अमीर चन्द वैश्य





युवा कवि अशोक तिवारी के दो संकलन प्रकाशित हुए हैं। उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है' की समीक्षा पहली बार के  लिए लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने। आप सब के लिए प्रस्तुत है यह समीक्षा।


कलात्मक स्थापत्य की लोकधर्मी कविताएँ

समकालीन हिन्दी कविता के सामने एक प्रश्न उपस्थित रहता है कि वह राजसत्ता का समर्थन करे अथवा जनसत्ता का। यह प्रश्न अतीत में भी कवियों के समक्ष रहा था। भक्ति कवि तो लोकोन्मुखी रहते थे और पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार के अभिलाषी कवि राजाओं के दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे। तुलसी और केशव समकालीन थे। लेकिन तुलसी सम्राट अकबर के दरबार से दूर रहे, किन्तु केशवदास “ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत की सभा में रहते थे।"

इसी प्रकार कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि कुम्भन दास अकबरी दरबार से दूर रहे। “एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर उन्हें फतेहपुरी सीकरी जाना पड़ा, वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा। (इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ0 172) अपना खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा - “संतन को कहा सीकरी सों काम/आबत जात पनहियाँ टूटीं, बिसरि गयो हरि-नाम/जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भन दास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम। (वही, पृ0 179)

    लोकोन्मुखी काव्य-सर्जना के लिए कवि को स्वार्थ त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करना पड़ता है। लेकिन आजकल समकालीन कविता के संसार में ऐसे कवि विरल हैं। अधिकतर कवि पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के नख-दंत विहीन काव्य रच रहे हैं, जिससे सत्ता को भय नहीं महसूस होता है।

    प्रसंगवश आज के विख्यात और अग्रगण्य कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता ‘कुम्भनदास दास के प्रति‘ का अन्तिम अंश उल्लेखनीय है -

“जानता हूँ, समाधि से फूटकर
आता नहीं कोई उत्तर
फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूँ
यह कैसी अनबन है
कविता और सीकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गई
और दोनों में आज तक पटी नहीं।“ (शुक्रवार, वार्षिकी 2013, पृ0 158)

    बात सही है। लेकिन इस अंतिम अंश से यह व्यंग्यार्थ भी ध्वनित हो रहा है कि ‘कविता और सीकरी‘ अर्थात् राजसत्ता के केन्द्र से मधुर सम्बन्ध होने चाहिए। वास्तविकता यह है कि ऐसी कविता चिरंजीवी नहीं होती है। आजकल कबीर की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन बिहारी को प्रेम के पोखर का कवि समझा जा रहा है।

    पंत के तुलना में निराला को प्रेरणा-स्रोत समझा जाता है और अज्ञेय की तुलना में मुक्तिबोध को। ‘कविता के नए प्रतिमान‘ के आधार कवियों श्रीकांत वर्मा आदि से महत्तवपूर्ण कवि नागार्जुन-केदार बाबू-त्रिलोचन-शील-कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह-विजेन्द्र कुमार विकल आदि का काव्य समय सापेक्ष है। ये लोकधर्मी कवि नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत हैं। लेकिन हिन्दी आलोचना नई पीढ़ी के आलोचक लोकधर्मी कवियों की अनदेखी कर रहे हैं। ‘कृतिओर‘ के अंक 67 में विजेन्द्र ने अपने पूर्व कथन में, ‘हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर‘ लिखकर हिन्दी आलोचना के दायित्वहीनता की चर्चा प्रखर ढंग से की है। उन्होंने ‘वागर्थ‘ के अंक उनके 209, दिसम्बर 2012 में आयोजित परिचर्चा के भाग लेने वालों कवियों और आलोचक अजय तिवारी के कथनों का विश्लेषण करके उनकी वास्तविकता उजागर की है।

    ‘वागर्थ‘ का उपरोक्त अंक देखकर-पढ़कर ऐसा आभास होता है कि जिन कवियों के नाम मुख पृष्ठ पर अंकित हैं, उन्हीं ने सन् 80 के बाद की कविता-धारा को अग्रसर किया है। लेकिन कवि विजेन्द्र ने ऐसे अनेक कवियों के संकलनों का उल्लेख किया है, जो लोकधर्मी कविता का विकास कर रहे हैं। उनका प्रश्न है कि कि केरल के कवि अरविन्दाक्षन्, झारखंड के शम्भु बादल, दिल्ली के राम कुमार कृषक का मूल्यांकन क्यों नहीं किया। यही हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर है।

    विजेन्द्र ने अपने उपर्युक्त आलेख में कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण कवि अशोक तिवारी का उल्लेख करते हुए लिखा है - “अशोक ने एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में खासी सार्थक पहचान बनाई है। उनकी कविता में लोकधर्मी स्थानीयता का रंग हमें आकर्षित करता है। मूलतः ब्रज प्रदेश के होने की वजह से अशोक की कविता में ब्रज जनपद की बड़ी स्वस्थ् अनुगूँजें सुनाई पड़ती हैं।“ (कृतिओर, 67, पृ0 16)

    अशोक तिवारी दो संकलन प्रकाश में आये हैं
    इस आलेख में उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है‘  की समीक्षा प्रस्तुत है।‘सुनो अदीब‘ (2003) और मुमकिन है (2008)।

    मथुरा जिले के गाँव कराहरी में सन् 1963 में जनमे अशोक तिवारी के दो शौक हैं। नुक्कड़ नाटकों का मंचन एवं अभिनय और काव्य सर्जना। उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता में साम्प्रदायिकता विरोधी चेतना विषय पर शोध कार्य भी किया है।
    सन् 2009 में प्रकाशित उपर्युक्त संकलन की कविताएँ, नाटकीय एकालाप, सम्बोधन-उद्बोधन और सम्वादों से अन्वित हैं।

