प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'फ्रेम'
प्रज्ञा रोहिणी |
शिक्षा- दिल्ली
विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच.डी।
जन्म - 28 अप्रैल 1971
प्रकाशित किताबें
‘नुक्कड़ नाटक:
रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़
नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा ‘तारा की अलवर
यात्रा’। सामाजिक सरोकारों को उजागर करती पुस्तक ‘आईने के सामने’ स्वराज
प्रकाशन से प्रकाशित।
कहानी-लेखन
कथादेश, वागर्थ, परिकथा, पाखी, वर्तमान साहित्य, हिंदी चेतना, जनसत्ता, बनासजन, पक्षधर, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
पुरस्कार - सूचना
और प्रकाशन विभाग,
भारत सरकार की ओर
से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चन्द्र
पुरस्कार।
जनसंचार माध्यमों
में भागीदारी
जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, नयी दुनिया जैसे
राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
संचार माध्यमों से
बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमो के लिए लेखन
और भागीदारी।
नाटक संबंधी
कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
हमारे समाज में स्त्री आज भी तमाम बन्धनों के जंजीरों से बंधी हुई है। जीवन के किसी भी मोड़ पर जैसे उसका बस ही नहीं। प्रेम जैसी उत्कृष्टतम मानवीय अनुभूति भी उसके लिए तब बेमानी हो जाती है जब वह जाति-धर्म-क्षेत्र की संकीर्ताओं को तोड़ने का प्रयास करती है। प्रज्ञा रोहिनी ने इसी कथानक को 'फ्रेम' के ताने-बाने में बुना-गढ़ा है। तो आइए पढ़ते हैं प्रज्ञा रोहिणी की यह कहानी।
फ्रेम
प्रज्ञा रोहिणी
“आज शाम पांच बजे आई. एन. ए.... दिल्ली हाट”
“ओ.के.”
“ठीक पांच”
“ओ.के.”
रावी और जतिन के
बीच दिन भर में न जाने कितने मैसेजेस का आदान-प्रदान होता रहता है। कहने को दोनों
एक ही जगह काम करते हैं पर कितने जोड़ी आंखें और कितने जोड़ी कान उन्हीं की तरफ लगे
रहते हैं। जैसे ही दोनों के हाथ फोन पर जाते हैं कितने होंठों पर मुस्कुराहट तैरने
लगती है। चाहे खट्टी हो या मीठी। एक ही ऑफिस के अलग हिस्सों में बैठे रावी-जतिन
जानते हैं कि वो लोगों के मनोरंजन का बेहतरीन साधन हैं। एक लाइव, मजे़दार टाइम पास। उनके इर्द-गिर्द घूमते लोग पियून से लेकर
वाइस प्रिंसीपल तक सभी को इस किस्से में गहरी दिलचस्पी है। ऊपर से खुद को निस्पृह
दिखाने वाले भी आंख-कान खुले रखते हैं। और रूमाल से नाक को पोंछ-पांछ कर उसके
सूंघने की क्षमता पर आंच नहीं आने देते। झूठी और गढ़ी हुई कोई भी बात इन दोनों के
नाम से खूब चलती है पूरे स्कूल में। नॉन टीचिंग ही नहीं टीचिंग स्टाफ भी उनके
चेहरे पढ़ कर कहानियां रचने का एक्सपर्ट हो रहा है। रावी-जतिन दोनों से ये तमाम
हरकतें छिपी नहीं हैं। पर सावधानी हटी दुर्घटना घटी की तर्ज पर दोनों अतिरिक्त रूप
से सावधन ही रहते हैं। दोनों के लिए हर पल एक आफत की तरह गुजरता है। बैठने-उठने, बोलने-बतियाने में हर तरफ नजरों का कड़ा पहरा उनको साफ दिखाई
देता है। जतिन तो बार-बार कहता है- “दो दिल मिल रहे हैं मगर चुपके-चुपके...” और रावी का जवाब हर
बार उसे सावधान करते हुए यही होता है- “सबको हो रही है
खबर चुपके-चुपके।“
सप्ताह में दो-तीन
बार रावी बहाने बना कर जतिन से मिलने में कामयाब हो ही जाती है। यों तो रोज़ ही
जतिन की आंखों से मिली तारीफ पाने के चक्कर में रावी तैयार हो कर आती है पर जिस
दिन दोनों के घूमने का प्लान होता है उस दिन तो रावी से नज़र ही नहीं हटती। कपड़े और
बालों के अंदाज से ही नहीं उसके बोलने-चालने के अंदाज़ से ही सबको शक हो जाता है कि
