विमल चन्द्र पाण्डेय के उपन्यास 'भले दिनों की बात थी' पर सरिता शर्मा की समीक्षा
विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के कुछ उन चुनिन्दा रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने कहानी, कविता, संस्मरण जैसी विधाओं में अपना लोहा मनवाया है. अब आधार प्रकाशन से हाल ही में उनका एक उपन्यास 'आवारा सपनों के दिन' प्रकाशित हुआ है. सरिता शर्मा ने इस उपन्यास पर पहली बार के लिए एक समीक्षा लिखी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा
आवारा सपनों के दिन
सरिता शर्मा
कवि और कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय को उनके कहानी संग्रह ‘डर’ के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. उनका संस्मरण ‘ई इलाहबाद है भैय्या’ बहुचर्चित हुआ. उनके पहले उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ की शुरुआत फ़राज़ के शेर से होती है जो नोस्टाल्जिक माहौल बना देता है.
’भले दिनों की बात थी
भली सी एक शक्ल थी
ना ये कि हुस्ने ताम हो
ना देखने में आम सी
ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे...........’
युवा वर्ग के सपने और बेरोजगारी के दौरान समय काटने के बोहेमियन उपाय कुछ हद तक सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास ‘वे दिन’ जैसे हैं. शुक्ला जी की जवान होती बेटियों को ले कर पति पत्नी की चिंता और मोहल्ले के लड़कों की उनमें दिलचस्पी गीत चतुर्वेदी की कहानी ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ की याद दिला देती हैं. ‘शुक्लाइन ने अपनी चिंता शुक्ला जी से बांटी और पिछली चिंता साझा चिंता है. चिंताओं के ढेर में घिरे शुक्लाजी के सामने तीन जवान बेटियां, जिनमें एक ज़रूरत से ज़्यादा जवान होती जा रही है (उम्र ढल रही है, ऐसा वह कई लोगों के बोलने के बाद भी नहीं सोच पाते), आकर चिंताग्रस्त चेहरा लिये खड़ी हो जाती हैं.’
उपन्यास में बनारस की गलियों में किशोरों के सपनों और रूमानियत को बहुत दिलचस्प अंदाज में प्रस्तुत किया गया है. ‘कॉलोनी में लड़कों के कई ग्रुप थे. कुछ तैयारी वाले थे. तैयारी वालों में भी कई ग्रुप थे. जो एसएससी और आईएएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते थे वह और लड़कों से दूरी बना कर चलते. वे एक बार भी आईएएस का फ़ॉर्म भर देते तो कमोबेश ख़ुद को आईएएस मान के चलते थे भले ही कभी एसएससी हाई स्कूल लेवेल का प्री न निकाल पाये हों.’ रिंकू सविता से प्रेम करता है. उसका कमरा दोस्तों की महफ़िल का अड्डा है. राजू देवदासनुमा चिर असफल प्रेमी है. वह कविता से प्रेम सम्बन्ध टूटते ही अनु से प्रेम करने लगता है. कमल, समर गदाई और सुधीर उनके साथ मिलकर परीक्षा की तैयारी करते है, शराब पीते हैं, ब्लू फ़िल्में देखते हैं और लड़कियों की बातें करते हैं. साम्प्रदायिक ताकतें जल्दी से पैसा कमाने का प्रलोभन देकर युवकों में अपने हाथों की कठपुतली बना देती हैं. रिंकू और सविता के भागने की योजना पर पानी फेर देते हैं. सविता बम विस्फोट की चपेट में आ जाती है और रिंकू को पुलिस पिटाई करके छोड़ देती है. अंत में सब दोस्त अपने पुराने भले (बुरे?) दिनों को याद करते हैं. शायद सपने देखने और भविष्य की योजना बनाने को भले दिन कहा गया है.
