मालचंद तिवाड़ी की ‘बोरून्दा डायरी’ पर संजीव कुमार की समीक्षा
विजयदान देथा |
कानपुर से निकलने वाली पत्रिका 'अकार' का अभी-अभी एक महत्वपूर्ण अंक आया है. यह अंक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें वर्ष की उम्दा पुस्तकों की समीक्षा महत्वपूर्ण रचनाकारों द्वारा की गयी है. इस अंक के अतिथि सम्पादक युवा कहानीकार एवं आलोचक राकेश बिहारी हैं. इस अंक में मालचंद तिवाड़ी की 'बोरुन्दा डायरी' की समीक्षा की है युवा आलोचक संजीव कुमार ने. महान भारतीय कथाकार विजयदान देथा ने अपने 14 खण्डों में प्रकाशित कथा-संसार
‘बातां री फुलवाड़ी’ के हिन्दी अनुवाद का काम मालचंद तिवाड़ी को सौंपा था. तय हुआ था कि ‘बातों की बगिया’ के नाम से मालचंद जी इन खण्डों का
अनुवाद बिज्जी के पास उनके गाँव बोरून्दा में ही रहकर करेंगे. सितम्बर 2012 से
बोरून्दा में अपना ठिकाना बना कर उन्होंने यह काम शुरू किया. यह डायरी उसी बोरून्दा प्रवास
का तिथिवार ललित संस्मरण है. तो आइए पढ़ते हैं संजीव कुमार की यह समीक्षा.
पोतड़ों
में ही बिगड़ चुके मालचंद की डायरी
संजीव
कुमार
साहित्यिक
विधा के रूप में डायरी एक जीती-जागती दुविधा है. अपने इस अवतार में वह सार्वजनिक
होने के लिए, यानी दूसरों के पढ़ने के लिए लिखी जाती है, जबकि असल में डायरी का
डायरीपन उस निश्चिंत-निस्संकोच लेखकीय मिज़ाज और व्यवहार में है जो लेखन के
सार्वजनिक न होने के ख़याल से पैदा होता है. यह ख़याल, कि वह स्मृतियों के संरक्षण और
निजी उपभोग के लिए है या फिर किसी और काल में दूसरों के हाथ लगनेवाले कालपात्र का
दर्जा हासिल करने के लिए, डायरी में कई ऐसी बातों को दर्ज करा देता है जो अन्यथा/अन्यत्र
नहीं कही जा सकतीं. निश्चित रूप से, साहित्यिक विधा के रूप में डायरी को बरतने
वाला लेखक भी इस अन्तरंग गुण को बचाए रखने की भरसक फ़िक्र करता है, क्योंकि वह
जानता है कि डायरीपन दरअसल यही है, पर यह भी सच है कि साहित्यिक विधा के रूप में
किया गया लेखन निजी ‘रिकॉर्ड’ के लिए किये जानेवाले लेखन के चरित्र को हू-ब-हू
नहीं अपना सकता. यह ऐसा हम्माम है जिसकी दीवारें शीशे की हैं. आप सिर्फ इस
सैद्धांतिक समझ के आधार पर नंगे नहीं हो सकते कि आप हम्माम में हैं.
और
अगर पारदर्शी दीवारों के बावजूद नंगे होने का दुस्साहस किसी में हो तो सिर्फ़
हम्माम ही क्यों… !
मालचंद
तिवाड़ी की ‘बोरून्दा डायरी’ भी एक साहित्यिक डायरी है. कोई हैरत नहीं कि यहाँ
डायरी के उक्त अन्तरंग गुण की कुछ झलकें तो हैं, लेकिन मुकम्मल तौर पर उसे ढूँढने
चलें तो निराशा हाथ लगेगी. कहना चाहिए कि यह डायरी के ‘फॉर्म’ में लिखा गया
संस्मरण है. इसे तिथिवार संस्मरण मानकर ही पढ़ा जाए तो पूरा संतोष होगा. फिर आप मालचंद
तिवाड़ी के ललित गद्य तथा मार्मिक अवलोकनों की सराहना भी कर पायेंगे. शायद यही एक
साहित्यिक डायरी, या प्रकाशन के लिए लिखी गयी किसी भी डायरी, को पढ़ने का सही तरीक़ा
भी है.
