श्रीराम त्रिपाठी का आलेख 'कृषक-कृषक का गुणन'
आलोचना एक दुष्कर कर्म है. आम तौर पर लोग आलोचना का मतलब उखाड़-पछाड़ या रचना की पंक्तिबद्ध व्याख्या से लगा लेते हैं जबकि इन सबसे इतर आलोचना रचना के ही समानान्तर उस का एक पुनर्पाठ करती है. रचना के समानान्तर खड़ी हो कर उससे बोलती-बतियाती है और उसे फिर से अपने तईं पुनर्रचित करती है. श्रीराम त्रिपाठी हमारे समय के ऐसे ही दुर्लभ आलोचक हैं जो अपनी आलोचना में शब्दों में रमते हुए, उनके साथ खेलते हुए नजर आते हैं और हमारे सामने रचना के समानान्तर एक पुनर्पाठ रख देते हैं. अपने इसी गुण के चलते वे औरों से अलग नजर आते हैं. प्रस्तुत आलेख में श्रीराम त्रिपाठी ने केदार नाथ अग्रवाल की एक कविता ‘नागार्जुन के बाँदा आने पर’ की आलोचना की है। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख
कृषक-कृषक का गुणन
श्रीराम
त्रिपाठी
जिस तरह बीज का विकास वृक्ष और वृक्ष का विकास फल है,
उसी
तरह भाव का विकास विचार, स्वर
का विकास व्यंजन और पद्य का विकास गद्य है। जीवन-साहित्य इसी तरह विकसता है।
प्राचीनतम और नवीनतम, दोनों
क्रियाएँ तथा प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे से संघर्षमय संयोजन करती हुई पनपती हैं।
प्रछंद को ही जब स्व-छंद माना जाने लगता है, मतलब
कि अनुकरण (रूढ़) ही जब सृजन कहलाने लगता है, तब
स्व-छंद (स्वच्छंद) की कामना घुमटने लगती है, जो
एक दिन आंदोलन के रूप में प्रकटती है। स्व-छंतादवादी (स्वच्छंदतावादी) आंदोलन इसका
प्रमाण है। मगर जब यह भी रूढ़ हो जाती है, तब
प्रगतिवादी आंदोलन की ज़रूरत पड़ती है। असल में,
कविता प्रसव के प्रयास में प्र-छंदती-स्व-छंदती (प्रच्छंदती-स्वच्छंदती) है। ऐसे
में कभी पर की प्रधानता होती है, तो
कभी स्व की। कविता हमेशा रूढ़ को विरोधती है। वेद को विरोधती है। प्रसव की
प्रवृत्ति ही सृजन की प्रवृत्ति है। वह पर और स्व को संयोजती है। भिन्न को
अभिन्नती है। सृजन की प्रवृत्ति शीलना है, वदना
नहीं; बावजूद इसके कुछ लोग
वदन को ही कविता कहते हैं। ऐसों की कविताएँ जनता तक नहीं पहुँचतीं। जो जने,
वही
जनता है और जो लोके-लउके (देखे-दिखे), वही
लोक है। कविता अमूर्त को ध्वनि-शब्दों के संयोजन से मूर्त करती है। जैसे एक किसान ऋक्ष
को वृक्षता है, वैसे ही एक कवि रूढ़
को शीलते हुए वृढ़ता है। (बीज ही ऋक्ष है। जो क्षरे वही है ऋक्ष। फल की गुठली ही
ऋक्ष है। जिसे अधिकतर लोग फेंक देते हैं, निरर्थ
समझ कर। सर्जक ऐसी ही चीज़ों का संयोजन करके अर्थवान वस्तु बना देता है। इसीलिए रचना
के तत्त्वों का अलग-अलग कोई महत्त्व नहीं होता। ऋक्ष हैं वे। उनकी गुणार्थता
संयोजना से उत्पन्न होती है। जिस्म और मन रीढ़ के बिना नहीं विकसते। इस तरह रीढ़ का
वृढ़ना (बढ़ना) ही जिस्म और मन का विकसना है।) केदार नाथ अग्रवाल कृषक हैं। वे पर और
स्व को शीलते हुए वृढ़ते हैं। उनके उप-जाए वृक्ष फलवान भी होते हैं और स्वादिष्ट भी,
जिन्हें
