हरेप्रकाश उपाध्याय के उपन्यास 'बखेड़ापुर' पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा
हरेप्रकाश उपाध्याय एक सुपरिचित कवि हैं। 'खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ' हरेप्रकाश का चर्चित संग्रह है। हाल ही में इनका एक नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है - 'बखेड़ापुर'।यह उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ है। युवा आलोचक उमाशंकर परमार ने इस उपन्यास की एक समीक्षा की है। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा।
बखेड़ापुर - द्वन्द का व्यंग्यपूर्ण स्थापत्य
उमाशंकर सिंह परमार
हरेप्रकाश उपाध्याय हमारे
समय के जागरूक कवि एवं कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। “बखेडापुर”
ज्ञानपीठ प्रकाशन से वर्ष २०१४ में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास है। इस उपन्यास ने
अपनी व्यंग्य परकता और विलक्षण भाषिक संरचना के कारण बहुत ही कम समय में अपनी एवं
अपने लेखक की पहचान स्थापित कर दी है। उपन्यासकार ने
कथानक को जिस अंदाज़ में प्रस्तुत किया है वह कोई नई बात नहीं पर तमाम अवांतर कथाओं
को समेटते हुए किसी गावं के चरित्र को उभारना व उसी गांव को “नायक” के रूप में
स्थापित कर देना किसी कला से कम नहीं है। यह लक्षण
आंचलिक उपन्यासों में पाया जाता है, रेणु के मैला आँचल का “मेरीगंज” इसी प्रकार का
नायक है। श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का “शिवपालगंज” भी इसी प्रकार का नायक है। इन दोनों
उपन्यासों में मूर्त रूप से कोई भी पात्र नायक बनाने की योग्यता नहीं रखता है बल्कि
सारे पात्र अपने गांव के चरित्र व व्यक्तित्व निर्माण में सहायक बनकर रह जाते हैं। साथी
हरेप्रकाश का बखेडापुर भी इसी तरह के नायक का प्रतिनिधित्व करता है। उपन्यास में प्रयुक्त कथानक, चरित्र, व्यक्तित्व, सबका
आमेलन अंतत: “बखेडापुर” में ही हो जाता है।
हरेप्रकाश ने इस
उपन्यास में हिन्दुस्तानी गांवों की मूल नब्ज़ को पकड़ा है। आज़ादी के बाद
से अब तक गांवों के विकास के जितने दावे सरकारी आंकड़ों में किये गए हैं, जितना
पैसा पानी की तरह बहाया गया है, जमीनी स्तर पर इन दावों की सच्चाई और दम तोडती
सरकारी योजनाओं की हकीकत का पूरा खुलासा कर दिया है। इस तथ्य की
खोज के लिए लेखक ने सीधे तौर पर किसी कारण को उत्तरदायी नहीं ठहराया न ही वो ज़ाहिर
तौर पर अपनी टिप्पणी में कोई संकेत करते हैं। उन्होंने कथा
का ताना-बाना ऐसा बुना है कि सारे कारण पाठक के जेहन में उतर जाते हैं। उपन्यास का
मूल कथ्य “वर्गीय-द्वन्द” के “जातीय-द्वन्द” में बदलने की गाथा है। इस परिवर्तन
में मूल में लेखक ने सामंतवाद, अंधविश्वास और पारस्परिक स्वार्थपरकता में को खोजा
है। सही भी है ये तीनो कारण हमारे समाजों में “यथास्थिति-वादी”
जड़ता के लिए उत्तरदायी हैं। इस जड़ता को यदि कोई तोड़ सकता है तो वह है आधुनिकता। और आधुनिकता
की संकल्पना तभी हो सकती है जब “शिक्षा” का व्यापक प्रसार हो। लेकिन
“बखेडापुर” की शिक्षा-व्यवस्था को “समाज का सामंती ढांचे” और “स्वार्थ-परकता” ने
इस कदर तबाह कर दिया है कि बखेडापुर में शिक्षा के मायने ही बदल गए हैं। यहाँ शिक्षा
का एक मात्र उद्देश्य है आवारा लड़कों के विवाह में पर्याप्त दहेज़ ऐंठ लेना और
शिक्षक अपने निजी घरेलू कामों की अपेक्षा शिक्षण को हीनतर कार्य मानता है। शिक्षा के लिए किये गए तमाम सरकारी प्रयास जमीनी स्तर में
