‘प्लाजमा’ कविता पर अमीरचंद वैश्य का आलेख
विजेन्द्र जी की लोक के प्रति प्रतिबद्धता से हम सब वाकिफ हैं. इसी क्रम में उन्होंने कई लम्बी कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें प्लाजमा उल्लेखनीय है. इस लम्बी कविता की पड़ताल की है अमीर चन्द्र वैश्य ने. तो आईये पढ़ते हैं अमीर जी का यह आलेख 'समर जारी है
बदस्तूर'
समर जारी है
बदस्तूर
अमीर चन्द वैश्य
‘प्लाजमा’ उल्लेखनीय लम्बी
कविता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की। ‘संवेद’ पत्रिका के अंक (जंनवरी, 2011) में इसका प्रकाशन पहली बार हुआ था। इसका
रचना-काल है जनवरी, 2011। इस मास की 15वी तारीख को यह पूरी हुई थी। अतएव कह
सकते हैं कि इस कविता की अन्तर्वस्तु विजेन्द्र के मानस में आकार ग्रहण करती रही
होगी। पूर्णता से पूर्व। प्रत्येक कृति पहले मानसिक स्तर पर अमूर्त आकार निर्मित
करती है। फिर वह सायास अनायास प्रत्यक्ष रूप में सामने आती है। पहले नक्शा बनता
है। फिर आलीशान इमारत। ‘ताजमहल’ की भव्य निर्मिति
इसका प्रमाण है। गोस्वामी जी ने लिखा है कि ‘रामचरितमानस’ की रचना सर्वप्रथम शंकर जी ने की थी। उसे अपने मानस में
धारण कर लिया था। इसीलिए राम-कथा का नाम ‘रामचरितमानस’ प्रसिद्ध हुआ। तुलसी ने रचना का श्रेय शंकर को प्रदान करके
अपनी विनम्रता व्यक्त की है। महापुरूष का एक लक्षण है ‘अपर मानप्रद आप अमानी’।
विजेन्द्र भी विनयशील हैं। लेकिन अपनी काव्य मान्यताओं पर
तुलसी के समान सुट्टढ़ रहते हैं। तुलसी ने अपने निन्दक आलोचकों की खरी आलोचना की
हैं। ‘काक कहहिं कल कण्ठ
कठोरा’ अर्थात् अपने
आलोचकों को काक बताया है। स्वयं को ‘कलकण्ठ’। अर्थात् कोकिल। विजेन्द्र ने भी अपने ‘सफेदपोश आलोचकों’ की खिंचाई की है। निर्भीकता से। आधुनिकतावादी कवियों का
पुनर्मूल्यांकन करवाया है। शायद यही कारण है कि ‘मैग्मा’ एवं ‘प्लाजमा’ जैसी ताजी टटकी लम्बी कविताओं पर नामवर आलोचकों ने एक भी
वाक्य तक न तो बोला है। और न ही लिखा है। हाँ, घटिया लम्बी कविता
की प्रशंसा अवश्य की है। यथा-कुँवर नारायण के तथाकथित प्रबन्ध काव्य ‘वाजश्रवा के बहाने’ को प्रकाशन वर्ष की उपलब्धि बताया गया है। लेकिन वास्तविकता
तो यह है कि वह अमूर्तन से ग्रस्त है। उस में सक्रिय लोक के जीवन-व्यापारों का
अभाव है।
विजेन्द्र की नई लम्बी कविता ‘प्लाजमा’ अब उनके नवीन काव्य-संकलन ‘बनते मिटते पाँव रेत में’ (सन् 2013) में संकलित है।
‘प्लाजमा’ शीर्षक पढ़ते ही
जिज्ञासा जागती है कि इसका क्या अर्थ है। और कविता से इसका क्या सम्बन्ध है।
विजेन्द्र ने अपने पाठक की इस जिज्ञासा का उत्तर ‘कविता से पहले’ शीर्षक के पूर्वकथन में दिया है। यह ‘प्लाजमा’ शब्द मेरे चित्त में बहुत दिनों तक कौंधता रहा है। इसके
बारे में जब कुछ जाना तो उत्सुकता जागी। क्या यह भी काव्य-कथ्य हो सकता है।
‘प्लाजमा’ के दो रूप हैं। एक तो भौतिकी में, तो दूसरा जैविकी में।
दोनों रूपों की द्वन्द्वात्मकता से ही जीवन-जगत् बना है। भौतिकी में उच्च ताप की
गैस का नाम प्लाजमा है, जैविकी में प्लाजमा वह तरल द्रव्य है, जिसमें कोशिकाएँ
रहती है। इस तरह 'प्लाजमा' के भौतिक तथा जैविक के द्वन्द्व (द्वन्द्वात्मक) रिश्तों
को बताते हैं। जीवन, प्रकृति तथा संसार के विकास और रूपान्तरण को जानने के लिए
दोनों तरह के प्लाजमा को समझना ही बेहतर होगा। द्रव्य का प्लाजमा द्रव्य-जगत् का
सार तत्व है। दोनो तरह के प्लाजमा मिल कर मनुष्य तथा संसार के विकास को बताते हैं।
सार तत्व को जानने के लिए छाया प्रतीति को जानना जरूरी है। छाया प्रतीति को मूलतः