    आजकल हिन्दी कविता अधिकतर निश्छन्द है। उसने निराला का मुक्त छन्द नहीं अपनाया है। छन्द का आधार लय है लेकिन आजकल के अधिकतर कवियों ने लय की उपेक्षा कर दी है। उनका वाक्य-विन्यास गद्यात्मक है। अतः उसमें भावावेग का अभाव लक्षित होता है। आजकल के कवियों ने न तो मुक्तिबोध से लय का निर्वाह सीखा न ही नार्गाजुन-केदार और त्रिलोचन के लयात्मक मुक्त छंद का अभ्यास किया है।
    लेकिन अशोक तिवारी ऐसे कवि हैं, जो भावावेग से प्रेरित होकर कविता में ऐसे वाक्यों की रचना करते हैं, जो लयात्मक होते हैं। पाठक कविता पढ़ते समय भाषाई प्रवाह का अनुभव अनायास करने लगता है।

    संकलन की पहली कविता ‘गढ़ी‘ का प्रारम्भिक अंश पठनीय है-

“मेरे गाँव में एक गढ़ी है
सालों से वीरान है, जो पड़ी है
गढ़ी में एक पोखर है
पोखर में कीचड़ है
कीचड़ में मलवा है
मलवे में कूड़ा है
कूड़े में खिलौने हैं
खिलौने में आवाजें हैं
आवाजों में सिसकियाँ हैं
सिसकियों में तरंगें हैं
तरंगों में चुम्बक है
चुम्बक में खिचाव हैं।“ (पृ0 13)

    इस कविता का संदर्भ देश विभाजन की त्रासदी है, जो घातक साम्प्रदायिकता का दुष्परिणाम है।
    अशोक की जीवन-दृष्टि समाज और विश्व में विषमता देखती है। अतः वह अपने गाँव में, राजधानी दिल्ली में, वैश्विक परिदृश्य में, इतिहास की परिघटनाओं में वर्गीय विषमता की आलोचना करके शोषित और दलित जनों के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी उनका प्रगाढ़ अनुराग व्यक्त हुआ है।

    गिद्ध, लिली, एक और शम्बूक, सुनो भई मनु, भगत सिंह, हलफनामा, बुश नहीं होगा खुश, फर्क बाबू साहब, बाबू मोची, दूर देश की एक औरत, उजड़ा हुआ कैम्प, बंधन, नदी, नटी, माँ आ रही है, मिसरानी, अजन्मी वेटी, गाँव की एक औरत, रामजनी चाची, शीशम कविताएँ उपर्युक्त कथन का प्रमाण हैं।
    अशोक ने निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर‘ से प्रेरणा लेकर श्रमशीला नारी के अनेक चित्र अंकित किए हैं।   
    प्रायः देखा गया है कि सफाई कर्मचारियों से, जो मानव-मल ढोया करते हैं, लोग बचकर चलते हैं। लेकिन अशोक समाज का यह चलन भूलकर लिखते हैं -
“मेरे मन में
धुला है उसके खिलखिलाते चेहरे का उल्लास
उसकी बातों में
नहीं जानती
रामजनी खुद भी यह
विठाया है उसे
अपनी माँ की चारपाई पर
जाने कितनी बार मैंने
बसाया है कितनी बार उसे अपने मन में
तमाम प्रतिबंधों के बाबजूद।“ (पृ0 162)

    इस अनतिदीर्घ कविता में ‘रामजनी चाची‘ का चरित्र सामाजिक अन्तर्विरोधों के साथ रूपायित किया गया है। ‘चाची‘ सम्बोधन कवि की आत्मीयता का परिचायक है। वह अपने कर्म के प्रति निष्ठावान् है। बालकों से स्नेह करती हैं। गाँव के ऊँची जाति के लोग उसे कामुक दृष्टि से देखते हैं। छिपकर। एकान्त में। लेकिन सबके सामने उसे अपशब्द भी कहते हैं। देखिए उसकी ममता-

“खुरदरे हाथों से छूकर
दुलारती नन्हीं जान को
नेह की बारिश से नहलाती बच्चे को वो खूब
भूल जाती जाति का भेद/करती फिर खेद/“ और “डाँट-डपट जब पड़ती मास्टर की/भँगनिया कर होश/न हो मदहोश/कुलच्छन सब कुछ भूली।“ (पृ0168)

    अशोक कविता के अन्त में यह विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं कि ‘रामजनी के मन की आँच‘ अभी फैलेगी और मखमली शाखों को अपने आगोश में भर लेगी। यथास्थिति टूटेगी।
    समकालीन कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है चरित्र-सृष्टि। इस दिशा में विजेन्द्र ने महत्त्वपूर्ण कविताओं की रचना की है, जो जीवन के वास्तविक चरित्र का निरूपण करके सामाजिक अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति करते हैं।

    अशोक ने भी इस संकल्न की कई कविताओं विशेष पात्रों को उपस्थित करके मानवीय करूणा की अभिव्यक्ति की है। ‘रामजनी चाची‘ के अलावा मिसरानी, दूर देश की एक औरत, भगत सिंह, लिलि, आदि कविताएँ उल्लेखनीय हैं। ‘मिसरानी‘ में ऐसी कर्मठ महिला का चरित्र है, जो कवि के लिए भोजन पकाने का काम करती हैं। अकेली है और साहसी भी। ब्रज भाषा बोलती है। कवि उसके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित होता है कि वह सोचता है-
“बीस साल बाद आज
मुझे लगता है मिसरानी की सूरत
मेरी माँ की सूरत में गड्डमड्ड हो रही है
या कि मेरी माँ मिसरानी की तरह मेरे अन्दर हो गई है जज्ब़
जो रही मेरे साथ एक मिसरानी की तरह नहीं
एक दादी की तरह
नानी की तरह
मेरे साये की तरह मेरे दिल में।“ (पृ0 146)

    अपने चरित्र के प्रति कवि की भावात्मक प्रगाढ़ता उस के मानवीय व्यक्तित्व से साक्षात्कार करा रही है।
    ‘दूर देश की औरत‘ में व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, अपितु श्रमशील स्त्रियों का स्वभाव एक सामान्य स्त्री के माध्यम से वर्णित किया है। यह कविता पढ़कर ‘वह तोड़ती पत्थर‘ कविता अनायास याद आती है। इस कविता में श्रमिक नारी अनामिका है। अपने वर्ग का प्रतिनिधि चरित्र। अशोक ने इस कविता में श्रमिक नारी की क्रियाओं और ममता का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है-

