नेहा अपराजिता की कविताएं

 

नेहा अपराजिता 


कुदरत की सर्वश्रेष्ठ कृति इंसान है और इंसान में औरत से खूबसूरत कृति और कुछ भी नहीं। यह खुबसूरती हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है। घर परिवार संभालने से ले कर राष्ट्र की जिम्मेदारी संभालने तक। लेकिन विडंबना यही है कि औरत के प्रति हमारे समाज का नजरिया शुरू से ले कर आज तलक दोयम दर्जे का ही रहा है। सब कुछ सहते सुनते हुए भी स्त्री दिन रात अपने काम में लगी रहती है। ऐसे में स्त्री होना आसान कहां? नेहा अपराजिता कवि होने के साथ साथ एक स्त्री भी हैं। इस नाते वे इस बात को शिद्दत से महसूस करती हैं कि स्त्री होना आसान नहीं। पहली बार पर हम पहले भी उनकी रचनाओं से रू ब रू हो चुके हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नेहा अपराजिता की कविताएं।



नेहा अपराजिता की कविताएं



याद हमारी आ जाएगी


जो आगे बढ़ते हो तो बढ़ जाओ, 

आगे बढ़ कर भी मुझ में रह जाओ

नज़रों से कतराना मत, 

आगे बढ़ पीछे आना मत

हर डगर यूँ न सरल सहज होगी, 

नुकीली होगी या खुरदुरी महज़ होगी

जब पैरों तले छाले भूंज जायेंगे, 

चट्टानों के टुकड़े उन पर चुभ जायेंगे

तब याद हमारी आ जायेगी,

घावों में मरहम भर जायेगी।



चल दिये जो बिना कुछ सोचें जाने, 

बन जाते हो इतने अनजाने

इतनी भी क्या बात बुरी थी, 

जग से ना कही थी तुमसे कही थी

जब ईमान की बस्ती घूमोगे,

हम सा ईमान फिर ढूँढोगे

बेईमान ईमान सिखायेगा, 

तुम्हारा ईमान मूक-बधिर रह जायेगा

तब याद हमारी आ जायेगी, 

कुछ बातें कानों में कह जायेगी।



जब तन पसीने से तर होगा, 

मन भी ना बेहतर होगा

आँखे जब धूंधलायेंगी, 

पर दुःख ना कुछ कह पायेंगी

मिट जाते हैं तुमसे बहुत सारे,

बिना किसी जुगत के, बिना सहारे

जब मिटते-मिटते मिट जाओगे, 

मजबूत कन्धा कहीं ना पाओगे

तब याद हमारी आ जायेगी,

तुम्हारे सिर को कंधा दे जायेगी।



बेहतर की खोज में निकले जो,

बेहतर कहां ही पाये वह 

बेहतर मिले जो तुमको कोई, 

कर लेना मनमर्ज़ी जो तुमसे हो

कहते फिर ना साथ निभाने को, 

तुम पर ही मिट जाने को

जब साथी साथ निभा ना पाये, 

घुट-घुट कर मन खूब पछताये

तब याद हमारी आ जायेगी, 

आकर कुछ तुमसे कह जायेगी।



हम चुभने वाले लोग नये साल भी चुभेंगे


ना खुस-फुस करेंगे

ना कोई चाल चलेंगे

ना होंठो के चाप पर व्यंग धर कर हंसेंगे 

स्पष्ट वक्ता थे स्पष्ट वक्ता ही रहेंगे 

तुम्हारे मन में गड़ेंगे तुम्हारी नज़रों में चुभेंगे

हम चुभने वाले लोग नये साल भी चुभेंगे।



तुम सच ना कहना

हम झूठ ना कहेंगे

तुम दायें बायें चलना

हम सरपट चलेंगे

जो तुम बहकना तो हमसे सहारा माँग लेना

हम जो बहके तो तुम्हारे कपट में फंसेंगे 

फँस कर जो निकले फिर हर कपट पर हँसेंगे

हम चुभने वाले लोग नए साल भी चुभेंगे।



निम्न स्तर की सोच

ऊँचे मुक़ाम कब गढेगी

तुम्हारे अड्डे की रणनीति

अड्डे तक सीमित रहेगी

सकारात्मकता की बंसी बजा तुम नकारे काम करना

नकारात्मकता के बादल पर हम कर्मों की पंखी झलेंगे

पर वादा है कभी कोई द्वंद ना रचेंगे

अपराजित थे अपराजित रहेंगे

हम चुभने वाले लोग हर साल ही चुभेंगे।



साल बदलने से चाल कब बदलती है

तुम भी ना बदलोगे

हम भी ना बदलेंगे

तुम गिर कर फिर गिरना

हम गिर-गिर कर उठेंगे

हम चुभने वाले लोग हर साल ही चुभेंगे।



“आज मेरी बारी है”

