केदारनाथ सिंह पर विमलेश त्रिपाठी का आलेख 'केदारनाथ सिंह का जीवन और सृजन-संघर्ष'
पिछले दिनों वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह को 49 वाँ ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा की गयी. कहना न होगा कि केदार जी हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं. राजधानी दिल्ली में रहते हुए भी गंवई जीवन से उनका जुड़ाव आज भी बना हुआ है. बातचीत में भी भोजपुरी बोलने के लिए हम भोजपुरी भाषियों को हमेशा प्रोत्साहित करते रहे हैं. केदार जी के जीवन और सृजन संघर्ष पर एक आलेख हमें लिख भेजा है युवा कवि-कहानीकार विमलेश त्रिपाठी ने. केदार जी को बधाई देते हुए प्रस्तुत है विमलेश त्रिपाठी का यह आलेख
केदारनाथ सिंह का जीवन और सृजन-संघर्ष
विमलेश त्रिपाठी
{1}
केदारनाथ सिंह के जीवन को समझने के लिए उस भोजपुरी अंचल को समझना बेहद
जरूरी है जिस अंचल ने इतने बड़े कवि को जन्म देने और और पालने पोसने का गौरव हासिल
किया। यह यूं ही नहीं है कि आज भी केदार की कविताओं और बातों में अपने गांव को
लेकर एक अजीब सी तड़प दिखती है। मेरे समय के शब्द में एक पत्र का जवाब देते हुए
अपने मित्र परमानंद श्रीवास्तव को वे लिखते हैं – “कुछ दिन – कम से कम
15-20 दिन हवा-पानी बदलने के लिए गांव रहना चाहता हूं। मुझे लगता है और अब गहराई
से लगने लगा है – कि गांव के सात यह जो मेरा लगातार आने-जामे का जो अटूट रिस्ता
है वही मरे भीतर के कवि को जिलाए हुए है। सिर्प मेरे ही भीतर के कवि को नहीं – हम
सबके भीतर के रचनाकार को जो कहीम न कहीं जो आज भी उस करइठ मिट्टी से जुड़े हैं।” 1 इसे संकुचित गंवईपन या ग्राममोह कह के हमारा काम
नहीं चल सकता। इसे रूढ़ अर्थों में लोकल होना तो कतई नहीं समझा जा सकता, इसे एक
कवि की अपनी जमान के साथ आत्मिय संश्लिष्टता के रूप में अभिहित करना ही सटीक लगता
है, जिसमें भारतीयता के साथ एक वैश्विक मर्म का जुड़ाव भी कही न कहीं शामिल दिखता
है। परमानंद श्रीवास्तव को ही लिखे एक और पत्र में केदार जी कहते हैं – “अब लंदन फिर कभी।
इस बार इतना ही। भारत लौटने की तड़प कितनी है, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।” 2
यह एक तथ्य है कि केदार जी का शुरूआती जीवन – बचपन से लेकर लगभग जवानी की
ढलान तक – गांव और उसके आस-पास ही बीता। चाहे बनारस हो या गोरखपुर का पडरौना – ये
जगहें महानगर तो नहीं थी ठीक ढंग से नगर भी नहीं थी। ज्यादा से ज्यादा उन्हें
कस्बा कह सकते हैं, जहां के लोग भी गांव के आस-पास के लोग ही थे, जो भोजपुरी बोलते
थे, सुरती रगड़ते और पान खाते थे। उनके व्यक्तित्व की खासियत वह अल्लढ़पन भी है,
जो नागर सभ्यता और संस्कृति के लोगो के व्यक्तित्व से सिरे से गायब दिखता है। बाद
के दिनों में दिल्ली के बीच में आ जाने पीड़ा केदार की कविता में मुखर होकर आती है। यह वह पीड़ा है
जो गांव के एक आदमी के शहर में जाकर शहरी हो जाने के बाद उभरती है। बहरहाल केदार
के जीवन और साथ ही साथ सृजन संघर्ष के भी तीन विंदु हो सकते हैं –
एक तो यह कि उनका जन्म बलिया जिले के एक गांव चकिया में आज से करीब 70-75 साल पहले हुआ।
दुसरे शुरूआती पढ़ाई के बाद उच्च शि के लिए वे बनारस आए। और तीसरे जब वे अंततः
