कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएँ



 
कुमार कृष्ण शर्मा


परिचय : 

दस साल से ज्यादा समय तक अमर उजाला जम्मू के साथ जुड़े रहे। उसके बाद से रियासत जम्मू कश्मीर के अंग्रेजी दैनिक समाचारपत्र हिमालयन मेल के ब्यूरो चीफ रहे। लोक मंच जम्मू कश्मीर के संयोजक और संस्थापक सदस्य जम्मू कश्मीर के पहले हिंदी ब्लॉग खुलते किवाड़ www.khultekibad.blogspot.in (साहित्य, कला, संस्कृति, मानवाधिकार आदि को मंच देने के लिए) को शुरू करने का श्रेय मौजूदा समय में कृषि विभाग मेंएग्रीकल्चर एक्सटेंशन असिस्टेंट के तौर पर कार्यरत।


आज़ादी का मतलब उनसे पूछना चाहिए जिन्हें दरअसल समय और हमारे समाज ने कभी आज़ादी का अवसर ही नहीं दिया। आज़ादी का नाम आते ही ख़याल आता है स्त्रियों का, जिन्हें यह आज तक मयस्सर ही नहीं हुई। हमारी स्त्रियाँ कैसे रहें, क्या पहनें, कहाँ जाएँ, कहाँ न जाएँ, किस वक्त जाएँ, किससे शादी करें, किससे न करें - यह सब उनकी मर्जी से नहीं बल्कि पुरुषों की मर्जी से तय होता रहा है। आज भी जब स्त्रियाँ अपने मन से अपने काम करने को उद्यत होती हैं तो हमारे समाज के ठेकेदार टाईप के लोग श्लील-अश्लील की बातें उठा कर पूरे मामले को कुछ अलग ही रंग दे देते हैं। कवि इन सामाजिक विसंगतियों को देखता है, महसूस करता है और उसे कविताबद्ध करने की कोशिश करता है। कवि कुमार कृष्ण शर्मा ने इन विसंगतियों की पड़ताल अपनी कविताओं के हवाले से करने की कोशिश की है। कृष्ण कुमार की एक उम्दा कविता है – ‘ग्यारह गाँठें’। इस कविता की पंक्तियाँ हैं – ‘यह गांठ/ गहनों की गांठ नहीं है/ असल में/ यह/ उसको लगाई गई ग्यारह गांठे हैं।‘ इस कविता से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि रुढियों की गाँठें कितनी जबरदस्त ढंग से कसी हुई हैं और इन्हें खोल पाना खुद स्त्री के लिए भी आसान नहीं। यह बेहतर है कि इन्हें खोलने की कोशिशें अब स्त्रियों ने ख़ुद ही शुरू कर दी है। क्योंकि अपनी आज़ादी की लड़ाई सबको ख़ुद ही लड़नी होती है। आज पहली बार पर पढ़ते हैं जम्मू-कश्मीर के कवि कुमार कृष्ण शर्मा की कुछ नयी कविताएँ।    
   

कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएँ

          

पलाश के फूल, आपने देखा क्या

मेले के
सबसे ऊँचे पेड़ की
सबसे ऊँची डाल पर बैठ
बसंत के हरकारे ने
आजादी कहा ही था

सर्कस में
एक पहिया साइकिल पर
करतब दिखा रहे
मुख्य कलाकार की निक्कर
घुटनों तक
खिसक गई

मौत के कुएं में
बेधड़क दौड़ाए जा रहे
मोटर साइकिल के दोनों टायर
धड़ाम से फट गए

मैदान के बीचों बीच
तंबू की छांव में बैठे
थानेदार की कुर्सी के नीचे की जमीन
कोसे पानी से गीली हो गई

हरकारे ने
दूसरी बार कहा आजादी

दो गुणा दो फीट के टेबल पर
अपने रिंगमास्टर के सामने
दुबक कर बैठा बब्बर शेर
जीवन में पहली बार दहाड़ा

तोते ने
पिंजरे को तोड़
कार्डों को आग लगा
ज्योतिषी के सिर पर
पहली बार
बीट की

चिपके गालों पर
भारी फाउंडेशन लगा
स्टेज पर
ब्रा पैंटी पहन कर
नाचने वाली युवती ने
तमाम अश्लील वस्त्र
मालिक के मुंह पर मार
पहली बार
अपनी मर्जी के कपड़े पहने

हरकारे ने तीसरी बार
नहीं कहा आजादी

आजादी
कोई मार्केटिंग टूल नहीं होती
न ही
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
जिसको बार बार टेलीविजनी पर दिखाया जाए
ब्रह्मांड का सबसे कीमती अहसास
खैरात में नहीं मिलता
यह कह कर
जैसे ही हरकारे ने
नीचे छलांग लगाई
लचकी टहनी झट से हवा
में झूलने लगी
मैंने देखा
मेले में
आजादी की चाह रखने वाले हर किसी ने देखा
झूल-झूल कर इतरा रही टहनी
पलाश के फूलों से लद चुकी थी
आपने अभी तक नहीं देखा क्या
क्या सच में नहीं देखा

(मार्च 23, 2016)


मेरी दोस्त और बैसाखी

जानते हो...
सीमा पर
सबसे शानदार होता है
बैसाख का महीना
इसी महीने में
पकते हैं सपने
माँगी जाती हैं
शांति की दुआएं
मेरी दोस्त कहती है...


