अशोक तिवारी के कविता संग्रह 'दस्तख़त' पर नित्यानंद गायेन की समीक्षा






कवि अशोक तिवारी का हाल ही में एक महत्वपूर्ण संग्रह आया है 'दस्तखत' नाम से. अशोक तिवारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. वे एक कवि होने के साथ-साथ रंगकर्मी भी हैं. देश-विदेश में जा कर इन्होने नुक्कड़ नाटक किये हैं. उनके पास अपनी वह प्रतिबद्धता भी है, जो किसी भी कवि के लिए जरुरी होती है. युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने अशोक के संग्रह पर यह समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा.   

अन्याय और पीड़ा के विरुद्ध एक कवि का दस्तख़

नित्यानंद गायेन

कवि जब कविता लिखता है तो अपने अनुभव और मनोभावों को व्यक्त करता है. जिन कविताओं को पढ़ते हुए हम अपने समाज, काल और आम लोगों को महसूस करते हैं, उनका दर्द, ख़ुशी और संघर्ष को महसूस करते हैं - वे ही सच्ची कविता हैं. कविता व्यक्तिगत हो कर भी व्यक्तिगत नहीं हो पाती, क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव, दर्द, ख़ुशी ज्यादा दिन तक व्यक्तिगत नहीं रह पाते.

हाल ही में कवि – लेखक, रंगकर्मी अशोक तिवारी का कविता संग्रह दस्तख़त पढ़ने को मिला. कवि ने संग्रह की कविताओं में अपने जीवन के अब तक के अनुभवों का खुलासा किया है. पहली कविता “सब खुश” में वर्तमान समय के राजनैतिक और सामाजिक सच को व्यक्त किया है.

“इन दिनों एक बाज़ 

मेरे घर के इर्द–गिर्द

मँडराता है सुबह –शाम

लहराता हुआ डैने बेखौफ़

बैठ जाता है मुंडेर पर

और ताकने लगता है मुझे

ऐसे जैसे मैंने

छिपा लिया हो

उसका कोई शिकार

वह स्कैन करता है मेरी नज़र

मेरी काया

और नोट करता है मेरा पता.”

क्या है ये बाज़? क्या हम नहीं जानते हैं? बाज़ की प्रवृत्ति से हम सब वाकिफ़ हैं. वह हमेशा रहता है शिकार की तलाश में और मौका मिलते ही झपट पड़ता है. किन्तु यदि कोई बचा लेता है किसी निर्बल जीव को उसके हमले से, तो वही बाज़ पूरी ताकत से करता है पीछा बचाने वाले का. कवि ने हमारे समाज के उन षड्यंत्रकारी ताकतों को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है. उसी का विवरण है उक्त पंक्तियों में. कवि का यह समाजिक दायित्व भी है कि वह ऐसे क्रूर षड्यंत्रकारी शक्तियों का पर्दाफ़ाश करे. खतरे की चेतावनी देकर लोगों को होशियार करे. अपने इस दायित्व का निर्वाहन किया है कवि ने यहाँ ईमानदारी से.

एक गाँव की पहचान उसके नीम से हो सकती है तो उस गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को दुनिया उसी पहचान से बुलाती है. “नीम गाँव वाली” कविता पढ़कर हम यह महसूस करते हैं :-

“उस औरत का चेहरा

कैसा था आख़िर

लम्बा–सा

सुता हुआ

पिचके हुए गाल

लंबी जीभ

पीले दांतों के बीच

बुदबुदाती हुई

उसके अंदर की एक और औरत

देती हुई

दुनिया के बच्चों को

आशीष, गाली या

मिला-जुला सा कुछ..”

कविता लम्बी है. यहाँ एक औरत को पहचानने के लिए बहुत कुछ है जैसे उसका पिचका चेहरा, पीले दाँत या फिर उसकी लम्बी जीभ ....किन्तु कवि इस औरत को माँ के रूप में पहचानता है, जो दुनिया के बच्चों को कुछ न कुछ देती है. फिर भी कविता का शीर्षक है –“नीम गाँव वाली”. मनुष्य अपनी भूमि से कभी अलग नही हो पाता, उसकी खुशबू सदा उसके साथ रहती है. क्योंकि धरती भी माँ ही है और एक औरत भी माँ होती है.

इस संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कभी हम एक चलचित्र देख रहे हैं तो कभी लगता है कि वही बातें हैं जो रोज –रोज घटती हैं हमारे समाज में, हमारे साथ. एकदम सरल भाषा. कवि बहुत भावुक हो कर पहचानने की कोशिश करता है... जाड़े की गुनगुनी धूप में नल के नीचे बैठे एड़ी रगड़ती जीजी को. जीजी की पहचान क्या है? उनकी पहचान हैं उनके हाथों का स्पर्श. हाथ जो काम के बोझ से हो चुके हैं खुरदुरे. किन्तु कम नही हुई उन हाथों की ममता और अब भी कोमल है उनका स्पर्श. मनुष्य से ले कर मवेशी तक सभी चाहते हैं उन खुरदरी हाथों का कोमल स्नेह. कवि यह भलीभांति जानता है कि हाथों के खुरदरे होने से नहीं होता कम प्यार. ममता एवं स्त्रीतत्व कभी नहीं मरता एक औरत में.