वे पहले तो दूसरों खिलाते हैं और ख़ुद बाद में खाते हैं। दूसरे लोग फल तो खाते हैं,
मगर
उन्हें बढ़ाते (वृढ़ते) नहीं। मतलब कि ऋणते हैं, धनते
नहीं। उनका धनना अपनी ओर है, फल
अथवा समाज की ओर नहीं। वे बाहर से केवल लेते हैं, देते
नहीं। इसलिए फल और उसके नियामक के ऋणी ही रहते हैं। इस ऋण से अगर उऋण होना है,
तो
फल की संख्या और गुणवत्ता, दोनों
को वृढ़ना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो
ऋणना ही ऋणना होगा। जिससे फलों का एक दिन अकाल पड़ जायेगा। बाबा नागार्जुन की मशहूर
कविता ‘अकाल और उसके बाद’
में
दानों, मतलब कि फलों का अकाल
है। जब तक वह नहीं था, घर
के लघु जीवों की हालत ख़राब थी, मगर
उसके आते ही वे किस तरह धमा-चौकड़ी, छीना-झपटी
करने लगे! आज का दौर उप-भोक्तावादी है, भोक्तावादी
नहीं। महज़ खा-खा करने वाला। बनाने वाला नहीं। इसलिए कर्महीन दौर है यह। ऐसे दौर का
अंत निश्चित है। ‘कफ़न’
में
प्रेमचंद इसी चिंता को शीलते हुए वृढ़ते हैं। दिवास्वप्न में डूबे हम भविष्य के इस
कड़वे सच को चखते ही नकार देते हैं। इससे क्या कड़वे सच की कड़वाहट कम हो जाती है!
ऐसा करके तो हम अपना ही नुकसान करते हैं। आज वही कड़वा सच हमारे सामने सुरसा की तरह
मुँह बाये खड़ा है। इस दौर का मुहावरा ही है, अकर्मण्यता।
सृजना-आलोचना भी इससे बरी नहीं है। एक ही प्रवृत्ति का बार-बार किया जाना ही रूढ़ि
है। रूढ़ना ही रुद्धना-अवरुद्धना है। चूँकि, रूढ़ि हमेशा विकास को रुद्धती-अवरुद्धती
है, इसलिए कविता रूढ़ि को विरुद्धती हुई बढ़ती है। कविता भावयुक्त विचारों की बाढ़
है। पुराना बंध तोड़ती और नया बंध रचती। आगे चलकर वह इसे भी तोड़ेगी।
जीव
की इच्छा ही श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ ही उसकी इच्छा है, जो
अमूर्त है। इसे दूसरा कोई देख-सुन नहीं सकता। जीव जब इसे पाने की कोशिश करता है,
वह
तभी मूर्त होती है। यही है उसका अपने ईश्वर का वरण करना। वह अपने ईश्वर का वरण
करने में जितना सफल होता है, उसका
ईश् उतना ही श्रेष्ठ होता जाता है। चाह से चाह का गुणन जब त्रिआयामी होता है,
संघ
तभी बनता है। चाह का गुणन अकसर द्विआयामी होने के कारण वर्गीय होता है,
संघीय
नहीं। जबकि कविता वर्गीय नहीं, संघीय
होती है। वर्गीय कविता गहरी नहीं, छिछली
होती है। किसी भी दौर की कविता पर नज़र डालें तो पायेंगे कि ज़ियादातर कविताएँ
वर्गीय ही हैं, संघीय तो बहुत कम।
वर्गीय कविताएँ धान-गेहूँ की तरह अल्पजीवी हैं, आम-महुए
की तरह दीर्घजीवी नहीं। धान-गेहूँ से तो पेट ही ज़ियादा भरता है,
जी
बहुत कम। तभी तो उनकी ज़रूरत बार-बार पड़ती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि पेट भरना भी
ज़रूरी है और जी भरना भी। केदार की कविताएँ धान-गेहूँ और आम-महुए की संयोजना हैं,
जिनसे
पेट के साथ-साथ जी भी भरता है। वे ज़ियादा गुणात्मक भी हैं और दीर्घजीवी भी। वे
इतना गहन और शक्तिशाली हैं कि ख़ुद ही जीवन रस गह लेती हैं, किसी