‘बोरून्दा
डायरी’ का उपशीर्षक है, ‘अप्रतिम बिज्जी का विदा-गीत’. बिज्जी के नाम से विख्यात
महान भारतीय कथाकार विजयदान देथा का निधन 10 नवम्बर 2013 को हुआ. उससे तकरीबन सवा
साल पहले बिज्जी ने मालचंद तिवाड़ी को बुलाकर 14 खण्डों में प्रकाशित अपने कथा-संसार
‘बातां री फुलवाड़ी’ के हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा था. इस समय तक बिज्जी की
शारीरिक सक्रियता बहुत कम हो चुकी थी और एक कमरे में ही उनका जीवन सिमट चुका था,
जैसा कि किताब की भूमिका से पता चलता है: “वर्ष 2012 में नोबेल पुरस्कार के लिए
नामित होकर विश्व नागरिक बन चुके इस भारतीय कथाकार को एक कमरे में परिमित जीवन
बिताते देखना उनके अनेक चाहने वालों की तरह हमारे लिए भी दुखद था.” बहरहाल, उस
मुलाक़ात में तय हुआ था कि ‘बातों की बगिया’ के नाम से मालचंद जी इन खण्डों का
अनुवाद बिज्जी के पास उनके गाँव बोरून्दा में ही रहकर करेंगे. सितम्बर 2012 से
बोरून्दा में अपना ठिकाना बना कर उन्होंने काम शुरू किया. यह डायरी उसी बोरून्दा प्रवास
का तिथिवार ललित संस्मरण है. लेकिन लेखन की शुरुआत सितम्बर 2012 में नहीं हुई.
शुरुआत हुई जनवरी 2013 में, जब दोस्तों ने किसी अवसर पर लेखक को ‘एक बड़े आकार की
खूबसूरत डायरी... भेंट की’. 11 जनवरी की रात बिना किसी दूरगामी योजना के डायरी का
पहला इन्दराज़ लिखा गया. तब से लेकर 10 नवम्बर तक, बोरून्दा से बाहर रहने वाले
दिनों को छोड़ कर, इन्दराज़ का सिलसिला जारी रहा. 10 नबम्बर ही वह दिन था जब बिज्जी
का अंतिम संस्कार हुआ. डायरी के आख़िरी शब्द हैं, ‘अलविदा बिज्जी!’
पता
नहीं, किसी और भाषा में ऐसी कोई किताब है या नहीं जो एक बहुत बड़े साहित्यिक
व्यक्तित्व के आख़िरी दिनों का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करती हो, कम-से-कम हिन्दी
में तो, इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) की जानकारी में, ऐसी कोई किताब नहीं है. इस
लिहाज से ‘बोरून्दा डायरी’ अपनी परिकल्पना में ही एक अनोखी पुस्तक है. पर अनोखापन
इस परिकल्पना तक ही नहीं, इसमें भी है कि यह
इतने आत्मीय और संवेदनशील स्तर पर आपको बिज्जी के आख़िरी दिनों का सहयात्री बनाती
है कि पढ़कर ख़त्म करने के बाद आप स्वयं को आश्चर्यजनक रूप से अनुभव-समृद्ध पाते
हैं. अगर यह सहयात्रा सिर्फ़ रोज़मर्रा की स्वास्थ्य-सूचनाओं और रोचक-अरोचक घटनाओं
की रिपोर्टिंग तक सीमित होती तो यह समृद्धि संभव न थी. उसे संभव किया है एक ऐसे
समर्थ लेखक के ‘वेंटेज पॉइंट’ ने जो बिज्जी के साथ अपने गहरे सम्बन्ध और अनुवाद की
अपनी तात्कालिक व्यस्तता/तल्लीनता के कारण इस पूरे दौर में बिज्जीमय है. वह न
सिर्फ़ बिज्जी के व्यक्तित्व को बाहर-भीतर जानता है और उनकी छोटी-से-छोटी हरकत को
