रामजी राय का आलेख 'अवचेतन, व्यक्तित्व विभाजन और रचनात्मकता'

 


 

मुक्तिबोध हिन्दी के ऐसे दुर्लभ कवि हैं जिनकी कविता मनोविज्ञान, तर्क और विज्ञान के मजबूत धरातल पर खड़ी है। उनकी कविताओं में कठिन शब्द बार बार आते हैं लेकिन वे कहीं भी अवरोध नहीं बनते बल्कि काव्य प्रवाह के रूप में आते हैं। हिंदी काव्य परंपरा में मुक्तिबोध ने कई नए शब्दों का समावेश किया। वास्तव में  आजादी के बाद की विडंबनापूर्ण परिस्थितियों का मुक्तिबोध ने अपनी कविता में खुले तौर पर समावेश किया और इस प्रक्रिया में कठिन शब्द आने लाजिमी थे। रामजी राय मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता के गहन अध्येता है।  पहली बार पर हम पूर्व में ही राम जी राय का एक गंभीर आलेख पढ़ चुके हैं। आज उसी कड़ी का दूसरा खंड प्रस्तुत किया जा रहा है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली नियतकालिक पत्रिका 'कथा' के अंक 23 में उनका यह आलेख हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उस आलेख का किंचित परिवर्धित एवं संशोधित रूप पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं रामजी राय का आलेख  'अवचेतन, व्यक्ति विभाजन और रचनात्मकता'।


अवचेतन, व्यक्तित्व विभाजन और रचनात्मकता

 

रामजी राय 

 

(1)

दाबे गये भाव-अनुभव की गहन वेदनामयी महक

 

 

मुक्तिबोध के भाष्यकारों में मुक्तिबोध की रचनात्मकता में एक प्रमुख तत्व के रूप में मौजूद चेतन-अवचेतन के प्रश्न, उनके बीच सामंजस्य और द्वंद्व, जीवन और रचनात्मकता के लिए उसके महत्व आदि बातों से कोई मतलब ही नहीं रहा, रहा भी तो महज़ उपरी तौर पर। कुछ भाष्यकारों ने इस पर नज़र डाली भी तो उसके ज़रिये मुक्तिबोध के विभाजित व्यक्तित्व की बात की, उन्हें असामान्य मानसिक स्थिति वाला भी ठहराया। मानसिक रोग सिजोफ्रेनिया के बताये लक्षणों को उनके जीवन और कविताओं में से बरजोरी ढूंढते हुए उन्हें सिजोफ्रेनिक ठहराया। मुक्तिबोध खुद भी मनोविज्ञान के गहरे अध्येता थे, साथ ही उतने ही विज्ञान और दर्शन के भी। ऐसे भाष्यकारों ने अपनी मान्यता के समर्थन में व्याख्या की भी तो वे फ्रायड और युंग के प्रतिपादित मनोविज्ञान के एक पहलू तक ही पहुंचे और उसी में फंसे रह गये। जबकि मुक्तिबोध फ्रायड, युंग को पढ़ते-समझते हुए, इसके आगे के अध्ययनों से भी बहुत अच्छी तरह परिचित लगते हैं

 

 

मुक्तिबोध संभवतः हिंदी के वाहिद रचनाकार हैं जो जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तहों तक गहरे उतरते हैं और उससे अपने रचना-विचार-आलोचना के लिए बहुत कुछ नया जीवंत और मूल्यवान उपलब्ध करते हैं - “जीवन की गुप्त प्यास के अनेक प्रकट रूप हैं—जहां जीवन विकसित, तन्मय और प्रतिफलित होना चाहता है, वस्तु-जगत पर अपना एकाधिकार चाहता है, जिस पर वह खुल कर बह सके, फैल सके। वह उस पर अपना अबाध प्रसार चाहता है।... वह जीवन जो अंधकारमय अंतर-कंदराओं में गुप्त बहता हुआ अनुभूति-द्वारों से ऊपर की सतहों पर आ जाता है; चेतन मन में अपने अबाध आकुल उत्साह से फूट पड़ता है। अब तक हमारी सभ्यता इस विकासमूलक प्रसरणशील प्यास को समझ नहीं पाई है। यही कारण है कि आजकल के व्यक्ति बहुत अधिक अंशों में गतप्रभ और यांत्रिक होते चले जा रहे हैं।“ (मुक्तिबोध रचनावली, खंड 5, पृष्ठ 27, प्रथम संस्करण-1980) वे कम से कम हिंदी के इस मायने में भी वाहिद रचनाकार-विचारक-आलोचक हैं जो मनोविज्ञान को ठोस ऐतिहासिक-सामाजिक आधार पर रखते हुए देखते-परखते हैं- “मनस्तत्वों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या वहां तक सही हो सकती है जहां तक वह वर्णनात्मक और विवेचनात्मक है। किंतु जहां वह मात्र-मनोवैज्ञानिक आधार पर ही जीवन-जगत-संबंधी तत्वज्ञान का प्रासाद खड़ा करती है, वहां वह गलत हो उठती है। पूंजीवादी युग में, केवल मन की आध्यात्मिक कल्पना को ले कर, (जिसे वे चेतना कहते हैं---शब्दावली अलग-अलग है), अथवा केवल फिजिक्स के सहारे, या केवल बायलोजी या प्राणिशास्त्र को ले कर, जीवन-जगत संबंधी दृष्टिकोण का विकास किया गया है।... हमारे बहुत से भाईबंद आज भी कला की केवल मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हुए आध्यात्मिक कल्पना पर आते हैं, अथवा आध्यात्मिक कल्पना के आधार पर खड़े हो कर कला की व्याख्या करते हैं।... ये व्याख्याएं केवल एक पक्षीय ही नहीं, वरन ग़लत भी हैं।.... मन, आरम्भ-काल से ही जीवन-जगत से प्रतिक्रिया करते हुए अपना विकास करता है। यद्यपि प्राणिशास्त्रीय आधार पर उत्थित ऊर्जा मन की अपनी है, किंतु आत्मसात्कृत जीवन-जगत, अर्थात संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन, के मूर्त तत्व जीवन-जगत के ही होते हैं। यह जीवन-जगत समाज और वर्ग और परिवार के भीतर पायी जाने वाली मानव-स्थिति और मानव-संबंधों और मानव-प्रयत्नों द्वारा अर्जित परंपरागत ज्ञान या मिथ्या ज्ञान से बना हुआ होता है। मन के तत्व जीवन-जगत के दिये हुए तत्व हैं।“ (मुक्तिबोध रचनावली, खंड पांच, पृष्ठ 108, संस्करण-1980) स्पष्ट है कि मुक्तिबोध इन सबका अपने समय-समाज-इतिहास में अपनी तरह से उपयोग करते हैं और महज मनोवैज्ञानिक दायरे में फंसने के; उससे पार निकल जाते हैं- “मैं अपनी एक बात स्पष्ट कर दूँ की फ्रायड का (सब-कांशस) केवल दमित इच्छाओं का पुंज मात्र है। मेरे लिए यह केवल यही न हो कर प्राकृत शक्ति का एक गतिमान प्रवाह है, जिसके तत्व समाज से प्राप्त होते हैं, संस्कारों द्वारा, अनुवांशिकता द्वारा यह प्रवाह अपने शक्ति-रूप में व्यक्तिगत (जेनोटाइप) होता है। परन्तु प्रवाह में बहने वाले तत्व सामाजिक ही होते हैं।.... अवचेतन स्वयं अनभिव्यक्त और अपेक्षित रूप में दमित विकास तृषाओं का शक्तिमान केंद्र है। वह मानवी प्रकृति की अंतरधारा का स्वरूप है। किसी बाह्य को पहचानने के लिए एक अनुभव-केंद्र की रचना वाह्य तत्व और आत्मशक्ति का संयुक्त रूप है। इसलिए अवचेतन की शक्ति व्यक्तिगत होते हुए भी उसका कंटेंट वाह्यगत और समाजगत होता है।... यानी व्यक्ति और समाज के सामंजस्य से चेतन और अवचेतन का सामंजस्य सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं।..... ऐसा न हो तो मनः शक्तियों के और इतर उच्च गुणों के बावजूद भी कलाकार विभ्रमित असंतुलित और आत्मध्वंस में संलग्न होगा।“  (मुक्तिबोध रचनावली खंड 5, पेज 33-34, संस्करण-1980)