के मदद की बाट नहीं जोहतीं। ऐसी रचनाएँ गहन इच्छा और उसकी कोशिश का नतीजा होती हैं,
तभी
तो पुरुषार्थ की प्रेरणा बनती हैं। सौंदर्य वह है, जो
पुरुषार्थ की प्रेरणा बने।
केदार
की कविताएँ शीलती भी हैं, शूलती
भी। उदाहरण के तौर पर ‘नागार्जुन
के बाँदा आने पर’। ऊपर से सरल दिखती
यह कविता वर्गीय नहीं, संघीय
है। क्षेत्रफल के वर्गमूल जितनी गहरी है। यह जितना ऊपर दिखती है,
उतना
ही भीतर छिपी है। आलोचना का काम छिपे को देखना-दिखाना होता है,
दिखे
को नहीं। वह तो छिपे को देखने में मदद करता है। ऊपर-ऊपर देखना आसान है। गरदन उठाया
नहीं कि देख लिया। कठिन तो छिपे को देखना-दिखाना है। कठ तो शूलने पर ही शीलवान
बनता है। ऊपर-ऊपर से नागार्जुन की प्रशस्ति लगती यह कविता भीतर से केदार के लघु
जीव की जिजीविषा और पौरुष को प्रकट करती है। यह जीव बाँदा में रहता है। बाँदा क्या
है? यह नाम अपने मान को वहने में
समर्थ भी है या केवल शोभा मात्र है! कविता की शुरुआत इसके मान को प्रकट करती है,
व्यवहार
में जिसे परिचय कहा जाता का है।
यह
बाँदा है।
सूदखोर
आढ़त वालों की इस नगरी में
जहाँ
मार, काबर,
कछार,
मड़ुआ
की फसलें,
कृषकों
के पौरुष से उपजा कन-कन सोना,
लढ़ियों
में लद-लद कर आ कर,
बीच
हाट में बिक कर कोठों-गोदामों में,
गहरी
खोहों में खो जाता है जा-जा कर,
पहली पंक्ति ‘यह
बाँदा है।’ जो ‘सूदखोर
आढ़त वालों की’ नगरी है। यहाँ बाँदा
की प्रशंसा नहीं, निंदा
है। नगर नहीं, नगरी। बड़ी नहीं,
छोटी।
पुलिंग नहीं, स्त्रीलिंग। नगर बनने
की प्रक्रिया से गुज़रती। जब बढ़ जायेगी तब दिल्ली, मुम्बई,
कलकत्ता
हो जायेगी। नगर की गतिविधियाँ यहाँ मात्रा-गुणवत्ता, दोनों
में अभी कम और छोटी हैं, इसलिए
यह नगरी है। बंद नगरी। इसका पुराना नाम चाहे जो भी हो, मगर
आज तो यह बाँदा ही है। बंद से बाँदा की ओर गति करती। भाषा अगर भाव और विचार को
अभिव्यक्त करती है, तो
केदार ही नहीं, हर सुजन के लिए बंद
का दीर्घ ही बाँदा है। जो केवल लेता है, देता
नहीं। गाँव की मार, काबर,
कछार
में किसानों के पौरुष से उपजी फ़सलें – जिनका कन-कन सोना है – यहाँ के हाट में बिक
कर कोठों-गोदामों की गहरी खोहों में खो जाती हैं। बाहर नहीं निकलतीं। किसी जीव का
जीवन नहीं बनतीं। केदार का जीव भी इसी में बंद है और बाहर से जुड़ने को छटपटाता है।
और
यहाँ पर
रामपदारथ,
रामनिहोरे,
बेनी
पण्डित, बासुदेव,
बल्देव,
विधाता,
चन्दन,
चतुरी
और चतुर्भुज,
गाँवों
से आ-आ कर गहने गिरवी रखते,
बढ़े
ब्याज के मुँह में बर-बस बेबस घुसते,
यह नगरी सुरसा है। सबको लील लेती है। यहाँ चरित्र नहीं,
उनके
नाम प्रस्तुत हैं, जिनके
माध्यम से ही उनके मान का जानना होगा। वह चाहे रामरूपी पदार्थ हो,
राम
का अज़ीज़ पदार्थ, चाहे बतियाने में
कुशल बेनी पंडित, चाहे
वासुरूपी देव, चाहे बल के देव,
चाहे
ख़ुद विधाता, चाहे चन्दन,
चाहे
अत्यंत चतुर, चाहे चार भुजाओं
वाला। मतलब कि बड़े से बड़े ज्ञानी-ध्यानी, बाहुबली-चतुरों
को भी यहाँ के सूदखोर-आढ़तिये नहीं छोड़ते। लील जाते हैं। यही कारस्तानी है इस नगरी