कितने निरीह हो जाते है लेखक ने इसे बखूबी दिखाने का प्रयास किया है। बखेडापुर के
पंचमा मास्टर, हेड सर, संगीता मैडम हर हिन्दुस्तानी स्कूल में देखे जा सकते हैं।
बखेडापुर “सामंती”
उत्पीडन और शोषण को जीवंत करने वाला एक उम्दा प्रलेख है। व्यंग्य और
भाषाई रंगीनियत के आवरण में लेखक ने गरीबी और जलालत की दर्दनाक गाथा लिख दी है। यह गाथा केवल
“बखेडापुर” की ही नहीं है अपितु असमान वितरण एवं जातीय संघर्षों से त्रस्त
सम्पूर्ण भारतीय गावों की है। आदर्शवादी आवरण में छिपे चरित्रों का खतरनाक पतन है। विश्वास के
सहारे कामुकता का अभिजनवादी नंगा नाच है। लेखक की
प्रतिबद्धता को उपन्यास के इस बिंदु में खोजा जा सकता है। उपन्यास में
जितने भी अभिजात्य पात्र आये हैं लेखक किसी प्रति भी संवेदनशील नहीं है। “संगीता मैडम” के प्रति भी नहीं क्योंकि वह भी अंतत:
सामंतवादी राजनेताओं के हाथ में कठपुतली बन जाती है। लेखक की संवेदना खुले तौर पर रूप चौधरी और परवतिया के साथ
है। ये दोनों सामंती परिवेश के प्रतिरोध में खड़े हैं जागरूक हैं,
वर्ग चेतन हैं। परवतिया की वर्ग चेतना जातीय उत्पीडन की कोख से पैदा हुई है
तो रूप चौधरी की चेतना सामाजिक ताने-बाने की अनिवार्य बुनावट है। रूप चौधरी और
परवतिया का विवाह संपन्न कर के लेखक ने “जड़तावादी” समाजों में टूट रहीं रूढ़िवादी
मायताओं के आलोक में जातीय टूटन का सकारात्मक सन्देश दिया है। भुअरा की मौत इस उपन्यास में एक बड़ी घटना है, भुअरा का दोष
इतना है कि वह नीची जाति का है, गरीब है। गरीबी का कारण
भी समाज का सामंतवादी ढांचा है। बखेडापुर में भुअरा की
मौत केवल भुअरा की मौत नहीं है वह बहुआयामी घटना है। सम्पूर्ण
व्यवस्था की मौत है, मनुष्यता की मौत है, संवेदना की मौत है, भुअरा की मौत के साथ
ही सत्ता और व्यवस्था में काबिज़ बुर्जुवा वर्ग की स्वार्थपरकता और जातीय नफरतों का
काला चिटठा खुल जाता है। जिस व्यवस्था के सरंक्षण हेतु “ग्राम स्वराज” जैसी अवधारणाओं को “राम-राज़”
जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है उस व्यवस्था का खूनी चेहरा भुअरा की मौत के साथ ही
पाठक को कारुणिक संवेदनायुक्त आक्रोश से भर देता है। बीमार पिता की
रक्षा के लिए परवतिया द्वारा देवनारायण की चिरौरी व देवानारण द्वारा बार-बार
धकियाया जाना सामंतवादी मनोवृत्ति का घिनौना स्वरूप दिखा देता है, परवतिया का यह
कथन कि “बचा लीजिये ए डगडर चाचा ......आप ही भगवान् हैं ए डगडर चाचा। जान बचा
लीजिये बाबू के। बाबू बिना हम लोग कईसे जियेंगे, कईसे उबार होगा हो डगडर चाचा” यह कथन पूरी
उपन्यास की वस्तु को व्यवस्थाजन्य कारुणिक त्रासदी की और ले जाता है। भुअरा की कथा से आरम्भ व्यवस्था के विरुद्ध वर्ग-चेतन
संघर्ष, जातीय संघर्षों में तब्दील होने लगता है जिसकी परिणिति खूनी-खेलो से
निकलकर अंतत: लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीति में होती है। सैद्धांतिक
रूप से “लोकतंत्र” जनता का जनता के लिए समझा जाता है लेकिन जब यही लोकतंत्र
व्यवहार की जमीन में उतरता है तो मुट्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन कर रह जाता
है। चुनावी राजनीति में वही लोग सफल होते हैं जिनके हाथ में
शक्ति है, धन है, तिकड़म है।
साधनविहीन आम जनता के लिए
“चुनाव” महज़ एक छलावा बन कर रह जाता है। बखेडापुर की