समझने के लिए हमें सार तत्व तक जाना पड़ता है’ (बनते मिटते पाँव रेत में, पृ० 120,121)
उपर्युक्त लम्बे उदाहरण से स्पष्ट है कि जीवन-जगत् के प्रति
विजेन्द्र की समझ भौतिकवादी है, जो विज्ञान सम्मत है। और इतिहास सम्मत भी। वह जीवन-जगत् एवं
इतिहास की समीक्षा मार्म्सवादी दृष्टि से करते हैं। प्रत्येक घटना के मूल में द्वन्द्वात्मकता
होती है। परस्पर विरोधी तत्व अपनी गतिशीलता के कारण नवीनता उपस्थित करते हैं।
भाववादी दार्शनिक भी ‘द्वन्द्व’ का अस्तित्व
स्वीकरते हैं। गोस्वामी जी की उक्ति है कि ‘जड़ चेतन गुन दोष मय,बिस्व कीन्ह करतार’। सृष्टि का विकास
द्वन्द्वात्मक गति से हुआ है। विकास का मूल कारण एक तत्व है। अर्थात् पदार्थ। जड़
से चेतन अस्तित्व में आया है। असत् से सत्। प्रसादजी ने ‘कामायनी’ के प्रारम्भिक सर्ग ‘चिन्ता’ में कहा है। - ‘नीचे जल था ऊपर हिम था /एक तरल था एक सघन/ एक तत्व की ही
प्रधानता/ कहो उसे जड़ या चेतन’।
विजेन्द्र अपनी रचना-प्रक्रिया के अनुसार वस्तु जगत् का
सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित करते हैं। इन्द्रियों के घोड़े मुक्त छोड़ कर दृश्य के अदृश्य
को भी जानने की चेष्टा करते हैं कि सतह के नीचे क्या छिपा है। छाया प्रतीति से सार
तत्व तक यात्रा करते रहते है। अपने ज्ञान को संवेदनाओं में रूपांयित करके उसे
आत्मपरक ढंग से आकर्षक बिम्बों एव रूपकों के साँचे में ढालते हैं। ‘प्लाजमा’ रचना भी ऐसी ही है, जो ‘मै’ के एकालाप के रूप में
है। यथा, कविता का प्रारम्भिक अंश पढिए, जो सर्जनशील मनुष्य की सतत सक्रियता से साक्षात्कार कराता
है-
‘धरती की परत-दर-परत पर
लिखा है मेरा जीवन
क्रियाओं का अंश-अंश रोमिल इतिहास है मेरा
खोजे है मैने जीवन स्त्रोत जहाँ-तहाँ
चट्टानों में टीलों में, बीहड़ों में खदानों में
दाखिल हुआ हूँ ज्ञान विज्ञान के
नये रचे द्वारों में
खिला हूँ, पला हूँ उन्हीं के बीच।‘ (वही, पृ० 121)।
इसी प्रकार इस प्रदीर्घ कविता की अन्तर्वस्तु क्रमशः अपने
प्रयोजन की ओर अग्रसर होती है। अन्ततः अपने चरम बिन्दु पर पहुँचती है। इस कविता के
केन्द्र में सक्रिय मनुष्य है, जिसने अपने हाथों और मस्तिष्क का यथासमय प्रयोग करते हुए
सभ्यता-संस्कृति की विकास-कथा समय की शिला पर असंख्य रंगो में उत्कीर्णित की है।
सम्पूर्ण कविता छह हिस्सों में विभक्त है। छहों हिस्से स्वतंत्र हैं। और परस्पर
सम्बद्ध भी हैं। प्रत्येक हिस्से के बाद अन्तराल है, जो पाठक को
वर्तमान क्षण से अनायास जोड़ देता है।
विजेन्द्र की प्रत्येक लम्बी कविता में स्थानीय वैशिष्ट्य
के साथ-साथ आत्म-कथात्मक अंश अनायास आते है। दोआबे के मूल निवासी विजेन्द्र मरू
भूमि के ‘दहकते पलाश’ रोहिड़ा का उल्लेख
करने के बाद खिन्न मन से अपनी दोआबी जन्म-भूमि धरमपुर (जि बदायूँ) को अनायास याद
करने लगते हैं-
'होता हूँ विचलित।
विमूढ़ कई बार
कहाँ आ गया दोआब से खँदकर यहाँ
नहीं है कोई जोति स्तम्भ
न वृक्ष फलदार
कैसे चल पाऊँगा निर्बाध आगे तक।‘ (वही, पृ०122)
और फिर आगे वाचक अतीत और वर्तमान के वास्तविक चित्र अंकित
करने लगता है। अपने ज्ञान को संवेदना में बदलते हुए और संवदेना को ज्ञान में।
वर्तमान के विषमता-ग्रस्त समाज का लघु चित्र देखिए-
‘चाहिए अन्न-जल करोड़ों-करोड़ को
भूखों को आहार, प्यासों को स्वच्छ जल
आकाश तले छत मेघ-धूप से बचने को
सदियों से तरस रहे जो पौष्टिक भोजन को
अच्छी चीजों को
करता उपभोग जिनका रात दिन
बिना किसी लज्जा के, आत्म ग्लानि के
बिना किसी ड़र के आखिर क्यों
बिना पश्चाताप के।‘ (वही, पृ०123 )
