मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ
मिथिलेश कुमार राय |
24 अक्टूबर,1982 ई0 को बिहार राज्य के सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म. हिंदी साहित्य में स्नातक. सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित. वागर्थ व साहित्य अमृत की ओर से क्रमशः पद्य व गद्य लेखन के लिए पुरस्कृत. कहानी स्वरटोन पर द इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट नाम से वृत्त-चित्र का निर्माण. कुछेक साल पत्रकारिता करने के बाद फिलवक्त ग्रामीण क्षेत्र में अध्यापन.
कवि कल्पना की चाहें जितनी उड़ान भर ले लेकिन रहता वह यथार्थ के धरातल पर ही है. इसी यथार्थ से उद्भूत होतीं हैं वे कविताएँ जो मन को देर तक और दूर तक मथतीं रहतीं हैं. युवा कवि मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ इसी तरह की भाव-भूमि पर खड़ी दिखाई पड़ती हैं. अपनी कविता ‘महामहिम’ में यह कवि लिखता है - आपके आने से पहले/ सड़क आएगी/ रौशनी आएगी/ आप आएंगे/ सपने दिखा कर चले जाएंगे/ लेकिन सड़क यहीं रह जाएगी/ रौशनी यहीं रह जाएगी/ इसीलिए हम आपको बुला रहे हैं. कवि इस हकीकत को जानता है कि महामहिम के आने पर उसके गाँव में सब जगर-मगर हो जाएगा लेकिन उनके जाने के बाद यह जो छूटा हुआ जगर-मगर है वह उसके गाँव को आगे भी कुछ समय तक जगर-मगर करता रहेगा. इसीलिए वह अपनी बात करते हुए लिखता है – ‘इसीलिए हम आपको बुला रहे हैं.’ तो आइए पढ़ते हैं मिथिलेश कुमार राय की कुछ नयी कविताएँ.
मिथिलेश कुमार राय की कविताएँ
बच्चे काम पर चले गए हैं
(राजेश जोशी से क्षमा याचना सहित)
स्कूल इतना सूना-सूना क्यों है
बच्चे कहाँ चले गए हैं
बच्चे काम पर चले गए हैं
क्या है कि यहाँ यह मौसम
पढ़ाई का नहीं
जूट की कटाई का मौसम है
धान की रोपाई का मौसम है
बच्चे ऐसे ही किसी काम पर चले गए हैं
बच्चे जूट की कटाई नहीं कर सकते
इस काम को करने के लिए
इसके डैडी गए हैं
बच्चे अपनी मम्मी के साथ
संठी से जूट को अलग करने के काम पर चले गए हैं
अगर बच्चे जूट की कटाई कर सकते तो
इन्हें दो सौ रुपये रोज मिलते
संठी से जूट को अलग करने के बदले
आठ में से एक बोझा ही मिलता है
अब आठ बोझा तो बच्चे बाँध नहीं सकते
वे आठ बिरवे बना कर
एक बिरवा लेकर
शाम तक घर आ जाते हैं
यह मौसम पढ़ाई का नहीं
धान की रोपाई का है
बच्चे अपनी मम्मी
और डैडी के संग
धान की रोपाई करने गए हैं
साठ-साठ मम्मी-डैडी को मिलेंगे
बच्चे को भी पचास-पचास रुपए दिए जाएंगे
नहीं सिर्फ समझाने से काम नहीं चलेगा
बच्चे के डैडी का कहना है
कि काम नहीं करने से खाने पर आफत आ जाएगा
बच्चे की मम्मी ने बताया
कि एक आदमी दिन में तीन बार खाता है
वह महीने का पचीस किलो खा जाता है
हमें साल भर का अनाज कौन देगा
सबको अपने-अपने हिस्से का खुद कमाना पड़ता है
नहीं तो पेट कैसे भरेगा
गेंहूँ की कटाई का मौसम
धान की रोपाई का मौसम
जूट की छोड़ाई का मौसम
और धान की कटाई का मौसम
यह मौसम पढ़ाई का मौसम नहीं होता
यह मौसम कमाई का मौसम होता है
इसके बाद कभी यहाँ आइये
