इसाबेल विल्कर्सन की सद्यः प्रकाशित किताब "कास्ट : द ओरिजिंस ऑफ अवर डिस्कंटेंट्स" एक टिप्पणी




आज गाँधी जयन्ती है। गाँधी जी के नेतृत्व में ही भारतीय स्वाधीनता आंदोलन परवान चढ़ा और हम भारतीयों को यह अहसास हुआ कि अंग्रेजों से भी लड़ा जा सकता है और उन्हें देश से बाहर कर स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है। गाँधी जी के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव तब आया जब दक्षिण अफ्रीका में खुद उनके साथ गैर बराबरी का व्यवहार किया गया। पीटर मारित्जवर्ग स्टेशन पर एक अंग्रेज ने उन्हें रेल के फर्स्ट क्लास के डब्बे से महज इसलिए फेंक दिया कि भारतीय होते हुए भी गाँधी रेल के उस फर्स्ट क्लास के डब्बे में यात्रा कर रहे हैं जिसमें यात्रा करने का अधिकार अभी तक सिर्फ गोरे लोगों को था। गाँधी जी के जीवन में यह घटना टर्निंग प्वाइंट साबित हुई। अमरीका की अश्वेत पत्रकार इसाबेल विलकरसन की एक किताब 'कास्ट : द ओरिजिन्स  ऑफ आवर डिसकंटेंट्स' आजकल बहुत चर्चा में है। इसाबेल ने अपनी इस किताब में अमरीकी नस्लीय विभाजन की तुलना भारतीय जातिवादी विभाजन के साथ करते हुए अपनी स्थापनाएँ सामने रखती हैं। यादवेन्द्र जी ने इस किताब को पढ़ते हुए भारतीय संदर्भों को खास तौर पर रेखांकित करते हुए पहली बार के लिए लिखा है। आज पहली बार पर गाँधी जयंती के अवसर पर विशेष रूप से प्रस्तुत है यादवेन्द्र का आलेख 'आँख मूंदे रहने से पुराने घर को गिरने से नहीं बचाया जा सकता'



आँखें मूँदे रखने से पुराने घर को गिरने से बचाया नहीं जा सकता   

                                                                                                               

यादवेन्द्र 

 

 

अमेरिका की बहुचर्चित और पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त अश्वेत पत्रकार इसाबेल विल्कर्सन की सद्यः प्रकाशित किताब "कास्ट : ओरिजिंस ऑफ अवर डिस्कंटेंट्स" आजकल खूब चर्चा में है। आजकल मैं यह किताब पढ़ रहा हूँ और लेखिका द्वारा अमेरिकी समाज के गोरे  काले के विभाजन की तुलना व्यापक स्तर पर भारतीय समाज के जातिवादी विभाजन के साथ करने की कोशिश सिर्फ दिलचस्प लग रही है बल्कि महत्वपूर्ण भी लग रही है। फौरी तौर पर इस किताब की उन स्थापनाओं की झलक देने वाली टिप्पणी इस उद्देश्य से  लिखी गई है कि भारतीय समाज को भी अपनी बनावट, संरचना और विसंगतियों को इसी तरह की निर्मम निष्पक्ष दृष्टि से देखने की पहल करनी चाहिए - कोई जरूरी नहीं कि ऐसा समाजशास्त्रीय अध्ययन किसी समाज  का समग्र और अंतिम निष्कर्ष एक बार में सामने ला कर रख दे बल्कि विभिन्न परतों को उघाड़ने वाली अनेक ईमानदार कोशिशों की एक कड़ी बन कर सिलसिला आगे बढाए।  इसाबेल विल्कर्सन की स्पष्ट मान्यता है कि वे समस्या का समाधान जुटाने की महत्वाकांक्षा नहीं पाल रही हैं बल्कि समस्या के ऊपर से पर्दा हटा कर अंदर तक पैठने की कोशिश कर रही हैं - समस्या का समाधान ढूँढ़ने  से पहले समस्या को जानना और पहचानना अनिवार्य है।   

 

 

