जितेन्द्र कुमार की कविताएँँ



कवि की दृष्टि और सोच व्यापक होती है। शायद इसीलिए कवि के बारे में यह उपमा गढ़ी गयी होगी कि 'जहाँ न पहुंचे कवि, वहाँ पहुंचे रवि।' हमारे आज के कवि जितेन्द्र कुमार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अपने आसपास को देखा है जिसमें गाँव की अंगूठा टेक औरतें हैं, दीपा मुर्मू हैं, घर है और इस घर के बनाने वाले दादा जी की तीन आँखें हैं। इन सबसे ही मिल कर बनती है इक मनोरम दुनिया जिसे कवि किसी भी कीमत पर बचाना चाहता है. इसीलिए वह युद्ध के खिलाफ खड़ा है और आह्वान कर रहा है। इसीलिए वह साफ़-साफ़ कहता है कि मत फँसाओ मुझे ईश्वर की लड़ाई में। तो आईये आज पढ़ते हैं कवि जितेन्द्र कुमार की कविताएँ।         

कविता लिखने का वक्त

नींद को ठेल कर
धीरे-धीरे जाग रहा है
शहर
कोई उसके चेहरे पर
पोत रहा है सफ़ेदी
चमकने लगी हैं
काली सड़कें और
कृशकाय वीथियाँ

हावड़ा से
पहुँच गई है
पंजाब मेल की लाल इंजन
सूचना हो गई है
राजधानी एक्सप्रेस के
 पश्चिम से
आगमन की

समाचार बाँटते हुए
अख़बार वालों की
साइकिलें
दौड़ रही हैं गलियों में
जज कोठी के तिराहे पर
चूल्हे में कोयले की आग
तैयार करने में जुट गया है
चाय वाला
काम पर जाने के पहले
बची खुची थकावट को
दूर करना ज़रूरी है
एक प्याली चाय से

अस्सी वर्षीया माँ
भगा रही है
गंदगी, आलस्य और
अंधकार को
बढ़नी से
उड़ान भरने से पहले
शहर को एक बार
निहार रही है गौरैया
कोचिंग सेंटरों की ओर दनादन
भाग रही हैं
लड़कियाँ
साइकिल चलाते हुए
दूर पूरबी छोर पर जहाँ
चूमता है अंबर
अवनी को
अरूणाभ क्षितिज
दे रहा संकेत
नये दिवस के आंरभ का
सूरज दस्तक दे रहा
शहर के किवाड़ पर

कविता लिखने का वक़्त है यह।



दादा की तीन आँखें

दादा की तीन आँखें थीं
पाँखें दोे ही थीं

तीन आँखों से दादा
तीन काम लेते थे
एक आँख सदा
हँसती रहती थी
हमेशा हँसने का राज
दादा ही जानते थे
दादी थोड़ी समझ सकी थीं
उनके अतिरिक्त एक और स्त्री
जानती थी उनके हँसने का राज़

दूसरी आँख.............
कभी कभी रोने लगती थी
या यों कहें गर्म जल ढरकाने लगती
तो दादी को लगता पत्थर पसीज रहा है

जिसे हम रोना समझते
दादा बहुत कोशिश करते
कि दूसरी आँख उनकी रोये तो एकांत में रोये
जहाँ उनके रोने की बात
केवल वे ही जानें
सबके सामने तो छोटे लोग रोते हैं

तीसरी आँख दादा की
बंद रहती थी ज़्यादातर
तीसरी आँख दरअसल
देखने में आँख जैसी थी
वह न हँसती थी
न रोती थी
न देखती थी
खुलती थी तो ज्वालामुखी-सी
लाल दिखती थी
आग के गोले बरसाती थी
गोलों से दुश्मनों की देह नहीं
 आत्मा जलती थी
तन से ज्यादा मन
 घायल होता था
अधिक लोग इसलिए कोशिश में रहते थे
 कि दादा की तीसरी आँख बंद ही रहे

उनके सिर पर बहुत बड़ी पगड़ी थी
हालांकि उनका जन्म पगड़ी के साथ नहीं हुआ था
उनके पिता को भी पगड़ी थी
विरासत में मिली दादा को पगड़ी
ज़मींदारी उन्मूलन के साथ हालांकि
जाती रही पगड़ी की शान

