘बहुत कुछ’
ही ज़िन्दा रहने की पहचान है। ‘कुछ’
मामूली चीज़ों का संकेतक है, और ‘बहुत’
ढेरों चीज़ों का। यानी, ढेरों
मामूली चीज़ें हैं, जो
ज़िन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरी हैं, जो
हमारे पास नहीं हैं। फिर कैसे कहा जाए कि मैं मरा नहीं, ज़िन्दा
हूँ। उनका न होना ही मृत्यु है। तो इस ‘बहुत
कुछ’ में से एक है:
लो यह देखो –
यही हाथ हैं,
मैंने इनसे
कलम चलाई,
ग्रंथ
लिखाये,
मैंने इनकी
नसें तनाईं,
लेकिन जितना
जो कुछ लिखते,
टके सेर में
बिक जाता है,
ये बेचारे
घिस जाते हैं,
कैसे कहूँ कि
ये जीते हैं, मैं जीता हूँ?
जब हाथ के श्रम और हुनर का मूल्य ही न मिले,
तो
कैसे कहा जाए कि वे ज़िन्दा हैं। तो क्या बिकना ही इनका मूल्य है?
क्या
टके सेर बिकना ही इनका दुख है? नहीं,
बिकना
ही दुख है। ‘टके सेर’
तो दुख की मात्रा को और बढ़ा देता है। यही तो विडंबना है। यह हाथ के श्रम और हुनर
का अवमूल्यन है। सृजन और निर्माण तो ख़ुद के साथ-साथ दूसरों को भी प्रफुल्लित करते
हैं, मगर यहाँ तो घिसते (सिकुड़ते) हैं। इनके निर्माण का अवमूल्यन ही इनके घिसने का
कारण है। अगर कारण को ही ख़तम कर दिया जाए, तो
क्या कार्य होगा? साफ़
है कि नहीं। तो निर्माण के अवमूल्यन को ख़तम करना पड़ेगा। हमने जो व्यवस्था बनायी है,
उसके
मूल में ही निर्माण का अवमूल्यन है। इसलिए इस व्यवस्था को ही आमूल-चूल बदलना होगा।
इसके बिना हाथ के श्रम और हुनर के अवमूल्यन को ख़तम नहीं किया जा सकता। यह हाथ ‘मैं’
का अभिन्न अंग है और श्रम का परिचायक है, जिससे
‘मैं’
का अन्योन्याश्रित संबंध है। ‘जीता’
और ‘जीते’
जीने के अर्थ के साथ-साथ जीतने का भी अर्थ देते हैं। जीने का विरोधी है मरना और
जीतने का विरोधी है हारना। तो इन हाथों के निर्माण का टके सेर बिक जाना ही उनका
हारना है, जीतना नहीं। चूँकि
जीतना ही जीना है, इसीलिए
हारना मरना है। तो जब हाथ ही मर गये, तो
‘मैं’
कैसे जीवित रह सकता है। अन्योन्याश्रित संबंध में दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के
अस्तित्व पर निर्भर होता है। यह एहसास श्रम से तादात्म्य का नतीजा है। यही
केदारनाथ अग्रवाल की विशेषता है। उनके एहसास अत्यंत सघन हैं। यह सघनता आसानी से
नहीं, कठिन जद्दोजहद से आती
है। तीव्र और क्रूर आत्मालोचन से आती है। कविता में केदारनाथ अग्रवाल नहीं बोलते,
उनकी
क्रियाएँ बोलती हैं। चूँकि, वे क्रियाएँ ही आपस में द्वंद्वात्मक संयोजना करके
कविता बनती हैं, इसलिए उनकी आवाज़
कविता की आवाज़ बन जाती है और हमें लगता है कि कविता ख़ुद बोल रही है। यही कर्मशीलता
की पहचान है। और कर्मशीलता हमेशा प्रगतिशील हुआ करती है।
यही हाल आँख और दिल का है। ये जी तोड़
मेहनत करते हैं, फिर भी अपने मक़सद में
कामियाब नहीं होते। ऐसा ‘दंड-दमन
ने छुरी चलाई’ के कारण होता है। यह छुरी
चलानेवाला, दंड-दमन करनेवाला कौन
है? साफ़ है कि सत्ता-व्यवस्था। यह
हमेशा सृजन-विरोधी रही है। इसीलिए अतीतवादी होती है। और अतीतवादी भविष्य से
डरता-घबराता है, इसीलिए उस ओर दीवार
बना देता है। इसीलिए ये आँखें:
जब भविष्य की
ओर झाँकतीं,
दीवारों से
टकराती हैं।
डॉक्टरों के अनुसार खाना, गाना
