सुधा अरोड़ा का संस्मरण 'कामतानाथ : एक कॉमरेड का पारिवारिक होना'

कामतानाथ



कुछ अपवादों को छोड़ कर हिन्दी साहित्य में अक्सर अपने लेखकों को भुला दिए जाने की परम्परा रही है। कामतानाथ एक प्रतिबद्ध लेखक थे और उनके विपुल लेखन को भला कैसे भूला जा सकता है। बैंक की नौकरी करते हुए ट्रेड यूनियन से जुड़ना, यूनियन की गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहना और इसके साथ अपने लेखन को एक तरतीबवार रूप देने का कारनामा कामतानाथ जी के ही वश की बात थी। 'काल कथा' उनका कालजयी उपन्यास है। कल यानी 22 सितम्बर को उनका जन्मदिन था। आजकल एक अजीब सी खामोशी चारो तरफ वैसे भी छाई हुई है। ऐसे में चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा ने कामतानाथ को अपने एक संस्मरण में शिद्दत से याद किया है। कामतानाथ जी की स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं  सुधा अरोड़ा का आत्मीय संस्मरण 'कामतानाथ : एक कॉमरेड का पारिवारिक होना'।


संस्मरण


'कामतानाथ : एक कॉमरेड का पारिवारिक होना'

  

सुधा अरोड़ा 


कथाकार कामतानाथ का नाम लेते ही एक गंभीर और प्रतिबद्ध रचनाकार की और एक स्नेहिल इंसान की छवि मानस में उभरती है। यह तस्वीर एक बड़े रचनाकार के सहज सामान्य जीवन जी लेने से बनती है कि उन्होंने जो रचा, उससे साहित्य का कद ऊंचा उठा।


कामतानाथ राजनीतिक तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ से आजीवन जुड़े रहे लेकिन  उन्होंने इसका इस्तेमाल अपने को बड़ा दिखाने के लिये कभी नहीं किया। 


आज के समय का चलन यह है कि अधिकांश कलाकार- रचनाकार अपने जीते जी ही अपने लिये लखटकिया पुरस्कार-सम्मान, शाल-दुशाले, अभिनंदन ग्रंथ और एकाग्र अंक की सारी जोड़-जुगत भिड़ा लेते हैं। उन्हें अपने पाठकों और समय के मूल्यांकन पर भरोसा नहीं होता इसलिये अपनी सारी जय-जयकार वे अपने रहते, अपने सामने, करवा लेते हैं और अपने सम्मान में ढोल-मंजीरे बजवाने में भी भरपूर सहयोग देते हैं।


सातवें दशक के वरिष्ठ कथाकार कामतानाथ के लिये "काल-कथा" जैसे महाआख्यान के तीसरे भाग का लेखन पूरा कर पाना ही सबसे अहम काम था और उस लेखन के सामने कोई भी तमगा उनके लिए फीका था इसलिये वे, आज के बाजारवादी और सेल्फ प्रमोशन के समय में रहते हुए भी इससे अलग थलग रहकर, अपने आखिरी समय तक कालकथा का तीसरा खंड लिखने में जुटे रहे ।





