श्रीराम त्रिपाठी की कहानी 'दादी, हाथी और मैं'
श्रीराम त्रिपाठी |
दादी, हाथी और मैं
श्री राम त्रिपाठी
जिसमें
आप बहे जा रहे हैं, दादी के गले से निकल रही है वह लहर। देखना
चाहते हैं उसे?
तो
आइये,
देख
लीजिये। वह...वह जो पपीते के पास हिलती-डुलती गठरी दिख रही है न। वही है दादी। वह
महज़ गा ही नहीं रही है, पपीते को पानी भी दे रही है। खर-पतवार
भी निकाल रही है। पपीते में फूल लगना शुरू हो गया है न। वह सोहर गा रही है इसीलिए।
अभी वह उठेगी और अमरूद के पास जायेगी, जिसे उसने ही रोपा
है। सींचा है। जानवरों से बचाया है। चिड़िया ने तो केवल अनपचे बीजों को बीट के रूप
में निकाला और चलती बनी। और देखिये न, फल लगने पर कैसे उतर
आयी है अपने कुनबों समेत। और कच्चे तथा बेस्वाद फलों को कुतरने लगी है। इन कच्चे
फलों को अगर वह खाती, तो भी दादी चला लेती, मगर इन्हें
तो कुतर कर गिरा रही है। दादी ताली पीट कर, ढेला चला कर अभी
इन्हें भगायेगी पकने पर आने का न्यौता देती।
सारे बच्चे स्कूल चले
गये हैं न। इसीलिए वह अकेली दिख रही है। कभी सवेरे अथवा संझा को आइए और देखिए
उनकी धमा-चौकड़ी। जिसमें दादी भी आपको बच्चा ही नज़र आयेगी। कभी चोर-सिपाही, कभी
चिक्का-लँगड़ी,
कभी
लुका-छिपी खेलती। वह उन्हें तरह-तरह की कहानियाँ तो सुनाती ही है, गाना भी
सिखाती है। हालाँकि बच्चों के माँ-बाप उन्हें दादी के पास आने से बरजते हैं, क्योंकि इससे
उनकी पढ़ाई का नुकसान होता है।...इसी तरह रहे, तो बन चुके
इंजीनियर-डाक्टर। ...कमा चुके ढेर सारा पैसा।...मगर बच्चे हैं कि समझते ही नहीं, लुक-छिपकर
पहुँच ही आते हैं दादी के पास। दादी में न जाने क्या है कि बच्चे खिंचे चले आते
हैं इसकी ओर।
कोई नहीं जानता दादी
की उम्र के बारे में। मोहन बाबा, जो हमारे बाबा के लँगोटिया यार थे, पूछने पर सिर्फ़
इतना ही कहते,
“तुम्हारे
बाबा के साथ-साथ मैं भी खेला हूँ, दादी की गोदी में।” और कहीं डूब
जाते। अपने बाबा को तो देखा नहीं, मगर मोहन बाबा की गोद में तो खेला भी।
जानते हैं? कभी यह हमारा
घर ऐसे अकेले नहीं, गाँव के बीचो-बीच हुआ करता था और यह जो
उतरहिया और दखिनहिया, दो गाँव हैं, कभी एक ही
गाँव हुआ करते थे। मैंने तो देखा नहीं। मोहन बाबा ही बताते थे कि तब भी हमारे
अगवारे और उत्तर की ओर अच्छी-खासी जगह थी। यह जो उत्तर की ओर पँड़ोह देख रहे हैं न, तब भी यहीं
बहता था। यहाँ की सीलन में दादी ने केले का गाछ रोप दिया था, जो बढ़कर एक
बगिया ही बन गया था। कभी भी ऐसा नहीं हुआ, जब
किसी-न-किसी गाछ पर घौद न लटकता रहा हो। पूरे गाँव में केले के गाछ थे, तो हमारे ही।
जब भी किसी के यहाँ 'सत्नरायन' की कथा अथवा
दूसरे कोई धार्मिक अथवा शुभ प्रयोजन होते, केले का
पत्ता हमारे यहाँ से ही जाता। दादी किसी को छूने भी न देती। ख़ुद ही बीछ-बीछ कर
पुराने पत्तों को काटती। अगर कोई भगवान को चढ़ाने के लिए ही केला माँगता और वह पका
न होता,
तो
सीधे 'ना' कह देती। और
जब घौद पक जाता,
तो
सबके यहाँ बारी-बारी से दो-दो, चार-चार केला पहुँचवाती। गाँव में कोई
भी घर ऐसा नहीं था, जिसने दादी की बगिया का केला न चखा हो। अरे, रामलीला में
अशोक-वाटिका बनाने के लिए केले के जो गाछ लाये जाते, यहीं के
होते। अगर उन गाछों को विसर्जित न किया जाता, तो वहाँ भी
केले की एक बगिया बन गयी होती। उन गाछों का विसर्जन दादी को रुचता नहीं, दुःख देता।
और मुहर्रम में जो गाछ कटता, वह भी यहीं का होता। दादी सबको रस-पानी
कराती और पूरी बगिया ही सौंप देती, 'काट लो भइया! अपने ही बीछ कर काट लो।' उसकी आँखें
नम हो जातीं। बगिया की ओर से मुँह फेर लेती...
दादी हर बार रामलीला
और मुहर्रम में गाछ न देने की ठान लेती, मगर...
गँवारों (गाँव वालों) के
अनुसार,
वह
बगिया ही गाँव का काल बन गयी।...न दादी की बगिया होती, न हाथी
बउरा कर आता,
न
गाँव रण का मैदान बनता, और न दो गाँवों में बँटता। और मान लो कि हाथी बउरा कर आता
ही,
तो
उतना थोड़े मातता। जैसे-जैसे केला खाता गया, और मातता
गया।...सही बात तो यह है कि उस घुप्प अँधेरे में हाथी आ ही नहीं सकता। केले की गंध
ही थी,
जो
उसे खींच लायी थी।...ऐसी चीज़ लगाना ही क्यों, जिसकी ख़ातिर
कोई हिंसक जीव आये, खाये और माते?