की। इसी में यह केदार नामी जीव भी रहता है। उसकी क्या हालत होगी! जहाँ बाहुबली और
चतुर लोग लील लिये जाते हों, वहाँ
इस सीधे-सादे जीव का जीना कैसे मुमकिन है! कह सकते हैं कि कवि चोर-उचक्कों,
बटमारों
के बीच पड़ गया है। उसकी दशा अत्यंत ख़राब है। वह कर्तबियों से प्रेम करता है,
जो
बाँदा में हैं ही नहीं। वह काल के गाल में है। यहाँ जो संघर्षहीन दीनता प्रकट हुई
है, उसके मूल में गहन पीड़ा का
अभाव है। मानो केवल वही पीड़ित हो, दूसरा
कोई नहीं। समझ के अभाव के कारण ऐसा हुआ है। संघर्षहीन दीनता आकर्षित करने में
समर्थ नहीं होती, इसीलिए
तो विफल होती है। उसकी कोई नहीं सुनता। दीनता, जब
संघर्ष से संयुक्त होती है तो शीलता बन जाती है। दूसरों की मदद की याचना के बदले ‘कर
बँहियाँ बल आपनो’ बन
जाती है। आकर्षण की क्षमता कर्मशीलता में होती है। यहाँ दीनता की प्रधानता ने बाहर
निकलने की छटपटाहट को ढँक लिया है। अगर दीनता बाहर निकलने की छटपटाहट के अंतर्गत
आती, तो कविता का आकर्षण बढ़ जाता।
इस नगरी में जो भी आया, इसका
आहार बन गया। यह आहार बनते जीव की अभिव्यक्ति है, जो
केदार नामक जीव के मुँह से निकली है। यहाँ आत्मालोचन भी है,
तभी
तो अपनी भी कमज़ोरी दिखती है, जो
तब नहीं दिखती थी। कविता में आत्मालोचन तत्त्व कविता को गहन बना देता है। भयानक
बाँदा में जैसे अकेला वही छटपटा रहा था, दूसरा
कोई नहीं। कम समझ के कारण ऐसा था। इसके बावजूद वह जीवन की जद्दोजहद नहीं छोड़ता।
अगर छोड़ चुका होता, तो यह
सब बताने के लिए मौजूद ही न होता। इस पीड़ित स्वर में बाहर से जुड़ने की तीव्र ललक
है, जिसके कारण कवि ख़ुद को मजबूत
करता है। उसकी आवाज़ बाँदा से बाहर जाने लगी है। मगर उसमें अभी इतना आकर्षण नहीं है
कि कोई बरबस खिंचा चला आये।
शायद
ही आता है कोई मित्र यहाँ पर,
शायद
ही आती हैं मेरे पास चिट्ठियाँ।
इसके बाद शिकायत है। अपने उदास और खोये-खोये रहने का बयान
है। मतलब कि दूर बाहरवाले पूछते रहते हैं कि क्यों उदास और खोये-खोये रहते हो।
यहाँ बाहर निकलने और बाहर से जुड़ने की तड़प प्रबल है। इसका कारण है काल के गाल में
होना। यह तो सूदखोर और आढ़तियों की नगरी है। इस नगरी में कउइ अकेली है। वह सिरजना
और विस्तरना चाहती है। कउइ से कउआ बनना चाहती है। अपनी आवाज़ को विस्तारना चाहती
है। इस तरह वह अपने पौरुष को अर्थती है, इसीलिए
पुरुषार्थी है।
जन-साधारण
की हालत से ऊबा-ऊबा,
बाण-बिंधे
पक्षी-सा घायल,
जल
से निकली हुई मीन-सा, विकल
तड़पता,
इसीलिए
आतुर रहता हूँ,
कभी-कभी
तो कोई आये,
छठे-छमासे
चार-पाँच दिन तो रह जाये,
मेरे
साथ बिताये,
काव्य,
कला,
साहित्य-क्षेत्र
की छटा दिखाये,
और
मुझे रस से भर जाये, मधुर
बनाये,
फिर
जाये, जीता मुझको कर जाये।
मिलन की आस में कउइ मर-मर कर जी रही है। मोर अपनी छटा घन
की छटा को देखकर बिखेरता है। तो मोर-रूपी ‘कोई’
घन-रूपी
‘साहित्य-क्षेत्र’
की
छटा दिखाये, तो कउइ-रूपी जीव भी
