सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'एक और सुबह'

 

सुरेन्द्र प्रजापति


पारिवारिकता की भावना ने मनुष्य को सही मायनों में मनुष्य बनाया। समाज की इस सबसे छोटी इकाई के जरिए मनुष्य अपने विभिन्न पारिवारिक सदस्यों के साथ अपना व्यवहार सुनिश्चित करता है। यह पारिवारिकता उसमें जीवन का उल्लास जगाती है। मनुष्य जब हताशा के क्षणों का सामना कर रहा होता है तब भी वह इस पारिवारिकता के सहारे ही निराशा के समुद्र पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करता है और प्रायः सफलता भी प्राप्त करता है। पारिवारिकता की भावना मनुष्य की कल्पनात्मकता को भी एक नई दिशा प्रदान करती है। सुरेन्द्र प्रजापति ने अपनी कहानी एक और सुबह इसी वितान पर रची है। जेल में बंद एक सामान्य व्यक्ति अपने घर परिवार के बारे में सोचता हुआ समय गुजार देता है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'एक और सुबह'।



'एक और सुबह'     


                      

सुरेन्द्र प्रजापति 


मैं राष्ट्रीय कारागार में विचाराधीन बंदी हूँ। अभी कुछ ही दिन पहले एक फौजदारी मुकदमे में आया हूँ। एक जमीन के विवाद में अपने  ही बिरादरी के लोगों से मारपीट हुई और मैं गिरफ्तार कर लिया गया। दो चार दिन हमारे लिए जेल जीवन काफी कष्टमय बीता। मन में विचारों और भावों का बवंडर चलता रहा। वेदना, दुःख, तड़प, गुस्सा, कुछ पछतावा, कुछ स्वयं पर रंज आता जाता रहा।



जब अनायास ही जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटनाएँ घटती हैं, तब इंसान को सबसे पहले स्वयं पर गुस्सा आता है। कभी पछतावा भी। चाहे वह कितना भी निर्दोष क्यों न हो, सबसे पहले वह खुद को दोषी मानता है। जब आवेश में आता है तो सबसे पहले स्वयं को कोसता है। व्यंग करता है। फटकारता है। पिछली प्रत्येक दिनचर्चा को बहुत बारीकी से, बहुत सम्भल- सम्भल कर अध्ययन करता है।


तब उसकी सारी बुद्धि, सारी चतुराई, सारी विद्वता, सम्पूर्ण तर्क जागृत हो कर फुफकारने लगता है। यथा, ये काम हमारे ही हाथ क्यों हुआ? जब आपको पता होता है कि आप अपराधिक प्रवृत्तियों में शामिल हैं, आप वांटेड हैं, आप पर कभी भी और कहीं भी कानूनी शिकंजा जकड़ा जा सकता है तब आपकी बुद्धि कहाँ चली गई थी, तेल लाने। यथा आप खुलेआम क्यों कर घूमते रहते थे। जब आपको पता होता है कि पुलिस आपके पीछे लगी है, और आप बड़े इत्मीनान से निर्भय हो कर घूम रहे हैं। जब आप पहली बार पुलिस वैन को देखे थे तब तो आपके पास पर्याप्त समय था कि आप वहाँ से नौ दो ग्यारह हो सकते थे। किसी व्यस्त गली में, तंग नुक्कड़ पर, या भीड़ में गुम हो कर सुरक्षित निकल सकते थे।" इस तरह के न जाने कितने तर्क दिलोदिमाग को मथते रहता है।