फिर भी
उनके सिर पर पुरानी स्मृतियों-सी शोभती रही पगड़ी
जैसे बंदर से मनुष्य बनने की लम्बी विकासयात्रा में
पूँछ झड़ गई
रीढ़ की हड्डी के साथ लेकिन शेष रह गई
पूँछ की अवशेष-हड्डी
बैठी रहती दादा के सिर पर
जहाँ झुकने की आवश्यकता महसूसते
वहाँ भी पगड़ी के कारण नहीं झुक पाते

दादा की घोड़ी की बात के बिना
उनकी मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती
वे पालने में पले थे
झूले में झूले थे
मद में फूले थे
पालने से निकले तो पालकी में चढ़े थे
पालकी से उतरे तो घोड़ी पर चढ़े थे
मैट्रिक के पहले तक पढ़े थे
घोड़ी ही उनकी सवारी थी
देह उनकी भारी थी
घोड़ी के कुँह में लोहे की लगाम थी
दादा की जुबान बेलगाम थी

उनकी लम्बी मूँछ थी
दरअसल वह खानदानी पूँछ थी
उनकी तीन अँगुलियाँ जिनसे लेखक कलम पकड़ता है
मूँछों के साथ खेलती रहती थीं
मूँछों से खेलने के सिवा कुछ नहीं कर सके दादा
जीवन भर बस शान चढ़ाते रहे उन पर
जो उनकी नाक और मुँह के बीच फरसे की फाल की तरह थीं
जब वे कोई धारदार शब्द बोलते
शब्दों को धारदार बनाने में मूँछें मदद करतीं

उनकी मूँछ देख कर ही
रोने रोने को हो जाते थे कमजोर दिल वाले

जब हम जे.एन.यू. से इतिहास पढ़कर लौटे
पुराने माॅडल के पलंग पर मरणासन्न पड़े थे दादा
उनका आशीर्वाद लेने उनके चरण स्पर्श को झुके
मेरा सफाचट चेहरा देख कर
आशीर्वाद देना भूूल गये वे
बुझे हुए स्वर में उन्होंने कहा
बस यही दिन देखने को अटके थे प्राण
प्रार्थना में जुड़े हाथ, प्रभु अब दो जीवन से त्राण

लगता है
दादा की तीसरी आँख
उनकी घोड़ी
उनकी पगड़ी
उनकी मूँछ
अब इतिहास की चीजें बन कर रह जायेंगी
शेष रहेंगी उनकी स्मृतियाँ

दादा की तीन आँखें रही होंगी
मेरी तो दो ही हैं
जैसी कि अन्य अनेकों की है

आज भी तीसरी आँख के लिए
सतत् प्रयत्नशील हैं कई लोग
कई लोगों के पास शेष हैं अभी भी
उनके दादाओं की तीसरी आँखें
कई लोग पुनः प्राप्ति के चक्कर में हैं
दादाओं की खोई हुई तीसरी आँखें
मंच संचालन के दौरान खो जाते हैं कई लोग
दादाओं की स्मृतियों में
सुनहरे अतीत को सहलाने लगते हैं
बहलाने लगते हैं वर्तमान को

तीसरी आँख का दर्प
डंसता रहता है वर्तमान को
अतीत के अहं का सर्प


आतंक

दिन ढलते ही
सांझ की काली चादर ओढ़े
आसमान से उतर आता है वह
घरों की छतों पर दौड़ने लगता है।

सड़कों पर, गलियों, जंगलों में
आदमी के चेहरे पर
चिपक जाता है वह
पैदा होते ही दौड़ने लगता है
रसहीन, गंधहीन, कायाहीन वह

सुनहरे गुम्बदों, लाल मीनारों से
गुफ़्तगू करता है
शहर, गाँव की शांति टूटती है।
जिन्हें जंगल में समाधि लगानी थी
शहर के बीच आ गये ध्यान लगाने
घंटों की आवाज़ में समा जाता है वह
अज़ान में फुफकारने लगता है।

महान आत्माओं के आगे-पीछे
दीवार बन खड़ा हो जाता है।
साँझ होते ही आसमान से उतर आता है
दिन चढ़ने तक कुहासे की चादर ओढ़े
बैठा रहता है
सूर्य को चमकने ही नहीं देता।

लम्बी रातों में सपने नहीं आते
माँ, बच्चे को स्कूल भेजने से डरने लगती है
शहर में कर्फ्यू रहता है
आँखें कहीं अटक जाती हैं।

न रोटी में स्वाद
न खेल में आनंद
आवाज़ों की सवारी पर आता है वह
अवतार माँगने लगती है
दादी माँ
प्रार्थना में हाथ जुड़ने लगते हैं।
---------