सरसा जाये। अपनी छटा बिखेरने लगे। मर-मर करती कउइ हर-हर करने लगे। जीने का मतलब है,
हर-हर
करना, सिरजना-विस्तरना।
केदार
की कउइ का दुःख उसका अकेलापन है, जो
उसी का सिरजा हुआ है। जिसके मूल में नासमझी है। इस अकेलेपन से वह इतना त्रस्त होती
है कि बाहर से ही उसकी शिकायत करने लगती है। मानो बाहर ही उसके दुःख का कारक हो।
बाँदा जैसी छोटी सूदखोर-आढ़तियों की नगरी में वह फँस गयी है,
अकेली।
वह बाहर को व्यक्तिगत रूप से बुलाती है, समाजगत
रूप से नहीं। मगर बाहर है कि आता ही नहीं। यहाँ बाहर से मतलब साहित्यिकों से है।
साहित्यिकों के मिलने का एक माध्यम साहित्य-गोष्ठी है। ऐसी नगरी में
साहित्य-गोष्ठी के बारे में सोचना कितनी मूर्खता है। कुल मिला कर कवि का आतुर मन
बाहर से जुड़ने को छटपटाता है। इसी का क्रमिक विकास है यह कविता। पहले जब यह कमज़ोर
थी, तो इसकी आवाज़ बाहर दूर तक नहीं
पहुँचती थी। इसीलिए दीन थी। ज्यों-ज्यों पौरुषने-विकसने लगी,
त्यों-त्यों
एक ओर तो दीनता ख़त्म होने लगी, तो
दूसरी ओर इसकी आवाज़ दीर्घ से दीर्घतर होती हुई बाहर दूर तक पहुँचने लगी। फलस्वरूप,
आकर्षकों
को भी आकर्षने लगी, जिसका प्रमाण है, नागार्जुन
जैसे दीर्घ आकर्षक कवि का बाँदा आना।
यह
पहले की छटपटाहट है, जो
किसी साहित्यिक के आने पर उसका हुमककर स्वागत करती है। कविता के भीतर से कहीं न
कहीं मद्धिम स्वर में यह भी निकलता है कि साहित्यिकों ने तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर
भी नहीं बुलाया। अकेला ही छोड़ दिया। इस स्वर में जो शिकायतपूर्ण दर्द है,
उसके
भी मूल में ख़ुद की आवाज़ की कमज़ोरी ही है। वह अभी भी इतना आकर्षक नहीं हुआ है कि
साहित्यिकों को अपनी ओर खींच सके। उसके स्वर में दीनता का प्राकट्य इसीलिए हुआ है।
आखिर
मैं भी तो मनुष्य हूँ,
और
मुझे भी कवि-मित्रों का साथ चाहिए,
लालायित
रहता हूँ मैं सबसे मिलने को,
श्याम
सलिल के श्वेत कमल-सा खिल उठने को।
स्पष्ट है कि संघर्मियों ने भी उसे अकेला छोड़ दिया। अपनाया
नहीं। साथ नहीं लिया। मुक्तिबोध की मृत्यु पर लिखी कविता ‘फरेब
पर फिदा मातम’ में भी मद्धिम सुर
में ही सही, यही भाव शामिल है।
साहित्यिक गोष्ठियों में तो बड़े-बड़े नगरों के बड़े-बड़े कवि, बड़े-बड़े
पदाधिकारी बुलाये जाते हैं। जो रीते होते हैं। मधु कलश पीते हैं। छूछ-छूछ जीते
हैं। वहाँ अतृप्तों को नहीं, तृप्तों को बुलाया जाता है। मधुकरों को नहीं, मधुखवों
को बुलाया जाता है। साहित्यिकों के संग-साथ का ललकित-लालायित मन निराला के आने पर
इतना गद्गद हो जाता है कि सूर, तुलसी,
कबीर,
गंधर्व,
तानसेन;
सबको
भूल जाता है। जैसे काव्य-पाठ करते निराला उपर्युक्त सभी कवियों से श्रेष्ठ हों।
ध्यान रहे कि यह युवक केदार है, प्रौढ़
केदार नहीं। तभी तो इतने मात्र से सूदखोर-आढ़तियों की नगरी सुन्दर लगने लगी। यथार्थ
ज्ञान से यह नगरी सुन्दर नहीं है, बल्कि
अपने जीव के आरोपण से सुन्दर बन गई है। यह प्रौढ़ केदार का आत्मालोचन भी है और