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गए और दिल्ली में ही अपना निवास बनाया। इस बीच
एक बात और ध्यान रखने वाली है वह कि इन स्थानों पर यायावरी करते हुए उनकी सर्जना
लागातार जारी रही और उन्होने निरंतर कविता लेखन के नए-नए कीर्तिमानों को स्पर्श
किया।
यह दुहराने की जरूरत नहीं है कि तारसप्तक में शामिल होना केदार जी की रचनात्मकता
को एक नया मोड़ पदान करता है। यह भी बताना जरूरी नहीं कि केदार जी का शुरूआती
जुड़ाव नवगीत से था और एक गीतकार के रूप में बनारस और आस-पास उनको लोग जानने लगे
थे, कि कहें गीतों ने धुम मचाकर रखा था। परमानंद जी के साथ उनके शुरूआती जुड़ाव के
बीच में उनके अच्छे गीत कारण बने। परमानंद श्रीवास्तव बनारस के एक कवि सम्मेलन का
संदर्भ देते हुए एक संस्मरण में लिखते हैं – “केदार ने गीत पढ़े
जो जबान पर चढ़ गए – ‘रात पिया पिछवारे पहर ठनका किया/ सुना नहीं तुमने क्या दिल जो धड़का किया’। उन्हीं दिनों
केदार के एक अन्य गीत की लय-वक्रता ने ध्यान आकृष्ट कियाः ‘गीतों से भरे दिन
फागुन के ये/गाये जाने को जी करता’।” 3
{ 2 }
आखिर केदार की कविताओं का मूल स्त्रोत क्या है। एक कवि के मन में
रचनात्मकता का श्रेष्ठतम विस्फोट कैसे संभव हुआ। लोक से जुड़ा हुआ गीत लिखने वाला
एक रचनाकार नई कविता को एक नई दिशा दे सकने में कैसे सफल हो पाया। कैसे एक कवि
अपने बाद के आने वाली एक पीढ़ी को शिद्दत से प्रभावित कर पाया। वे कौन-कौन से तत्व
हैं जो एक अंचल विशेष के भूगोल से जीवन भर मानसिक रूप से जुड़े हुए कवि की कविता
को एक वैश्विक आयाम देते हैं। ये सारी बातें केदार की कविताओं का विवेचन करते समय
स्वभावतया उभर कर सामने आती हैं। केदार की कविताओं को समझने के क्रम में एक और बात
को ध्यान में रखना जरूरी है, जो उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्पण के दौरान
कही थीं – “नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना के बीच जब-तब
मैंने एक खास किस्म के तनाव का भी अनुभव किया है। यह तनाव हमारे दैनिक सामाजिक
जीवन की एक ऐसी जानी-पहचानी वास्तविकता है जिसकी ओर अलग से हमारा ध्यान कम ही जाता
है। मेरे लिए यह अनुभव एक एस्थेटिक बोध भी है और एक गहरे अर्थ में मेरी नैतिक चेतना
का एक अविच्छिन्न हिस्सा भी। अपने रचना कर्म में मेरी कोशिश यह होती है कि उसमें
अनुभव के इन दोनों स्तरों की अंतःक्रिया किसी हद तक समाहित हो सके। यह किस हद तक
संभव हो पाती है, यह बताना मेरे लिए कठिन है, पर वह मेरी रचना-क्रिया का एक जरूरी
हिस्सा है, इसे मैं भूलना नहीं चाहता।” 4
कहने की जरूरत नहीं कि केदार जी
की कविताएं लोक और नागर संस्कृति के बीच के एक अजृश्य सूत या कहें कि एक अदृश्य
कोने में आकार पाती हैं। और यह इतना धीमे और सहजता से घटित होता है कि पाठक तो
क्या कवि को भी कई बार इसका इल्म नहीं हो पाता। इसे लोक और अलोक का द्वन्द्व भी
कहा जा सकता है लेकिन इस द्वन्द्व की अपनी एक साकारात्मक विशेषता है जो पकारांतर
से भारतीय जमीन की सदियों पुरानी परम्परा से इसका जुड़ाव पैदा होता है। यह
द्वन्द्व ठेठ भारतीयता {जिसमें भारतीय आधुनिकता की स्वरूप भी
शामिल है} और प्राच्य आधुनिकता के बीच का भी द्वद्व है जिसे गहराई से समझने की
जरूरत है। यहां एक कविता देखी जा सकती है –
“छू लूं किसी को?