राजनीति का खाका लेखक ने कुछ ऐसा ही खींचा है। रूप चौधरी के
विरुद्ध संगीता मैडम उच्च जाती के लोगों की प्रतिनिधि बनकर उतरती हैं, फिर क्या
शराब, मुर्गा, जातिवाद, धमकी, धनबल, बाहुबल, बूथ कैप्चरिंग, सारे के सारे
अलोकतांत्रिक साधनों के द्वारा अंतत: वही लोग जीतते हैं जिनके विरुद्ध सचेतन वर्ग
संघर्ष की शुरुआत हुई थी।
हरेप्रकाश उपाध्याय |
बखेडापुर का कथानक
जड़तावादी सामन्ती ग्रामीण परिवेश का पूरा साक्षात्कार करा देता है जनकल्याण एवं एक
अभियान के रूप में शुरू की गयीं योजनाओं
का हस्र जमीनी स्तर पर क्या होता है लेखक ने इस तथ्य को तार्किक ढंग से अंजाम दिया
है। परिवार नियोजन की असफलता एवं इसके पीछे छिपे कारणों की खोज में लेखक मूल तह
तक पहुँच गया है। समस्त सामाजिक विसंगतियों, आदतों के परिप्रेक्ष्य में यदि
बखेडापुर को देखा जाय तो वह भारतीय गांवों का बिम्ब बन जाता है। हर एक गांव
बखेडापुर है, हर एक स्कूल में हेड सर जौर पंचमा मास्टर हैं, हर गांव में लोटन बहू
है, यही जातीय संघर्ष, यही चुनाव, यही चारित्रिक पतन, यही सामन्ती ढांचा हर एक
गांव का मिलेगा। यह उपन्यास अशिक्षा, अन्धविश्वास, जातीयता जैसे सामन्ती
बीमारियों के बीच जकडे हुए भारतीय गांवों में वर्गीय-द्वन्द का मुकम्मल खाका
खींचता है।
बखेडापुर के माध्यम से
लेखक ने पूरे देश की सामाजिक व राजनीतिक स्थिति का मूल्यांकन किया है। इस मूल्यांकन में मुख्य औजार है व्यंग्य और भाषाई भंगिमा। यहाँ व्यंग्य
हँसाने के लिए नहीं आया अपितु पीड़ा महसूस कराने के लिए आया है। यह व्यंग्य एक प्रश्नचिन्ह भी उठाता है कि देश ने आज़ादी के
बाद कौन सी उपलब्धि हासिल की है? क्या मूल्यहीनता और वर्गीय वर्चस्ववाद ही हमारी
उपलब्धियां हैं? बखेडापुर का व्यंग्य भले ही पाठक को हँसा दे लेकिन वह सामाजिक
मूल्यहीनता और संवेदनाओं में भयंकर गिरावट को ही ध्वनित करता है। संगीता मैडम के लिए “बुलेरो” शब्द का प्रयोग परिहास बोधक
है पर हमारे समाज की मनोवृत्ति को ही दिखाता है। ऐसे गंभीर वाक्य बखेडापुर में कई जगह आये हैं। जैसे पचमा मास्साब
के विचार ही देखिये। व्यंग्य के सहारे लेखक ने “लालच” का विवेचन व दहेज़ की संभावनाएं खोज डाली हैं। “भगवान् बेटा दिए हैं तो आँख का अंधा और गाँठ का भरपूर। कहीं समधी भी पैदा कियें होंगें।” “आजकल तो फ्री में कोई हगता भी नहीं है”। कहीं-कहीं तो व्यवस्था
के उत्तरदायी पक्ष की मूर्खताओं को दिखाने के लिए भी हरेप्रकाश ने व्यंग्य का
सहारा लिया है। संगीता मैडम कमर में पेन (दर्द) की शिकायत करती है तो पचमा मास्साब की समझ
देखिये। “जी कमर में पेन लाने की क्या जरूरत है एक लेडीज पर्स रखिये।” जाहिर है ये व्यंग्य बेमतलब नहीं है इसका एक खास मकसद है
और वह है भारतीय गावों का कटु एवं यथार्थ सच दिखाना। व्यंग्य का
इतना सार्थक प्रयोग मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा है। राग दरबारी
में भी व्यंग्य है पर राग दरबारी का व्यंग्य मात्रा में इतना अधिक हो गया है कि वह
लेखकीय सन्देश का भी खंडन करने लगता है। बखेड़ापुर में व्यंग्य को लेखक ने अपने उद्देश्य पूर्ति का हथियार बनाया
है। बेशक यह हथियार काफी तीखा और प्रभावी सिद्ध हुआ है। व्यंग्य यहाँ
दोधारी तलवार की तरह आया है एक और तो वह वर्गीय वर्चस्ववाद का पूरा खाका खींच देता
है तो दूसरी और वह सामाजिक एवं जातीय विसंगतियों में करारा प्रहार करता है। हरेप्रकाश की
