सोनी पाण्डेय की कविताएँ
सावन भादों साल के ऐसे महीने हैं जब
धरती और आसमान बारिस की बूंदों से एकमेक हो जाते हैं। चारो तरफ की धरती हरियाली के
अपनत्व से सज जाती है। ऐसे में इस अद्भुत प्राकृतिक परिदृश्य से कवि मन भला कैसे
अछूता रह सकता है। सोनी पाण्डेय ने भी इस मौसम पर कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं
में हरियाली की एक लय है। यह वह लय है जो जीवन की संभावनाओं को एक जिद की तरह अपने
में सहेज लेता है। आज सोनी पाण्डेय का जन्मदिन भी है। सोनी को जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नयी कविताएँ। तो आइए पढ़ते हैं सोनी पाण्डेय की ये कविताएँ।
सोनी
पाण्डेय की कविताएँ
सुनो,
सावन कहता है भादो पुकारता है
सुनोँ
सावन कहता है धरती की तपन देख कर समुद्र से
कि अब तुम वाष्प हो जाओ
और बन जाओ बादल कि विरहन धरती पुकारती है।
समुद्र, हो जाता है वाष्प
समेट कर अपना विराट अस्तित्व
सुनोँ
सावन कहता है धरती की तपन देख कर समुद्र से
कि अब तुम वाष्प हो जाओ
और बन जाओ बादल कि विरहन धरती पुकारती है।
समुद्र, हो जाता है वाष्प
समेट कर अपना विराट अस्तित्व
और उमड़ - घुमड़ मेघ बन आता है धरती से मिलने
बूँदे छनक - छनक पायल की ताल पर नाचती है छम-छम।
सुनो!
जब घिरते हैँ सावन के मेघ
भादोँ पुकारता है. कि अभी ठहरना
शेष है धरती का यौवन।
जब बादल गातेँ हैँ मेघ मलहार
मेरा मन मयूर हुआ जाता है
और बाँध लेता है तुम्हारे प्रेम का पायल पैरोँ मेँ
नाचता है छमक छम ।
सुनो !
मैँ चाहती हूँ तुम भी सुनो
सावन की पुकार
और बार - बार बन कर कजरारे मेघ आया करो
मैँ सजा लुँगीँ आँखोँ मेँ।
मैँ चाहती हूँ
छोड़ कर तुम भी पौरुष का दंभ
बूँदे छनक - छनक पायल की ताल पर नाचती है छम-छम।
सुनो!
जब घिरते हैँ सावन के मेघ
भादोँ पुकारता है. कि अभी ठहरना
शेष है धरती का यौवन।
जब बादल गातेँ हैँ मेघ मलहार
मेरा मन मयूर हुआ जाता है
और बाँध लेता है तुम्हारे प्रेम का पायल पैरोँ मेँ
नाचता है छमक छम ।
सुनो !
मैँ चाहती हूँ तुम भी सुनो
सावन की पुकार
और बार - बार बन कर कजरारे मेघ आया करो
मैँ सजा लुँगीँ आँखोँ मेँ।
मैँ चाहती हूँ
छोड़ कर तुम भी पौरुष का दंभ
समेट कर अपना
विराट अस्तित्व लौटा करो बस एक बार
बनकर नेह के बादल
सुन कर सावन का कहन . भादोँ की पुकार
सिर्फ मेरे लिए सावन मेँ।
बनकर नेह के बादल
सुन कर सावन का कहन . भादोँ की पुकार
सिर्फ मेरे लिए सावन मेँ।
जब भी
उमड़ते हैँ मेघ . . . .