भी अनायास सन्दर्भ देने की क्षमता रखता है, बल्कि रात-दिन 14 खण्डों में फैले उनके
कथा-संसार का अनुवाद करते हुए वह बिज्जी की इस दुनिया को नयी गहराइयों तक जाकर
पहचान भी रहा है. गोया यह डायरी भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह की निकटता के बीच
लिखी गयी है. इसीलिए यह बिज्जी के अंतिम दिनों को देखने की वह जगह मुहैया करा पाती
है जो अपने-आप में दुर्लभ है; जिसे मुहैया कराना ऐसे किसी व्यक्ति के लिए संभव ही
नहीं था जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को इस गहराई तक न जानता रहा हो और उससे भी
आगे, अनुवाद रूपी पुनस्सृजन-कर्म में डूब कर लेखक की आत्मा के साथ निरंतर संवादरत न
हो – वह आत्मा जो कृतित्व में ही मुखर होती है. 25 फरवरी के इन्दराज़ में तीसरे
राजकुमार की कहानी के अनुवाद का ज़िक्र करते हुए मालचंद जी ने बड़ी बात कही है:
“अब यह कौन समझे कि बिज्जी ही मछुआरे हैं और
बिज्जी ही राजकुमार! अपनी कहानियों के नायक-खलनायक ही नहीं, स्त्री, पुरुष, शेर,
सियार, लोमड़ी, गीदड़, हंस, राजव्यास, कुटनियाँ, दूतियाँ, खरगोश, गिलहरी, राजा,
द्वारपाल, ज्योतिष और विदूषक – सब के सब बिज्जी ही तो हैं – सर्वव्यापक,
सर्वात्मा, सृजनहार उनके. गीता का श्लोक है न:
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोअनन्तरूपम.
नान्तं
न मध्यम न पुनास्त्वादिम पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप.
हे विश्वरूप! आपको मैं अनेक हाथों, पैरों,
मुखों, नेत्रों वाला सब ओर से अनंत रूपों वाला देख रहा हूँ. मैं आपके न आदि को, न
मध्य को और न अंत को देख रहा हूँ. बिज्जी नामक सर्जनास्वरूप शक्तिमत्ता को नमन!”
रचनाकार
अपनी बनाई दुनिया के कण-कण में व्यापता है और जो व्यक्ति अनुवाद-तन्मयता में उस
दुनिया के हर कण की महत्ता को निरख-परख रहा हो, उससे बेहतर उस रचनाकार को कौन जान
सकता है! गरज़ कि इस ‘विदा-गीत’ की गुणवत्ता के पीछे एक दुर्लभ संयोग का बल है. संयोग
यह नहीं कि अनुवाद के बहाने बिज्जी के जीवन के अंतिम वर्ष में भौतिक रूप से उनके निकट
रहने का अवसर मिला, संयोग यह कि इस अंतिम वर्ष में प्रतिदिन घंटे-दो घंटे उनके साथ
गुज़ारने के अलावा उनके कथा-संसार के कण-कण को खंगालते हुए हर घड़ी उनकी सूक्ष्म
काया का भी संग-साथ रहा. भूमिका में मालचंद जी ने जिस वरदान का उल्लेख किया है,
उसे इसी अर्थ में समझा जाना चाहिए, भले ही स्वयं मालचंद जी का बलाघात, संभवतः, इससे
भिन्न हो. लिखते हैं: “फुलवाडियों’ के अनुवाद की यह निर्विकल्प समाधि अंगीकार करने
के सिवाय मेरे पास चारा ही क्या था! लेकिन यह बेचारगी अपनी परिणति में मेरे लिए
कैसा वरदान साबित हुई, इसे केवल ‘बोरून्दा डायरी’ पढ़ कर ही जाना-समझा जा सकता है.’