...हाथी ने ऐसा ताण्डव
मचाया कि घर-घर में हाहाकार मच गया। कौन देखता है बेटा-बेटी को, माँ-बहन को, भाई-भौजाई
को, पति-पत्नी को। सभी अपनी-अपनी जान बचाने में लगे थे। जिन लोगों ने अपने परिवार
को बचाने की कोशिश की, उनका पूरा घर ही साफ़ हो गया। उफ्, हाथी उड़ता था
कि दौड़ता था कि चलता था। चिग्घाड़ता था कि पत्थर मारता था कि बिजली गिराता था। लोग
भागते थे,
छिपते
थे और मिट्टी में मिल जाते थे। दादी के बहुत डाँटने पर हमारे बाबा अपने बेटों को
ले कर हाथी को भगाने गये थे, जो आज तक लौटे नहीं। छोटे चाचा दादी की
कोठरी में छिप गये थे, इसलिए बच गये। अगर दादी ने पुआल के मंदिर में
आग न लगाया होता, तो हमारा घर भी सफाचट हो जाता। उस आग से डर कर
ही हाथी भागा था।
सुनाते-सुनाते मोहन
बाबा डूबने लगते, पानी की नदी में नहीं, ख़ून की नदी
में;
जिसमें
हाथ-पैर भी नहीं चलते। और मैं एक चित्र बनाने की कोशिश करता। दादी और अपनी शक्ल को
मिला कर;
मगर
वह चित्र बनने से पहले ही आँसुओं की नदी में बह जाता।
बचे-खुचे लोगों ने
उतरहिया और दखिनहिया में शरण ली और वहीं के हो गये। लोगों के लाख समझाने पर भी
दादी यहाँ से जाने को तैयार न हुई। छोटे चाचा जब समझा-बुझा कर हार गये, तो हमको छोड़
दखिनहिया चले गये। माँ और मँझली चाची कहाँ जातीं, अकेले? दादी के पास
रहना उनकी मजबूरी थी। जाना तो वे भी चाहती थीं। अगर पिता जी और चाचा जी होते, तो वे किसी
भी क़ीमत पर यहाँ न रहतीं।
न जाने कितने सालों
हमारा घर खण्डहरों के बीच रहा। यहाँ दिन में भी उल्लू बोलते थे। उतरहिया और
दखिनहिया का कोई भी इनसान उधर भूले से भी न जाता।...ऐसी मनहूस जगह में कोई रहने
जायेगा?...बेच दिया
लोगों ने बाबू साहब को कौड़ी के मोल। ये जो लहलहाते खेत देख रहे हैं न, बाबू साहब के
हैं।
वक़्त बीतते-बीतते
दादी फिर से गाँव भर की दादी हो गयी। हमारा दुआरा, जहाँ बच्चों
के खेल का मैदान हो गया, वहीं बड़े-बुज़ुर्ग़ों का ठंढ का घमावन।
हमारा घर उतरहिया में
नहीं,
दखिनहियाँ
में है,
क्योंकि
सरकारी नक़्शा इसे दखिनहिया की हद में बताता है।
मैं अपने दोस्त को
बतला रहा था। इतना सुनने के बाद अचानक उसने पूछा, “वह कैसी आँधी, जिसमें पत्ते
तो हिलते तक न हों और कंकड़-पत्थर उड़ कर सिर से ऐसे टकराते हों कि सिर पानी भरे घड़े
की तरह फूट कर बिखर जाता हो? कि वह कैसी बाढ़, जिसमें पानी
का तो एक क़तरा भी नहीं और गाँव के गाँव धसकते और डूबते जाते हों? कि वह कैसा
ज़लज़ला,
जिसमें
ज़मीन में तो कहीं दरार तक नहीं और ज़मीन को ख़ूब मज़बूती से पकड़े पेड़ तक धूल चाटने
लगते हों?...”
मुझे लगा कि वह पहेली
बुझा रहा है। मैं कुछ जवाब दूँ कि हमने साथ-साथ देखा, आसमान धुओं
और आग की लपटों से भरा जा रहा था।
उसने पूछा, “ज्वालामुखी
फटा है क्या?”
कहीं कोई आवाज़ नहीं।
न आँधी की सरसराहट, न पानी की हरहराहट, न ज्वालामुखी
का विस्फोट। एक दुर्गंध, असहनीय दुर्गंध माहौल में फैल गयी। लोग
भागने लगे बदहवास से। छितराये हुए। जैसे चारों ओर से बंद पानी को किसी ने दबा दिया
हो।
“क्या हुआ?”
कोई नहीं बताता। किसी
को बताने की भी फ़ुर्सत नहीं। पूछने वाला भी जवाब जाने बिना ही भागने वालों में शामिल
हो जाता है।
हम दोनों भी भागते
हैं। मगर साथ-साथ नहीं। अलग-अलग।
“अरे भाग। भाग रे, हाथी बउराया
है।”
भागते-भागते ही न जाने
कौन भला मानुस उस पगली से कहता है, जो दिनभर उस कूड़े के ढेर में कुछ ढूँढती
रहती है। कहनेवाला अपनी आवाज़ से बहुत दूर निकल गया है। उसे अपने कहे के असर को भी
जानने की नहीं पड़ी।
पगली हँसती है।
खिलखिला कर हँसती है और ताली पीटती है।
हाथी! हाथी!! बउराया
हाथी!!!
किसी ने भी नहीं देखा
हाथी को। कोई नहीं जानता कि हाथी किधर है। लोग भाग रहे हैं। सिर्फ़ भाग रहे हैं।
सबका रुख़ अपने-अपने घरों की ओर है। कैसे भी करके अपने घर पहुँच जायें। घर जहाँ भी
है,
जैसा
भी है;
सुरक्षा
देता है। और अगर सुरक्षा न भी दे पाता हो, तो कम-से-कम
उसका एहसास तो कराता ही है। ज़िन्दगी में सबसे अज़ीज़ घर ही तो है।
...मगर घर पहुँचना आसान
है क्या?
कितने
ही लोग घर नहीं पहुँच पाते।...मेरा वह दोस्त आज तक नज़र नहीं आया। पूरी कहानी सुने
बिना ही न जाने कहाँ चला गया?...कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया?