उद्धृत अंश में जो आत्मालोचन व्यक्त हुआ है, वह सुविधा-सम्पन्न
वर्गो की तीखी आलोचना से सम्बद्ध है। बीज भाव करूणा है, जो पीड़ित मानवता
के रक्षण को प्रेरित करती है। स्वयं की आत्म-भर्त्सना है। अवसरवादी और रीढ़-विहीन
मध्यम वर्ग एवं शोषक उच्च वर्ग की भी।
‘फलता फूलता जैवमण्ड़ल चारों ओर’ देख कर विजेन्द्र
पुनः आपबीती कह कर मानवीय स्वभाव की दुर्बलता की ओर इशारा करते हैं-
‘सहे हैं आघात जीवन में
मिले जो अपनों से
औरों से
अभी तक हरी हैं खरोचें चित्त-भूमि पर।‘
(वही, पृ०123 )
और फिर अनुभव-प्रसूत ज्ञान को प्रत्यक्षता प्रदानते हैं-
‘हर दिन होता है सोच अगौंहा
गतिशील वेगवान
गुँथा-बिंधा रंगों में।‘ (वही, पृ०123)
बहुत कुछ जानने के बाद भी ऐसा मालूम होता है कि
‘फिर भी क्या जान सका
अब तक कण भर संज्ञान मिनख का।‘ (वही, पृ०124)
अतः कवि की जिज्ञासा उचित है कि
‘कैसे जान पाऊँगा आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी
बिना जाने प्लाजमा के अलग-अलग रूप।‘ (वही, पृ०124)
‘कैसे जान पाऊँगा आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी
बिना जाने प्लाजमा के अलग-अलग रूप।‘ (वही, पृ०124)
मनुष्य विश्व में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अपनी सर्जनशीलता
के कारण उस ने सामूहिक श्रम से उत्पादन किया है। नाना प्रकार के निर्माण किए हैं।
आविष्कार किए हैं। इसीलिए विजेन्द्र कविता को श्रम-सौन्दर्य से जोड़ कर कहते है-
‘कविता का जन्म हुआ उत्पादक क्रिया से
श्रमी ही है पहला कवि।‘ (पृ०127)
लेकिन श्रम करने के बाद भी वह प्यासा है। दुखी है। असहाय है। क्यों। विषमता की लूट के कारण। अतः वाचक ठीक कहता है-
‘लड़ने को आगे का सतत समर
तोड़ना होगा ब्रह्म पाश।‘ (पृ०128)
‘ब्रह्म-पाश’ क्या है। इस का उत्तर भाववादी दर्शन की वह मान्यता है, जो ‘ब्रह्म’ को सत्य मानती है और ‘जगत्’ को मिथ्या। इसी ने साधारण जनों को भाग्यवादी बना कर सामाजिक बदलाव की सोच से दूर रखा है। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि जगत् मिथ्या नहीं है। मनुष्य स्वयं भाग्य-निर्माता है। विज्ञान के ज्ञान ने समझाया है कि
‘भौतिकी सिरजती है देखी-अनदेखी घटनाओं के
पल-नखत।‘ (पृ०126)
‘कविता का जन्म हुआ उत्पादक क्रिया से
श्रमी ही है पहला कवि।‘ (पृ०127)
लेकिन श्रम करने के बाद भी वह प्यासा है। दुखी है। असहाय है। क्यों। विषमता की लूट के कारण। अतः वाचक ठीक कहता है-
‘लड़ने को आगे का सतत समर
तोड़ना होगा ब्रह्म पाश।‘ (पृ०128)
‘ब्रह्म-पाश’ क्या है। इस का उत्तर भाववादी दर्शन की वह मान्यता है, जो ‘ब्रह्म’ को सत्य मानती है और ‘जगत्’ को मिथ्या। इसी ने साधारण जनों को भाग्यवादी बना कर सामाजिक बदलाव की सोच से दूर रखा है। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि जगत् मिथ्या नहीं है। मनुष्य स्वयं भाग्य-निर्माता है। विज्ञान के ज्ञान ने समझाया है कि
‘भौतिकी सिरजती है देखी-अनदेखी घटनाओं के
पल-नखत।‘ (पृ०126)
इस कविता के पहले हिस्से में अतीत-वर्तमान, श्रम एवं
प्रकृति-सौन्दर्य, बिम्बों-रूपकों अदृश्य दृश्यों की कांत मैत्री है। निर्भीक
आदमी की भीतरी दहक है। हाथों के कौशल के अनेक रूप हैं। हाथ ही ने बनाया है मानव को
कवि, चित्रकार, गायक, शिल्पी, स्थापत्कार। और ‘नृत्य मंगिमाओं मे झलकता है उल्लास जीवन में।‘ उँगलियों के लयात्मक संचालन से ही नृत्य के भाव-अनुभाव
सम्प्रेषित होते हैं।
कविता के दूसरे हिस्से में विजेन्द्र ने प्राकृतिक जगत् के
प्रस्फुटन एवं विकास की कथा चित्रात्मक रूपों में वर्णित की है। साथ-ही-साथ