दृष्टि पैनी है इसी दृष्टि के कारण वो व्यंग्य सामाजिक अंतर्विरोधों से जोड़ पाते
हैं। व्यंग्य की भीतरी तहों में बह रही मानवीयता की कारुणिक नदी
लेखक को समकालीन सरोकारों से जोड़ कर कृति को मनुष्यता की उदात्त जमीन पर खड़ा कर
देती है।
कोई भी उपन्यासकार हो
भाषा के सहारे ही अपने विज़न को मूर्त रूप देता है। उपन्यास की
भाषा विषय, और शिल्प, तीनो में सामंजस्य होना आवश्यक है। यदि तीनो में
अंतर्विरोध है तो मैं उसे श्रेष्ठ कथाकार नहीं मानता और न ही वह कृति पाठक को
आकर्षित कर सकती है। यदि कथ्य के अनुसार भाषा में भी घात-प्रतिघात उत्पन्न करना
है तो चारित्रिक एवं शैल्पिक विविधता के अनुसार भाषा को भी विविधतापूर्ण होना
चाहिए। इस अवस्था में भाषा निरंतर बदलावों की मांग करती है। यह बदलाव दो
प्रकार से कार्य करता है, पहला एकरसता टूटती है तो दूसरा अनेकरंगी कथानक में
यथार्थ का पूर्ण अंकन करने में सहायता मिलती है। बखेडापुर की
भाषा इसी टेक्निक के सहारे कथ्य को गतिशील बनाती है। लेखक कथावस्तु
से गुजरते हुए पाठक को भाषाई गतिशीलता से जोड़ देता है और खुद दूर हट कर नेपथ्य में
चला जाता है। इस अवस्था में भाषा ही पाठक को गतिशील रखती है और पाठक के साथ औपन्यासिक
चरित्रों का पूर्ण संवाद कराती है। बखेड़ापुर की सबसे बड़ी
खासियत है की लोकजीवन के की भाषा का सृजनात्मक प्रयोग जितना हो सकता था लेखक ने
किया है। कई ऐसे स्थल आते हैं जहाँ पाठक सीधे पात्रों की अंतरचेतना
में पैठ बना लेता है और पात्रो का पारस्परिक संवाद पाठकीय संवाद बन जाता है। देखिये एक संवाद, कितनी सजीवता है, स्वाभाविकता है, अपनापन
है, ”अभिए से चाप के रखिएगा, तो मिरमिरा जाएँगे” इस वाक्य में ग्रामीण अनभिज्ञता और
सह्ज़ता को भाषा के सहारे सफलतापूर्वक व्यंग से जोड़ा गया है। ऐसे उदहारण
बखेडापुर में कई स्थलों में आये हैं। इस रूप के
अलावा एक दूसरा रूप भी है जहाँ पात्र की भाषा ही अपना रंग दिखाती है और भाषा स्वयम
पाठक के साथ संवाद स्थापित कर लेती है। “अरे दूर तोहनियो सब न रोज़ एके बतिया करता है।” यह उदहारण बता रहा है कि किस प्रकार का पात्र इस भाषा का
प्रयोग कर रहा है। भाषा के सहारे चरित्रों को उभारने की कला बहुत कम लेखकों
में पाई जाती है। यही कहलाता है भाषा का सृजनात्मक प्रयोग। मुझे ये कहने
में कोई संकोच नहीं कि लेखक इसमें सिद्धहस्त है।
व्यंग्य के द्वारा
द्वन्द का सफल विवेचन हिंदी के लिए एक नयी पद्धति है। बखेडापुर में
व्यंग्य के सहारे परिवेश की जटिलताओं और विद्यमान वर्गीय-द्वंदों का भयावह यथार्थ
सामने लाया गया है। इस उपन्यास को मात्र “विवेचन” न समझा जाय अपितु यह धसकती
मनुष्यता के बीच मानवीय मूल्यों की खोज का सार्थक प्रयास है। बखेडापुर पाठक के जेहन में मानवता के प्रति पीड़ा उत्पन्न
करता है। यही इसकी सफलता है। रागदरबारी ने
यदि व्यंग्य को शिल्प के मुकाम तक पहुँचाया है तो बखेडापुर व्यंग्य के रचनात्मक
प्रयोग की पराकाष्ठा है। सही मायनों में बखेडापुर द्वन्द का व्यंग्यपूर्ण स्थापत्य है।
उमाशंकर सिंह परमार जनवादी लेखक संघ बाँदा के जिला सचिव हैं और इन दिनों आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने में जुटे हुए हैं।
सम्पर्क-
मोबाईल - 09838610776
बहुत सटीक समीक्षा की आपने
जवाब देंहटाएंहमने पढा तो नहीं है ,पर इसके बारे सुना बहुत है
शुभ कामनायें #Hrekishan