o
यह
वही दादी है,
जो
कभी गर्मी के दिनों में हमारी प्याज थी; जिसे हम ज़ेब में लिये
भरी दुपहरी घूमते थे और लू से बचते थे। यह वही दादी है, जो कभी ठंढ
के दिनों में हमारी रजाई थी; जिसे हम सिर से पाँव तक ओढ़ते थे और ठंढ
को ठेंगा दिखाते थे। चिड़चिड़ाई ठंढ जब हमें न पाती, तो दूसरों को
धर दबोचती थी।
घर के हम सभी बच्चे
अपनी माँ के पास नहीं, दादी के पास सोते। ओसारी के उत्तरी छोर पर जो
कोठरी है,
उसी
में। दादी हम बच्चों की मदद से उसमें पुआल पालती। फटे-पुराने कपड़ों को सी कर बनाई
कथरी बिछाती,
जिस
पर हम सभी बच्चे उछल-कूद करते। सिर के बल पल्टी खाते।...हाँ, हम पल्टी मारते नहीं,
खाते हैं। पल्टी खाने में मुझे ख़ूब मज़ा आता।
दादी चिल्लाती, “अरे
मरकिनौने! घाँटी उलट जायेगी।”
न जाने कितनी बार
मेरी घाँटी उलटी है। फिर तो खाने-पीने की कौन कहे, थूक घोंटना
भी मुहाल हो जाता। घाँटी सीधी न करने की धौंस के बावजूद दादी मुझसे ‘आऽ आऽ’ कराती और
अपनी दो अंगुलियाँ बोरसी की राख में डुबो मेरे मुँह में डाल देती। उन अंगुलियों से
वह न जाने क्या करती कि घाँटी सीधी हो जाती। ऐसे में मैं पल्टी कभी न खाने की कसम
खाता,
मगर
कुछ ही दिनों में उसे हजम कर जाता।
उस कोठरी से सटकर ओसारी
में ही कउड़ा लहकता। हम बच्चे अपने हाथ-पैर ख़ूब सेंक कर ही रजाई में घुसते। जिस किसी
का भी ठंढा हाथ अथवा पैर दादी की देह से छुआता, उसे चिकोटी
काटती अथवा एक थप्पड़ लगा रजाई से बाहर कर देती। दादी की बग़ल में सोने के लिए हम
आपस में झगड़ते। छीना-झपटी कर उसके झूलते स्तन को चूसते-चुभलाते।
हँसते-हँसते दादी
पूछती,
“कुछ
मिलता-उलता भी है कि ऐसे ही लड़ते हो?”
दादी की सुनने की
फ़ुर्सत किसे होती?
कभी-कभी ग़ुस्सा भी हो
जाती दादी। मारने का धौंस ही नहीं देती, मार भी देती। ऐसा तब
होता,
जब
कुछ पाने की कोशिश अथवा शरारत में हमारे दाँत उसके स्तन में चुभ जाते।
दादी का थप्पड़ सबसे
ज़्यादा मेरे ही हिस्से आया है।
फिर, दादी की
कहानी चलती। मैं कभी नहीं जान पाया कि दादी की कहानी कब ख़त्म हुई। ख़त्म हुई भी, या नहीं। अभी
भी दादी की कहानी जारी है। सिर्फ़ जारी। सुनने के लिए जगना ज़रूरी है। सोने पर सुनाई
कहाँ देता है?
इसलिए
कहने और सुनने वाले, दोनों का जगना ज़रूरी है। कहीं कहानी ख़त्म न हो
जाये,
शायद
इसी डर से दादी सोती नहीं।
हमारे घर के चारों ओर, गर्मी को छोड़, पूरे साल खेत
लहलहाते। दुआरे का पुआल का मंदिर फागुन तक रहता। उसी मंदिर में हर साल कोई-न-कोई
कुतिया प्रसव करती। मुँदी आँखों वाले छोटे-छोटे पिल्लों के पास कुतिया किसी को
फटकने भी न देती। नागिन बन जाती। जबकि दादी से आँखों-ही-आँखों में न जाने क्या
बतियाती कि दादी उठती, पिल्लों के पास जाती और कुतिया की चूची को
पिल्लों के मुँह में डाल तब तक बैठी रहती, जब तक वे अघा
नहीं जाते।
“नहाना-धोना नहीं है
क्या?
पूजा-पाठ
भी करेंगी,
या
पिल्लों को दूध ही पिलाती रहेंगी?” माँ अथवा मझली चाची पूछतीं।
दादी कान ही न देती।
कई बार तो दादी ने
रुई के फाहों से दूध पिलाकर पिल्लों को जिलाया है।
अकसर रात में, अपने शिकार
की टोह में घूमते सियार-लोमड़ी हमारे दुआरे पर भी उतर आते। न जाने कितनी बार दादी
ने अँखमुँदे पिल्लों को सियार-लोमड़ी के मुँह से छुड़ाया है। उनके जख़्मों को गरम तेल
से छौंका है। मरहम लगाया है। उन्हें चलता-फिरता किया है। फिर भी, कभी-कभी वह
उन्हें बचाने में नाकाम रही है। तब कुछ दिनों तक उसका खाना-पीना हराम हो जाता।
क़िस्से-कहानियाँ या तो भूल जाते, या बेलय हो जाते, या उदासी की
लय में डूब जाते।
ऐसे में, माँ दादी पर ही
कुढ़ती।...कि पिल्ला क्या मरा, धाराधार नदी बहने लगी। बेटे के मरने पर
तो क़तरा भी नहीं बहा।...बहता भी कैसे? अपने ही जो झोंक दिया, हाथी के मुँह
में।...इतना शोक! हाय राम! वह भी पिल्ले के मरने पर? ऐसा तो कहीं
नहीं देखा-सुना। इतना भी नहीं सोचतीं कि बूढ़-पुरनिया को खिलाये बिना कोई कैसे खा
लेगा?
यह
जनम तो बिगड़ा ही। अब परलोकवो थोड़े बिगाड़ना है। खा लो, फिर जितना
शोक करना हो,
करो।
कौन रोकता है?...
और दादी! ख़ुद पर
कुढ़ती।...कि ऐसी दहिजरी नींद क्यों आई? मौत क्यों न आई?...कि सियार
मुझे ही क्यों न उठा ले गया?...कि जिसे बचाना चाहती हूँ, वही छिन
क्यों जाता है?...कि...कि...
फिर तो दादी की आँखों
से नींद ऐसे ग़ायब हो जाती, जैसे अँधेरे में परछार्इं।
बचपन में, मेरे सपने
में अक्सर हाथी आता। मिट्टी के ढूह-सा। नहीं, नहीं; पहाड़-सा।
जिसकी सूँड़ जमीन से घिसटती और दाँत बर्छी की तरह तने होते। मैं भागता, हाथी दौड़ाता।
हाथी दौड़ाता,
मैं
भागता। गिरता...उठता...भागता। हाथी दौड़ाता। हाथी क़रीब...और क़रीब आता जाता। मैं
पूरा ज़ोर लगा देता। फिर भी हम दोनों की दूरी बढ़ती नहीं, कम ही होती
जाती। अब नहीं बचूँगा। ‘अरे, कोई बचाओ...बचाओ’ चिल्लाता।...नहीं, नहीं।
चिल्लाने की कोशिश करता, मगर आवाज़ हलक़ में ही अँटक जाती। हाथी
एकदम्मे क़रीब पहुँच आया है। सूँड़ उठा रहा है...ए...ए...पक्...। एक चीख़ के साथ मेरी
आँख खुल जाती। मेरी घिग्घी बँध जाती। मैं पसीने से नहा उठता। मुझे कँपकँपी छूटने
लगती।
“सपना देखा है क्या रे? डर गया? सपने से कहीं
डरते हैं?”