आज तो कोई खास बात है। जतिन के साथ समय बिताने की कल्पना से ही वह दिन भर अपने में
मगन-सी रहती है। दिमाग में लगातार एक लिस्ट बनाती रहती है जरूरी बातों की जो आज
जतिन से हर हाल में करनी ही हैं। वैसे तो मोबाइल से हर तरह की सहूलियत है पर हाथों
में हाथ और आमने-सामने की बात का मजा ही और है। उस दिन तो कोई कुछ पूछे पहली बार
में रावी को समझ ही नहीं आता फिर चौंक कर कहती है “क्या कहा दोबारा
कहिए?” लोग कोहनी मार कर आंखों में एक-दूसरे से कहते हैं- “हां भई दिमाग तो जतिन
में लगा रखा है हमारी बातें क्या खाक समझ में आएंगी।“ जतिन अपने आप को संयत रखने
का ढोंग बखूबी निभा लेता है पर रावी अपना पार्ट निभाने में अक्सर चूक जाती है।
कहने को जतिन स्कूल का यूडीसी है और रावी उसके मातहत तीन एलडीसी में से एक। इसलिए
मिलने -मिलाने के अवसर कम नहीं हैं पर ये मिलना भी कोई मिलना है? स्कूल से ही अगर घूमने का कार्यक्रम बनता है तो दोनों ,लोगों की आंखों में धूल झौंकते हुए रोज़ की तरह अपने अपने
रास्तों की ओर निकलते हैं और फिर तय किए प्वांइट पर मिल कर रावी जतिन की बाइक पर
सवार हो जाती है। रावी हेलमेट लगाना कभी नहीं भूलती। कई बार जतिन से कहती है--
“या तो गाड़ी खरीद लो नहीं तो एक बुर्का।“
और जतिन यही जबाब
देता- “गाड़ी तो आ ही जाएगी और कुछ दिन बाद बुर्केवाली घर ही आ जाएगी।“
नये ज़माने की तमाम
हवा लगे होने के बावजूद जतिन के ये शब्द अनोखा-सा रोमांच भर देते रावी के भीतर।
आज भी रावी की
लिस्ट हमेशा की तरह तैयार थी। वैसे तो वह जतिन के सामने एक धैर्यवान श्रोता की ही
तरह बैठती थी पर अपनी बात कहने के बाद। आज की लिस्ट के मुताबिक पहला मसला चंदेल
चाचाजी और उनकी जासूसी का था। नाक में दम कर रखा था उन्होंने। “अरे सगे चाचा थोड़े
ही न हैं तुम्हारे जो इतना डरती रहती हो उनसे।"
“सगे नहीं हैं पर रोब तो पूरा है उनका। पापा इसी स्कूल से जो रिटायर्ड हुए हैं
और फिर मेरी नौकरी लगवाने में भी... ...
“उस नाते तो मैं
तुम्हारा चाचा हुआ मिस रावी मित्तल। तुम्हारी नौकरी लगवाने में मेरा रोल सबसे
ज़्यादा है। तुम्हारे पापा ने इस काम के लिए बड़ी चिरौरी की थी मेरी। उनकी दिली
ख्वाहिश थी कि उनके रिटायर होने से पहले तुम यहां आ जाओ। कम पापड़ नहीं बेले हैं
मैंने।"
“हां -हां सब मतलब
के लिए तो”
“सच रावी जब तक
तुम्हें देखा और जाना नहीं था। तुम मेरे लिए मित्तल सर की बेटी ही थी। एक सहकर्मी
होने के नाते ही यहां तुम्हारी अस्थाई नियुक्ति में मेरी और तुम्हारे चाचा जी
चंदेल साहब की भूमिका थी। पर क्या तुम नहीं जानतीं कि यहां स्थाई करवाने के लिए
मैंने कितनी भागदौड़ की। वो तो भला हो प्रिसींपल सर का जो मेरी बात सुन-समझ लेते
हैं नहीं तो इन पब्लिक स्कूलों में नौकरी मिलनी कितनी मुश्किल है?”
“यही तो मतलब था।”
“अब प्यार को मतलब कहोगी तो कैसे चलेगा?”
“पर चाचाजी को पक्का शक है। अपने जासूस छोड़ रखे हैं उन्होंने। उनको अपने घर देख
कर जान सूख जाती है मेरी।”
“परेशान न हो रावी इतने भी बुरे नहीं हैं।”
“हां बुरी तो मैं हूँ जो यहां तुम्हारे चक्कर में अपना समय गवां रही हूं। तुम
कैसे भी इस मुसीबत से मेरा पीछा छुड़वाओ।”
“कैसे?”
“पापा से सब कह
दो। देर हो जाएगी तो...”
“ऐसे कैसे देर हो
जाएगी? थोड़ा इंतज़ार करो। और तुम भी न यही सबके लिए मिलने आई थीं
यहां? चलो कुछ और बात करो।”
“रहने दो।”
“अरे कर लूंगा बाबा अब तो कुछ और बात करो न प्लीज़।”
“अच्छा जतिन क्या शादी के बाद भी हम यहां ऐसे ही आते रहेंगे?”
“क्यों नहीं? शादी होने से सब कुछ बदल जाएगा क्या?”
“हां सब तो यही कहते हैं। प्रेम-विवाह भी बाद में बाकी विवाहों जैसा ही हो जाता
है।”
“क्या मतलब?”