“ये औरत जो ढोते हुए कहीं गारा
उठाते हुए कहीं कचरा
चिनते हुए ईंटें
लीपते आपका घर और आँगन
बाँधते हुए बन्दनवार
या बनाते हुए आपके लिए नया घर
खटती है सुबह देर से रात तक
पकड़ाकर बच्चों को खाली पड़ी पेप्सी या कोला की बोतले।“

    यह कैसी विसंगति है कि मेहनती व्यक्ति को भरा पूरा वेतन नहीं मिलता है। उसकी जीवन-गठरी अभावों से भरी रहती है। अकेली औरत अपने अधिकारों के लिए माँग भी नहीं कर पाती है। लेकिन

“पसीने के नमक का खारापन
देश-काल की सीमाएँ तोड़ता हुआ
होता है एक ही।“ (पृ0 76) 

और यह ‘खारापन‘ एक जुट हो जाए तो समाज बदल सकता है।

    शहीदे आजम भगत सिंह को कौन नहीं जानता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके क्रान्तिकारी विचारों में सामाजिक परिर्वन का अनुसंधान किया गया। लेकिन उनकी विचारधारा को किसी भी राजनैतिक दल ने आत्मसात नहीं किया। अशोक इस विसंगति को ठीक ढंग से समझ कर लिखते हैं -


 
“कैसा लगता तुम्हें
सुनते जब तुम अपने जन्मदिन
या शहादत के दिन
कुछ लोग गायत्री मंत्र का जाप“ करते हैं 
और “तुम्हारे विचारों को छिपाते हुए
तुम्हारी तस्वीर को“ सदा आगे करते रहते हैं।

कुछ लोग तो भगत सिंह को पगड़ी पहनाने का भी हठ करते हैं, जब कि उन्होंने अपने देश के लिए सिख होकर भी केश कटवा दिए थे। उन्होंने स्वयं को नास्तिक घोषित किया था। यदि आज भगत सिंह होते तो क्या करते। अशोक ठीक लिखते हैं -

“अपनी मौत के इतने साल बाद
साम्राज्यवादी पैतरों पर
तुम क्या सोचते भगत सिंह......... 
और कैसे निबटते संसद के माननीय सदस्यों से
जो देखते हैं राष्ट्रहित
राष्ट्र को बेचने में
आज होते अगर तुम भगत सिंह
तो क्या सोचते फेंकने की एक और अचूक बम
संसद की बेइज्जती और अवमानना पर।“ (पृ0 39)

    इस प्रकार अशोक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रेरक पृष्ठ पढ़कर वर्तमान की राजनैतिक दुरवस्था पर आक्रोश व्यक्त करते हैं। मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।

    ‘हलफनामा‘ कविता का सन्दर्भ भी भारतीय स्वाधीनता-संग्राम है। जलियाँवाला बाग का नरसंहार। इस कविता में रतनदेवी नामिका महिला आक्रोशपूर्ण एवं करूण शैली में नरसंहार का स्मरण करते हुए अपने पति छज्जू भगत की अकाल मृत्यु पर विलाप करती हुई कहती है -
“और मैं दे सकती हूँ हलफनामा भर
हुजूर
की मारा गया मेरा पति जलियाँवाला बाग में
परेशान और बहुत सी जानों के साथ।“ (पृ0 45)

    इस अनतिदीर्घ कविता में उपर्युक्त नरसंहार को प्रत्यक्ष कर दिया है। आज की लोक तांत्रिक व्यवस्था में भी नरसंहारों की कमी नहीं हुई है। आए दिन गोलियाँ चलती हैं। निर्दोष और निरपराध मारे जाते हैं। लेकिन जनता प्रतिरोध भी करती है।
    अशोक ने एक स्त्री की ओर से हलफनामे का वर्णन करके यह व्यंजित किया है कि आजकल स्त्रियाँ भी जागरूक हो गयी हैं। वे अन्याय, अनाचार तथा नरसंहार का प्रखर विरोध करती हैं। यह कविता भी मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को अग्रसर करती है।

    अशोक समाज में जहाँ भी अन्याय और दुराचार देखते हैं उसका रचनात्मक विरोध निद्र्वन्द्व भाव से करते हैं। ‘अजन्मी बेटी‘, ‘लड़की‘, ‘लिली‘ ऐसी ही कविताएँ हैं। तीनों में नारी के प्रति संवेदना व्यक्त हुई है। ‘अजन्मी बेटी‘ का वक्तव्य मर्मस्पर्शी है। प्रायः देखा गया है कि लोभ के वशीभूत होकर बेटी को गर्भ में ही मार डालते हैं। ऐसी बेटी की ओर से कवि कहता है -

 “मौत पर उत्सव मनाए जाने की परम्परा
कौन से मानवीय पक्ष करती है खड़े
यह सवाल मैं पूछूँगी तुमसे बार-बार
क्योंकि मेरे साथ जो हो चुका बुरा
उससे और बुरा क्या होगा“(पृ0 159)


    भारतीय समाज की इस ज्वलंत समस्या पर रचित यह कविता पाठक के मानस में करूणा के साथ सात्विक क्रोध की लहरें आन्दोलित करती है।

    ‘लड़की‘ शीर्षक कविता में सामंती मूल्यों का तिरस्कार किया गया है। समस्या यह है कि लड़की सामंती मूल्यों से इतनी आक्रान्त है कि वह भी पहले-पहल लड़के की ही आकांक्षा करती है। परिणाम यह होगा कि “ठगी जाएगी लड़की ही हर बार।“ (पृ0 154)

    ‘लिली‘ कविता का सन्र्दभ जर्मन कंसंट्रेशन कैंप में रहने वाली एक यहूदी औरत है। यह मझोली कविता
^My Wounded Heart^ पुस्तक पर आधृत है। इस रचना में लिली नामक यहूदी औरत अपने बच्चों को सम्बोधित करके अपनी दारूण व्यथा-कथा का वर्णन करती है। दुनिया नस्ल-भेद एक भीषण त्रासद समस्या है। इससे विश्व शान्ति को खतरा बना रहता है। लिली जर्मन से शादी करती है। लेकिन वह विश्वासघात करके रीटा से बँध जाता है और जर्मनी के प्रति अपनी वफादारी भी व्यक्त करता है। और लाचार ‘लिली‘ अपने बच्चों से कहती है -