हताशा हमारी उम्मीदों के टिमटिमाते लौ को बुझा देती है। अब मेरे सामने एक ही सत्य था कि मैं बंदी हूँ। और अब सारी ऊर्जा, सारा विवेक, सारा कौशल, स्वयं को रिहाई के लिए इस्तेमाल करना था। तैयार करना था, स्वयं को मांजना था। प्रत्येक गलतियों और चालाकियों से कुछ सीखना था। कभी कभी एक विचार मन में कौंधता है और प्रसन्नता से भर देता है कि अहोभाग्य मैं वहाँ हूँ जहाँ हमारे महान स्वतंत्रता सेनानी कुछ हमारी ही तरह कभी कैदी जीवन बिताए थे। जबकि उस समय का संविधान, नेतृत्व, शोषण व्यवस्था प्रतिकूल था। हुकूमत के अधीन था। न्याय की क्रूर व्यवस्था थी। लेकिन आज! तब दिल को कुछ संतोष मिलता। कभी कभी मन में संताप भी होता कि मैं वहाँ हूँ जहां पर विभिन्न आपराधिक छवि के लोग हैं।


धीरे-धीरे दो-चार दिनों में मैं सामान्य होने लगा। रक्षाबंधन के दिन सभी बंदी भाइयों के लिए रक्षा सूत्र (राखी का त्यौहार) आया। सुबह से ही कैदियों के मुलाक़ाती रस्क आते रहे। मैं अनमन्यस्क स्थिति में मायूस था। एक नाउम्मीद पाले कि काश! मेरी भी बहन आये और राखी बाँधने के बहाने घर परिवार का, बच्चों का कुछ हाल समाचार मिले। लेकिन उम्मीद की कोई किरण अभी नजर नहीं आ रही थी।


कभी-कभी जीवन में कुछ अप्रत्याशित, कुछ आकस्मिक घटनाएँ घटती है और जब-तब हमें अपनी सारी आद्रता में डुबो देती है। जैसे सुबह से बारिश का कोई आसार न हो और अचानक बादल घिर आए और रिमझिम पानी बरसने लगे।


दिन के बारह बज रहे थे। सभी कैदी खाना खाने में मशगूल थे। सभी वार्डों में कैदी कतारवद्ध हो कर खाना ले रहे थे। लेकिन पता नहीं मैं किस उधेड़बुन में था। भुलभूलैया में पड़ कर एक नाउम्मीद का आसरा लिए जेल के मुख्य दरवाजे तक पहुंच गया।


जेल का वार्डन हाथ में पर्ची ले कर (जिसके नाम का पर्ची है) कैदी भाइयों को आवाज लगा रहा है। पता नहीं मैं किस विश्वास के साथ एक व्यक्ति से अपने पर्ची के बावत पूछ ही रहा था कि एक वार्डन ने मेरा नाम ले कर जोर से पुकारा। मैं तुरंत ही कुछ आश्चर्य, कुछ अजमंजस, कुछ उत्साह के साथ बोल पड़ा - "हाँ, हाँ, मैं हूँ।" मुझे तुरंत ही गेट में प्रवेश लेने के लिए कतार में खड़ा कर दिया गया। चूँकि आज रक्षाबंधन है। और आज पूरा जेल प्रशासन सिर्फ बहनों को ही अपने भाई को राखी बाँधने का आदेश निर्गत किया है।





सो मैं विचार करने लगा कि कौन हो सकती है। क्या दीदी आई है, मुझे राखी बाँधने। लेकिन पहले तो कभी इस तरह का कोई सूचना ही नहीं दी गई थी। देर तक मैं  सोचता रहा लेकिन उत्तर कौन देता। चलो अच्छा ही हुआ। दिल में पीड़ामिश्रित उत्साह था। गेट के अंदर विशालकाय गली में पहुँचा तो कतार में खड़ा कर दिया गया। और वह जो सामने से मिलने आए लोगों के समूह में जिसे देखा। मैं चकित और अवाक् रह गया।



चेहरे पर अपार पीड़ा, आँखों में असीम दर्द, आँसुओं में कातरता लिए सुजाता आई और सामने शांत खड़ी हो गई। नजर मिलते ही मैं कुछ बुझ सा गया। अपनी उपस्थिति को भूल गया। वह मुझे बताने लगी - "साथ बड़ी भाभी भी आई है। लेकिन वह बाहर ही हैं। मुझे भी मिलने से रोका जा रहा था कि आज सिर्फ बहनें जाएंगी अपने भाइयों से मिलने। मैं गिड़गिड़ा कर कहने लगी कि हाँ, मेरे भाई हैं। मैं अंदर जाऊँगी और तब मुझे अंदर आने दिया गया है।" और कहते-कहते उसके कपोलों पर आँसुओं की बूँदे झिलमिलाने लगी। मुझे लगा उसके आँसू पिघले शीशे की तरह मेरी अंतरात्मा में जला रही है। उसके एक हाथ में कुछ मिठाई और दूसरे हाथ में कच्चा सूत (मौली) था। मैं उसके हाथ से सारे सामग्री ले लिया।