एक
आवाज़ कानों से टकराती। एक बाँह गिरफ़्त में ले लेती। जिसकी मिठास और गर्मी मेरी
घिग्घी,
पसीने
और कँपकँपी को सोख लेती। दादी होती यह।
दादी मेरी ओर करवट
बदल अपनी बाँह को मेरी तकिया बना, थपकी के ताल पर गुनगुनाती। न जाने कब
मुझे नींद आ जाती।
दादी सीने पर हथेली
रख उतान सोने से बरजती। मैं आज तक नहीं जान पाया कि सपना देखते वक़्त मैं अपनी
हथेली सीने पर रखे उतान सोये होता हूँ, या नहीं। हालाँकि
जानने की बहुत कोशिश की। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं जब भी सोता, उतान नहीं, करवट ही
सोता। वह भी दादी की ओर मुँह करके। फिर भी सपना देखता। और सपने में हाथी आता।
उस दिन मैं रास्ता
नहीं भूला था। किसी तरह बचते-बचाते घर पहुँच आया था। घर में रोहा-रोहट मची
थी।...ओसारी में तार-तार झूलती, मैली-चिकटी एक रजाई पड़ी थी, जिसे
ओढ़ने वाले ने उठने के बाद उसे बटोरा ही न था। ज्यों का त्यों छोड़ दिया था। रजाई की
काफ़ी रुई निकल गयी थी। और जो थोड़ी-बहुत बची थी, वह भी सिकुड़ कर
जगह-जगह गोटकों में बदल गई थी।
मुझे ख़ुश होना चाहिए
था दादी का मरना जान कर। क्योंकि मैं तंग आ चुका था उससे। जब भी होता, आँख-मिचौनी
खेलने लगती। खेलने का भी एक मूड होता है। वक़्त होता है। खिलाड़ी होते हैं। ऐसा थोड़े
है कि जब चाहा,
जिसके
साथ चाहा,
खेल
लिया!...यह तो तब मरेगी, जब कंधा देने को चार इनसान भी नहीं
मिलेंगे। इसको क्या? यह तो मर-मुआ जायेगी। मुसीबत तो हमारे सिर
पड़ेगी न...
वही हुआ, जिसका अँदेशा
था। गाँव में चारों ओर हाहाकार था। रोना-कलपना था। सभी अपने-अपने दुःख में डूबे
थे। मैं किसी को बुला भी नहीं सकता था। क्या पता, दादी अभी
उठ कर बैठ जाये?...और आनेवाले
रोहा-रोहट सुन ख़ुद ही आ जायेंगे। वैसे भी, खेल में जब
एक ही खिलाड़ी हमेशा जीतता है, तो खेल का सारा रोमांच ख़त्म हो जाता
है। दादी ने कभी इसे समझा ही नहीं। उसे तो खेल के भविष्य की भी चिंता नहीं। वह तो हमेशा
अपनी ही शर्तों पर खेलती रही है। अपने ही क़ायदे से। बिना हारे। हारना किसी भी हाल
में उसे गवारा नहीं।...चलो, आज तो हार गई न! रोज़-रोज़ की मुसीबत से
छुटकारा मिला।
दादी को हराने की कोई
कोशिश मैंने भी बाक़ी थोड़े रखी थी। न केवल विरोधी खिलाड़ी से मिला था, बल्कि अपने इन्हीं
हाथों से उसे मदद भी किया था।...मेरी अंगुलियाँ दादी के गले की नाप ले रही थीं।
मैं देख रहा था कि उसका गला मेरी दसों अंगुलियों के घेरे में आता है, या नहीं।
अपनी अंगुलियों को मैं संड़सी बनाना चाहता था, मगर मेरी
अंगुलियाँ न केवल छोटी पड़ गईं, बल्कि ऐंठ भी गईं। उनमें इतनी भी ताक़त
नहीं बची थी कि सीधी हो सकें।
दादी मुस्कुराई थी। केवल
मुस्कुराई। कई दिनों तक मैं उससे नज़र न मिला सका था। आज भी जब कभी उस हादसे की याद
आती है,
तो
मेरी अंगुलियाँ अपने ही गले की ओर बढ़तीं हैं, मगर उस तक
पहुँचने से पहले ही सूखे डंठल की तरह अकड़ जाती हैं।
मैंने दादी को बचाने
की भी कम कोशिश नहीं की है। अनगिन डॉक्टरों को दिखलाया, वह भी बड़े-बड़े डॉक्टरों को।
इलाज करवाया। मगर दादी पर उसका कोई असर नहीं। डॉक्टरों के अनुसार तो उसे कभी का मर
जाना चाहिए था।...कुछ भी तो नॉर्मल नहीं। न ब्लडप्रेशर, न
हेमोग्लोबीन,
न
सुगर। डॉक्टरों ने न जाने क्या-क्या गिना दिया था।...इनकी दवा करना बेकार है। पैसे
फूँकना है। मेडिसिन का कुछ तो रेस्पॉन्स मिलना चाहिए। लाइफ़ का कोई नॉम तो नज़र आना
चाहिए।
देखते-देखते काफ़ी लोग
आ गये थे,
जिनमें
कुछ उतरहिया के भी थे। पूरा माहौल बोझिल और ग़मगीन हो गया था। तिकठी पर लिठाने के
पहले दादी को नहलाना और पूरे जिस्म पर घी का लेप करना बाक़ी था। जैसे ही दुलारी ने
दादी की साड़ी उतारने की कोशिश की, उसने दुलारी की कलाई पकड़ ली।
दुलारी चिल्लाई, “हाय दइया!
