अवन्तिका राय की कविताएं

 

अवन्तिका राय


छोटी कविताएं लिखना हर कवि के लिए एक चुनौती की तरह होती है। कम से कम शब्दों में अपनी बात को रख देना आसान नहीं होता। यह दौर विकट वाचालता का है। एक अजीब विडम्बना हमारे इस समय की है। जिसके पास बोलने के लिए कुछ नहीं है वह ज्यादा बोलता दिखाई पड़ता है। नींद में भी बर्राता रहता है। जिसके पास बोलने के लिए बहुत सी बातें हैं वह खामोशी अख्तियार कर लेता है। कवि अवन्तिका राय जीवन के उन सूक्ष्म अनुभूतियों के कवि हैं जो प्रायः अलक्षित रह जाती हैं। बदलाव के बावजूद गांवों और छोटे शहरों में अभी भी जीवंतता बनी हुई है। यहां पर छोटे छोटे अवसरों पर जीवन का उल्लास मनाते लोग हैं। कवि की नजर उस हुडुका पर है जो आमतौर पर आभिजात्य संगीत प्रस्तुतियों से बाहर रहता है और इसीलिए प्रायः अलक्षित भी रहता है। लेकिन जब बजता है तो जैसे प्रकृति का तिनका तिनका थिरकने लगता है। यह उस जन सामान्य की आवाज बन कर निकलता है जो हमेशा परिधि के बाहर रहने के लिए अभिशप्त है। लेकिन यह जो आम है किसी की परवाह कहां करता है। यह हुडुका बजता है और शीघ्र ही समूचे परिदृश्य में छा जाता है। वही कवि इस हुडुका को काव्य परिदृश्य में  ला सकता है जिसने इसे आंखों देखा और कानों सुना हो। अवन्तिका में इन सूक्ष्म अनुभूतियों को कविता में ढालने का जो साहस किया है वह महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह वे रंदा की उस प्रक्रिया से भी वाकिफ हैं जो हर रूखड़ को सहज सुन्दर बनाने का काम करता है। कवि इस रंदा को जीवन की अनिवार्यताओं से जोड़ते हैं। यही इस कवि की सफलता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय की कुछ नई कविताएं।



अवन्तिका राय की कविताएं 


हुडुका


नितान्त अकेलेपन में

आया

हुडुका

हुड़ हुड़ हुड़ हुड़

बजने वाला बाजा

और घोड़नचिया

हुड़क मिटा होगा

दिल का

साथी सचिया



व्यायवहारिकता


आदतन

सैकड़ों से मिलाता हूँ हाथ

कितनों से पूछता हूँ कुशल क्षेम

पर समझता हूँ इसकी निरर्थकता


सचमुच

इस देश में

व्यायवहारिक ही है सब कुछ।



इस शान्त, नीरव जगह पर यूं बैठ कर


इस शान्त, नीरव जगह पर यूं बैठ कर 

सुन रहा हूं

कपोत और पनडुक की विह्वल पुकार

तितलियों का शोख फूलों पर मंडराना देखता हूं

देखता हूं चन्द्रमा को पिघलते

औ’ सुबह की लालिमा

दत्तचित्त एकाग्र हो कर सुन रहा हूं

ब्रह्म-पट-बेतार पर आ रही प्रिय

एक मोहाविष्ट करती

डबडबाती

श्याम-श्वेत जल में डुबाती

मन्द-मन्द कैसी पुकार! 



तर्क


ठीक उसी आदमी से मैं

दिन के तीन प्रहर

सुबह, दोपहर, शाम

प्रेम

नफरत और

निःसंगता के तर्क

ढूंढ लेता हूं 



रन्दा


दाढ़ी उग ही जाती है

नाखून बढ़ ही जाते हैं

घर में कबाड़ निकल ही आता है

घास बेतरतीब बढ़ ही जाती है

मन में मैल जमा हो ही जाती है

आखिर

धरती पर

रन्दे की भी एक जगह है



ईश्वर


सब कुछ कहा जा चुका था

और अंत में यही कहना बचा था कि

ईश्वर है

तभी कवि ने

अपनी आंखें मूंद लीं


आँखें मुंद जाती हैं

जब कहा जाता है कि

ईश्वर है!