कामता भाई से पहली मुलाकात 1972 की शुरुआत में, आई. आई. टी. के हमारे एच टू क्वॉर्टर के एक कमरे के मकान में हुई थी। उस घर में, जिसमें हम सिर्फ साढ़े चार महीने ही रह पाए, दो बार कमलेश्वर जी आये और एक बार सपत्नीक कामतानाथ। शादी के बाद मेरी यह किसी भी लेखक दंपति से उस घर में पहली मुलाकात थी। यह मुलाकात याद इसलिये रह गई कि खाना पकाना मुझे बिल्कुल नहीं आता था। मां के राज में रसोई में घुसने की मनाही थी। मां की चाहना थी कि बेटी बस लिखे, उसके हाथ में कलम छोड़ कर कलछुल न आये। "रसोई का क्या है, सिर पर ज़िम्मेदारी पड़ती है तो सब कुछ आ ही जाता है!" का जुमला हमेशा दोहराने वाली मेरी मां को नहीं मालूम था कि रसोई का बेसिक करने के लिये भी एक बेसिक ककहरा सीखना ही पड़ता है। कामतानाथ दंपति को मैंने खाना परोसा। भाभी जो बातचीत, पहनावे से सिद्धहस्त गृहिणी का रुआब रखती थीं बोलीं यह सब्जी कैसे बनाई है। मैंने कहा कुकर में एक सीटी डलवा के गला ली, फिर छौंक दिया।' 'तभी इतनी गल गई है. मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा और मुझे सूखी सब्जी बनाने की रेसिपी बताई जो मैंने गांठ बांध ली। रसोई के कुछ नुस्खे उन्होंने मुझे थमाये जो दरअसल मेरी मां मुझे थमाना भूल गई थीं। वह मुलाकात कामतानाथ जी के कारण कम और भाभी के रसोई के नुस्खों के कारण ज्यादा, मेरे जेहन में हमेशा के लिये, दर्ज हो गई।


उसके बाद 1972 में मेरी बिटिया पैदा हुई और जितेंद्र जब कलकत्ता आये तो बिटिया को उसकी नानी के पास छोड़ कर जितेंद्र के साथ अगस्त 1973 में मांडू चली गई। 1973 में मध्य प्रदेश के खूबसूरत हिल स्टेशन मांडू में, समांतर लेखक सम्मेलन का तीन दिन का भव्य आयोजन था। उस आयोजन के बाद बस से इन्दौर लौट रहे थे हम। मेरी बगल में कथाकार कामतानाथ बैठे थे। सामने की सीट पर एक औरत की छाती से लगातार चिपका तीन-चार महीने का बच्चा था। उसे देख कर एकाएक मन में हूक सी उठी। अपनी सवा महीने की नन्हीं सी जान की किलक और रुलाई सामने आ कर ठहर गई और रोकते न रोकते मेरी आंखों का बरसना धाराप्रवाह शुरु हो गया। कामता भाई ने कुछ न पूछा, न कहा, बस देखते रहे और इंदौर में बस से उतर कर संजीदगी से बोले 'ऐसे छोड़ कर नहीं आना था!'






अगली बार जब वे हमारे घर आये तो बिटिया कलकत्ता से आ गई थी और हमारे साथ थी। जैसे ही बिटिया को और मुझे देखा, बोले- क्या बात है भई, आप दोनों अकालग्रस्त इलाके के वाशिंदे लगते हैं। फिर जितेंद्र से बोले भई, तुम तो अच्छे खासे मुटा रहे हो यानी सुधा जी तो तुम्हारा ख्याल रख रही हैं पर तुम इनका ख्याल नहीं रख रहे। देखो, कैसे हाड़ दिखाई दे रहे हैं। यह जुमला जैसे ठसक और अधिकार के साथ उन्होंने कहा था, मुझे वह याद रह गया। आम तौर पर लेखक, अपने घर-परिवार के लिये काफी गैर जिम्मेदार और आत्मकेंद्रित हुआ करते हैं, यह कोई अनोखी बात नहीं है और उनका परिवार भी इसे स्वीकार कर चलता है। पर कामता भाई खुद बेहद पारिवारिक व्यक्ति थे। अपनी बेटी से वे बेइंतहा प्यार करते थे। हमेशा उसकी बातें करते, उसकी उपलब्धियों पर गर्व करते।