 (कवि: अशोक तिवारी)

जो भी पुरुष, चाहे साधारण व्यक्ति हो या कवि या फिर कोई और, जब तक वह एक स्त्री के दर्द को महसूस नहीं कर पाता, वह और उसका समाज अधूरा और अविकसित रहता है. किन्तु अशोक जी ने जाना है, महसूस किया है एक स्त्री के दर्द को - चाहे जीजी के रूप में हो या नीम गाँव वाली की उस औरत में या फिर उस काम वाली औरत में. वह उस स्त्री को जो आपके घर की सफाई करती हैं, जो करती है आपकी सेवा, पर आपने उसे पुकारा किस नाम से? कैसे संबोधित किया है उसे? आपके घर पर जो अपना श्रम दान करती है, उसकी पहचान है कि वह काम वाली औरत है? हमारा समाज उसे नौकरानी क्यों कहता है? आपके घर की सफाई करने वाली, बर्तन मांजने वाली या आपके लिए भोजन बनाने वाली एक स्त्री की पहचान काम वाली बनकर रह जाती है? यहाँ कवि ने बहुत संवेदनशील मुद्दे को उठाया है.

“क्या नाम है उसका

काम करती है जो तुम्हारे घर आ कर

हर रोज़

सुबह से लेकर शाम तक

छोटे से लेकर बड़े काम

मोटे से लेकर पतले काम

क्या है उसका नाम

-काम वाली”....(पृष्ठ -51)

बहुत ही अहम् प्रश्न है यह ...इस पर कीजिये विचार, तब दीजिये स्त्रीमुक्ति पर भाषण, तब कीजिये समानता की बात, तब जाइये मोमबत्ती ले कर किसी राजपथ या इण्डिया गेट पर. आपके घर पर श्रम करने से नही खो सकती कोई औरत अपनी पहचान अपना नाम.

अशोक जी कवि भी हैं, नाटककार और शिक्षक भी. वे जानते हैं समाज की विसंगतियों को गहराई से. मानव जीवन में दासता और विस्थापन से बड़ी और दूसरी पीड़ा हो नही सकती. चाहे वह महाभारत काल हो या आज का समय. अपनी ज़मीन से बेदखल होना मतलब अपनी जड़ों से कट जाना होता है. यह पीड़ा असहनीय होती है. चाहे कश्मीर हो या फिलिस्तीन, पीड़ा सबकी एक सी है. अग्रज कवि अग्निशेखर ने अपनी कविता ‘पुल पर गाय’ में विस्थापन की पीड़ा को बहुत मार्मिकता से प्रदर्शित किया है.

“एक राह – भटकी गाय

पुल से देख रही है

खून की नदी

रंभाकर करती है

आकाश में सूराख  

छींकती है जब मेरी माँ

यहाँ विस्थापन में

उसे याद कर रही होती है गाय” (कवि अग्निशेखर, स्वर-एकादश, पृष्ठ 14)

विस्थापन की यही पीड़ा फिलिस्तीन के लोगों की भी है, जिसे कवि अशोक तिवारी ने महसूस किया है और उसे यहाँ व्यक्त किया है.

“आसमान में चीलों की तरह

डैने फैलाये

मिसाइलों का ये शोर

कहाँ का है मेरे भाई.....(पृष्ठ. 22, वही)

कवि ने फिर लिखी एक पेड़ की व्यथा कथा.

“मैं एक पेड़ हूँ

सालों साल से खड़ा हूँ यहाँ

ज़मीन में गहरी धंसी हैं मेरी जड़ें

विस्थापित होने के डर से अभिशप्त

मैं एक पेड़ हूँ ...

इंसानियत का ओढ़े हुए खोल

उन्होंने किया भरपूर हमला

मेरी खुशहाली पर

मेरी फलती –फूलती शाखों को

करते रहे कुल्हाड़ी के हवाले ....” (पृष्ठ -129, वही)

यहाँ कहानी सिर्फ एक पेड़ की नही, मानव समाज की है, यह कहानी है उन निर्दोष लोगों की जिन्हें उखाड़ा गया है उनकी ज़मीन से, और उखाड़ा है कुछ ऐसे लोगों ने जिन्होंने ओढ़ रखी है इंसानी खाल.

कवि अशोक तिवारी एक संवेदनशील कवि हैं, क्योंकि वे एक निर्मल हृदय के मालिक हैं, उन्हें मालूम है जीवन की पीड़ा और भूख. उनकी कविताओं में मार्क्सवाद का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है.
कुछ कविताएँ एकदम सपाट सी लगती हैं. किन्तु सच्ची बात कहने के लिए न तो शिल्प की आवश्यकता होती है न किसी अलंकार की. क्योंकि सच खुद में एक सौन्दर्य है. उसकी सीधी अभिव्यक्ति, जो किसी को भी अपनी बात लगे, अपने आपमें एक कविता है. हाँ, कुछ कविताएँ जो कम शब्दों में कहीं जा सकती थीं, उन्हें जबरन लम्बाई दी गई हैं.

हम उम्मीद करते हैं कि समाज के हर अन्याय के विरुद्ध कवि / कामरेड अशोक तिवारी का सदा हस्तक्षेप होगा. हम ऐसे सभी स्थान पर उनका दस्तख़त देखेंगे.

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संग्रह – दस्तख़त, प्रकाशक – उद्भावना प्रकाशन, गाजियाबाद. मूल्य – सौ रुपये मात्र, पेज-150





सम्पर्क-

नित्यानंद गायेन

 मोबाईल 09030895116
 ई-मेल-nityanand.gayen@gmail.com

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