प्राणि-जगत् की भी। प्राणियों एंव प्राकृतिक परिवेशों का मनमोहक-आश्चर्यजनक विकास
परस्पर जुड़ा है। दूसरे हिस्से के प्रारम्भ में कवि का कहना है कि
‘क्या यूँ ही उपज आया भूतल से
जैसे उगता है बीज द्विपत्र हो जुती धरती से
सूर्य के उजीते में, हवा में, ताप में, जल की बूँदों में भीग
कर
नहीं नहीं, मै नहीं हूँ पृथ्वी का अबोध शिशु मात्र
धूल कणों से उछरा एक कण
पिसी रज काली, चट्टान का खुरदरापन
कहता रहा हूँ पृथ्वी को जननी
कहता रहा हूँ पृथ्वी को जननी
खुली है मेरी आँख अन्न से
जल से, हवा से, रबेदार उजीते से
लेता हूँ साँस नथौरों से
लेता हूँ साँस नथौरों से
सुनता हूँ कानों से
रचा गया है शब्द बड़े ही जतन से
अर्थ के लिए नापी है लम्बी डगर।‘ (पृ०129)
तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से
सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान प्राप्त किया है। रूप-रंग देखे हैं। वन और वनस्पतियाँ देखी
हैं। कोमल-कठोर ध्वनियाँ सुनी है। भोजन के कई स्वाद चखे है। त्वचा से कोमलता और
कठोरता का संस्पर्श किया है। और इन्हीं के आधार पर उसने नाना प्रकार की कृतियों की
रंगिल सर्जना की है। इसीलिए मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह प्रकृति से
कृति एवं संस्कृति की ओर अग्रसर हुआ है। जांगलिकता से मागलिकता की ओर। तमस से
प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमृतत्व की ओर। कर्म करते हुए दीर्घ जीवन की ओर। उस की
मनीषा ने कभी विश्राम नहीं किया हैं।
ऐेसे सर्जनशील और कर्मठ मनुष्य की शक्ति और सहिष्णुता का
वर्णन विजेन्द्र ने आत्मीय भाव से किया है-
‘जो वे समझते हैं
पशु पक्षी डराने का बिजूका नहीं हूँ
खेत में
नहीं हो पाया मुक्त आज तक भीगता रहा हूँ
रात की टपकती बूँदों में
धूप की बर्छियों को सहता हूँ
उभरी पसलियों पर
कहाँ हुआ शिखरस्थ मुकुटधारी
ओ हठी जन
पूर्णता मेरा कोई विकल्प नहीं
कहाँ खोज पाया हूँ आकाशगंगाओं का
ज्वलित छोर।‘ (पृ०129,130)
इस उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो रही है कि जब से समाज समता
से विषमता की ओर बढ़ा है, तब से श्रमशील जन अनिवार्य आवश्कताओं के अभाव का दंश झेलते
रहे हैं। उन्हें राजाओं-महाराजाओं के समान ‘शिखरस्थ मुकुटधारी’ सर्वोच्च सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन उस श्रमी मानव
की अदम्य सिसृक्षा एवं अन्वेषण-वृत्ति शान्त नहीं हुई हैं। वह नित नवीन आविष्कार
करता रहा हैं। अभिनव कृतियों की रचना करता रहा है। लोकतांत्रिक समाज में तो वही ‘नायक’ है। कविता के केन्द्र में भी वही है। राजाओं-महाराजाओं और
उच्च वर्ग के आमिजात्य जनों का युग समाप्त हो चुका है। और हो रहा हैं। अब ‘होरी’, ‘धनिया’, ‘गोबर’ का युग है। अतः विजेन्द्र कहते है-
‘ओह रात के स्याह सघन आकाश में
उजाले की क्षीण रेख
क्यों कौंधती है आँखों में
गड़ती भीतर तक
एक पैनी नौक सुर्ख
खतम हुआ लगता है महान पुरूषों का
उज्ज्वल समय
सामान्य से चुनना है अपना काव्य-नायक।‘ (पृ० 130)
आज का जिज्ञासु और स्रष्टा मनुष्य द्रष्टा रूप में धरती से अन्तरिक्ष तक, इस ग्रह से उस
ग्रह तक, सतह से नीचे और ऊपर निरन्तर निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। नवीन ज्ञान के
नव्य द्वार खोलता है। अभिनव आविष्कारों से दिन-प्रतिदिन साक्षात्कार करता रहता है।
विजेन्द्र ने जिज्ञासु मानव के स्वभाव और उसकी सतत् साधना का आत्मीय वर्णन किया
है-
‘ओ कवि मैं ने कहा था
जब रचा गया सौरमण्डल
मैं वहाँ नहीं था
कैसे पहचानूँ इन कणों में बजती
भिन्न भिन्न ध्वनियाँ अनुररणन