काफी बाद की बात है, जब हम शेखर जोशी जी के पहल सम्मान में इलाहाबाद गये थे। वहां से कामतानाथ जी से मिलने टैक्सी से लखनऊ गये। टैक्सी ड्राइवर उस शहर से अनजान था और उनका घर ढूंढने में हमें काफी वक्त लग गया। खाने का वक्त निकल चुका था पर भाभी के पूछने पर मैंने बता दिया कि हम खाना खा कर नहीं आये हैं। बस, यह बताना था कि पूरा परिवार एकजुट हो गया कि खाना खाए बगैर आप लोग कैसे जा सकते हैं और बिना किसी तैयारी के एकदम शानदार खाना बनाया गया। उनकी बिटिया भी उसमें जुट गई। हमारी अच्छी खासी दावत हो गई। कुछ परांठे बांध कर हमें रास्ते के लिये भी थमा दिए गए। कभी मैंने मुंबई में कह दिया होगा कि बथुए के रायते का नाम तो बहुत सुना है पर खाया नहीं कभी। उस दिन बथुए का रायता खिला कर ही मानीं भाभी। पहली बार मैंने कामता भाई के घर लखनऊ में ही बथुए का रायता खाया।


कामतानाथ जी से हमारे पारिवारिक साहित्यिक संबंध रहे। उन दिनों समांतर आंदोलन से जुड़े अधिकांश रचनाकार वे किसी भी भाषा के हों एक बड़े परिवार का हिस्सा होते थे। तमिल के रा. शौरिराजन, गुजराती के मनुभाई पांधी, मराठी के दया पवार, उर्दू के साजिद रशीद सभी को एक पारिवारिक रिश्ते-नाते की डोर से बांधे रखना, इन सबके सरगना कमलेश्वर जी के व्यक्तित्व की विशिष्टता थी। अक्सर समांतर सम्मेलन जहां भी आयोजित होता, कुछ लेखक-पत्नियां भी साथ जातीं और उस खुशगवार माहौल में रच-बस जातीं। साहित्यिक चर्चाएं भी गंभीर विषयों पर मानीखेज होतीं और साल भर की रचनात्मकता का लेखा जोखा किया जाता। समांतर के सात आठ सम्मेलनों में से, मैं तोपीपीपी सिर्फ मांडू (1972) और राजगीर (1975) ही जा पाई। कालीकट छिंदवाड़ा गांधीनगर, मुज के सम्मेलनों में मैंने शिरकत नहीं की। वहां की तीन तीन हिस्सों में फोटोग्राफ्स खींच कर लेखकों के लंबे चौड़े जमावड़े को, एक लंबी सी तस्वीर में कतार में जोड़ जोड कर बनाया जाता जिसे मैंने बहुत सहेज संभाल कर तहा कर रखा था। अब भी वे तस्वीरें कागजों के अंबार में चाहे दब गई हों, पर कहीं न कहीं मौजूद हैं ज़रूर।



अगस्त 1973 के मांडू समांतर गोष्ठी के दौरान लिया गया चित्र


कामतानाथ जी के जाने की खबर अप्रत्याशित थी। सुना था कि वे बीमार हैं पर इतने नहीं कि ऐसी खबर के लिये कोई तैयार हो। लमही का अंक आने के बाद उन्हें फोन किया था तो धीमी आवाज़ में बोले शुगर से परेशान हूं पर वैसे सब ठीक ही चल रहा है। कालकथा के तीसरे खंड पर जुटा हूं, उसे पूरा करना है। कभी आइये यहां, बहुत अरसा हो गया आप लोगों को देखे। उनकी आवाज़ हमेशा एक सम पर ही रहती थी। कभी उन्हें बहुत उल्लसित होते या बहुत नाराजगी में नहीं देखा। ट्रेड यूनियन के सक्रिय सदस्य और जोशोखरोश वाले कॉमरेड के साथ बेहद शांत व्यक्तित्व वाले लेखक ने कैसे इन दोनों पहलुओं में तालमेल बिठा रखा था, यह उनकी ज़मीन से जुड़ी कहानियों और उनके पात्रों में भी देखा जा सकता था। हर लेखक का कृतित्व उसके व्यक्तित्व का आईना होता है यह पंक्ति कामतानाथ के रचे समूचे साहित्य में बेलौस झलकती दिखाई देती है।