दादी तो अभी जिन्दा हैं।”
दुलारी को आज भी दादी
की वह पकड़ याद है। “...लोहा है लोहा, दादी की
अँगुरी।”
जाते-जाते कुछ लोग
ऐसा भी कहते सुने गये...कि बुढ़िया आज की नहीं, पुरानी
नख़रेबाज है।...कि ऐसे थोड़े मरेगी। सबको खा-पी कर हजम कर लेगी, तब मरेगी आराम
से। ...कि भतार खाई। पूत खाई। नाती-परनाती खाई। अब गाँव-गिराँव ही बाक़ी है।
कुछ ऐसे भी थे, जो दादी की
जीवट की दाद देते मिले...न हाड़, न माँस, न दीदा, न कान। बस, चाम ही चाम
झूलता है,
बर्रोहि
की तरह। फिर भी मौत को चढ़ने देने की कौन कहे, अपने पास
फटकने भी नहीं देती। दूर से ही झिटकार देती है।
कुछ लोग भुनभुनाये थे
भी...कि यह भी कोई मरना हुआ? मौत को भी खिलवाड़ बना दिया।
और मेरी हालत! न
पूछिये,
तो
ही बेहतर है।
मैं नहीं चाहता कि
दादी मरे,
मगर
यह भी नहीं चाहता कि मर-मर कर ज़िन्दा रहे। जब वह छटपटाती है, चीख़ती-चिल्लाती
है;
तब
लगता है,
जैसे
कोई ख़ूँ-ख़्वार जानवर उसे नोच-चोथ रहा है। वह उससे लड़ रही है और ख़ुद को कमज़ोर पा
चिल्लाये जा रही है। धीरे-धीरे उसकी आवाज़ ‘गों-गों’ में बदलती
है। छटपटाहट कम होती है। फिर सब कुछ शांत हो जाता है।
हाथी
चारे की टोह में अकसर हमारे गाँव में आते, मगर अँधेरे
में नहीं,
उजाले
में। अकेले नहीं, पिलवान के साथ। छुट्टे नहीं, जंजीर में
बँधे। हाथी हम बच्चों के लिए कुतूहल हुआ करता। जब भी आता, हम दूर खड़े
अचंभे से देखते। और अगर कोई हमें पकड़ कर उसके पास ले जाने की कोशिश करता, तो हम
ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते-रोते। हाथ-पैर मारते। छूट भागने की जी-जान से कोशिश करते।
इसीलिए हम हाथी को छिप कर ही देखते। और गाय-बैल तथा दूसरे जानवर! किल्ले का चक्कर
काटते। ज़ोर लगाकर पगहा खींचते। कूदते। ‘ब्आँ-ब्आँ’ करते। ऐसे
में पिलवान हँसता। भाला कोंच कर हाथी को चिग्घड़वाता। कभी-कभी तो बैल पगहा तुड़ा लेते
और सरपट निकल भागते, हाथी से दूर। उस बैल का मालिक मन ही मन पिलवान
को गरियाता और बैल के पीछे भागता। पिलवान की हँसी मुझे बड़ी डरावनी लगती।
दादी चिल्लाती, “भगाओ
निरबंसिया को। गाँव में पैठने न दो...”
और ख़ुद ही दौड़ पड़ती
हाथी को भगाने। माँ दादी को पकड़ लेती। दादी चिल्लाते-चिल्लाते रोने लगती।
रोते-रोते निढ़ाल हो जाती। जबकि इनसान को भी देख कर ‘भ्ओं-भ्ओं’ करनेवाले
कुत्ते न जाने कहाँ ग़ायब हो जाते कि उनकी परछार्इं भी नहीं दिखती।
और लोग! अपनी घरों की
दीवारों पर उग आये पीपल और बरगद को पिलवान से कटवाते, जिसे हाथी
अपनी मस्ती में चबाता। हमारे यहाँ लोग पीपल और बरगद को ख़ुद नहीं काटते। उनका मानना
है कि पीपल पर महादेव जी रहते हैं। इसीलिए रोज़ सुबह नहाने के बाद उस पर जल चढ़ाते
हैं। उसकी पूजा करते हैं। और सुहागिनें जेठ की अमावस्या को बरगद के तने में सूत
लपेटती हैं। भाँवरें देती हैं, अपना अहिबात सलामत रखने को।
पिलवान को झोली भर
अन्न अथवा पैसे देने के बावजूद लोग पिलवान की ख़ुशामद करते। अगर वह नहीं होता, तो ‘दीवार की
रक्षा कैसे होती?’...पीपल और बरगद की जड़ें बहुत गहरे छितराती हैं।...दीवार
गिरने का मतलब है, घर का गिरना ही न!
...हाथी रखना ऐसे-वैसों
का काम नहीं है। राजा जैसे ‘बड़ अदमी’ ही रख सकते
हैं। ग़लत थोड़े कहा है कि “हाथी बान्हे राजा, घोड़ा बान्हे
ठठेर।”
हाथी
से नाम होता है। दबदबा बनता है। कहते हैं न कि “हाथी घूमे
गाँव-गाँव,
जेकर
हाथी तेकर नाँव।”...राजा लोगों को तो यह भी नहीं पता होता कि उनके
कितने हाथी हैं?
कितने
पिलवान हैं?
किसी-किसी
हाथी पर तो एक पिलवान से काम नहीं चलता। दो-दो रखने पड़ते हैं। ये पिलवान हाथी से
कम ख़ूँ-ख़्वार नहीं होते। कहावत भी है न कि ज़हर ही ज़हर की दवा है।...हाथी को
नहलाना-धुलाना,
खिलाना-पिलाना, घुमाना-फिराना
पिलवान के ही वश का है। राजा लोगों को फ़ुर्सत कहाँ, जो हाथी की चिंता करें।...पिलवान
ही हाथी के चारे का जुगाड़ करता है। हाथी ही उसकी रोज़ी-रोटी है। अच्छा-ख़ासा कमा
लेता है वह भी।...अगर कमाई न हो, तो ऐसा जोख़िम भरा काम कोई क्यों करे?
हाथी से हमारे यहाँ
कोई काम लिया जाता हो, मुझे नहीं पता। मगर हाथी के बिना कोई
द्वारपूजा नहीं देखी। शादी में होने वाली द्वारपूजा के वक़्त लोग कम-से-कम एक हाथी
का बंदोबस्त तो करते ही, जिस पर अपने पूज्य और आदरणीय को ही
बिठाते। लड़की का बाप अथवा दादा वर की पूजा करने से पहले हाथी की पूजा करता। ऐसे
वक़्त गाय-बैल और दूसरे जानवर घारी में न केवल ढुँका दिये जाते, बल्कि मज़बूत पगहे
से बाँध दिये जाते। गाभिन चउवों की तो पहरेदारी भी करते। पिलवान अपने भाले को हाथी
के नाख़ून में हल्का-सा धँसाता। हाथी चिग्घाड़ उठता। इसे गणेशजी का आशीर्वाद माना
जाता।
“अगर बउरा जाता, तो?” मैं सोचता और
घबराता। घबराता और सोचता...बउराता कैसे? अंकुश लिये पिलवान जो
बैठा है। ज़रा-सा भी इधर-उधर होके तो देखे। पिलवान ऐसा सीधा करेगा कि नानी याद आ
जायेगी।...और दादी! किसी कमरे में बंद कर दी जाती। ऐसे शुभ मौक़े पर रोहा-रोहट कौन
कराना चाहेगा?
गाँव
में सारी शादियाँ दादी के बिना ही सम्पन्न होतीं।
दादी का हाथी से
चिढ़ना,
गाँव वालों
और माँ-चाची की तरह मुझे भी न सुहाता।...ठीक है कि एक बार बउरा गया, मगर बउराने
का कारण भी तो देखो। जब जानती हो कि हाथी को केला बहुत पसंद है, तो लगाया ही
क्यों?