“तुम्हारी लिए एक पूरा पिता तो
मैं नहीं दे पाई मेरे बच्चों
पूरी माँ भी नहीं
काश कर पाती मैं ऐसा
मुझे अफसोस है।“ (पृ0 26)

    वर्तमान समाज में ऐसी लिलियों की कमी नहीं है, जो परित्यक्ता का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं। ‘लिली‘ कविता पढ़कर पाठक के मन में हिटलर जैसे लोगों के प्रति तीव्र घृणा भाव उत्पन्न होने लगता है।

    अशोक अपनी वर्गीय दृष्टि से श्रमजन्य सौन्दर्य का प्रशंसा मुक्त कण्ठ से करते हैं। ‘गाँव की एक औरत‘ में ऐसे ही सौन्दर्य का निरूपण किया गया है। क्योंकि

“उसके हाथ
बला के खूबसूरत हैं
जो गेहूँ की बालियों में से
मकई के भुट्टों में से
चावल के धानों में से
निकालना जानतें हैं अच्छी तरह।“ (पृ0 155) 

कवि ऐसे सौन्दर्य पर स्वयं को न्यौछावर करने की बात कहता है।

    इस संकलन में ‘मास्टर जी‘ शीर्षक ऐसी कविता है, जो अशिक्षित बालिका की ओर से संबोधित है। अपने “भाई की पीठ पर“ मास्टर जी के डंडों के निशान देखकर वह न पढ़ने का संकल्प कर लेती है। कवि इस क्रूरता का प्रतिरोध करते हुए कहता है -

“जाने अनजाने आप की क्रूर छवि
लिपट जाएगी।“ 

और 

“जाहिलपन की उपमा
मेरे चारों ओर मास्टर जी
और रह जाउँगी मैं वहीं
जो मैं नहीं चाहती थी रहना।“ (पृ0 161)

    ऐसे क्रूर मास्टरों की आजकल कमी नहीं है। न मालूम कितने बालक और बालिकाएँ दोनों इस क्रूरता के शिकार होते हैं।

    पूँजीवादी व्यवस्था में मानव-श्रम का दोहन खूब किया जाता है। उसने यही दुराचरण प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी किया है। प्राकृतिक संपदा का दोहन और जिन्दा पेड़ों की कटाई से विनाश को निमन्त्रण दिया है। अशोक इस हकीकत से परिचित हैं। ‘शीशम‘ शीर्षक कविता में कवि ने पेड़ के प्रति आत्मीय अनुराग व्यक्त करके उसकी कटाई पर हार्दिक शोक व्यक्त किया है और जिन्दा शीशम से प्रेरणा लेकर वह संकल्प करता है -

“तुम्हारे न रहने के बावजूद मेरे मन का शीशम
हरहराता आज भी
फूटती हैं उसमें नई-नई कोपलें
बार-बार
तुम्हारे शक्त अख्तियार करने के लिए
फलने-फूलने के लिए
खड़ा रहता था जो लाख आंधियों में
निर्भीक और सीना ताने।“ (पृ0 174)

    यह है रूपान्तरण। कवि के व्यक्तित्व का, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निर्भीकता से खड़े होने का संकल्प करता है। प्रसंगवश, ‘कैफ‘ भोपाली का शेर अनायास याद आ रहा है-

    गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो,
    आँधियों! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।।


लोकधर्मी कवि तितली के समान गुल से लिपटकर अपनी रक्षा करता है और सामाजिक आँधियों के सामने घुटने नहीं टेकता है। अशोक का कवि व्यक्तित्व ऐसा ही है, जो व्यवस्था के अत्याचार और साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध निर्भीक भाव से करता है।
    राम-कथा के आख्यान ‘शंबूक वध‘ में कवि ने धर्म-ग्रन्थों के कथनों का प्रखर विरोध किया है-

“जानता ये राम भी है
और मानता है कि
धर्मग्रन्थों में जीना
मवेशियों की दुनिया मे रहना है
कोंसों दूर है जो
असल जिन्दगी के सफों से।“ (पृ0 31)

    यहाँ अशोक ‘कागद लेखी‘ न देखकर ‘आँखिन देखी‘ पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
    सुनो मनु भाई में प्राचीन वर्ण-व्यवस्था की आलोचना की गयी है। ‘भाईचारे‘ और ‘मानवता‘ को तरजीह देने की बात कही गयी है। दलित कहता है-

“और करना चाहता हूँ मुकाबला
तुमसे और तुम्हारी सोच से
हर कीमत पर मनु भाई।“ (पृ0 35)

    सम्प्रति वास्तविकता तो यह है कि वर्ण व्यवस्था तो खंडित हो चुकी है, लेकिन जाति व्यवस्था राजनीति के कारण फल-फूल रही है। वर्गीय चेतना जातियों का खण्डन कर सकती है।

    ‘बुश नहीं होगा खुश‘ में व्यंग्यात्मक शैली में अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रबल विरोध किया गया है। आजकल भारत दो भागों में बँट गया है। एक है विपन्नों और निरीहों का हिन्दुस्तान, जो बहुसंख्यक है, दूसरा है इंडिया, जो अमरीकी रंग में रंगा हुआ है। यह ‘इंडिया‘ अल्पसंख्यक है। कवि अशोक ने अमरीकी साम्राज्यवाद की असलियत बताते हुए ठीक लिखा है-  

“स्वागत करो
कालीन विछाओ
आरती गाओ
‘अतिथि देवो भव‘ दोहराओ
क्योंकि
अमरीका भारत आ रहा है।“
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हमारी समृद्धि में चार-चाँद लगाएगा
जनता को लूटने के नए-नए तरीके बताएगा।
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गगग कच्चा माल उठाएगा
बाजार में फिर लाएगा
मूँह मांगा पैसा पाएगा
दलाली तो खाएगा ही खाएगा
भारत को
अमरीका बनाने के सपने दिखाएगा
नहीं होगा जब तक ऐसा
बुश नहीं होगा खुश।“ (पृ0 51)