उनके स्मरण में बेहद अनौपचारिक तरीके से प्रेस क्लब में उनके कुछ मित्रों ने उन्हें याद किया। उनके करीबी मित्र पालीवाल जी, हरिचरण प्रकाश और उनके समांतर के ज़माने के मित्र सुदीप जी ने जैसे संस्मरण सुनाये , उसने माहौल को नम कर दिया। सातवें दशक के कथाकार सुदीप ने एक बार का वाकया बताया कि वे और कामतानाथ टाइम्स ऑफ इंडिया जा रहे थे। रास्ते में उन्हें ट्रेड यूनियन के दफ्तर में रुकना था। कामता भाई वहां उतरे और जिस जोम में आ कर उन्होंने एक कमिटेड कार्यकर्ता की तरह एक घंटे का भाषण दिया और जिस तरह से उनका स्वागत किया गया, वह बताता था कि वे यूनियन के लोगबाग उनका कितना सम्मान करते हैं और वे कितने श्रद्धा पात्र हैं। लेकिन वहां से लौटते ही, वे अपनी नेता और लीडरनुमा तस्वीर से इतनी सहज सरल आत्मीयता लिये आसानी से निकल आये। एक ऐसी शख्सियत जिसे दूर दूर तक अपनी महानता का कोई गुमान होना तो दूर, एहसास तक नहीं। कामता जी लेबर यूनियन के जितने बड़े कार्यकर्ता थे, उतने ही बड़े रचनाकार थे और उसी कद के एक विनम्र और स्नेही इंसान।


अक्सर कहा जाता है- लेखक की रचना देखो, उसका व्यक्ति पक्ष न देखो क्योंकि उस पक्ष में बहुत गड्ढे दिखेंगे लेकिन रचनाकार कामतानाथ का व्यक्ति पक्ष भी उतना ही पारदर्शी था। लेखक अपनी रचनाओं में जिन मूल्यों को दिखाता है, जैसा समाज वह बनाना चाहता है, कई बार खुद उसका अपना जीवन उसके विपरीत जाता है। कामतानाथ के साथ ऐसा नहीं था। अपनी बेटी, पत्नी और परिवार के साथ उनका लगाव बहुत गहरा था। वे पूरी तरह पारिवारिक व्यक्ति थे। उन्हें देखकर मुझे उनके अग्रज भीष्म साहनी का स्मरण हो आता है जो बहुत प्रखर और सचेत रचनाकार होने के साथ साथ एक बेहद संवेदनशील और केअरिंग पति थे। धारावाहिक 'तमस' के दौरान कलकत्ता दूरदर्शन के लिए जब मैंने उनका साक्षात्कार लिया था तो उनका सारा ध्यान अपनी पत्नी शीला जी की ओर लगा रहता था। वे हमेशा चाहते थे कि वे उनके इर्द गिर्द बनी रहें। बहुत व्यस्तता के बीच भी वे कभी उनका ख्याल रखना नहीं भूलते। सब लोग चाय पीने के लिए बाहर जाते तो वे यह कह कर उठ लेते कि शीला जी होटल में उनका इंतज़ार कर रही होंगी।




