श्वेता मिश्रा की कविताएँ


श्वेता मिश्रा


हर नया कवि अपने आसपास की घटनाओं, विडंबनाओं और अनुभूतियों को अपने कविता का विषय बनाता है। कवि के आसपास कुछ ऐसा घटित हो रहा होता है जो उसे लिखने के लिए प्रेरित करता है। कवि लिख कर मुक्त होने की कोशिश करता है लेकिन यह मुक्ति हर बार छलावा साबित होती है और वह फिर किसी वाकयात को शब्द दृश्य में ढालने की कोशिश करने में जुट जाता है। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। श्रीकान्त वर्मा की पंक्ति उधार लेकर कहूँ तो 'जो सोचेगा, वह सिहरेगा'। यह सोचना किसी भी रचनाकार के लिए यातना से कम नहीं होता। श्वेता ने कविता की दुनिया में अपने प्रारम्भिक कदम रख दिए हैं। किसी भी बच्चे का पहला कदम बड़ा रोचक  होता है। इस कदम का परिजन उत्सुकता से इंतज़ार करते हैं। इस कदम में भावी जीवन के असंख्य कदमों की आहट छुपी होती है। श्वेता ने कविता को बरतना सीख लिया है। उनकी कविता 'चौके पर चाँद' इस बात की तस्दीक करती है। लेकिन आगे की उबड़-खाबड़, कह लें, कठिन राह उन्हें खुद अपने कदमों से ही तय करनी है। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि श्वेता की रचनात्मकता में काफी संभावनाएं हैं। नए कवि के प्रति अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं श्वेता मिश्रा की कविताएँ।


श्वेता मिश्रा की कविताएँ


चौके पर चाँद


आसमान के चाँद पर 

लगा दाग शायद 

किसी बच्चे की हठखेलियों की ही

कारासानी है

जैसे

चौके में 

चकले पर जो आसमान का प्रतिबिम्ब है

उस पर 

रोटी बेलते हुए 

माँ को देखते

बगल में दुधमुंहा बच्चा

वो कच्ची रसोई की 

माटी पर बैठा 

हाथों को जमीन पर रगड़ते 

कब चकले पर पड़े

उस पिसान के चाँद पर 

धूल वाले हाथ

मल देता है 

उसे भी इसका अंदाजा नहीं होता

और उसे ऐसा कर फिर

एक नजर माँ की ओर देख

खिलखिला देना

माँ को बार बार चौके पर 

उस चाँद को रचने को तत्पर करती है

इस उम्मीद में 

कि इससे उस अबोध के

कलियों से भी कोमल 

अधरों से झांकते 

मात्र दो दाँत जो पूर्णरूप में भी नहीं है 

उसे आन्तरिक सुख की अनुभूति करायेंगे 


एक माँ

और उसका दुधमुंहा बच्चा

जो  वात्सल्य 

नि:स्वार्थ प्रेम का 

जीवंत प्रदर्शन है, 

वो हर कृत्रिम खिलौने से परे है

और किसी भी

किताब या ग्रन्थ में समाहित नहीं है।


जेठ की रात का दृश्य 


जेठ के उमस के बीच

ये दृश्य आखों को मोहित करता है

के होठों पर मुस्कान 

खुद ब खुद छिटक जाती है।


ये इधर से उधर हिलती डालियाँ

मानो फ्राॅस्ट की ‘बर्चेज'