    अब यह वास्तविकता उजारगर हो गयी है। भारत की अर्थव्यवस्था पर अमरीका प्रभुत्व है। इसका प्रतिरोध समाजवादी व्यवस्था के द्वारा किया जा सकता है। और इस का व्यवस्था का निर्माण श्रमशील वर्ग अर्थात् किसान एवं मजदूर ही कर सकते हैं। अशोक को तीसरी दुनिया के देशों-क्यूबा, बेनेजुएला, चिली और बोलीविया के जुझारू सपनों के प्रति और मेहनतकश आदमी के हाथों के निशानों के प्रति पूरी आस्था है।

    अशोक शोषित और शोषक का फकऱ् अच्छी तरह मालूम है और मानवीय श्रम पर पूरा भरोसा। तभी तो वह कहते हैं - 

“फकऱ् सिर्फ इतना है
उन्हें गुमान है कि
चल रही है दुनिया उन्हीं के कन्धों पर
और चलती रहेगी हमेशा-हमेशा
ऐसे ही
हमारे लिए मगर मेहनत ही है
सब अधिकारों की निर्वाहक
और भरोसा है अपने मजदूर हाथों का
जो दर्ज होते हैं
और होते रहेगें
दुनिया के हर काम मजबूती के साथ।“ (पृ0 61)

    यह है विकल्प जो श्रम के प्रति आस्था जगाता है। सभ्यता का सम्पूर्ण चमत्कार मानवीय हाथों के कौशल का परिणाम है।

    हिन्दी संसार में कुछ आलोचक ऐसे हैं, जो लोक को अनपढ़ जनों एवं ग्रामों तक सीमित मानते हैं। उनके लिए लोक, लोक गीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक कथा, लोक कला तक सीमित है। उनके लिए लोक मनोरंजक है। वे उसके संघर्षधर्मी रूप को भूल जाते हैं। सन् सत्तावन की क्रान्ति में साधारण जनों ने ही तो सक्रिय भाग लिया था। लोक का अर्थ जन भी होता है, जो गाँव से नगर तथा नगर से महानगर तक परिव्याप्त है। अभिनव गुप्त के अनुसार ‘लोक‘ नाम है जनपदवासी जन का। जन के पद जहाँ-जहाँ जाते हैं, वह जनपद ही तो है। चाहे नगर हो या महानगर।

    दिल्ली जैसे महानगर में ऐसे असंख्य श्रमशील लोग मेहनत से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। झुग्गी-झोपडि़यों में रहकर। प्रभुलोक यह झोपडि़याँ बदरंग मालूम होती है। वह अपने स्वार्थ के लिए उजाड़ देते हैं। ‘संवेदनशील‘ कवि अशोक ने ऐसी त्रासद घटना को कविता में रचा है। ‘उजड़ा हुआ कैम्प‘ में वह आक्रोशपूर्ण शैली में कहते हैं-

“उजाड़ दी गयी/शहर के अन्दर
यमुना किनारे की
मामूली लोगों की बस्ती
कर दिया गया घर से वेघर
लाखों सिसकती साँसों को
फेंक दिया गया शहर से बाहर
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धरती नहीं हिली
भूकम्प नहीं आया
उजड़ गई यह बस्ती फिर भी
हजारों लाखों और बस्तियों की तरह
गगग उजड़े हुए अपने घरों को देख रही हैं
मामूली लोगों की बस्ती में रहने वाली चिडि़याँ
बैठी हुई हैं तो बिजली के तारों पर
सिहर जाते हैं
ठंड से उनके पंख
व्याकुल हैं भूख से उनकी आँखें
रोके नहीं रूकती हैं
मन की हिलोंरे
कुचल गई घोंसलों के साथ।“ (पृ0 80)

    इस कविता में कवि वर्णन क्षमता और पर्यवेक्षण अनेक आकर्षक बिम्बों की सृष्टि कर रहे हैं। कवि की वर्गीय दृष्टि सत्य का उद्घाटन करते हुए देखती है- 

“अनगिनत पेड़ों की जवानियों को
कुचल ही दिया
व्यवस्था के बुलडोजरों ने
पनपने से पहले
मेहनतकश संस्कृति की एक नदी थी
बहती थी जो यमुना के किनारे-किनारे
खत्म कर दी गई।“ (पृ0 81)

    सम्पूर्ण कविता में ऐसा आवेग है, जो पाठक के मानस में शोक की लहरें आन्दोलित करता है।
    अशोक ने अपनी संवेदनशील जीवन-दृष्टि से फर्क, बाबू साहब, बाबू मोची, गोनड़ बाबा, बंधन, नदी और अचानक, आखिरी शब्द, भूकंप, भूकंप में मारी गई औरत, नटी आदि कविताओं की प्रभावपूर्ण रचना की है।
    ‘नटी‘ शीर्षक कविता में ऐसी क्रियाशील नटी वर्णन किया गया है, जो अपनी जीविका कमाने के लिए ढोलक की ताल पर करतब दिखाती है। लेकिन वह अपना काम नहीं छोड़ती है। परीक्षाओं से गुजरने पर भी।
कवि कहता है-

“देखो,
उसने फिर से ढोलक की तान पर
कर दिया है शुरू थिरकना
जुटने लगे हैं लोग
करने लगी है पैदा रोमांच एक बार फिर से।“ (पृ0 139)

यहाँ यह ध्यातव्य है कि कितने कवि ऐसे हैं, जो ऐसे सक्रिय उत्साही पात्रों को अपनी कविता के केन्द्र में उपस्थापित करते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि अशोक ने ऐसे पात्रों को आत्मीयता से रूपायित किया है।
    ‘नन्हें हाथों में रोशनी‘ ने एक ऐसी निरीह बालक का चरित्र है, जो बरात में ट्यूब लाइट का बोझ उठाता हे। कविता पढ़ते हुए उस बालक के प्रति हार्दिक सहानुभूति जगने लगती है।

कवि की सजग दृष्टि ऐसे स्कूल मास्टरों के आचरण पर टिकती है, जो अज्ञानवश छात्रों का भविष्य बिगाड़ देते हैैैं। उनका कटु व्यवहार होनहार छात्रों को जीवन की सही पटरी से उतार देता है। ‘अंधा कुआँ: एक अहसास‘ ऐसी ही कविता है, जिसमें ‘नीरज वल्द धीरज‘ की व्यथा-कथा वर्णित की गई है। उसे भगोड़ों का सरगना घोषित कर दिया जाता है। और ‘ब्लैकलिस्ट‘ भी। सम्पूर्ण कविता में नीरज का आत्मालाप है। वह अपने आत्मालाप से आजकल की शिक्षा के अनेक दोष उजागर करता है। रेहड़ी लगाने वाला नीरज अन्त में कहता है -

“मैं नहीं चाहता मास्टर जी
कोई और नीरज
अपनी छोटी सी किसी भूल की
इतनी बड़ी सजा पाए
कि लौटना ही मुमकिन न हो
रोशनी की दुनिया में दोबारा।“ (पृ0 130)

    हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्कूली शिक्षा की दयनीय दुरवस्था है। अध्यापक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते ही नहीं हैं। बाल मनोविज्ञान अनभिज्ञ मास्टरजी बालकों को डरा-धमकाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। परिणाम सामने है। बालक स्कूल ही नहीं जाते हैं। क्या ऐसी शिक्षा से देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। गरीब बालकों के लिए अच्छी शिक्षा तो ‘आकाश कुसुम‘ है।

    यदि धूमिल ने ‘मोचीराम‘ कविता लिखी थी तो अशोक ने ‘बाबू मोची‘ की रचना सम्बोधनात्मक शैली में की है। इस कविता में कवि ने वर्णित किया है कि जमीन से जुड़े बाबू मोची का ठिया हथिया कर उसे विस्थापित कर दिया जाता है। कवि अपनी संवेदनशीलता से मोची के श्रम की प्रशंसा करके उससे कुछ सीखने का संकल्प करता है-

“तुम्हारा मोचीपन बहुत याद आता है आज बाबू
इसलिए मुझे बताओ कि तुम कहाँ हो
पा सकूँ स्पर्श ताकि तुम्हारे कर्मठ हाथों का
और समाज को गोंठने का मोचीपन
भर सकूँ अपने अन्दर
किस हद तक।“(पृ0 69)

समाज के कर्मठ श्रमिक वर्ग से अपना आत्मीय सम्बन्ध अशोक उसी प्रकार जोड़ते है, जिस प्रकार मुक्तिबोध। मुक्तिबोध का कथन है कि सारी दुनिया साफ करने के मेहतर चाहिए। वह अपनी कविता में मेहतर भाव को व्यक्त भी करते हैं। और अशोक समाज की विकृतियों को ठीक करने के लिए ‘मोचीपन‘ अपनाने का संकल्प है। यह है कवि के व्यक्तित्व का रूपांतरण। श्रमिक वर्ग से एकात्मता, लोकधर्मी कवि ऐसा कर सकता है।
‘बाबू साहब‘ कविता में वर्गीय दृष्टि से सम्पन्न और विपन्न वर्गों के प्रतिनिधि पात्रों का द्वन्द्वात्मक वर्णन किया गया है। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है।

“फर्क सिर्फ इतना था कि
आप की आस्तीन नोटों से भरी थी
और मैं सर से पाँव तक कर्ज में।“(पृ0 64)

लेकिन परिस्थिति बदलती है। सम्पन्न व्यक्ति की दुकान एम0सी0डी0 द्वारा सील कर दी जाती है। अब विपन्न सोचता है कि

“मेरे उजड़ने का अब तो
हुआ होगा आपको कुछ अहसास और मलाल ।“(पृ0 65)

अशोक तिवारी की कविताओं का प्रमुख प्रयोजन ‘शिवेतरक्षतये‘ है। अर्थात समाज में जो अमंगलकारी परिस्थितियाँ और क्रूर व्यवस्थाएँ हैं उनके विनाश के लिए कवि काव्य सर्जना करे।
अशोक कट्टर साम्प्रदायिकता को देश की प्रगति में सर्वाधिक बाधक मानते हैं। आतंकवाद को भी। ‘गिद्ध‘ शीर्षक कविता में कट्टर हिन्दुत्व, मुस्लिम कठमुल्लापन की प्रखर आलोचना करते हैं।

“ बहादुरी के सारे किस्से
सुना-सुना कर पैदा कर रहा है
गिद्ध अपना गिद्धीय पौरूष
और बना रहा है फिज़ाओं में बहने वाली हवा को
जहरीली और दमघोंटू
उस के पंखों की फड़फड़ाहट
निरीह के घरों से उजड़ जाने के भय को
आँखों में बसा रही है।“(पृ0 16)

    इस कविता में ‘गिद्ध‘ की प्रतीक व्यंजना स्वतः स्पष्ट है। कवि को यह आशंका भी परेशान करती है कि इस भयंकर और भक्षक गिद्ध के विषाणु हमारे ही खून में बिलबिला रहे हैं।

    भीषण और त्रासद साम्प्रदायिकता से जनमें भारत के विभाजन का दर्द भी अशोक शिद्दत से महसूस करते हैं। इस दृष्टि से गढ़ी और सरहद कविताएँ उल्लेखनीय हैं। विभाजन की त्रासद स्मृति में मन्टो की कहानी कौंध जाती है-

“मंटो का टोबा टेक सिंह
इकसठ साल बाद भी पड़ा है
वहीं का वहीं
सरहद के दोनों ओर टाँग फैलाए
सरहदों के मिटने के इंतजार में।“(पृ0 20)