कुछ महीने पहले मिनियापोलिस में गोरे पुलिस वालों द्वारा दिन दहाड़े मार दिए गए जॉर्ज फ्लॉयड का उदाहरण देते हुए वह बहुत सटीक एनालॉजी देती हैं - एक पुराना घर और इंफ्रारेड लाइट। एक इंस्पेक्टर अपने हाथ में इंफ्रा रेड लेंस लेकर पीढ़ियों पहले बने पुराने घर की छत की तख्तियों को देखने की कोशिश कर रहा है जो सामान्य नजर से देखना संभव नहीं है।छत में दिखाई देने वाली दरार और विकृतियों को देखते हुए उसके ऊपर एक नई छत डाल दी गई फिरभी पुरानी छत की विकृतियाँ  धीरे-धीरे बढ़ती ही चली गई। जहाँ  जो दिखाई दिया उस समय उसका कोई तात्कालिक उपाय कर दिया गया - कहीं  ईंट  लगा दी गई, कहीं कुछ सरिया अड़ा दिया गया। पुराने घर में इस तरह के काम तो होते ही रहते हैं और हम कभी इसकी उम्मीद भी नहीं करते किपुराना घर फिर से पूरी तरह दुरुस्त हो पहले जैसा  चाक चौबंद हो जाएगा।

 

 

इसाबेल विल्कर्सन अमेरिका को ऐसा ही है पुराना घर कहती हैं जिसकी मरम्मत और रखरखाव के काम कभी भी पूरे नहीं होंगे। कभी तूफान, कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी इंसानी उबाल पहले से ही  अपनी नींव की कमियों और रख रखाव की अनदेखी के कारण  कई तरह की समस्याएँ  झेलते इस पुराने घर को झगझोड़ते रहते हैं। मकान का मालिक इस स्थिति में कुछ झाड़-फूँक  के उपाय करे या करे, उस मकान की हालत और भी खस्ता होती ही जानी है। वे कहती हैं कि दुर्भाग्य से अमेरिकी घर की कमजोरियों की तरफ से आँखें मूँदे  रहते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे उस तरफ ध्यान देने से सब कुछ अपने आप ठीक-ठाक हो जाएगा। जबकि सच्चाई यह है कि इस मकान की खस्ताहाली धीरे धीरे अमेरिकी समाज को ही कुतरती जा रही है। अमेरिकी समाज की इन विकृतियों के बारे में गहराई से पड़ताल करते हुए भारत की वर्ण व्यवस्था की विकृतियाँ, उसकी क्रूरता और कार्यप्रणाली सहज ही हमारी आँखों  के सामने जाती हैं।

 

 

अमेरिका दरअसल ऐसे लोगों का देश है जो ऊपर से साफ सुथरी और सुंदर दिखाई देने वाली भूमि पर बने मकानों के मालिक हैं पर यह भूमि अंदर से बेहद ऊबड़ खाबड़, पथरीली, चिकनी बलुई मिट्टी है जो सदियों से धँसती, फूलती  और सिकुड़ती  रही है... दरारें ऊपर से भरती हुई दिखाई दीं लेकिन अंदर से चौड़ी होती गई। एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा - यहाँ  के लोग यह कहते हुए अक्सर सुनाई देते हैं कि हमें इससे क्या लेना देना कि यह सब शुरू कैसे हुआ। अतीत में किए गए पापों का दोष हम अपने माथे पर क्यों लें? मेरे अपने पुरखों  ने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किया, स्थानीय वासियों पर हमला नहीं किया और ही उन्होंने कभी किसी को अपना दास बनाया। उनकी बात की सच्चाई से इनकार भी नहीं किया जा सकता - हममें से कोई भी इस धरती पर नहीं था जब यह घर बना। हमारे दो तीन पीढ़ी पहले के पुरखों ने भी बहुत संभव है किसी तरह का कोई अत्याचार किसी पर किया हो पर सच्चाई यह है कि आज हम जिस घर में रह रहे हैं उसमें बहुत सारी दरारें पड़ गई हैं, दीवारें दरक गई हैं और जगह जगह नींव धँस  गई है। चाहे गलत हो या सही,हमें अच्छा लगे या बुरा सच्चाई यह है कि आज की तारीख में हम ही इसके उत्तराधिकारी हैं।

 

 

 