खुद पर नयी रचना लिखी जाने की ललक में 

वर्टिकल से रुख मोड़ कर

होरिजेंटल हो गयी हो।


ये हवा का शोर

कानों के पास से गुजरता

यूं फुसफुसाता है 

मानो कीट्स के 

सेन्सुअस एहसास मेरे मन में 

भरने की पुरजोर कोशिश कर रहा हो। 


ये चाँद यूं झांकता है 

पत्तियों के रोशनदान से 

मानो 

किसी बच्चे को 

नज़र लगने के डर से माँ ने

बाहर निकलने को मना किया हो।


ये बिजली का तड़पना

मानो 

धरती की तपन देख 

उग्र हो बादलों से

बरसने को कह रही हो।


और मेरा मन

किसी और ही दुनिया में 

इन झरोखों के संग 

हिलोरें ले रहा है

आतुर है इन्हें खुद का एहसास बना

शब्दों में पिरोने को।





समाज और मन


लिखना चाहूं मन व्यथित है 

कलम स्थगित है 

लिखूं भी तो क्या 

चाँद को प्रेम में 

किसी के माथे की बिंदी होना।

या 

व्यर्थ प्रेम में 

किसी के मन का सुकूं खोना। 

क्या

इस भेड़चाल में 

किसी की दबी सुप्त अंतसचेतना लिखूं।

या

लिबासों सा उतरा

किसी के बदन की वो वेदना लिखूं। 

भेद उजागर करूं कितने 

लांछन शब्दों पर आये

बेहतर है 

मन व्यथित रहे 

कलम स्थगित हो जाये।।


बूंद का अस्तित्व 


बूंद पानी ही है 

बिना रंग और स्वाद का

बस बदल लेती है 

अर्थ जगह के हिसाब से


कहीं आषाढ़ में किसी 

खपरैल से गिरती 

अंगनाई की जमीन को और नीचे ठेलती

वो ‘बारिश' की बूंद बनती है


कहीं माघ पूस में 

भोर में किसी पत्ते पर

ठंड़ से ठिठुरी बैठी हो

वही ‘ओस' बन जाती है


मगर वही जरा सा रासायनिक हो

स्वाद में खारापन लिए

किसी भी मौसम या पहर में 

आँखों के नीचे गालों पर 

लकीर खींचे तो

वहीं वो बूंद ‘आँसू' बन जाती है


हर बार अस्तित्व में 

पानी ही है

बस बदलता है तो 

मायने जगह के हिसाब से।





लज्जा 


घूँघट 

परिलक्षित करता है 

उस सभ्यता को, संस्कार को

जो एक अंजानी पीढ़ी से आज तक चलन में है 


ये दरअसल घूंघट नहीं 

‘परदा' है 

हर उस क्रिया पर

जो पुरूष प्रधान है

मानसिक या शारीरिक हर तरह से


स्त्री इन पर परदा डालती है

अलग अलग रूप में 

के जैसे एक बच्चे की गलतियों पर 

माँ परदा डालती है


स्त्री हर बार बचाती है 

पुरुषत्व को लाँछित होने से

अपने ही दायरे में 

अपनी ही प्रधानता में 


ये घूंघट 

परदा है पुरूष का समाज का

उन भावनाओं पर, प्रतिक्रियाओं पर

जिज्ञासाओं पर, उपलब्धियों पर

जो दबा सकती हैं 

उस प्रधानता को, 

मिटा सकती हैं उस दायरे को उसके अस्तित्व को 


मगर 

ओढ़ लेती है स्त्री 

इसे घूंघट समझ 

दान दे देती है झूठी शान 

एक आदमी को, पुरुषत्व को


बचा लेती है 

सभी रिश्ते, दायरे, समाज 

और मन मसोस के 

खुश रह लेती है ताउम्र 

एक कसक के साथ।


भावुक लड़की 


प्रेम रेशम का जाल है 

और प्रेमी मन रेशम का कीड़ा

अपने ही प्रेम में 

वो अपनी सांसो की गति को 

कमजोर होते देखता है

अपने गले को अवरुद्ध पा कर

घुटन महसूस करता है। 


मैं भी तुम्हें अपने आसपास पा कर

असहज हो जाती हूँ

मेरी भी साँसे मद्धिम हो जाती हैं 

मैं कोशिश करती हूँ के

तुमसे मेरा सामना न हो

क्योंकि 

तुम चंदर नहीं हो 

न ही मैं तुम्हारी सुधा

के तुम मूर्त रूप में मेरे सामने मूक खड़े रहो

और मैं 

मेरे मन के असहज असहनीय भावों को

आँखों में नमी लिए

एक पल में तुम पर उड़ेल दूं


तुम देवता बने रहो 

मैं तुम्हारे मुताबिक जिंदगी को

ये झूठ मूठ के मापदंड में 

नपती चली जाऊँ

नहीं ये नहीं हो सकता

क्योंकि 

मैं तुम्हारी सुधी नहीं 

मैं भी एक साधारण भावुक लड़की हूँ। 



विदाई



मैं देखती उस दुल्हन को

जो एक घर से दूसरे घर तक का

सफर तय करती है

असंख्य नये अरमा बेशक है मन में 

मगर सबसे ऊपर है चाह

वापस लौटने की जो 

हर बढ़ते कदम के साथ बढ़ रही है

चाहती है वो लौट जाए 

फिर उसी बचपन में जहाँ

बाबुल की उंगलियों को पकड़ चलती थी 

कोई उन्हें छुड़ा न सके 


माँ का आँचल जिसे पकड़ 

पूरे घर का चक्कर काटती थी 

कोई उसे उस छाँव से हटा न सके


भाई का वो साथ जो

हर दिन नई हठखेलियों से भरा था

कोई उसे इस प्यार से वंचित न कर सके

लौटना तो चाहती है बहना चाहती है 

फिर उसी पीहर की धार में 

मगर


वक्त की इकतरफा  जीत से हार 

बढ़ी जाती है 

नये संगम की तलाश में 

एक अंजानी डोर को पकड़े 

नियती को थामे।



(इस पोस्ट में  प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क

ग्राम एवम पोस्ट : मऊ

जिला : चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)

210209




टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन कविताओं की प्रस्तुति के लिये
    आप दोनों को बधाईयाँ,,,

    जवाब देंहटाएं
  2. "बेहतर है
    मन व्यथित रहे
    कलम स्थगित हो जाये"
    बहुत ही सुंदर और परिपक्व अभिव्यक्ति. बधाई, श्वेता. हमें गर्व है आप पर.

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार रचनाएं👌🏻👌🏻

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार लेखनी श्वेता जी।

    जवाब देंहटाएं

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