यादें
जब हम एक शहर से
दूसरे शहर चले आये
क्योंकि ऐसा ही था सरकारी आदेश
बहुत याद आते हैं
पलाशवन
पहाड़ों पर उग आये सालपर्णी के वृक्ष
सागौन की गंध
महुआ के रसभरे पीले फल
पत्थरों से बतियाती कोमल कृशकाय नदियाँ
पहाड़ी ललनाओं की दुग्ध-धवल दँत-पंक्तियाँ
और वे काव्य-संध्याएँ

उन्हें भय था कि हमारी जड़ें
बिना खाद-पानी के
बड़ी तीव्र गति से स्थानीय मिट्टी में
गहरी चली जा रही थीं
वृक्ष बनने के पहले कई बार
उखाड़ चुके हैं मुझे
मेरे शब्द शहर में घूमते रहेंगे
शब्दों के दर्पण में
रहूँगा मैं शहर में
आश्चर्य होगा उन्हें
जिनको एतराज था
रातों रात मेरे कवि हो जाने पर

वे चाहते थे कि
शब्दों का फूल बना कर
राजा के स्वागत में छप्पन व्यंजनों की तरह परोस दूँ

वाणों की तरह तीव्र और नुकीले
हो जाते थे मेरे शब्द
शब्दों को हथियार बना कर
लड़ता था मैं
आधुनिकतम हथियारों से अपना बचाव कर लेने वाले
राजा और दरबारी
घायल हो जाते थे शब्दों से

याद आता है ‘ऋतावरी’ का ऋषि
सालवन की छाया में
अतीत में खोया
भविष्य के सपने सजाता हुआ नीरद के घर जाता हुआ
अथवा लाल पोखर वाले राष्ट्रवादी प्रोफेसर से
कविताओं पर कम
राष्ट्र की राजनीति पर ज्यादा
बहस करता हुआ

याद आते हैं ब्रजकिशोर पाठक
राम वन गमन पर शब्दों के फूल सजाते हुए
मेघनाद के शक्ति-वाण से मूर्च्छित लक्ष्मण के लिए
सदी के अंतिम दशक तक रोते हुए
गदाधारी महावीर को शहर के चौराहे पर खड़े करते हुए
जबकि बम्बई, सूरत, अहमदाबाद में
बिहारी मज़दूर साम्प्रायिक दंगों में मरते रहे

याद आते हैं महाकवि सुमन सूरो
अपनी कविता ‘‘चरवाह’’ सुनाते हुए
कविता समीक्षा के समय रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए
गोष्ठी से बाहर गणना करते हुए कि
अगला कौन कवि उनका शिकार होगा

माथुर नवेेन्दु डंके की चोट पर कहेगा कि
बिजली, गिरगिट, सांप और छुछंदर पर
चुटकी बजाते लिख सकता है वह अतुकांत कविताएँ
जिन शीर्षकों पर नहीं लिख सकते विनय सौरभ

निःसंकोच स्वीकारेंगे बलराम सहाय वकील कि
आम पाठक की तरह
उनकी समझ से बाहर है आज की हिन्दी कविता
इसलिए पचास की उम्र पार अपनी पत्नी
प्रोफेसर ललिता सिन्हा को काॅलेज के बाद
आज भी अकेले रसोईघर से बाहर नहीं जाने देते

मेरी बहुत बड़ी धरोहर हैं-
सालपर्णी के वृक्ष
पहाड़ी नदियाँ
श्याम सौन्दर्य और
वे काव्य-संध्याएँ।
...........................



मेरे गाँव की अँगूठा छाप औरतें

सुबह अँधकार को ठेलने में
मदद करती हैं सूरज को

सूरज के जाने के बाद ढिबरी जलाकर
छोटी करती हैं रात की लम्बाई

चूल्हे के धुएँ से संकेत देती हैं दिन केे शुरू होने का
आँगन में उनके थिरकते पाँव की पदचाप सुनकर
गोशाले में बछड़ा बोलता है-
बाँ ! बाँ !! बाँ !!!

