विष्णु खरे की कविताएं

 




यह संसार इतना बड़ा है कि तमाम चीजें, बातें, गतिविधियां अलक्षित रह जाती हैं। कवि उन तमाम अलक्षित को दुनिया के समक्ष लक्षित करने का काम करता है। विष्णु खरे ऐसे ही कवि थे जिनके पास तमाम ऐसी कविताएं हैं जिनको पढ़ कर हम चकित रह जाते हैं। रेल या सड़क से आते जाते हमने उन खंडहर टाइप की इमारतों को जरूर देखा होगा जिस पर मोटे अक्षरों में A B A N D O N E D लिखा होता है। इन इमारतों का भी निश्चित रूप से अपना इतिहास रहा होगा। कभी ये इमारतें लोगों की हंसी ठट्ठे से गुलजार रहा करती थीं। कभी इसमें जीवन का फूल खिला करता था। लेकिन समय आया कि ये इमारतें परित्यक्त घोषित कर दी गईं। इस A B A N D O N E D पर विष्णु खरे की नजर जाति है और वे इस पर कविता लिख डालते हैं। इस तरह की तमाम कविताएं विष्णु जी के पास हैं। इन मामलों में वे दुर्लभ कवि हैं। आज विष्णु खरे की पुण्य तिथि है। उनकी स्मृति को हम नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विष्णु खरे की कविताएं।

 


विष्णु खरे की कविताएं

 


आलैन


तुर्की के पास डूबे सीरियाई बच्चे ‘आलैन’ की तस्वीर ने पूरी दुनिया को विचलित कर दिया था। इस दुर्घटना में उसका भाई ग़ालिब और माँ रेहाना की भी मृत्यु हो गई थी। हिंसा और युद्ध के सबसे पहले शिकार मासूम ही होते हैं। धार्मिक कट्टरता के भी सबसे पहले शिकार बच्चे ही होते हैं। तब पूरी दुनिया में ‘आलैन’ के लिए शोकसभाएँ की गई थीं, मार्मिक चित्र बनाए गए थे और कविताएँ लिखीं गई थीं। हिन्दी के कवि विष्णु खरे ने भी ‘आलैन’ के लिए यह कविता लिखी थी।