लिपट जाऊं किसी से?
मिलूं
पर किस तरह मिलूं
और दिल्ली न आए बीच में।” 5
{ 3 }
केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका
कारण यह नहीं है कि मेरा शोध -कार्य केदार जी पर ही है। इसका कारण उनकी
कविताएं हैं जो जादू की तरह असर करती हैं। इस जादू की पड़ताल की
चुनौती भी केदार की कविताएं उपस्थित करती हैं।
केदार की कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन नहीं
हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक
बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में हमें मिलता है। यह कवि आपके साथ
बोलते-बतियाते हुए एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में, जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको
दिखायी पड़ने लगता है, - नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी।
श्रीप्रकाश शुक्ल की बातों पर गौर करें तो “केदारनाथ सिंह की कविता एक बोरसी की आग
की तरह धीरे-धीरे बढ़ती और फिर धधकती है। यह उसके आसपास की बतकही की तरह मालूम
पड़ती है, जो ऊपर से बिना प्रयास के, साधारण मालूम पड़ती है, किंतु जिसके नीचे
सच्चा जीवन धधक रहा होता है।”6
एक और बात कहनी चाहिए कि केदार जी कि कविताएं एक
ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है, वहां कोई बड़बोलापन
नहीं है, और
है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या
सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने
गहरे घंसे हुए हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल
जाएगी। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं गांव
और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक
तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह
‘कवि’ भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा ‘बड़ा कवि’ तो कहीं से भी नहीं हो सकता। डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र
करते हैं
कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते
हैं कि साठ के बाद की जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश में विश्वबोध
का यह चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत
सारे कवि होंगे - जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की
मार्फत हम केदार जी को जानते हैं, उनमें
तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल केदार जी की
एक प्रसिद्ध कविता है जिस कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह
हल चलाते हुए दिखता है, उसे खैनी की तलब लगी है। पानी
में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-समय पर अपने कंधे पर
झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की
बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं
में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। इस संदर्ब में अरूण
कमल के एक लेख को याद करना समीचीन होगा। अकाल में सारस का मूल्यांकन
करते हुए वे लिखते हैं – गांव और गांव के संदर्भ बिल्कुल नए ढंग से इन कविताओं में
आए हैं। गांव पर लिखी कविताएं प्रायः आंचलिक हो जाती हैं, स्वंय भी ‘ग्रामीण’ लगने लगती हैं। साथ ही साथ एक प्रकार के मोह का भाव भी वहां
रहता है। गांव का जीवन प्रायः नॉस्टेल्जिया के साथ कविता में आता है। केदारनाथ
सिंह ने इन कविताओं के जरिए गांव को नए ढंग से, आधुनिक तरीके से देखने की कोशिश की
है। संभवतः यह ऐसी पहली महत्वपूर्ण कोशिश है।” 7 हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो
है ही कि उनके
यहां लोक और नागर के बीच, लोक संस्कृति और आधुनिकता के
बीच एक द्वुन्द्व, एक ‘क्लैश’ भी दिखायी पड़ता है
और यह उद्देश्यहीन नहीं है। इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर
से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता
का विकास भी अपने तरीके से ठेठ भारतीय
संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी
उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं – “आधुनिकता के विकस की प्रक्रिया की
पहचान और पुनरावलोकन हमें भारतीय संदर्भ में करना चाहिए।” 8 उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस
खत्म हो गई है लेकिन आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे
भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ
भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों
का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए ।9 आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का उद्घाटन
करते हुए लिखते हैं कि हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे
संघर्ष के बावजूद भी, अपने मूल्यों और आचरण में सामंती अवशेषों से पूरी तरह
मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है। अपने सारे मानववाद के बावजूद, हम
एक जाति विशेष
के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे
कवि की संवेदना बार-बार टकराती और क्षत-विक्षत होती है।10 वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच
भी शामिल है। 11
कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को
समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव
है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी
आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें 'लालमोहर' कहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की
कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि
इस दृष्टि से जब
हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे तो जो हमें मिलेगा, वह बकौल केदारनाथ
सिंह -
इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू
और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी
तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा
जिसपर तुम बैठ सकते हो
पत्थर को छुओ
तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा
एक पत्ता उठा लो
और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में
खून की तरह बह रहे हो
तुम बाहर निकलोगे
और तुम्हे सूरज मिल जाएगा। 12
.....