इस उपन्यास में दोस्तों की मंडली बहुत जीवंत है. सब दोस्त इतने असली लगते हैं मानो हमारे सामने चल फिर रहे हों. राजू हर छह महीने में किसी नई लड़की से चोट खाकर रोने और ग़म ग़लत करने उसके कमरे पर आ जाता है. ‘उसका मन हुआ कि वह इस दुनिया पर थूक दे और डरे हुए लोगों की इस जमात को लात मार कर कुछ समझदार लोगों, जो उसे समझदार समझते हैं, के साथ बैठ कर काला घोड़ा पीये. तब तक पीये जब तक सब कुछ भूल न जाय.’ पूरे समूह में सिर्फ रिंकू मुसलमान है मगर उसका धर्म उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आता. ‘इसी एक घण्टे में कपड़ा भी धोना है, पीने और बनाने के लिये भी भरना है और राजू की दर्द भी बांटना है. साढ़े सात बजे के आसपास, जब हल्का अंधेरा हो जायेगा, अठाइस साल वाली भी अपनी छत पर आयेगी. उसे लाइन भी मारना है.’ पारस लेखक है जो लिखने और जीने में फर्क का जीता जागता उदाहरण है. पाठक उसके माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में उसकी ख्याति और साहित्यिक दुनिया की हलचलों से रूबरू होता है. ‘पारस फोन लगते ही उधर से राजू को डांटने लगा. उसका कहना था कि उसके होते हुए एक मुसलमान लड़का एक ब्राह्मण लड़की को ख़राब करने पर लगा हुआ है और वह खुद ब्राह्मण होने के बावजूद कुछ नहीं कर रहा है’.
उपन्यास को हास्यबोध और किस्सागोई उसे पठनीय बनाते हैं . ‘शुक्ला जी उदय प्रताप कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता थे और शुक्लाइन से हर पति की तरह बहुत प्रेम करते थे जब तक वह भाजपा के विषय में कुछ न बोलें. वह दुनिया में सिर्फ़ दो चीज़ों में श्रद्धा रखते थे, एक भोलेनाथ शंकर में और दूसरा भाजपा में अलबत्ता वह घृणा कई चीज़ों से करते थे. उनकी सिर्फ़ पांच लड़कियां थीं क्योंकि उसके बाद वह परिवार नियोजन की युक्तियों का प्रयोग करने लगे थे.’ भाषा में खिलंदडापन नजर आता है. ‘बदले में छटांक भर की जुबान की जगह पसेरी भर का सिर हिलाया राजू ने, नकारात्मक मुद्रा में.’ शुक्लाइन द्वारा पति के स्कूटर को पहचान लेने को हास्य के पुट के साथ व्यक्त किया गया है. ‘जिस तरह कोई चरवाहा हज़ारों भैंसों में से अपनी भैंस की आवाज़ सुन कर पहचान लेता है, शुक्लाइन मोहल्ले की सभी गाड़ियों में से शुक्ला जी की गाड़ी की आवाज़ पहचान लेती थीं और इस बात पर समय निकाल कर गर्व भी करती थीं.’ कॉलेज के माहौल का चित्रण सजीव है. ‘इस कॉलेज का नाम पहले क्षत्रिय कॉलेज था, ऐसा लोग बताते थे. कालान्तर में कॉलेज का नाम बदला पर चरित्र नहीं. यहां चपरासी से लेकर व्याख्याता और क्लर्क से लेकर कूरियर देने वाले तक ठाकुर हुआ करते थे. यहां लड़कियों को लेकर गोली कट्टा हो जाया करता था और जिस लड़की के पीछे यह सब होता था वह मासूमियत भरा चेहरा बना कर अपनी बगल वाली सहेली से पूछती थी, ´´क्या हुआ किरणमयी, ये झगड़ा किस बात को लेकर हो रहा है बाहर लड़कों में?´
कॉलोनी स्वयं एक सशक्त पात्र के रूप में उपस्थित है. ‘औरतें हंकड़-हंकड़ कर अपनी ज़बान साफ़ करती थीं और हाथ नचा-नचा कर अपना ब्लड सर्कुलेशन सुचारु करतीं थी और इस प्रकार अगले दिन के लिये तरोताज़ा हो उठती थीं. झगड़े कई प्रकार के होते थे. जो झगड़ा सबसे जल्दी और बगैर मेहनत बिना किसी पूंजी लगाये शुरू होता था वह था अतिक्रमण का.’ ’माता पिता की नजर में शरीफ दिखने की कोशिश करने वाली लड़कियों पर व्यंग्य किया गया है-कॉलोनी की लड़कियां बहुत शरीफ़ थीं और वे कभी किसी पुरुष या लड़के को नज़र उठा कर नहीं देखती थीं. कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं. लोगों के झगडे का फायदा पुलिस उठाती है. ‘जब दारोगा दोनों पार्टियों से पांच-पांच हज़ार लेकर जीप में चढ़ रहा था, उसके इशारे पर दोनों पार्टियां वापस अपने घरों की ओर जा रही थीं. युद्ध विराम की घोषणा हो चुकी थी.’ पुलिस की भूमिका नकारात्मक अधिक नजर आती है. बेगुनाहों को सजा दिलाने और पैसा लेकर मामले को रफा दफा करने के लिए वह सदा तत्पर रहती है. ‘थोड़ी देर तक बहस की गयी कि ये मामला पुलिस में देना चाहिए या नहीं और बहस के बाद बहुमत ये पारित हुआ कि कॉलोनी की बदनामी न हो, इसलिए यह मामला यहीं दफना देना ठीक होगा. इस उपाय को रामबाण बताने के लिए लड़की भागने की पिछली घटना को याद किया गया और बताया गया कि वहां भी सीमा के घरवालों ने पुलिस तक मामला नहीं पहुँचने दिया और कॉलोनी की इज्ज़त बचाई थी.’