"बच्चे कैसे हैं।"


"आपको याद करते हैं।"


पाँच मिनट के अल्प वार्तालाप में मैं उसकी याचनापूर्ण बातों को सुनता रहा। जिसमें भय था। अविश्वास था, असंतोष था। जाते वक्त एक प्रार्थना गूँजी।




"कब छुटिएगा। बहुत तकलीफ है। लोग तरह-तरह की बातें करते हैं।" मैं उसे अपनी रिहाई का भरोसा दिलाते हुआ विदा किया। फिर मैं बोझिल और थके हुए कदमों से वापस अपने बैरक में आ गया। उसका कातर मुख, आँखों की पीड़ा बार-बार मुझे व्याकुल कर रही थी।



अनायास ही मेरे आँखों के सामने घर में बच्चों का मासूम चेहरा चलचित्र की तरह चलने लगा। हृदय में एक कशमकश थी। बच्चे कैसे होंगे? क्या वे मेरे जेल आने की बात सुन कर व्याकुल नहीं हुए होंगे? खूब रोए होंगे। शायद रात का खाना भूल गए होंगे। उनकी निश्चित दिनचर्चा छूट गई होगी। चेहरे पर हरदम चंचलता और चपलता का भाव चिंता, शोक और पीड़ा से भर गया होगा। उनकी निश्चिन्तता पराधीन हो गई होगी। स्कूल का पाठ भूल गये होंगे। क्या पता नियमित स्कूल जाते भी होंगे या नहीं! तीनों बच्चों की मासूमियत कहाँ गिरवी रख दी गई थी?


सुजाता कितनी असुरक्षित हो गई होगी। उसका सुबह उठ कर चाय बनाना, फिर मुझे जगाना और तब पूजा पाठ में लग जाना। क्या अब भी वह उसी निश्चिन्तता से सुबह उठ कर चाय बनाती होगी? नहीं, अंतरात्मा साफ इंकार कर दिया। अब वह क्यों और किसके लिए चाय बनाएगी?





मुझे याद है दो महीने पहले जब मैं बात-बात पर अपने पड़ोसी से उलझ गया था, और अकस्मात किसी के पत्थर के प्रहार से मेरा सिर फूट गया था और मै अचेत हो कर गिर पढ़ा था तब तीनों बच्चे मुझसे घंटों लिपट कर रोते रहे थे। रो-रो कर उनका बुरा हाल हो गया था। सुजाता के लाख प्रयत्न करने के बावजूद वे चुप नहीं हो रहे थे। कोई भी वस्तु उन्हें रिझा नहीं पाई थी। था। बच्चों को रोते देख सुजाता भी रोने लगी थी। जब मुझे होश आया तब जा कर बच्चे शांत हुए थे। मैं सोचता हूँ, अब क्या गति होगी उनकी? प्रकाशविहीन वस्तु में कोई आकर्षण नहीं होता। और न ही अचिन्हित पथ का कोई मुसाफिर। उन तीनो बच्चों को भी मुहल्ले वालों का अपमान सहना पड़ रहा होगा। बहुत सारे लोग या उसके उम्र के बच्चे उसका उपहास उड़ाते होंगे। घृणा करते होंगे। बहुत कम लोग होंगे जो उसे स्नेह से देखते होंगे। शायद, किंचित उपलब्धियों में उसके हिस्से बार-बार एक संवाद (तर्क) गूँजता होगा- "तेरा बाप जेल की चक्की पीस रहा होगा।" ऐसे बच्चे को दूसरे और खासकर बिगड़ैल बच्चे बार-बार ताना देते होंगे। शब्दों के मारक वाण चलाते होंगे। हतोत्साहित करते होंगे। चाहे वह खेल का मैदान हो या स्कूल का क्लास रूम। तब उन तीनों की क्या स्थिति होगी? वे किसी से अब पहले जैसे चपलता और निर्भीकता के साथ बात नहीं कर सकते हैं। किसी से आँख नहीं मिला सकते हैं। उनके लिए एकान्त प्रिय होगा। एकालाप प्रिय होगा। निर्जन प्रिय होगा। जहाँ कोई उन्हे परेशान न करे। जहाँ कोई ताना देने वाला नहीं होगा। जहां कोई उन्हें अपमानित नहीं करेगा।