अमेरिकी नस्लवाद को वास्तविक रूप में इसाबेल विल्कर्सन  वर्ण या जाति  व्यवस्था मानती हैं जिसे  मनुष्य द्वारा निर्मित संस्था है  जिसमें यह मान कर चला जाता है कि  एक समूह दूसरे समूह की तुलना में कमतर है और  दूसरा एक खास समूह औरों की तुलना में श्रेष्ठ है - ऐसा करने के लिए माननीय गुणों को एक खास आधार पर वर्गीकृत किया जाता है और उनको वैचारिक जामा पहना दिया जाता है जिससे ऐसा करने वाले पर सीधा कोई आक्षेप लगे।  वर्ण व्यवस्था इसीलिए निर्बाध ढंग से चलती रहती है क्योंकि उसके साथ ईश्वर को जोड़ दिया जाता है यह कहा जाता है कि धरती पर उसका अनुपालन करने वाले लोग अपनी मर्जी से नहीं बल्कि पवित्र धर्मग्रंथों में वर्णित  ईश्वर की इच्छा का अनुपालन कर रहे हैं।

 

 

उनकी मान्यता है कि वर्ण व्यवस्था का पदानुक्रम भावनाओं से या नैतिकता से कुछ लेना-देना नहीं ,यह पूरी तरह शक्ति का नंगा प्रदर्शन है...इसमें या तो शक्तिधारी हैं या शक्ति हीन।श्रेष्ठ और कमजोर होने का कोई वैज्ञानिक क्या तार्किक आधार नहीं होता बल्कि परिकल्पित आधार बना दिया जाता है और वंश परंपरा और अपरिवर्तनीय लक्षणों के साथ नत्थी कर दिया जाता है। 

 

 

वैसे यह लक्षण ऊपर से देखने में अमूर्त लगते हैं लेकिन जब श्रेष्ठता का टैग लगा कर किसी समूह को श्रेष्ठ करार देने की बात होती है तो यह लक्षण पदक्रम (हायरार्की) में जीवन मरण के प्रश्न बन जाते हैं।अपनी इसी प्रणाली के कारण जाति प्रथा बहुत कठोर और मनमाने ढंग से बनाई और व्यवहार में लाई जाती है जिससे समाज के बीच बगैर किसी तार्किक आधार के मनचाहा विभाजन बनाए रखा जा सके।

 


इसाबेल विल्कर्सन का मानना है कि अमेरिकी समाज का यह विकृत विभाजन पूरी दुनिया में इकलौता नहीं है।

 

दुनिया का इतिहास उठा कर देखें तो कठोर वर्ण व्यवस्था के तीन बड़े उदाहरण मिलते हैं - हजारों सालों से अपने विकृत रूप में चली रही भारत की जाति व्यवस्था, सरकारी संरक्षण में क्रूर और हिंसक  तरीके से लागू की गई नाजी  जर्मनी की जाति व्यवस्था (जिसका इतिहास महज बारह वर्षों का हैऔर रंगभेद के आधार पर खड़ा किया गया  लेकिन अनकहे ढंग से सदियों से लागू  अमेरिका का जाति आधारित पिरामिड। हालॉकि भौगोलिक रूप में यह तीनों अलग-अलग महादेशों के समाज हैं लेकिन तीनों में एक चीज कॉमन है - वह है कि जिन्हें उनकी वर्ण व्यवस्था ने नीचा दिखाया उन सबको लांछित करने  का पूरा इंतजाम उन्होंने किया जिससे अमानवीयकरण की उनकी कोशिशों को एक वैचारिक आधार मिल जाए और उसे लागू करने के कानूनी और नैतिक अधिकार उनके हाथ में जाएँ। बहुत संभव है कि भारतीय समाजशास्त्रियों की राय  इसाबेल विल्कर्सन से भिन्न हो पर वे अपने दशकों पुराने अधययन और विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं। हल के अपने एक इंटरव्यू में वे इस बारे में कहती हैं कि पिछली कुछ शताब्दियों में दक्षिणी अमेरिका से उत्तरी अमेरिका तक सामूहिक प्रयाण और गोरों और कालों के बीच से सामाजिक विभाजन को समझने के लिए नस्लवादी अधरना अपर्याप्त है  - वे मानती हैं कि अमेरिका में भारतीय जाति  व्यवस्था से ज्यादा व्यापक और दमनकारी नस्लवाद आधारित जाति व्यवस्था अस्तित्व में और क्रियाशील है इसीलिए वे अपने विमर्श में "जाति" शब्द का प्रयोग करती हैं। 