अब की बार बैसाख में
आना मेरे गाँव
देखना
कितनी तेजी से मैं
काटती हूँ गेहूँ
दिखती हूँ कितनी ही सुंदर
पसीने से लथपथ

जानते हो...
सीमा पर
ठाठ से मनाई जाती है बैसाखी
इस त्योहार में
एक ही दिन में
जवान हो जाता है सारा इलाका

अब की बैसाखी में
आना मेरे गाँव
देखना
ढोल की थाप पर
तुम्हारे मेरे साथ
हमारी घोड़ी
'
मौरां' भी नाचेगी

बैसाख-बैसाखी की बात
करते करते
मेरी दोस्त
आसमान ताकने लगती है
रूआंसे गले से कहती है
जानते हो...
सीमा पर बसे लोगों की
नियति है बैसाखियां

इसी के सहारे
मेरे बाप से काटी है
सारी जवानी
दो बहनों तीन भाईयों की
बैसाखी है मेरी माँ
सीमा पर
जितनी दिखती है
उससे कई गुणा
ज्यादा होती हैं
बैसाखियां

अब की बार
तुम आना
नहीं... नहीं....
अब की बार
नहीं आना मेरे गाँव
तुम जाना
पूछना
दिल्ली-इस्लामाबाद से
क्या जरूरी होता है
सत्ता की कुर्सी के लिए
सीमा को बैसाखी बनाना
कब तक हमको
बनाया जाता रहेगा
बैसाखी

मेरा हाथ पकड़
मेरी दोस्त कहती है...
इन सब सवालों का
जब जवाब मिल जाए
मेरे गाँव
तभी आना...
तभी आना
मेरे गाँव


(अक्तूबर 2015)


भूख संभालती लड़की

गोल मार्केट में
निर्जला एकादशी के दिन
मेटाडोर स्टैंड के पास खड़ी
दस साल की लड़की (उम्र नौ सा ग्यारह साल भी हो सकती है)
खाने लगी है तरबूज का एक टुकड़ा
जो उसने दुकानदार से अभी-अभी खरीदा है


टुकड़े को
अपने होठों तक ले जा कर
कुछ सोचने लगी है लड़की


कुछ देर रूकने के बाद
उसने टुकड़ा
डाल लिया अपने बैग में
जल्दी से चल पड़ी संकरी गली में


सोचता हूँ
उसने ऐसा क्यों किया
कौन होगा भूखा उसके घर में
किसको पसन्द भी हो सकता तरबूज
भाई कोबहनबापमाँसहेली को


मैं तो अक्सर भूल जाता हूँ
माँ कोबाप कोपत्नीबच्चोंपड़ोसियोंसाथियोंजरूरतमंदों को
तेज कदमों से जा रही लड़की को
मैं पीछे से देख रहा हूँ


तरबूज को संभाल कर ले जा रही
दस साल की लड़की का कद
कितना बड़ा है
मेरा कितना छोटा


ग्यारह गाँठे


अंधेरी कोठी में रखी
बड़ी पेटी में से
माँ
निकाल लाई है
एक बड़ी सी गांठ


गांठ में से
एक डिब्बे को निकाल
कहती है
इस डिब्बे में गहने नहीं
उसका जीवन कैद है


यह गांठ
गहनों की गांठ नहीं है
असल में
यह
उसको लगाई गई ग्यारह गांठे हैं


दो आंखों में
दो कानों में
दो नाक में
दो हाथों में
दो पैरों में
एक होठों पर


सोने चांदी से भरी यह गांठ दे कर
मेरी तरह
हर औरत से
छीन ली जाती है
उसकी जवानी
उसका जीवन
उसके सपने
उसके पंख
उसके दांत
उसकी आंच


गांठ को मेरे हाथ में दे कर
माँ कहती है
यह पक्की गांठें हैं
सदियों पुरानी
बिना दांत 
बिना आंच 
कहाँ खुलती हैं


माँ कहती है मुझ से
अपनी बेटी को
बिरसे में
गहनों की गांठ नहीं
देना
दांत और आंच


बेटी को कहना
दस्तार पहने
मूछ सजाए
इस समाज के जंगल में
लोग
उसी से डरते हैं
जिसके पास दांत हो
जिसके पास आंच हो


सम्पर्क –

गाँव : पुरखू  (गढ़ी मोड़)
पोस्ट ऑफिस : दोमाना
तहसील जिला : जम्मू
जम्मू और कश्मीर (181206)

मोबाइल- 094-191-84412

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-04-2018) को ) "अस्तित्व बचाना है" (चर्चा अंक-2935) पर होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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