कामतानाथ जी द्वारा रचित विपुल साहित्य में उनकी ढेरों यादगार कहानियां हैं। उनकी संवाद प्रमुख कहानियां बेहद सहज, प्रभावी और रोचक हैं। इसका कारण उनकी भाषा का प्रवाह और शब्दों का सटीक चुनाव है। संवादों में भाषा जैसे बहती है। ये कहानियां हिंदी कथा साहित्य की धरोहर हैं। उनकी कहानी 'संक्रमण' एक क्लासिक कहानी है जो इंडिया टुडे की वार्षिकी में छपने के बाद खूब चर्चित रही थी और जिस पर कई नाट्यकर्मियों ने अपनी अपनी तरह से नाटक खेला। एक रंगकर्मी, राकेश कुमार, ने राजेंद्र गुप्ता के घर हो रही चौपाल में, एक अधेड़ पुरुष, उनकी पत्नी यानी मां और बेटे तीनों का किरदार अकेले निभाया और दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गए। 'संक्रमण' एक मध्यवर्गीय सेवानिवृत्त पिता की अपनी सीमित आय में घर चलाने की ज‌द्दोजेहद का और अपने बेटे को घरेलू जिम्मेदारियों के प्रति सचेत कराने का एकालाप इतना जीवंत है कि उसमें हर आदमी अपने जीवन की झलक देख सकता है। असल में यह जीवन की संध्या में एक व्यक्ति का, सिनिसिज्म की हद तक, अपने भविष्य के प्रति गहरा सरोकार दरशाती है जिसमें पीढ़ियों का द्वंद्व अपने चरम रूप में है। एक ओर पिता अपने जीवन की साधारण उपलब्धियों के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने पुत्र से उम्मीद करता है कि उसमें सांसारिक जीवन की समझ और गंभीरता पैदा हो तो दूसरी ओर पुत्र अपने पिता की इस बुड़भस से बुरी तरह चिढ़ा रहता है लेकिन आखिरी एकालाप में मां का बयान हमारे रोंगटे खड़े कर देता है कि पिता की मृत्यु के बाद वही बेटा हूबहू पिता का प्रतिरूप बन जाता है। एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की बड़ी और कूर सच्चाई इस कहानी में बड़े कारगर तरीके से रेखांकित हुई है।


दूसरी कहानी सारी रात भी वार्तालाप शैली की कहानी है। शादी के बाद की दूसरी रात पति-पत्नी, अपने विवाहपूर्व संबंधों पर बात करते हैं और पति काफी हील-हुज्जत के बाद अपने विवाह पूर्व कुछेक संबंधों का खुलासा मज़े ले लेकर करता है और पत्नी इत्मीनान से सुनती है लेकिन उसके बहुत कुरेदने पर जैसे ही पत्नी यह बताती है कि एक लड़का उसका कभी कभी पीछा करता था और हो सकता है उसे पसंद करता हो पर उसने कभी कहा नहीं तो यह सुनते ही पति का रवैया यकबयक बदल जाता है। आवाज थम जाती है। बोलना रुक जाता है और जो धाराप्रवाह अपने संबंधों का विवरण दे रहा था, चिढ़ कर कहता है कि क्या सारी रात बकबक करता रहूं? पत्नी का सहम जाना कहानी का मंतव्य स्पष्ट कर देता है कि उसका आगे का पूरा जीवन किस त्रासदी की ओर मुड़ने वाला है। यह कहानी समाज में पुरुष के मनचाहे स्वच्छंद आचरण और स्त्री पर थोपी हुई गुलामी का सच्चा ब्यौरा देती है। महज़ एक रात का वार्तालाप पुरुषसत्ता की मानसिकता की चूलें बिखेर देता है और पितृसत्ता के विश्लेषण के कई कोण थमा देता है।


कामतानाथ ने भारतीय सामाजिक संरचना के सामासिक पक्ष का खूबसूरत चित्रण अपने कथा लेखन में किया है। उनके उपन्यास 'कालकथा' में इसे हम एक द्वंद्वात्मक इतिहास के रूप में देखते हैं तो उनकी कहानियों में एक गहरे सामाजिक संबंध के रूप में। इस तरह वे सांप्रदायिक सौहार्द के आधारभूत तत्वों को एक रचनात्मक ऊंचाई देते हैं। मुस्लिम चरित्रों को जिस तरह "कालकथा" में कामतानाथ ने सजीव किया है, वह सिर्फ राही मासूम रज़ा और भीष्म साहनी के रचना संसार में देखा जा सकता है।