“मतलब मैं नौकरी और घर संभालूंगी और तुम बाहर रहोगे।”
“रावी शादी के बाद क्या मुझे घर से निकाल देने का इरादा है तुम्हारा? और तुम ही घर क्यों संभालोगी? मेरे घर को मैं भी संभालूंगा। और तुम कभी-कभी अकेले आना
यहां शाम बिताने। कभी घूमने -फिरने अपने दोस्तों के साथ। मैं खाना बना कर तुम्हारा
इंतज़ार करूंगा।”
“जाओ-जाओ ये सब कोरी बातों से न फुसलाओ।”
रावी-जतिन की
शामें ऐसी ही नोंक-झौंक में निकल जाती। जतिन को कई बार लगता कि रावी जैसे एक अबोध
बच्चे की तरह है जिसने अपनी मां-दादी-नानी को देख कर जीवन के कुछ निष्कर्ष निकाले
हुए हैं और समय के साथ उन्हें बदलना नहीं चाहती। इसीलिए जतिन के घर संभालने और
खाना पकाने जैसी बातों पर उसे विश्वास नहीं होता। जतिन गहरे अफसोस से भर उठता था
कभी-कभी। कितनी मेहनत की है जतिन ने कि अपने पिता जैसा न बनने के लिए, रावी क्या जाने? आज भी अतीत जतिन
की आंखों में जिंदा है।
“शारदा कितनी बार समझाना पड़ेगा तुझे? एक बार में सुनता
नहीं है क्या? कह दिया दाल-सब्जी में मिर्च नहीं डलेगी, इमली नहीं गिरेगी। क्यों डाला है गरम मसाला? क्या छौंके बिना दाल गले नहीं उतरेगी? बाल-बच्चे वाली हो गयी पर शौक-मौज नई दुल्हन जैसे। चटोरी
कहीं की।”
जब तक पिताजी
जीवित रहे जतिन को समझ ही नहीं आया कि क्यों पिताजी जबरन मां को अपने जैसा सादा
खाना खाने पर मजबूर करते रहे सिपर्फ एक तर्क देकर- “सादा खाना खाओ
शरीर ठीक रहेगा और चंचलता भी काबू में रहेगी।”
और मां धीरे-धीरे
रंगती गई पिताजी के रंग में, एक बेरंग, बेरौनक रंग में। पिता की कठोर छवि के आगे अपनी फूल-सी
इच्छाओं को मसलती मां। बचपन से ही चटपटे खाने की , घूमने-फिरने, सजने-संवरने और गप्पे
मारने की शौकीन मां अपनी जवानी में ही वृद्ध-सी नज़र आती। पिताजी ने बड़ी चतुराई से
ढाल लिया था उन्हें। कभी-कभी जतिन को मां पर गुस्सा भी आता। जब भोजन को इतने
अरूचिकर ढंग से गटकती मां को देखता। मां फेंक क्यों नहीं देती है ये थाली? क्यों अपने सारे गुस्से को बेस्वाद दाल की तरह हलक में
उंडेल लेती है? पिताजी की चालाकी क्यों नहीं समझती है जो खुद अस्वस्थ रहने
के चलते मां को भी अपने जैसा बनाने पर तुले हैं। जीवन भर तमाम इच्छाओं को मारने
वाली मां जब विधवा हुई तो रिश्तेदारों से भरे घर में एकांत पाकर जतिन से बोली “बेटा कहीं से
खिचड़ी मिल जाए खूब मटर वाली, ऊपर से घी और ढेर
सारा गरम मसाला डालकर ले आ। बड़ा मन हो रहा है। कब से कुछ खाया ही नहीं।” उस दिन से
“कब से” शब्द जतिन के मन में अटक गया। उसके बाद जतिन ने खुद से पकाना और मां की पसंद
का उसे खिलाना शुरू कर दिया। मां को पकाने से भी अरुचि हो गई थी। कई बार जतिन
पूछपाछ कर या इंटरनेट और टीवी की मदद से नई चीजें बना देता तो कई बार बाहर से
चाट-पकौड़े भी आ जाते। उसके जीवन की सबसे बड़ी साध ही मां को उसकी पसंद का
खिलाना-घुमाना हो गयी। मां से कहता भी कि “मां शादी के बाद तेरी बहू जैसा खाना
चाहेगी वैसा ही खाएगी। तेरी तरह इच्छाएं नहीं मारेगी।” और मां कहती “कहकर नहीं करके दिखाना तू। और खाने-पीने में ही नहीं घूमने, बोलने-बतियाने, सजने-संवरने सबका
ध्यान रखना होगा तुझे।” इसीलिए रावी के भोले निष्कर्षों पर जतिन मन में ही हँस कर
रह जाता। वह शादी के बाद जिंदगी को उसे जिंदादिल तोहफे के रूप में देना चाहता था।
स्कूल में केवल एक
संजीव सर ही थे जिन्हें जतिन एक परिपक्व और संवेदनशील इंसान समझता था और कई बार
रावी से जुड़ी बातों को उनसे साझा भी किया करता था। क्लासेज से कभी-कभार फुर्सत
मिलने पर वे जतिन के साथ कुछ समय बिताते। जतिन उन्हें रावी से जुड़ी बातें बताने को
तो आमादा रहता ही साथ ही अपनी जिज्ञासाओं के हल और अपनी संशयों को भी बांटता।
जल्दी ही उसे रावी के घर भी जाना था तो थोड़ा परेशान भी था। अपनी परेशानी लेकर जतिन
एक दिन संजीव सर के सामने हाजिर हो गया।
“सर, रावी के पिता तो मुझे बहुत अच्छी तरह जानते हैं पर मैंने
उन्हें जितना जाना है वे जात-बिरादरी और धर्म के बड़े पक्के हैं। क्या वे मुझे
स्वीकारेंगें?”
