शिवदयाल का आलेख 'भारत में शिक्षा : गौरव से ग्लानि की यात्रा'

 

शिवदयाल


हम भारत के लोग आमतौर पर अपने को विश्व गुरु कहते नहीं अघाते। प्राचीन भारत के संदर्भ में अगर यह बात की जाए तो कुछ और तो कुछ अर्थों में यह उचित भी जान पड़ता है लेकिन इसके बाद भारत में शिक्षा की जो दुर्गति हुई उससे यह संबोधन अर्थहीन हो गया। समूचा मध्यकाल राजनीतिक दृष्टि से भले ही महत्त्वपूर्ण हो, शैक्षणिक दृष्टिकोण से यह काल भारत के लिए कोई खास मायने नहीं रखता। कहा जा सकता है कि शैक्षणिक तौर पर यह ग्लानि का युग था। वह तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने भारत में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की नींव रखने का कार्य किया। हालांकि वास्तविकता यह है कि उन्होंने यह विकास अपने लिए ऐसे काले अंग्रेज तैयार करने के लिए किया था जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो, लेकिन मन और मस्तिष्क से अंग्रेज हो। वे काफी हद तक अपने उद्देश्य में सफल भी रहे। बरहाल इन्हीं परिस्थितियों में भारत में आधुनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई और ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं का विकास हुआ। कवि और विचारक शिवदयाल ने भारत में शिक्षा के विकास पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। आज पहली बार पर हम शिवदयाल जी का एक लंबा आलेख 'भारत में शिक्षा : गौरव से ग्लानि की यात्रा' प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'भारत में शिक्षा : गौरव से ग्लानि की यात्रा'।




'भारत में शिक्षा : गौरव से ग्लानि की यात्रा'



शिवदयाल




कल्पना कीजिए कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय नालंदा महाविहार विनष्ट होने से बचा रह जाता! तब आज के भारत की कैसी तस्वीर होती? क्या हम वही होते जो आज हैं, बल्कि क्या दुनिया भी ऐसी ही होती जैसी आज दिखाई देती है? वह भारत के इतिहास की सबसे संघातक सांस्कृतिक दुघर्टना थी जब सन् 1200 के आस-पास तुर्क सेनापति बख्तियार खिलजी ने तत्कालीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र पर आक्रमण करके सैकड़ों शिक्षकों-विद्यार्थियों की हत्या कर दी और समूचे परिसर का ध्वंस कर दिया। कहते हैं विश्वविद्यालय का पुस्तकालय महीनों तक जलता रहा था। सदियों में संग्रह की गई विभिन्न विषयों की पुस्तकें और पाण्डुलिपियाँ राख होती रहीं। उस समय तक नालंदा महाविहार लगभग आठ सौ साल का हो चुका था! इस हिसाब से यह अनुमान गलत नहीं ठहराया जा सकता कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में लगभग नब्बे लाख पुस्तकें और पाण्डुलिपियाँ संग्रहित थीं। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्तवंश के शासक शक्रादित्य ने चौथी शताब्दी में की थी। कैसा संयोग कि लगभग उसी समय विश्व के प्राचीनतम शिक्षा केन्द्र तक्षशिला का अवसान हो रहा था। तक्षशिला पर उत्तर और पश्चिम से लगातार बाहरी जातियों के आक्रमण हो रहे थे। कहा जाता है कि हूणों के आक्रमण के बाद तक्षशिला प्रायः नष्ट ही हो गया, पुनः खड़ा नहीं हो सका। तक्षशिला में अध्ययन के लिए ग्रीक से ले कर चीनी विद्यार्थी तक आते थे, उपमहाद्वीप के छात्रों की तो बात ही क्या!



बख्तियार खिलजी का बर्बर अभियान नालंदा तक ही सीमित नहीं रहा। उसने उदंतपुरी और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों को भी आग लगा कर नष्ट कर दिया। शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में कितना व्यापक और विदीर्ण करने वाला निर्वात (वैकुम) यह रहा होगा हमारे पूर्वजों के लिए, आज हम इसकी ठीक-ठीक कल्पना भी नहीं कर सकते। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि आज हम यह अनुमान लगाने के योग्य नहीं हैं कि अपनी महान शिक्षा संस्थाओं को संरक्षित रख सकने वाला भारत कैसा होता? विश्व में उसका स्थान कहाँ होता? उसका अवदान क्या होता...! शिक्षा संस्थाओं के आक्रांताओं के हाथों विनाश की ग्लानि युद्ध होने की ग्लानि से बहुत बड़ी और गहरी रही होगी। इस भयानक कुकृत्य के प्रतिकार का कोई विवरण नहीं मिलता। संभव है, प्रतिकार हुआ भी न हो, और हुआ भी हो तो कारगर न हुआ हो जो दर्ज हो सके। यह घटना तत्कालीन लचर राजव्यवस्था सवं सुप्त नागरिक चेतना की पोल भी खोलती है। यह मानना मूर्खता ही होगी कि आक्रांता जाहिल थे और उन्हें पता नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं कि शिक्षा केन्द्र और पुस्तकालय क्या चीज होते हैं। इस घटना के सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले गजनी के महमूद ने भारत को लूटने के अभियानों से प्राप्त माल-असवाब से अपनी राजधानी में अच्छे पुस्तकालय भी बनवाए थे। वे धर्मांध और बर्बर थे, जाहिल नहीं। वे भारत की सम्पदा लूटने आए थे, फिर अपनी राजनीतिक सत्ता खड़ी कर ली जो कि धर्मसत्ता से अलग नहीं थी, उसी की अभिव्यक्ति थी। महमूद से ले कर औरंगजेब के समय तक जो ध्वंस हुआ, वह केवल उपासना स्थलों का ही नहीं शिक्षालयों का भी हुआ। शिक्षा और उपासना हमारे यहाँ अविलग, अविभाज्य, एकमेव अस्तित्व रहे हैं। तक्षशिला, नालंदा विश्वविद्यालय में भी अनेक मंदिरों और स्तूपों की उपस्थिति रही है। भारत का पारम्परिक ज्ञान जो बच गया वह बचे-खुचे मंदिरों के संरक्षण और मौखिक परम्परा के चलते ही बचा। इस काल में स्त्रियों की शिक्षा और स्वतंत्रता पर सदियों के लिए ग्रहण लग गया। इस दृष्टि से यह घोर सांस्कृतिक पराभव का काल था। स्त्रियों के प्रति चरम भोगवादी दृष्टि ने सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार को एकदम से बदल दिया। उनकी शिक्षा तो दूर, उनका घर से बाहर निकलना दूभर हो गया। अलाऊद्दीन खिलजी के अमीर और सेनापति रहे तूती-ए-हिन्द अमीर खुसरो ने अपनी बेटी के लिए लिखा कि वह दरवाजे की ओर पीठ करके ही चरखा चलाए, ऐसी ही जरूरत हो तो दरो-दीवार में सुई के नकुए बराबर छेद से बाहर दुनिया का कारोबार देखे। खुसरो की हैसियत के आदमी की इस ताकीद से अनुमान लगाया जा सकता है कि साधारण औरतों का समाज में क्या दर्जा रह गया था।





खिलजियों की ताजपोशी तक दिल्ली सल्तनत स्थिर होने लगी थी और दिल्ली भारत की राजनीतिक सत्ता का नया केन्द्र बन गई थी। भारत राजनीतिक ही नहीं सांस्कृतिक पराधीनता के दलदल में फँसता चला जा रहा था। भारत का धर्म, मूल्य, परम्पराएँ और संस्थाएँ घृणा की वस्तु थीं नये शासको की निगाह में। यह सर्वथा नया, अपूर्व अनुभव था भारत के लोगों के लिए। इसके पहले कितनी ही जातियों के लोग भारत आए और यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में समा गए। ऐसा भी नहीं कि यहाँ धर्म-पंथों की आपसी टकराहट और झगड़े-झंझट नहीं हुए, लेकिन धर्म और आस्था को दासता का आधार - एक सामान्य राजकीय नीति के तहत, कभी नहीं बनाया गया। नये शासकों के लिए प्रजा एक विजित समुदाय मात्र थी। शासन के मूल्य बदले, राजकीय तौर-तरीके बदले, राजकाज की भाषा बदल गई। उसी प्रकार शिक्षा का लक्ष्य और उद्देश्य, विषयवस्तु, शैक्षिक प्रक्रिया और भाषा - सब कुछ बदल गया।




मकतब और मदरसे प्राथमिक और उच्च शिक्षा के नये केन्द्र बने जहाँ फारसी और अरबी में धार्मिक और सांसारिक शिक्षा दी जाती थी। विषय क्षेत्र और आयतन के स्तर पर शिक्षा का अत्यधिक संकुंचन हुआ। शिक्षार्थियों पर नितांत अपरिचित, अजनबी लिपि और भाषा को  सीखने और उसके माध्यम से ज्ञानार्जन का दबाव था। ऐसे में बहुसंख्यक आबादी के लिए शिक्षा में शायद ही कोई आकर्षण बचा, और नये शासकों को इससे कोई मतलब भी नहीं था। यों सगे चाचा और ससुर को मार कर दिल्ली की गद्दी हथियाने वाले अलाउद्दीन खिलजी से ले कर 'महान' अकबर ने भी मदरसे बनवाए लेकिन शिक्षा केन्द्रों का संचालन अनिवार्य रूप से शासन का विषय नहीं था। प्रायः अमीर-उमरा और समाज के प्रभावशाली लोग इनके संचालन में सहयोग करते थे। यही व्यवस्था कमोवेश अंग्रेजों के समय तक बनी रही और कुछ परिवर्तित रूप में आज भी मौजूद है। आज भी शिक्षा पूरी तरह सरकारी उपक्रम नहीं है। यहाँ यह बात रेखांकित करनेवाली है कि तेरहवीं सदी में ही भारत की मुख्य-धारा की शिक्षा व्यवस्था का भारत के पारम्परिक ज्ञान और भाषा से लगभग सम्पूर्ण विच्छेद हो गया। तेरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक का कालखण्ड शिक्षा और ज्ञान-सृजन की दृष्टि से अंधकार युग ही रहा। साहित्य अवश्य नई रचनाशीलता से समृद्ध होता रहा - उत्तर से दक्खिन तक।