इसाबेल विल्कर्सन


इसाबेल विल्कर्सन जाति को  चुपचाप रहने वाला ऐसा कारिंदा बताती हैं  जो किसी अंधेरे थिएटर में अपने हाथ में टॉर्च लेकर घूमता रहता है और जैसे ही कोई उसके अंदर प्रवेश करता है उसको उसकी निर्धारित नंबर की  सीट पर भेज देता है - अंदर उसकी हुकूमत को कोई चुनौती नहीं दे सकता। वर्ण व्यवस्था का शक्ति के साथ साथ सम्मान, अधिकार और योग्यता की पूर्वधारणा के साथ भी गहरा रिश्ता है।और अपने को श्रेष्ठ मानने वाला समूह दूसरे को नीचा दिखाने और उसका उन्मूलन करने के लिए क्रूरता की किसी हद तक जा सकता है और अपनी दरिंदगी के लिए अपने गढ़े हुए अवैज्ञानिक तर्क भी दे सकता है।

 

अमेरिका सामाजिक असंतोष की पड़ताल करते हुए  इसाबेल विल्कर्सन क्रियाशील वर्ण व्यवस्था को इस तरह के विभाजन के लिए शक्ल सूरत, रंग और नस्ल को आधार मानती है।

 

वर्ण या जाति व्याकरण की तरह होती है जो दिखाई तो नहीं देती लेकिन हम कैसे बोलें और अपने आसपास और अंदर की सूचनाओं को किस तरह से प्रॉसेस करें इसका स्पष्ट निर्देश देती है - हमारी बोलचाल, हमारे बर्ताव और हमारी सोच को यह पूरी तरह से अपने नियंत्रण में रखती है। और पीढ़ी दर पीढ़ी यह इस तरह से हमारे अंदर विद्यमान रहता है कि हम हमें कोई क्लास में व्याकरण पढ़ाए पढ़ाए, हमारे बर्ताव में उसके अनुशासन, उसके कायदे कानून अपने आप चले आते हैं।

 

उनका कहना है कि जाति और नस्ल एक दूसरे के समानार्थी नहीं है और ही पूरी तरह से एक दूसरे से असंबद्ध। किसी संस्कृति में ये दोनों एक साथ विद्यमान रह सकते हैं और एक दूसरे को मजबूती प्रदान कर सकते हैं। जहाँ  तक अमेरिका की बात है, यहाँ  नस्ल जाति की अदृश्य ताकतों का दृश्य एजेंट है - अमेरिकी समाज में जाति हड्डियाँ हैं और नस्ल चमड़ी।

 

अपने विचारों को एक आँख खोलने वाले भारतीय उदाहरण के माध्यम से इसाबेल विल्कर्सन पुख्ता करने की कोशिश करती हैं:

 

 

1959 की सर्दियों में मोंटगोमरी बस बॉयकॉट का नेतृत्व करने के बाद  डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग और उनकी पत्नी कोरेटा भारत आए। वे मुंबई आए और उनका लक्ष्य अहिंसक आंदोलन के अगुआ मोहनदास करमचंद गांधी की जन्मभूमि को देखना था। हवाई अड्डे पर उतरने पर उन दोनों को मालाओं से लाद दिया गया। पत्रकारों से बात करते हुए किंग ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए: "दूसरे किसी देश में मैं एक सैलानी की तरह जा सकता हूँ  लेकिन भारत मैं सैलानी नहीं तीर्थयात्री बन कर आया हूँ"

 

भारत आने का उनका बरसों पुराना सपना था। यहाँ  आकर वे महीने भर से ज्यादा रुके।  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनका अभिनंदन किया। किंग ने उन स्थलों को देखने की इच्छा प्रकट की जहाँ  अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई गांधी जी के नेतृत्व में लड़ी गई थी। उन्होंने बार-बार श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए यह कहा कि अमेरिका में वे न्याय की जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसकी प्रेरणा उन्हें गांधी के संघर्ष से ही मिली है।

 