और रोना जीवन की पहचान है। उनके लिए इनसान का मतलब जिस्म है। वह इसी जिस्म की सार-सँभाल
करता है, उसके भीतर के मन का
नहीं। अकसर हम चिट्ठी में लिखते हैं कि "यहाँ
सब कुशल है। आप भी कुशल से होंगे। आदि आदि।" यह चलन है। चलन ही पथन और पथन ही
पथ है। ज़मीन का वह हिस्सा जो बार-बार पैरों के पड़ने से पथ जाता है। यानी,
कठोर
हो जाता है, वही पथ (रास्ता)
कहलाता है। यानी, पथ
ही पत्थर है। कवि चलन (पथन) का विरोधी होता है, क्योंकि
पथन और सर्जन में जन्मजात बैर है। पथन दुहराव है और सर्जन नित नया। निराला की ‘तोड़ती
पत्थर’ भी इसी पथे को तोड़ती है। तो
जब हाथ, आँख और दिल;
तीनों
ही हार गये हैं, तो ‘मैं’
कैसे जीत सकता है! हारना यानी, मरना।
चिट्ठी में इन तीनों को दिखलाया जा रहा है, कहा
नहीं जा रहा। "लो यह देखो, लो
यह देखो, लो यह देखो"। ये
तीनों अपनी क्रिया द्वारा ख़ुद कहते हैं, कवि
नहीं कहता। ये क्रियाएँ बोलती हुई सुनाई-भर नहीं देतीं, दिखाई
भी देती हैं। अपने मरने को मर-मर की ध्वनि (दर्द) के साथ दिखलाने के बाद यह कहना
कि:
अब बोलो,
फिर
क्यों कहते हो –
मैं जीता हूँ,
मेरा भी कुछ
ठौर-ठिकाना, और पता है?
‘अब बोलो’
से सामनेवाले की बोलती ही बन्द हो जाती है। क्या बोले? कैसे
बोले? इतने ठोस प्रमाणों को
देखकर उसे अपना कथन ग़लत लगता है। इसीलिए कवि के इस सवाल का जवाब ‘नहीं’
में ही देगा, इसका अंदाज़ा पाठक को
लग जाता है। यह अंदाज़ा कोर्ट-कचहरी में होनेवाले ज़िरह का नहीं,
रोज़
के जीवन व्यवहार में होनेवाला गवँई है। ठेठ देसी है, अपनी सहजता-सरलता के साथ। यह
देसी तर्कपद्धति है।
सच है मुझको,
रोज डाकिया
दे जाता है मेरी चिट्ठी,
जिस पर मेरा
पता-ठिकाना सब होता है,
लेकिन भाई,
यही व्यंग है
इस चिट्ठी का -
पता-ठिकाना तो होता है मरे व्यक्ति
का।
कविता की अंतिम सतर अत्यंत मार्मिक है। इसमें पीड़ाबोध भी
है और मन के मुताबिक न कर पाने की छटपटाहट भी है। यही पाठक को झिंझोड़ती हैं। जीवित
व्यक्ति गतिशील होता है, रुका
हुआ नहीं। गतिशीलता का मतलब है, परिवर्तनशीलता
और पता-ठिकाना का मतलब है, थपना।
और थपना ही मरना है। तो जीतना ही जीवित रहना है और हारना ही मरना। कवि का अपने
आपको मरा हुआ मानना, पाठक
को मारता नहीं है, बल्कि
जीने, यानी जीतने के लिए
प्रेरित करता है। संगीत की लय चलाती नहीं है, चलने
का भ्रम रचती है, क्योंकि संगीत की लय वाहन का काम करती है। जबकि अर्थ की लय वाहन
नहीं बनती, चलने की प्रक्रिया
रचती है। यह प्रक्रिया ही चलने की प्रेरणा में रूपांतरित हो जाती है।
इस कविता की लय में जगह-जगह तुक भी हैं और
जल्दी-जल्दी विराम भी। जहाँ तुक है वहाँ वज़न की अधिकता और जहाँ विराम है वहाँ दर्द
की अतिशयता है, जिससे संगीत की सुखद नहीं, ऊबड़-खाबड़
लय बनती है। संगीत की लय में दुहराव होता है, मगर
अर्थ की लय में नित नवीनता होती है। रथ का मतलब होता है, चलना।
जो चले वह रथ है। संगीत चलता है, यानी
रथता है। रथ वाहन है। वाहन पर बैठनेवाला नहीं चलता, बल्कि
वाहन चलता है। बैठनेवाले को तो चलने का भ्रम होता है। शब्द में अरथ होता है। यानी,
शब्द
अर्थते हुए रथता है। शब्द, जहाँ और जैसे रथता है, वहाँ और वैसे को अपने भीतर रखते
जाता है। यानी, शब्द ऐसा वाहन है, जो