“मेरे हिसाब से तो तुम एक बार उनसे मिल लो बाकी निर्णय तो तुम दोनों का ही है।
तीस पार की उम्र है रावी की, शादी के बारे में
सोच तो रहे ही होंगे। न भी माने तो तुम लोग अपना निर्णय जीना। दोनों समझदार हो, आत्मनिर्भर भी हो।”
“पर मुझे लगता है कि रावी के मन को ठेस लगेगी अगर वे नहीं माने तो। उसका सपना
है उसके परिवार की सभी शादियों की तरह सब हंसी-खुशी और पूरे तामझाम के साथ हो।
देखने से तो समझदार लगती है पर मैं ही जानता हूं कि अभी उसमें कितना बचपना बाकी
है।”
“और तुम क्या सोचते हो जतिन इस बारे में?” संजीव सर ने तार्किक मुद्रा में सवाल किया।
“हंसी-खुशी तो मैं भी चाहता हूं सर पर तामझाम नहीं। मैंने अपनी शादी के बारे
में यही सोचा है कि किसी से भी आर्थिक मदद नहीं लूंगा। जो मेरे पास है जैसा है उसी
में अच्छा करने की कोशिश रखूंगा। रावी से भी मुझे कोई मदद नहीं चाहिए। पर वो मेरी
बातों पर गौर ही नहीं करती। उसे तो लगता है मां-बाप बेटियों के लिए करते ही हैं
सब। अक्सर हम दोनों की इस बात पर तकरार हो जाती है सर।”
“सही सोचा है तुमने... और रावी अभी तक इसे सामान्य विवाह की तरह ही ले रही है।
हां, पर अब देर करना सही नहीं। एक बार मिल लो मित्तल जी से और
तुम दलित-वलित तो हो नहीं जो उनके गले नहीं उतरोगे। मेरी जरूरत हो तो बताओ?”
“तो आप क्या सस्ते में छूट जाएंगे सर? पर अभी मैं अकेले
जाऊंगा फिर मां और आप चलिएगा। पिताजी हैं नहीं और बड़े भैया को बिना दहेज वाली शादी
में कोई इंटरेस्ट होगा नहीं।”
जतिन ने सोच लिया
कि अगले इतवार हिम्मत करके रावी के पिता से साफ-साफ बात कर लेनी है। बीच के कुछ दिन
अपने मन को हिम्मत बंधाता रहा। रावी अन्य प्रेमिकाओं की तरह अपने पिता को अच्छी
लगने वाली बातें उसे बताने लगी ताकि बात करने में सुविधा हो और बात आसानी से बन
जाए। इसी बीच स्कूल का एनुअल डे आ गया। एनुअल डे का मतलब सांस्कृतिक कार्यक्रमों
से लेकर पूरे स्कूल के भोज तक था। कई दिनों की मेहनत के बाद जब भोजन का समय आया तो
सभी लॉन में इकट्ठे हो गए। इमारत लगभग खाली थी। रावी और जतिन भी भोजन में शामिल
होने जाने वाले थे। पर रावी ने सुबह ही जतिन को बता दिया था कि आज उसकी पसंद का मूँग
दाल हलवा बनाकर लाई है। लोगों के न होने से कुछ निश्चिंत होकर जतिन और रावी हलवा
खा रहे थे। अपनी प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया में जतिन ने रावी के दोनों हाथ अपने
हाथों में थाम लिए। रावी के बालों को सहलाने के लिए वह उसके करीब आया ही था कि न
जाने कहां से चंदेल सर प्रगट हो गए। आज दोनों रंगे हाथ पकड़े गए। जतिन हड़बड़ाहट में
कुछ समझ ही नहीं पाया और रावी का हाथ थामे खड़ा रहा। रावी ने जल्दी से हाथ छुड़ाकर
नजरें नीची कर लीं। चंदेल सर ने दोनो में से किसी को कुछ भी नहीं कहा। जरा देर
ठिठके और चले गए। एक तूफान गुजरा था पर एक बड़े तूफान की आशंका के साथ। रावी उसी
समय घर चली गई और जतिन यही सोचता रहा कि किसी भी क्षण मित्तल सर का फोन आता ही
होगा।
सारी रात इसी
उधेड़बुन में निकल गई कि अब क्या होगा? क्या बीती होगी
रावी पर। हालांकि शाम को रावी से कुछ देर बात करने पर जतिन ने जान लिया था कि घर
पर कोई सवाल-जवाब नहीं हुआ पर हां घर की हवा को सामान्य नहीं कहा जा सकता था। मां
को चाह कर भी नहीं बता पाया जतिन कि चिंता में अपनी सारी रात काली कर देगी मां।
जतिन को बार-बार रावी के शब्द याद आ रहे थे- “देर हो जाएगी
जतिन।” और सचमुच देर हो गयी। चंदेल सर जरूर गए होंगे मित्तल सर के कान भरने। अब
इतवार को अपराधी की तरह जाना पड़ेगा और दूसरी ही तरह बात संभालनी होगी। न चाहते हुए
भी सारी स्थिति बिगड़ चुकी थी। सुबह स्कूल पहंच कर तो देखा रावी की कुर्सी खाली है।
ज्यों-ज्यों समय गुजरता जतिन का मन घटने लगता। सवालों के अनगिनत जंगल और आंशका के
स्याह बादल सामने दिखाई दे रहे थे। हिम्मत करके फोन किया तो देर तक बजता रहा और