वास्तव में भारत के पारम्परिक ज्ञान और शैक्षिक प्रक्रियाओं से नये शासकों का कोई लेना-देना नहीं था जबकि भारत में वृहद और महान शिक्षा संस्थाओं की उपस्थिति रही थी। वह भी शताब्दियों में उनका विकास हुआ था। उन्होंने नये विषयानुशासनों को पाठ्यचर्चा में शामिल कर के शिक्षा में नवाचार को प्रोत्साहित किया था। अब यह इतनी विशाल और समृद्ध विरासत यों ही धरी रह गई, बल्कि उन्हें नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। संस्कृत को किनारे लगा दिया गया जो कि शोध और अनुसंधान की भाषा भी थी। संस्कृत सहित भारतीय पद्धति की शिक्षा अब मंदिरों और पाठशालाओं में सिमट आई। कुछ केन्द्र शायद कहीं नाम मात्र को बचे, वह भी अधिकतर दक्षिण भारत में। पाली तथा बौद्ध शिक्षा का भी यही हश्र हुआ। शिक्षा केन्द्र अपने लघु और विकेन्द्रित रूप में ज्ञान-सृजन के केन्द्र नहीं बन सकते। ज्ञान-सृजन के लिए शैक्षिक अधिरचना जरूरी है। मध्य युग सचमुच अंधकार-युग रहा इस दृष्टि से। यही यह समय था जब आयुर्वेद, भारतीय चिकित्सा विज्ञान जिसे चरक, सुश्रुत, पुनर्वसु, अत्रेय और जीवक जैसे महान आचार्यों ने विकसित किया था, हाशिये पर डाल दिया गया। वास्तव में गुलामों से ले कर मुगलों के शासन तक में शिक्षा के क्षेत्र में जो कुछ भी हुआ वह मुस्लिम भारत के लिए था, बहुसंख्यक हिन्दू भारत को ध्यान में रख कर शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई। उसमें भी शिक्षा के लाभार्थी सामान्यतः कुलीन वर्ग के ही लोग थे। पहले शेरशाह और बाद में अकबर ने सामान्य मुस्लिम विद्यार्थियों को शिक्षा उपलब्ध कराने की व्यवस्था की।


वारेन हेस्टिंग्स



जिस समय भारत अपनी ज्ञान-परम्परा से कट गया था, लगभग वही समय यूरोप में पुनर्जागरण का है, यह एक अजीब संयोग है। यूरोप के पुनर्जागरण और फिर ज्ञानोदय के साथ नई चिंतन पद्धतियाँ और दार्शनिक स्थापनाएँ, वैज्ञानिक आविष्कार, नई तकनीक और प्रौद्योगिकी, उत्पादन-उपभोग की प्रवृत्तियों और तरीकों में बदलाव, आदि अनेक संदर्भ जुड़े हैं। यह समय औद्योगिक सभ्यता की शुरुआत का भी है और यहीं से नाविकों के साहसिक अभियानों से न केवल महाद्वीपों को एक-दूसरे से जोड़ने की नई पहल हुई बल्कि उपनिवेशवाद की शुरुआत भी हुई। यूरोप में समुद्री अभियानों की होड़ शुरू हो गई जिसकी प्रमुख प्रेरणा धरती के नये क्षेत्रों पर आधिपत्य जमाना रही थी। ब्रिटिश, फ्रांसिसी, डच और पुर्तगाली बेड़े अमेरिका, एशिया और अफ्रीका की जमीनों को दखल कर रहे थे। जिन इलाकों में आदिम सभ्यताएँ थीं, उनको उन्होंने रक्तरंजित किया - मूल निवासियों का सफाया कर के, और जहाँ विकसित राजसत्ताएँ थीं जैसे कि चीन और भारत में, वहाँ उन्होंने व्यापार का दामन पकड़ा। समुद्री अभियानों का एक बड़ा कारण था तुर्कों द्वारा पन्द्रहवीं शताब्दी में कुस्तुनतुनिया पर अधिकार; (1453 ई.) स्थापित कर लेना। इस घटना से यूरोप का एशियाई देशों के साथ स्थल मार्ग का व्यापार बंद ही हो गया। समुद्री अभियानों ने यूरोप और एशिया के बीच व्यापार का नया, वैकल्पिक मार्ग खोल दिया। उपनिवेशवाद की शुरुआत तो यूरोप में पहले ही हो चुकी थी, इंग्लैण्ड ने तो वेल्श और आयरलैण्ड पर अपनी सत्ता, भाषा और संस्कृति थोप कर उन्हें अपने अधीन कर ही लिया था। यह अनुभव और ऐसे अन्य अनुभव यूरोप की इन नई प्रभुत्ववादी शक्तियों के काम आए। उन्होंने दुनिया को सभ्य बनाने का बीड़ा उठाया, और कितने ही देशों को अपने अधीन कर लिया, अपना गुलाम बना लिया। अपने इस घृणित कृत्य को उन्होंने धार्मिक औचित्य प्रदान करने की भी कोशिश की। ईसाई धर्म के प्रचार और प्रसार का काम भी साथ-साथ चलता रहा। वास्तव में गोरे उपनिवेशवादियों ने व्यापार धर्म, राजनीति और जोर-जबरदस्ती का एक अत्यंत कारगर फार्मूला बनाया और एशिया और अफ्रीका को ही नहीं, कैरेबियन और अमेरिका, प्रशांत क्षेत्र के अनेक देशों सहित यूरोप के ही साइप्रस और माल्टा को भी उपनिवेश बना दिया।




तो तेरहवीं शताब्दी से ले कर अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक शिक्षा प्रणाली ऐसी थी जिसमें बहुमत की शिक्षा का नगण्य स्थान था - राजकीय स्तर पर निश्चित रूप से। ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1757 में बंगाल पर अधिकार कर लेने के कई वर्ष बाद वारेन हेस्टिंग्स ने प्रशासनिक सुधार की भी मुहिम चलाई और इसमें शिक्षा के पुनर्गठन को भी महत्व मिला। यह भी कितने अचरज की बात है कि अंग्रेज अध्येताओं ने भारत के विस्मृत अतीत, उसके गौरव को पुनर्जीवित करने के लिए भारतीय भाषाओं का अध्ययन शुरू किया, भले ही उपनिवेशित भारत को जानने की गरज से। इन्होंने संस्कृत, लातिन तथा यूनानी भाषाओं के बीच सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की और इन्हें एक ही हिन्द-यूरोपीय कुल की भाषा माना। न्यायाधीश एवं भाषाविद् विलियम जोन्स ने अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्राच्यवाद अथवा 'ओरियंटलिज्म' की शुरुआत की, और इसी के साथ भारतीय परम्परा को (भले ही उसके शुभ तत्वों को) पश्चिमी नजरिए से देखने और परिभाषित करने की भी शुरुआत हुई। उन दिनों ब्रिटेन में उदारवाद की हवा भी वह रही थी और औपनिवेशिकीकरण की मुहिम को औचित्य प्रदान करने के लिए उपनिवेशों की संस्कृति को जानने-समझने और उनके अपने रीति-रिवाजों और विधानों के अनुसार राज-काज चलाने के विचार को प्रश्रय मिल रहा था। भले ही वह उपनिवेशवाद की जरूरतों के लिए ही हो लेकिन प्राच्यवाद ने भारत की लुप्त मनीषा को जागृत करने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई। अट्ठारहवीं सदी के अंत में प्राच्यवाद के प्रभाव में तीन संस्थाएँ अस्तित्व में आईं - कलकत्ता मदरसा (1781), एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (1784) तथा संस्कृत कॉलेज, बनारस (1794)। इन संस्थाओं का मूल उद्देश्य भारतीय प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन, शोध, अनुवाद तथा विभिन्न विषयों - इतिहास, कला, दर्शन, विज्ञान आदि पर स्तरीय पुस्तकों, लेखादि का प्रकाशन करना था। बम्बई के गवर्नर जोनाथन डंकन ने बनारस का रेजिडेंट रहते हुए 1791 में वहाँ संस्कृत कॉलेज की स्थापना की ताकि हिन्दू दर्शन एवं विधि-विधानों के अध्ययन को बढ़ावा दिया जा सके, (बाद में 1958 में यह संस्कृत विश्वविद्यालय बन गया। 1974 में इसे विश्वविद्यालय बनाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द के नाम पर इसका नामकरण सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय कर दिया गया।) बाद में कलकत्ता में ही फोर्ट विलियम कॉलज की स्थापना भी ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों-कर्मचारियों को भारतीय भाषाओं और परम्पराओं-विधानों से परिचित कराने के उद्देश्य से की गई। इसी दौरे में उपनिवेशवाद और औपनिवेशिक शासन को वैधता प्रदान करने के उद्देश्य से भारत और ब्रिटेन (यूरोप) के बीच अतीत का सम्बन्ध जोड़ने के लिए 'आर्य-आक्रमण सिद्धांत' का प्रतिपादन हुआ और स्वाभाविक रूप से आर्यों का यूरोप से सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिशें हुईं। आर्य-आक्रमण की स्थापना इस मजबूती के साथ 'जागृत' भारतीय मन में जमाई गई थी कि उसे दो सौ सालों तक हिलाया नहीं जा सका। आज यह स्थापना लगभग खंडित हो चुकी है और माना जा रहा है कि इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है, बल्कि एक परिकल्पना, एक खामखयाली मात्र है। इस संदर्भ में वारेन हेस्टिंग्स के उस कथन का उल्लेख आवश्यक है जिसमें उसने कहा था - 'ज्ञान का संचय हर राज्य के लिए उपयोगी है... वह सुदूर; यानी अतीत के प्रेम को आकर्षित करता है और अपना बनाता है, वह उस जंजीर को हल्का बनाता है जिसके द्वारा मूल प्रजा को अधीनता में रखा जाता है और यह हमारे अपने देशवासियों (ब्रिटिश लोगों) के हृदयों में परोपकार तथा दायित्व का भाव भरता है, उसकी छाप छोड़ता है (1785)। हेस्टिंग्स के इस कथन से प्राच्यवाद और उसके द्वारा शुरू किए गए संवाद के राजनीतिक उद्देश्य और निहितार्थ स्पष्ट हो जाते हैं।