निर्विकल्पता


कितने भटकाव

उलझाव

टूटन

खामोशी

पानी और रेत के अनन्त सागर पार करने के बाद मिली

यह शून्यता !


चलते चलो, मुसाफ़िरों !

 


मौलिकता


आजकल

मैं

कुछ भी बोलता हूं

तो रुकता हूं

और

गौर करता हूं

यह कि

किसने बोला

और

मुझे किसी का

पता

मिल जाता है


इन पतों में

मैं

लापता नहीं हूं,

आखिर

हमारी शिनाख्त

प्रकृति ने भी

बहुत आसान

बनाया है.



श्वेत-श्याम


चेतना में

आकृति उभर आयी

श्वेत कपोत की,

पट पर

आकृति को बनाया

श्याम रेखाओं ने.



उन्हें भी हंसी आती है


उन्हें भी हंसी आती है-

दर्द में पड़े हुए के कराह पर

किसी अपाहिज की अक्षमता पर

किसी के रंग पर, रूप पर, देशज बोली पर

किसी के दौर्बल्य पर

किसी के ढमिला जाने पर


वे हंसते हैं

छोटी छोटी मानवीय त्रुटियों पर


उन्हें रगड़ा में आनन्द आता है

वे झगड़ों में आनन्दित होते हैं

व्यसन उनके आनन्द का सबब है

उन्हें ढहती हुयी मनुष्यता आनन्दित करती है

वे चकमा दे कर आनन्द लेने के आदी हैं


उन्हें चालाक लोग पसन्द हैं

और सीधापन उन्हें घण्टों हंसाता है,

सच मानिए

उन्हें बेहद मार्मिक प्रसंग हंसा देते हैं 

वे हिंसा में आनन्द लेने वाले लोग हैं


मैंने उन्हें करीब से देखा है

उनके ऊपर हंसने वालों को ले कर

वे बेहद चौकन्ने और अनुदार होते हैं ! 



प्रतीक्षा


आत्माएं जुड़ती हैं

जब एक इंतज़ार खत्म होता है


कितना कुछ एक उमग में बह जाता है

जब बादल घिरते हैं और

चातक की जीभ पर पानी की पहली बूंद पड़ती है


मैं अब तक महसूसता हूँ वह अनुभव

जब स्कूल में रेसेस की घण्टी घनघनाती

और हम दौड़ पड़ते खेलने गेंदतड़ी


प्रेमियों के मिलन पर तो उत्कीर्ण हैं महाकाव्य

एक वेग थिरता है

जब वे मिलते हैं


पूर्णिमा की रात कितनी हहराती है

जब सागर से मिलने का इंतज़ार खत्म होता 

और चाँद धरती के पास आता


एक ऊब, एक तड़प, एक वेग, एक कसे हुए अनुशासन से

मुक्ति के कुछ पल की आस ही तो इंतज़ार है

और इंतज़ार एकत्त्व की भाषा






माली


मेरे घर कभी कभार आने वाला माली

शायद पहाड़ी है,

यह साहस कभी नहीं बटोर पाया की

किसी से उसकी पहचान पूछी जाए

शायद यह भी वजह हो

की किसी ने मुझे पहचान पर गौर करना 

कभी नहीं सिखाया

अलबत्ता

कबीर बचपन से यही सिखाते मिले

की मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान,


माफ़ कीजिएगा इस अवान्तर प्रसंग के लिए


माली को कई वर्ष पहले मैंने मुस्कुराते हुए देखा

बहुत खुशमिजाज

इस बार मैंने उसे पचास किलो से भी ज्यादा वजन का

गमला उठाते देखा

चट मेरे अंदर सहानुभूति आई

पर वह उस पेड़ से लटपटाया हुआ था

और उसे इससे कोई मतलब नहीं था की कोई उसे देखे न देखे,

खूब खुश


अनुभव से जानता हूँ कि

पेड़, पौधे और लताएं

बहुत सुख देते हैं

अगर आप उनसे लटपटा जाएं


माली

पौधों की भाषा जानता है

और पौधे उसकी भाषा

एक पौधे से वह यह कहते सुना गया

की अगली बार जब वह आए

वह और तगड़ा दिखे


माली के दो बच्चे हैं

यह उसने

बात बात में बताया

लड़की एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही

और लड़का हाई स्कूल में

बच्चों का नाम ले

वह और खिल जाता है

जैसे वे कोई नायाब पौधे हों


मुझे नहीं पता कि यह गौरवर्णी माली कभी दुःखी और

उदास भी होता होगा या नहीं

पर धीरे धीरे जान गया हूँ कि 

जब सब कुछ साझा करने की इतनी संपन्नता हो तो आख़िर

कोई कितने घड़ी निराश और दुखी रह सकेगा

आप आश्वस्त रहिए

माली के विषय में ढेर सारी बातें मैं आगे भी करता रहूंगा

तब तक के लिए

अलविदा!



बुद्ध


महामाया के किस्से सुनाती थीं मौसी प्रजापति और

और उनके नयनों से अविरल अश्रु झरते थे

भारहीन फूल सी उपस्थिति थी गौतमी की

और मां के किस्सों को सुन बड़े हुए अनाहत राजकुंवर


अनाहत बालक जिज्ञासु होता है


बुद्ध की जिज्ञासा जग चुकी थी शिशुकाल में

वह जानना चाहते थे नट-स्वरूपा महामाया को

प्रजापति की कहानियों से

ढूंढना चाहते थे कोई सूत्र

जिससे मिल जाए महामाया का पता


राजमहल में रहने वाली एक दासी ने 

बताया था महामाया की सच्चाई

कहा था

वह दुःख से उपजी श्वेत हास थी

निकल पड़े सिद्धार्थ दुःख को जानने

भारी यत्न किए थे पिता ने दुःख की छाया से बच जाने की

वर्जित था सिद्धार्थ के लिए दुःख का प्रदेश

बस राजा को नहीं पता था

वर्जना, जिज्ञासा बढ़ा देती है


शेष किस्सा किताबों में लिखा मिलता है


इतना और जोड़ना चाहूँगा

जब सिद्धार्थ बुद्ध बने

गौतमी प्रजापति और माँ महामाया

दोनों को पा चुके थे


चरैवेति! चरैवेति!






वो और हम


मय पिलाते हैं वो

झूम जाते हैं हम

भूल कर इस जहां के

इस समय के सितम


वो साकी भी हैं

पुर पियक्कड भी वो

वो फकीरों-अमीरों 

सभी के सनम


वो सितमगर तो हैं ही

जख्म-मरहम भी वो

दरम्यां उनके-सबके

एक परदा कसम


हम पीते रहें

वो पिलाते रहें

हम पिलायें तो वो

आजमाते रहें

बस यही एक दुआ है

इतना कर दें रहम


मय पिलाते हैं वो..........



ये नाजुक खयालों की दुनिया है यारों


ये नाजुक खयालों की दुनिया है यारों

यहाँ हर कदम तुम संभल कर उठाना


यहाँ शेर लौटे हैं  हर्फ़ों  से बंध कर

शहंशाह का भी यहाँ क्या ठिकाना


यहां कुछ नहीं, कुछ नहीं में बहुत कुछ

इसी आक़िबत तक है पहुंचा  जमाना


मुर्दे   कफ़न में  यहां पर  जो  आए

मिली मय कुछ ऐसी की गाएं तराना


यहां नूर मिलता है फानी जगत का

यहां झिलमिलाए जन्नत बन फसाना


ये नाजुक खयालों की..................


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



अवन्तिका राय वर्तमान में उ. प्र. सचिवालय में उपसचिव के पद पर सेवारत हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा डिजिटल माध्यमों में इनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से इनकी जमीन शेरपुर, जनपद गाज़ीपुर की है।



सम्पर्क 


अवन्तिका प्रसाद राय

10 B/748

वृन्दावन योजना

लखनऊ, उ0प्र0।



फोन नं-9454411777

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