{ 4 }
केदार जी की कविताएं पढ़ते समय हमें यह कभी
नहीं लगता कि हम कोई लयमुक्त या छंदहीन कविता पढ़ रहे हैं। कहने की बात
नहीं कि केदार जी ने लिखने की शुरूआत छंदबद्ध कविताओं से की थी और एक
समय उनके गीत सुनने के लिए लोग सभागारों में बैठे इंतजार करते रहते थे।
उन गीतों में क्या था कि नवगीत के पुरोधा कवियों के बीच भी केदार को अलग
से सुनने का मन करता था। मेरी समझ से केदार जी के गीतों में एक तरह की भाषिक
नवीनता तो थी ही, साथ ही उसमें अपने लोक, अपने अंचल की वाणी भोजपुरी की मिठास भी
शामिल थी। अलावा इसके केदार जी के पास सर्वथा नूतन एक आधुनिक दृष्टि थी जो उनकी
कविता में एक
तरह की नवीनता के साथ जादू जैसा कुछ पैदा करती थी।
केदार जी एक इंटरव्यू में याद करते हैं कि
कविता से पहला परिचय उन्हें गांव में औरतों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों की
मार्फत हुआ। वे कहते हैं कि सुबह-सुबह अधनींदी अवस्था में कई बार
कानों में भोजपुरी के लोक गीत सुनने को मिलते थे - उन गीतों का असर आज भी
मेरे लेखन में है, इसे मैं कितना भी चाहूं, अस्वीकार नहीं कर सकता। उन गीतों में
क्या जादू है, यह तो वही समझ सकता है, जो गांव में रहा हो और उस जिंदा जादू को
पत्य देखा-सुना हो। केदार की कविताओं में एक तरह की सहजता के साथ जो जादू है, कहीं
न कहीं उसका उत्स
वे लोक गीत ही हैं, जिन्होंने केदार को कहीं गहरे प्रभावित
किया है।
उनकी बोलने-बतियाने और उसी दौरान कोई गूढ़
बात कह देने की शैली भी रेखांकित करने लायक है। कई बार वे पाठकों से
बातचीत के लहजे में कविता की शुरूआत करते हैं, कई बार पाठक से सवाल करते हैं कि अब
क्या किया जाए, कि अब आप ही बताएं कि अब तो यह तय करना
मुश्किल है इत्यादि। तात्पर्य यह कि उनके लिए पाठक कविता के बाहर की कोई वस्तु नहीं
है, वे
हर कविता के साथ पाठक को शामिल करते चलते हैं, जैसे
कोई बच्चा इधर-उधर न जाए इसलिए उसका अभिभावक अपनी उंगली पकड़ा देता है। एक बार बच्चे
ने उंगली पकड़ ली तो अभिभावक अपनी रौ में अपनी राह चलता जाता है।
केदार की कविता की रचना प्रक्रिया को इसी तरह समझने की जरूरत हमें महसूस होती
है। इस संदर्भ में याद करना चाहिए कि केदारनाथ सिंह का अपना व्याकरण और अपना
काव्य तर्क है। वे लिखते हैं – “मैं बोलता हूं इसलिए
लिखता हूं। मनुष्य के इतिहास में लिखना बोलने का अनुवर्ती है – लगभग यही बात रचना
प्रक्रिया पर भी लागू होती है। मुझे लगता है कि जब मैं लिख रहा हूं तो असल में मैं
बोल रहा हूं।”13
उपर केदार जी के लोक गीतों से जुड़ाव की
बातें कही गई हैं। भोजपुर अंचल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा
जो लोक गीतों से अपना जुड़ाव न रखता हो। यह अलग बात है कि अब वे
परंपराएं मिट रही हैं और लोक गीतों के नाम पर कुछ फूहड़ और अश्लील गीत ही बाजार
में रह गए हैं। लेकिन केदार जी का जो समय रहा है, उस समय भोजपुरी लोकगीतों में एक
समृद्ध साहित्यिक एवं काव्यात्मक तत्व दिखायी पड़ता है।