डेविड हेयर



शिक्षा के क्षेत्र में उपनिवेशकों के प्रयासों के अलावा कुछ निःस्वार्थ, अराजनीतिक, मानवतावादी विदेशियों ने भी पहल की जिनमें प्रमुख थे स्कॉटलैण्ड से सन् 1800 ई. में एक घड़ी-व्यापारी के रूप में अपनी किस्मत आजमाने भारत आए डेविड हेयर जिन्होंने अपनी कमाई देशी बच्चों और युवाओं की शिक्षा पर खरच दी। उन्होंने हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जो बाद में प्रेसिडेंसी कॉलेज के नाम से जाना गया (20 जनवरी 1817)। उन्होंने 1817 में ही स्कूल बुक सोसायटी की स्थापना की जिसने अंग्रेजी और बांग्ला में बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित कीं। 1818 में उन्होंने कलकत्ता स्कूल सोसायटी की स्थापना की राधाकांत देव के साथ मिल कर। उन्होंने नई शिक्षण पद्धतियों के प्रयोग को आजमाने वाले स्कूलों की स्थापना के लिए हर संभव प्रयास किए। इन स्कूलों में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी और बांग्ला भाषाएँ थीं। बंगाल के बच्चों को आधुनिक शिक्षा देना उनका जीवनोद्देश्य था। उनके अथक प्रयास बंगाल के नवजागरण में फलीभूत हुए। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि हेयर बंगाल के नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय के मित्र थे। हेयर ने स्त्री शिक्षा के लिए भी कार्य कियाए 1824 में उन्होंने 'लेडीज सोसायटी फॉर नैटिव फीमेल एजुकेशन' की भी स्थापना की। हेयर के विषय में यह बात जानना महत्वपूर्ण है कि वे शुद्ध मानवतावादी थे, उन्हें ईसाई मिशनरियों या उनके धर्मांतरण प्रयासों से कुछ लेना-देना नहीं था। उन्होंने जो कुछ किया, देशी लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन के लिए किया। उनकी बेहतरी के लिए किया। यही कारण था कि 1 जून 1842 को जब उनकी मृत्यु हुई तो उनकी अभूतपूर्व शवयात्रा निकली जिसमें हजारों शोकाकुल लोग शामिल थे। लेकिन कैसी विडम्बना कि मिशनरियों ने अपनी कब्रगाहों में उनके शव को दफनाने की अनुमति नहीं दी। उन्हें हेयर स्कूल-प्रेसिडेंसी कॉलेज के अहाते में दफनाया गया। आज भी वहाँ उनकी प्रतिमा है।





हेस्टिंग्स के बाद धीरे-धीरे प्राच्यवाद का कम्पनी शासन पर प्रभाव घटता चला गया और उपयोगितावाद को प्रश्रय मिलने लगा। एक बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गई कि भारत को ब्रिटिश भारत में बदलना था। इस दिशा में महत्वपूर्ण काम यह हुआ कि 1835 में शासन की भाषा अंग्रेजी बना दी गई। फारसी जो लगभग छह सौ वर्षों पहले सल्तनत काल की शुरुआती दौर में ही राजभाषा बना दी गई थी, उसे अंग्रेजों ने एकदम से हटा दिया। अंग्रेजी भाषा को भारत में 'कानून का शासन' स्थापित करने का अनिवार्य माध्यम माना गया। यह सत्ता और वर्चस्व की भाषा थी और सांस्कृतिक श्रेष्ठता को भी स्थापित करती थी। कानून के शासन के विचार की सबसे प्रभावी अभिव्यक्ति लार्ड बेंटिंक के शासन काल में हुई। जिसने 1829 में सती प्रथा को कानून बना कर समाप्त कर दिया। 1835 में ही भारतीय दंड संहिता का निर्माण टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले ने किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी की सुप्रीम काउंसिल ऑफ इंडिया के लॉ मेंबर के रूप में। यह संहिता वास्तव में 1859-60 में लागू हुई। सन् 1835 औपनिवेशिक भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जा सकता है। इसी वर्ष दूरगामी महत्व और प्रभाव के ऐसे निर्णय लिए गए जिनका प्रभाव आज तक बना हुआ है। इन निर्णयों के पीछे एक ही व्यक्ति था - लॉर्ड मैकॉले जो भारत में केवल चार वर्ष रहा - 1834 से 1838 तक। मैकॉले ने भारत की शिक्षा प्रणाली को हमेशा के लिए बदल दिया, जिसके लिए उसे आज तक याद किया जाता है, भले ही बहुत सम्मान के साथ नहीं।



लॉर्ड मैकाले



अठारहवीं शताब्दी के अंत से ही भारत में शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा की विषयवस्तु एवं शिक्षा की भाषा को ले कर एक द्वैध चला आ रहा था जिसे मैकॉले ने समाप्त कर दिया। लार्ड विलियम बेंटिंक द्वारा गठित शिक्षा आयोग के अध्यक्ष की हैसियत से उसने जो सिफारिशें दीं, वे 'मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन' के नाम से विख्यात हैं। भारतीय ज्ञान-परम्परा के प्रति उसमें घोर निरादर का भाव था और यूरोपीय शिक्षा और ज्ञान के आगे उसे वह तुच्छ समझता था। अरबी-फारसी और संस्कृत भाषाओं के प्रति उसकी राय थी कि ये भाषाएँ उपयोगी अधिगम में बाधक हैं और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा इनके माध्यम से नहीं दी जा सकती। उसने ब्रिटिश ढर्रे, मॉडल की शिक्षा प्रणाली की सिफारिश की जिसके लिए अंग्रेजी को शिक्षण की भाषा बना दिया। उसने भारत में पहली बार माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था लागू की। वह भारत में ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहता था जिससे कि बच्चे यूरोप के नवजागरण, वैज्ञानिक आविष्कारों और ज्ञानोदय से परिचय प्राप्त करें और यूरापीय दृष्टि और जीवन-मूल्यों से लैस हों। वह वास्तव में भारत को 'सभ्य' बनाने के पवित्र मिशन में जुटा था। उसने अपने इस प्रसिद्ध 'मिनट'  में लिखा कि संस्कृत भाषा में लिखी सभी पुस्तकों को मिला कर जो कुछ (ज्ञान) संग्रहित है वह इंग्लैंड के प्राथमिक विद्यालयों में प्रयुक्त शिक्षण सामग्री के सार-संक्षेप से भी कम मूल्यवान है। मैकॉले का एक कथन बार-बार उद्धृत किया जाता है - हमें अपनी ओर से एक ऐसे वर्ग को तैयार करने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए जो हमारे तथा हमारे द्वारा शासित उन करोड़ों लोगों के बीच एक दुभाषिए का कार्य करे, यह ऐसे व्यक्तियों का वर्ग हो जो रक्त एवं वर्ण में भारतीय हो, किन्तु रुचि में, मत में, नैतिकता में तथा बौद्धिकता में इंग्लिश (अंग्रेज) हों। हम इसी वर्ग पर यह भार छोड़ें कि वह देशी भाषाओं का परिष्कार करे, उन्हें पश्चिमी नामपद्धति वाली वैज्ञानिक शब्दावलियों से समृद्ध करे और व्यापक जन समुदाय को शिक्षित करने में इनका उपयोग करे।