हमने कितने प्यार से नहलाया था तुझे

कितने अच्छे साफ़ कपड़े पहनाए थे

तेरे घने काले बाल सँवारे थे

तेरे नन्हें पैरों को चूमने के बाद

जूतों के तस्मे मैंने ही कसे थे

ग़ालिब ने सताने के लिए तेरे गालों पर गीला प्यार किया था

जिसे तूने हमेशा की तरह पोंछ दिया था

और अब तू यहाँ आ कर इस गीली रेत पर सो गया


दूसरे किनारे की तरफ़ देखते हुए तेरी आँख लग गई होगी

जो बहुत दूर नहीं था

जहाँ कहा गया था तेरे बहुत सारे नए दोस्त 

तेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं

उनका तसव्वुर करते हुए ही तुझे नींद आ गई होगी

क़िश्ती में कितने खुश थे तू और ग़ालिब

अपने बाबा को उसे चलाते देख कर

और अम्मी के डर पर तुम तीनों हँसते थे

तुम जानते थे नाव और दरिया से मुझे कितनी दहशत थी

तू हाथ नीचे डाल कर लहरों को थपकी दे रहा था

और अब तू यहाँ आ कर इस गीली रेत पर सो गया


तुझे देख कर कोई भी तरद्दुद में पड़ जाएगा कि इतना ख़ूबरू बच्चा

ज़मीं पर पेशानी टिकाए हुए यह कौन से सिजदे में है

अपने लिए हौले-हौले लोरी गाती और तुझे थपकियाँ देती

उन्हीं लहरों को देखते हुए तेरी आँखें मुन्दी होंगी

तू अभी-भी मुस्कराता-सा दीखता है

हम दोनों तुझे खोजते हुए लौट आए हैं

एक टुक सिरहाने बैठेंगे तेरे

नींद में तू कितना प्यारा लग रहा है

तुझे जगाने का दिल नहीं करता

तू ख़्वाब देखता होगा कई दूसरे साहिलों के

तेरे नए-नए दोस्तों के

तेरी फ़ूफ़ी तीमा के

लेकिन तू है कि लौट कर इस गीली रेत पर सो गया


तुझे क्या इतनी याद आई यहाँ की

कि तेरे लिए हमें भी आना पड़ा

चल अब उठ छोड़ इस रेत की ठण्डक को

छोड़ इन लहरों की लोरियों और थपकियों को

नहीं तो शाम को वे तुझे अपनी आग़ोश में ले जाएँगी

मिलें तो मिलने दे फ़ूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर

अपन तीनों तो यहीं साथ हैं न

छोड़ दे ख़्वाब नए अजनबी दोस्तों और नामालूम किनारों के

देख ग़ालिब मेरा दायाँ हाथ थामे हुए है तू यह दूसरा थाम

उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान

हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे

आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ

चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को

जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे

चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन।





गूँगा


वह एक छोटा कौआ है जो अभी उड़ना सीख नहीं पाया है

घिरा हुआ और घबराया हुआ

उसके काले पंख कुछ कम काले हैं 

मटमैला शरीर कुछ ज़्यादा उजला

वह लँगड़ाता हुआ फुदक रहा है