आत्मव्यंग्य भी। आह्लाद का एक क्षण न जाने कितने दुःखों पर भारी पड़ता है। वही है
यह। धीरे-धीरे वह आह्लाद रिस-रिस कर सूख गया। फिर पुरानी स्थिति आ गयी। लगता है कि
अकाल का चरम आ गया।
किन्तु
न कोई आया,
आने
के वादे मित्रों के टूटे,
कई
वर्ष फिर बीते,
रंग
हुए सब फीके,
और
न कोई रही हृदय में आशा।
इस बंध के बाद के बंध की शुरुआत है :
तभी
बन्धुवर शर्मा आये,
महादेव
साहा भी आये,
और
निराला-पर्व मनाया हम लोगों ने,
मुंशी
जी के पुस्तक-घर में,
जिस तरह छाछ में मक्खन का कुछ न कुछ अंश तो रह ही जाता है,
उसी
तरह ‘और न कोई रही हृदय में आशा’
में
भी आशा का कुछ अंश तो बचा ही है। कोई भी जीव संपूर्ण रूप से आशहीन नहीं होता। जीव
ही आश और आश ही जीव है। पूरी तरह आशहीन तो मृत्यु ही है। इन दो बंधों के बीच में
ख़ाली जगह है, जो समय का संकेतक है।
मिलने की आस के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के वक़्त को ‘तभी’
सूचित
करता है। ‘जान में जान आ गयी’
कहते
हैं न, वही। एक नहीं,
दो-दो।
‘निराला-पर्व’,
यानी
निराला की कविताओं का अनोखा पर्व, जो ‘मुंशी
जी के पुस्तक-घर में’ मनाया गया,
जिसमें
कुल जमा तीन लोग शामिल थे। यही है केदार नाथ के बाँदा में सम्पन्न हुए ‘निराला-पर्व’
की
झाँकी। इसमें व्यंग्य भी है और आत्मविश्वास-भरी ख़ुशी भी।
ऐसा
लगा कि जैसे हम सब,
एक
प्राण हैं, एक देह हैं,
एक
गीत हैं, एक गूँज हैं
इस
विराट फैली धरती के,
और
हमीं तो वाल्मीकि हैं, कालिदास
हैं,
तुलसी
हैं, हिन्दी कविता के हरिश्चन्द्र
हैं,
और
निराला हमीं लोग हैं,
दूसरी पंक्ति में जो एक ही साँस में कहा गया है,
वह
एकतान है। तीनों स्वर जैसे एक हो गये हों। इसे एकता की तान भी कह सकते हैं। याद
कीजिए, इसके पहले निराला के
काव्य-पाठ से उत्पन्न कउइ की ख़ुशी को, जिसने
निराला को वाल्मीकि आदि कवियों से भी श्रेष्ठ बना दिया था। कउइ के गहराये
आत्मविश्वास का सबूत है, ‘और
निराला हमीं लोग हैं’ का
उद्गार। भीतर की आत्मविश्वास-भरी आवाज़ है यह। इस तरह केदार की कउइ पहले से अधिक
प्रौढ़ भी हुई है और पोढ़ भी। उसकी आवाज़ आकर्षित करने लगी है। ख़ूब गतिशील वर्णनों से
भरा है यह बंध। यहाँ तक की कविता स्मृति पर आधारित है। इस स्मृति का कारण है नागार्जुन
का आगमन, जिसे केदार अपना नया
जन्म दिन मानते हैं।
सम्भवत:
उस दिन मेरा नव जन्म हुआ था,
सम्भवत:
उस दिन मुझको कविता ने चूमा,
सम्भवत:
उस दिन मैंने हिमगिरि को देखा,
गंगा
के कूलों की मिट्टी मैंने पायी,
उस
मिट्टी से उगती फसलें मैंने पायीं,
और
उसी के कारण अब बाँदा में जीवित रहता हूँ,
और
उसी के कारण अब तक कविता की रचना करता हूँ,
यह वर्तमान है। अपनी समझ और कर्म की बेबाक़ी से की गयी
आत्मालोचना। मतलब कि मैं पहले ग़लत था। भूल कर रहा था। नागार्जुन के सान्निध्य ने
मुझे प्रौढ़ भी बना दिया और पोढ़ भी। पहले मैं दूसरों से अपेक्षा करता था,
जिसकी
पूर्ति के अभाव में उनकी शिकायत करता था। यह मेरी भूल थी। नागार्जुन के आगमन से