जो कम हँसते थे कम बोलते थे

नहीं रोते थे चैन की नींद सोते थे

उनकी गले पर धार लगा-लगा कर

उनके सुखों को तिल-तिल जला-जला कर

कहा जाता रहा कि वे हंसा करें

दूसरों के सुकूँ को व्यंगों से कसा करें

उनको सताया जाता रहा कि बोलो

मुँह खोलो

तुम भी हमसे बनो

अलग क्यों खड़े हो

हमारी मिट्टी में मिलो-सनो

वे उसे घसीट लेते हैं अपने संग

फिर

उसे दिखता है दुनिया का असली रंग

मदारी डमरू बजाये है

उसने खेल नये-नये सजाये हैं

आते रहते हैं खेल में घसीटते हुये लोग

मिलते हैं उन्हें दर्द, हर तरह के सोग

कोई अट्टहास साज़ रहा है

कोई पाँव में घुँघरू बांध रहा है

वह चकर पकर सब देख रहा है

समझ नहीं रहा

पर मदारी संग खेल रहा है

हर ताल पर टिरगिट बाज रहा है

अब वह भी व्यंग को साज़ रहा है

कहकहा सबमें बाँट रहा है

सच झूठ भी छांट रहा है

आनंद आया आनंद आया

प्रपंच छाया प्रपंच छाया

खेल हुआ भीड़ लगी

बहुतों को खेल में पीड़ लगी

कुछ को स्मृति गमगीन लगी

कुछ की स्मृति दीन-हीन लगी

वह समझा सब कुछ शनै-शनै

बिगड़ा था सब कुछ बिना बने

अब फिर वे उसको घेरे है

कहते हैं तेरे सारे ग़म मेरे हैं

वह क्या है जो मन को दरक रहा?

वह क्या है जो गले में अटक रहा?

वह सम्भलता है थूक निगलता है

कुछ कहने की जद् में कुछ ना कहता है

नज़रें फँस जाती हैं क्षितिज में कहीं

कुछ कहती हुई कुछ अनकही

दूर कोई जाते दिखता है

पर कभी नहीं पलटता है

वह छाया है या परछाई है

अपनी है या पराई है

गले मिलने जो आयी है

दर्द झोली भर कर लायी है

द्वन्द है, खेल अब भी जारी है

कल उसकी थी आज मेरी बारी है।







प्रेम साधना


"प्रेम" हमेशा साधना समझ कर करना

जैसे सूर्य उगने से पूर्व नहीं सोचता कि उसे ढलना भी है

पुष्प खिलने से पूर्व नहीं सोचते कि उन्हें झरना भी है

हरसिंगार महकते हुए चूमता है धरती 

तितलियाँ पंख फैलाये मिलती हैं गले प्रकृति से 

तुम भी खिलते रहना

वहां जहाँ कम दिखे स्नेह

प्रेम बिखरने से पहले ध्यान रहे

पुष्प झरने के पश्चात 

दुनिया के पैरों तले मसला जाता है

यह व्यवसाय नहीं 

इसलिये अपेक्षा मत रखना

उपेक्षा को मन पर मत लेना

बस, प्रेम करते रहना

इसे सर्वत्र बिखेरते रहना 

क्योंकि वे जो सच में रोना चाहते हैं

उन्हें रोने के लिये

मजबूत कन्धों की नहीं 

नरम हथेलियों की ज़रूरत है

जिन पर मुख रख वे अपनी नज़रें छिपा सकें

उन सभी पीड़ाओं से

जो उनके अंतस में पनपी

वहीं पोषित हुईं

और उन्हीं में शहीद हो गयीं

इसलिए प्रेम साधना समझ कर करना!!