किसी ने फोन नहीं उठाया। अजीब बात ये भी थी कि चंदेल सर से भेंट हुई तो वो भी पहले
की तरह ही मिले। चेहरे और बातों से कल की किसी नाराजगी का कोई सुराग नहीं मिला। अब
किससे पूछे जतिन रावी का हाल? ऐसे हालात में क्या संडे का इंतजार करे या निकल जाए अभी उसके घर के लिए। सारा
दिन काम में मन नहीं लगा जतिन का। संजीव सर भी आज व्यस्त थे फिर निर्णय तो उसे खुद
करना है- के ख्याल से जतिन दिन भर खुद से ही उलझता रहा।
शाम के घिरते जाने
पर आखिरकार उसने सोच ही लिया “बस अब नहीं। रावी की हालत जाने बिना आज घर जाना गुनाह है।” शाम को बिना इत्तला
किए जतिन रावी के घर पहुंच गया। “जी, मैं जतिन हूं
मित्तल सर घर पर हैं क्या?” सामने शायद रावी की मम्मी थीं। बिना किसी उत्सुकता के एकदम
शांत जवाब मिला- “नहीं घर पर नहीं हैं। कोई काम है?”
“जी मिलना था।”
“ठीक है बता दूंगी। फोन करके आना।” पानी पूछने और बिठाने की औपचारिकता पूरी किए
बिना ये संवाद हुआ। इस दौरान जतिन की हर सांस रावी की आहट पाने की कोशिश करती रही।
पर व्यर्थ। लगा जैसे किसी गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है। चाहते हुए भी पूछ नहीं
सका – “रावी कहां है? कैसी है?”
आज फिर रावी नहीं
आई। जतिन का संदेह यकीन में बदल रहा था कि ज़रूर मारा-पीटा गया होगा। पिटाई के
निशान और सूजी हुई आंखें लेकर कैसे आती स्कूल? रावी का फोन आज भी बजता ही रहा। दूसरे नंबरों से भी कोशिश
की पर व्यर्थ। कई प्रयासों के बाद बिना एक पल गंवाए उसने मित्तल सर को फोन लगाया।
सामान्य ढंग से हुई बातचीत में उन्होंने कल शाम का समय दिया। उनकी बातों से जतिन
को किसी तूफान की भनक नहीं लगी। मन को राहत पहुंची पर रावी से बात न हो पाना और
उसका स्कूल न आना बहुत बुरा लग रहा था।
“कैसे हो जतिन?
उस दिन तुम आए... कहीं
गया हुआ था...पर बता देते मुझे तो... ठहर जाता।”
पानी पीते हुए
जतिन को लगा एक वाक्य बोलने में इतनी जगह रुकना? पर फिर खुद को संयत किया कि मित्तल सर के लिए भी तो ये सब
अजीब होगा। चाय आने तक भी रावी का पता नहीं था। जतिन को लग गया उसे रावी की
गैरहाजिरी में ही बात करनी होगी जबकि रावी घर में ही मौजूद है।
“सर मैं और रावी चाहते हैं कि हमें आपका आशीर्वाद मिले...शादी के लिए।”
बिना कोई सवाल किए, बिना हड़बड़ाए मित्तल सर ने कहा- “मुझे अपने बड़ों से
बात करनी होगी।”
“पर आपको तो कोई एतराज नहीं हैं न सर?” अपनी बेचैनी पर काबू न पाते हुए जतिन के मुंह से निकल ही
गया।
मित्तल सर जैसे
तैयार थे इस सवाल के लिए- “देखो जतिन इतनी जल्दी कुछ कह पाना मेरे लिए संभव नहीं।
बहुत- सी बातें देखनी होंगी अभी।”
“सर ...रावी...रावी से...”
“रावी की मौसेरी बहन की शादी है। हाथ बंटाने के लिए उसे बुलाया है। गलती से
मोबाइल भी यहीं छोड़ गई है।” आगे के सवाल का अंदेशा लगाकर जैसे मित्तल सर ने जवाब
दिया। अब बेशर्म होकर मौसी के घर का पता और नंबर भी तो नहीं मांगा जा सकता। शंका
होते हुए भी जतिन का मन कहा रहा था- “पर सही भी तो हो सकता है जो कुछ उन्होंने कहा। मिले तो ढंग
से ही। चाय-वाय भी पिलाई और गलत भी क्या कहा परिवार से बात तो करनी ही पड़ती है
शादी-ब्याह के मामलों में। और बहन की शादी का ज़िक्र तो रावी ने भी किया था।” पर
स्कूल को बिना इन्फॉर्म किए जाना और बिना मोबाइल के जाना अखर रहा था जतिन को। तमाम
हलचलों के बीच बस एक सुकून था कि आखिरकार अपनी बात कह पाया आज। संजीव सर ने भी
हौसला बढ़ाया- “जवान आधा काम तो कर ही आए हिम्मत से तुम। यकीन रखो सब ठीक
होगा।” पिछले कुछ दिनों से चेहरे पर चस्पां तनाव की वक्र रेखाएं आज किसी हद तक
स्थिर हुईं। रात को सोचा मां से कह दे सब पर रोक लिया कि अब अच्छी खबर ही सुनाएगा
मां को। उस दिन देर तक गप्पबाजी हुई आज मां के साथ।
“एक बात बताओ मां, सामने फ्रेम वाली
तस्वीर में तुम पिताजी के साथ क्यों नहीं बैठी हो? वे बैठे हैं और तुम खड़ी हो?”