पिछले छह सौ वर्षों में भारतीय शिक्षा पद्धति में यह दूसरा बड़ा बदलाव था जिसमें देशी या पारम्परिक शिक्षा पद्धति को बिल्कुल दरकिनार कर दिया गया था। तेरहवीं शताब्दी में हुए बदलाव से तब भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती। उपनिवेशवादियों ने संस्थाओं का ध्वंस नहीं किया। शिक्षा को धार्मिक आग्रहों से मुक्त रखा और उच्च वर्गों की ओर झुकाव (मैकॉले की नीति ही यही थी) के बावजूद प्रकट रूप में हर जाति-समुदाय के लिए समान रूप से खुला रखा। अपने ही हक में सही उन्होंने भारतीय जनता को यूरोप के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराया। मैकॉले ने जोर दे कर कहा था कि भारतीय लोग स्वयं अपने लिए अंग्रेजी शिक्षा चाहते हैं क्योंकि उन्हें इस भाषा में अपना भविष्य दिखता है। एक प्रकार से देखा जाए तो भारत की बहुसंख्यक जनता के लिए बराबरी के स्तर पर शैक्षिक प्रक्रिया का हिस्सा बनने का अवसर मिल रहा था। अंग्रेजों ने ऊपरी तौर पर शिक्षा के सार्वजनीकरण को बढ़ावा दिया, और बाद के शासकों ने मैकॉलेवाद को पूरी तरह न अपना कर एक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की जिसमें स्थानीय भाषाओं की भी उपेक्षा न हो, उनका विकास भी हो और जनता की सांस्कृतिक जरूरतों की भी पूर्ति हो। 1854 में पुनः एक बड़ा परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है जब लार्ड डलहौजी को सर चार्ल्स वुड (प्रेसिडेंट, बोर्ड ऑफ कंट्रोल ऑफ इंडिया) ने ब्रिटिश भारत में शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार सम्बन्धी अनुशंसाएँ भेजीं। इन्हें ही 'वुड का डिस्पैच' कहा जाता है। प्रमुख अनुशंसाएँ थीं  - प्राथमिक स्तर की पढ़ाई देशी भाषा में हो, माध्यमिक स्तर की पढ़ाई देशी भाषा के साथ अंग्रेजी भाषा में हो तथा उच्च स्तर (कॉलेज स्तर) पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा हो। वुड ने स्त्री शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की भी वकालत की। उसने हर जिले में एक स्कूल और हर प्रांत में शिक्षा विभाग के गठन की सिफारिश की। उसने बम्बई, कलकता और मद्रास (तब के नाम) जैसे शहरों में लंदन के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर विश्वविद्यालयों की स्थापना पर जोर दिया। उसने शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था को भी जरूरी माना। डलहौजी ने वुड की लगभग सभी सिफारिशों को मान लिया। इसके बाद ही 1857 में कलकत्ता विश्वविद्यालय, बम्बई विश्वविद्यालय और मद्रास विश्वविद्यालय, 1882 में पंजाब विश्वविद्यालय तथा 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और भारत का शैक्षिक परिदृश्य बदल गया। नालंदा-विक्रमशिला के नष्ट होने के बाद पहली बार विश्वविद्यालय पुनः भारत के शैक्षिक-सांस्कृतिक जीवन का अंग बन सके। इससे भारत के राष्ट्रीय जीवन में एक नया उन्मेष आया।


लॉर्ड डलहौजी 



वास्तव में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ले कर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक औपनिवेशिक शासन को चलाने के लिए मैकॉले द्वारा परिकल्पित वर्ग भारत में तैयार हो चुका था। लेकिन भारत में अंग्रेजी शिक्षा के बहुआयामी प्रभाव हुए। एक ओर तो प्राच्यवाद ही नहीं बल्कि पुनर्जागरण और ज्ञानोदय के बाद की वैज्ञानिक चिंतन पद्धति तथा स्वतंत्रता, समानता जैसे उदार व लोकतांत्रिक मूल्यों तथा ब्रिटिश लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रभाव में भी भारत में देशी विचारकों का एक समूह खड़ा हुआ जो बाहरी दुनिया को तो गौर से देख रहा था, लेकिन वह स्वयं कहीं आत्मान्वेषी भी था, वह अतीत का सिंहावलोकन कर रहा था। इस वर्ग में भारत के प्राचीन गौरव को पुनःस्थापित करने की उत्कट अभिलाषा थी। वह औपनिवेशिक शासन और इसके द्वारा अंजाम दिए जा रहे शोषण-दमन की भी पूरी खबर रख रहा था। इधर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम, जिसे अंग्रेज 'सिपाही विद्रोह' कहते थे, के बाद ब्रिटिश शासन प्रतिक्रियात्मक या प्रतिक्रियावादी हो गया था। उपनिवेशी भारतीय जनता के प्रति उसका 'पितृ-भाव' अब जाता रहा था। इसी कशमकश में भारतीय राष्ट्रवाद आकार ले रहा था जो यूरोप के राष्ट्र-राज्य से अलग था, मानकों और मूल्यों की दृष्टि से भी।



एक महत्वपूर्ण बात ध्यान देने की यह है कि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में अंग्रेजी शिक्षा और यूरोपीय ज्ञान परम्परा से जुड़ने का आकर्षण और तत्परता अधिक थी। बदले हुए शैक्षिक परिदृश्य में वे अपने लिए बेहतर अवसर देख रहे थे, उनकी दमित ज्ञान पिपासा को मानो तृप्ति का आश्वासन था। इसके परिणामस्वरूप शिक्षित भारतीयों का भी एक अभिजात्य वर्ग खड़ा हुआ जिसमें आविष्कारक थे, विचारक थे, प्रशासक और न्यायाधीश थे। इसमें कुछ ही दशकों में वैज्ञानिकों और आविष्कारकों की एक नई पौध विस्मित करने वाली परिघटना है। भौतिकी, गणित, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान आदि विज्ञान के विषयानुशासनों में एक प्रकार से भारतीय प्रतिभा का विस्फोट दिखाई देता है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षित-दीक्षित हुई थी। शिक्षा के इन बड़े केन्द्रों में उन्हें ज्ञान-सृजन का अवसर मिला था, और उन्होंने खुद को साबित भी किया। इनमें से अनेक उच्चतर शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड और दूसरे देशों में भी गए। कला और साहित्य, धर्म और अध्यात्म तथा राजनीति के क्षेत्र में भी मानो हर दिन कुछ नया घट रहा था। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में आधुनिक ढर्रे के औद्योगिकीकरण की शुरुआत हो चुकी थी, खनन, कपड़ा, लौह एवं इस्पात, बागान, सीमेंट आदि उद्योग यूरोपीय कारखाना प्रणाली के आधार पर विकसित हो रहे थे। इनके लिए जिस शिक्षित और कुशल मानव पूँजी की जरूरत थी, उसकी पूर्ति शिक्षा संस्थाएँ बखूबी कर रही थीं।





दूसरी ओर मुगल सल्तनत के अवसान, फारसी के राजकाज की भाषा न रह जाने और 1857 के विद्रोह के नृशंस दमन के पश्चात मुस्लिम समुदाय भारी दबाव में था। वह 1857 की घटना को ले कर अंग्रेजों के निशाने पर भी था। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा की जो लहर चल रही थी, उससे आमतौर पर मुसलमान अछूते रह गए थे। ऐसे में अंग्रेजी राज में न्यायाधीश रहे एक दूरदृष्टि सम्पन्न इस्लामी विद्वान सर सैयद अहमद खान (1809-1889) ने मुसलमानों को अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से जोड़ने का एक अभियान चलाया जिसने आगे 'अलीगढ़ आंदोलन' की शक्ल ली, और आज के इतिहासकार और अध्येता इसे 'मुस्लिम नवजागरण' से अभिहित करते हैं। यह एक प्रकार का प्रतियोगी सामाजिक-राजनीतिक उपक्रम था जिससे हिन्दू-मुसलमान की फाँक बजाए कम होने के और बढ़ती चली गई। इसी दौर में हिन्दू और मुसलमान को दो अलग कौमों, राष्ट्रों के रूप में देखा जाने लगा। द्विराष्ट्रवाद की सैद्धान्तिकी की निष्पत्ति आगे चल कर भारत-विभाजन के रूप में हुई। सर सैयद अहमद ने 1883 में पटना में कहा - 'दोस्तों, भारत में हिन्दू और मुसलमान नाम की दो प्रमुख कौमें (राष्ट्र) हैं। जैसा कि एक आदमी के कुछ प्रधान अंग होते हैंए उसी प्रकार ये दोनों कौमें भारत के प्रमुख अंग है।' उन्होंने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना को संदेह से देखा था और कहीं राजनीतिक रूप से खतरनाक भी माना था। 1888 में मेरठ में एक भाषण में उन्होंने कहा . "अगर मान लें कि सभी अंग्रेज भारत छोड़ दें, तो उस स्थिति में भारत का शासक कौन होगा? उस स्थिति में क्या यह संभव होगा कि हिन्दू और मुसलमान, दोनों कौमें एक साथ ही गद्दी पर बैठें और दोनों के पास समान अधिकार तथा शक्तियाँ हों। निश्चय ही ऐसा नहीं होगा, उस स्थिति में यह जरूरी होगा कि दोनों में से एक कौम दूसरे को जीत ले और उसे पदच्युत कर दे। यह उम्मीद करना कि दोनों बराबरी की हैसियत में रहेंगे असंभव की इच्छा करना जैसा है, अग्राह्य है।" हालाँकि सर सैयद अहमद का संकीर्ण मुसलमानों ने बहुत विरोध किया, कुछ ने उन्हें काफिर तक कहा लेकिन उनके ही प्रयासों का सुफल है कि मुसलमान मुख्य-धारा की शिक्षा से जुड़ सके और अलग-अलग क्षेत्रों में अपना स्थान बनाया। उनके दो कौम के विचार का उपयोग आगे चल कर अलग मुस्लिम देश पाकिस्तान बनाने के लिए सैद्धान्तिकी गढ़ने में किया गया।