इस उपन्यास में सबसे मौलिक और दिलचस्प बात शुक्लाजी के कुत्ते शेरसिंह का मानवीकरण है. वह मनुष्यों की तरह सोचता है और अपनी श्वान बिरादरी से विचार- विमर्श करता है. ‘नौकरीपेशा लोगों का दुखी चेहरा याद आते ही उन्हें अपनी पशु योनि पर गर्व हुआ और वह सगर्व गेट के पास जाकर दो बार भूंक कर वापस अपनी जगह पर बैठ गए. मालिकों की चिंता देखकर शेरसिंह भी दुखी रहने लगे और मालकिन के हितार्थ कभी-कभी मालकिन को यह कह कर सांत्वना भी देते कि क्या करूं मालकिन अगर मैं कुत्ता नहीं आदमी होता तो ज़रूर आपकी बेटियों में से किसी एक से शादी कर लेता.’
यह उपन्यास मूल्यों के क्षरण, कैरियरिस्टिक एप्रोच, साम्प्रदायिक माहौल को प्रस्तुत करता है. यहां युवाओं के स्वप्नों आकांक्षाओं और संस्मृतियों का कोलाज है. इसमें यथार्थवाद है मगर अमर्यादित भाषा के चलते पाठक उन युवकों की क्षुद्र त्रासदी में शामिल होकर भी उनसे समुचित एकात्मकता कायम नहीं कर पाता है. युवक बंद कमरे में अनौपचारिक बातचीत के दौरान भाषा सब हदें पार कर जाते हैं.. परीक्षा की तैयारी के लिए अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने के दौरान अंग्रेजी के संवाद खटकते हैं. कई पन्नों तक लगातार हिंदी अंग्रेजी की खिचड़ी भाषा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करती है. अधिकांश घटनाक्रम कुछ दोस्तों की बातों, शराब पीने और लड़कियों के पीछे भागने के इर्द गिर्द घूमता रहता है. पाठक को लगातार इंतजार रहता है कि उनकी नौकरी का क्या हुआ. अंतिम अध्याय में सब कुछ समेटने की हड़बड़ी दिखाई देती है. आजकल अंग्रेजी में कॉलेज और कैरियर पर अनेक उपन्यास आ रहे हैं . विमल चन्द्र पाण्डेय का यह उपन्यास बिना किसी विमर्श का सहारा लिए आज के समाज और उसमें हमारे सपनों की परिणति का बहुत तीव्र गति के साथ वर्णन करता है जिससे यह बेहद पठनीय हो जाता है.
उपन्यास : भले दिनों की बात थी; लेखक: विमल चन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
सम्पर्क-
सरिता शर्मा
1975, सेक्टर-4, अर्बन एस्टेट
गुडगाँव-122001
आजकल अंग्रेजी में युवा पीढ़ी के सपनों और उनकी परिणति पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. विमल चन्द्र का उपन्यास इस थीम पर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाता है. छोटे शहर के सीमित साधनों और ऊंची महत्वाकांक्षाओं वाले युवकों के जीवन का दिलचस्प वर्णन किया गया है. कुत्ते का चरित्र मौलिक और उल्लेखनीय है.
जवाब देंहटाएंसटीक समीक्षा
जवाब देंहटाएंसुंदर समीक्षा ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा लिखी है। शाहनाज़ इमरानी
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