“अरे अपने बराबर कभी बिठाया ही कहाँ रे उन्होंने।”
“तुम जा बैठतीं...
जगह तो खाली थी न उनकी बगल में।”
“बात तो मन में जगह की थी न रे...चल तू बिठा लियो अपनी रावी को बगल में। वही
फ्रेम लगा देंगे इसके बगल में, ऊपर बैठे-बैठे भी
कुढ़ेंगे मुझसे।” इस बात पर दोनों देर तक हंसते रहे।
जतिन के नसीब में
आए राहत के पल रेत की मानिंद हाथ से फिसल गए। जीवन में एक अजीब अस्थिरता, असुरक्षा और अनिश्चितता ने घर कर लिया। सहज प्रेम की सुन्दर
कल्पनाएं बिखर रही थीं। रावी से कोई मुलाकात नहीं, बातचीत नहीं। कहीं कोई राह नहीं, दिशाएं सब उलझीं और अनुत्तरित। दिन हल्की-सी उम्मीद से शुरू
तो होता पर एक बड़ी नाउम्मीदी पर उसे अकेला छोड़ जाता। दिमाग रावी को इतना याद करता
कि अक्सर जतिन को लगता कि वह रावी की सूरत ही भूलता जा रहा है। ऐसे में स्कूल का
काम उपेक्षित हो रहा था। किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं होती थी। हरदम उसे
लगता कि पीठ पीछे ही नहीं अब सामने भी मज़ाक उड़ाने में लोग संकोच नहीं कर रहे हैं।
अक्सर उसके कान व्यंग्य बाणों के नुकीले प्रहारों से बिंधे रहते और मन सोचता कि
समाज किस हद तक असंवेदनशील है। इधर चंदेल सर ने तो इस विषय में उससे बात करने से
साफ मना कर दिया। सब कुछ ठहरा, थमा और रुका हुआ
था। और रावी जैसे वो कहीं थी ही नहीं। सपनों में रावी, जतिन को किसी तंग तहखाने में चीखती दिखाई देती। कई शाम दूर
से उसके घर पर निगाह भी रखता था जतिन, पर सब व्यर्थ।
सपनों से भरी एक लड़की इस शहर में गायब कर दी गई थी और कहीं कोई हलचल नहीं थी। सब
अपने कामों में पहले की ही तरह व्यस्त थे। किसी को कोई चिंता ही नहीं थी। इस बीच
जतिन थर्रा जाता, भाई और पिता द्वारा या रिश्तेदारों द्वारा जाति-धर्म की
रक्षा में अपने सपनों के आकाश में स्वतंत्र उड़ने वाली लड़कियों के कत्ल की खबरों
से। कई बार लगता कि गुपचुप उसकी शादी तो नहीं कर दी गई है। रावी पर किए अत्याचारों
के बारे में सोचकर एक अपराध बोध से रोज भरता जा रहा था जैसे। जतिन के पास सिर्फ
इंतजार बचा था --एक लंबा इंतजार।
“कैसे हो जतिन?”
“रावी तुम हो न?
कहां हो रावी? कैसी हो?” भर्राए गले से जतिन के बोल फूटे।
“सब भूल जाओ जतिन। मैं अपने परिवार को कोई दुख नहीं पहुंचाना चाहती।”
“नहीं रावी। ये क्या कह रही हो? अच्छा एक बार मिल
लो फिर बात करते हैं।”
“नहीं जतिन....अब कभी नहीं।”
“नहीं रावी, रुको, सुनो तो...सुन रही
हो न...बस एक बार हिम्मत करके आ जाओ मैं सब संभाल लूंगा रावी। बस एक बार। क्या इस
दिन के लिए देखे थे हमने वो सपने? रावी मैं कह...।” बात पूरी हुए बगैर ही फोन कट गया या काट दिया गया। जतिन के
अल्फाज कुछ देर सांस के साथ धड़के फिर किसी अंधेरे में गुम होते चले गए। अब क्या होगा? यही सबसे बड़ा सवाल था। रावी के जिन्दा होने की सूचना कितना
कुछ खत्म होने के साथ मिल रही थी। कितना सपाट था रावी का स्वर। चिंताओं और तनाव के
दुष्चक्र लगातार जतिन को अपनी गिरफ्त में लेते जा रहे थे। अब क्या होगा?