तेज लय तीखी
रोज आता हूँ यहाँ जानने रहस्य
इस मगरमच्छी चट्टान के
सतत् फुदकते तारे के नाभि-बिन्दु।‘ (पृ० 131)
और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ‘नष्ट नहीं होता कुछ भी’। सिर्फ रूप बदलते रहते हैं। पानी जम
कर बर्फ में बदल जाता है। लावा ठण्ड़ा होकर स्याह चट्टान बन जाता है। वह सौर जगत्
के राजकुमार सूर्य से कहते हैं कि
‘तेरे तेज घूमते मसकले पै
रख कर के देखूँगा आदमी की जिजीविषा को
उसके कठोर यत्न को
पृथ्वी की धुरी कैसे जान पाऊँगा
वो है तेरी दुहिता बेचैन
बाहर से, भीतर से,नहीं है चैन
प्रश्न खड़ा होता है कि सूर्य ही ‘दुहिता’ पृथ्वी बेचैन क्यों है। इसलिए कि वर्तमान क्रूर पूँजीवादी
व्यवस्था उसका विदोहन निरन्तर कर रही है। जो सबका पेट भरती है, उसी का पेट
चीरा-काटा जा रहा है। कविता में इसका प्रतिरोध अनिवार्य है। भौतिकवादी दर्शन की
आँख से देखकर विजेन्द्र स्पष्ट बात कहते है कि
‘यह अदृश्य अणु जीवित द्रव्य
रूप है काल का, गति का,
जिसे बाँधने को
आज तक रचे शब्द, लय, ध्वनि, छन्द
तुझे दिखाने आऊँगा कभी
कविता का दहकता अन्तःकरण।‘ (पृ० 132,133)
तात्पर्य यह हैं कि सदा जीवित द्रव्य और अदृश्य अणुओं से
काल गतिशील है। इसी गतिशीलता को लयात्मक वाक्यों में बाँधने का प्रयत्न कवि करता
हैं। प्रकृति-निरीक्षण से कृति की रचना करता है, जिसके केन्द्र में
सक्रिय मानव की श्रम-संस्कृति के अनेक रूप अपने सौन्दर्य से पाठक को आकृष्ट करते
है। अन्य ललित कलाओं में भी मानवीय सौन्दर्य की आभा लक्षित होती हैं।
प्रसंगवश यहाँ एक नई बात अनिवार्यतः उल्लेखनीय है।
अन्तरिक्ष के वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयत्नों के बाद सूर्य, पृथ्वी, मंगल, शनि आदि कई ग्रहों
की कोमल-कठोर, तीव्र-मन्द भयंकर ध्वनियाँ रिकार्ड की हैं। प्रत्येक ग्रह
में हलचल भरी हुई हैं। अतः विजेन्द्र की यह मान्यता ठीक मालूम होती है कि अभी तक
मनुष्य ने पूर्ण ज्ञान आत्मसात नहीं किया है। लेकिन उसके प्रत्यन और प्रयोग
निरन्तर जारी हैं।
कविता का तीसरा हिस्सा सूर्य-सम्बोधन से प्रारम्भ होता है।
वह पृथ्वी का जीवन-स्त्रोत है। विश्व की खुली आँख है। मनुष्य उसी का पुत्र हैं।
कविता का वाचक साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिरोध करते हुए संघर्षशील राष्टृों से
ओजपूर्वक स्वर में कहता है-
‘बोलो अपनी जुबान
देखो मेरी आँखों से
यह समय है महापुनर्जागरण का
कौन से ब्रह्मा ने रचा है
यह विराट् शिरोमणि जीवन
विरल सुन्दर उपहार निसर्ग का।‘ (पृ० 133,
134)
यहाँ यह बात स्पष्ट हो रही है कि भौतिकवादी दर्शन के अनुसार
सृष्टि का विकास आद्य द्रव्य की गतिशीलता के कारण हुआ है। यह किसी ब्रह्मा की रचना
नहीं है। अब समय आ गया है कि पिछडे-अगड़े राष्ट्र एकजुट हो कर प्रतिरोध का गगन-भेदी
उद्घोष करें।
कवि विचारों को संवेदानात्मक साँचे में ढालकर कथ्य का
शनैः-शनैः विस्तार करता है। वह जल-थल-नभ के अनेकानेक चित्र अंकित करते हुए विज्ञान-सम्मत सत्य का उद्घाटन करता
है -
‘एक दिन पृथ्वी ने अलग शुरू की यात्रा
दहकते सूर्य से
द्रव्य ही था प्रथम सत्य चेतन कहाँ था
बनती गई ठोस परतें, परतें, परतें
भाप से जन्मते रहे जल-कण
महाकाल का प्रथम उत्सव था भैरव राग
ताण्डव नृत्य
एक कोषीय जीव में जन्मा मैं
उसी से फूटा है कल्ला सुर्ख
बहुकोषीय जीवन का महाजागरण
चट्टानों की परतों में बचे रहे है निशान
जीवधारियों की हड्डियों के
वनस्पतियों के
बडे़ संघर्ष से मिली है मुझे रीढ़
रगें, मस्तिष्क का लिसलिसा द्रव्य।‘
यह है मानव के विकास का क्रम, जिसे भौतिकवादी