किंग ने इच्छा व्यक्त की कि वे इस यात्रा के दौरान प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था के निम्नतम पायदान पर रखे गए अछूतों की बस्ती भी देखना चाहते हैं जिनके बारे में उन्होंने बहुत पढ़ रखा था और उनके प्रति उनकी खुली सहानुभूति भी थी हालॉकि उनके पास जो जानकारी थी उसके अनुसार आजादी मिलने के बाद भारत के शासक वर्ग ने फिर उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं किया और पिछड़ा ही बने रहने को छोड़ दिया।

 

यहाँ  आ कर उन्हें पता चला कि  अमेरिका में उनके नेतृत्व में काले  लोगों  के अधिकारों के लिए किए जाने वाले संघर्ष से भारतीय लोग परिचित हैं, बस बायकॉट के उनके आंदोलन से भी यहाँ  के लोग अनभिज्ञ नहीं है।मुंबई और दिल्ली जहाँ  भी वे गए, सड़कों पर उन्हें देखने के लिए और उनका ऑटोग्राफ लेने के लिए लोगों की भीड़ मिली। अपने भारत प्रवास के दौरान वे देश के दक्षिणी भाग में केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम पहुँचे। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें एक ऐसे स्कूल में ले जाया गया जहाँ  पढ़ने वाले विद्यार्थी अछूत थे। स्कूल के प्रिंसिपल ने विद्यार्थियों को उनका परिचय यह कहते हुए दिया: "बच्चोंमैं आपको अमेरिका से आए  आपकी तरह के ही एक अछूत से मिलवा रहा हूँ " अपना इस तरह का परिचय सुन कर मार्टिन लूथर किंग सदमे में गएसन्न रह गए.... उन्होंने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि भारत में उनका परिचय इन शब्दों के साथ कराया जाएगा। उनका मन एकदम बुझ गया और भारत आने का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया।आखिर वे सुदूर अमेरिका से चल कर मन में बड़ी उम्मीदें ले कर भारत आए थे और देश के प्रधानमंत्री के साथ उन्होंने भोजन किया था।उन्हें भारत के अछूतों और अपने बीच कोई रिश्ता समझ में नहीं आया - भारत की वर्ण  व्यवस्था का आखिर उन से क्या लेना देना है? वे सोचते रहे कि उनके जैसे विशिष्ट अतिथि लेकिन एक अमेरिकी नीग्रो को भारत के दलित या अछूत कैसे देखते होंगे?

 

बाद में उन्होंने अपनी यात्रा के बारे में बताया कि त्रिवेंद्रम में प्रिंसिपल की बात सुनकर पल भर को तो मैं सदमे में गया... खुद के बारे में अछूत शब्द  सुनना मुझे बहुत बुरा लगा। अपने साथ हुए इस बर्ताव के बाद वे  उन दो करोड़ अश्वेत  लोगों के बारे में  सोचने लगे जो सदियों से  अमेरिकी समाज में सबसे निचले पायदान पर हैं जिनके लिए वे संघर्ष कर रहे हैं.... भयंकर गरीबी के दमघोंटू पिंजरे में सड़ रहे ये लोग  शहर के मुख्य इलाकों से दूर अलग-थलग लगभग कैदी की दशा में रहनेकोअभिशप्त हैं - ऐसा लगता है जैसे अपने ही देश में उन्हें देश निकाला दे दिया गया हो।

इस घटना को याद करते हुए उन्होंने खुद को यह कहा कि हाँ, मैं अछूत हूँ  और अमेरिका में रहने वाला हर नीग्रो एक अछूत है। यह कहते हुए उन्होंने यह महसूस किया कि अपने को आजाद कहने वाला देश भी एक वर्ण व्यवस्था  का पालन करता है हालॉकि यह वर्ण व्यवस्था  भारत की वर्ण व्यवस्था से अलग है। अमेरिका में ऊपर से दिखाई देती हुई गैर बराबरी के नीचे यही वर्ण व्यवस्था  पूरी ताकत से जीवित रह कर अपना काम करती रहती है। अपने इस आत्मज्ञान को उन्होंने  अटलांटा के एबेनेजर बाप्टिस्ट चर्च  के 4 जुलाई 1965 के अपने संबोधन में श्रोताओं के साथ साझा किया था।
 
 


यादवेन्द्र

 
 
सम्पर्क
 
यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294
 




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