 

 

फ्रायड के बाद मनोविश्लेषकों में एक महत्वपूर्ण नाम जॉक लेकां (Jaque Lacan) का है। मुक्तिबोध लेकां के अध्ययन से परिचित रहे होंगे ऐसा नहीं लगता लेकिन उनके निष्कर्ष बहुत अंशों में लेकां के अध्ययन से समानता रखते हैं और चकित करते हैं लेकां अवचेतन के बारे में कहते हैं कि ‘आत्म का विभाजित होना व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। अगर आत्म का सही तरीके से विभाजन न हो तो उसका परिणाम होगा मनोविक्षिप्ति। ऐसा इसलिए कि तब अवचेतन हर समय के लिए समूची दुनिया के सामने दिखते रहने को पूरी तरह खुल जाएगा।‘ “अवचेतन-विचार स्नायु-रोग में छिपे रहते हैं, मनोविक्षिप्ति में नहीं।“ (Unconscious thought is hidden in neurosis but not in psychosis.)

 

 

‘आत्म एक से अधिक संरचनाओं वाला है, दो अन्यत्व रूपों – अहम् (चेतन) और अवचेतन- में विभाजित। आत्म अन्यत्व का अवरोधक नहीं होता, बल्कि इस अन्यत्व का उसे अनुमान भी रहता है और जिम्मेदारी का एहसास भी।मुक्तिबोध उस अवचेतन को ‘सहचारी मित्र प्रवर’ कहते हैं- ... उस सहचारी मित्र प्रवर/ के बुद्धि-विवर में से उभरे सौ भव्य तर्क/ तीखे विचार।....’ “अवचेतन बोध, ज्ञान धारक है, वह बोध वा ज्ञान जो आत्मपरक नहीं है। वह निदेशकों (signifiers) के अंतरसंबंधों द्वारा व्यक्ति-मन में लाया हुआ एक पैसिव शिलालेख सरीखा है। “(The unconscious contains knowledge which isn't subjectivized - This is a passive inscription onto the subject brought by a connection between signifiers : Notes from ”The Lacanian Subject: Between Language and Jouissance’ by Bruce Fink)

 

 

ज्यों कोई चींटी शिलालेख पर चढ़ती है

अक्षर अक्षर रेंगती -

नहीं कुछ पढ़ती है

त्यों मन

भीतर के लेखों को छू लेता है

बेचैन भटकता है, बेकार ठिठकता है

पर पकड़ नहीं पाता उसके अक्षर-स्वर !!

(इस चौड़े ऊंचे टीले पर’- मुक्तिबोध रचनावली-2 पृष्ठ 418-19, संस्करण 1980)

 

 

लेकां के अनुसार “और ‘अन्यों’ में से अवचेतन सबसे पराया, अपरिचित ‘अन्य’ है। वह स्मृति के लिए सभी निदेशक-श्रृंखलाओं को रिकार्ड करता है, जो बहुतेरे विषम तत्वों को लिए हुए होते हैं। अवचेतन भाषा सरीखी संरचना है। अवचेतन के तत्व या कहिए सामग्री अविनाश्य और अननुमेय होते हैं। वे हमारी व्यवहारिक भाषा के व्याकरणिक तर्कों-कायदों पर आधारित नहीं होते। बल्कि वे कंप्यूटर, गणित आदि कृत्रिम भाषाओं के उन तर्कों-नियमों के अनुसार काम करते हैं, जिससे हम अपरिचित होते हैं।“ (Notes from ”The Lacanian Subject : Between Language and Jouissance’ by Bruce Fink)

 

निर्वासित अजनबी देश में हूँ

मैं घनिष्ठ प्रिय शब्द धातु-प्रत्यय

यहां भिन्न व्याकरण नियम का जोर

भिन्न समासी संधि वेश में हूँ

.............................................

जो कुछ हूँ निगूढ़ सपनों का अर्थ

सपनों के अर्थों की बेचैनी

अन्तःस्पर्शों की लाक्षणिक कहानी यह

मुझे स्वयं न समझ में आती है

असली अर्थ समझना मुश्किल है(‘घर की तुलसी’- मुक्तिबोध रचनावली-2)

 

 

अवचेतन को ले कर फ्रायड और मुक्तिबोध के विचार में क्या अंतर है इस पर ऊपर बात हो चुकी है। रचनात्मकता और अवचेतन के संबंध को निरुपित करते हुए मुक्तिबोध कहते हैं- “...चेतन के किसी भाग का अवचेतन से आवयविक संबंध न हो तब तक उस चेतन-शक्ति की साहित्यिक अभिव्यक्ति असंभव है।... यह ठीक है कि चेतन मन की जो सृजनशील धारा होगी, उसके अनुकूल ही अवचेतन शक्तियां भी होंगी। चेतन मन की सृजनशीलता अवचेतन शक्ति की प्राकृत धारा के बिना असंभव है।” मुक्तिबोध फ्रायड की इस मान्यता को ठीक मानते हैं कि “कला में जो अनायासता और प्रवाह है, जो रंगीन चित्रात्मक वातावरण है, वह अवचेतन स्रोतों के कारण है।” लेकिन अवचेतन, जिसे वे प्राकृत शक्ति कहते हैं, के काम को इतना भर ही नहीं मानते बल्कि यह मानते हैं कि वह “प्राकृत शक्ति चेतन मन में परिकल्पना (कन्सैप्शन) हो कर उस अवचेतन की चेतन में मार्ग-रेखा बनाती है। कलाकृति की कल्पना (कन्सैप्शन) चेतन मन का एक उच्चतर समन्वय है। कला में इन दोनों की चेतन शक्ति और कल्पना का सामंजस्य अनिवार्य है। अवचेतन सामंजस्य की क्रिया में चेतन को सशक्त करता है, और चेतन; अवचेतन का उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) करता है।... अनायास बहने वाली अवचेतन शक्ति का रुपाधार मनुष्य की तृषाएं ही हैं, जो मनुष्य के समाज से गतिमान संबंध को ही बताती हैं”-

 

“आर-पार सागर के श्यामल प्रसारों पर

अपार्थिव पक्षिणियाँ

अनवरत गाती हैं-

चीखती रहती हैं

ज़माने-ज़माने की गहरी शिकायतें

खुंरेज़ किस्सों से निकले नतीजे, और

सुरें व आयतें

सुनाती रहती हैं

अजीब, अज़ीबोगरीब

दुःख भरे लहजे में।“ (‘एक स्वप्न-कथा’ मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2)

 

 