व्यक्ति
और रचनाकार, दोनों रूपों में बिज्जी पर लेखक की गहरी पकड़ ने डायरी में उन्हें
जीवंत कर दिया है. एक चरम व्यस्त और सघन रचनात्मक जीवन जीने के बाद अपने कमरे में
सिमटे बिज्जी का बुढापा अपने हर उतार-चढ़ाव के साथ यहाँ दिखता है. आप धीरे-धीरे मौन
होते जाते बिज्जी को देखकर उदास भी होते हैं और अचानक उस मौन के बीच से उनका
स्वाभाविक परिहास फूटता देख खिल भी पड़ते हैं. कहीं उम्र की लाचारी और थकान के बीच
उनकी छलछलाई आँखें दिखती हैं तो कहीं चेहरे पर और शब्दों में उमगती बालसुलभ शरारत.
पूरी किताब गोया आपको लहरों पर उछलती चलती है. ऊपर, नीचे, फिर ऊपर, फिर नीचे.... और
इसके साथ-साथ बिज्जी के कथा-संसार का ऐसा परिचय जो आलोचना की औपचारिकताओं से अछूता
रहकर भी किसी अच्छी आलोचना से कमतर नहीं है. 4 अगस्त की प्रविष्टि की शुरुआत इस
बारीक अवलोकन के साथ होती है: “किसी आधुनिक लेखक और विजयदान देथा के बीच बुनियादी
और शायद इसीलिए एकमात्र अंतर यही है कि मेरे मित्र, जाति से राईका और पेशे से
महेंद्र बाबू के भृत्य, श्री निम्बोराम्जी जो प्रवाहमान वाणी मुख से उच्चारित कर
सकते हैं, उसे उसके आभिप्रायिक आलोक के साथ कागज़ पर उतारने के सामर्थ्य वाले
मौजूदा दौर के वे कदाचित एकमात्र भारतीय लेखक हैं. मैं उनके सर्वहारा किस्म के
चरित्रों की भाषा और संवाद पढता हूँ तो एकमात्र लेखक जो मुझे बारम्बार याद आता है,
वे हैं – फणीश्वरनाथ ‘रेणु’. वे अपने नाम तक को अपने ही चरित्रों के मुंह से
‘रिणुवा’ कहलवाकर जो मज़ा लेते हैं, वह अब हिंदी में और ख़ासकर, राजस्स्थानी में भी
केवल बिज्जी के पाठों में ही शेष बचा है.” विजयदान देथा के साहित्यिक वैशिष्ट्य को
बातों-बातों में रेखांकित कर देनेवाले ऐसे अंश किताब में बिखरे पड़े हैं.
‘ऊँध-करमी’ कहानी का ‘उलटपंथी’ शीर्षक से अनुवाद करने की चर्चा करते हुए मालचंद
लिखते हैं: “इसमें एक पति नितांत अचेतन स्तर पर अपनी पत्नी की हत्या करता है और इस
कहानी का अंतिम वाक्य है – ‘सब धोखा देते हैं, पर आंसू सपने में भी धोखा नहीं
देते; दो आंसू टपककर तालाब के पानी में घुल गए.’ मनुष्य के व्यक्तित्व के विभाजन,
आत्म-प्रवंचना, सूक्ष्म स्वार्थवृत्ति, उसके औदात्य, प्रेम, वंचित होने की पीड़ा
आदि के चेतनागत विविध पक्षों का ऐसा सूक्ष्म अंकन इस छोटी सी कहानी में है कि मुझे
फ्रांज काफ्का याद आये.” एक जगह वे ‘आठ राजकंवर’ के अंत में आये एक सांकेतिक बिम्ब
को उद्धृत करते हैं और उस पर टिप्पणी: “ज़रा गौर कीजिये, साठ के आस-पास लिखी इस
कहानी पर, जब ग्रीन-हाउस इफेक्ट नामक मानवीय चिंता से कोई परिचित तक नहीं था,
देखते-ही-देखते आंधी के आसन पर बैठ कर बादल पृथ्वी से दूर चले गए और हमारी सभ्यता
हाथ मालती रह गयी. ये हैं बिज्जी!” 1 अक्टूबर की प्रविष्टि में ‘अबोलौ ग्यान’
कहानी के बारे में लेखक की टिप्पणी है: “कहानी भारतीय जाति-व्यवस्था और जातिवाद पर
भगवान् की बेआवाज़ लाठी की तरह इतना मूक प्रहार करती है कि देखते ही बनता है.” इसी
तरह एक जगह बिज्जी की ‘परिहास-परिसमृद्ध’ कहानियों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि “दो-एक
संग्रह तैयार हो सकते हैं बिज्जी के इस हास्यमेव जयते के.”