तुम याद आते हो जी भर
भर - भर कर आँखोँ मेँ नेह जल जब भी उमड़ते हैँ मेघ ।
जब भी बहती है पुरवा पवन
तुम याद आते हो बनकर
सावन का मधुर गान
जीवन की बगिया मेँ
बनकर कोयल की मधुर तान ।
जब भी उमड़ते हैँ मेघ
मैँ छत की मुंडेर पर
अपलक निहारती हूँ आज भी
कि
टंका है आज भी वहीँ कहीँ
बसन्त का पतंग
जिस पर लिखा था तुमने पहला वह प्रेम - पत्र ।
मैँ चाहती हूँ ये बादल बार बार उमड़े मेर आँगन से तुम्हारे देश तक
तुम याद आते हो जी भर
भर - भर कर आँखोँ मेँ नेह जल जब भी उमड़ते हैँ मेघ ।
जब भी बहती है पुरवा पवन
तुम याद आते हो बनकर
सावन का मधुर गान
जीवन की बगिया मेँ
बनकर कोयल की मधुर तान ।
जब भी उमड़ते हैँ मेघ
मैँ छत की मुंडेर पर
अपलक निहारती हूँ आज भी
कि
टंका है आज भी वहीँ कहीँ
बसन्त का पतंग
जिस पर लिखा था तुमने पहला वह प्रेम - पत्र ।
मैँ चाहती हूँ ये बादल बार बार उमड़े मेर आँगन से तुम्हारे देश तक
कि
शेष है मन मेँ आज भी
पहला वह प्रेम- पत्र ।
मैँ चाहती थी लिखना प्रेम - पत्र
मैँ जानती हूँ
तुम्हेँ आज भी प्रतीक्षा है
उत्तर की
कि . क्या था मेरे मन मेँ तुम्हारे लिए
और तुम जोहते हो बाट सावन के उमड़ - घुमड़ बादलोँ का
जिसे देख कर लिखूँ मैँ तुम्हेँ पहला प्रिय प्रेम - पत्र ।
तुम जानते थे यह भी कि मुझे निभानी थी देहरी की शर्त
बचाना था पिता का बचा हुआ मान
माँ के आँचल का सम्मान
राखी की बुनियाद
इस लिए प्रेम के कच्चे धागे मेँ मैँ ने गुँथ दिया रिश्तोँ के मनको की माला
नहीँ लिखा प्रेम - पत्र
उठा कर सिर नहीँ देखा कभी तुम्हारी आँखोँ मेँ
क्योँ कि
मैँ जानती थी पढ लोगे मेरी आँखोँ मेँ लिखा . अलिखित तुम
पहला वह प्रेम - पत्र ।
शेष है मन मेँ आज भी
पहला वह प्रेम- पत्र ।
मैँ चाहती थी लिखना प्रेम - पत्र
मैँ जानती हूँ
तुम्हेँ आज भी प्रतीक्षा है
उत्तर की
कि . क्या था मेरे मन मेँ तुम्हारे लिए
और तुम जोहते हो बाट सावन के उमड़ - घुमड़ बादलोँ का
जिसे देख कर लिखूँ मैँ तुम्हेँ पहला प्रिय प्रेम - पत्र ।
तुम जानते थे यह भी कि मुझे निभानी थी देहरी की शर्त
बचाना था पिता का बचा हुआ मान
माँ के आँचल का सम्मान
राखी की बुनियाद
इस लिए प्रेम के कच्चे धागे मेँ मैँ ने गुँथ दिया रिश्तोँ के मनको की माला
नहीँ लिखा प्रेम - पत्र
उठा कर सिर नहीँ देखा कभी तुम्हारी आँखोँ मेँ
क्योँ कि
मैँ जानती थी पढ लोगे मेरी आँखोँ मेँ लिखा . अलिखित तुम
पहला वह प्रेम - पत्र ।
मैँने बदल दिया सावन में प्रेम का अर्थ . . . .
मैँने बदल दिया
सावन में
प्रेम का अर्थ
प्रेम मेरी रसोईँ में
भूख का भूगोल है
प्रेम मेरे आँगन में
रोपे गये गमलोँ में
उगे पौधोँ मेँ जीवन का
आक्सीजन है
प्रेम मेरे छत पर
बिखरे हुए अन्न के दानोँ को
चुगते हुए पक्षियोँ की तृप्त
काया मेँ छुपा हुआ जीवन है
सुनो!
मैँ तलाश लेती हूँ
हर कोने मेँ धरती के
प्रेम की तड़प
और बदलती हूँ अर्थ बार -बार
प्रेम का
तुम्हारे लिए।
सावन में
प्रेम का अर्थ
प्रेम मेरी रसोईँ में
भूख का भूगोल है
प्रेम मेरे आँगन में
रोपे गये गमलोँ में
उगे पौधोँ मेँ जीवन का
आक्सीजन है
प्रेम मेरे छत पर
बिखरे हुए अन्न के दानोँ को
चुगते हुए पक्षियोँ की तृप्त
काया मेँ छुपा हुआ जीवन है
सुनो!
मैँ तलाश लेती हूँ
हर कोने मेँ धरती के
प्रेम की तड़प
और बदलती हूँ अर्थ बार -बार
प्रेम का
तुम्हारे लिए।
सम्पर्क-
ई-मेल : pandeysoni.azh@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
सुन्दर ...... वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
जवाब देंहटाएंउत्तम भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति
सोनी पाण्डेय की कविताएँ अब अपनी बनक ले रही हैं ।इन कविताओं की मुहावरेदारी भी काफ़ी चकित करती है ।शिल्प और लय भी मौजूद है ।मुझे ये कविताएँ पसंद आई हैं ।
जवाब देंहटाएंnice poem
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