अर्द्धनग्न भस्म-विभूषित शिव पूजती हैं
पिता तुल्य दक्ष भी अगर करे अपमानित
ध्वंस कर दे दक्ष के यज्ञ को शिव समान पति

चूल्हे की आग में भात समान पकती हैं
कूटान पीसान करती हैं
ढेंकी में कूटती हैं जीवन
सावन में रोपनी के गीत गाती हैं
तालाब के शांत जल में उठती है तरंग
उनके गीतों की लय से
खेतों से खलिहान तक ढोती हैं
पेट की भूख
वे सरित की नीर हैं
उनकी आँखों में सदियों की पीर है
मनुज के पिता के लिए उनके वक्षों में
क्षीर है।

नरम देह वाली नदी
शिकायत करने लगी है-
मुखिया से
सुखिया से
राजशाही से
तानाशाही से
डूबने लगा है शिलाखंड
नदी की नरम देह में
खाकी वर्दी से नहीं डरती अब
हाथ में हँसिया लेकर
विधान सभा का घेराव करने
राजधानी चली जाती हैं
अधूरा होगा कवि का अनुभव-संसार
मेरे गाँव की अँगूठा छाप औरतों के जिक्र बिना।



ईश्वर की लड़ाई में

मत फँसाओ मुझे ईश्वर की लड़ाई में
स्कूल जाने दो मेरे बच्चे को
सोने जैसी चमकती हैं खेतों में
गेहूँ की पकी बालियाँ
उन्हें खलिहान में लाने दो

खेतों के कीचड़ में लथपथ है मेरा भगवान
धान की बालियों में समाया है मेरा ईश्वर
आँगन में लाने दो उसे

तुम तो ईश्वर के पिता हो
प्रतिवर्ष कितने ईश्वर गढ़ते हो
मटर की छीमियों में देखो मेरे ईश्वर को

गरम-गरम भात की भूख है मुझे
तावा पर सेंकी जाती रोटी की गंध
बहुत अच्छी लगती है मुझे

जब पूरबी बयार बहती है
गेहूँ के पौधों पर झूमती तरंग की चादर
मेरे प्राणों को जीवन का संदेश सुनाती है
मिट्टी के बुतों में प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले
मत फँसाओ मुझे ईश्वर की लड़ाई में
स्कूल जाने दो मेरे बच्चे को
मेरी रूपा का हो जाने दो विवाह।
’’’
युद्ध

युद्ध ! युद्ध !! युद्ध !!!
महायुद्ध!
युद्ध मेरे भीतर
युद्ध मेरे बाहर
युद्ध मेरे ऊपर
युद्ध मेरे नीचे

युद्ध के लिए अभिशप्त मैं
नहीं चाहता कोई युद्ध
युद्ध आकाश में
युद्ध पाताल में
युद्ध जीवन के लिए
एक मुट्ठी विश्वास के लिए
युद्ध

शांति की अपील करने वालों ने
आरंभ किया युद्ध
शांतिप्रिय लोगों ने मारा-
गाँधी, मार्टिन लूथर किंग
रोजा लक्जमबर्ग, एलेंदे
नजीबुल्ला और छात्रनेता चन्द्रशेखर को

आइये,
नई सदी में
झूठ के खि़लाफ
एक वैचारिक युद्ध छेड़ें
बाजार के विरूद्ध
कलम की नोक से लड़ें
मिल कर एक साथ।

पुरानी हवेली

आज भले ही सांझ सकेरे उतर आती है
पुरानी हवेली के आँगन में

हवेली के उजले तपते दिन थे
तब चाँदनी रातों में
दीवारों की सफ़ेदी चाँदी-सी चमकती
आकाश के एक कोने से
आँगन में चाँद झाँकता
कई आकांक्षाओं ने यहाँ जन्म लिया
कई इच्छाओं के घट भरे

एक-एक कर पाँच सलोने राजकुमारों की किलकारियों से
गूँज उठी हवेली
जैसे उड़हुल के पाँच पौधे अंकुरित
पल्लवित
पुष्पित हुए
उनकी सुगंध दिशाओं में फैल गयी

कोठरियों में अनाज के धूसर बोरों में
अन्न देवता आसन मारे बैठा रहता
गोशाले में गाय पगुराती
सारंग हिनहिनाता
हाथी सूँढ़ से अभिवादन करता

चैत नवमी के दिन राम की विजय-पताका
लम्बे हरे बाँस पर लहराती

विवाहोत्सव में रात-रात भर स्त्रियाँ डोमकच करतीं
धमाचैकड़ी से आँगन की जमीन बजती
छीवारें हिलतीं
सांझा-पराती की स्वर लहरियाँ थरथरातीं

सत्यनारायण कथा में
साधुराम बनिया की नाव नदी में डूबती
फिर उबरती
शंख-ध्वनि होती
प्रसाद बँटता
नवजन्म पर सोहर के बोल फूटते
हवेली अपने शबाब पर थी

