भगवत रावत की कविताएं

 

भगवत रावत 



जब जिंदगी को थोड़ा ठहर कर हम देखते हैं तो पाते हैं कि आज की यह दुनिया काफी बदल गई हैं। खुद हमारा देश और समाज काफी बदल गया है। जीने के तौर तरीके ही नहीं हमारी सोच भी बदल गई है। हम अपने आरामदेह आज खातिर अपनी धरती के भविष्य से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूक रहे। थोड़े से विवाद की स्थिति में मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं। उदात्त होने का दिखावा और पाखण्ड भी हम बखूबी कर लेते हैं। अखबार रोज ही हिंसा, धोखाधड़ी और बलात्कार जैसी निर्मम खबरों से भरे रहते हैं। ऐसे में भगवत रावत की कविता 'करुणा' याद आती है। भगवत रावत हिन्दी कविता के जरूरी कवि हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भगवत रावत की कुछ कविताएं।




भगवत रावत की कविताएं



जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता


मारने से कोई मर नहीं सकता

मिटाने से कोई मिट नहीं सकता

गिराने से कोई गिर नहीं सकता


इतनी सी बात मानने के लिए

इतिहास तक भी जाने की ज़रूरत नहीं

अपने आसपास घूम फिर कर ही

देख लीजिए


क्या कभी आप किसी के मारने से मरे

किसी के मिटाने से मिटे

या गिराने से गिरे


इसका उल्टा भी करके देख लीजिए

क्या आपके मारने से कोई...

... ख़ैर छोड़िए


हाँ, हत्या हो सकती है आपकी

और आप उनमें शामिल होना चाहें

तो आप भी हत्यारे हो सकते हैं

बेहद आसान है यह

सिर्फ मनुष्य विरोधी ही तो होना है

आपको


इन दिनों ख़ूब फल फूल भी रहा है यह

कारोबार

हार जगह खुली हुईं हैं उसकी एजेंसियाँ

बड़े-बड़े देशों में तो उसके

शो रूम तक खुले हुए हैं


तोपों के कारखानों के मालिकों से ले कर

तमंचा हाथ में लिए

या कमर में बम बाँधे हुए

गलियों में छिप कर घूमते चेहरों में

कोई अंतर कहाँ है

इस सबके बावजूद

जो जीता है सचमुच

वह अपनी शर्तों पर जीता है

किसी की दया के दान पर नहीं

वह अर्जित करता है जीवन

अपनी निचुड़ती

आत्मा की एक-एक बूँद से


उसकी हत्या की जा सकती है

उसे मारा नहीं जा सकता


इस सबके बावजूद वह रहता है

दूसरों को हटा-हटा कर

चुपचाप ऊँचे आसन पर जा बैठे

दोमुँहे, लालची, लोलुप आदमी की तरह नहीं


अपनी ज़मीन पर उगे

पौधे की तरह,

लहराता

निर्विकल्प

निर्भीक


दुनिया का सबसे कठिन काम है जीना

और उससे भी कठिन उसे, शब्द के

अर्थ की तरह रच कर दिखा पाना

जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता

जो मारता है, उसे सबसे पहले

ख़ुद मरना पड़ता है 



अपना गाना


जब मैं लौटूंगा इस सड़क से,

देर रात गए,

अपने पक्के मकान की तरफ,

तब वे लोग,

इसी सड़क के किनारे गा रहे होंगे।



लौटना


दिन भर की थकान के बाद

घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग

भले लगते हैं।


दिन भर की उड़ान के बाद

घोंसलों की तरफ़ लौटतीं चिड़ियाँ

सुहानी लगती हैं।


लेकिन जब

धर्म की तरफ़ लौटते हैं लोग

इतिहास की तरफ़ लौटते हैं लोग

तो वे ही

धर्म और इतिहास के

हत्यारे बन जाते हैं।


ऐसे समय में

सबसे ज़्यादा दुखी और परेशान

होते हैं सिर्फ़

घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग

घोंसलों की तरफ़ लौटती हुई

चिड़ियाँ।





ऐसे घर में 


सब कुछ भला-भला 

सब तरफ़ उजियाला 

कहीं न कोर-कसर 

सब कुछ आला-आला 

सब कुछ सुथरा-साफ़ 

सभी कुछ सजा-सजा 

बोली बानी मोहक 

अक्षर-अक्षर सधा-सधा 

सब कुछ सोचा-समझा 

सब पहले से तय 

ऐसे घर में 

जाने क्यों लगता है भय।



हमने उनके घर देखे 


हमने उनके घर देखे 

घर के भीतर घर देखे 

घर के भी तलघर देखे 

हमने उनके 

डर देखे।



अपने देश में 


अपने देश में

पानी जब नहीं बरसता तो नहीं बरसता

आप चाहे जितना पसीना बहायें

सूखे गले से चाहे जितना चीखें चिल्लाएँ

एक एक बूंद के लिए कितना भी तरस-तरस जाएँ

पानी नहीं बरसता तो नहीं बरसता


लेकिन जब बरसता है तो बरसने के पहले ही बाढ़ आ जाती है

हर बरस हमारी ब्रह्मपुत्र ही सबसे पहले खबर देती है

कि बरसात आ गई

जब तक हमें खबर होती है तब तक सैंकड़ों गाँव

जलमग्न हो चुके होते हैं


जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उन दिनों

अखबार में छपी, बाढ़ग्रस्त इलाके का मुआयना करती

किसी हेलिकोप्टर की तस्वीर से पता चलता था

अब इधर सुविधा हुई है

अब हम घरों में कुर्सी पर बैठे-बैठे डूबते गाँवों के

जीते-जागते दृश्य देख कर जान जाते हैं

कि बरसात आ गई है

हम हर साल इसी तरह बरसात के

आने का इंतजार करते हैं







करुणा


सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं

न चन्द्रमा की ठंडक में

लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है

कि दुनिया में

करुणा की कमी पड़ गई है।


इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही

नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे

चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं।


कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं

कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके

और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके।


दरअसल पानी से हो कर देखो

तभी दुनिया पानीदार रहती है

उसमें पानी के गुण समा जाते हैं

वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है।


पता नहीं

आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए

कैसी हवा कैसा पानी चाहिए

पर इतना तो तय है

कि इस समय दुनिया को

ढेर सारी करुणा चाहिए।



किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान 


किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान 

तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है 

न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है 

कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएँ 

भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलाँघ कर निकलना पड़े 

लेकिन कोई किसी से न टकराए 

जब रहता है कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान 

तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है 

वरना कितना मुश्किल होता है बचा पाना 

अपनी कविता भर जान!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. शुक्रिया संतोष जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. लंबे समय के बाद भगवत रावत जी की कविताओं को पढ़ा। यदि मुझे याद है तो प्रभाकर श्रोत्रिय जी के सम्पादन में एक स्तम्भ आता था-कवि और कविता। उसमें पहली बार कवि की कविताएं पढ़ी थी। ये शानदार कविताएं इसलिए भी हैं कि इनकी प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं होने वाली है। विषयांतर हो रहा है लेकिन एक बात अवश्य कहूँगा कि बतौर संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय को हिन्दी जगत ने भुला ही दिया जबकि वह तत्कालीन संपादकों में बीस ही पड़ते थे।
    पहली बार अपना बखूबी दायित्व का निर्वाह कर रहा है।
    ललन चतुर्वेदी

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'