अब जरा सिक्के के दूसरे पहलू को देखते हैं! क्या वास्तव में ब्रिटिश-पूर्व अथवा ब्रिटिशकालीन भारत शिक्षा और तकनीक से शून्य था? क्या यहाँ उद्योग-धंधे, कल-कारखाने थे ही नहीं, ये सब औद्योगिक क्रांति के बाद ही अस्तित्व में आए।  पहले उद्योग और अर्थव्यवस्था पर थोड़ी बात करते हैं। यूरोपीय यात्रियों के लिखे विवरणों को ही प्रमाण मानें तो सत्रहवीं शताब्दी तथा अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारत अधिकांश यूरोपीय देशों की तुलना में आर्थिक रूप से कहीं अधिक विकसित तथा समृद्ध था। भारत में अनेक औद्योगिक केन्द्र फल-फूल रहे थे जिनके उत्पाद दुनिया भर में मशहूर थे। अपनी गुणवत्ता, कम कीमत तथा बेजोड़ कारीगरी के लिए। इनकी चाह में दुनिया भर के व्यापारी भारत आते थे और सोने-चाँदी एवं रत्नाभूषणों से इनका विनिमय करते थे। कपड़े, जरीदार कपड़े, शोरा, तम्बाकू, नील, रेशम आदि वस्तुओं की विशेष माँग थी। भारत की समृद्धि विश्व में चर्चा का विषय थी। इस तरह जिस समय यूरोप में वाणिज्यिक एवं औद्योगिक क्रांति हुई, उस समय भारत विश्व का सबसे धनी देश माना जाता था। यह सम्पन्नता ब्रिटेन और दूसरे देशों को कितनी चुभती थी। इसे एक प्रसंग से समझा जा सकता है। डैनियल डेफो ने 1708 ई. में अपने वीकली रिव्यू में इंग्लैण्ड से भारत की ओर भारी मात्रा में धनोत्सारण के बारे में लिखा और इसे रोकने के लिए सरकार से बड़े उपाय करने को कहा। भारतीय माल के आयात को रोकने के लिए कानून भी लाया गया (ऐक्ट 11 ऐंड 12 ऑफ विलियम 111 कैप, 10)। इसके बाद अन्य यूरोपीय देशों ने भी भारतीय माल के आयात और उपभोग को सीमित या प्रतिबंधित करने की कोशिश की। बेन्स ने लिखा कि यूरोप की सरकारों ने अपने निर्माताओं- उत्पादकों की सुरक्षा के लिए ऐसा कानूनन जरूरी समझा।





लेकिन इसके लगभग पचास वर्ष बाद 1757 की प्लासी की लड़ाई ने पासा पलट दिया। एक गद्दारी के चलते हारी गई इस लड़ाई की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, बल्कि एक तरह से आज तक इसे हम चुका ही रहे हैं। मुगलों के पतन के परिणाम में राजनीतिक अस्थिरता से भारत की अर्थव्यवस्था बहुत अधिक प्रभावित हुई। अंग्रेज व्यापारी भारत के नये शासक बन गए और उन्होंने देश के उद्योग और व्यापार का यूरोपीकरण शुरू कर दिया। इंग्लैंड के पूँजीपति और व्यापारियों ने वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकीय आविष्कारों और खोजों का लाभ उठाना शुरू कर दिया। भारत में अभी वाणिज्यिक और व्यापारिक वर्ग तो था लेकिन उद्योग-धंधे पुराने ढर्रे के चले आ रहे थे। तकनीक से पैदा हुई इस एकदम नई परिस्थिति ने भारत में भारी प्रतिकूलता और हतोत्साह का वातावरण बना दिया। भारत पहुँची नई तकनीक ने पहले से ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बुरी तरह दुहे जा रहे भारतीय उत्पादकों और निर्माताओं की हालत और अधिक खराब कर दी। नई मशीनों और तौर.तरीकों ने उत्पादन की गतिए गुणवत्ता और आयतन बदल कर रख दिया जिससे हमारे पारम्परिक दस्तकार आदि बिल्कुल ही बेकार हो गए, बड़े उत्पादन केन्द्र तो प्रभावित हुए ही। भारत का निर्यात एकदम से गिरने लगा, प्रमुख वस्तुओं का। अब कम्पनी ने कच्चा माल इंग्लैण्ड भेजना शुरू किया और वहाँ के कारखानों से माल तैयार कर भारत भेजा जाने लगा यहाँ के बाजारों में खपाने के लिए। कम्पनी के लिए दोनों तरफ से चाँदी रही लेकिन भारत के उद्योग-धंधे चौपट हो गए। उत्पादक और निर्यातक देश से नीचे गिर कर भारत अब एक कच्चे माल का आपूर्तिकर्त्ता देश बन गया, बल्कि बना दिया गया। कच्चे माल तथा यूरोप के कारखानों से उत्पादित भारतीय बाजारों को भेजे गए माल की कीमत अंग्रेज ही तय करते थे। इस सबका एक और बहुत खराब नतीजा भारतीय बैंक प्रणाली पर भी हुआ। यूरोपीय एजेन्सियों ने बैंकरों को बाजार से बाहर कर दिया जो जमीन्दारी की ओर उन्मुख हुए (इंडस्ट्रीज इन इंडिया ड्यूरिंग एटीन्थ ऐंड नाइंटीन्थ सेन्चुरी, उषारानी बंसल, इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस 19;3, 215.223; 1984)। वास्तव में इस दौर में, भारत में औद्योगिकीकरण से उलट ग्रामीणीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। इस समय यूरोप में मुक्त व्यापार की पैरवी की जा रही थी। इसके प्रभाव में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय बाजार को यूरोप के लिए खोल दिया। 1848 के बाद बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी का भारत में  निवेश होने लगा। रेल एवं संचार, कोयला खनन, कपास, कागज, लोहा एवं इस्पात आदि उद्योगों की स्थापना हुई और भारत का औद्योगिक परिदृश्य बदल गया।


दादा भाई नौरोजी 



तो 1708 में डैनियल डेफो ने ब्रिटेन से भारत की ओर धनोत्सारण से जिस प्रकार ब्रिटिश सरकार को आगाह किया था, इसके लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद 1867 में भारतीय बुजुर्ग दादाभाई नौरोजी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक (पावर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया) में भारत से इंग्लैंड की ओर इसी धनोत्सारण के सिद्धांतकार बन गए और इंग्लैंड द्वारा भारत के औपनिवेशिक शोषण की पूरी कथा लिखी। इस धनोत्सारण का रूपक 1840 में एक कम्पनी अधिकारी जॉन सुलिवैन ने इन शब्दों में दुःख के साथ रचा - 'कम्पनी द्वारा हड़पे जाने के बाद प्रत्येक देशी रियासत (राज्य) में स्थानीय न्यायालय (पंचायत) लुप्त हो जाता है - पूँजी क्षरित होने लगती है। लोग दरिद्र हो जाते हैं। अंग्रेज फलता.फूलता है, वह मानो एक सोख्ता की तरह काम करता है, गंगा के किनारों से धन-सम्पत्ति सोखता है, और टेम्स के किनारों पर उसे निचोड़ देता है।" ब्रिटिश-पूर्व भारत में उद्योग-व्यापार की स्थिति क्या थी? इसे जाबेज टी. सन्दरलैण्ड (1842-1936) ने अपनी पुस्तक 'इंडिया इन बांडेज, 1929, 1932) में इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है - 'सभ्य दुनिया में जाना-पहचाना जाने वाला लगभग हर प्रकार का निर्माण एवं उत्पाद - मनुष्य के मस्तिष्क और हाथों सृजित लगभग प्रत्येक वस्तु जो कहीं भी उपलब्ध हो और उसकी सुंदरता और उपयोगिता के लिए जिसकी ऊँची कीमत लगती हो - भारत में बहुत पहले से उत्पादित होती रही है। भारत यूरोप अथवा एशिया के किसी भी देश के मुकाबले बहुत बड़ा औद्योगिक और विनिर्माणकर्त्ता देश था। उसके वस्त्र उत्पाद - उसके करघों से बने सूती, ऊनी, लिनेन एवं रेशम के बने उत्कृष्ट वस्त्र-परिधान समूची सभ्य दुनिया में प्रसिद्ध थे। ऐसी ही उत्कृष्टता उसके आभूषणों और हर रूपाकार में तराशे गए रत्नों, मिट्टी, चीनी मिट्टी के बर्तनों, हर प्रकार के सिरेमिकय ऐसी ही बारीकी और सुंदरता लोहे, इस्पात, चाँदी और सोने के धातु-कर्म में भी दिखाई देती थी। ....भारत का स्थापत्य सुंदरता में विश्व के किसी भी सुंदर से सुंदर स्थापत्य कला के बराबर था। भारत में इंजीनियरिंग का जबरदस्त काम होता था। भारत में बड़े और महान व्यापारी थे, व्यवसायी थे, बैंकर और वित्तपोषक (फायनान्सर) थे। न केवल भारत सबसे बड़ा जहाज-निर्माता देश था, बल्कि उसका स्थल और समुद्री रास्ते बड़ा भारी व्यापार दुनिया के सभी सभ्य देशों से होता था। ऐसा था भारत जब ब्रिटिश ने वहाँ कदम रखे।"