अब हवेली की दीवारों पर उदासी तारी हो रही है
दीवार की ईंटों से प्लास्टर अलग हो रहा
जैसे बूढ़े की चमड़ी हड्डी से होती है
हवेली को निहारो तो कई
अजूबे दृश्य दिखते हैं जैसे
आँगन की दीवारों पर पसरती काई
झड़ता प्लास्टर
उघड़े खाल से चमकते लाल मांस की तरह
जगह-जगह से झांकती नंगी ईंटें
दीवार की दरारों और मुड़ेर पर
पीपल के पौधे
छत की तल्ली से झांकती जंग लगी छड़
ख़तरनाक ढंग से धँसी हुई छत
कई जगह टूटी हूई चहारीवारी
परिसर में अनधिकृत पदचापों से बने चमकते रास्ते

बूूढ़े बीमार मालिक हवेली के बरामदे में
जीवन की अंतिम साँसों को सम्हालते हुए
खाँसते हैं तो लगता है जैसे
पुरानी हवेली खाँसती है

बूढ़ी मालकिन आँगन में सुबह-शाम
चूल्हा फूँकती हैं
आँगन से उठता धुआँ जैसे हवेली के
साँसों का संकेत हो

बग़ल की हवेली के आँगन में
छाती भर उग आई है घास
चूहों के बिलों मे विषधर सर्पाें का डेरा
जम गया है

बहुत खतरनाक हो गया है
पुरानी हवेली में रहना

क्या पुरानी हवेलियों के दिन लद गये?


घर
सर्वप्रथम
जहाँ सूरज की कोमल किरणों ने
मेरी नन्ही-सी देह को
बहुत हल्के से किया था स्पर्श

जहाँ की हवा सर्वप्रथम
मेरी नासिका द्वारों से
फेफड़ों तक, फिर रक्तवाहिनियों में
लम्बी यात्रा पर प्रस्थान कर गयी थी

जहाँ माँ के तन से अलग होते ही
सम्पूर्ण जिस्म का भार सहने को
सबसे पहले पृथ्वी
सामने पसर गई थी

पृथ्वी का पहला खुरदुरा स्पर्श पाते ही जहाँ
संसार से मेरा पहला
शाश्वत दार्शनिक प्रश्न था-
मैं कहाँ ! कहाँ !! कहाँ !!!

पता नहीं था?
इस शाश्वत प्रश्न में क्या था?
घर के कोने-कोने में पीतल की थाली बज उठी थी

वो घर अब सिर्फ स्मृतियों में शेष है।

दीपा मुर्मू


ओ !
सावन में धुले नीले आसमान-सी
निर्दोष लड़की!
ओ, भादो की हरी विस्तृत धरती
लहराती पहाड़ी चिडि़या!
इतने सपने हैं तुम्हारे दिल में
भय होता है तुम्हारे सपनों से!


तू समझती क्यों नहीं कि
नाटक करते है जिस अभियान का
धरती पर लाना बड़ा ख़तरनाक है!

रह़ने दे खेल को खेल
गंभीर नहीं होते खेल में
इस पार से उस पार
थिरकते पैरों से ले जा
कंदुक को
पर,
सपनों को न ले जा किरण बेदी तक

सुरीले हैं बोल तुम्हारे कंठ के
भजन गाने में करो उनका उपयोग
बलात बोया था जिसे गहन अंधकार में
काली देह की धरती में
छोड़ गई पाप बीज के अंकुर को
मस्त अदम्य अपूर्व सपनों वाली
वह दीपा मुर्मू !

(बिहार की एक आदिवासी लड़की, साक्षरता अभियान की एक सक्रिय कार्यकर्ता, अच्छी गायिका, बिहार महिला फुटबाॅल टीम की सदस्य, जिसके साथ अधिकारियों ने बलात्कार किया। सोच समझ कर उसने गर्भपात के सुझाव को अस्वीकृत किया और बच्चे को जन्म दिया। षड्यंत्र के तहत उसकी हत्या कर दी गई।)


------------
सम्पर्क
मोबाइल - 09931171611

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "मुजरिम हैं पेट के" (चर्चा मंच-1603) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी कवितायेँ बहुत ही बढियाँ है ,इसी तरह लिखते रहें. भारती दास

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय सर! पहली कविता पढ़ी तो भावुक हो उठा और दूसरी ने तीसरी पढ़ने पर मजबूर किया और फिर पढ़ता गया॥ बहुत अच्छा लिखते हैँ आप, पहली बार आपकी कोई कविता पढ़ी और फैन हो गया...आपके पाठकोँ मेँ एक और पाठक का इजाफा

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं