कमलजीत चौधरी के कविता संग्रह 'हिन्दी का नमक' पर नरेश खजूरिया की समीक्षा


कमलजीत चौधरी



इधर के युवा कवियों में कमलजीत चौधरी ने अपने अलग तरह के बिम्ब-प्रयोगों और भाषा के दम पर अपनी अलग पहचान बनायी है। कमलजीत का एक संग्रह हिन्दी का नमक’ हाल ही में दखल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर पहली बार के लिए हमें एक समीक्षा लिख भेजी है युवा कवि नरेश कुमार खजूरिया ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कमलजीत चौधरी के कविता संग्रह हिन्दी का नमक पर नरेश खजूरिया की यह समीक्षा। 
          

पाठकीय प्रतिक्रियाएँ और हिन्दी का नमक’ : एक मूल्यांकन


नरेश कुमार खजूरिया



जम्मू-कश्मीर में हिन्दी कविता के लिए कमल जीत चौधरी एक सुखद घटना का नाम है। 2006 में कविता के लिए कलम पकड़ने वाला यह कवि बहुत जल्द कविता पर अपना मुहावरा स्थापित करने वाला कवि है। लगभग 30 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में छपने और कई साझा संग्रहों में कविताएँ आ जाने के साथ-साथ ब्लॉग, पत्रिकाओं में भी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवाने वाले कमल जीत की कविताओं ने पाठ्कों के दिल में भी बराबर जगह बनाई और राष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए पाठक वर्ग तैयार कर लिया। परिणमतः पाठक की मांग आने लगी थी कि अब आपकी कविता हमें संग्रह रूप में चाहिए। जिसकी परिणति हमारे सामने 2016 में अनुनाद सम्मान से सम्मानित संग्रह हिन्दी का नमकके रूप में हुई। यह संग्रह हिन्दी जगत में काफी चर्चा में है। जिसकी समीक्षाएँ कई पत्र-पत्रिकाओं से ले कर फेसबुक और ब्लॉगों पर  हमें मिल सकती हैं। प्रस्तुत पत्र उन्हीं कुछ समीक्षाओं और उनके संग्रह को आधार बना कर लिखा गया है। संग्रह के फ्लैप कवर पर तुषार धवल जी की टिप्पणी है जिसमें वे लिखते हैं , ‘‘उम्मीद है आने वाले समय में कमल जीत धूमिल के प्रभाव क्षेत्र से निकल कर अपने स्वतन्त्र क्षेत्र का निर्माण करेगा और शब्द चयन में अधिक परिपक्वता दिखायेगा।’’2 प्रस्तुत टिप्पणी से पाठक के मन में यह भाव पैदा हुए बिना नहीं रह सकता कि कमल जीत चौधरी एक प्रभावित कवि हैं जिनको अभी मुक्त होने की ज़रूरत है। दूसरी बात जो निकल कर सामने आती है वह यह कि उनके पास अभी तक अपना स्वतन्त्र क्षेत्र भी नहीं है। लेकिन यह बात बिल्कुल उपयुक्त नहीं है कि कमल जीत चौधरी के पास कोई अपना क्षेत्र नहीं है और उनका लेखन किसी के प्रभाव की उपज है। यह प्रभाव बिल्कुल शुरूआत की दो एक  कविताओं में ही नज़र आता है जैसे उनकी सत्यापनकविता है। इसको पढ़ते हुए थोड़ा आभास हो जाता है कि धूमिल को पढ़ रहे हैं या लोकतन्त्र की एक सुबहमें भी धूमिल के तेवर दिखाई देते हैं लेकिन इन कविताओं पर प्रतिक्रियाओं के बाद। आलोच्य कवि ने अपना रास्ता साफ कर लिया है। इस बात को साफ देखा जा सकता है। दरअसल तुषार धवल स्वयं अपनी बात को काट रहे हैं यह कह कर कि कमल को धूमिल के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए क्योंकि तषार धवल अपनी टिप्पणी की शुरूआत जिन शब्दों से करते हैं उन को भी देखें, ‘‘ कमल जीत चौधरी नये कथन के कवि हैं जिनके पास आकार ले रही भाषा है। प्रखर कल्पना शक्ति से धनी इस कवि के पास बिम्ब रचने की आकर्षक क्षमता है, और, जो बात मुझे प्रभावित करती है, इस कवि के पास स्वप्न है।’’ अगर कमल नये कथन के कवि हैं तो फिर धूमिल से प्रभावित कैसे हैं? यह बात समझ से परे है। एक बात और अगर कमल के पास स्वप्न है तो धूमिल मोह-भंग के दौर के कवि हैं  और यह मोह भंग पटकथामें साफ झलकता है। अतः तुषार की यह टिप्पणी अपने आप में एक कंट्रास्ट को लिए हुए है। जो हिन्दी के नमक के साथ न्याय करती नज़र नहीं आती। राम जी तिवारी भी इस संग्रह पर टिप्पणी करते हुए भी धूमिल के प्रभाव को उजागर किये बिना नहीं रहते पर वह थोड़ा नरम रवैया अपनाते नज़र आते हैं,  “बेशक कि धूमिल का प्रभाव उनकी कविताओं की बुनावट पर दिखाई देता है, लेकिन उनके भीतर प्रत्येक प्रकार के अंधानुकरण से बचते हुए स्वयं अपनी ज़मीन भी तैयार करने की सफल कोशिश भी साफ-साफ दिखाई देती है।’’3 लेकिन इन बातों का खंडन अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया मोहन कुमार नागर कुछ यूं करते हैं , ‘‘मैं इस वक्तव्य से रत्ती भर भी सहमत नहीं बल्कि प्रतिकार ही करता हूँ कि उनके लेखन पर धूमिल की छाप है। मैं तो ये भी सोचता हूँ कि किसी भी युवा लेखक की किसी के लिखे से तुलना ही क्यों होती है? इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा करके आप एक युवा पेड़ को बरगद के नीचे रोंप भी रहे हैं और उसकी जमीन भी संकुचित कर रहे हैं।’’4 निश्चित ही यह बात सत्य ही है कि किसी संभावनाशील कवि को बरगद के तले रोपना कविता का नुकसान ही करना होगा और एक स्वस्थ आलोचना के लिए भी उच्चित नहीं होगा। वस्तुतः कवि कमल जीत चौधरी एक स्पष्ट पक्ष का कवि है जो अपनी कविताओं को पाठक के हवाले करने से पहले ही अपना पक्ष साफ कर देता है कि प्रस्तुत संग्रह ‘‘जल, जंगल और ज़मीन के लिए’’ और यही जल , जंगल जमीन एक मानदंड के रूप में आज के दौर में कविता का मूल्यांकन के सबसे बड़े मानदंड हो सकते हैं। चूंकि कविता का वास्तविक स्वभाव ही संकट में पड़ी चीजों के पक्ष में खड़ा होना है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि एक अच्छा कवि प्रचलित आलोचकीय मानदंडों को तोड़ता है और नये मानदंडों को जोड़ता भी है। यह बात कमल के लिए भी दुरुस्त बैठती है और मैं उनके जल, जंगल, जमीन को एक मानदंड के रूप में ही देखता हूँ, और ऐसा इसलिए देखता हूँ क्योंकि इन तीनों के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। जीवन के संरक्षण का मूल्य मेरे लिए मानव सभ्यता का सबसे बड़ा मूल्य है कोई अन्य नहीं। जब समय इतना भयानक स्थिति में आ खड़ा हुआ है कि जल, जंगल, जमीन का दोहन ही हमारे विकास की धुरी बन चुका हो और हम जानते भी हैं कि इनका शिकार हो जाना हमारी पीढ़ियों का शिकार हो जाना है फिर भी इनका अंधाधुध दोहन कर रहे हैं। तथाकथित इस विकास रूपी रथ पर सवार हम लोगों को कवि गिरेवान से पकड़ कर पूछ लेता है कि 


                  ‘‘पेड़, नदी और पत्थर से
                   तुमने युद्ध छेड़ दिया है
                   पाताल, धरती और अम्बर से -
                  तुम्हारा यह अश्वमेघी घोड़ा पानी कहां पिएगा’’5


मुख्यतः कविता और प्रकृति का परस्पर अनूठा संबंध रहा है कविता का ऐसा कोई दौर नहीं रहा जिसमें प्रकृति वर्णय विषय के रूप में नहीं रही हो। कभी षड़ऋतू वर्णन में, बारहमासा या फिर आलम्बन या उदीप्पन रूप में, तो कभी मानवीकरण के रूप में। किन्तु कवि कमल जीत चौधरी के यहां प्रकृति वैज्ञाणिक रूप में अर्थात् पर्यावरण की चिन्ता और चिंतन के साथ वर्णित हुई है। प्रकृति का चिंतन के साथ उपस्थित हाने का मतलब प्राकृतिक  संसाधनों पर हो रही राजनीति से है, जिसमें हमारी सरकार नाम का दलाल वर्ग मनुष्य मात्र की प्राकृतिक संपदा को चन्द पूंजीपतियों के हवाले करते जा रहे हैं। देखें  अमेरिका के दौहरे चरित्र को समाने रखती एक कविता-
 
            अमेरिका
           ‘‘ कोपेनहेगन की बैठक
            सफल बता रहा है
            लकड़हारा वनमहौत्सव मना रहा है।’’6




लकड़हारा जब वनमहोत्सव मनाने लगेंगे तो ऐसे खतरनाक दौर में कवि अच्छे से समझता है कि यह समय फूल – फल पर मुग्ध होने का समय नहीं। और कवि बात को बिना लागलपेट के दो टूक कहता है। दरअसल कवि के पास एक विस्तृत क्षेत्र है और उसकी आँख बड़ा साफ देखती है और पाठक को भी साफ देखने का ही अग्रह करती है। कवि का विज़न इतना साफ है जो बन्दूक की मक्खी में और हल की हत्थी में अंतर ही नहीं भेदता है, बल्कि कारण भी छेदता है। दृष्टि संपन्नता पर बल उनकी कविता की आधार भूमि है। साफ देखने और पूरा देखने की प्रवृत्ति ही इस संग्रह को गहराई प्रदान करती है। कविता की तीसरी आँख’,‘समूह की आँख’, खिड़की से’, पहाड़’, आँखआदि कविताएँ दृष्टिकोण के महत्व को उजगर करती कविताएँ हैं। कवि के अंदर विशेष तरह की अकुलाहट है इसलिए कवि समूह की आंख होना चाहता है। वह पुतली से नहीं पुतली में संसार देखना चाहता है। इसलिए आंख का औचित्य जानता है। इसलिए कवि हमारी शिक्षा व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है जो जूते बनाने की फैक्ट्री बनती जा रही है। लेकिन कवि कहता है-


                 ‘‘आँख ही होगी
               सबसे बड़ा हथियार’’7  


अतः कमल एक स्पष्ट दृष्टिकोण के कवि हैं जो अपने समाज के हर छोटी से छोटी बात को नोटिस में लेते हैं और बडे़ सहज और बिना कोई जाल बुने अपनी बात पाठक के हवाले करते जाते हैं। रश्मि भारद्वाज के शब्दों में कहा जाए तो ‘‘ आज के इस भागते हुए समय में जो कुछ भी हाशिये पर छूट रहा है, जिसकी आवाज़ तकनीकी और विकास के तेज शोर में दब गयी है, ये कविताएँ उनकी आवाज बन जाने के लिए बेचैन दिखती हैं।’’ यह बेचैनी आम क्यों चुप रहेएम.एफ. हुसैन के लिएरोको इन्हें रोको’ ‘वह बीनता है’ ‘सीमा’ ‘सत्यापन’ ‘अंतिम ईंट’ ‘पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी’ ‘पत्थर-1,2आदि कई कविताओं में देखी जा सकती है। कवि इस दबे कुचले आदमी की आवाज ही नहीं बनना चाहता है वह उसका हाथ पकड़ने के लिए प्रति दिन अपने घर की एक ईंट रोज निकाल रहा। कवि ईश्वर से युद्ध करने के लिए भी तैयार बैठा है। उसके लिए वह तिनके चुन रहा है। कवि की संवेदना पंक्ति में खड़े आखिरी आदमी के साथ है वह जान चुका है कि वह आदमी जिसे लोग कायर और बेकार कह रहे हैं वही  दरअसल दुनिया की तरक्की का पहिया है-


                  ‘‘वह बेकार है न कायर है
                   दुनिया की गति का टायर है
                   वह पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी।’’


आलोच्य कृति मुख्यतया किसी एक प्रवृत्ति विशेष के लिए नहीं अपनी सार्वभौमिकता के लिए याद किया जायेगा चुंकि शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो इन कविताओं में समाहित नहीं हुआ हो। राजनीति, बाजारवाद, पूंजिवाद, सांप्रदायिकता, पुरूषवाद, भूमण्डलीकरण, लोकतन्त्र की दुर्दशा, अपनी मिट्टी, खेत खिलहान, शिक्षा-व्यवस्था आदि कई विषयों के महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाती इन कविताओं में किसी तरह की नारेबाजी नहीं आती है। जो करना है अभी करो,लोकतन्त्र की एक सुबह,साहित्यिक दोस्त, ‘भूख और कलम,एक ऐसे समय में,तीन आदमी,कविता लिखने का सही वक्त,कवि गोष्ठी में आने के लिएदेश के भीतर देश,महामहिम राष्ट्रपति को पत्र,डिस्कित आंगमों,भूत और बंदूकआदि कविताएँ अपने समय को नोटिस में ही नहीं लातीं बल्कि उसको सत्यापित भी करती हैं। ऐसा लगता है वर्तमान समय की त्रास्दियों को कवि ने कस कर बांध दिया हो। कवि कविता लिखने का सही वक्त भी पहचान चुका है अपने समय के साथ दो-दो हाथ करने के लिए भी आगाह कर चुका। इन तमाम कविताओं में वक्त एक सूत्र का काम करता नज़र आता है इन कविताओं को नाम से अलग अलग होते हुए भी एक धागे में बांध देता है। वास्तव में जो करना है अभी करो’ ‘ एक ऐसे समय मेंऔर कविता लिखने का सही वक्त है यह तीनों कविताएं एक- दूसरे की कड़ी बनती नज़र आती हैं। जिनमें एक लम्बी कविता भी देखी जा सकती है। पर ऐसा कत्तई नहीं है कि यह तीनों कवितएं किसी एक ही विषय को उजागर करती हैं। बस हमारे समय का जो खूंख्वार चेहरा है वह इन तीने में एक सूत्रता का काम करता है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी त्रास्दी है कि आदमी की निजता संकटग्रस्त है दुनिया को इतना छोटा बना दिया गया है कि अब और इंतजार करना खतरनाक साबित होगा इसलिए कवि ऐलान करता है कि जो करना है अभी करो। अजय कुमार पाण्डेय इस संग्रह पर लिखते है कि ‘‘कमल जीत चौधरी की कवितएँ अपने ज़माने की तथ्यात्मक दस्तावेज हैं, जिसमें हम अपने समय और समाज के मिजाज को ठीक -ठीक पहचान सकते हैं, जिसके ज़रिए न केवल हम खुद खबरदार हो सकते हैं बल्कि दूसरों को भी ख़बरदार कर सकते हैं।’’9


जो लोग इस बात को फैला रहे हैं कि वर्तमान समय कविता का समय नहीं हैं उनको करारा जवाब देती ये कविताएँ कह उठती हैं यही कविता लिखने का सही वक्त है और इसी समय में कुछ किया जा सकता है। इसलिए कवि उन जगहों पर भी पग धरता नज़र आता है जहां आज तक हिन्दी कविता ने क्या राष्ट्रीय मीडिया और राजनीति ने भी जाने का परहेज किया है। जम्मू और लद्दाख जम्मू कश्मीर के वह हिस्से हैं। जिनकी समस्याओं को कभी नहीं देखा गया मीड़िया में भी जम्मू-कश्मीर को सिवा आतंकवाद के याद नहीं किया जाता है। लेकिन यहां और कुछ भी है जो घटता है लेकिन वो किसी के लिए कोई बहस का मुद्दा नहीं बनता। यह दोनों क्षेत्र भेदभाव का शिकार रहे हैं। आम क्यों चुप रहेकविता में इस बात को कवि ने बडे़ बेबाकी से उभारा है। लद्दाख पर कविताएँ हिन्दी कविता को बहुत बड़ा योगदान हैं यहां का कड़वा सच लद्दाख हिल कौंसिल की एक बैठकमें देखा जा सकता है। 


कवि के पास सच रचने की हिमत ही है जो उसकी रचनाओं को इस कद्र मौलिकता प्रदान कर रही है। जो कवि समझता है कि कविता को सही दिशा प्रेम ही दे सकता है तो उसका प्रेम व्यक्तिगत नहीं रह जाता। कवि के पास प्रेम के लिए पूर्ण समर्पण है वह इस तरह नहीं सोचता कि तू और मैं हम हो जाएंवह कहता है तुमको सोचा तुम हो गयायही पूर्ण समर्पण है। इस प्रकार का सोचना कविता को गलत दिशा दे ऐसा हो ही नहीं सकता। कवि की स्त्री विषयक किवताएँ भी बहुत मार्मिक हैं औरतकविता इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। जिसमें औरत जीवन की भयावह त्रास्दी कुछ इस तरह व्यक्त हुई है-


                  ‘‘जिसे वह उंगली थमाती है
                   वह बांह थाम लेता है
                  जिसे वह पूरा सौंपती है
                  वह उंगली छौड़ देता है।’’10


वास्तव में कमल जीत का कहन छोटे में बड़ा कहन है। इनकी आकार में छोटी दिखने वाली कविताएँ भी विस्तृत स्पेस घेरती हैं। शिव प्रकाश त्रिपाठी इन कविताओं पर प्रतिक्रिया देते हुए अपनी फेसबुक वाल पर लिखते हैं कि ,‘‘उनकी दृष्टि वैश्विक है, वह दोनों आँखों को खोल कर दुनिया को देखते हैं, यही दृष्टि उनकी कविता को सार्वभौमिकता प्रदान करती है’’11 यह बात कदापि गलत नहीं है कि कमल जीत की कविताओं में दृष्टि-गंभीर्य है। अतः कह सकते हैं कि हिन्दी का नमक हिन्दी कविता का ऐसा नमक हैं जिसे चखे बिना पाठक हिन्दी कविता का स्वाद ठीक से नहीं जान पाएगा। यह कविताएँ संपन्न दृष्टि की उपज हैं। जो अपने मूल्यांकन के लिए दृष्टि संपन्नता की मांग करती हैं और पाठक को भी दृष्टि संपन्न करती हैं। वर्तमान के चर्चित कवि देवेंद्र आर्य कहते हैं कि कविता चाहे भाव से उपजी हो या अभाव से वह विचार पैदा करती है। आलोच्य संग्रह की कविताएँ भी कविता के इस धर्म पर खरी उतरती हैं।                                                                             
                                    
संदर्भ

1.     कमल जीत चौधरी, हिन्दी का नमक, फ्लैप कवर
2.     वही
3.     राम जी तिवारी, फेसबुक पोस्ट, 7 फेब 2016
4.     मोहन कुमार नागर, फेसबुक पोस्ट, 9 फेब 2016
5.     कमल जीत चौधरी, हिन्दी का नमक, पृ.40
6.     वही, पृ.43
7.     वही, पृ. 85
8.     वही पृ.72
9.     अजय कुमार पाण्डे, पर्वग्रह अंक 154-155, पृ. 161
10.   कमल जीत चौधरी, हिन्दी का नमक, पृ.73
11.   शिव प्रकाश त्रिपाठी, फेसबुक पोस्ट-6 अप्रैल 2016

 
नरेश कुमार खजूरिया



सम्पर्क-

नरेश कुमार
अस्थाई प्राध्यापक सरकारी महाविद्यालय
महानपुर  
जम्मू व कश्मीर
                            
मोबाईल - 09858247329

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-04-2017) को "झटका और हलाल... " (चर्चा अंक-2933) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी समीक्षा संग्रह पर ....

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर।
    संतोष भाई जी , हार्दिक आभार !!
    नरेश जी , हार्दिक धन्यवाद।

    : - कमल जीत चौधरी

    जवाब देंहटाएं
  4. कमलजीत भविष्य के अच्छे संभावित कवि हैं, ऐसा हमें नरेश जी की समीक्षा में उनके कुछ कविताओं के फुटेज देखकर लगा पुस्तक पढ़ने के बाद उनके विस्तृत फलक को जान पाऊंगा। सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'