प्रांगण में आपको बच्चे की किलकारी सुनाई पड़ेंगी
दोपहर का भोजन यहाँ भी पकता है
घर
घर की ओर लौटता हुआ मैं
खिल-खिल उठता था
और जैसे ही विदा की वेला आती थी
आँखें नदी में डूब जाती थीं
घर से आने के बाद
मैं कुछ दिनों तक हरा-हरा रहता था
बाद में मेरे ऊपर पीलापन छाने लगता था
मेरी इच्छा थी
कि मैं
हरा-हरा ही रहूँ
पीला-पीला न होऊँ
सबकी इच्छा मेरी इच्छा थी
और मेरी इच्छा
घर के साथ रहने की थी
मगर दो कौर भात
परदेश में पक रहा था
भूख लगने पर
मन मसोसकर
हमें वहीं भाग आना पड़ता
महामहिम
हमारे साथ यहाँ आइए
आप आएंगे तो
साथ में बहुत आएंगे
मंत्री आएंगे
अफसर आएंगे
अखबार आएगा
टीवी आएगा
आपके आने से पहले
सड़क आएगी
रौशनी आएगी
आप आएंगे
सपने दिखाकर चले जाएंगे
लेकिन सड़क यहीं रह जाएगी
रौशनी यहीं रह जाएगी
इसीलिए हम आपको बुला रहे हैं
कि असल में हम
सड़क को बुला रहे हैं
रौशनी को बुला रहे हैं
लेकिन आप यहाँ कैसे आएंगे
क्यों आएंगे
एक तो यह आपके
कहीं आने-जाने का मौसम नहीं है
दूसरा हम तो मेड़ पर चलने के अभ्यस्त हैं
मेड़ पर चलकर
आप कैसे आएंगे
आप गिर पड़ेंगे
भादो
मच्छर तो बहाना है
असल मेँ नीँद ही नहीँ आ रही
है
झीँगुर बड़ा शोर करता है
मेढ़क भी
ऊपर से बिजली की कड़क
बस भादो बीत जाए
फिर रजाई तान के सोएंगेँ
भादो मेघ का महीना है
जब मेघ खूब बरसता है
तो घर बह जाता है
अभी कम बरस रहा है
घर चू रहा है
जब बेटी जा रही थी
जब बेटी जा रही थी
उसकी माँ रो रही थीँ
मैँने उसके पिता को ढ़ूँढ़ा
नहीँ मिला
किसी ने बताया
कि वह इस विरह के क्षण को
बर्दाश्त नहीँ करने की अपनी शक्ति के कारण
पता नहीँ कहाँ चला गया है
अब वह बेटी की विदाई के बाद ही लौटेगा
और बहुत दिनोँ तक चुप-चुप रहेगा
उसकी माँ की रोते-रोते आवाज रुंध जाएंगी
और उसे बुखार भी आ सकता है
जब बेटी जा रही थी
उसका भाई बहुत सारे पसरे कामोँ को
जल्दी-जल्दी समेट रहा था
वह जरा-जरा सी बात पर झूँझला उठता था
कोई उसे टोके
यह वह अभी पसंद नहीँ कर रहा था
उसे ऐसा लग रहा था
कि बोलेगा तो वह भी रोने लगेगा
फिर कैसे क्या होगा
बेटी के जाने के समय
जब चाची काकी दादी मौसी
और सारे अरिजन-परिजन
रोती हुई रिवाजोँ को पूरा कर रही थीं
दरवाजे पर बँधी गाय पर मेरी नजर पड़ी
वह उदास-उदास आँखोँ से दृश्य को देख रही थीं
और पगुराना भूल गई थीं
दरवाजे पर आम का
और अमरूद का जो एक वृक्ष था
हवा बहने के बावजूद भी
वह स्थिर खड़ा जैसे मौन था
अब बेटी चली गई थी
और पूरे गाँव का मन व्यथित था
उस शाम रात जल्दी ढल गई थी
और गाँव अनमने ढंग से रोटी चबाकर
बिस्तर पर करवटेँ बदल रहा था
सम्पर्क-
ई-मेल : mithileshray82@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
बहुत अच्छी कवितायेँ
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंठेठ माटी की गंध लिए सादगी और संवेदनाओं से भरी कविताएं.. बधाई मिथिलेश जी...
जवाब देंहटाएंवाह ! कितनी सादा ज़बानी , कितने गहरे पछोरती संवेदनाएं ! कहीं लगता ही नहीं कि आप कविता जैसे गंभीर कर्म का साक्षात्कार कर रहे हैं . बधाई मिथिलेश !
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