अवचेतन व्यक्तित्व-विभाजक नहीं बल्कि चेतन-अवचेतन का समन्वय सृजनात्मक है, समन्वय जो कि व्यक्ति के समाज के साथ समन्वय के बगैर संभव नहीं। वह अपनी ही स्फूर्ति है- ‘सियाह लहरों में नंगी नहाती अपनी ही स्फूर्तियाँ हैं’, ‘प्रश्नों के पल-पल में रोज़ एक नया पहलू सामने लाने वाली। स्वप्न मुक्तिबोध की वृत्ति नहीं जैसा कि कुछ भाष्यकार कहते हैं (-‘वे किसी भी चीज को स्वप्न में बदले बगैर समझ ही नहीं पाते‘) बल्कि वह अवचेतन के चेतन में उद्भासित हो उठने की क्रिया-विधि में से एक है। फ़्रायड, लेकां सबके अनुसार “स्वप्न और स्मृतियों का निर्माण हमारी चेतना पर निदेशकों के संघनन, संक्षेपीकरण (Condensetion), विस्थापन (डिसप्लेसमेंट) आदि से होता है। जब निदेशक हमारी चेतना पर संघनित हो उठते हैं तो वे हमारी चेतना के संपर्क में अन्य कतई असम्बद्ध निदेशक-श्रृंखलाओं को ले आते हैं और उन असम्बद्ध निदेशकों से सम्बंधित एक बिम्बात्मक प्रभाव पैदा करते हैं। अवचेतन में संग्रहित यादों का हमारी चेतन इच्छाओं से कुछ लेना-देना नहीं होता; कि हम जब जिस सूचना को चाहें अपने आदेश पर उपलब्ध या निर्गत करा लें।“ (वही)

 

इस दिशा में आगे बढ़ते हुए मुक्तिबोध कुछ ऐसी बातें कहने लगते हैं, जिसे देखकर प्रथम दृष्टया यह लगने लगता है जैसे वे रहस्यवादी, आदर्शवादी-भाववादी हों। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ वाले योग गुरु केशव के सच्चे मित्र नहीं, बल्कि उसके सच्चे शिष्य हों। मुक्तिबोध पर एक समय तक आदर्शवादी-भाववादी प्रभाव थे भी, जो उनकी बाद की विकास-यात्रा में छंटते गए। मुक्तिबोध लिखते हैं- “मनुष्य के मन में---दिल में---कई तहखाने हैं, एक-दूसरे के ऊपर। सबसे नीचे वाले तहखाने----उस शांत, निविड़, तिमिर-मधुरता वाले---में क्या धन छिपा है, कौन-कौन से हीरे-मोती छिपे हैं, यह जानने वाले इस दुनिया की नज़रों में या तो ऐबनार्मल हैं या ढोंगी। उनकी वाणी का ओज, उनके हृदय की प्रथा नहीं है, वह अमर मानवता की पुकार है। वे उस बिंदु से बोलते हैं जो कालातीत है। कलाकार का ध्येय इसी बिंदु पर हमेशा खड़ा रहता है।“ आइये इस ‘शांत, निविड़, तिमिर-मधुरता वाले’ तल का दृश्य देखते हैं- 

 

 

“भूमि के सतहों के बहुत-बहुत नीचे

अंधियारी, एकांत गुहा एक।

विस्तृत खोह के सांवले तल में

तिमिर को भेद कर चमकते हैं पत्थर

तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,

झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।

प्राकृत जल वह आवेग भरा है,....

............

पाता हूँ अकस्मात्

दीप्ति में वलयित रत्न वे नहीं हैं

अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,

मेरे ही अपने यहां पड़े हुए हैं

विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि वे

........

हाय, हाय! मैंने उन्हें गुहा-वास दे दिया

लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित

जनोपयोग से वर्जित किया, और

निषिद्ध कर दिया

खोह में डाल दिया!

वे खतरनाक थे,

(बच्चे भीख माँगते) खैर...”  (मुक्तिबोध रचनावली : 2, अंधेरे में, पृष्ठ : 366-67)

 

 

ऐसे खतरनाक भाव-अनुभव, आत्मोत्पन्न सत्य जो भयवश, स्वार्थवश त्याग दिए गये, दबा दिये गये, अचेतन के अटाले में फेंक दिये गये बहुविध रूपों में मुक्तिबोध की कविताओं में बारहा आते हैं।

 

 

“और यह बिंदु क्या ऐसे-वैसे मिल जाता है। इसके लिए कई जन्म लेने होते हैं। कई दफा मरना होता है, तब समझ में आता है कि मानव अमर है, क्योंकि उसकी आत्मा प्राणियों से ले कर प्रकृति तक फैली होती है। यह सर्वानुभूति ही तो आत्मानुभूति है।” (मुक्तिबोध रचनावली के दूसरे संस्करण में पहली बार प्रकाशित, संभावित रचनाकाल 1938-40, पृष्ठ 171-172) मुझे कई बार, बार-बार लगता है मुक्तिबोध संत-भक्त कवियों की ज़मीन से बोलते हैं, लेकिन अपनी तरह से। वे संत-भक्त काव्य के गहरे अध्येता ही नहीं, उससे गहरे संपृक्त लगते हैं। मनुष्यता की ओर से सबके दोष में अपना दोष-अंश देखना, दोष-अंश ही नहीं; सबके दोष अपने ऊपर लेना, अपने ऊपर इतना अधिक अभियोग लगाता हिंदी के आधुनिक कवियों में और कोई नहीं दिखता-

 

“अचानक जाने किस चेतना में डूब

उर में समाये हुए अपने तलातल

टटोलता हूँ....

क्या कहीं मेरा अपराध?

मेरा अपराध?

.......

सदियों की खून-रंगी भूलों के

किस्से का किस्सा,

मेरी अंतरात्मा का अंश

मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा!!

 

लगता है लगातार चला आया इतिहास

मेरे सिर चढ़कर

घुमाता है मुझे आज

टीलों के मुल्क में आगे बढ़-बढ़ कर।“

 

(‘चम्बल की घाटी में’, मुक्तिबोध रचनावली : दो)

 

 

और कि यह मनुष्यता की ओर से सबके दोष में अपना दोष-अंश देखना अस्तित्ववाद नहीं है, यह ऐतिहासिक समझ है, जिस इतिहास के हम भी अंग हैं

मुक्तिबोध मनोविश्लेषण में भी ऐतिहासिक-भौतिकवादी-मनोविश्लेषणवादी ठहरते हैं। इस मान्यता को सामने रखते हुए कि कलाकार का व्यक्तित्व सामाजिक अर्थ में सामाजिक तत्वों द्वारा ही बना हुआ है, जब वे कलाकार व्यक्ति के निराली व्यक्ति-मनोरचना की गतिमान शक्तियों का, जो कि साहित्य में अभिव्यक्त होती हैं, अंकन या वर्णन करना चाहते हैं तो वे ‘जानबूझकर ऐसी शब्दावली का उपयोग करते हैं जो मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त हो। वे लिखते हैं-

 

“व्यक्ति प्रकृति की विराटता अपने अन्दर भी बंद किये है। प्रकृति की क्रियमाणता उसके अन्दर भी चल रही है। प्रकृति का खेल इस लघु विराट से बृहत्तर विराट के मेल में ही चलता और फलीभूत होता है।”

 

“प्रकृति के इस खेल में ही संघर्ष है। प्रकृति स्वयं वस्तु बनकर आत्मा को धक्का देती है। आत्मा धक्के खाकर अपने रूप को परिवर्तित करती है। व्यक्ति, समाज और समाजोत्तर प्रकृति, तीन हिस्से हैं। व्यक्ति के लिए समाज एक परिस्थिति है, दूसरी समाज-वाह्य प्रकृति। समाज के लिए केवल समाज-वाह्य प्रकृति एकमात्र परिस्थिति है। और प्रकृति इन तीनों को अंतर्भूत करती है। उसकी क्रियमाणता इन तीनों के परस्पर द्वंद्वों के द्वारा चला करती है। व्यक्ति और समाज के द्वंद्व के मूल और अंत में समन्वयात्मक एकता है।“