लेकिन
ऐसा भी नहीं है कि बिज्जी की दीवानगी में गलत-सही तारीफों के ही पुल बांधे गए हों.
कई जगह दुहराव और उबाऊपन की भी पुरजोर शिकायतें हैं. ‘आस्था’, ‘पागी’ आदि कहानियों
की बात करते हुए वे कहते हैं: “ये कहानियां अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं, अत्यधिक
सरलीकृत. मात्र संख्यावर्धक.” ‘आठ राजकंवर’ के बारे में, “शुरुआत में इसमें काफी
दोहराव और असहनीय इतिवृत्तात्मकता है. पात्रों का मनोवैज्ञानिक आधार भी काफी कमज़ोर
है. बिज्जी के लिखे किसी टेक्स्ट का हिंदी अनुवाद करते हुए इतनी उकताहट और बोरियत
नहीं हुई...”. ‘गृहस्थी का आश्रम’ के बारे में, “इतना उबाऊ और आवृत्तिमूलक पाठ कि
यकीन नहीं होता कि इसी पाठ की ज़मीन पर बिज्जी का परवर्ती लेखक खड़ा हो सका.”
यह
सहृदयता और ईमानदारी ‘बोरून्दा डायरी’ में आद्यंत है. कोई चिन्हित किया जाने योग्य
साहस न भी दिखे तो कम-से-कम इस ईमानदारी में उस अपेक्षित डायरीपन की झलक पायी जा
सकती है जिसका लेख की शुरुआत में ज़िक्र किया गया था.
यह
ईमानदारी डायरीकार ने अपने निजी प्रसंगों में भी बनाए रखी है. ध्यान रखें कि यह
बोरून्दा प्रवास की डायरी है, सिर्फ बिज्जी के संग-साथ का रोजनामचा नहीं.
स्वाभाविक रूप से यहाँ जिस अनुपात में बिज्जी मिलते हैं, उसी या उससे थोड़े अधिक
अनुपात में स्वयं मालचंद जी की निजी ज़िंदगी भी दर्ज है. इस ज़िंदगी को लेकर लेखक
में कुछ हद तक अपराध-बोध से भरी एक सराहनीय ईमानदारी है. वह अपनी आदतों,
लापरवाहियों, अपने असफल अभिभावकत्व, पारिवारिक मोर्चे की नाकामियों इत्यादि से
जुड़ी बातें डायरी में दर्ज करते हुए कहीं भी अपना बचाव करता नहीं लगता. अपनी चरम
धार्मिकता और भाग्यफल-विश्वासी स्वभाव का भी वह निस्संकोच प्रदर्शन करता है, जो आज
के किसी बौद्धिक के लिए सामान्यतः सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य तथ्य नहीं है. आज का
कौन लेखक स्वीकार करेगा कि वह अखबार में सुबह-सुबह अपना साप्ताहिक भाग्य-फल देखता
है! कौन यह स्वीकार करेगा कि “अपने कमरे में मैं रोज़ शाम दीया-बाती करता हूँ.
