उमाशंकर सिंह परमार का आलेख ‘लोक’ - स्वरूप और चेतना


‘लोक’ को ले कर सामान्य जनमानस में बहुत कुछ भ्रम की स्थिति बनी रहती है। ‘लोक’ के अर्थ और इसके विभिन्न पहलुओं पर युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने एक शोधपरक आलेख लिखा है। इस आलेख को हम पहली बार पर आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख ‘लोक – स्वरुप और चेतना।'
      
लोक’  - स्वरूप और चेतना

उमाशंकर सिंह परमार

मनुष्य के सामाजिक संबंधो व स्तरों का निर्धारण उत्पादन प्रक्रिया से तय होता है। उत्पादन प्रक्रिया से सुनिश्चित सम्बन्ध अनिवार्य होते हैं और इच्छाशक्ति के बाहर भी होते हैं। उत्पादन के इन सम्बन्ध सूत्रों द्वारा सामाजिक ढांचे का ताना बाना बुना जाता है। यही वह बुनियाद है जिसमें राजनैतिक व सांस्कृतिक प्रासाद खडा होता है। ज्यों ही इस बुनियाद में बदलाव आता है त्यों ही बुनियाद पर टिके सामाजिक राजनैतिक प्रासाद बदलने लगते हैं। यह बदलाव व्यवस्था पर होता है। वर्गीय संबंध परिवर्तन से अछूते रहते हैं। कहने का आशय यह है कि वर्गीय संबंधो में परिवर्तन नहीं आता केवल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक पहलू ही परिवर्तन के दायरे में आते हैं। एक वर्ग जब दूसरे वर्ग की सांस्कृतिक संपदाओं में काबिज हो जाता है तो दूसरा वर्ग अपने लिये नवीन परिवेश व परम्परा की खोज करता है। दोनों वर्गों का द्वंद सनातन और बुनियादी है। संपूर्ण भाषायी एवं सास्कृतिक विकास के मूल में यही द्वंद है। एक वर्ग होता है सुविधाभोगी तो दूसरा वर्ग होता है सुविधाविहीन। एक वर्ग सत्ता और संपत्ति से रहित होता है तो दूसरा सत्ता और संपत्ति का स्वामी होता है। पहला वर्ग श्रेष्ठ है। जो श्रेष्ठ है वही परिष्कृत है, अल्पसंख्यक है, अभिजात्य है, वही है भद्रलोक या अभिजन। ठीक अभिजन के विपरीत जो दूसरा वर्ग है वह बहुसंख्यक है, साधनविहीन है, श्रम प्रधान है, पर वह श्रेष्ठ नहीं है। यही तो लोक है। इस प्रकार लोक व भद्रलोक का विभाजन क्षेत्रीयता के आधार पर नहीं अपितु उत्पादन प्रक्रिया व संपत्ति के स्वामित्व के आधार पर तय किया गया है। ‘लोक’ शब्द के उच्चारण से जन सामान्य के समूहों का ही बोध नहीं होता अपितु विभिन्न समूहों के आपसी उत्पादन संबंधो का भी बोध होता है। सामाज के विभिन्न वर्गों के मध्य विद्यमान आर्थिक संस्तरों का बोध होता है।
                  
ब्दकोषों में लोक के अनेक अर्थ मिलेंगे जिसमें समान्यतया दो ही अर्थ प्रचलित पाये जाते हैं। पहला जिसमें इहि लोक, परलोक, त्रिलोक, इत्यादि का बोध होता है और दूसरा लोक का अर्थ होता है आम जनता या जन सामान्य। इसमें लोक का वही अर्थ है जो हिन्दी शब्द लोग का है। प्रथम अर्थ की साहित्य व अन्य समाजशास्त्रीय विधाओं में कोई प्रासंगिकता नहीं है। दूसरे अर्थ में वह अभिप्राय नहीं द्योतित होता जिस अभिप्राय के साथ लोक का साहित्य में प्रयोग होता है। साहित्य में प्रयुक्त लोक शब्द का अर्थ समझने हेतु लोक की प्राचीन एवं अत्याधुनिक अवधारणाओं का मूल्यांकन आवश्यक है। लोक की अवधारणा पूर्णतया भारतीय है यह संस्कृत के लोकृदर्शने’ धातु में धत्र’ प्रत्यय जोड देने से निष्पन्न होता है। इस धातु का व्याकरणिक अर्थ है देखना। इस प्रकार लोक का निष्पन्न अर्थ है देखने वाला अर्थात दर्शक समुदाय। यहाँ पर दर्शक शब्द से सिद्ध है कि लोक भोक्ता या कर्ता समुदाय नहीं है वह केवल देखता है, अनुकरण करता है। ऋग्वेद में लोक के लिये जन शब्द का उल्लेख मिलता है। जन शब्द से ही आधुनिक काल में जनता, जनमत, जनतन्त्र जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई है ऋग्वेद में ही शासक वर्ग के लिये राजन शब्द का प्रयोग है। ‘राजन’ और ‘जन’ दोनों भिन्न समुदाय हैं। ऋग्वेद में ‘जन’ और ‘राजन’ शब्द के भिन्न प्रयोग से द्योतित होता है कि लोक (जन) को शासक वर्ग से भिन्न माना गया है। ‘जन’ शब्द आधुनिक काल में भले ही ‘लोक’ से भिन्न अर्थ रखता हो पर भारतीय परम्परा में ‘जन’ और ‘लोक’ को हजारों साल तक एक ही समझा गया है। ऋग्वेद में ही पुरुष सूक्त में सूक्तकार ऋषि पुरुष की व्यापकता की चर्चा करते हुये श्रोत्रातधा लोकः अकल्पयन’ अर्थात् यह पार्थिव जीवों के अर्थ में ऐसा कहता है। इसी सूक्त में आगे पार्थिव और दिव्य का अंतर भी आया है जिसे अथर्वेद में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया गया है। यहाँ पार्थिव और दिव्य का विभाजन ध्यान देने योग्य है। दिव्य का अर्थ है दैवीय या आलौकिक अर्थात् जो लोक की तरह पार्थिव या जमीनी नहीं है यहाँ पार्थिव का अर्थ व सरोकार सामान्य या लोक जैसा ही है जो श्रेष्ठ या अलौकिक से भिन्न है। नाट्यशास्त्र के रचनाकार आचार्य भरत ने ‘लोक’ शब्द का बहुत ही सटीक प्रयोग किया है। नाटक की उपयोगिता का वर्णन करते हुये उन्होने लोकानुरंजितम्’ शब्द का उपयोग किया है। अर्थात् नाटक की रचना लोक के मनोरंजन के लिये है। वाल्मीकि ने रामायण में लोक और लोकोत्तर दोनों भेदों का उल्लेख किया है ‘लोक’ का रामायण में वहीं अर्थ है जो अथर्वेद में पार्थिव का है और लोकोत्तर उस जनसमूह को कहा गया है जो लोक से श्रेष्ठ है। सबसे स्पष्ट और प्रवृत्तिगत् भेद हमें महाभारत में प्राप्त होता है। महाभारत में लोकविधि, वेदविधि या लोककाव्य, वेदकाव्य जैसे विभेदों का उल्लेख है। यहाँ वेदविधि अभिजन वर्ग से सम्बन्धित है और लोकविधि का संबंध जनसामान्य से है। महाभारत में कहा गया है कि वेदाच्च वैदिकः शब्दः लोकाच्च लौकिकः’ लोकवेद और अभिजन या श्रेष्ठ का विभाजन महाभारत में भाषा के आधार पर किया गया है। इतिहास गवाह है कि जब भाषा व साहित्य में अभिजात्य वर्ग काबिज हो जाता है और नियमों, नीतियों की आरूढ़िता से आम जनमानस के लिये भाषा व साहित्य दुरूह हो जाता है तो लोक अभिजात्यवर्गीय भाषा एवं साहित्य के समांतर अपनी अलग भाषा व अलग साहित्य की उत्पत्ति करता है। वैदिक संस्कृत व साहित्य जब पाण्डित्यपूर्ण हो कर के अभिजात्य वर्ग तक सीमित हो गयी। तब लोक ने संस्कृत नामक भाषा को खोजा एवं अपने साहित्य का सृजन किया। उस समय के समस्त काव्यशास्त्री लोक और वेद के इस विभेद का उल्लेख करते हैं। इसलिए पाणिनि ने संस्कृत को लौकिक संस्कृत’ की संज्ञा दी है। यह संस्कृत जब उच्चवर्गीय कुलों में सीमित होकर रह गयी। तब लोक ने पालि, प्राकृत, अपभ्रंश की खोज की। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। भाषा एवं साहित्य का सृजन लोक और अभिजन के इसी द्वंद पर आधारित है। इस विभाजन से स्पष्ट है कि भारतीय परंपरा में लोक निष्क्रिय समुदाय नहीं है सक्रिय है। चेतन है। इस लोक में गरीब, मजदूर, छोटे किसान, निम्नवर्गीय शहरी शिक्षित, अशिक्षित, निम्न मध्यम वर्ग सभी सम्मलित हैं। हमारा सामाज वर्गों में विभाजित है। जिसमें अधिकांश जनता श्रम करने वाली है। समाज का एक अत्यल्प हिस्सा संपत्तिशाली है यह संपत्तिशाली वर्ग दूसरे के श्रम से लाभ अर्जित करता है। यही वर्ग उत्पादन के साधनों पर काबिज है यही सामाज के आचार-विचार, न्याय-कानून, सत्ता-स्वामित्व, लाभ-वितरण का नियन्त्रक है। वर्ग विभाजित सामाज में प्रभुत्वशाली वर्ग की ही विचारधारा प्रभावी होती है। इस प्रभुत्वशाली वर्ग को छोड़ कर अन्य समस्त समुदायों को लोक कहा जाता है। इस वर्ग में अधिकांश जनता श्रम करने वाली है व जीविकोपार्जन के लिये अन्य छोटे-छोटे साधनों के द्वारा कार्य करते हैं। यह जनता गाँव शहर दोनों में रहती है। गाँव का कृषि मजदूर व निम्नमध्यमवर्गीय किसान, सीमांत किसान, दलित व जंगलों में उन्मुक्त रूप से रहने वाले आदिवासी समूह भी लोक के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार लोक में वह समस्त जनता समाहित है जो अभिजन नहीं है, स्वामी नहीं है। भद्रलोक (अभिजन) के समानांतर लोक अपना साहित्य, अपनी मान्यता, अपने विचार, अपनी सृजनशीलता के साथ डट कर खड़ा रहता है। समस्त जनविद्रोह, पुनर्जागरण, नवजागरण व जनआंदोलन इसी लोक की कोख से उत्पन्न होते हैं। अतः लोक को अचेतन कहना और वर्गीय स्थिति से अलग देखना अनुचित है। यदि लोक वर्ग चेतस न होता तो साहित्य एवं इतिहास में जनआन्दोलन न होते और ना ही भाषाई संस्कृति की खोज होती। भाषा जड़वत होती, न भक्ति काल होता, न प्रगतिशील आन्दोलन होता और ना ही राष्ट्रीय आन्दोलन में लोक की क्रान्तिकारी भूमिका होती। कहने का आशय यह है कि लोक वर्गचेतस रहा है। यही वर्ग चेतना समय-समय पर विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से अभिव्यक्त होती रही है।


कुछ लोग लोक को अंग्रेजी शब्द ‘फोक’ का अनुवाद मानते हैं। उनका कहना है कि लोक की अवधारणा फोक से ली गयी है। एवं ‘फोक’ ही लोक का समुचित अर्थ देता है। ‘फोक’ और ‘लोक’ दोनों को एक समझना ही गलत इतिहास बोध है। ‘लोक’ शब्द ‘फोक’ से अधिक व्यापक एवं सर्वसमावेशी है। लोक मूल है। पूर्ववर्ती है और ‘फोक’ परवर्ती है। ‘लोक’ शब्द का जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है। उल्लेख भारतीय परंपरा में तब से है जब अंग्रेजी का अस्तित्व ही नहीं था। दूसरी बात ‘फोक’ का अर्थ है आदिम समाज के सदस्य या निरक्षर गंवार’ ग्रामीण है। ‘फोक’ में ग्राम पर अधिक जोर दिया जाता है यही कारण है कि फोकलोर’ का अर्थ ग्राम गीत से लिया जाता है जबकि ‘लोक’ में गाँव और शहर दोनों समाहित हैं। फोक में समाज की अचेतन, वर्गविहीन, द्वंदरहित अवस्था का ज्ञान होता है। जबकि लोक के साथ ऐसा नहीं है। लोक चेतन, वर्गचेतन, द्वंदयुक्त समाज का बोध देता है। तीसरी बात यह है कि लोक में निरक्षर व साक्षर, पढे-लिखे व्यक्ति समाहित हैं। जबकि ‘फोक’ में केवल निरक्षर ही आते हैं। चौथी बात लोक में ग्राम के साथ-साथ शहर का भी बोध होता है। जबकि ‘फोक’ में केवल गाँव का बोध होता है। इस प्रकार विद्यमान तमाम अंतरों के कारण ‘फोक’ को लोक नहीं कहा जा सकता ‘फोक’ अपने आप में अस्पष्ट अवधारणा है। अंग्रेजी शासन ने अपने औपनिवेशिक मंतव्यों की पूर्ति हेतु भारतीय साहित्य एवं संस्कृति को हमेशा कमतर ही आंका है अंग्रेजो ने भारतीय साहित्य को अवैज्ञानिक कहा है। वो हमेशा भारत को आदिम समूहो का देश मानते रहे व अपने वैज्ञानिक विश्लेषण में हिन्दुस्तानी साहित्य एवं जनता के बारे में ईर्ष्यापूर्ण विचारों का प्रतिपादन करते रहे। अतः यदि उन्होने ‘लोक’ का अनुवाद फोक किया है तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। इस अनुवाद के पीछे अंग्रेजो की उपनिवेशवादी मानसिकता ही है। नहीं तो ‘लोक’ का ‘फोक’ से कोई संबंध ही नहीं है। दोनों एक दूसरे के विपरित अवधारणाएँ है।

लोक की निजी संपत्ति केवल अपना श्रम होता है यदि संपत्ति का स्वामित्व होता भी है तो प्रभुत्वशाली वर्ग की तुलना में नगण्य होती है या वह संपत्ति इतनी कम होती है कि उसमें बगैर श्रम के कोई उत्पादन नहीं किया जा सकता। लोक श्रम प्रधान है। सर्वहारा कि अवधारणा भी इसी श्रम से जुडी है सर्वहारा लोक का वह हिस्सा है जो केवल श्रम से ही जीवन यापन करता है। श्रम द्वारा उत्पादित मूल्यों के आंशिक भुगतान द्वारा वह बसर करता है। सामान्यतया संपूर्ण लोक ही परिवर्तनधर्मी होता है लेकिन जब राजनैतिक परिवर्तन (क्रान्ति) की बात होती है तो यही सर्वहारा बुर्जुवा वर्ग के खिलाफ क्रान्ति का नेतृत्व करता है। जनक्रान्ति के समय संपूर्ण लोक सर्वहारा के पीछे खडा होता है। और सर्वहारा लोक के अग्रगामी दस्ते की तरह कार्य करता है। आज नवउदारवादी व्यवस्था के कारण लोक के स्वरूप में परिवर्तन आता जा रहा है। छोटे, निम्न, मध्यमवर्गीय एवं सीमांत किसान नवउदारवादी विश्व व्यवस्था में उलझ कर बड़ी तेजी के साथ भूमिहीन होते जा रहे हैं। लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं। अमीर गरीब के मध्य खाई बढती जा रही है। संपत्ति मुट्ठी भर लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गयी है। अतः नवउदारवादी व्यवस्था को देखते हुए यदि संपूर्ण लोक को सर्वहारा कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि आज सभी लोग श्रमिक हैं सभी सर्वहारा है। वर्तमान में संपूर्ण लोक सर्वहारा बन चुका है।

प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपनी सत्ता व व्यवस्था की सुरक्षा हेतु हमेशा ‘लोक’ को अपनी साजिशों का शिकार बनाया है। ‘लोक’ के क्रान्तिकारी पक्ष को प्रभुत्वशाली वर्ग ने दबाया है या नष्ट करने का प्रयास किया है। अतः उस साहित्य को व सांस्कृतिक उपादानों को प्रभुत्वशाली वर्ग ने ‘लोक’ से दूर रखा है जिससे क्रान्ति चेतना जागृत हो सकती है। प्रभुत्वशाली वर्ग ने ऐसे साहित्य को नष्ट कर अपने बुर्जुवा साहित्य, अश्लील एवं धार्मिक अन्धविश्वासपूर्ण साहित्य को लोक के नाम से प्रचारित किया। क्योंकि बुर्जुवा वर्ग समझता था कि खुद की सत्ता व शक्ति को तभी तक संरक्षित रखा जा सकता है जब तक लोक पौराणिक, धार्मिक, अन्धविश्वासपूर्ण, सामंतपोषी साहित्य में उलझा रहेगा व वैज्ञानिक क्रान्तिकारी साहित्य से दूर रहेगा। अतः लोक पर ये आरोप लगाना कि वो क्रान्तिचेतस नहीं था, लोक के प्रति जागरूक नहीं था, अनुचित है। क्योंकि लोक सामाजिक रूप से चेतन था और राजनैतिक रूप से सजग भी था। लोक साहित्य में लोक के प्रति जागरूकता पायी जाती है। इसमें राष्ट्र के प्रति संवेदना व वर्गीय पीडाओं का द्वंद भी झलकता है। ऐसी ही संवेदनाओं के कारण लोक में औपनिवेशिक शासन के प्रति जबरदस्त आक्रोश देखने को मिलता है। वर्गीय पीड़ाओं के अन्तर्गत बुन्देली लोक साहित्य में महाजनों की सूदखोरी, भूस्वामी द्वारा मजदूरी दबा जाना, उत्पीडन व अकाल के कारण देश छोड कर पलायन बखूबी दिखाया गया है। एवं राजस्थानी लोक साहित्य में देश के प्रति अपनी जमीन के प्रति एक उम्दा संवेदना देखने को मिलती है। लोक की समाज और परिवेश के प्रति सजगता देखने के लिये बुदेली एवं राजस्थानी साहित्य का अध्ययन किया जा सकता है। लोक अपनी जमीन से जुडा रहता है। वह खुद ही कटुताओं का भोक्ता होता है उसकी रचना कोरी कल्पना की रजत बालुका नहीं है। वास्तविकता के मजबूत धरातल पर है। औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों की उसे समझ है और क्रान्तिकारी आक्रोश भी है। 1857 से लेकर 1947 तक जितने भी किसान आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन, जन आन्दोलन हुए उन सब में लोक की यही राष्ट्रवादी चेतना काम करती रही। यदि लोक औपनिवेशिक शासन के शोषण तंत्र को न समझता होता तो क्या कोल विद्रोह, मुण्डा विद्रोह, नील आन्दोलन इत्यादि इतने व्यापक होते। इतिहास इन आन्दोलनो का गवाह है इस विषय में इतिहास के साथ-साथ वरिष्ठ लोकधर्मी कवि विजेन्द्र जी की कविता विरसा मुण्डा’ ही आदिवासियों में लोक चेतना समझने के लिये पर्याप्त है। ये सारे आन्दोलन भारतीय इतिहास में एक बडी उपस्थिति के साथ दर्ज हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान के तत्कालीन लोक गीतों और लोक साहित्य का अध्ययन किया जा सकता है जिसमें लोक की औपनिवेशिक शासन के प्रति समझ एवं राष्ट्रीय आन्दोलन में शहीदों के प्रति भावुकता दिखायी गयी है। देखें एक उदाहरण “देश के कारणवां केतने गइले जेल खनवां” ऐसे गीतों में अभिव्यक्त संवेदना अभिजन साहित्य नहीं दे सकता। यह वेदना केवल लोक ही दे सकता है जिसने आजादी की लडाई में अपने प्राणों की आहुति दी।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लोक ही आम जनता है जो गाँवों से ले कर शहर तक व्याप्त है। यही लोक आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक हमारी रचना धर्मिता का हेतु रहा है। लोक ही कविता का विषय है व लेखक का सरोकार है इसी लोक को विषय बना कर लिखा गया साहित्य लोकधर्मी साहित्य कहलाता है। लोक से इतर लिखा गया साहित्य सामंतवादी लोक विमुख एवं प्रतिक्रियावादी साहित्य ही हो सकता है क्योंकि लोक ही पक्षधरता है। लोक को अस्वीकार करने का आशय है पक्षधर न होना व प्रतिबद्ध न होना। 





सम्पर्क-

जिला सचिव,
जनवादी लेखक संघ (बांदा)

मोबाईल - 09838610776

(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना शनिवार 17 जनवरी 2015 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. 'लोक' धरती का जीव है ,मिट्टी से ,मौसम से,पारस्परिक सुख-दुख से जुड़ा हुआ , रुचियों में सहज ,खास तौर से माँजा-धोया नहीं, अपने स्वाभाविक परिवेश में बहुत सामान्य -विशिष्ट नहीं किसी तरह .कोई भी एक जन ,जैसे लोग साधारणतया होते हैं!

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  3. बहुत सुन्दर आलेख है और इसने मुझे निर्णय लेने में सहयोग किया है। लोक आम जनता है जो गाँवों से शहर तक है। यही आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक रचना धर्मिता का हेतु रहा है। लोक को अस्वीकार करने का आशय है आम लोगों का पक्षधर न होना , प्रतिबद्ध न होना। शत प्रतिशत सहमत हूं।

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  4. बेहद ख़ूबसूरत और यथार्थवादी लेख है। ’लोक’ की सटीक अवधारणा को प्रस्तुत करता हुआ। लोक और ’फ़ोक’ की समझ के अन्तर को साफ़-साफ़ बताता हुआ। हमारे युवा लेखकों और कवियों को यह लेख ज़रूर पढ़ना चाहिए। लेख में बस एक ही कमी है कि उसकी भाषा बड़ी दुरुह है। अगर भाषा थोड़ी अधिक सहज होती तो इसे पढ़ना आसान होता।

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