“रावी को आना ही चाहिए जतिन, चाहे कैसी भी परेशानी
हो।” संजीव सर सब जान कर निर्णयात्मक ढंग से बोले। पर जतिन न सिर्फ रावी के अबोध
मन का जानकार था बल्कि उसके द्वारा जीवन के बनाए गए सुरक्षित फ्रेम की भनक भी थी
उसे, जिसमें नानी-दादी
और मां के जीवन-निष्कर्षों की तस्वीर जड़ी थी। ये तस्वीर काफी खुशहाल दीखती थी।
जिसमें तीनों औरतें मजबूती से रावी का हाथ थामे हैं। संजीव सर को रावी को ले कर एक
सख्त नाराजगी थी पर जतिन रावी के असमंजस और उसकी पीड़ा को भी समझ पा रहा था। क्या
रावी उस फ्रेम में उन तीन महिलाओं से झिटक कर खड़ी अपनी दुखी तस्वीर की कल्पना से
सिहर नहीं उठती होगी? कैसे उनसे अपना
हाथ छुड़ा सकेगी रावी?
“इतनी बच्ची भी नहीं है रावी। पैरों पर खड़ी है। समझदारी से काम ले और क्या
प्यार करते समय इन खतरों के बारे में सोचा नहीं होगा उसने?” संजीव सर रौ में
बोले चले जा रहे थे।
जतिन के बंधे होंठ
भाषा की हद से बाहर हो चले थे पर मन ज़ोर-ज़ोर से कह रहा था “आप नहीं समझते सर रावी
को। पैरों पर ज़रूर खड़ी है पर खड़ा करवाया है उसके पापा ने। उसकी मर्ज़ी कहां थी? भले ही मुझसे प्यार करती है पर औरों के निर्णयों पर जीने की
आदत है उसे। खुद को अकेले कैसे निकालेगी उस फ्रेम से? तस्वीर की अहमियत और उसमें रावी की सुरक्षित जगह की कितनी
दुहाई दी गई होगी। वो तो मेरे “मैं सब ठीक कर दूंगा” जैसे चमत्कारिक शब्दों में बंधी चल रही थी अब तक। अब
जीवन के इस मोड़ पर उसे मेरे शब्दों का जादू भी बेअसर लग रहा होगा।
“जिस समाज में रहती है क्या जानती नहीं कि प्रेम की क्या कीमत चुकानी पड़ती है? शादी से पहले धमकियां और हत्याएं। तरह-तरह के अत्याचार और
शादी के बाद धोखे से बुला कर लड़की को मार कर गाड़ देना और लड़के की लाश को उसके घर
के आगे फेंक देना।” संजीव सर रावी की
चुप्पी को अपनी तीखी प्रतिक्रिया से भर रहे थे।
“जानती क्यों नहीं है सर सब जानती है पर उसका मन? उसका क्या सर? मन नहीं मानना
चाहता ये सब। मन तो उसका अपनी बहनों की तरह हँसी-खुशी विवाह करना चाहता है।” जतिन
के शब्द ज़ुबान पर आकर भी खामोश थे। वह खामोश और अकेला दोतरफा लड़ाई लड़ रहा था। अपनी
और रावी के हिस्से की।
“तुम्हारी चुप्पी को क्या समझूं जतिन? मित्तल सर भी
झांसा ही दे रहे हैं और क्या?”
“सर चुप कहां हूं, सब जानता हूं। पर
मुझे रावी के आने का इंतजार है।”
“और वो नहीं आई तो?” संजीव सर के सवाल ने जतिन को निरुत्तर कर दिया। पर रावी से
फोन पर हुई बात ने जतिन को थोड़ी-सी आस बंधाई थी कि रावी जरूर लौटेगी।
इधर रावी की लंबी
गैरहाजिरी के चलते एक दिन जतिन के डेस्क पर प्रिंसीपल सर की ओर से भिजवाया गया
नोटिस उसके साइन के लिए आया। पत्र में रावी के आने की अंतिम मियाद तय थी जिसके बाद
उसकी सेवाएं समाप्त समझी जाएंगीं। सारे स्कूल में इस नोटिस को लेकर एक हलचल थी। सब
लोग तमाशे की अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार करने लगे। नोटिस पर स्टैंप लगा कर
अपने इनीशियल करते हुए और वापिस प्रिंसीपल सर को भेजते हुए जतिन के मन ने कहा “अब रावी लौट आएगी।
कितनी कोशिशों से लगी नौकरी को कोई क्यों ऐसे ही जाने देगा वो भी नौकरियों के अकाल
के इस महाकाल में?” ये नोटिस जैसे
जतिन की आशा का एकमात्र आधार बनकर उसके सामने था। उसे मां के शब्द याद आए “बेटा अच्छे दिन
नहीं रहे तो देखना बुरे भी गुजर जायेंगे।” इंतजार की घड़ियां एक बार फिर से जतिन को
रोमांचित करने लगीं। रावी की मेज से गुजरते हुए यों ही उसे दुलार से सहलाया जतिन
ने। कुर्सी पर मुस्कुराती रावी नजर आई। अचानक ही जतिन फिर से सब बातों-यादों को
सहेजने लगा। फिर से सारे सपने अपनी मांगों को लेकर जतिन के सामने खड़े थे और जतिन
एक बार फिर से उन्हें साकार करने के जोश में भर उठा था। वह जानता था कि रावी को
तमाम हिदायतें दे कर भेजा जाएगा। हो सकता है वो कुछ दिन बोले भी न, उसकी उपेक्षा करे।