और चीखने के लिए जब चोंच खोलता है तो वह लाल है अन्दर से


लड़कों ने उस पर पत्थर फेंके हैं

और वह फड़फड़ा कर यहाँ वहाँ असफलता से घुसा है

ऊपर मण्डराते हुए कौओं का और नीचे पिछवाड़े बँधे हुए कुत्तों का

शोर इतना तेज़ है

कि घबराई हुई माएँ निकल आती हैं घरों के पीछे

और डरी हुई रोकती हैं लड़कों को उसे मारने से


गूँगे की माँ नहीं है अभी कि उसे रोके

वह लपक कर छोटे कौए को हाथों में पकड़ लेता है

और आतंकित और उत्तेजित लड़कों और औरतों के बीच से

भाग जाता है लोहे के अपने दरवाज़े की तरफ़

लड़कों का झुण्ड उसके पीछे है

और कौए शोर करते हुए उसके साथ उड़ते हैं


गूँगे के हाथ की पकड़ भरपूर है

छोटे कौए ने पहले उसे आश्रय समझा होगा

किन्तु अब असहायता और आतंक की अन्तिम दशा में है

पाँच उँगलियों में कसा हुआ चुपचाप


गूँगे की आँखें देखती हैं कौए की आँख में

कौए का गरम जिस्म और घबराया हुआ दिल

धड़कता है उसकी गिरफ़्त में और जब भी

वह हिलता है तो गूँगा उसे मारता है सिर पर

झटके और वार के कारण कौए की चोंच खुलती है

जिसका अन्दरूनी रंग गूँगे के मसूढ़ों की तरह लाल है


नीचे मण्डराते हुए कौओं से बच कर

गूँगा छिपा हुआ है सूनी कोठी के गैराज में

छोटे कौए को हाथ में लिए हुए

उसे कुछ देर तक देख-देख कर मारता हुआ

या अपने तईं पुचकारता हुआ


और कौआ अब बहुत चुप है

यदि उसे दिमाग मिला होता

जो गूँगे से भी छीन लिया गया था दस बरस पहले

तो इस क्षण वह शायद सोचता

कि यह किसके किए की सज़ा कौन उसे दे रहा है


लड़के इकट्ठा हैं लोहे के दरवाज़े के पास

उड़ते हुए कौओं के मण्डराने और शोर में कुछ परेशानी है

गूँगे के हाथ में छोटे कौए ने

अब गर्दन डाल दी है

और वह उसकी आँख खोलने के लिए उसे हिलाता है


दौड़ कर दरवाज़े के पास चुप खड़े लड़कों के पास जाता है

जो अब उसके हाथ में बेहरकत पड़े हुए कौए को

लेना नहीं चाहते

और उसकी पीठ पर मार कर

दूर नाली में फेंक आने को कहते हैं


गूँगा जाता है अपनी मुट्ठी में सोए हुए-से

छोटे कौए पर सर झुकाए हुए

शोर करते हुए कौए उसकी परछाईं पर उड़ रहे हैं

लेकिन अब वह डर के परे हैं

नाली के पास पहुँच कर उसे फेंक देता है

घास उगे पानी में एक हलकी छप की आवाज़ होती है


गूँगा खड़ा देखता है

मुन्दी आँख बन्द चोंच और गीले होते हुए डैनों को


पार्क की ज़मीन पर कुछ दूर कौए बैठ गए हैं


उसके लौटने के इन्तज़ार में जब लड़के परेशान हो जाते हैं

तो क्या कर रहा है यह देखने पार्क में आते हैं


उसे नाली के पास वाली टूटी पुलिया पर

छोटा कौआ हाथ में लिए रोता हुआ पाते हैं ।




एबेण्डेण्ड 

 