 

“साहित्य इसी अंतःस्थित समन्वयात्मक एकता का रूप है। व्यक्तिगत स्फूर्ति का मूल है यही समन्वयात्मक एकता। स्फूर्ति का अभिव्यक्ति-प्रयत्न एक साक्षात द्वंद्व है। यह साहित्य-मनोविज्ञान का द्वंद्ववाद है।“ (मुक्तिबोध रचनावली : 5, पृष्ठ : 32)

 

 

इस नाते मुक्तिबोध के इस कथन को तोड़-मरोड़ कर भी नहीं समझना चाहिए कि “मेरी हर विकास-स्थिति में मुझे घोर असंतोष रहा, और है। मानसिक द्वंद्व मेरे व्यक्तित्व में बद्धमूल है।....“ और इस नाते उन्हें अस्तित्ववादी-मार्क्सवादियों या कि फ़्रायडीयो-मार्क्सवादियों की तरह इस सबका घालमेल करने वाला भी नहीं मान लेना चाहिए। फ़्रायडीयो-मार्क्सवादी मानते हैं कि ‘अवचेतन पूंजीवाद की व्याख्या करता है।‘ जबकि फ्रायड स्वयं बहुत साफ़ तौर पर इसके उलट बात कहता है- ‘ यह पूंजीवाद है जो अवचेतन को स्पष्ट करता है.। स्वप्न की व्याख्या में खोजा-पाया गया अवचेतन और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी अवचेतन है, पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की संरचना और तर्क के साथ अवचेतन तुष्टि के अंतर्गुम्फन के बतौर। (Freud does not say what the Freudo-Marxists will claim later, that the unconscious explains capitalism; he states precisely the opposite: it is capitalism that elucidates the unconscious. The unconscious discovered in the Interpretation of Dreams is nothing other than the capitalist unconscious, the intertwining of unconscious satisfaction with the structure and the logic of the capitalist mode of production.”) [Pp. 108–109; see pp. 79, 131] इस सन्दर्भ पर लिखी अपनी किताब ‘Capitalist unconscious’ में Tomšič लिखते हैं- “पूंजीवाद अपने प्रभावों का फैलाव अवचेतन में करता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पूंजीवाद ही अवचेतन है” ( “Capitalism stretches its consequences in the unconscious, but this does not imply that capitalism is the unconscious” (p. 130).  “संस्कृति-उद्योग ने करोड़ों मनुष्यों के मस्तिष्क के चेतन रूप और अवचेतन के फ़र्क़ को भी मिटा डाला है मनुष्य का अवचेतन जगत यदि बाहरी उत्पीड़न के प्रतिरोध का एक भूमिगत इलाक़ा है तो यह संस्कृति-उद्योग मनुष्य के उस अवचेतन जगत के भी सारे ‘स्पेस’ को उससे छीन लेना चाहता है विशाल जनसमूहों की जीवन आकांक्षाओं, स्वप्नों और अभिलाषाओं से यदि इस संस्कृति-उद्योग का कोई सरोकार होता तो वह इन जीवन-इच्छाओं, स्वप्नों और अभिलाषाओं को अपने कारोबारी हिसाब-किताब, मुनाफे के लेन-देन और व्यूह रचना की बातचीत में केवल प्रासंगिक तत्व न बने रहने देता.” (थियोडोर एडोर्नो, अँधेरे समय में विचार, विजय कुमार, पृष्ठ: 59)

 

 

“मध्यवर्ग की भारतीय संस्कृति के गहरे तालाबों में

.......

चुपचाप आत्महत्याएं होती रहतीं नैतिक

सत्य अहिंसा आदि अनेकों आदर्शों के

ग्राह और ग्राहिणियाँ अनगिन

डोहों में चुपचाप बैठकर

गीता पाठ सदा करती हैं

खाकर मानव-आत्मा, सोचा करतीं गहरे दांव-पेंच औ’

नए पैंतरे (मुक्तिबोध रचनावली : एक, हे प्रखर सत्य! 2)

 

 

प्रसंगवश कुछ बातें यहां कहना जरुरी लग रहा है- मैं यह नहीं जानता कि मुक्तिबोध ने अपने समय में साहित्य और संस्कृति को गहरे प्रभावित करने वाले पश्चिम के ख़ास तौर पर फ्रैंकफर्ट-स्कूल के नाम से जाने जाने वाले विचारकों के वैचारिकी से परिचित थे भी या नहीं, अगर थे भी तो कितना, किस रूप से- केवल पत्र-पत्रिकाओं के जरिए या सीधे उनकी किताबों या लेखन के माध्यम से भी। उनके बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध से इस बाबत दरियाफ़्त किया तो उन्होंने कहा की उनकी सारी किताबें किसी लाइब्रेरी, (शायद महात्मा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी वर्धा) को दे दी हैं। यह भी कहा कि मेरे पास उन किताबों की सूची है, उसे देख कर बताउंगा। हां, इतना बताया कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें खगोल विज्ञान को खूब मनोयोग से पढ़ते मैंने जरुर देखा था। बहरहाल, मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हैरानी होती है कि फ्रैंकफर्ट-स्कूल के विचारकों- थियोडोर एडोर्नो, वाल्टर बेंजामिन, होर्खेमेर, बाद में आये हेबरमास आदि के विचारों की झलक ही नहीं उनकी गहरी चिंताएं मुक्तिबोध के यहां अपने तरह से खूब उठाई और विश्लेषित की गई हैं। और कि जगह-जगह उनसे भिन्न मत भी देखने को मिलते हैं- चाहे वो एडोर्नो का सांस्कृतिक उद्योग सम्बन्धी विचार हो, निगेटिव डाईलेक्टिस की चिंतन पद्धति हो, होर्खेमेर के आर्ट और मॉस कल्चर सम्बन्धी विचार हों, बेंजामिन और ब्रेख्त के कला और उत्पादन व् यथार्थ सम्बन्धी विचार हों या फ्रैंकफर्ट-स्कूल की दूसरी पीढ़ी के विचारक जुरगेन हेबरमास के आधुनिकता पर विचार हों। लेकिन फ्रैंकफर्ट स्कूल के अधिकांश लोग मूलतः चेतना को अपने विचार-विश्लेषण का केंद्र बनाते हैं -जैसा कि अल्फ्रेड सोन-रेथल (Alfred Sohn- Rethel) अपनी किताब A CRITIQUE OF EPISTEMOLOGY की भूमिका में कहते हैं- इस वैचारिक आंदोलन में एक विरोधाभासी स्थिति थी- अधिरचनात्मक प्रश्नों के साथ इसकी लगभग एकतरफा संलिप्तता और भौतिक-आर्थिक आधार की चिंता का अभाव, जिसे इसमें अन्तर्निहित होना चाहिए थाहमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध यह सब आज़ाद हुए भारत, उसके अंतर्विरोध और तद्जनित जनता की दुरवस्था को उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन के बनते नये संबंधों की ठोस ज़मीन पर खड़ा होकर देखते-परखते हैं, जो दोनों मिल कर चेतना के लिये अधिरचना जैसा भौतिक आधार निर्मित करते हैं

 

 