जिस भारत को उपनिवेशक बर्बर और असभ्य समझते थे और उस पर शासन करना, उसे सभ्य बनाना अपना धार्मिक कर्त्तव्य समझते थे, वह अट्ठारहवीं शताब्दी के आरंभ में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार अंगस मैडिसन ने सप्रमाण दर्शाया है कि अट्ठारहवीं शताब्दी के आरंभ में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 प्रतिशत थी - यूरोप के सभी देशों की कुल हिस्सेदारी के बराबर। यह स्थिति तब थी जबकि मुगलों का पराभव हो रहा था। लेकिन जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तो यह हिस्सेदारी गिरकर तीन प्रतिशत रह गई। मैडिसन ने लिखा है कि इस गिरावट का एक ही कारण था - भारत पर शासन ब्रिटेन के फायदे के लिए किया जाता रहा। ब्रिटेश की 200 वर्षों की उन्नति के पीछे भारत की लूट थी। वास्तव में भारत के लोग स्वयं अपने शोषण-दमन के लिए ब्रिटेन को भुगतान करते रहे। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारत ब्रिटेन के राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत था, उसके उत्पादों का सबसे बड़ा आयातकर्त्ता भी।





तो औपनिवेशिक भारत में औद्योगिकीकरण की कहानी यह है कि पहले भारत का वि-औद्योगिकीकरण किया गया, और तब जा कर यूरोप के औद्योगिक क्रांति के (भारत में) फलाफल बटोरने के लिए औद्योगिकीकरण की शुरुआत की गई। लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि ब्रिटिश-पूर्व भारत की समृद्धि, औद्योगिकीकरण जिसका प्रमुख आधार था, क्या बिना किसी शैक्षिक अधिरचना के संभव हो सकती थी? क्या अनपढ़ और जाहिल भारत विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी हिस्सेदारी कर रहा था?





धरमपाल (1922-2006) का यह जन्मशती वर्ष है, वे चिंतक और अध्येता थे, कोई पेशेवर इतिहासकार नहीं, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश-पूर्व भारत में शिक्षा तथा भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर ऐतिहासिक महत्व का काम किया, वह भी आत्मप्रेरणा से। उन्होंने अंग्रेजों की गढ़ी भारत की उस छवि को तोड़ दिया जिसे हम आज तक सत्य मानते रहे थे, और ब्रिटिश-पूर्व भारत के प्रति एक नई समझ बनाई। उनका शोध-अध्ययन सरकारी अभिलेखों पर आधारित है, जिसके लिए उन्होंने देश-विदेश के तमाम अभिलेखागारों और पुस्तकालयों की खाक छानी। यों उन्होंने गाँधीजी पर, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारतीय पंचायतों आदि विषयों पर खूब लिखा है, लेकिन उनकी दो शोध-पुस्तकें अत्यंत मूल्यवान हैं - 'अ ब्यूटीफूल ट्री : इंडीजीनस इंडियन एजुकेशन इन एटीन्थ सेन्चुरी, तथा इंडियन साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी इन एटीन्थ सेन्चुरी।



धरम पाल 



'अ ब्यूटीफूल ट्री' जयप्रकाश नारायण की स्मृति को समर्पित है जिन्होंने इस कार्य को सहयोग और मार्गदर्शन दिया। धरमपाल ने लिखा है कि इस विषय पर शोध करने की जिज्ञासा और प्रेरणा गाँधी जी के उस विश्वास के चलते हुई जिसमें वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि अतीत में भारत में लोगों को शिक्षा सामान्य रूप से उपलब्ध नहीं थी। 1931 में लंदन में 'भारत का भविष्य' विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा था - 'भारत आज पचास या सौ वर्ष पहले के मुकाबले कहीं अधिक असाक्षर है, क्योंकि ब्रिटिश प्रशासक जब भारत आए तो उन्होंने पहले से चल रही व्यवस्था को समझने और चलाने की बजाए उन्हें निर्मूल करना शुरू कर दिया। उन्होंने मिट्टी कोड़ कर जड़ों को देखना शुरू किया और उन्हें वैसे ही खुला छोड़ दिया, और नतीजा यह कि वह सुंदर वृक्ष सूख गया।'




धरमपाल के इस शोध-अध्ययन का प्रमुख स्रोत है - 1822-1825 के बीच मद्रास प्रेसडेन्सी इंडीजीनस एजुकेशन सर्वे के लिए 21 जिला कलक्टरों से संग्रह किए गए आँकड़े। सर्वेक्षण-फार्म में निम्नलिखित कोटि के विद्यार्थियों के सम्बन्ध में सूचना मांगी गई थी। (1) ब्राह्मण विद्यार्थी, (2) वैश्य विद्यार्थी, (3) शूद्र विद्यार्थी, (4) अन्य सभी जातियों के विद्यार्थी, तथा (5) मुस्लिम विद्यार्थी। इसमें चौथे क्रम पर अन्य सभी जातियों के अंतर्गत, धरमपाल के अनुसार, आज की अनुसूचित जातियाँ थीं। विस्मित करने वाला तथ्य यह है कि 'शूद्र' तथा अन्य जातियों के विद्यार्थियों की संख्या बहुत बड़ी थी जो गाँव के विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। दरअसल 1813 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के चार्टर में भारत में शिक्षा के संचालन के लिए एक लाख रुपये का प्रावधान किया। इस राशि को खर्च करने के पहले शिक्षा की तत्कालीन व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक समझा गया। इसके लिए 1820 तथा 1830 के दशकों में मद्रास, बम्बई तथा बंगाल प्रेसिडेन्सी की सरकारों ने देशी शिक्षा के परिणाम एवं प्रकृति के बारे में सूचना एकत्र करने के लिए सर्वेक्षण कराए। मद्रास के गवर्नर सर थॉमस मुनरो ने सन् 1822 में सर्वेक्षण कराकर 1826 में इसके आँकड़े जारी किए। उस समय मद्रास प्रेसिडेन्सी में 12,498 स्कूल और 740 कॉलेज अस्तित्व में थे जिनमें 1,88,650 विद्यार्थी  पढ़ाई कर रहे थे इनमें 45,202 ब्राह्मण, तथा 85,400 शूद्र कोटि के थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में बच्चे घर में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मुनरो इस निर्णय पर पहुँचा कि स्कूल जाने की उम्र के तीन बच्चों में से एक बच्चा स्कूल में था। यह अनुपात उस समय के यूरोप के देशों की तुलना में काफी बेहतर था। देशी शिक्षा पाठशालाओं, मदरसों और गुरुकुलों में दी जाती थी, यही तीनों संस्थाएँ पारम्परिक ज्ञान प्रणाली का स्रोत थीं, स्थानीय समुदायों की संस्कृति को सींचने वाली धाराएँ थीं। यह जानना भी रोचक और महत्वपूर्ण है कि लगभग हर गाँव में एक स्कूल (पाठशाला) था जिसमें हर जाति-वर्ग के बच्चे पढ़ते थे, लड़कियों की उपस्थिति अवश्य नगण्य थी। यानी कुल मिला कर भारत के उस हिस्से में शिक्षा समावेशी थी और सबके लिए खुली थी।




इस शैक्षिक सर्वेक्षण में एडम-रिपोर्ट का महत्व बहुत अधिक है। विलियम एडम वास्तव में एक पादरी था जो राममोहन राय और उनके ब्रह्म समाज के सम्पर्क में आया, और कालांतर में पादरी के दायित्व से अलग हो गया। उसने बंगाल प्रेसिडेन्सी के शैक्षिक सर्वेक्षण के परिणामों पर तीन रिपोर्ट प्रस्तुत कीं जो एडम्स रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्ध हुईं। इसके अनुसार 1830 तक बंगाल और बिहार में एक लाख स्कूल या ग्राम पाठशालाएँ थीं, जबकि दोनों प्रांतों की कुल जनसंख्या लगभग चार करोड़ थी। बच्चे इन पाठशालाओं में 8 वर्ष की उम्र में प्रवेश करते थे और 14 वर्ष की उम्र तक पढ़ाई करते थे। हिन्दू बच्चे बांग्ला और संस्कृत में शिक्षा ग्रहण करते थे जबकि मुस्लिम बच्चे अरबी और फारसी में। शिक्षकों को पाँच रुपये से ले कर आठ रुपये प्रतिमाह वेतन या पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। शिक्षकों का सम्मान था, वे किसी के नौकर नहीं थे और स्वैच्छिक रूप से सेवाएँ देते थे। पाठशाला या स्कूल किसी विशेष जाति के लिए नहीं थे, हर जाति के बच्चे इनमें शिक्षा ग्रहण कर सकते थे। इन स्कूलों की स्थापना सम्पन्न परिवारों ने या स्थानीय समुदाय ने की थी और प्रायः वे ही इनका खर्च उठाते थे। स्कूल की निश्चित फीस नहीं थी, वह अभिभावकों की आय और आर्थिक स्थिति पर निर्भर थी। स्कूल बिना भवन के भी चलते थे, पेड़ के नीचे या मंदिर में कक्षाएँ लगती थीं। पूरी व्यवस्था लचीली थी और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप थी।