A B A N D O N E D


वे शायद हिन्दी में त्यागे या छोड़े नहीं जा सकते रहे होंगे

उर्दू में उनका तर्क या मत्रूक किया जाना कोई न समझता

इंग्लिश की इबारत का बिना समझे भी रोब पड़ता है

लिहाज़ा उन पर रोमन में लिखवा दिया गया अँग्रेज़ी शब्द

एबेण्डेण्ड


उनमें जो भी सहूलियतें रही होंगी वे निकाल ली गई होती हैं

जो नहीं निकल पातीं मसलन कमोड उन्हें तोड़ दिया जाता है

जिनमें बिजली रही होगी उनके सारे वायरों, स्विचों, प्लगों, होल्डरों, मीटरों के

सिर्फ़ चिन्ह दिखते हैं

रसोई में दीवार पर धुएँ का एक मिटता निशान बचता है

तमाम लोहा-लंगड़ बटोर लिया गया

सारी खिड़कियाँ उखड़ी हुईं

सारे दरवाज़े ले जाए गए

जैसे किन्हीं कंगाल फ़ौजी लुटेरों की ग़नीमत

कहीं वह खुला गोदाम होगा जहाँ

यह सारा सामान अपनी नीलामी का इन्तज़ार करता होगा


रेल के डिब्बे या बस में बैठे गुज़रते हुए तुम सोचते हो

लेकिन वे लोग कहाँ हैं जो इन सब छोड़े गए ढाँचों में तैनात थे

या इनमें पूरी गिरस्ती बसा कर रहे

कितनी यादें तजनी पड़ी होंगी उन्हें यहाँ

क्या ख़ुद उन्हें भी आखिर में तज ही दिया गया


जो धीरे-धीरे खिर रही है

भले ही उन पर काई जम रही है

और जोड़ों के बीच से छोटी-बड़ी वनस्पतियाँ उग आई हैं

और मुण्डेरों के ऊपर अनाम पौधों की कतार

सिर्फ़ वही ईंटें बची हैं

और उनमें से जो रात-बिरात दिन-दहाड़े उखाड़ कर ले जाई जा रही हैं

ख़ुशक़िस्मत हैं कि वे कुछ नए घरों में तो लगेंगी


पता नहीं कितने लोग फिर भी सर्दी गर्मी बरसात से बचने के लिए

इन तजे हुए हों को चन्द घण्टों के लिए अपनाते हों

प्रेमी-युगल इनमें छिप कर मिलते हों

बेघरों फकीरों-बैरागियों मुसीबतज़दाओं का आसरा बनते हों ये कभी

यहाँ नशा किया जाता हो

जरायमपेशा यहाँ छिपते पड़ाव डालते हों

सँपेरे मदारी नट बाजीगर बहुरूपिए कठपुतली वाले रुकते हों यहाँ

लंगूर इनकी छतों पर बैठते हों

कभी कोई चौकन्ना जंगली जानवर अपनी लाल जीभ निकाले हाँफता सुस्ताता हो


किस मानसिकता का नतीज़ा हैं ये

कि इन्हें छोड़ दो उजड़ने के लिए

न इनमें पुराने रह पाएँ न नए

इनमें बसना एक जुर्म हो


सारे छोटे-बड़े शहरों में भी मैने देखे हैं ऐसे खण्डहर होते मकान

जिन पर अबेण्डेण्ड छोड़ या तज दिए गए न लिखा हो

लेकिन उनमें एक छोटा जंगल और कई प्राणी रहते हैं

कहते हैं रात को उनमें से आवाज़ें आती हैं कभी-कभी कुछ दिखता है

सिर्फ़ सूने घरों और टूटे या तोड़े गए ढाँचों पर

आसान है छोड़ या तज दिया गया लिखना

क्या कोई लिख सकता है

तज दिए गए

नदियों वनों पर्वतों गाँवों कस्बों शहरों महानगरों

अनाथालयों अस्पतालों पिंजरापोलों अभयारण्यों

दफ़्तरों पुलिस थानों अदालतों विधानसभाओं संसद भवन पर

सम्भव हो तो सारे देश पर

सारे मानव-मूल्यों पर

किस-किस पर कैसे कब तक लिखोगे

जबकि सब कुछ जो रखने लायक था तर्क किया जा चुका


कभी एक फंतासी में एक अनन्त अन्तरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूँ देखने

कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर

या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन-सी भाषा कौन-सी लिपि में किस लेखनी से

कहीं कोई असम्भव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे

जैसे हाल ही में बनारस स्टेशन के एक ऐसे खण्डहर पर पहली बार लिखा देखा परित्यक्त।






फ़ासला 

 

वर्णित मढ़ा-हुआ फ़ोटो मित्र-पत्रकार कुलदीप कुमार के ‘पायनियर’ कैबिन में लगा रहता था। यह कविता उस तस्वीर के अज्ञात फ़ोटोग्राफ़र को समर्पित।


थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी

अपने बाएँ कन्धे पर एक झूलती-सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ

जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है

जिसके बाएँ पैर पर पँजे से ले कर घुटने तक पलस्तर

दोनों के बदन पर फ़क़त एकदम ज़रूरी कपड़े

अलबत्ता दोनों नँगे पाँव

उनकी दिखती हुई पीठों से अन्दाज़ होता है

कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे

दिल्ली के किसी चौंधियाते दिन में ली गई स्याह-सुफ़ैद तस्वीर थी वह

शायद 4.5 या सुपर 1200 एमएम टेलीलेंस वाले

किसी कैनन ए ई 1 या निकोर एफ़ 801 से खींची गई —

फ़ोटोग्राफ़र ने ख़ुद को मोहन सिंह प्लेस या खड़क सिंह मार्ग के

एम्पोरिअमों के सामने कहीं स्थित किया होगा

यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं कि ले जाई जा रही औरत

ढोने वाले आदमी की ब्याहता ही रही होगी

लेकिन दूर-दूर तक दोनों के साथ और कोई (आख़िर क्यों) नहीं

सड़क के बाएँ से उन्हीं की दिशा में जाता हुआ

एक ख़ाली ऑटो वाला कुछ उम्मीद से यह मंज़र देखता है

दाईं ओर के एम्बेसेडर और मारुति के ड्राइवर हैरत और कुतूहल से —

उन दोनों के अलावा सड़क पर और कोई पैदल नहीं है

जिससे धूप और वक़्त का अन्दाज़ा होता है

यह लोग जन्तर-मन्तर नहीं जा रहे

आगे चल कर यह राह विलिंग्डन अस्पताल पहुँचेगी

जहाँ शायद इन्हें पलस्तर कटवाना है

या क्या मालूम पाँव और बिगड़ गया हो

ऐसे लोगों के साथ पचास रोने लगे रहते हैं

एक तो यही दिखता है कि इनके पास कोई सवारी करने तक के पैसे नहीं हैं

या आदमी इस तरह आठ-दस रुपए बचा रहा है

जिसमें दोनों की रज़ामन्दी दिखती है

इनकी दुनिया में कहीं भी कैसा भी बोझ उठाने में शर्मिन्दगी नहीं होती

यह तो आख़िर घर वाली रही होगी

वह सती शव नहीं थी अपंग थी

यह एकाकी शिव जिसे उठाए हुए अच्छी करने ले जा रहा था

किसी का यज्ञ-विध्वंस करने नहीं

किस तरह की बातें करते हुए यह रास्ता काट रहे थे

या एकदम चुप्पी में क्या-क्या सोचते हुए

शायद किसी पेड़ का सहारा लेकर सुस्ताए हों

क्या रास्ते के इक्का-दुक्का लोगों ने इसे माँगने का एक नया तरीक़ा समझा

फिर भी अगर किसी ने कुछ दिया तो इनने लिया या नहीं

अस्पताल पहुँचे या नहीं

पहुँचे तो वहाँ क्या बीती

शायद उसने कहा हो

कब तक ले जाते रहोगे

यहीं कहीं पटक दो मेरे को और लौट जाओ

उसने जवाब दिया हो

चबर-चबर मत कर, लटकी रह

खड़क सिंह से विलिंग्डन बहुत दूर नहीं

लेकिन एक आदमी एक औरत को उठाए हुए

कितनी देर में वहाँ पहुँच सकता है

यह कहीं दर्ज नहीं है

मुझे अभी तक दिख रहा है

कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं

गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं

लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं

बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है।



तभी


सृष्टि के सारे प्राणियों का

अब तक का सारा दुःख

कितना होता होगा यह मैं

अपने वास्तविक और काल्पनिक दुखों से

थोड़ा-बहुत जानता लगता हूँ

और उन पर हुआ सारा अन्याय?

उसका निहायत नाकाफ़ी पैमाना

वे अन्याय हैं जो

मुझे लगता है मेरे साथ हुए

या कहा जाता है मैंने किए

कितने करोड़ों गुना वे दुःख और अन्याय

हर पल बढ़ते ही हुए

उन्हें महसूस करने का भरम

और ख़ुशफ़हमी पाले हुए

यह मस्तिष्क

आख़िर कितना ज़िन्दा रहता है

कोशिश करता हूँ कि

अन्त तक उन्हें भूल न पाऊँ

मेरे बाद उन्हें महसूस करने का

गुमान करने वाला एक कम तो हो जाएगा

फिर भी वे मिटेंगे नहीं

इसीलिए अपने से कहता हूँ

तब तक भी कुछ करता तो रह



कोमल


किस स्थानीय मसखरे ने

उसे खुद को कोमल गाँडू कहना सिखा दिया था

यह एक रहस्य है

लेकिन अब उसे किसी और नाम से पुकारना अजीब लगता था

कई बार मुहल्ले की संभ्रान्त महिलाएँ भी

उस पर कोई फुटकर दया करते समय

उसे इसी नाम से अनायास पुकार देतीं

और फिर कई दिनों तक

अपनी जुबान दाँतों के नीचे रख आपस में खिसखिसाया करती थीं।


अपने विधुर पिता मुंशीजी और छोटे भाइयों के लिए

वह अनिर्वचनीय दैनंदिन लज्जा का कारण था--

अक्सर वे अपने काम से

घर पर ताला डाल कर चल देते थे

और गलियों-बाजारों से वह लौटता, थका हुआ और खुश,

तो देर तक दरवाजे के पास बैठे रहने के बाद

जब भरे-पूरे शरीर की भूख उसके दिमाग तक पहुँचती

तो किसी भी घर के सामने

वह सपरिचय रोटी के लिए पुकारता

जो शीघ्र ही मिल जाती--उसे अपने प्रभाव का पता न था

किन्तु जवान होती लड़कियों के उस इलाके में

कौन अपने दरवाजे पर बार-बार वह बेलौस नाम सुनना चाहता।


जहाँ मरियल लड़कों और नुक्कड़-नौजवानों का मनोरंजन

उस मानव रीछ को नचाने-गवाने

और सारा वैविध्य समाप्त हो जाने के बाद रुलाने का था

(विचित्र आनंददायक भाँ-भाँ रुदन था उसका)

वहाँ वह नितांत मित्रहीन भी नहीं था। लोगों ने

उसे राममंदिर में हमेशा औंधे पड़े रहने वाले कबरबिज्जू से

और चुड़ैल समझी जाने वाली 

सत्तर वर्षीया भूतपूर्व दही वाली से भी

लम्बी बातें करते हुए देखा था

जो दोनों के बीच रोमांस और शादी (मजाक, भारतीय शैली)