आसान नहीं था औरत होना


औरत... आसान नहीं था औरत होना

इसलिये रचा गया भ्रम

हव्वा के नाम पर

और मढ़ दिया गया

सारा दोष स्त्री के सिर

उन्हें पता था कि ऐसे

तमाम इल्ज़ाम ले कर भी

बचा ले जायेंगीं वह अपना अस्तित्व

जिसका धर्म जीवनदान हो

वह किस प्रकार दोषी हो गयी

इस सृष्टि में मरणशीलता लाने की?



आसान नहीं था औरत होना

आसान नहीं था विषम परिस्थितियों में हाथ बांधे रखना

इसलिये परमात्मा ने दिये

स्त्री को दस हाथ

जिससे वे थामे रखें दसों दिशायें

और संतुलित रहे ये धरा!!



आसान नहीं था औरत होना

आसान नहीं था पिता, भाई, पति, पुत्र

सबके हिस्से की गलती अपने हिस्से में लेना

अपने जीवन के पुरुषों के हक़ में

यह इल्ज़ाम लेते रहना

कि सारे झगड़े का केंद्र स्त्री होती है!!



आसान नहीं था औरत होना

आसान नहीं था स्त्री हो कर भी

स्त्री विरोध में खड़े हो जाना

स्त्री में स्त्रीत्व की कमी होना

पुरूषों में स्त्रीत्व की छवि होना

औरत से भावुकता ग्रहण करने में

कहीं-कहीं स्त्री क्यों चूक गयीं?

कहीं-कहीं पुरुषों ने उनकी संवेदनशीलता

पूर्णतः आत्मसात की!!



आसान नहीं था औरत होना

आसान नहीं था ऐसी दुनिया में रहना

जिसकी जीविका स्त्री से चलती हो

जिसका संचालन स्त्री करती हो

जिसे स्त्री पोषित करती हो

फिर भी

ये सुनती रहती हो कि

तुम दिन भर करती ही क्या हो?

आसान नहीं था घोषित रूप से

कमजोर स्त्री का

इस पृथ्वी को अपने कंधों पर टिकाये रखना!!






भीड़


समय के साथ जीवन में भीड़ बढ़ती जा रही है।

एक छोर का जीवन दूसरे छोर तक

पहुँचना चाहता है पर 

दूसरे छोर के पार होने का मतलब है 

व्योम के उस पार जाना।

भीड़ की प्रवृत्ति है बेवज़ह का दबाव बनाना

आप भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहते

आप भीड़ से अलग भी नहीं होना चाहते

भीड़ की अपनी शर्ते अपने नियम होते हैं

उन शर्तों को नहीं मानने पर

निश्चित है भीड़ आपको मार देगी

किन्तु आप तो मरना भी नहीं चाहते

आपमें असीम जिजीविषा है

बेहतर है

भीड़ का हिस्सा बने बिना उसमें खो जाइये!!

इन शब्दों की तरह ही जीवन का आकार भी छोटा-बड़ा है

सिर्फ बड़ा बन कर

बड़े रास्तों पर चल कर ही

बड़ा नहीं बना जाता!!




अपराध-बोध

अपराध करने से नहीं होता है अपराधबोध
ख़ुद को अपराधी  समझने से होता है।
अपराधबोध की भावना अपराधियों में नहीं जगती
बल्कि सच्चे इंसानों में जगती है।


ख़ुद को अपराधी स्वीकारना
पापों का नहीं
अपनी नैतिकता के ज्ञान का
प्रतिउत्तर होता है।
अपराधबोध का एहसास होना


अपनी नियत का परीक्षण है
और नियत का परीक्षण
स्वयं की नियति का परीक्षण है।
अपराधबोध के अस्तित्व में आने से
अपनी आत्मा का
शुद्धीकरण सरल हो जाता है
किन्तु आत्मा का हनन सुनिश्चित हो जाता है।
अपराधी उठाते रहते हैं
अपराधबोध के अवसर का फ़ायदा
जज़्बात खुरच- खुरच कर
निकाले जाते हैं
मनुष्य की देह से प्राण।


अपराधबोध मन की सन्तति है
इसे रखना चाहिये गुप्त
अपराधबोध का प्रत्यक्ष विवरण देने से
इंसान मोहरा बन जाता है
एक अपराध की ग्लानि के बदले
उसे आजीवन चलनी पड़ती है
प्यादों की चाल।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'