हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'

 



यह महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म शताब्दी वर्ष है। इस क्रम में हम पहली बार पर उनसे सम्बन्धित आलेख या स्वयं परसाई जी की रचनाएँ वर्ष भर प्रस्तुत करते रहेंगे। इस क्रम को हम पहले ही प्रोफेसर सेवाराम त्रिपाठी के आलेखों की श्रृंखला से आरम्भ कर चुके हैं। आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'। इसके साथ हम आलोचक कृष्ण मोहन की एक संक्षिप्त टिप्पणी भी से रहे हैं जो उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर साझा किया था। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'।



अगर किसी को यह लगता है कि हरिशंकर परसाई ने "प्रेमचंद के फटे जूते" नामक रचना में उनकी गरीबी का हवाला दिया है तो उसे यह फिर से पढ़ना चाहिए। इसमें जूते के फटने के कारणों पर परसाई ने काफी गौर किया है लेकिन एक बार भी उनकी गरीबी का संकेत नहीं किया है। फोटो खिंचवाते समय भी पोशाक और छवि का ध्यान न रखने की प्रवृत्ति को जरूर महत्व दिया है, जिसकी प्रासंगिकता आज के छविकेंद्रित युग में स्वयंसिद्ध है। दूसरी बात उन्होंने अपने व्यंग्य प्रेमी स्वभाव के अनुरूप यह कही है कि प्रेमचंद शायद किसी पर उंगली उठाने के लिए हाथ की नहीं पैर की उंगलियों का इस्तेमाल करते थे। इसकी जद में उन्होंने खुद को भी माना है।



प्रेमचंद के फटे जूते

                        

हरिशंकर परसाई


प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फ़ोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।


पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं. लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है. तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।


दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।


मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूं- फ़ोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी- इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फ़ोटो में खिंच जाता है।


मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूं। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फ़ोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींच कर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फ़ोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा. विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!


यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहने फ़ोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है।


फ़ोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते. फ़ोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कह कर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फ़ोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फ़ोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूं, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।


तुम फ़ोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फ़ोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फ़ोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फ़ोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़ कर फ़ोटो खिंचाते हैं जिससे फ़ोटो में ख़ुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फ़ोटो भी ख़ुशबू देती है!


टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से क़ीमती रहा है। अब तो जूते की क़ीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती है। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फ़ोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!


मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खा कर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर क़ुर्बान हो रहे हैं!





तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता. फ़ोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फ़ोटो के ही छाप दे।


तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह?


क्या होरी का गोदान हो गया?


क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?


क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़ कर नहीं आ सकते?


नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है।


मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूं। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?


क्या बहुत चक्कर काटते रहे?


क्या बनिए के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगा कर घर लौटते रहे?


चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभन दास का जूता भी फ़तेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा,


‘आवत जात पन्हैया घिस गई।

बिसर गयो हरि नाम।’


और ऐसे बुला कर देने वालों के लिए कहा था, 


‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’


चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?



मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो. कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मार कर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।


तुम उसे बचा कर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।


तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!


तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?


तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?


मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूं।


तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरका कर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो-मैंने तो ठोकर मार-मार कर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?


मैं समझता हू। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं!

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