की अफवाहों के बावजूद

उसे बेटा कहती थी।

अपनी किस्म के लोगों की तरह

अरसे तक गायब रहने की आदत

हमारे चरितनायक की भी थी लेकिन

अबकी बार जब वह लौटा

तो दरवाजे पर कई दिन बैठने के बाद भी ताला नहीं खुला

और लोगों ने भरसक उसे समझाया

कि मुंशीजी और उसके भाई मकान और शहर छोड़ कर चले गए

लेकिन वह खुश होता हुआ उनकी तरफ देखता रहा

फिर कुछ दिनों तक लगातार

कबरबिज्जू तथा दही वाली से गुप्त मंत्रणाएँ करता रहा

और इसके-उसके चबूतरे पर सोने की खुली कोशिशें जब

मकान में वाकई असहिष्णु दूसरे रहने वाले आ गए

तो वह अदृश्य हो गया।


यहाँ से तथ्यों का दामन छूटता है।

गृहस्थों की याददाश्त कमजोर होती है किन्तु कल्पनाशीलता तेज--

कबरबिज्जू और दही वाली कहाँ चले गए

यह पूछें तो जानकारियों के अनेक संस्करण मिलेंगे।

और जिसके वे दोनों एकमात्र मित्र थे

वह कभी सिवनी, कभी नागपुर, कभी एक ही समय में

अलग-अलग तीरथों (और अगर हरनारायन वकील के लड़के

बैजनाथ पर विश्वास किया जाय तो बम्बई तक) में

देखा गया। जहाँ तक मुहल्ले के आम लोगों का सवाल है

उनमें काली माई की इष्ट वाली जमना बाई का सपना ही

ज्यादा स्वीकृत हुआ है

जिसमें दिखा था कि कबरबिज्जू ने, जो असल में

एक मालगुजार था जिस पर सराप था,

वापस गाँव जाके जमीन-जायदाद थी सो गरीबों में बाँट दी

और साधू हो गया

दही वाली बुढ़िया जो बिना बताए बरसों से बरत रखती थी

मैया की सिद्धी पा के सीधी सुरग चली गई

और गेरुआ अँगरखा पहने लाल-लाल आँखों वाला एक जोगी

जो आके ग्यान और करम की बातें कह रहा था

वह अपना कोमल गाँडू था।




पाठांतर 

 

उम्र ज़्यादा होती जाती है

तो तुम्हारे आस-पास के नौजवान सोचते हैं

कि तुम्हें वह सब मालूम होगा

जो वे समझते हैं कि उनके अपने बुजुर्गों को मालूम था

लेकिन जो उसे उन्हें बताते न थे

सो वे तुमसे उन चीज़ों के बारे में पूछते हैं

जिन्हें तुम ख़ुद कभी हिम्मत करके

लड़कपन में अपने बड़ों से पूछते थे

और तुम्हें कोई पूरा तसल्लीबख़्श जवाब मिलता न था

फिर भी उतनी व दूसरी सुनी-सुनाई बहुत-सी बातें

प्रचलित रहती ही थीं

और अलग-अलग रूपांतरों में दुहराई जा कर

वे एक प्रामाणिकता हासिल कर लेती थीं

सो तुम भी उन कमउम्रों को कमोबेश वही बताते हो

अपनी तरफ से उसे कम से कम अविश्वसनीय बनाते हुए

उस यकीन के साथ जो

एक ख़ालिस लेकिन लम्बी बतकही पर आश्रित रहता है

और वे हैरत में एक दूसरे को देखते हैं

और तुम्हें काका या दादा सम्बोधित करते हुए

आदर से बोलते हैं कि आपको कितना मालूम है

अब तो इससे चौथाई जानने वाले लोग भी नहीं रहे

आपसे कितना कुछ सीखने-जानने को है-

और अचानक तुम्हें अहसास होता है

कि जो तुमने उन्हें बताया उसे अपनी सचाई बनाते हुए

जब ये लोग अपने वक़्त अपने नौजवानों से मुख़ातिब होंगे

तो तुम जैसों के हवाला बना कर या न बना कर

वही दुहरा रहे होंगे

जो तुम्हें अनिच्छा से बताया था तुम्हारे बुजुर्गों ने

अपने बड़ों से उतनी ही मुश्किलों से पूछ कर

लेकिन उस पर एक अस्पष्ट यक़ीन करके

और उसमें अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए-

इस तरह धीरे-धीरे हर वह चीज़ प्रामाणिक होती जाती है

और हर एक के पास अपना उसका एक संस्करण होता है

उतना ही मौलिक और असली

और इस तरह बनता जाता होगा वह

जिसे किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में

परम्परा स्मृति इतिहास आदि के

विचित्र किन्तु अपर्याप्त बल्कि कभी-कभी शायद नितांत भ्रामक

नामों से पुकारा जाता है।




शुरुआत 

 