बेशक, मुक्तिबोध पर अन्य विचारों का प्रभाव नहीं था सो बात नहीं मुक्तिबोध अपने ऊपर इन प्रभावों के होने का खुद भी ज़िक्र करते हैं अपनी विकास यात्रा में मुक्तिबोध ने खुद का निरंतर विकास किया इसको समझने के लिए ‘तारसप्तक के प्रथम संस्करण में दिए उनके आत्म-वक्तव्य को देखा जा सकता है प्रथमतः अपने काव्य की गति के मूल प्रवृत्ति पर वे कहते हैं- “....काव्य को व्यापक करने की, अपनी जीवन-सीमा से उसकी सीमा को मिला देने की, चाह दुर्निवार होने लगी और मेरे काव्य का प्रवाह बदला दूसरी ओर दार्शनिक प्रवृत्ति---जीवन और जगत के द्वंद्व—जीवन के आतंरिक द्वंद्व---इस सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात कर लेने की दुर्दम प्यास मन में हमेशा रहा करती आगे चल कर मेरी काव्य की गति को निश्चित करने वाला सशक्त कारण यही प्रवृत्ति थी” आगे वर्गसों की स्वतन्त्र क्रियमाण ‘जीवन-शक्ति’ (elan vital) के प्रभाव में आने, उसके कुछ सकारात्मक प्रभाव की बात के साथ उसकी सीमाओं की ओर इशारा करते हैं और अपने एक अन्य निबंध में इसकी मूल खामी को पकड़ते हुए इसको त्यागते हैं- “यद्यपि प्राणिशास्त्रीय आधार पर उत्थित ऊर्जा मन की अपनी है, किंतु आत्म्सात्कृत जीवन-जगत, अर्थात संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन, के मूर्त तत्व जीवन-जगत के ही होते हैं। स्पेंगलर ने इसी प्राणिशास्त्र की कल्पना, ‘मानव-सभ्यता को एक आर्गेनिज्म कहा है...बर्गसों का elan vital प्राणिशास्त्र की कल्पना पर ही आधारित है।” (मुक्तिबोध रचनावली : पांच, पृष्ठ : 108)

 

 

 

इस तरह अपने देश-काल की ठोस ज़मीन पर मुक्तिबोध चेतन-अवचेतन की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए क्लौड ईथरलीनामक प्रसिद्ध कहानी में कहते हैं- “आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्मा आ गयी है, चेतन में स्व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्य का आदर्श, भले ही वह बुरा समाज क्यों न हो यही आज के जीवन-विवेक का रहस्य है.... अवचेतन के अँधेरे तहखाने में पड़ी हुई आत्मा विद्रोह करती है समस्त आत्मा पापाचारों के लिए, अपने आपको ज़िम्मेदार समझती है” (मुक्तिबोध रचनावली : तीन)

 

 

अंततः मुक्तिबोध जिस मार्क्सवादी विचार को अपनाते हैं और कहते हैं कि- “मेरी हर विकास-स्थिति में मुझे घोर असंतोष रहा, और है” तो उनके रचना और विचार को देखते हुए इसका अर्थ मार्क्सवाद से असंतोष या मार्क्सवाद की ‘सीमा का अतिक्रमण’ करना नहीं ठहरता। बल्कि उस समय प्रगतिवाद ने, यहां तक कि सोवियत-समाजवाद ने मार्क्सवाद के आधार पर जो सिद्धांत-व्यवस्था विकसित की थी उसकी सीमाओं और कतिपय विकृतियों को देखते हुए वे मार्क्सवाद को अपने समय के हर क्षेत्र में हुए अद्द्यतन आविष्कारों से समृद्ध करने की आवश्यकता के आग्रही रहे इस पर पहले खंड में बात हो चुकी है यहां संकेत मात्र के लिए कुछ बात दुहरा देना जरुरी है- “कभी-कभी ऐसा होता है कि “यथार्थ बहुत आगे बढ़ जाता है, विकास-क्रम में। बौद्धिक उपादान पीछे छूट जाते हैं, कभी-कभी। इसलिए बौद्धिक उपादानों के निरंतर विकास की भी आवश्यकता होती है।” ... “कोई भी विचारधारा मात्र एक बौद्धिक उपादान है -  यथार्थ के स्वरूप उसकी गतिविधि, उसकी वर्तमान अवस्था, उसकी दिशा को जानने का। जिस प्रकार सुदूरतम को और सूक्ष्मतम को पाने के लिये नव-नवीन यंत्रों का विकास होता आया है, पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़ कर, ठीक उसी प्रकार हमारी सिद्धांत-व्यवस्था का भी विकास आवश्यक है। और वह किया भी जाता है। सिद्धांत-विकास और सिद्धान्तहीनता (अथवा सिद्धांत-विरोध) अलग-अलग बाते हैं।” (मुक्तिबोध रचनावली : खंड 5 : समीक्षा की समस्याएँ)

 

अंधेरे औ उजाले के भयानक द्वंद्व के बीच

‘नया वास्तव’

 

पहले खंड में मुक्तिबोध के जीवन-काल खासकर आज़ादी के समय की स्थितियों पर विस्तार से बात हो चुकी है, फिर भी यहां संक्षेप में मुक्तिबोध की जीवनी को उनके ही शब्दों में समझ लेना शायद प्रासंगिक होगा मुक्तिबोध लिखते हैं-

“सन 1943 के ज़माने से लेकर सन 52-53 के काल-खंड में जो जीवन-ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ, वह नहीं होना चाहिए था मानव-मूल्य गिरते जा रहे थे, मनुष्य-संबंध गंठीले और उलझे हुए हो रहे थे, छोटी-छोटी और अत्यंत तुच्छ बातों के लिए घनघोर संघर्ष हो रहा था महत्व, प्रतिष्ठा, पद-प्राप्ति के पीछे बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं, पड़ी हुई थीं .... हमने अपने आस-पास जो जीवन-जगत पाया था, उसके कंठ-रोधक रूप-स्वरूप के प्रति हमने अस्वीकार का भाव जताया था किंतु आगे चल कर तो परिस्थिति और भी बिगड़ गयी अवसरवादी सामंजस्य करने का हमारा स्वभाव न था किंतु अब तो जीने के ही लाले पड़ गये थे

 

 

मानव संबंधों की इस विराट गिरावट के ज़माने में, मेरी कविता की सारी इमेजरी—बिम्ब-माला----विकसित हुई उसमें घने और काले, लाल और नीले, जामुनी और बैंगनी रंग हैं....यह इमेजरी कहां से पैदा हुई, यह कहना मुश्किल है केवल इतना कहना चाहूँगा कि मनुष्य-संबंधों की भीषण गिरावट के बीच, मनुष्य-दीप्ति के जो प्रकाशमान दृश्य मेरे सामने आये, उन्हीं के सहारे मेरा जीवन आगे बढ़ता रहा दृश्य और अदृश्य सहस्त्रों कोमल स्पर्शों ने संयुक्त रूप से मन की रचना कर डाली ये स्पर्श जिन ज्वलंत जनों के हैं, वे कम नहीं, अनगिन हैं उन्हीं के सहारे अनवस्था व्यवस्था-बद्ध होने लगी वेदना सोचने के लिये बाध्य हुई संवेदना डिफरेंशियल कैलक्युलस करने लगी तब उसे कहीं मालूम हुआ कि ऋजु-रेखा वस्तुतः, वक्र-रेखा का ही एक विशिष्ट उदाहरण मात्र है, और प्रकृति एक-धन-एक-बराबर दो के गाणितिक नियम को, अनिवार्यतः स्वीकार नहीं करती...