दर्शन की आँख से देखा-समझा जा सकता है। रीढ़ के निर्माण में हाथों का योगदान
अविस्मरणीय है। अन्य प्राणियों की तुलना में मानव इसीलिए श्रेष्ठ है कि वह सोच
सकता है। अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों का निर्माण कर सकता
है। उसके पास भाषा का प्रकाश है। वह अपनी कल्पना से अदृश्य को दृश्यता प्रदान कर
सकता है। आकाश में पक्षियों को उड़ते हुए देख कर उसने वायुयान की कल्पना को यथार्थ
में बदल दिया। अग्नि की खोज उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। अग्नि के प्रकट रूप के
अभाव में विकास का रथ आगे बढ़ सकता था? इसीलिए कविता का वाचक कहता है कि
‘पहुँचा अग्नि-भट्टियों के ताप में
खोजने तेज के उद्गार तत्व
रेडियम, थोरियम, यूरोनियम
रेडियो सक्रिय खनिज जहाँ-तहाँ।‘ (पृ० 139)
विजेन्द्र के काव्य-निबद्ध चिन्तन का सार तत्व यह है कि
‘विपरीत तत्वों की एकरूपता
ही सत्य है, गति है
अन्त ही उसका, मृत्यु है।‘ (पृ० 139)
प्रकृति-जगत् में पंच तत्वों का सन्तुलित मेल निर्माण करता
है। उन का भैरव मिश्रण विनाश एवं विध्वंस। उल्कापात होने लगते हैं। शम्पाओं के
भीषण निपात भी समुद्र अपनी मर्यादा त्याग कर धरती को जल-मग्न कर देता है। मानव
शरीर में पानी की कमी शरीर को रोगग्रस्त कर देती है। शरीर में जल भी है और अग्नि
भी। एक का अभाव शरीर को रोगी बना देता है। धरती यदि माँ है तो आकाश पिता। दोनो आपस
में सम्बद्ध हैं। धरती पर बरसा पानी भाप बन कर मेघों का रूप धारण कर लेता है। पानी
बरसा कर धरती की प्यास बुझाता है। लेकिन अतिवृष्टि धरती पर बाढ़ का भयंकर परिदृश्य
उपस्थित कर देती है। सूर्य अपने ताप से हिमालय पर जमी बर्फ को जल में बदल कर उसे
नदियों की धाराओं में परिवर्तित कर देता है। सूर्य ही हरी-भरी फसल पर सोने का पानी
चढ़ाता है। शरीर में परस्पर विरोधी पंच तत्वों के विघटन से वह मृत घोषित कर दिया
जाता है। अतएव विपरीत तत्वों की एकरूपता जीवन है। उनका अभाव मृत्यु। यह वैज्ञानिक
सत्य है, जिसकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति विजेन्द्र ने निपुणता से की है।
चौथे हिस्से का प्रारम्भ प्रश्न से होता है -
‘कौन थे गोंड, कौन थे भील, कौन हैं आदिवासी
आदिम संतान भारत की
उस निषादराज को भी याद किया था, जिसने अथवा उसके
पूर्वज ने क्रौंच-वध किया था। लाचार हो कर अपनी आजीविका के लिए। द्रविड़ भारत के
मूलजनों को भी याद किया गया है, जिन्हें अनार्य घोषित किया गया था। लेकिन अब यह सत्य उजागर
हो गया है कि आर्य-आक्रमण मिथक है। इसलिए मूल निवासियों का पलायन भी मिथ्या है।
वस्तुतः यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का कपटपूर्ण व्यवहार था, जिसके फलस्वरूप
उत्तर भारत और दक्षिण भारत में आज भी मन-मुटाव है।
विजेन्द्र ने अपनी व्यापक मानवीय करूणा से प्रेरित होकर
भारत के, विशेषतः छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की दयनीय दशा का प्रत्यक्षीकरण किया हैं।
उन्हें इस महादेश की ‘अपराजेय जनशक्ति’ कहा है। विजेन्द्र लड़ाकू जनशक्ति पर भरोसा करते हुए ठीक
कहते हैं -
‘इस महादेश की अपराजेय जनशक्ति
जिन्दा है इन्हीं से
सिंहभूमि, मयूरभंज, मानभूमि
नदियों से घिरी मझोले कद की पहाड़ियाँ
उनकी लाल आँखें भरी हैं आक्रोश से
कह नहीं पाते जो अपना ताप
बहुत भीतर छिपी है यातना की ज्वाला।‘ (पृ० 143)
सहृदय कवि विजेन्द्र इस ज्वाला को प्रतिरोध में बदलना चाहते
हैं। उन्हें खेद है कि
‘सोनभद्र कितना प्यारा नाम है दोआब का
यहाँ के कोल, गोंड, पहरिया
आज भी अछूत हैं