कहा जाता है कि कथाकार कामतानाथ के साहित्य की बहुत उपेक्षा की गई। मुझे भी ऐसा लगता है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि वह चुपचाप अपने सृजन में रत व्यक्ति को, उसका प्राप्य आगे बढ़ कर नहीं देता। यह सिर्फ उन्हीं रचनाकारों के खाते में दर्ज होता है जो आगे बढ़ कर अपनी काबिलियत नहीं, ताकत और जोड़-तोड़ के बूते उसे छीनना जानते हैं। प्रेमचंद और यशपाल की जिस परम्परा के लेखक, कामतानाथ थे, वह परम्परा दरअसल बाज़ार से आकांत होकर अब हाशिये पर चली गई है और उसके सामने ऐसे लेखन की भरमार है, जो वस्तुतः विचार विरोधी और दिशाहीन है इसलिये मुझे लगता है कि कामतानाथ के योगदान को, बिना व्यापक सामाजिक सरोकारों और संघर्षशील वर्ग की पक्षधरता के, प्रामाणिक तौर पर समझा ही नहीं जा सकता ।


अगर समाज है तो संघर्ष है और संघर्ष है तो कामतानाथ हैं।


(शब्दांकन : 2013 में प्रकाशित)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र कामता नाथ जी की सुपुत्री इरा नाथ श्रीवास्तव ने उपलब्ध कराए हैं। इसके लिए पहली बार उनका आभारी है।)




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sudhaaroraa@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया संस्मरण।

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  2. प्रतिपल बदलती निष्ठाओं के इस कातर समय में,जहा आत्मप्रचार ही सब कुछ है इस तरह के व्यक्तित्व को जानना पढ़ना अनिवार्य भी है और आवश्यक भी।

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  3. कामतानाथ जी के व्यक्तित्व और व्यवहारों का जो चित्र सुधा जी ने उकेरा है, लाज़वाब है! संस्मरण छोटा नहीं है लेकिन इतना जीवंत और प्रवाहपूर्ण कि मन अतृप्त-सा रह गया. प्रस्तुति के लिए 'पहली बार' का आभार!

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  4. ख़ूबसूरत आलेख. कामतानाथ जी, सुधा अरोड़जी और जीतेन्द्र जी से पहली बार राजगीर में मिला था। 1975

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  5. बहुत सुन्दर संस्मरण।

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  6. डॉ सुरेश सिंह यादव -बहुत सुन्दर और सारगर्भित संस्मरण।

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  7. शानदार संस्मरण
    संक्रमण बहुत ही जबरदस्त कहानी है बल्कि क्लासिक है।

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  8. शानदार व्यक्तित्व पर शानदार आलेख।

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  9. बहुत यादगार संस्मरण. कामतानाथ जी की कहानी 'संक्रमण' और 'काम का पहिया' मुझे बहुत अच्छी लगीं.अभी उनको और पढ़ना है. सादर स्मरण.

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  10. समान्तर कहानी आंदोलन के बीच से निकले कथाकारों में से कामतानाथ, जितेन्द्र भाटिया, इब्राहीम शरीफ़ जैसे महत्वपूर्ण कहानीकार हमें मिले‌ ।इन कथाकारों ने आम आदमी के संघर्षों को प्रमुखता से अपनी रचनाओं में दर्ज किया। 'काल कथा' जैसे व्यापक फलक के उपन्यास और 'पिघलेगी बर्फ़ ' जैसी अद्भुत कृति के रचनाकार को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। सुधा अरोड़ा जी ने अपने साथी कहानीकार के रचनात्मक व्यक्तित्व के साथ उनके स्नेहिल पारिवारिक व्यवहार को बड़ी शिद्दत से याद किया है। बिना किसी अतिरंजित भाव-भंगिमा के बिल्कुल कामतानाथ के लेखन जैसे सहज आत्मीय संस्मरण का के लिए सुधा जी बहुत आभार। -- आशीष सिंह

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  11. कामता भाई पर सुधा जी का यह लाजवाब संस्मरण है।उनके व्यक्ति,कथाकार,कॉमरेड,मित्र सभी रूपों का यथोचित आख्यान तो है ही,उनकी कुछ यादगार कहानियों और "कालकथा" जैसे महाकव्यात्मक उपन्यास पर भी सार्थक टिप्पणी की है।समांतर के कानपुर और राजगीर सम्मेलनों के तो हम भी गवाह रहे।

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