 

 

“मैं उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जिसे अपने गली-कूचे में रहने वालों का स्नेह प्राप्त हुआ वे मेरी ही भांति छोटी-छोटी हस्तियाँ हैं किंतु उनके पेचीदा संघर्ष, अथाह प्रेम करने का उनका हार्दिक सामर्थ्य, और बौद्धिक जिज्ञासा के साथ ही साथ, उनकी साहसिक पहल, उनकी रोमैंटिक कल्पना, उनकी राजनैतिक आशा-आकांक्षाएं, उनके समाजनैतिक स्वप्न मेरे चारो ओर चक्कर लगाने लगे मेरी परिस्थिति अब विलुप्त हो गई..”

 

 

“यह एक नया वास्तव था इस वास्तव में संघर्षशील मनुष्य की अनगिनत परिस्थितियाँ, मनःस्थितियाँ और वस्तुस्थितियाँ थीं उन्हें कुछ व्यापक सामान्यीकरणों में ढाल कर काव्य-रूप देने की आवश्यकता थी....” (मुक्तिबोध रचनावली, तारसप्तक के दूसरे संस्करण के लिए लिखा गया किंतु अप्रकाशित वक्तव्य, रचनाकाल संभवतः 1963-64- पृष्ठ-269-70)

 

 

‘वास्तव’ क्या है?

 
शायद यह सवाल ही बेतुका लगे और कहा जाए कि जो कुछ हम देखते-जानते-सुनते-अनुभव करते हैं, जो घर-परिवार-परम्परा से प्राप्त ज्ञान है वह सब ही वास्तव है लेकिन ऐसा है नहीं मुक्तिबोध यह मानते हैं कि “यह जीवन-जगत समाज और वर्ग और परिवार के भीतर पायी जाने वाली मानव-स्थिति और मानव-संबंधों और मानव-प्रयत्नों द्वारा अर्जित परंपरागत ज्ञान या मिथ्या ज्ञान से बना हुआ होता है।” (मुक्तिबोध रचनावली : पांच, पृष्ठ : 108) इस तरह देखिए तो ‘‘वह ऐतिहासिक कारणों की अनिवार्यता के नाते अनिवार्यतः मिथ्या ज्ञान/चेतना है, किसी दोष के कारण नहीं -वह भौतिक अस्तित्व का सत्य है। उसे तर्क के माध्यम से या अवधरणागत जोड़-तोड़ या हेर-फेर से ठीक नहीं किया जा सकता। चेतना/ज्ञान शुद्ध तर्क के रास्ते निरपेक्ष आत्मालोचना करने में सक्षम मस्तिष्क का क्रिया-व्यापार नहीं है। शुद्ध तर्क स्वयं द्वारा नियंत्रित नहीं है, बल्कि यह खुद सत्य के कालातीत होने के विचार द्वारा नियंत्रित किया जाता है; स्वयं इस विचार की कोई अंतर्भूत आलोचना या पुष्टि नहीं है।’’ (Critical Social Studies, Alfred sohn--Rethel, p.197) इसमें अगर इस बात को शामिल कर लें कि “आजकल हमारे चेतन में साझे और समझौते आ बसे हैं, और विद्रोही भावों-अवधारणाओं को हमने अवचेतन के अटाले में डाल दिया है” तो मार्क्सवादी, फ्रायडवादी और मुक्तिबोधीय तीनों ही परिप्रेक्ष्य से, चेतन को छद्म चेतना कहना दरअसल, एक ही बात को दुहराना है, क्योंकि छद्म चेतना के अलावा और कोई चेतना है ही नहीं

मुक्तिबोध के लिए सौंदर्य का परंपरागत उपमान ‘’चाँद’ का मुंह टेढ़ा है’ और कि उनके लिए परंपरागत ज्ञान ‘सत चित आनंद’ की जगह ‘सत चित वेदना’ ‘वास्तव’ है- ...दुखिया दास कबीर हैं, जागें अरु रोयें- मुक्तिबोध ‘फैंटेसी में विचरण करते हैं, जो कल वास्तव होगी’। उनके यहां एक कविता के पूरा होने के साथ, उसी में से एक और बड़ी कविता निकलने लगती है’, उनके यहां –‘नहीं होती कहीं भी ख़त्म कविता, नहीं होती।’ वे दृश्य के भीतर एक अदृश्य की मौजूदगी देखते हैं-

 

“किंतु तिमिर के बंधे ताल के उस गह्वर के तले

जीवन है उत्फुल्ल

(आज वह है अदृश्य, तो इससे क्या!)

.........

कल जो होंगे शतदल खिले

(आज वे हैं अदृश्य, तो इससे क्या!)”  (‘किसी विगत जीवन के’, रचनाकाल 1948, मुक्तिबोध रचनावली,खंड एक, पृष्ठ 197-98)

 

 

यह कोरा आशावाद नहीं, जो अभिनव संशोधन अविरत, क्रमागत की प्रक्रिया उनके यहां अनवरत जारी रहती है उसका हासिल है, और उसी का हासिल है ऐसा जीवन-

 

“इसलिए, मेरी मूर्ति

अनबनी अधबनी अभी तक....”

 

मुक्तिबोध की कविताओं में अस्तित्व और अनस्तित्व शब्द आता है- ‘अस्तित्व जनाता/ अनिवार कोई एक’ (“अँधेरे में”), ‘पूर्ण विनाश और अनस्तित्व उनका...’ (चम्बल की घाटी में)- के बीच द्वंद्व मिलता है एडोर्नो इस अस्तित्व और अनस्तित्व को ही संभवतः अस्मिता (आइडेंटीटी) और अनस्मिता (नॉन-आइडेंटीटी) कहते हैं -जिनके बीच द्वंद्व चलता रहता है। लेकिन इन भिन्न शब्दों के प्रयोग में एक स्तर पर अवधारणात्मक भिन्नता है, जिस पर पहले भी कुछ संकेत किये गये हैं। मुक्तिबोध मन की क्रिया का जो स्वतन्त्र गति-पक्ष है उसपर जोर नहीं देते जबकि एडोर्नो में उस पर ही ज्यादा जोर दिखता है मुक्तिबोध लिखते हैं- “मन की क्रिया का जो गति-पक्ष है वह तो स्वतन्त्र है, किंतु उसके भीतर के जो तत्व हैं, वे वाह्याधारित हैं, वाह्य-निर्मित हैं मन प्रवाहमान है—मरते दम तक किंतु वे तत्व जो उसकी क्रिया के ही अंग हैं, जीवन-जगत द्वारा निर्धारित हैं और स्वयं द्वारा संशोधित हैं, किंतु वे स्वयं द्वारा निर्मित नहीं हैं मन की गति तो केवल उसकी ऊर्जा है. ...उस ‘स्वतंत्र क्रिया’ की कल्पना के भीतर...मानसिक तत्व और मानसिक गति इन दोनों का समावेश...निराधार है” (रचनावली, खंड-पांच, पृष्ठ-107) एडोर्नो की तरह मुक्तिबोध वाह्य जीवन-जगत से किसी भी स्थिति में सामंजस्य को सिरे से खारिज नहीं करते वे लिखते हैं- “कला अभ्यंतर के वाह्यीकरण का एक रूप है हम वाह्य जीवन-जगत के साथ या तो सामंजस्य उत्पन्न करते हैं या उस सामंजस्य के अनुकूल उपस्थित होते हैं अथवा उसके साथ द्वंद्व में उपस्थित होते हैं काव्य भी या तो वाह्य जीवन-जगत के सामंजस्य या द्वंद्व अथवा दोनों के मिश्र रूप में उपस्थित होता है कला इस नियम का अपवाद नहीं है आज की कविता में उक्त सामंजस्य से अधिक तनाव द्वंद्व ही है” (वही पृष्ठ-105) मुक्तिबोध के लिए अंतर्विरोध दृश्य के भीतर अदृश्य की मौजूदगी है अपने समय की स्थितियों में मुक्तिबोध विरुद्धों के बीच सामंजस्य को नहीं, उनके बीच के विरोध को उघाड़ते हैं वे समन्वय, समझौते, सामंजस्य, संगतिबद्ध बने रहने के कायल नहीं उनके लिए इस ‘चम्बल की घाटी में’ “सामंजस्य है सूखा शिलीभूत”, “साझे हैं खरनाक”, “समझौते भयानक”, “संगतिबद्ध रहने की ज़िद”, संतुलनात्मक स्थितियां जैसी कि वे हैं छिः हैं, थू: हैं, है:हैं”. ऐसे में जब ‘सबको अपना-अपना घर का घूरा प्रिय है’ तो उन्हें ‘अपना असंग बबूलपन ही प्रिय है’ मुक्तिबोध के लिये द्वंद्वात्मकता अदृश्य पर, अनस्तित्व पर निर्भर है मुक्तिबोध का कला उद्द्यम अदृश्य/अनस्तित्व का बोध और बोध-प्रक्रिया समेत उसकी यथार्थ अभिव्यक्ति का संघर्ष है -उस अदृश्य के जो-