अशोकनगर स्टेशन पर रात दो बजे

उन सैकड़ों की भीड़ देख कर दिल डूब गया था

अपनी स्लीपर की रिजर्व-सीट भले ही न छिने

तो भी डिब्बे में घुस कर वे चैन से सोने नहीं देंगे


लेकिन वे बिना किसी शोर-शराबे गाड़ी में दाखिल हुए

जिसको जहाँ बैठने या खड़े रहने की वाजिब जगह मिली

वह उस पर चुप रहा


ध्यान से देखा मैंने उन्हें

इस तरह के इतने मौन यात्री मैंने कभी देखे न थे

अधिकांश खद्दर के सादा-कपड़े पहने हुए

पैरों में सस्ते जूते भी कम किफ़ायती चप्पलें ज़्यादा

हरेक के कुर्ते-कमीज़ की जेब पर उसकी पहचान पर्ची लगी हुई


वे बाहर के अंधेरे वीरान में उस तरह चुप लग रहे थे

जैसे सदियों से वंचित शोषित अवमानित लोग

अपने जीवन अपनी आत्मा अपने अतीत में देखते हैं

और प्रतीक्षा करते हैं

लेकिन उनके शरीर की भाषा में एक संयम था

उनके चेहरों पर एक अपूर्व संकल्प कभी-कभी कौंध जाता था


बहुजन समाज के वे कार्यकर्ता

जिनमें कम्यूनिस्टों को छोड़ दीगर हर पार्टी के गिरोहों की

उठाईगीरी और उचक्केपन का अविश्वसनीय अभाव था

अपनी भोपाल की रैली के लिए कब बेआवाज़ उतर गए

मुझे अपनी नींद में मालूम न पड़ा


लेकिन मुझे ख़ूब याद है

मैंने उन्हें उत्तर प्रदेश के शहरों और कस्बों में

उनके दफ़्तरों में देखा है

जहाँ उनका सिर्फ़ एक नुमाइंदा पत्रकारों से बात करता था

आत्मसम्मान और गरिमा भरी मितभाषी तार्किकता और दृढ़ साफगोई से

और उसके आसपास बाकी सारे ऐसे ही कार्यकर्त्ता

उसे तल्लीन मौन वर्ग-गर्व से देखते थे-

उन दृश्यों से मुझे हमेशा लेनिन को घेरे हुए

दमकते चेहरों वाले बोल्शेविक काडरों की तस्वीरें याद आती थीं-

मैंने उन्हें आम्बेडकर साहित्य और महात्मा फुले की जीवनी ख़रीदते देखा है

उन्होंने कभी-कभी मुझसे बातें भी की हैं

गुंडागीरी अश्लीलता और शोहदेपन का उनमें नाम नहीं


तुम जो उनके कथित नेताओं के कदाचार से इतने ख़ुश हो

खुश हो कि तुम्हारे जितना पतित होने में उन्हें कितना कम वक़्त लगा

और सोचते हो कि तुम्हारी आँखों में ये नीच लोग

इसी तक़दीर के काबिल हैं

अव्वल तो तुम यह भूलना चाहते हो

कि द्विजों के पाँच हज़ार वर्षों के पाशविक-तंत्र में

यही सम्भव है और कुछ दिन और रहेगा

कि रिश्वतखोर और धूर्त सवर्ण साथ दें

एक पथभ्रष्ट उनके लिए अस्पृश्य नेतृत्व का

और दूसरे तुमने वे चेहरे देखे नहीं है

जो इस किमाश के वंचित नेताओं बुद्धिजीवियों के नहीं हैं

बल्कि अभी तक सताए जा रहे निम्नतम वर्गों के हैं

लेकिन जिनकी आस्था और एकजुटता मैंने देखी है

जो न बिके हैं और न गिरे हैं न गिरेंगे

वे ही एक दिन पहचानेंगे

मायावी राजनीति की काशी करवटों के असली चेहरे

