दिनकर कुमार की कविताएँ
एकबारगी सब कुछ बदल गया है अपने यहाँ. रियल स्टेट का आतंक. आवारा पूँजी की रक्तरंजित अभिलाषा. धन पिशाचों की अनन्त महत्वाकांक्षाएँ अपने इर्द-गिर्द इस तरह मंडरा रही हैं जिससे यह झूठा लगने लगा है कि भारत गाँवों का देश है. राजनीति अब सेवा नहीं लूट-खसोट का जरिया बन गयी है. लोकतन्त्र जिस पर हम गर्व करते नहीं अघाते, अब छद्म राजतन्त्र के रूप में परिवर्तित हो चुका है. अपने आज की इन सच्चाईयों को कहने का साहस भी कौन करे आखिर? यहीं पर हमें साहित्य की तरफ देखने की जरुरत पड़ती है, जो हमेशा एक सशक्त प्रतिपक्ष की भूमिका निभाते नजर आ जाता है. हमारे आज के कवि दिनकर कुमार ने अपनी कविताओं में ये सच्ची बातें कहने का जोखिम उठाया है, ये जानते हुए भी कि सच बोलना अराजकता के दौर में अक्सर खौफनाक होता है. तो आईये पढ़ते हैं कवि दिनकर कुमार की ये कविताएँ
दिनकर कुमार
अपनी आवाज में चाहता हूं कुछ असर पैदा हो
जो कहूं तुम्हारे दिल को छू जाए
मेरी भर्राई आवाज की अनकही पीड़ा
तुम्हारे कलेजे तक संप्रेषित हो जाए।
चाहता हूं थोड़ी सी करुणा तुलसीदास जैसी
मेरी आवाज में भी घुल जाए
जिसे सुनते ही तुम्हारे भीतर हूक सी उठे
जिसे व्यक्त करने से अधिक
महसूस किया जाए
चाहता हूं थोड़ा सा लहू गालिब की तरह
मेरी आंखों से भी टपके
दुनियादारी की उलझी पहेली को झटक कर
मस्त फकीरी की राह पर मेरे कदम बढ़े
अपनी आवाज में चाहता हूं कुछ असर पैदा हो।
सारा देश रियल इस्टेट
सारा देश रियल इस्टेट
मानचित्र पर क्यों रहेंं
धान के लहलहाते हुए खेत
कल कल बहती हुई नदियां
ताल-तलैया, झील-पोखर
हरियाली का जीवन
सारा देश रियल इस्टेट
उन्हें उजाड़ने की आदत है
वे उजाड़ कर दम लेंगे
फसल की जगह फ्लैट उगाएंगे
एक्सप्रेस वे बनाएंगे
रिसॉर्ट और फन सिटी बसाएंगे
सारा देश रियल इस्टेट
कैसी माटी किसकी माटी
कैसी धरती कैसी माता
कैसा देश किसका तंत्र
भूमाफिया का देश
बिल्डर का तंत्र
बाकी प्रजा रहे दीन-हीन
उनके अधीन उनके अधीन।
एक एंटेलियो होता है
हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
वह निचोड़ लेेना चाहता है
मजबूर आबादी का खून और दीवारों
की सजावट करना चाहता है
वह चूस लेना चाहता है प्रजा के हिस्से का
सारा भूजल
और अपने बगीचे के आयातित फूलों को
सींचना चाहता है
हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
वह गरीबों के मानचित्र पर एक समृद्धि का टापू
बसाना चाहता है
समस्त संसाधनों की चाबी अपनी मुट्ठी में बंद कर
फोर्ब्स पत्रिका के मुखपृष्ठ पर
अपनी तस्वीर छपवाना चाहता है
हर धनपिशाच के सपने में
एक एंटेलियो होता है
जिसे वह संसार का आठवां आश्चर्य
बनाना चाहता है
जिसकी अश्लील बनावट पर वह इतराना चाहता है
जिसके अनगिनत कक्षों में वह किसी प्राचीन सम्राट की तरह
अपना हरम सजाना चाहता है
दास-दासियों की फौज रखना चाहता है
हर धनपिशाचा के सपने में