 

 

‘‘ज़िंदगी के....

कमरों में अँधेरे

लगाता है चक्कर

कोई एक लगातार;

आवाज़ पैरों की देती है सुनायी

बार-बार......बार-बार,

वह नहीं दीखता.....नहीं ही दीखता,

गहन रहस्यमय अन्धकार-ध्वनि-सा

अस्तित्व जनाता

अनिवार कोई एक,...’’  (अँधेरे में)

 

 

उस अदृश्य को उसके समूचेपन में अभिव्यक्त करना ही उनके यहां परम अभिव्यक्ति है, वही उनकी गुरु है-

 

 

“बेचैनी की गहरी उलझी मस्तक-रेखा

ने उत्तर भी तो प्रश्नों में बिम्बित देखा

पर प्रश्नों में बिम्बित को अलग-अलग करने

औ’ मूर्त रूप देकर प्रस्तुत सम्मुख करने

की महाभयानक अग्नि-प्रक्रिया-वीथि

में से कुछ-कुछ मैं गुज़रा अपनी रीति

तो देखा वह भीषण दीक्षा पूरी न हुई

तो पाया सर्वेक्षण ईक्षा पूरी न हुई

फिर चला अधूरा युद्ध वाह्य से अंतर से

 

(मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, घर की तुलसी, पृष्ठ 58)

 

 

‘दर्शन शास्त्र प्रामाणिक और अपरिवर्तनीय सत्य को ‘वास्तव’ कहता है। उसके लिए सत्य कालातीत है. वह इन्द्रियानुभवों और भौतिक व्यवस्था के बरक्स, आदिम, अनुभव का वाह्य आयाम- अनंत, परम या तात्विक रूप में जो निर्द्दृष्ट है, उसे ‘वास्तव’ मानता है। दर्शन शास्त्र ‘वास्तव’ को बहुधा जीवन-अनुभवों की भाषा में अवघटित न हो सकने वाला लेकिन कुछ-कुछ मामलों में झलक-झलक उठने वाला उद्दात्तता के अनुभव सरीखा मानता है।

 

 

सत्य या ‘वास्तव’ की भौतिकवादी-द्वंद्ववादी अवधारणा इससे उलट है उसके अनुसार “अपने सभी रूपों में कट्टर (डॉगमैटिक) सोच, सत्य की कालातीत अवधारणा का बंधक बन जाती है, इसके बरक्स मार्क्सवादी भौतिकवाद सत्य को समयबद्ध मानता है। सत्य के कालातीत होने की अवधारणा के तहत आदर्शवाद सोच का एकमात्र सुसंगत दृष्टिकोण है। अगर सत्य कालातीत है तो दिग्काल में अवस्थित यह लौकिक दुनिया अंततः वास्तविक नहीं, माया ही ठहरती है और सत्यासत्य के भेद के मानक यानी तर्क के मानक, पारलौकिक। सत्य की कालबद्ध अवधारणा के रूप में सोच का एकमात्र सुसंगत दृष्टिकोण भौतिकवाद है ऐसा सत्य द्वंद्वात्मक है क्योंकि इसकी सत्य-प्राप्ति में परिवर्तन निहित होता है।“

 

 

“समयबद्ध सत्य अस्तित्वगत है, न कि एक संज्ञानात्मक, आदर्श ('अस्तित्वगत' शब्द सामाजिक स्तर पर समझा जाता है, न कि तथाकथित 'अस्तित्ववाद' के व्यक्तिगत स्तर पर)। यह होने का सत्य है, विचारधारा का नहीं। मार्क्स ने चेतना को 'छद्म' या 'सही'  कहे जाने का उपयोग वर्ग-धारकों की सामाजिक वास्तविकता के संबंध में किया है, एक 'अनुभूति की वस्तु' की अवधारणा के संबंध में नहीं। उस अस्तित्वगत वास्तविकता का 'सामाजिक' के रूप में विशेषीकरण की व्युत्पत्ति इस तथ्य से होती है कि कोई व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व की दशाओं का नियामक नहीं होता।“ (A CRITIQUE OF EPISTEMOLOGY : Alfred Sohn- Rethel : p.- 199-200)

 

 

बहरहाल, मनोविश्लेषक लेकां ने ‘वास्तव’ और उसके अनुभव-प्रक्रिया की अपेक्षाकृत भौतिकवादी व्याख्या की संक्षेप में लेकां ‘वास्तव’ की व्याख्या एक त्रिक के ज़रिये करते हैं लेकां के ही शब्दों में यह “छद्म, प्रतीकात्मक (चित्राक्षर) और ‘वास्तव’ का एक अपवित्र त्रिक है, जिसके सदस्यों को सहज ही नकली (छद्म), अनुपस्थित और असम्भवता कहा जा सकता है” ("the Imaginary, the Symbolic and the Real are an unholy trinity whose members could as easily be called Fraud, Absence and Impossibility" (Malcolm Bowie, Lacan (London 1991) p. 112) इसमें चेतना को छद्म, अवचेतन को प्रतीकात्मक और ‘वास्तव’ को असम्भवता कहा गया है यहां एक बात फिर से दुहरा देना शायद जरुरी है कि लेकां के अनुसार चेतन भाषिक और अवचेतन भाषा सरीखी संरचना है, जो हमारी भाषा के व्याकरण और नियमों से भिन्न प्रतीकात्मक (चित्राक्षर) होती है लेकां के अनुसार ‘वास्तव’ की स्थिति छद्म की विरोधी ही नहीं बल्कि वह प्रतीक, चित्राक्षरों के भी बाहर अवस्थित होती है प्रतीक के विपरीत - जो विरोधी-युग्मों में संघठित है –मसलन “उपस्थित” और “अनुपस्थित” के रूप में- लेकिन ‘वास्तव’ में “अनुपस्थित” नहीं होता “उपस्थित” और “अनुपस्थित” के बीच प्रतीकात्मक विरोध में प्रतीक में कुछ छूट गये (left over) होने की संभावना निहित होती है, ‘वास्तव’ हमेशा उस छूट गई जगह में मौजूद होता है यदि प्रतीकात्मक विभेदित निदेशकों का समुच्चय है तो ‘वास्तव’ स्वयं में अविभेदित होता है- चित्रों और भाषा के परे का स्वयं में पूर्ण संसार। निदेशक (signifiers) आदमी के दृष्ट्य अर्थात चाक्षुष-पहचान की ग्रंथी को संचालित करते हैं जिन्हें लेकां कल्पना के जगत के तत्वों के तौर पर देखते हैं। शब्दों और वाक्यों के अर्थ भी छवियों के रूप में, मानसिक छवियों के रूप में, जिन्हें निदेशित (signifieds) कहते हैं, प्रकट होते हैं, जो चीजों की अलग-अलग पहचान की भेदमूलक क्रियात्मक अंतरक्रिया का जगत रचते हैं, जिसे लेकां ने प्रतीकमूलक व्यवस्था (symbolic order) कहा है। (अरुण महेश्वरी के लेकां पर लेख से)