डॉ. जी. डब्ल्यू. लिटनर




1882 में डॉ. जी. डब्ल्यू. लिटनर ने पंजाब के शैक्षिक सर्वेक्षण में दर्शाया कि 1850 के आस-पास पंजाब के प्रत्येक गाँव में स्कूल (पाठशाला) होती थी। अंग्रेजों द्वारा पंजाब के अधिग्रहण के समय 3,30,000 बच्चे देशी स्कूलों में पढ़ रहे थे (1881 में यह संख्या 1,90,000 से कुछ अधिक थी)। ये विद्यार्थी सभी प्रकार के विज्ञान अरबी और संस्कृत स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते थे, साथ ही प्राच्य साहित्य, प्राच्य विधि, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा औषधि विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करते थे। इसके अलावा पंजाब की हर महिला साक्षर थी। इस सर्वेक्षण का पूरा विवरण अपनी टिप्पणियों एवं विश्लेषण के साथ लिटनर ने 1882 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ' इंडीजीनस एजुकेशन इन पंजाब' में दिया है। लिटनर एक प्रख्यात भाषा विज्ञानी था, उसे पचास भाषाएँ आती थीं। उसने अरबी में किताब भी लिखी। वह 1864 में गवर्नमेन्ट कॉलेज लाहौर का प्रिंसिपल था और 1882 में उसी के प्रयासों से पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। लिटनर ने लिखा कि पंजाब में ऐसी परम्परा थी कि निर्लज्ज मुखिया, लालची महाजन, यहाँ तक कि एक लुटेरा भी स्कूलों की स्थापना तथा विद्वानों और पढ़े-लिखों को पुरस्कृत करने के लिए एक अदने-से भूस्वामी से होड़ लेता था। वहाँ एक भी मस्जिद, मंदिर या धर्मशाला नहीं थी जिससे कोई विद्यालय सम्बद्ध न हो। लिटनर के अनुसर ब्रिटिश ने इस पूरी प्रणाली को नष्ट कर दिया। 1857 का बदला लेने के लिए उन्होंने घर-घर की तलाशी ली और एक-एक पुस्तक जला दी। लाहौर के स्कूलों-कॉलेजों की पुस्तकों का अलाव जलाए खासकर अरबी-फारसी पुस्तकों का। अंग्रेजों ने पंजाब की शिक्षा की अत्यंत समृद्ध परम्परा का एक प्रकार से ध्वंस कर दिया जहाँ कि एक कक्षा में अधिकतम 50 बच्चों की संख्या 51 हो जाने पर शिक्षक को दण्डित किया जाता था कि वह बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है। 1850 तक जहाँ साक्षरता दर प्रतिवर्ष बढ़ रही थी, वहाँ न केवल शैक्षिक प्रगति रुक गई, बल्कि लगातार इसका हृास होता चला गया।





तो लिटनर भी पंजाब के संदर्भ में मुनरो और एडम के अध्ययन-निष्कर्षों की पुष्टि करता है। अंग्रेजों ने 1849 में पंजाब पर कब्जा किया, और लिटनर ने उसके पहले शिक्षा की जो व्यवस्था चल रही थी (ब्रिटिश-पूर्व) उस पर विशद रूप से प्रामाणिक तथ्य प्रस्तुत किए। इन तीनों रिपोर्टों से यह बात प्रमाणित हो जाती है कि कमोबेश समूचे भारत में, उत्तर से ले कर दक्खिन तक शिक्षा की एक कारगर और जीवंत व्यवस्था चली आ रही थी जो नालंदा जैसे उच्च अध्ययन केन्द्रों के नष्ट हो जाने के बावजूद विकेन्द्रित स्तर पर चल रही थी। इस शिक्षा व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं जो सब स्थानों पर लगभग एक समान थीं - एक, शिक्षा कुछ दृष्टांतों को छोड़ कर राज्य का विषय नहीं थी। ऐसा नहीं कह सकते कि शिक्षा को राज्याश्रय प्राप्त था, लेकिन राज्य समय-समय पर शैक्षिक प्रयासों और उद्यमों को सहयोग प्रदान करता था। मुस्लिम काल में सुंदर इमारतें तो बनीं लेकिन बड़े, सबके लिए सुलभ शिक्षा केन्द्र नहीं बने।





दो, शिक्षा को समुदाय ने अपना दायित्व माना और इसके लिए आवश्यकता-आधारित, कम खर्चीली लेकिन टिकाऊ व्यवस्थाएँ बनाईं। शिक्षा का जो विकेन्द्रित स्वरूप प्राचीन काल से चला आ रहा था, नालंदा आदि के ध्वंस के बाद से ले कर अंग्रेजों के दखल के पहले तक, वही हमारी शैक्षिक अधिरचना का आधार बना। इस व्यवस्था में गृहकक्षाएँ थीं, पाठशालाएँ थीं और गुरुकुल थे - शिक्षक, शिक्षार्थी और समुदाय इसका आधार थे। गाँव, समुदाय के सम्पन्न लोग जरूर इन शिक्षा केन्द्रों को सहयोग करते थे लेकिन साधारण से साधारण परिवार भी इस व्यवस्था को चलाने में अपने स्तर से योगदान देता था। कालांतर में इस व्यवस्था में मकतब और मदरसे भी शामिल कर लिए गए और शिक्षा का माध्यम भी बहुभाषिक हो गया। पहले संस्कृत और स्थानीय भाषा में पढ़ाई होती थी, अब फारसी और अरबी भाषाएँ भी जुड़ गईं।






तीन, शिक्षा हर जाति-वर्ग के लिए खुली थी। शिक्षा प्राप्त करने से किसी को रोका नहीं गया। पंजाब में महिलाएँ साक्षर थीं, तमिलनाडु में कम महिलाएँ शिक्षा केन्द्रों में थीं, जबकि बंगाल में शिक्षा केन्द्रों में उनकी संख्या नगण्य थी। शिक्षा प्राप्त करने वालों में शूद्र तथा 'अन्य सभी जातियों' (दलित) का प्रतिशत सबसे अधिक था। शिक्षक भी विभिन्न जातियों से आते थे। बंगाल में सबसे निचले पायदान की जाति के भी शिक्षक थे। तमिलनाडु में ब्राह्मणों के निम्न जातियों पर अत्याचार की बातें की जाती रही हैंए सामाजिक आंदोलन भी बीसवीं शताब्दी में देखने को मिलते हैं, लेकिन अंग्रेजों के आने के पहले के मद्रास प्रेसिडेन्सी के आँकड़े इसकी ठीक-ठीक पुष्टि नहीं करते। तमिलभाषी क्षेत्रों में केवल 13.23 प्रतिशत ब्राह्मण विद्यार्थी ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, शूद्र विद्यार्थियों का प्रतिशत 70.84 तक था। केवल तेलुगूभाषी इलाकों में ब्राह्मण विद्यार्थियों की संख्या अधिक थी - 24.46 प्रतिशत। ब्रिटिश-पूर्व भारतीय समाज उतना जातिग्रस्त नहीं था जितना कि उपनिवेश काल में बना दिया।





चार, शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप भी विषय पढ़ाए जाते थे, व्यावहारिक और व्यावसायिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। शिक्षा व्यवस्था अर्थव्यवस्था का पिष्टपोषण करती थी, उसके लिए जरूरी मानव संसाधन को तैयार करती थी। अट्ठारहवीं सदी तक भारत में जो उद्योग-धंधे फल-फूल रहे थे, और उत्पादन केन्द्रों का जाल बिछा था, वह कुशल और शिक्षित मानव संसाधन के बिना संभव नहीं हो सकता था।






और पाँच, गाँव प्रायः आत्मनिर्भर थे और केवल कृषि कार्य तक उनकी गतिविधि सीमित नहीं थी। कृषि, शिक्षा व्यवस्था के अतिरिक्त न्याय व्यवस्था और स्थानीय संसाधनों की उपलब्धता के अनुरूप उत्पादन-व्यवस्था का संचालन भी गाँव करते थे। अंग्रेजों ने अपने हित में गाँवों की इस व्यवस्था को तोड़ दिया, जैसा कि पीछे बताया जा चुका है। भूमि सम्बन्ध में भारी प्रतिकूल बदलाव और अवहनीय लगान और उसकी अमानवीय वसूली के चलते किसान दरिद्र होता गया और समुदाय शिक्षा व्यवस्था को आगे चलाते रहने में अक्षम होता चला गया। इसलिए अगले पचास सालों में शिक्षा केन्द्रों की संख्या एक चौथाई भी नहीं रह गई। औपनिवेशिक शोषण से वह संसाधन ही नहीं बचा जो समाज या समुदाय शिक्षा आदि पर खर्च करता। इस प्रकार, गाँधी जी के शब्दों में वह ' सुन्दर वृक्ष' सूख गया, तहस-नहस हो गया। उनके बुनियादी शिक्षा लागू करने का विचार इसी वृक्ष को फिर से हरा-भरा करने का पवित्र उद्यम था जिसपर उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी ने ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। स्वतंत्र भारत में भला गांधी की जरूरत किसको थी!