और
लगाना ही था,
तो
गाँव-घर से दूर लगाती। आख़िर में गन्ना रोपा ही जाता है। दूर रोपने में थोड़ा नुकसान
होता है,
यही
न। जान तो नहीं जाती।
एक बार तो हाथी पर
बैठा भी। हाँ,
दादी
और माँ को बिन बताये। दादी ने नहीं, माँ ने तो देखा भी। माँ ने अगर दादी को
घर में पूर न दिया होता, तो वह भी देख लेती। क्या पता, उसका चिढ़ना ही
ख़त्म हो जाता।
हमारे गाँव की
रामलीला जब अंतिम साँस ले रही थी, तब हाथी ने ही जिलाया था, भरत-मिलाप करा के।
एक ओर से भरत-शत्रुघ्न की सवारी और दूसरी ओर से राम-लखन-जानकी की। गाँव के सीवान
पर दोनों का मिलन। फिर घर-घर परिक्रमा।
रामलीला में राम बनना
मुझे कभी न गवारा हुआ। हमेशा लक्ष्मण बनना चाहा, मगर हर बार राम
ही बना दिया जाता। साँवला था न, इसीलिए। ऐसे में, मैं अपने
साँवलेपन पर ख़ूब कुढ़ता।...कितनी भी मेहनत से राम बनो, वाह-वाही तो
लक्ष्मण के ही हिस्से आती। कितना मुश्किल होता है ख़ुद को गम्भीर बनाये रखना? वह भी तब, जब स्टेज के
क़रीब बैठे चिलबिले लड़के आपको चिढ़ाते हों। हँसाने की कोशिश करते हों। ग़ुस्सा दिलाते
हों...
भरत-मिलाप में मेरा
सारा मलाल ख़त्म हो गया। मैं राम बना सबसे ऊँचे हाथी पर बैठा था, सिर पर मुकुट
बाँधे,
कंधे
पर धनुष टाँगे और हाथ में बाण लिये। हमारे यहाँ राम की पीठ पर तरकश नहीं लटकता।
राम को कई बाणों की क्या ज़रूरत? उनके लिए तो एक ही बाण काफ़ी है।...शुरू-
शुरू में तो मैं बहुत घबराया। सपने वाला हाथी रह-रहकर ज़ेहन में दौड़ लगाता।
जैसे-जैसे लोग सिर नवाते, टीका लगाते, फूल चढ़ाते; वैसे-वैसे
मेरे चेहरे की रंगत बदलने लगी। जिस्म में एक अजीब किस्म की सरसराहट होने लगी। सिर
तनने लगा। मेरा दाहिना हाथ, जो पहले हाथी की पीठ से बँधी रस्सी को
कस कर पकड़े था,
कब
उठा और पंजे की शक्ल में तन गया, मुझे पता ही न चला।
दादी घर में मूर्छित
हो गई थी। इसका पता तो मुझे घर आने पर चला। मैं सोचता हूँ कि अगर पहले चल जाता, तो क्या मैं
राम का लबादा छोड़ चला आता, जैसे आज दादी के लिए सारा काम छोड़ देता
हूँ?
शायद
नहीं। ऐसा नहीं होता। उस वक़्त तो मैं समदर्शी था। अपने-पराये, सुख-दुःख, ईर्ष्या-द्वेष, मोह-माया से
परे। कौन माँ?
कौन
दादी?
मैं
कहाँ था?
बता
नहीं सकता,
क्योंकि
इसे तो मैं भी नहीं जानता।
o
आज
तो हालत यह हो गई है कि बउराये को देखे बिना, उसकी चिग्घाड़
सुने बिना ही शामिल हो जाता हूँ भागने वालों में। अब तो भागता हूँ, किसी तरह घर
में घुसता हूँ,
सलामत
पहुँच आने की ख़ुशी लिये, मगर वह ख़ुशी टिक नहीं पाती। दादी की
हालत से टूटता हूँ। रिसता हूँ। उस दिन भी मैं भागा ही था, मगर साक्षात्
बउराये हाथी की ओर।
माघ का महीना था। ठंढ
से किकुड़ते आसमान की भी नाक बही जा रही थी, जो पेड़-पौधों
की फुनगियों से होती हुई ज़मीन पर गिर रही थी। ठंढे और गीले अँधेरे में हर चीज़ नहा
उठी थी। अगवारे के अरहर के गाछ आसमान को अपने सिर पर लादे एक ओर लरके जा रहे थे।
हमेशा की तरह हम सभी बच्चे रजाई में दुबके, किकुरी मारे, आँखें मूदे
पड़े थे। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि हम रात को ‘नेवान’ का लज़ीज़ खाना
खाये थे। घर-घर घूम कर बड़े-बूढ़ों से ‘पैलगी’ के एवज में ‘नया रक्खो, पुराना खाओ’ के आशीर्वाद की
भरी तकिया लगाये थे। दादी सोई थी या नहीं, कह नहीं
सकता। वैसे,
अगर
सोई होती,
तो
आहट कैसे सुनती?
और
आहट! किसी भी प्रकार की आहट दादी से बच नहीं सकती।
‘कौन है?’ की हाँक के
साथ दादी कोठरी से निकल ओसारी में आई ही थी कि उसके पाँव कउड़े पर पड़ते-पड़ते बचे।
उसने झट अपने पैर पीछे खींच लिए। आँखों के आगे घुप्प अँधेरा था। दादी अकनने लगी।
सूँघने लगी।...कोई पिल्ला ‘कें-कें’ भी नहीं कर
रहा। और मरी कुतिया! वह तो दिन में भी खर्राटें लेती है और रात में भी। आजकल की
औरतों की तरह हो गई है, जिन्हें अपने बच्चों की भी फ़िकर नहीं
होती। बच्चे खाट से ढिमलायें, बिछौने पर ही टट्टी-पेशाब कर दें, अथवा भूख से
रोयें-चिल्लायें। वे तो खर्राटें ही लेती रहेंगी।...फ़िकर हो भी, तो कैसे? बच्चे ही जब जने
नहीं,
सुन्न
करके पेट चीर कर निकाल लिए जाते हों।
सियार ने तो कहीं पिल्लों
को नहीं...