शाम के करीब छः बजे गेटबंदी हुई। केंद्रीय जेल के भिन्न-भिन्न बैरकों में बंदी जा चुके थे। जेल प्रशासन के सख्त पहरों के बीच सभी बंदी अपने-अपने बैरकों में बंद। मै स्वयं को अलग थलग, लुटा पिटा और असहाय महसूस कर रहा था। मन की अनुभूतियाँ कंदील की काँटों की तरह पूरे शरीर को बेध रही थीं। मेरे मन मस्तिष्क में अभी तक यह मंथन चल रहा था की यहाँ चोर डाकुओं बटमारों, बदमाशों, शराबियों, क्रूरता की सभी हदें पार कर चुके कुछ कुख्यात अपराधियों के बीच, षड्यंत्रकारियों, फरेब रचते, न्याय को चकमा देते, इंसानियत को रक्त से नहलाते, रक्तपीपासु लोगों के बीच मैं निरा असहाय स्वयं को पा रहा हूँ।


हृदय मे एक बेचैन कर देने वाला प्रश्न कराह रहा था। मेरा अपराध क्या है? विश्वास के अंधेरे ने तर्क दिया - अपराध यही है कि तुम इन  तमाम तरह के अपराधियों के बीच हो। तुम भी एक अपराधी हो।


अचानक ही बारिश होने लगी। चूँकि अगस्त का महीना था और बरसात का मौसम। लेकिन जिस तरह सुबह से मौसम साफ था। आसमान पूरी तरह मेघरहित। बारिश का कोई आसार नजर नहीं आ रहा था। बावजूद इस वक्त अचानक अप्रत्याशित रूप से बारिश होने लगी। मैं जेल की बैरक में बैठा चुपचाप मायूसी से अपने चारों ओर सोए बंदियों को देखता और खिड़की से बाहर बरसते हुए बूंदों को देख रहा था। एक पल को अनुभव हुआ जैसे बारिश मेरे मन के धातुई प्रदेश में हो रही है। और मेरे पूरे बंजर प्रदेश को गीला कर रही है। मेरे जीवन का पूरा अस्तित्व वारिस में भीग रहा है। बारिश बाहर नहीं बल्कि बैरक के छत से टपक रही है। जिसमें सिर्फ मै अकेला भींग रहा हूँ। मेरा अंतर्मन भींग रहा है। मेरी अनुभूति भींग रहा है।


और मेरे अंदर कुछ पिघल रहा है। कुछ बह जाने को आतुर है। मुझे सहसा ख्याल आया- शायद मेरे गाँव में भी बरसात हो रही होगी। मेरा घर भी भींग रहा होगा। छत से बारिश की बूँदे टपक रही होंगी। मेरे बच्चे कृपणता के साथ बेचैन होंगे। बारिश से बचने का उपाय ढूंढ रहे होंगे। छत से टपकतें बूंदो से घर के सारे सामान भींग रहे होंगे। बच्चे आपा धापी कर टपकतें बूंदो को किसी बर्तन में छान रहे होंगे। अस्त व्यस्त हो रहे होंगे। मेरे निकम्मेपन को कोस रहे होंगे। मेरी दीनता की दुहाई कर रहे होंगे। कदाचित रो रहे होंगे। लेकिन उनके पास और उपाय भी क्या है।