लेकिन चतुर सियासत का ऐसा खेला है कि सरहद को मिटाने की बात सोचना ही नहीं है। राजनेताओं की महत्वाकांक्षा कुण्डली मारे नाग के समान फुँकारती रहती है। आग उगलती रहती है। यह सुनिश्चित है कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का इतिहास एक है। दोनो की मैत्री भारतीय उपमहाद्वीप में शान्ति का परिवेश निर्मित कर सकती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक कट्टरपन त्यागना होगा। साम्राज्यवाद का विरोध करना होगा।

बेहतर समाज का स्थापना के लिए अशोक चीटियों के क्रिया कलाप अवधानपूर्वक देखते हैं -

“मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगंध
सूँघती हैं चीटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समाज में भी
उखड़ती नहीं है उन की साँस
गगग जानती है वो आज़माना
मुट्ठियों की ताकत को एक साथ ।“ (पृ0 47)

शोषक व्यवस्था को उखाड़ने के लिए यह विकल्प अनिवार्य है। ऐसे भीषण शोषक समाज और पूँजी की क्रूरता, भ्रष्टाचार, बलात्कार, दिन-दहाड़े हत्याएँ, अज्ञान, अंधविश्वास आदि को देखकर भी अशोक भविष्य के प्रति एवं मंगलमय समाज की रचना के आशावान् हैं। ‘मुमकिन है‘ शीर्षक कविता इस विश्वास का प्रमाण प्रस्तुत करती है। एक अंश देखिए - 

“मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ नहीं समझता हो कोई दूसरों को दूसरा
मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ भूख न देती हो दस्तक
हर तीसरे दरवाजे पर
सिर ढकने की नहीं हो फिक्र
काम करते हाथों को
चिन्ता न सताती हो
खुद को बनाए रखने की
ऊँच-नीच जैसे विशेषणों का
जहाँ नहीं हो कोई महत्त्व।“(पृ0 70)

स्वस्थ-सुन्दर एवं समतामूलक समाज का सपना देखना प्रत्येक लोकधर्मी कवि का अनिवार्य कर्तव्य है।
विनोद कुमार शुक्ल और अशोक दोनों ने ‘शायद‘ शीर्षक कविता रची है। शुक्ल जी की कविता आकार में छोटी है। सन्दर्भ है दंगा। कविता में कुछ सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। लेकिन अशोक की कविता कुछ लम्बी है, जो हताशा के मनोदशा प्रेरक आशा की अभिव्यक्ति करती है। ऐसी आशा निराश व्यक्ति को जिजिविषा से भर देती है। एक अंश ध्यातव्य है - 

“मरी नहीं हो आशा की कोई किरण
कि नज़र आए
चाकू और त्रिशूलों से अलग
कातिल की आँखों में हरियाली का एक सपना शायद।
     #     #     #     #     #     
बची हो जैसे
राख के भीतर
अभी भी एक चिनगारी
चिनगारी बची हो
थोड़ी हरारत
पिघल सके जिसकी गर्मी से शायद
मन के अन्दर जमा बर्फ का पहाड़।“(पृ0 176, 177)

    शुक्ल जी की ‘शायद‘ से अशोक की ‘शायद‘ अधिक प्रभावपूर्ण है। मन की अनेक दशाओं के निरूपण के कारण।

    पिछले दिनों मैंने वरिष्ठ कवि का संकलन ‘हाशिए का गवाह‘ की कविताएँ पढ़ी थीं। पूरे संकलन में मात्र एक कविता ‘नट‘ हाशिए का व्यक्ति है, जब कि अशोक के ‘मुमकिन है‘ में लगभग सभी कविताएँ हाशिए के साधारण जनों को केन्द्र में उपस्थापन का प्रयास करती हैं।

    संकलन की कविताओं में भाषाई खिलवाड़ है। विनोद कुमार शुक्ल के शाब्दिक चमत्कार के समान और न अमूर्तन है कुँवर नारायण के समान।

    ‘बाजारू दोस्त‘ कविता में कवि ने वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की प्रखर भत्र्सना की है। क्योंकि गगनचुम्बी इमारतों ने लाखों जानदार पेड़ उजाड़ दिए हैं। विराट् रूपवाले मालों ने झर बेरियाँ नष्ट कर दी हैं। वह जमीन हथिया ली है, जिस पर कवि की आँखें ‘एक पूरी मेहनतकश संस्कृति देखती हैं।

    लेकिन आशावादी है। वह कहता है कि

“कोई तो है
जो अपने वक्त में रहते हुए
आने वाले कल की बात करता है
जिन्दगी के खूबसूरत तरानों को
गुनगुनाने की बात करता है।“ 

और

“पहाड़ों को लाँघकर
संजीवनी लाने की बात करता है। 
आदमीयत के लिए।“(पृ0 84, 82)

    अशोक का सहृदय कवि-मन अपने घर-परिवार, परिजनों, मित्रों और अपने गाँव के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील है। इस दृष्टि से ‘माँ आ रही है‘ कविता पठनीय है। कवि ट्रेन का इंतजार कर रहा है। वह लेट हो रही है, क्योकि उस में बैठी माँ के साथ अपने जन्म-स्थान के वासियों के अच्छे-बुरे हाल-चाल भी रहे हैं। यथा -

“कैसे मर गया कमला हलवाई
चम-चम की चासनी में कड़छुल चलाते-चलाते।“(पृ0 141)

    अशोक की कवि-दृष्टि समाज में नारी के बन्धन को देखकर आक्रोशपूर्ण खेद व्यक्त करता है - 

“दोयम दर्जे के साथ वह खुश है
कर रही है वह पुष्ट
मर्दों की पुरातन साजिश को
हँस-हँस कर।“(पृ0 95)

    यह कविता पढ़ते हुए ‘द सेकेण्ड सेक्स‘ पुस्तक की याद आने लगती है। प्रभा खेतान कृत अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता‘ भी। नर-नारी अथवा स्त्री-पुरूष की समानता का आदर्श समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।

    अशोक बहुपठित संवेदनशील कवि हैं। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका श्रीमती नासिरा शर्मा की साहित्य साधना को प्रवहमान नदी की संज्ञा प्रदान की है। मधुरेश के अनुसार “नासिरा शर्मा स्त्री की नियति को एक व्यापक फलक पर परिभाषित करती है।“ अशोक ने उनकी औपनयासिक दृष्टि रखते हुए बिम्बात्मक शैली में लिखा है-