‘रामचरितमानस’ और ‘गीता’ की एक-एक प्रति रख छोडी है, उन्हीं के इर्द-गिर्द
धूप-बत्ती रख देता हूँ. थोड़ा-सा बुदबुदाकर माँ श्यामा से प्रार्थना कर लेता हूँ.” वह
अपनी हर छोटी-बड़ी उपलब्धि को पूरी गंभीरता और पर्याप्त ब्योरों के साथ करनी माता
आदि का आशीर्वाद बताता है और जगह-जगह भाग्यफलादि पर भरोसा तथा ‘माँ-माँ का अहर्निश
जाप’ करते रहने की उत्कंठा व्यक्त करता है. उसकी यह आस्तिकता कहीं-कहीं अखरती भी
है; लगता है कि वह दकियानूस और वर्चस्वशाली विचारधारा से पोषण पाते शक्ति-संबंधों
को अपने पाठक के लिए प्रश्नातीत बनाए दे रहा है! निश्चित रूप से चली आती व्यवस्था
के पक्ष में समाज को अनुकूलित करने/किये रखने और दमनकारी संरचना को ‘प्राकृतिक’ का
दर्जा देने में ऐसे मासूम पाठों की भी भूमिका होती है.... पर – और यह बात इपंले
खुद को समझाने के लिए लिख रहा है – अव्वल तो पाठों की ऐसी भूमिका मुखर धार्मिकता
जैसे स्थूल उपादानों पर ही निर्भर नहीं होती, उस भूमिका की बात करें तो दूर तलक
जाना होगा, फिर बेचारी धार्मिकता को ही बलि का बकरा बनाकर काम पूरा कर लेने की
खुशफ़हमी क्यों पाली जाए; दोयम, आस्तिकता के ये प्रसंग डायरी लेखन में अपेक्षित
ईमानदारी को दर्शाते हैं और डायरी की विधा को देखते हुए इस ईमानदारी का अवमूल्यन
तो कम-से-कम नहीं ही किया जा सकता. मालचंद जी जहां भी अपनी सघन आस्तिकता का परिचय
देते हैं, बात एकदम मन की भीतरी तहों से निकलती लगती है, जैसे कलम ने यह चिंता ताक़
पर रख दी हो कि लोग इसे पढेंगे भी. उनका धर्म सचमुच ‘ग़रीब की आह’ और ‘हृदयहीन
संसार का हृदय’ जान पड़ता है (सन्दर्भ: मार्क्स की प्रसिद्ध ‘जनता का अफ़ीम’ वाली
उक्ति).
यह
भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि ‘बोरून्दा डायरी’ में व्यक्त यह मुखर धार्मिकता
कहीं से भी साम्प्रदायिक और संकीर्ण नहीं है. वह आद्यंत उदार मानवीयता के अंगी भाव
में समाहित है. इसीलिए गीता और रामचरितमानस के प्रति जैसी श्रद्धा व्यक्त हुई है,
वैसी ही क़ुरान के प्रति भी. एक पूरी प्रविष्टि (ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत) याकूब भाई की
क्लिनिक में जाकर उनकी तीन ख़ास चीज़ों के दर्शन करने पर है जिनमें से पहली चीज़ है,
औरंगजेब के हाथ की लिखी क़ुरान. इस क़ुरान के दर्शन का वर्णन खुद लेखक के मुंह से
सुनिए:
“बकौल याकूब भाई, यह प्रति बादशाह औरंगज़ेब के
हाथ की लिखी हुई है. हिन्दुस्तान के इतिहास से वाकिफ़ हर शख्स यह बात जानता है कि
हिन्दुस्तान में एक बादशाह ऐसा भी हुआ है जो अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए हाथ से
लिखकर क़ुरान की प्रतियां तैयार किया करता था. बड़े आकार की इस अरबी हस्तलिखित किताब
को छूते ही मैं पवित्रता की भावना से अभिभूत-सा हुआ और मैंने इसे सिर से लगाकर
खोला.”
लेखक
याकूब भाई के बेटे सुहैल से उसके कुछ अंश पढ़वा कर सुनता भी है. फिर उठते समय सुहैल
से कहता है, “तुम अरबी पढ़ तो लेते हो, लेकिन लगता है, क़ुरान की तिलावत बराबर नहीं
करते.... अटक-अटक कर नहीं, प्रैक्टिस के बाद इसको अपने लैंग्वेज की रिद्म में सही
तलफ्फुज़ के साथ पढोगे, तभी इसकी रूह की रोशनी तुम पर खुलने लगेगी.”