सच पूछिए तो उस सुंदर वृक्ष की कलमें कुछ सयाने अंग्रेज इंग्लैण्ड ले गए अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में, ताकि वहाँ भी एक समुदाय आधारित, सबके लिए खुली, समावेशी शिक्षा का वृक्ष लगाया जा सके, और यह हुआ। स्वयं इंग्लैण्ड और यूरोप ने भारतीय शिक्षा प्रणाली का अपने यहाँ अनुकरण किया। धरमपाल की पुस्तक 'द ब्यूटिफुल ट्री' में बैल्लारी जिला कलक्टर की 1823 की एक रिपोर्ट है जिसमें उसने लिखा है - जिस किफायत से देशी स्कूलों में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है और जिस व्यवस्था के अंतर्गत उच्चतर वर्गों- कक्षाओं के विद्यार्थी अपने से कनिष्ठ कक्षाओं के विद्यार्थियों को शिक्षित करते हैं और इस बहाने स्वयं अपने ज्ञान के स्तर का अनुमान लगाते हैं या पुष्टि करते हैं - वह सचमुच प्रशंसनीय है और इंग्लैण्ड में उचित ही इसका अनुकरण किया गया।" ध्यातव्य है कि धरमपाल के काम को आगे बढ़ाने वाले विद्वान जेम्स टूले अपने शोध अध्ययन के आधार पर अपनी पुस्तक 'द ब्यूटिफुल ट्री : अ पर्सनल जर्नी इनटु हाऊ दि वर्ल्डस पूअरेस्ट पीपुल आर एजुकेटिंग देमसेल्व्स, पेंग्विन बुक्स इंडिया, 2009; में यह प्रामाणिक रूप से दर्शाया है कि किस प्रकार उन्नीसवीं सदी में इंग्लैण्ड और बाद में यूरोप में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अनुकरण किया गया। जिसने विक्टोरियन इंग्लैण्ड सहित अन्य देशों की शिक्षा को बदल दिया। टूले ने दिखाया है कि पादरी बेल मद्रास में बच्चों को समुद्र तट पर एक-दूसरे को पढ़ाते और सीखते देख दंग रह गया, और बाद में इसका पूर्ण विवरण 1797 में 'मद्रास मेथड' में लिखा। टूले के अनुसार इंग्लैण्ड की 'नेशनल सोसाइटी फॉर दि एजुकेशन फॉर दि पुअर' ने 1811 में इस 'मद्रास मेथड' पद्धति को अपना लिया, लागू किया और 1821 तक 3,00,000 बच्चे बेल के सिद्धांतों के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इस पद्धति ने शिक्षा के लिए धन जुटाने के तरीके को भी बदल दिया और समाज के निम्न तबके के बच्चों को भी शिक्षा सुलभ हुई। 1861 तक इंग्लैण्ड में लगभग 95 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में थे, औसतन छह वर्षों के लिए।



इस प्रकार उपनिवेशवादियों ने पहले भारत को उद्योगों से रहित किया, फिर औद्योगिकीकरण किया, ठीक उसी प्रकार भारतीय शिक्षा पद्धति का इंग्लैण्ड में अनुकरण कर के उसे शिखर तक ले गए, लेकिन भारत में उसे विनष्ट कर, अपनी मर्जी की शिक्षा चलाई। मैकॉले को यह सब पता न हो, यह संभव नहीं है, लेकिन उसे भारत में काले अंग्रेज चाहिए थे, वे उसे और उसके बाद की पीढ़ी के प्रशासकों को मिल गए। आज स्वतंत्र भारत में भी सत्ता - बौद्धिक और राजनीतिक-प्रशासनिक-इन्हीं के हाथों में है। विभाजन का खेल ये और भी क्रूरता और नृशंसता के साथ खेलते हैं। अपने गोरे पूर्ववर्तियों के सारे गुर ये जानते हैं, उनसे बढ़-चढ़ कर हैं।


सी. ई.  ट्रेवल्यान




एक अंग्रेज उदारवादी सी. ई.  ट्रेवल्यान ने 1838 में एक सुंदर कल्पना की थी कि 'सुख और स्वतंत्रता के लिए हमसे प्रशिक्षण पा कर और हमारे ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक संस्थाओं से लैस हो कर भारत ब्रिटिश परोपकार का सबसे गौरवशाली स्मारक बना रहेगा।' लज्जा के साथ सिर झुका कर यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसने सच कहा था!




इस पूरे विमर्श से कुछ बातों पर से विस्मृति और पूर्वाग्रहों का मकड़जाल साफ होता है। एक तो यह कि ग्यारहवी-बारहवीं सदी से ले कर अट्ठारहवीं सदी के बीच भले ब्रह्मगुप्त, नागार्जुन और आर्यभट्ट पैदा नहीं हुए लेकिन भारत अपने विपुल संसाधनों का उपयोग करने में सक्षम था, और इसके लिए आवश्यक शैक्षिक एवं तकनीकी योग्यता एवं क्षमता उसने विकसित की थीए बल्कि उसका नवीकरण भी करता रहा था। दूसरे कि भारत में शिक्षा पर उच्च जातियों का एकाधिकार नहीं रहा। समाज संस्तरित था लेकिन सामुदायिकता से हीन नहीं था। यह ब्राह्मणवाद, सवर्णवाद, द्विजवाद आदि पद उपनिवेशवादी दौर में, खासकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उपनिवेशवादियों द्वारा गढ़े गए। अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भूमि सम्बन्धों में बदलाव और शोषक बिचौलियों का वर्ग खड़ा होने के बाद सामाजिक सम्बन्धों में भी गिरावट आई, और यह बिल्कुल स्वाभाविक था। प्राच्यवादियों ने हिन्दू धर्मग्रंथों और संहिताओं के आधार पर भारतीय समाज की संरचना और गतिशीलता को परखने की कोशिश की, आरंभ में जिज्ञासावश, बाद में जान-बूझ कर। लेकिन पाठ और वास्तविक जीवन में भारी फाँक थी। अंग्रेजों ने 1871 की जनगणना में चतुवर्ण व्यवस्था या वर्गीकरण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) को सांस्थानीकृत या संस्थायित करने की कोशिश की। उस समय मद्रास प्रेसिडेन्सी के एक अधिकारी डब्लू. आर. कोर्निश जो कि जनगणना कार्य के लिए उत्तरदायी थे, ने स्वीकार किया - ... ... जाति की उत्पत्ति को लेकर हिन्दू पवित्र ग्रंथों में जो कथन है, उन पर हम भरोसा नहीं कर सकते। कभी ऐसा कोई समय रहा हो जबकि हिन्दू समुदाय इस प्रकार चार वर्णों से मिल कर बना हो, अत्यंत संदेहास्पद है। आज के अत्यंत जातिग्रस्त राज्य बिहार की 1871 की जनगणना पर मोनोग्राफ लिखने वाले सी. एफ. मैग्राथ ने लिखा - 'यह चार जातियों में निरर्थक बँटवारा, जो कथित रूप से मनु द्वारा किया गया है, इसे किनारे लगा देना चाहिए।' तो जाति को ले कर ये जो विभाजक, विखण्डनवादी निर्मितियाँ हैं, सब उपनिवेशवाद की देन हैं, उसी दौर में विकसित हुई हैं। इसी काल में यह धारणा बनाई गई कि उच्च भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों और जीवन-व्यवहार के बीच कोई संगति नहीं। जबकि गांधी जी ने हिन्द स्वराज में ऐसे अनेक यूरोपीय विद्वानों और प्रशासकों को उद्धृत किया है जिन्होंने मुक्तकंठ से भारत के लोगों के आचार-व्यवहार और उच्च नैतिक स्तर की प्रशंसा की।





अफसोस कि ये विभाजक निर्मितियॉं भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता और वर्चस्व प्राप्त करने का महत्वपूर्ण जरिया हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जबकि ' हजारों साल' का शोषण और हकतलफी एक भ्रान्ति है, जानबूझ कर या अनजाने में फैलाया गया एक भ्रम है, जिसका राजनीतिक शिगूफे के रूप में हल्के और गैरजिम्मेदाराना ढंग से इस्तेमाल होता रहा है। गौर से देखा जाए तो भारत में जो जमातें अपने को प्रगतिशील और परिवर्तनकामी कहती हैं, जाने-अनजाने वे भी उपनिवेशवादी एजेंडा ही चलाती हैं।




उसी प्रकार हिन्दुओं और मुसलमानों ने अट्ठारहवीं सदी के अंत तक एक संगति, एक आपसदारी विकसित कर ली थी, अन्यथा 1857 का संग्राम वे मिल कर न लड़ते। यह आपसदारी औपनिवेशिक काल में इस कदर टूटी कि धर्म के आधार पर भारत विभाजित हो गया, खण्डित हो गया - 1857 के 90 वर्ष बाद। वास्तव में पूर्व-औपनिवेशिक काल में सामाजिक पहचानों और भारतीयता को ले कर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। जातियॉं जन्म-आधारित रही हैं लेकिन समाजिक-आर्थिक  प्रकार्यों के संदर्भ में सामाजिक गतिशीलता बनी रही है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि यहाँ दास और नौकर-चाकर, सामान्य किसान (चाहे किसी भी जाति का) और व्यापारी भी राजा बने हैं, योद्धा और शासक बने हैं। और चूंकि शिक्षा सबके लिए उपलब्ध थी तो ये सभी लोग शिक्षित भी रहे होंगे।



अतीत में वापस नहीं लौटा जा सकता, लेकिन उससे इतना कुछ जाना और सीखा जा सकता है कि आगे यात्रा में क्या साथ ले कर चला जाए और क्या छोड़ दिया जाए। विऔपनिवेशिकीकरण का आशय और उद्देश्य यही है जिसकी सबसे सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति है - स्वराज! शिक्षा ही वह माध्यम है जो स्वराज तक ले जा सकता है।




सम्पर्क


शिवदयाल, 1/201, 

आर के विला 

महेश नगर, पटना

800024


मो.9835263930



टिप्पणियाँ

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद!
      - शिवदयाल

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  2. धन्यवाद शिवदयाल भाई । एक अच्छे आलेख , विश्लेषण और जानकारी के लिए ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद!
      - शिवदयाल

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  3. ज्ञानवर्धक - विचारोत्तेजक - चिंतनपरक आलेख

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  4. बहुत-बहुत धन्यवाद!
    - शिवदयाल

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  5. अत्यंत गहन विश्लेषण, अद्भुत आलेख--
    कल्पना कुलश्रेष्ठ

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