हाथी अपनी सूँड़ से
ओसारी में कुछ टटोल रहा था। शायद उसे दादी के होने की आहट मिल गई थी। दादी अपने
डंडे में पुआल लपेट कउड़े को दिखा रही थी, जिससे चारों ओर धुआँ
गौंज गया।
हाथी चिग्घाड़ा। कई
चिनगारियाँ उठीं एक साथ। ‘फूऽ खट् धम्’ की आवाज़ के
साथ नरिये-खपड़े ज़मीन से आ लगे। खंभा दरक गया। घर काँपने लगा।
“हाथी! अरे बाप्प रे!
हाथी!...”
दादी की आवाज़ हलक़ में
ही सूख गयी। डंडा हाथ से छूट जले जा रहा था। हाथी चिग्घाड़ते हुए भाग रहा था।
मौक़ा पा कुतिया एक-एक
करके अपने पिल्लों को मुँह में दबाये लिये जा रही थी, किसी
सुरक्षित जगह।
...कहाँ है हाथी?...किधर है हाथी? दादी को तो
हर वक़्त हाथी ही सूझता है।...कहीं दादी ने भी तो सपना नहीं देखा?
किसी नतीजे पर पहुँचने
के पहले ही मैं घसीटकर घर में ढुँकाया जा चुका था। दादी में इतनी ताक़त न जाने कहाँ
से आ गई थी।
पूरा घर सिमट कर गठरी
बन गया था,
अँधेरे
और सीलन और उमस में घुटता वह कछुआ बन गया था, जो अपने सारे
अंगों को अपने में सिकोड़े स्थिर हो जाता है। मैं हाथी को देखना चाहता था। अगर
भरत-मिलाप वाला हुआ, तो उसे समझा लूँगा। इतनी जल्दी थोड़े भूल
जायेगा।...माँ भी तो घबराई हुई है। मैं पूछना चाहता हूँ, मगर उसका
चेहरा देख पूछने की हिम्मत नहीं होती।
मैं चुपके से झरोखे
के पास पहुँच गया और बाहर झाँकने लगा।...अरे बाप रे! हाथी किसी को अपनी सूँड़ में
लपेट उठाकर पटक रहा है। अपने पैर से कुचल रहा है। सूँड़ से पकड़ कर चीर रहा है।
दाँतों में टाँगे दौड़ रहा है। कूद रहा है। नाच रहा है।
मैं भागा दादी की ओर।
दादी तो आँगन में खड़ी
है,
आसमान
की ओर आँखें उठाये। पता नहीं, भगवान से मिन्नत कर रही है, या आँखों में
आसमान समेट रही है। तारे एक-एक कर उसकी आँखों में उतरने लगे हैं, शायद।
अभी-अभी अँधेरे को चीरती एक उल्का उठी है और दूर अँधेरे में कहीं गुम हो गई है।
कोई और वक़्त होता, तो दादी ‘राम-राम’ कहती और
समझाती कि कोई महान आत्मा जा रही है। हमारे न समझने पर बतलाती कि किसी महान इनसान
की मौत हुई है।
मैं आया था दादी से
कहने कि वही क्यों नहीं सूरज को जगाती? पूरा गाँव अपने-अपने
घरों में दुबका कछुआ बन गया है। यह जाने बिना कि घर कछुआ नहीं होता। पूरा-का-पूरा
गाँव अभी भी सो रहा है, ख़ामोशी की रजाई में दुबका। जगाने को तो
मैं भी जगा दूँ सूरज को, मगर डरता हूँ कि कहीं बच्चा समझ नाराज़
हो गया,
तो?...
हमारे गाँव में सूरज
को जगाना पड़ता है। वह अपने आप नहीं जगता।...चिड़ियों की प्रभाती शुरू हो जाती है।
जैसे कह रहीं हो कि उठो, सवेरा हो गया। कब तक चादर ताने पड़े
रहोगे?
देखो, दुनिया कितनी
तरो-ताज़ा और ख़ुशबूदार हो गई है। ...कहीं कुएँ में घड़ा डूब रहा होता है, ‘भरर् भरर्
भड़प्।’
जैसे
कह रहा हो कि ख़ालीपन को भरो। छूँछा तो हवा की छुअन से भी रो देता है।...सानी की
ख़ुशबू माहौल में इस क़दर पसर गई होती है कि खूँटे से पगहा छोड़ने के पहले ही जानवर
नाँद की ओर भागना चाहते हैं। उछलने-कूदने लगते हैं। अगर उनका वश चलता, तो कभी के
नाँद पर पहुँच गये होते।...जरा तो धीरज धरो, भाई।...धीरज!
कब का सवेरा हो गया और तुम धीरज की बात करते हो। काम पर नहीं जाना क्या?...और बछड़े!
खूँटे से बँधे ‘ब्आँ-ब्आँ’ करते हैं।
उनके आगे चारा होता है। खली-खुद्दी होती है, मगर वे उसकी
तरफ़ देखते तक नहीं। उन्हें कोई दूसरी ही लज़ीज़ ख़ुशबू खींचे लिए होती है। मुँह लार
से भरा जा रहा होता है।...कहीं ‘हर-हर गंगे’ के पहाड़े के
साथ सिर पर गगरा उलटा जा रहा होता है।...कहीं अपनी घर वाली पर कोई प्रेम की ज़ुबान
में खीझ रहा होता है।...
आज कोई पीपल पर जल भी
नहीं चढ़ा रहा है। क्या पता, महादेव जी ख़ुश हो अपने बेटे गणेश जी को
रोक ही लेते!
अरे, यह क्या? दादी के हाथ
में उल्का?
वह
तो दूर अँधेरे में कहीं गुम हो गई थी न!
गाँव में आवाज़ अब उठी
है। चीख़ने की। चिल्लाने की। रोने की। तड़पने की। बीच-बीच में उठती हाथी की चिग्घाड़
हृदय की धड़कन को सुन्न कर देती है। कुत्ते भूँक नहीं, रो रहे हैं।
उतरहिया की ओर से
कुत्तों के बेशाख़्ता भूँकने की आवाज़ आ रही है। शायद वे चौकन्ने हो गये हैं।
दादी अपने हाथ की
उल्का के साथ दुआरे की ओर दौड़ी।
“अरे, पकड़। पकड़ रे
दादी को। हथिया चीर डालेगा।” चिल्लाती हुई माँ दौड़ी।
माँ ने किससे कहा था? मुझी से न!