इनका कौन सा वर्ण हो सकता है
कभी नहीं सोचा
श्रमी का क्या सम्प्रदाय, क्या वर्ण क्या
कौम।‘ (पृ० 144)
यह उद्धरण कवि की वर्गीय दृष्टि का प्रमाण है। शोषित वर्गो
के प्रति उसकी व्यापाक हार्दिक संवेदना उसे अभिजात वर्ग के रस-रंजन-अनुरागी
तथाकथित बड़े कवियों से नितान्त भिन्न करती है। वह लोकधर्मी है, जो श्रम का सम्मान
करती है। दिल की गहराई से।
शम्भू बादल जैसे समर्थ कवियों ने झारखण्ड़ के श्रमजीवी जनों
और उनके परिवेश पर अच्छी कविताएँ रची हैं। अब हाशिये के साधारण जन केन्द्र में आ
रहे हैं। समकालीन कविता की यह प्रशंसनीय विशेषता हैं।
पाँचवे हिस्से में विजेन्द्र ने मरू-भूमि के भू-दृश्य अंकित
किए हैं। सतत पर्यवेक्षण निरीक्षण के आधार पर। आत्मीय ढंग से। प्यासे थार को निरख कर
विजेन्द्र खिन्न मन से कहते हैं कि
‘क्यों होता हूँ रिक्त अन्दर तक
मरूस्थलीय जीवन का पुंज
पत्थरों को फोड़ उपजता ऊँटकटीला
चमकाता पैने दाँत
कब तक खड़ा रहूँगा यहाँ
चूमने नम हवाओं को
किरणों के अन्नवान मुख
खड़े हैं आगे पथ में बालुका स्तूप घने ऊँचे
आगे तक फैली हैं नई मरोड़दार
अरावली की भ्रंश ऋंखलाएँ
क्रूर विदोहन होता है प्रकृति का दिन रात
मेरे साथ अन्धाधुन्ध
आगे बढ़ता मेरा देश
क्या बन पाएगा
सुन्दर स्वस्थ
ऐसे डरावने उजाड़ में।‘ (पृ० 144, 145, 146, 147,)
कविता का यह अंश स्थानीय परिवेश के प्रति विजेन्द्र के गहरे
अनुराग एवं उनकी लोक मंगालिक चिन्ता का प्रमाण है।
लोकधर्मी कवि अपने काव्य में स्थानीयता का अथवा जनपदीयता के
सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के अनेक बिम्ब, वर्णन और पात्रों के चरित्रों का निरूपण अवश्य करता है।
कविता का पाँचवाँ हिस्सा विजेन्द्र के लोकधर्मी कवि का प्रमाण है।
कविता का छठा हिस्सा ‘आत्मा’ के अनस्तित्व से प्रारम्भ होता है। विजेन्द्र की भौतिकवादी
जीवन-दृष्टि ‘आत्मा’ का अस्तित्व
नकारती है –
‘क्या है आत्मा
सदियों से पड़े हो जिसके पीछे तुम
एक सूक्ष्म अग्निकण का चिन्मय रूप
कहते जिसे अष्टधातु का सारकण
झिलमिलाता है उसमें यह पूरा विश्व-वृक्ष।‘ (पृ० 148)
‘आत्मा’ की अवधारणा
भाववादी दर्शन की मिथ्या देन है। प्राण निकल जाने के बाद शरीर मृत हो जाता है। और ‘चेतन’ तत्व भी लुप्त हो जाता है। ‘आत्मा’ की अवधरणा से पुनर्जन्म का सम्बन्ध जुड़ता है। मनुष्य की
गरीबी का कारण पूर्व जन्म के पाप माने जाते है। यह अवधारणा वर्ण
-व्यवस्था एवं उससे
जनमी जाति-व्यवस्था को भी उचित ठहराती है। यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। ‘लोकतन्त्र’ की व्यवस्था ने
इसे अस्वीकार कर दिया हैं। क्या पहले के ‘राजतन्त्र’ को पुनः उचित ठहरा
कर आज लागू किया जा सकता है। नहीं। आजकल तो ‘वंशवाद’ और ‘परिवारवाद’ की कटुतम आलोचना हो रही है। अतः ‘आत्मा’ को ’चेतना’ के रूप में
स्वीकारना अधिक तर्कसंगत है। सर्जनशील कवि एंव कलाकार की चेतना के दर्पण में
सम्पूर्ण जगत् झिलमिलाता रहा है। वह उसी की कलात्मक पुनः सृष्टि करता है। ललित
कलाओं के सौन्दर्य-रूप में।
विजेन्द्र अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से इतिहास की समीक्षा करते
हुए पुनः कहते हैं। -
‘ओ मेरी विकासमान चेतना के गति कण
द्रव्य ही सच है
गति ही जीवन है
आदि अन्त
उस का सार तत्व
यही है मेरी आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी।‘ अर्थात मानव भूगोल।
विजेन्द्र जितने आत्मचेतस हैं, उतने ही
विश्वचेतस। अतः वह अपने युग की सामाजिक गति की एंव आर्थिकी के शोषक रूप की तीखी
आलोचना करते हैं। निरीह-निरन्न-निर्वस्त्र लोगों से रागात्मक सम्बन्ध जोड़ते है। और