मुझे याद है पिछले बरसात में आधी रात को जब पूरा गाँव निंद्रा में निमग्न सो रहा था। अचानक बारिश होने लगी थी। मूसलाधार बारिश। मैं, मेरे तीनो अबोध बच्चे, सुजाता बारिश होने तक पूरी बेचैनी के साथ टपकते छत से जरूरी सामानो को भींगने से बचाने के लिए हैरान परेशान भाग दौड़ करते रहे। बेड पर बिछा हुआ कुशन भींग रहा था। और अचानक ही तेज हवा के झोंको के सामने छप्पर को ढँकी बरसाती भी डण्डवत करने लगी। मेरा बारह बर्सीय पुत्र रोने लगा। वह ढेरों तक यों ही रोता  रहा। बरसात के थम जाने के बाद भी घंटो रोता रहा। बरसात का पानी घर में घुस आई थी। मैं, सुजाता, रिया और प्रीति बाल्टी से पानी उलीच रहे थे। डबडबाए आँखों से मेरी छोटी बेटी प्रीति कह रही थी - "पापा घर कब बनाओगे।" और फिर वह दहाड़ें मार कर रोने लगी।


मैं भला क्या बोलता। मेरे पूरे वजूद में कंपकंपी छूटने लगी थी। मै निरुपाय, निःसहाय, बेवश सिर्फ अपने बच्चे के मलीन, बेचैन चेहरे को देख रहा था। उसके अंदर चल रहे झंझावात को महसूस कर रहा था और एक असुरक्षित वर्तमान से गुजरते हुए एक अन्धकारमय भविष्य की ओर जा रहा था। मेरे मन का इंसान, मेरी अनुभूति, मुझे ही फटकार रहा था, मुझ पर व्यंग्य कर रहा था। और समय लिख रहा था मेरी बेचारगी के फ़टे चादर की दास्तान। मेरी आत्मा में उभरे असंख्य पीड़ा की पटकथा।





मुझे अहसास हो रहा था कि देर सवेर मुहल्ले वाले, पड़ोस वाले मेरे घर की हालात को देखेंगे। मेरे बच्चों, सुजाता के मुख पर दुःख के रुदन को देखेंगे। उनकी विवशता को देख कर कुछ लोग अति दयालु होकर सांत्वना देंगे। दुःख से लड़ने की हिम्मत देंगे। कुछ लोग मेरी दीनता, विवशता और लाचारी की खिल्ली उड़ाएंगे। कुछ उपहास उड़ाएंगे- "खाने को लाले पड़े हैं और चला है बबुआ केस-मुकदमा लड़ने।" जैसे तीखे वाक्य बोलेंगे। मैं अनुभव कर रहा था कि ये सब सुनने और खामोशी के साथ सिर्फ आँसू बहाने के लिए सुजाता अभ्यस्त हो चुकी है। अब उसे यह सब उतना टीसता नहीं है। उसके मनोबल को झिंझोड़ता नहीं है। वह इन तमाम परिस्थितियों को अपने दिनचर्चा में शामिल कर चुकी है।



मैं हमेशा महसूस करता था कि जहाँ हमारे आंतरिक रिश्तों, सरोकारों, इच्छाओं, से हर कोई अपरिचित हो, अजनवी हो वहाँ उन्हें वर्तमान उजड़ा हुआ और वर्तमान अस्त व्यस्त और नंगा नजर आता है। और मेरा वर्तमान उजड़ा हुआ था। नंगा था। ये भी महसूस करता हूँ कि उजड़े वर्तमान दीनता से आहत आज का मैं अभ्यस्त हो चुका हूँ।



सुजाता जानती थी कि कुछ अनिच्छित, बेतुके प्रश्न जब ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थितियों में उपज आते हैं तब रास्ते का कंकड भी सिर उठाने लगता है। रास्ते का धूल भी कांटे की तरह चुभने लगता है। बेमतलब चलती हुई हवाएं भी पूछती है। उसका जबाब बहुत हद तक मायूसी से ही दिया जा सकता है। वह समय के अनुकूल मौन रह कर दे चुकी होगी। सुजाता बहुत हद तक बच्चों को जीवन में संघर्ष करने और जीने के सलीके सिखा रही होगी।



मुझे यह सोच कर भी ग्लानि हो रही थी कि मेरी अनुपस्थिति में रिया और सीमा दोनों बहनें आपस में झगड़ना भूल गई होंगी। उनका आपसी गुस्सा, बालसुलभ मतभेद, दिन-दिन भर एक दूसरे से  नहीं बोलना, अपने पिता से एक दूसरे की शिकायत करना, सब भूल गई होंगी। जैसे सुजाता बताई थी कि दोनों बहनें अब मिल कर रहती हैं, एक दूसरे से मिल कर काम करती हैं। खेतों में जा कर मेरा सहयोग करती हैं। मुझे बहुत संतोष हुआ था। एक अपराध बोध भी हुआ था कि वे दोनों शायद मुस्कुराना भूल चुकी होंगी। हाँ यह जरूर हुआ था कि तमाम उलाहनों के बावजूद वे स्कूल जाना नहीं भूली थी। नियमित स्कूल जा रहे थे। आर्यन अपने देखरेख मे उनका होमवर्क पूरा करवाता था।


घर की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए सुजाता खेतों में काम करना शुरु कर दी थी। दूसरे के खेतों में अन्य मजदूरों के साथ वह भी काम करती। शायद वह भी अपने शरीर की ओर ताक झाँक करते कुछेक नजरों को बड़ी शिद्दत से महसूस करती होगी। उससे हरदम बचने का प्रयास करती होगी। लेकिन मैं जानता हूँ, इन सब बातों से बेफिक्र वह जिंदगी की खूबसूरती की तलाश करने के जद्दोजहद करती, अपने आँखों में हमेशा एक उम्मीद की मशाल जलाए हुए चलती है। अनंत इच्छाओं को जीने की उसमें गजब की जिजीविषा है। जिसे मैं कई बार महसूस किया हूँ। वह कठिन परिस्थितियों में भी अपनी भावनाओं को सबल बनाती हुई प्रत्येक चुनौती को स्वीकार भी करती है। वह व्याकुलता में या घोर निराशा के क्षणों में भी रौशनी की तलाश करती है।



सभी बंदी सो रहे थे या स्वप्नों में विहार कर रहे थे। बारिश रुक जाने के बाद पूरा वातावरण शांत हो चला था। मौसम में हल्की ठंडक और धरती की सोंधी महक आ गई थी। दूर वनस्पतियों से झींगुरो की आवाज उस मौन रात्रि के सन्नाटे को तोड़ रहा था। बैरक में सिर्फ बंदियों के खर्राटे गूंज रहे थे जो अंधेरे को और भयावह बना रहा था।


तभी जेल प्रहरी ने जागरण का बिगुल बजाया। अवचेतन मन से चेतन की अवस्था में लौटते हुए मैं एकदम कुछ भींगता हुआ महसूस किया। मैं यह अनुमान लगाने लगा कि कुछ  बंदी वहाँ ऐसे भी हैं जिनकी इच्छाएँ, सपने, कल्पनाओं की नींव हिल रही है। और ऐतिहासिक खंडहरों की तरह बिखर रहे हैं। धीरे-धीरे मेरी आँखों की पलकें मुंदने लगी। नींद के रास्ते स्वप्न की तरुणाई में धड़ाम से मैं जा गिरा।


यह लोक अलग था। संसार विचित्र था। किसी देश की आजादी का वर्षगाँठ मनाया जा रहा था। पूरे नगर में उत्स्व का माहौल चल रहा था। रंग बिरंग के फूलों से तोरण द्वार सजाया जा रहा था। मुख्य पथ बेहद ही आकर्षक लग रहा था। बंदेमातरम के जयघोष से पूरा आसमान गूंज रहा था। और इधर क्षितिज पर पसरा उजाला धरती पर रेंग रहा था। शायद एक और सुबह हो रही थी।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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मोबाइल : 7061821603

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