एक एंटेलियो होता है।
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य
कहां है अभाव में थरथराती हुई तुम्हारी गृहस्थी
जीवन से जूझते हुए कलेजे से निकलने वाली गाहें
कहां हैं रक्तपान करने वाली व्यवस्था का चेहरा
अगर है तो केवल है सिक्कों की खनखनाहट
अघाई हुई श्रेणी की ऐय्याशियों की सजावट
झूठी घोषणाओं को ढकने के लिए अमूर्त चित्रांकन
कोढ़ियों और भिखारियों की पृष्ठभूमि में पर्यावरण का रेखांकन
एलसीडी स्क्रीन पर झिलमिलाती हुई वस्तुएं
किस्त में कारें किस्त में फ्लैटें किस्त में
उपलब्ध हैं समस्त महंगे सपने सौदागर बन गए हैं बहेलिए
कदम-कदम पर बिछाए गए हैं जाल
चाहे तो इसे हादसा कहो या कहो खुदकुशी
तुम्हारी अहमियत कुछ भी नहीं मरोगे तो मुक्ति मिले या न मिले
आंकड़े में शामिल जरूर हो जाओगे
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य
हिंसक पशुओं को देख रहा हूं गुर्राते हुए रेंगते हुए
गिड़गिड़ाते हुए यह कैसी क्षुधा है जिसकी भट्ठी में
समाती जा रही है जीवन और प्रकृति की समस्त सहज भावनाएं
नष्ट होती जा रही है सहजता-संवेदना
पसरता जा रहा है अपरिचय का ठंडापन
इस विज्ञापन जगत में तुम कहां हो मनुष्य ।
मुझे अभाव से डर नहीं लगता
मुझें अभाव से डर नहीं लगता
न ही घबराता हूं मैं जीवन के झंझावातों से
न ही रौंद सकता है बाजार मुझे अपने नुकीले पहियों से
मुझे तंत्र की चालाकियां समझ में आती हैं
मैं हर आश्वासन में छिपे झूठ को पढ़ सकता हूं
मुझे डर नहीं लगता बेरोजगारी से विस्थापन से
मुझे धनपशुओं की मुस्कराहट से डर लगता है
मैं विपदा की कलाई मरोड़ सकता हूं
ठोकर खाकर गिरकर संभल सकता हूं
वक्त के बेरहम खरोचों से धीरे-धीरे उबर सकता हूं
मैं उदास रातों में भी सबेरे का गीत गुनगुना सकता हूं
सफर की यंत्रणा के बीच भी संभाल कर रख सकता हूं सपनों को
मैं जमाने का तिरस्कार सह कर भी साबूत बचा रह सकता हूं
मैं इस अमानवीय धरती पर
मानवता की पवित्र भावनाओं को कलेजे में सहेज कर रख सकता हूं
फिर भी मुझे धनपशुओं की उदारता से डर लगता है।
अपनी ही संतानों की
अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
क्योंकि शर्म छिपाने के लिए अब उसके पास
संविधान की कोई धारा नहीं बची रह गई है
उसके धूर्त और वाचाल वकीलों के पास
बचे नहीं रह गए हैं असरदार तर्क
बेअसर हो गए हैं उसके सारे प्रलोभन
उसके झूठे वादों पर रह नहीं गया है
किसी को भी ऐतबार
अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
क्योंकि संतानों के असुविधाजनक सवालों का
कोई संतोषजनक जवाब उसके पास नहीं है
वह पंचतंत्र के न्याय को उचित ठहराने की
कोशिश करते-करते नाकाम हो चुका है
वह ताकतवर वर्ग की बंधक बन कर इस कदर
लाचार हो चुका है कि अपनी ही संतानों के प्रति
उसके मन में रह नहीं गई है दया-ममता
अपनी ही संतानों की हत्या करेगा लोकतंत्र
जिन संतानों के भविष्य को संवारने की