फिर अमरीका के दिलेर लेखक नाम चोमस्की एंव वेनेजुएला के दबंग राष्टृपति हयूगो
शावेज से अपना रिश्ता जोड़ते है। साम्राज्यवादी क्रूर शक्तियों की निर्भीक आलोचना
करते हैं। उनके चिन्तन के अनुसार अब ‘तमसो मा सद्गमय’ जैसे उपदेशमूलक वाक्य दुनिया नहीं सुनती है। अब तो विश्व को
समझने के लिए वैज्ञानिक चिन्तन आत्सात् करना अनिवार्य है। अतः कवि बेचैन भाव से कहता
है-
द्रव्य की चौथी भुजा
यह प्लाजमा, पिघलते ताप से फूटा जो
गैस का अँखुआ
सूर्य की कोख से
अभी अन्त नहीं सूर्य गाथा का
क्या है रिश्ता कविता से
मेरे मन के मन से
रोयों से, पलकों और आँख के कोयों से
ओह, छिपे गहन आँसुओं से
‘महाप्रयोग बिग बैग’ से
कैसे जोड़ पाऊँगा इसे रोटी से, भूख से
क्या रूक पाएगी इससे महाविनाश लीला
मनुष्य की, प्रकृति की, सुन्दर सृष्टि की
पूछता हूँ तुमसे
हाँ तुम्ही से।‘ (पृ० 151,152)
कविता का प्रश्नात्मक समापन विजेन्द्र की उदग्र चिन्ता
व्यक्त कर रहा है कि सदियों से शोषित मानव और उसके परिवेश का कल्याण एवं रक्षा
कैसे होगी। यह बैचेनी कवि को काव्य के महान प्रयोजन ‘शिवेतरक्षतये’ से जोड़ रही है।
अन्त में सम्पूर्ण कविता का भरत वाक्य है –
‘समर अभी बदस्तूर जारी है
यह रहेगा बहुत आगे तक
पराजय ही विजय की जननी है’ (पृ० 152)
निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि ‘प्लाजमा’ विज्ञान-बोध से युक्त लम्बी कविता है। इसकी कथन-भंगिमा नाटकीय एकालाप है। अन्तर्वस्तु वस्तुपरक है। और आत्मपरक भी। इसमें लयात्मक वाक्यों
का कलात्मक विन्यास है। गतिशील बिम्बों की मालाएँ हैं। आकर्षक रूपक है। यथास्थिति
के विरूद्ध प्रतिरोधी स्वर मुखरित है। इतिहास और वर्तमान की कान्त मैत्री है। यह
कविता निराला की ‘शक्ति पूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ की तुलना में कुछ
अलग है। इसमें ‘शक्ति पूजा’ जैसा दैवी चमत्कार
नहीं है। और न ही ‘अँधेरे में’ विन्यस्त दुरूह
फैन्टेसी। भाषिक संरचना लगभग समास-रहित है। हिन्दी की प्रकृति के अनुसार प्रचलित
तत्सम शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के प्रचुर शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। इसका
मुखर पाठ करते हुए पाठक को ‘कवित्त’ छन्द की लय का
आभास होता रहता हैं। अतः यह कविता ‘मुक्त छन्द’ में है, जो समकालीन अन्य
कविताओं में अलक्षित हैं। इस ‘मुक्त छन्द’ ने विजेन्द्र को
अपने आदर्श कवि निराला के ‘मुक्त छन्द’ से जोड़ दिया है।
निराला का ‘मुक्त छन्द’ कवित्त की लय पर
आधारित है। इस कविता ने समकालीन हिन्दी कविता के सामने नवीन काव्य-मार्ग प्रस्तुत
किया है। आशा है कि समकालीन कवि स्वयं को विज्ञान-बोध से जोड़कर कविता और अधिक
समृद्ध करेंगे।
हाँ, प्रूफ्र की त्रुटियों ने अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित कर दी
हैं। लेकिन इससे कविता का महत्व कम नहीं होता है।
सम्पर्क
अमीर चन्द वैश्य
चूना मण्डी, बदायूँ
(उत्तर प्रदेश)
243601
मोबाईल- 09897482597
वैज्ञानिक दृष्टि से लिखी गयी कविता है।
जवाब देंहटाएंकवि विजेंद्र जिस विषय पर लिखते हैं। पूरी जांच पड़ताल के बाद कविता लिखते है। लम्बी कवितायेँ बहुत बेहतरीन हैं।
प्रभाशाली लेख है। बधाई बहुत -बहुत। शाहनाज़ इमरानी
गुरूवर विजेन्द्र जी की महत्वपूर्ण लम्बी कविता प्लाज्मा पर सुपरिचित समीक्षक अमीर चंद जी का बेहतरीन आलेख ।पठनीय एवं ज्ञानवर्धक ।बधाई।
जवाब देंहटाएंमैग्मा कविता पर कुछ लिखता तो अच्छा होता
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