अपने रास्ते को भी अपने भीतर रखते जाता है। इसीलिए चलते हुए वह अन्यों को भी गतिशील
करता है। लोक का जीवन थिर कहाँ, अथिर
होता है। नित नयी चुनौतियाँ आ खड़ी होती हैं। वे सोचने-विचारने का मौक़ा नहीं देतीं।
तत्काल ही उनका सामना करना होता है। इसके लिए तन-मन की एकता ज़रूरी है, जो कठिन
साधना और अभ्यास से मुमकिन होता है। केदार की कविताएँ तन और मन की एकता की कविताएँ
हैं।
केदार की कविताओं में उनका जो व्यक्तित्व
झलकता है, वह है निर्माण में डूबे
व्यक्ति का, जो तत्काल में अपने
आस-पास से बेख़बर लगता है। ध्यान रहे कि निर्माण के दौरान बेख़बर लगता है,
होता
नहीं। कर्मशील व्यक्ति की यही पहचान है कि वह निर्माण के दौरान केवल निर्माण का
होता है और किसी का नहीं। यहाँ तक कि अपने आप का भी नहीं। वह कर्म में भल गया होता
है और कर्म को लभता है। इससे बड़ा सुख कोई नहीं। चूँकि, हर निर्माण थपित का विरोधी
होता है, इसीलिए वह सामाजिक
होता है। इसीलिए समाज व्यवस्था को जाने-समझे बिना निर्माण मुमकिन नहीं। सोचक-विचारक
बुद्धिजीवी कहलाते हैं और किसान श्रमजीवी। इसके पीछे अलगाववादी नज़रिया काम करता है,
जो
जिस्म और बुद्धि को अलगा देता है। ख़ुद को ऊँचा बताने के लिए ऐसा बुद्धिजीवियों ने
ही किया है। श्रम उनके लिए शरम है, जबकि
किसानों के लिए सुरम। रमना का मतलब है, खेलना।
ख़ुद को काम से एकमेक कर देना। उनमें और काम में कोई भेद नहीं होता। निर्माण का
काम बुद्धि के बिना कैसे हो सकता है! इस
तरह किसान बुद्धि और जिस्म की संयुक्ति होता है, जबकि
बुद्धिजीवी केवल बुद्धि से। अब आप ही तय करें कि बुद्धिजीवी अधिक शक्तिशाली और
सम्माननीय है कि किसान। बुद्धिजीवियों ने ही श्रमजीवी (कर्मजीवी) का उपर्युक्त अर्थ
थाप दिया कि वे सोचते-विचारते नहीं हैं। मूरख लोग हैं। तब ही तो गँवार का अर्थ – जो
मूलत: गाँव में रहनेवाला था – मूरख कर दिया गया। आप ही सोचिए कि सोचे-विचारे बिना भला
कोई निर्माण हुआ है? इस
प्रकार केदारनाथ अग्रवाल के कवि का व्यक्तित्व बुद्धिजीवी का नहीं,
श्रमजीवी
का है। उनकी कर्मशीलता ही कविता को न केवल जीवंत बनाती है, बल्कि
प्रभाव का कारण भी बनती है।
मरना होगा
इस होने को
तो होना है
लेकिन
तब तक
इस जीने को तो जीना है
यहाँ कोई नई बात नहीं कही गई है। और जब कोई नई बात ही नहीं
है, तो यह कविता कैसे हुई! कविता
का कोई न कोई नई बात होना लाज़िमी है, जबकि
नई बात का कविता होना नहीं। फिर तो यह भी जानना-समझना ज़रूरी हो जाता है कि कैसे यह
नई बात भी है और कविता भी है।
यहाँ मरने का ख़ौफ़ नहीं है,
बल्कि
उपेक्षा का भाव है; जबकि
मौत ख़ौफ़नाक होती है। ऊपर आया है कि केदारनाथ अग्रवाल श्रमजीवी हैं। यानी,
श्रम
में श्रम को जीते हैं। श्रम निर्माण करता है, सिरजता
है। जो जितना सिरजता है, उतना
ही जनमता है। जो जितना जनमता है वह उतना ही रमता है। और जो जितना रमता है,
मौत
उससे उतना ही दूर भागती है। इसीलिए यहाँ मौत के प्रति उपेक्षा का भाव है। मौत
निश्चित है, मगर उसका समय नहीं।
इसीलिए "तब तक/इस जीने को तो जीना है"। जीना वह है जो जनम दे,
निर्माण
करे। ‘जीते-जीते’
में ध्वनि-सौंदर्य से अधिक अर्थ-सौंदर्य है। द्वन्द्व समास का चिह्न ‘और’
है। यानी, जीते, और जीते। इस
तरह ‘और’