पर फिर भी जतिन को भरोसा था कि वो सब ठीक कर लेगा। शब्दों का जादू खुद से धूल झाड़ कर
वापिस लौट रहा था।
स्कूल में आज बड़ी
रौनक थी। सारा स्कूल आज बारात में तब्दील होने वाला था। शाम को हिस्ट्री वाले अनिल
सर की बारात जानी थी। बहुत से लोग अनिल के घर से सारी रस्मों में शामिल होते हुए
शादी की जगह पहुंचने वाले थे। प्रिंसीपल सर और जतिन को खासतौर पर इसके लिए
निमंत्रित किया गया था। अनिल के घर बारात का हुडदंग मचा था पर प्रिंसीपल सर आज
हमेशा की तरह हंस नहीं रहे थे। एक खिंची-सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर थी। काफी
पूछने के बाद उन्होंने जतिन को बताया- “बुरी खबर है
जतिन... रावी का लिखित इस्तीफा मिला है आज। किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से वह यह
नौकरी छोड़ना चाहती है।”
“सर आपने बात...” जतिन के अस्फुट से स्वर बाहर आने को फड़फड़ाए।
“मित्तल जी से बात
हुई मेरी। संजीव ने भी समझाया पर उन्होंने तो सीधे ही कह दिया- “यहां ही नहीं कहीं
भी नहीं करवानी नौकरी इस लड़की से” ... जतिन उनका फैसला
पक्का है।”
यानि रावी से उसके
सपने ही नहीं आत्मनिर्भरता का अधिकार भी छिन गया जतिन के चलते। ये तो जतिन ने कभी
नहीं चाहा था। कितना कुछ टूट रहा था उसके भीतर और कितना कुछ तोड़ा जा रहा था भीतर
तक फिर भी जतिन की बाहर से सहज बने रहने की कोशिशें जारी थीं। अचानक वह भीड़ में
एकदम अकेला महसूस कर रहा था। एक मशीनी तरीके से सेहराबंदी, घुड़चड़ी की रस्मों से जुडे़ हुए जतिन ने देखा सामने संजीव सर
थे। लड़खड़ाते कदमों से उनके करीब गया और गले लग कर रोने लगा। सही जगह और मौका न
होते हुए भी संजीव सर आज इस हरकत पर शांत थे। अपनी बाहों में कस कर जतिन को थामे
थे और जतिन ढोल की तेज आवाज में अपनी बेसाख्ता रूलाई और दर्द को पूरा मौका दे रहा
था। जतिन के रोने में उसके चीखते हुए सवाल शामिल थे- “मित्तल सर आपकी
समस्या जात-बिरादरी है या बेटी के स्वतंत्र निर्णय?”
नहीं इसके बाद भी
जीवन खत्म नहीं हुआ। जतिन की नौकरी चलती रही पर रावी को जिदादिल जिंदगी का तोहफा न
दे पाने का दोषी खुद को मानते हुए उसने शादी नहीं की। मां की सारी साध मन में ही
रह गई। बहू की मनमर्जी का खिलाना, पहनाना-घुमाना ही
नहीं दीवार पर रावी-जतिन की साथ बैठे हुए खिंचने वाली तस्वीर का फ्रेम भी खाली ही
रह गया। जतिन अक्सर खुद को सजा देता हुआ देर शाम या कभी अलस्सुबह पैदल लंबी दूरी
तय करके जाता है रावी के घर तक और बिना उसे देखे लौट आता है। रावी से बिछड़े हुए आज
पांच साल से अधिक बीत चुके हैं। चाहें तो इतना और जोड़ लें कि जतिन आज भी औरों की
तरह रावी को उस सबका दोषी नहीं ठहराता। रावी को घर बिठा दिया गया है। कई साल गुजर
गए घर-कैद में। उसकी छोटी बहन की शादी हो गई और शादी के लिए रावी की उम्र निकलती
जा रही है। जतिन ने सुना, स्कूल में ही कोई
कह रहा था कि “रावी भाई के बेटे को ऐसे संभाल रही है कि सगी मां भी क्या संभालेगी। बड़ी ही
आज्ञाकारी और अच्छी लड़की है...” एक बंधक आकाश के नीचे दूसरों की दी हुई बैसाखियों
पर चलते, अपने टूटे-बिखरे सपनों को खुद से भी छिपाते, हरपल तस्वीर की
रावी की रक्षा करती वह आज्ञाकारी और अच्छी लड़की नहीं तो और क्या है?
सम्प्रति: दिल्ली
विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर
के रूप में कार्यरत।
सम्पर्क: ई-112, आस्था कुंज,
सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110089
दूरभाष- 09811585399
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
बहुत खूब ................ मज़ा आ गया :)
जवाब देंहटाएंhttp://manjurani542.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी .पहले पढ़ी थी ,पर फिर पढ़ने का मन हो आया .शुभकामनायें
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