मालचंद
जी अगर ‘गीता’ को धूप-बत्ती दिखाते हैं तो साथ ही, ग़ालिब के ‘दीवान’ के साथ उसकी
तुलना करने का विवेक भी रखते हैं. ऐसी तुलना पर, ‘गीता’ को राष्ट्रीय ग्रन्थ का
दर्जा दिलाने की बात करनेवाले धर्म के ठेकेदारों की निगाह पड़ जाए तो त्रिशूल निकल
पड़ेंगे:
“कितनी बुरी बात है कि यहाँ, बोरून्दा में
मेरे पास ‘गीता’ तो है, पर ग़ालिब का ‘दीवान’ नहीं. दोनों किताबें एक ही काम करती
हैं, मनुष्य को निस्संग, केवल अपने स्व के साथ रहना सिखाती हैं. एक अपनी
गुरु-गंभीर और बौद्धिक शैली में, तो दूसरी अपने बेहतरीन पुरलुत्फ खिलंदड़ी अंदाज़
में. पर कॉमन चीज़ एक – दोनों को पढ़-पढ़कर मेरा स्व पिघलता है – बहने को... बह पड़ने
को आतुर हो आता है.”
कहना
चाहिए कि मालचंद जी में जितना भक्ति-भाव है, उतना ही विवेक और सहृदयता भी. सामान्यतः
धूप-बत्ती दिखानेवाले भक्ति-भाव के साथ इन चीज़ों का ताल-मेल नहीं बैठता. पर मालचंद
तो, बिज्जी के शब्दों में, ‘पोतड़ों में ही बिगड़ चुके थे’! और चिराचरित से भिन्न
सामंजस्य की तलाश करना बिगड़े होने का सबसे बड़ा लक्षण ठहरा!
बिगड़े
होने के लक्षण मालचंद तिवाड़ी के गद्य में भी पूरी ठसक के साथ मौजूद हैं. हिंदी-उर्दू
की विराट शब्द-संपदा का मनमाफ़िक इस्तेमाल करने की उनकी सहजता देखते बनती है. वे
खेल कर सकते हैं, करते हैं. इसीलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी और मनोहर श्याम जोशी
जैसे बड़े गद्यकारों की झलक उनके यहाँ पर्याप्त मुखर है. खूब रम कर-जम कर की हुई
अच्छी पढाई और बेहतरीन याददाश्त ने उनके गद्य को निखार दिया है. ग़ालिब, फैज़, अकबर
इलाहाबादी, गीता, मानस – ये सब उनके यहाँ बड़ी सहजता से आते-जाते हैं, और इसके लिए
लेखक को किताबें खोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती, जो कि वैसे भी बोरून्दा प्रवास में उसे
उपलब्ध नहीं थीं. खुद लेखक के ऐसा कहने पर भरोसा न भी हो तो उद्धरणों में
कहीं-कहीं छोटी-मोटी गलतियों की पहचान कर यह भरोसा हो जाता है. यह बात गलतियों की
ओर ध्यान खींचने के लिए नहीं कही जा रही, क्योंकि वे वैसे भी बड़ी नहीं हैं.
अलबत्ता, इपंले को इससे थोड़ी शिकायत ज़रूर हुई कि जोशी जी के प्रशंसक होकर मालचंद
ये कैसे भूल गए कि पहुंचेली ‘कसप’ की नहीं, ‘कुरु कुरु स्वाहा’ की नायिका है!
‘बोरून्दा
डायरी : अप्रतिम बिज्जी का विदा-गीत’ / लेखक : मालचंद तिवाड़ी / प्रकाशक : राजकमल
प्रकाशन, नयी दिल्ली / वर्ष : 2014 /
पृष्ठ : १६० / कीमत : 150 रु. (पतली ज़िल्द)
संजीव कुमार |
सम्पर्क-
मोबाईल- 09818577833
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