दोनों जीते के द्वंद्व को प्रकट करता है। अब तक तो हम ‘और’
को केवल संयोजक ही मानते रहे, जबकि वह तो द्वंद्व का भी परिचायक है। यही है ‘अच्छे
व उससे अधिक अच्छे के बीच का संगर’। इसी
द्वंद्व ने जीत की मात्रा में वृद्धि कर दी। यहाँ ‘और’
संयोजक भी है और विशेषण भी। यानी, जीते
और जीते। जितना जीते हैं उससे मन नहीं भरा है, इसीलिए
उससे अधिक जीतना है। यह अधिक जीतना ही अधिक जीना भी है। इस प्रकार सर्जन ही जीना
है और जीना ही जीतना है। हर जीतना जीने की ललक और ताक़त, दोनों
को बढ़ाता है। इसीलिए इतनी सहजता से निकलता है कि:
जीते-जीते
हर संकट से
डटकर
क्षण-क्षण
तो लड़ना है
लड़ना वाद का प्रतिवाद नहीं, विवाद
होता है। वाद के प्रभाव से जो व्यक्त होता है, वह
प्रतिवाद कहलाता है, जबकि
विवाद या तो वाद का विरोधी होता है, या
विशेष। शायद इसीलिए हम अपने लिखे की प्रतिक्रिया माँगते हैं राय नहीं, क्योंकि राय
का जन्म लोचन से होता है। लोचन से हम डरते-घबराते हैं। जब हम लोचन-लोचना से इतना
डरते-घबराते हैं, तो
मौत से कितना डरते-घबराते होंगे। ऐसे में केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ और भी
महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। इस अनगढ़ दुनिया को गढ़ने के लिए इन्हीं से कुछ सीखा जा
सकता है, क्योंकि गढ़ना ही इनका लक्ष्य है:
अनगढ़
दुनिया को हाथों से
सोच-समझकर
ही गढ़ना है।
हालाँकि ‘गढ़ना’
में ‘सोच-समझकर’
शामिल है, बावजूद इसके कवि ने
इसे दुहराया है। कविता में दुहराव ख़राब माना जाता है। इससे कसाव की जगह खोखलापन
आता है। चूँकि, बुद्धिजीवियों ने यह प्रचारित कर दिया है कि गढ़ने और निर्माण
करनेवाले लोग सोच-विचार नहीं सकते, इसीलिए
‘सोच-समझकर’
के साथ ‘ही’
को रखा गया है। अधिक स्पष्टता के लिए ही इसका दुहराव किया गया है और इस पर अधिक वज़न
भी दिया गया है। कहा जाता है कि कविता कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करती है। शब्द
से क्रिया नहीं बनती, क्रिया
से शब्द बनते हैं। एक तो कर्मशील लोग बोलते नहीं, और
जब बोलते हैं तो न छुटके। असल में, उनकी
क्रियाएँ बोलती हैं। रचनाएँ बोलती हैं। उनके रंग बोलते हैं। तो कविता में कम शब्द
होने का कारण है, उसका
कर्मशील सुभाव। इसीलिए केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ कम शब्दोंवाली हैं। इन
क्रियाओं में उनका आत्म भल गया है, मतलब कि लय हो गया है। यह लय किसी बने बनाये छंद
की लय नहीं है, केदारनाथ अग्रवाल के कर्म
की लय है। इससे नये छंद का निर्माण होता है। उनकी कविता वाहन नहीं है,
जो
पाठक को एक जगह से दूसरी जगह ले जाए। उनकी कविता का बहाव पाठक को भी वहने को प्रेरित
करता है। वह अपने पाठक को अपने सिर अथवा पीठ पर नहीं बिठाती, बल्कि उसके हृदय और
सिर पर सवार होकर उसे चलने को प्रेरित करती है। केदारनाथ अग्रवाल अपनी कविताओं में
आज भी रमते हुए दिखते हैं। इसीलिए वे आज भी मरे नहीं, जीते हैं। तो क्या हमें भी
इस जीने-जीतने से प्रेरणा ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
सम्पर्क :
ए-67, तेजेंद्रप्रकाश-1
खोडियारनगर, अहमदाबाद – 382350
गुजरात
मोबाइल: 09427072772
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