भोजपुरी लोक गीतों के महानायक भिखारी ठाकुर के बारे में केदार जी के
संस्मरणों को पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि केदार जी का लोक और लोक
गीतों से कितना गहरा जुड़ाव रहा है। यह गौर तलब है कि अपनी कविता की किताब 'उत्तर कबीर व अन्य कविताएं' में केदार जी ने भिखारी ठाकुर 14 नाम से एक बहुत ही मार्मिक कविता भी
लिखी है।
नई कविता के मंच पर
भिखारी ठाकुर नामक संस्मरणात्मक लेख उपरोक्त बातों की
पुष्टि करता है।15 तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि
केदार जी की शुरूआती कविताएं लयबद्ध हैं, उनमें गीतात्मकता है। यहां इस बात को रखने का हमारा
मतलब बस इतना ही है कि इस लयात्मकता और गीतात्मकता की गूंज हमें केदार जी की हर कविता में
सुनाई पड़ती है। इसलिए जब हम आज की उनकी कविताएं पढ़ते हैं, तब
भी हम लोकगीतों की लय और गीत की मिठास की गूंज उनकी कविताओं में सुन पाते हैं। यही
केदार की कविता का जादू है तो सिर चढ़कर बोलता है और यही कारण है कि एक
पूरी पीढ़ी उनकी कविताओं से प्रभावित है और पाठकों के बीच उनकी कविताएं
असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं।
संदर्भ ग्रन्थः
1.
मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह,
किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ- 68,
संस्करण-2008
2.
लोकः परम्परा, पहचान एवं प्रवाह, डॉ.
श्यामसुंदर दुबे, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम
संस्करण, पृष्ठ – 45-46
3.
जमीन पक रही है, प्रकाशन संस्थान, पंचम
संस्करण, पृष्ठ – 95
4.
वही, पृष्ठ – 95
5.
कुमार कृष्ण का लेख, कवि केदारनाथ सिंह,
संपादक भारत यायावर, राजा
खुसगाल, पृष्ठ 114
6.
मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह,
किताबघर प्रकाशन, (देवेन्द्र चौबे से
बातचीत) पृष्ठ- 109, संस्करण-2008
7.
मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह,
किताबघर प्रकाशन, (कृपाशंकर चौबे से
बातचीत) पृष्ठ- 105, संस्करण-2008
8.
पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो –
केदारनाथ सिंह
9.
पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो –
केदारनाथ सिंह
10.
उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ
सिंह पृ. 11
11.
वही, पृ. 11
12.
मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी (डॉ.
विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी
रोशनी में बचा कर,) पृ. 19
13.
मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी (डॉ.
विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी
रोशनी में बचा कर,) पृ. 19
14.
न होने की गंध, अकाल में सारस, केदारनाथ
सिंह, पृ. 45
15.
प्रतिनिधि कविताएं, केदारनाथ सिंह, पृ.
104
सम्पर्क-
मोबाईल - 09748800649
धन्यवाद संतोष जी। पढ़वाने का। केदार जी के व्यकितित्व व कृतित्व से परिचय कराने के लिए।लेखक को बधाई। केदारनाथ जी को बधाई।
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