मैं भी दौड़ा। दादी अभी दुआरे तक पहुँची ही थी कि गिर पड़ी एक चीख़ के साथ। उल्का हाथ
से छूट दूर जा गिरी। सामने ख़ून में सनी कुतिया और पिल्ला ज़मीन पर कालिख़ की तरह पड़े
थे। न जाने कैसे लुक्कारा मेरे हाथ में आ गया और मैं दखिनहिया की ओर दौड़ पड़ा। माँ
के चिल्लाने की आवाज़ कानों में ज़रूर आई थी, मगर क्या
कह कर चिल्लाई थी, नहीं पता।
मैं चला था हाथी
भगाने, परंतु ठीक वैसे ही भागा, जैसे सपने में भागता था। हाथी मेरे
लुक्कारे को देख चिग्घाड़ा था और मेरी ओर दौड़ा था। अचानक दादी कौंधी और मैंने अपने
हाथ के लुक्कारे को पुआल के मंदिर में फेंक दिया। हाथी ऐसे भागा कि फिर नहीं दिखा।
फिर भी लगता था कि हाथी सब जगह था। गिरे हुए ख़ून में सने हुए घरों पर उसके पैरों
की छाप फटे लिफ़ाफ़े पर लगी मुहर की तरह नज़र आ रही थी। कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं सिर, कहीं पेट
बिखरे पड़े थे। लगता था कि हाथी ने गाँव को अपनी सूँड़ में लपेट कर पहले ख़ूब घसीटा, फिर आसमानी
चक्करदार झूला झुलाया और ज़ोर से पटक दिया। फिर दाँतों से ख़ूब कुरेदा। सूँड़ से
चीर कर,
नोंच-नोंच कर
खाया। जी भर कर पीया...
...चीख़ते-चीख़ते गाँव
बेआवाज़ हो गया,
फिर
से। कराह भी नहीं रहा।...कहीं मर तो नहीं गया?...इतने पर भी
कोई बचा है,
भला?
सूरज अपनी आँखें मलते
हुए अब उठा है। पता नहीं, अभी भी उसकी नींद पूरी हुई, या नहीं।
कुत्ते ज़रूर भूँकने लगे हैं उतरहिया की ओर मुँह किये। जैसे हाथी उधर से ही आया
हो।...
गिद्ध-चील और कौओं से
ज़मीन-आसमान पटे पड़े हैं। चिड़ियाँ कहीं दिखी नहीं रहीं।...कहाँ गईं सारी चिड़ियाँ?...
o
हाथी! हाथी!! हाथी!!!
सभी त्रस्त हैं हाथी
से।...कितनी मुश्किल से तो दुधारू चउवे पेन्हाये हैं। दूध दुहने वाला अपने दोनों
घुटनों के बीच बाल्टी दबाये दूध निकाल रहा है। पिलवान होने पर भी हाथी चिग्घाड़ता
है। चउवे भड़कते हैं। कूदने-फाँदने लगते हैं। दूध दुहता आदमी चउवों की लात से एक ओर
ढिमलाता है और दूसरी ओर दूध ज़मीन पर पसर जाता है। दुहने वाला अपनी खिसियाहट चउवों
पर उतारता है।...सड़क पर आता हाथी देख लोग किनारे के खड्ड में छिप जाते हैं।...आये
दिन फ़सल ख़त्म होती जाती है। पिलवान जिधर चाहता है, हाथी को ले
जाता है। हाथी जो चाहता है, खाता है। जिधर चाहता है, राह बना लेता
है।...गाँव में खण्डहर और झाड़-झंखाड़ ही बढ़ रहे हैं। बाबू साहब के लोग उसे आबाद कर
रहे हैं।
ऐसा भी नहीं है कि
लोगों ने हाथी से बचाव की कोशिश नहीं की। ये जो जगह-जगह गड्ढे दिख रहे हैं न! हाथी
को फँसाने के लिए ही बनाये गये हैं। मगर आज तक इनमें एक भी हाथी नहीं गिरा। गिरे
तो बूढ़े और बच्चे और दादी।
गाँव के लोग जानते
हैं कि जब हाथी बउरा जाता है, पिलवानों के क़ाबू में नहीं रहता, तो बाबू साहब
उसे मरवा देते हैं। और जतन से दफ़नवा देते हैं। कहा है न कि ‘जिंदा हाथी
एक लाख का,
मरे
पर सवा लाख का।’
फिर
भी हाथी कम नहीं हो रहे, बढ़ते ही जा रहे हैं। जहाँ देखिये वहाँ हाथियों के पैरों
के निशान मौजूद हैं।
हाथी तो हाथी है।
पिलवान को भी कोई नहीं बोलता।...क्या पता कब लहकार दे? सो, उसको ख़ुश
रखने में ही भलाई भी है और समझदारी भी।...हाथी से कहीं कोई पार पाया है?...
कितना कोई नज़र रखे
दादी पर?
उसके
अलावा भी तो दूसरे ज़रूरी काम हैं। मौक़ा पाते ही टघरते-टघरते पहुँच जायेगी खण्डहरों
और झाड़-झंखाड़ों के बीच। गड्ढों के पास। झाड़-झंखाड़ों को साफ़ करने लगेगी और अचेत हो
ढिमला जायेगी। गड्ढों में मिट्टी गिराते-गिराते ख़ुद ही गिर जायेगी। फिर निकालो।
लाओ टाँग कर। मैं ही नहीं, गाँव भी परेशान है दादी से।
कुछ लोग उतरहिया की
ओर जाने का मन बना चुके हैं। आये दिन उधर से उठने वाली चीत्कार के बावजूद।
अभी भी लोग हाथी और
पिलवान की मदद से पीपल और बरगद से घर की रक्षा कर रहे हैं। दीवारों को गिरने से
बचा रहे हैं। द्वारपूजा में हाथी को चिग्घड़वा रहे हैं। उसकी पूजा कर रहे हैं।
भरत-मिलाप का जुलूस निकल रहा है। रामलीला समिति मज़बूत होती जा रही है।...लोग भले-भोले
और समझदार होते जा रहे हैं। और दादी चीख़ती जा रही है। चिल्लाती जा रही है। छटपटाती
जा रही है। “...न आने दो
गाँव में। मार डालो...” की आवाज़ ‘गों-गों’ में बदलती जा
रही है। कभी-कभार इक्के-दुक्के कुत्ते भूँकते ज़रूर हैं, मगर उतरहिया
की ओर मुँह करके। बच्चे दादी के पास आते हैं, मगर अपने
घरवालों से छिप कर।
मेरी बाँसुरी आपको सुहाई
नहीं न। तो फिर क्या करूँ?...मदद कीजिये। अब नहीं रहा जाता। ऐसा
कीजिए कि दादी से ही निज़ात दिला दीजिए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
o
सम्पर्क-
मोबाईल- 09427072772
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
मोबाईल- 09427072772
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
सुन्दर रचना ......
मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा है |
http://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://kahaniyadilse.blogspot.in/
dil ko chhu gayi ye kahani,dhanyavad apko esi kahani yha post karne ke liye .apka bahut abhari hun.aise hi post karte rahiye pls.
जवाब देंहटाएंVisit Vivahsanyog