मुझे ज्ञान मिला। कविता ने मुझे कभी नहीं चूमा था। मैं ही उसे चूमता था। वह कैसा
एक तरफ़ा सम्बंध था! कवि-कविता का सही सम्बंध अब बना है। मैंने पहली बार हिमगिरि को
देखा। कितना पुरुषार्थी है वह। अविचल-अडिग खड़ा वह कभी अपनी स्थिति का रोना नहीं
रोता, जब कि मैं तो अपनी स्थिति को ही सबसे ज़ियादा कठिन समझता था। इसी तरह ‘गंगा
के कूलों की मिट्टी मैंने पायीं’।
ऐसी मिट्टी जो इतना बहने पर भी उर्वर बनी रहती है। मतलब कि मैंने मिट्टी का सही
अर्थ जाना। अगर नागार्जुन न आते, तो
मैं कविता-रचना बंद कर चुका होता। फिर तो अपने आप में सिमटता एक दिन बाँदा में बंद
हो जाता। बाँदा मुझे खा जाता। इतना गहन और बेबाक़ आत्मालोचन मुक्तिबोध के यहाँ ही
मिलता है। यहाँ स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि मैंने आत्मालोचन करना
नागार्जुन से सीखा। उन्हीं के कारण आत्ममोह से बाहर निकला। इस कविता में केदार ने
नागार्जुन से मिलने को पूरी मिथिला से मिलना बतलाया है। कितना विराट है,
नागार्जुन
का व्यक्तित्व। उनके भीतर, उनके
क्रिया-कलापों में वे सारे चरित्र वहते-वसते हैं, जो
मिथिला को रचते हैं। जो मिथिला को विशेष और समृद्ध करते हैं। जिनसे मिथिला,
मिथिला
बनती है।
केदार
ने तो अपनी प्रौढ़ता औ पोढ़ता का सारा श्रेय नागार्जुन को दे दिया,
मगर
हमने तो बिना विचारे ही उसे मान भी लिया। देखा ही नहीं कि केदार यह सब ‘कैसे’
और
‘किस तरह’
कह
रहे हैं। अकसर हम इस पर ध्यान ही नहीं देते। दरगुज़र कर जाते हैं, या रूपवादी मानकर
उड़ा देते हैं। कवि ही नहीं, हर
सहृदय विकसित होता है। कुछ दूसरों से सीखता है, तो
कुछ ख़ुद से। वह युवा केदार था, जिसे
बाँदा नगरी कभी सूदखोर-आढ़तियों की नगरी लगती थी। जिसे अपना ही दुख सबसे अधिक लगता
था। मतलब कि जो अपने में ही सिमटा था। जिसमें आत्मालोचन की प्रवृत्ति कम थी अथवा न
के बराबर थी, तभी तो शिकायत किसी
अन्य से न करके उसी से करता है जिससे शिकायत है। वह भूल गया था कि बाहर से जुड़ाव
का ललकित मन तो निष्कुंठ है। निराला के काव्य-पाठ से जितना मन की ललक का पता चलता
है, उतना समझ का नहीं। इसीलिए
बाहर के साहित्यिकों से मिलने की इच्छा की मात्रा और तीव्रता निराशा की हद तक बढ़
जाती है। मगर नहीं, उसके
मिलन की ख़ुराक (उत्कंठा) ही इसका प्रमाण है कि उसमें आलोचन की प्रवृत्ति भी बढ़ रही
है। हर जीव चाहता है कि उसका इच्छित बाहर ख़ुद ही उसके भीतर प्रविष्ट कर जाये। उसे
कोई कोशिश अथवा गतिविधि न करना पड़े। मगर जैसे-जैसे वह अनुभव करता जाता है,
वैसे-वैसे
गतिशील होता जाता है। नागार्जुन जिस समय बाँदा आते हैं, उस
समय का केदार न केवल गतिशील है, बल्कि
आत्म की आलोचना करने में भी समर्थ है। तो विराट नागार्जुन क्या दया भाव से बाँदा
आये? नहीं,
केदार
के दीर्घ व्यक्तित्व के आकर्षण से खिंचे चले आये। इस प्रकार दो आकर्षक एक-दूसरे से
आकर्षित होकर संयोजित हो गये। द्वंद्वात्मक संयोजना कितनी कठिन होती है, कोई इस
कविता से सीखे-जाने। अहोभाग्य है हम दोनों का,