जिम्मेदारी लोकतंत्र की ही थी
जिन संतानों को बराबरी का हक देने का
वादा कभी लोकतंत्र ने ही किया था
जिन संतानों ने उम्मीद भरी नजरों से उसकी तरफ देखा था और
उसकी परिभाषा पर भरोसा किया था।
अरे ओ अभागे
अरे ओ अभागे
छोटे-छोटे हाथों से कैसे पकड़ोगे आकाश
कैसे उठाओगे
दु:ख की शिला को
फिर कैसे चल पाओगे तन कर
इतने बड़े-बड़े सपने आंखों में ले कर
तुच्छता की धरती पर
कब तक करते रहोगे
छोटी-छोटी बातों के लिए समझौते
कब तक अंधेरे के भार से दब कर
सहन करते रहोगे विवशता की ग्लानि
अरे ओ अभागे
विचलित कर देने वाले परिवेश में
कैसे संभालोगे
संवेदनाओं की गहरी
करुणा की दृष्टि
सीने में धड़कती हुई चाहत।
मुझे मत उछालो
मुझे मत उछालो सराहना के झूले पर
कहीं हो न जाए मुझे झूठा गुमान
कहीं बिगड़ न जाए मेरा संतुलन
कहीं मैं मुग्ध न हो जाऊं अपने आप पर
अगर दे सकते हो तो दो थोड़ा सा अपनापन
मेरे थके हुए वजूद को थोड़ी सी छाया
मेरे नम सपनों को थोड़ी सी धूप
उदासी की घड़ियों में दो मीठे बोल
मुझे मत उछालो सराहना के झूले पर
कहीं मैं भूल न जाऊं अपनी राह
कहीं मैं भ्रमित होकर पड़ाव को ही न मान लूं मंजिल
कहीं ओझल न हो जाएं मेरे आदर्श
मुझे मत उछालो सराहना के झूल पर।
वेनिस का सौदागर
वेनिस का सौदाकर मेरा पीछा करता है
शायद तुम्हारा भी
उसके होंठों पर खेलती रहती है हर पल
एक कू्रर मुस्कराहट जिस मुस्कराहट में
लहराता रहता है एक अदृश्य चाबुक
इसी चाबुक से वह मुझे डराना चाहता है
बात-बात पर
छीन लेना चाहता है मेरे शरीर का रक्त और मांस
मेरे सीने का समस्त ऑक्सीजन
वेनिस का सौदागर मेरा पीछा करता है
बहुरुपिए की तरह
मेरी दिनचर्या के हरेक मोड़ पर
वह टकरा जाता है मुझसे
वह मेरी हरेक सांस पर नजर रखता है
मेरी छोटी-छोटी खुशियों की भी
कीमत निर्धारित करता है और फिर
चक्रवृद्धि ब्याज के तराजू पर तौलता है
मेरी वजूद मेरी औकात
वेनिस का सौदागर मेरा पीछा करता है
मैं उम्मीद करता हूं कि एक दिन
उसके भीतर भी करुणा का जन्म होगा
एक दिन संवेदना धो डालेगी उसकी समस्त क्रूरता को
मगर युगों-युगों से वह वेश बदल कर
सीधे-सरल लोगों का रक्त पीते-पीते
इस कदर नृशंस बन चुका है कि
अब उसके सीने में दिल की जगह
धड़कता है सिक्का
वह जब स्वयं मनुष्य नहीं रहा तो
हम सबको कैसे मनुष्य समझ सकता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है
कभी-कभी ऐसा भी होता है
धूप की तरह उजली मुस्कराहट
धो देती है हमारे भीतर के जहर को
किसी की आंखों में कौंधने लगते हैं
लाखों सितारे और
हमारे भीतर मिटने लगता है
उदासी का अंधेरा
कभी-कभी ऐसा भी होता है
सभाकक्ष में गूंजती हुई तालियां
किसी अपरिचित की गर्मजोशी में सराबोर
सराहना की बोली सुन कर
भाप की तरह उड़ने लगता है
तुच्छता का बोध
कभी-कभी ऐसा भी होता है
जब पृथ्वी उदारता के साथ
एक टक देखती है हमें
केवल संकेतों से आश्वस्त करती है
कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है
कि तुम बिलकुल अकेले नहीं हो।
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
क्या होता है संविधान
क्या होता है राजदंड
सत्ता की देवी का चुंबन
राजकोष का सम्मोहन
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
क्या लोकतंत्र क्या लूटतंत्र
केवल राज करेगा ताकतवर
कागज पर रोती आजादी
अंधियारे में छिपते सत्यपुरुष
संसद में केवल खलनायक
तुम पूजा हो तुम क्या जानो
कोई क्यों देगा तुमको हक
देश में इज्जत से जीने का
तुम तो केवल हो ऐसी सीढ़ी
जो सिंहासन तक पहुंचती है
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो
तुम सीधी हो तुम भोली हो
ये धूर्त भी हैं चालाक भी हैं
वे क्रूर भी हैं ऐय्याश भी हैं
वे हिंसक पशुओं के वंशज हैं
तुम प्रजा हो तुम क्या जानो।
आवारा पूंजी के उत्सव में
आवारा पूँजी के उत्सव में दब कर रह जाती है
कमजोर नागिरकों की सिसकी
असहाय कंठ की फरियादें
वंचित आबादी की अर्जी
आवारा पूंजी के पोषक मंद मंद मुस्काते हैं
कुछ अंग्रेजी मेंं बुदबुदाते हैं
शेयर बाजार का चित्र दिखा कर आबादी को धमकाते हैं
कहते हैं छोड़ो जल-जमीन
नदियां छोड़ो जनपद छोड़ो
झोपड़पट्टी से निकलो बाहर
बसने दो शॉपिंग माल यहां
रियल इस्टेट का स्वर्ग यहां
यह कैसी भावुक बातें हैं
अपनी जमीन है मां जैसी
आवारा पूंजी के साये में
कितना बौना है लोकतंत्र
कितना निरीह है जनमानस
आवारा पूंजी के साये में
पलते-बढ़ते अपराधीगण
अलग-अलग चेहरे उनके
अलग-अलग हैं किरदारें
बंधक उनकी है मातृभूमि
उनके कब्जे में संसाधन
कैसे कहें आजाद हैं हम?
स्विस बैंकों तक बहने वाली खून की नदी में
स्विस बैंकों तक बहने वाली खून की नदी में
थोड़ा खून मेरी धमनियों का भी है
थोड़ा मेरे पूर्वजों का
थोड़ा मेरे ग्रामीणों का
थोड़ा मेरे शहर के निवासियों का
थोड़ा-थोड़ा खून एक अरब भाई-बहनों का
यह खून की नदी इतनी साफ-साफ नजर आती है
फिर भी जांच आयोग बनाने को ले कर
पंजे लड़ाने लगती है
न्यायपालिका से कार्यपालिका
बयानों का शोर मचा कर
नदी के होने न होने का
संशय पैदा किया जाता है
जबकि इस नदी को इस खून की नदी को
मैं उसी तरह महसूस कर सकता हूं
जिस तरह महसूस की जाती है हवा
बारिश धूप चांदनी
लालच की लपलपाती जुबान
कत्लगाह में खून से सराबोर हथियार
गुलाम बनाने वाली निगाहों की सिकुड़न
अभावग्रस्त चेहरे की बेचैनी।
सम्पर्क-
मोबाईल- 09435103755
दिनकर की कविताये पोस्ट कर आपने हमे ऐसे कवि से परिचित कराया है जिसके भीतर सूदूर उत्तर-पूर्व इलाके की धडकने सुनाई पडती है ।वैसे वह इलाका साहित्य-संसार के लिये अनजाना है ।लेकिन दिनकर की कविताये पढते हुये लगता है ,उनके अंदर वह तेवर बरकरार है जिससे हमारा बहुत कम परिचय रहा है । उन्होने अनुवाद का महत्वपूर्ण काम किया है । जिसके लिये हमे उनका आभारी होना चाहिये ।
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