“समय की छाती में घोपने वाले
तेज हथियार का
अपनी मुट्ठी में थाम लेने की हसरत लिए
वो औरत
बह रही है एक नदी की तरह
सरहदों के आर-पार
     #     #     #     #     #
जूझती हुई शाल्मली की तरह
जो कभी अपने घर और
कभी घर से बाहर के बीच
तलाशती है अक्षयवट मानवता का।“(पृ0 96)

उल्लेखनीय है कि ‘शाल्मली‘ (1993) और ‘अक्षयवट‘ नासिरा शर्मा के उपन्यास हैं। ‘सात नदियाँ: एक समुंदर‘ (1985) उनका पहला उपन्यास है जो ‘ईरान के आधुनिक इतिहास सबसे तल्ख और खूनी दौर की पृष्ठभूमि में स्त्री के उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का आंकलन प्रस्तुत करता है।“(मधुरेश)

    गोनड़ बाबा और चाँद तुम सच-सच बतलाना अशोक को उपन्यासकार और कवि नागार्जुन से जोड़ते हैं। यदि पहली कविता वरूण के बेटे से जोड़ती है तो दूसरी कविता कालिदास सच-सच बतलाना रचना से। इस प्रकार अशोक जन प्रतिबद्ध लेखक बाबा नागार्जुन से रागात्मक संबंध जोड़ते हैं।

    और अपने गाँव के प्राकृतिक परिवेश के प्रति सघन रागात्मकता चैखट पर कविता में व्यक्त हुई है -

“गाँव की चौखट ने
आवाज दी मुझे
बनी थी जो उस शीशम की
जिसकी छाँव तले
सँवारे थे मैंने
बचपन के अपने दिन।“ 

और

“दौड़ कर नंगे पाँव पहुँचा में गाँव की सरहदों में
बबूल ने समेट लिए
रास्ते में पड़े अपने काँटे
झाड़ने लगा नीम
अपनी सारी की सारी
कसैली-मीठी निबौरियाँ
थम गया कौवों का शोर
फूलों की ताजगी
भरने लगी नया दम
देखने लगी खेत मी मेढ़ें
उचक-उचक कर
बहने लगी हवा झूम-झूम कर।“(पृ0 179)

    अपने गाँव की धरती का कोमल स्पर्श नंगे पाँवों से महसूस किया जा सकता है। कवि की वर्णन शैली में मानवीकरण का क्रियात्मक समावेश स्वतः हो गया है।

अशोक की कविताओं का मूल भाव मानवीय करूणा है। उसी से सात्विक क्रोध, आक्रोश, अमर्ष, व्यंग्य का समावेश हुआ है। वाक्य-रचना में क्रिया पद प्रारम्भ में प्रयुक्त करके काव्य-भाषा में भावावेग का समावेश अनायास किया गया है। अशोक की काव्य-भाषा में समकालीन कवियों-कुमार, अम्बुज, बद्रीनारायण आदि की ठंठी गद्यात्मकता नहीं है। लयात्मकता उसका अनिवार्य वैशिष्ट्य है। अशोक ने तुकान्तों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। धूमिल के समान चैकाने वाले तुकान्तों का अभाव है। क्रियापदों से सार्थक और गतिशील बिम्बों की सृष्टि की गई है। काव्य-भाष में कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए मानवीकरण उपमा, रूपक  स्वतः आये हैं। अधिकतर कविताएँ नाटकीय शैली से युक्त हैं। इससे कविताएँ अनायास सम्पेषणीय होती हैं।

    ‘मुमकिन है‘ काव्य‘-संकलन का महत्त्व लोकधर्मी कवि विजेन्द्र ने स्वीकार किया है। ज्ञात नहीं कि किस आलोचक ने इस संकलन की वस्तुनिष्ठ समीक्षा लिखी है।

    भारतीय लोक जीवन और अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य को रूपायित करने वाली ‘मुमकिन है‘ संकलन अपनी अलग पहचान बनाता है। इस संकलन की एक उपलब्धि यह है कि कवि ने अधिकतर कविताओं में विशेष चरित्र उपस्थापित करके एवं सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करके अभिनव समाज के लिए विकल्प भी प्रस्तुत किया है। सारांश यह है कि अशोक तिवारी विजेन्द्र की लोकधर्मी कविता-धारा को अग्रसर कर रहे हैं। इस संकलन की लगभग सभी कविताएँ कलात्मक स्थापत्य से अन्वित हैं और पाठक को आश्वस्त करती हैं कि भविष्य में अशोक तिवारी के काव्य-क्षितिज और अधिक विस्तार होगा। लोक का संघर्षशील स्वभाव कलात्मक रूप में प्रत्यक्ष होगा।


(अमीर चन्द वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
 

सम्पर्क -
मोबाईल-09897482597   






टिप्पणियाँ

  1. अमीर चंद् वैश्य जी...विस्तृत, ब्योरेवार, ज्ञानवर्धक और सार्थक समीक्षा लिए धन्यवाद

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  2. बहुत अच्छी समीक्षा . संग्रह पढ़ने की ईच्छा तीव्र हुई .
    -नित्यानन्द

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  3. Ashok tiwaree ki kavitai se parichya karvaane ke liye bahut bahut dhanyavaad. Aalekh acchha laga . Abhaar Santosh jee.

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  4. अमीर चंद वैश्यजी ने जिस तरह 'मुमकिन है' किताब के ऊपर अपनी कलम चलायी है,जिन उपेक्षित विषयों और मूल्यों को इस किताब के ज़रिये उठाया है, इसके बारे में जितना लिखा जाए, कम है. यक़ीनन आपने इसे बहुत ही बारीकी के साथ पढ़ा, और पूरी मेहनत और लगन के साथ इसे लिखा …बहुत से अनछुए पहलुओं पर लिखे गए उनके वक्तव्य मेरे लिए बहुत ही प्रेरणा दायक हैं. वाकई मुझे उनकी इस समीक्षा से बहुत सीखने के ज़रुरत है. --

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