जिनको
आजीवन जीना है काव्य-क्षेत्र में।
अहोभाग्य
है हम दोनों की इन आँखों का,
जिनमें
अनबुझ ज्योति जगी है अपने युग की।
अहोभाग्य
है दो जनकवियों के हृदयों का
जिनकी
धड़कन गरज रही है घन-गर्जन-सी।
दोनों मैं समान होने पर ही संयोजित होकर हम बन सके। इसीलिए
यहाँ दया भाव और शिकायत नहीं है। अकुंठ भाव से नागार्जुन का बखान है। इस प्रकार कह
सकते हैं कि यह कविता दीर्घ से दीर्घ की संयोजना है, जिसमें
गहन आत्मालोचन है। गहन आत्मालोचना ही विराट व्यक्तित्व की पहचान है। और जब कोई
विराट किसी दूसरे को विराटने लगे, तब
विराट का संघ (घन) ही होगा न! मतलब कि गुणन। नादान केदार पहले बाहर को दोष देता
था। शिकायत करता था। अब न केवल उसकी प्रशंसा करता है, बल्कि
नमन करता है। अरुण कमल भी शायद यही करते हैं :
‘अपना
क्या है इस जीवन में, सब
कुछ लिया उधार।’
सारा लोहा
उन लोगों का, अपनी केवल
धार।
ख़ूबी का श्रेय बाहर को और ख़ामी ख़ुद के नाम। कर्त्री की यही
तो विशेषता है। वह सारा श्रेय कर्ता को देती है, ख़ुद
को नहीं, जबकि सभी जानते हैं
कि रचना-कर्म तो कर्त्री ही करती है, कर्ता
तो केवल प्रेरक होता है। केदार का जीव, मतलब
कि कउइ कर्त्री है। प्र का मतलब पर भी होता है और श्रेष्ठ भी। केदार के लिए नागार्जुन
ही पर भी हैं और श्रेष्ठ भी। केदार की कउइ ने इसीलिए अपने निर्माण का सारा श्रेय
नागार्जुन को देकर उन्हें कर्ता बना दिया। इस तरह यह कविता दो विराट कर्ता-कर्त्री
का गुणनफल है।
साहित्य
को अकसर गाँव और शहर रूपी दो दुनिया में बाँट दिया जाता है। जैसे ये दोनों
दुनियाएँ एक-दूसरे के बिलकुल ही विपरीत हों। आपस में इनका कोई वास्ता ही न हो। जबकि
सच यह है कि भीतर से ये एक-दूसरे से गहन रूप से जुड़ी होती हैं। आपस में भरपूर
लेन-देन करती हैं। केदार की यह कविता अपने पौरुष को बढ़ाने को उकसाती है। इसी से
केदार ऊँचे उठते हैं। इतने ऊँचे कि नागार्जुन जैसे दीर्घ आकर्षक को आकर्षित करते
हैं। दीनता और शिकायत यहाँ नज़र नहीं आतीं। न जाने कहाँ कूच कर गयीं। उनकी चाहना और
उत्कंठा इतनी ताक़तवर हैं कि फल ख़ुद ही उनकी ओर खिंचा चला आता है। गाँव ही जड़ और
शहर ही फल है। दोनों एक-दूसरे से सम्बंधित होकर ही अस्तित्ववान हैं,
अन्यथा
नहीं। इस तरह फल को जड़ की ओर और जड़ को फल की ओर उत्कंठित होना पड़ेगा,
कुछ
इस तरह कि दोनों एक-दूसरे से संबंधित हो जायें, जिस
तरह केदार और नागार्जुन संबंधित हो गये। एक वृक्ष बाहर से एक ही जगह स्थिर नज़र आता
है, मगर भीतर तो वह सतत गतिशील
रहता है, तभी तो ऊपर उठता और
विस्तृत होता है और असंख्य स्वादिष्ट फल देता है। ज़मीन में बंद बीज बाहर निकलने की
तीव्र जद्दोजहद करता है, बाहर
को आकर्षित करने में तब ही सफल होता है। उसे देखने के लिए लोग खिंचे चले आते हैं।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि केदार की यह कविता उनके पुरुषार्थ की प्रक्रिया का रचाव
है।
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