शनाख़्त करेंगे हर जगह छिपे हुए

मनु कुबेर और लक्ष्मी के दास-दासियों की अपने बीच भी

तुम्हारी द्विज राजनीति पिछले सौ वर्षों में सड़ चुकी है

और तुम उस मवाद को इनमें भी फैलती समझ कर सुख पाते हो,

लेकिन इनकी आँखों में और इनके चेहरों पर जो मैंने देखा है

उससे मैं जानता हूँ

कि तुम्हारे पाँच हज़ार वर्षों की करोड़ों हत्याओं के बावजूद

ये मिटे नहीं हैं और अब भी तुम्हारे लिए पर्याप्त हैं

तुम्हारे साथ अपने कठिन युद्ध का यह मात्रा प्रारम्भ है उनका

फिर तुम देखोगे कि अपने दूसरे समानधर्मा भी पहचान लेंगे ये

जो पहले से ही सक्रिय हैं

और इसी दुहरी समझ से अंततः जन्म लेंगे

और किसी द्विज कुल में कभी नहीं

बल्कि जैसे कई जो बुद्ध के बाद विष्णु के नये अवतार नहीं होंगे

मात्र मुक्तिदाताओं में होंगे हमारे

अपने समूचे समाज के और तुम्हारे सारे कलुष के



लौटना


उसे जहाँ छोड़ा था

कभी-कभी वहाँ जा कर खड़ा हो जाता हूँ

कूडे़ के जिस अम्बार को देख

वह लपक कर दौड़ गया था

अब वहाँ नहीं है

दरअसल अब कुछ भी वहाँ उस दिन जैसा नहीं है

मैंने उसे आधे दिल से पुकारा भी था

कि अगर लौट आए तो उसे वापस ले जाऊँ

लेकिन वह सिर्फ़ एक बार मेरी तरफ़ देख कर

मुझे ऐसा लगा कि जैसे हँसता हुआ

कूड़ा खोदने में जुटा रहा


उसके बाद मैं चला आया लेकिन कई बार लौटा हूँ

वह जगह अब एकदम बदल चुकी है

नई इमारतों दूकानों की वजह से पहचानी नहीं जाती

वह कूड़ा भी नहीं रहा वहाँ

वह सड़क अंदर जहाँ जाती थी

उस पर भी कुछ दूर तक गया हूँ

वह या उससे मिलता-जुलता कुछ भी दिखाई नहीं देता

कभी कभी एकाध आदमी पूछ लेता है

किसे देखते हैं भाई साहब

नहीं यूँ ही या कोई और झूठ बोल कर चला आता हूँ

कई कारणों से वहाँ जाना कम होता गया है

और अब तो बहुत ज़्यादा बरस भी हो गए

फिर भी कभी लौटता हूं सारी उम्मीदों के खिलाफ़

और जहाँ वह कूड़े का ढेर था उससे कुछ दूर

वह उतनी ही देर

याद करता खड़ा रहता हूँ कि कोई मददगार फिर पूछे नहीं


एक दिन ऐसे जाऊंगा कि कोई मुझे देख नहीं पाएगा

और बिना पुकारे पता नहीं कहाँ से

वह झपटता हुआ तीर की तरह आएगा

पहचानता हुआ मुझे अपने साथ ले जाने के लिए



पर्याप्त


जिस तरह उम्मीद से ज़्यादा मिल जाने के बाद

माँगने वाले को चिन्ता नहीं रहती

कि वह कहाँ खाएगा या कब

या उसे भूख लगी भी है या नहीं

वही आलम उसका है


काफ़ी दे दिया जा चुका है उसके कटोरे में

कहीं भी कभी भी बैठ कर खा लेगा जितना मन होगा

जल्दी क्या है


बच जाएगा या खाया नहीं जाएगा

तो दूसरे तो हैं

और नहीं तो वही प्राणी

जो दूर बैठे उम्मीद से देख रहे हैं


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