 

 

लेकां कहते हैं ‘प्रतीकित करने की प्रक्रिया में प्रतीक ‘वास्तव’ में एक दरार, छेद बना देता है : “यह शब्दों की दुनिया है जो वस्तुओं का संसार रचती है.” इस प्रकार ‘वास्तव’ वहां प्रकट होता है, जो भाषा के बाहर होता है यह वह है जो प्रतीकित किये जाने का अबाध रूप से प्रतिरोध करता रहता है ‘वास्तव’ असम्भव है क्योंकि उसकी कल्पना करना असंभव है, क्योंकि उसे प्रतीक-व्यवस्था, भाषा में समाहित करना असम्भव है।‘

 

 

‘असम्भवता का यह चरित्र और प्रतीकित किये जाने का प्रतिरोध ‘वास्तव’ को ट्रौमेटिक (अभिघातज) गुण प्रदान करता है आत्म के छद्म और प्रतीकात्मक (चेतन और अवचेतन) में विभाजन के बाद ‘वास्तव का अनुभव एकमात्र प्रतीक-व्यवस्था में ट्रौमेटिक दरारों / छिद्रों के रूप में ही किया जा सकता है ट्रौमेटिक घटना के उदहारण के बतौर अघट-सी प्राकृतिक घटनाओं को लिया जा सकता है, जो हमारे रोजमर्रे के जीवन के अर्थ को यकायक प्रभावी ढंग से तोड़-फोड़ डालती हैं, उससे एक विच्छेद का कारण बनती हैं और एक गैर देश का, अजाना और पहचान में न आने योग्य को प्रत्यक्ष कर देती है, जो हमारी भाषा के ग्रामर से बाहर होता है, जो भाषा यह अनुकूलित करती है कि किसी चीज का अर्थ क्या निर्धारित किया जाये और कैसे आगे बढ़ा जाए एलन बदउ (Alain Badiou ) इसे ही शायद इवेंट (वारदात) कहते हैं और मुक्तिबोध जिसे प्रकृति का वस्तु रूप धर कर आत्मा को धक्का देना कहते हैं

 

 

मुक्तिबोध की कविता ऐसी ही वारदातों वा वस्तु रूप धरे प्रकृति की आत्मा को धक्के देने से उत्पन्न नये अजाने-पहचान में न आने योग्य लेकिन पहचान बताते, अपना अनिवार अस्तित्व जताते अनुभवों की प्रक्रिया है। ‘चम्बल की घाटी में’ कविता तो वारदातों का जैसे सिलसिला ही हो। कविता शुरू ही होती है- “चिंता हो गयी, कविता को पढ़ते ही,/ उसमें से अँधेरे का भभकारा उमड़ा;” और आगे बढ़ने पर- “बियाबान रात,/ जरुर कहीं कोई होगी आज वारदात,/ भयानक बात!!” और आगे- “डाकू के हाथों में अंधियारी बन्दूक/ देख रही वारदात/ अपनी ही करामात।” आदि-आदि वारदातों के सिलसिले मिलते जाते हैं। ‘अँधेरे में’ कविता में- ‘‘मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो/ जाने क्या हो जाय, जाने क्या हो जाय...’’ से ले कर अधिकांश कविताएं भी इस प्रक्रिया से अलग नहीं हैं। मुक्तिबोध के यहां कविता का कोई एक ढांचा नहीं है, जिसमें अनुभवों को फिट कर दिया गया हो वहां अगले ही क्षण क्या उद्घाटित होगा इसे पहले से नहीं जाना जा सकताजैसा कि उनके बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध बताते हैं ‘मुक्तिबोध को खगोलशास्त्र (कास्मोलॉजी) में बड़ी दिलचस्पी थी’, “जहां ब्रह्मांड अनंत दिक्काल में प्रकट होता है; जहां आकाशगंगाएं ब्रह्मांड की सतत विलुप्त होती सरहदों में एक दूसरे से तेजी से दूर चली जाती हैं; जहां तारे अस्तित्व में आते हैं, चमकते हैं और विस्फोट के साथ मृत्यु का वरण करते हैं और जहां बिलकुल साफ-साफ गति वस्तु के अस्तित्व की प्रणाली है।”

 

 

“गति, अर्थात् परिवर्तन और रूपांतर -  हमेशा निम्नतर स्तर से उच्चतर स्तर की ओर - प्रसंगवश मानव समाज के अस्तित्व की भी प्रणाली है कोई विचार परम नहीं होता, कोई समाज पूर्ण नहीं होता जब-जब किसी समाज को किसी परम विचार का मूर्तरूप माना गया तब-तब उसकी गहराइयों से उठे भूकंप के झटकों ने उसकी बुनियाद को हिला कर रख दिया है और तब चारों ओर फैली निराशा के घुप्प अंधेरे के बीच नए सपने खिलखिला उठे हैं” (मेरे सपनों का भारत- विनोद मिश्र) मुक्तिबोध की कविताओं में अचानक, सहसा, यकायक, अकस्मात् जैसे शब्दों की बहुलता यूं ही नहीं है

 

 

स्लावेज ज़िज़ेक (Slavoj Žižek) लेकां के सिद्धांत पर आधारित हो ‘वास्तव’ के कम से कम तीन रूप गिनाते हैं-

 

(1) “काल्पनिक वास्तव” ("imaginary real")- कोई भयंकर चीज जो भयानकता का भाव जगाए, जैसा हारर फिल्मों में होता है।

(2) “प्रतीकात्मक वास्तव” (“symbolic real")- जहां निदेशक (signifier) एक अर्थहीन सूत्र में घटित हो जाए- जैसे क्वांटम फिजिक्स, जिसे सिवाय अमूर्त गणित के किसी और अर्थपूर्ण तरीके से समझना मुश्किल हो।

 

(3) “वास्तव ‘वास्तव’”- ("real Real")- एक कुछ गहन सा जो वस्तुओं में उद्दातता की झलक, चिह्न को परमिट करता है, संभव होने देता है।

 

 


 

 

 

‘वास्तव’ का शोधक

 

 

इस नये वास्तव के उत्खनन के लिये मुक्तिबोध ने न केवल मनोविज्ञान बल्कि भौतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान आदि के क्षेत्र में हुए अद्द्यतन आविष्कारों-अनुसंधानों को भी पूरी दिलचस्पी और गहराई से समझने और उसका प्रयोग मानव-विज्ञान के क्षेत्र में करने की कोशिश की

 

 

‘एक साहित्यिक की डायरी’ के तीसरा क्षण नामक निबंध में केशव कहता है- “पहली बात तो यह... कि सारी सृजन-प्रक्रिया में एक प्रवाहमान गति है. और अगर हम फिजिक्स की कुछ कल्पनाओं का सहारा लें, तो हम इस निष्कर्ष पर आयेंगे कि हमारे लिए यह कहना कठिन है कि मनस्तत्व कहां, किस जगह, वस्तुतः, एक तत्व है और कहां, किस जगह, वह शुद्ध गति है, अर्थात कहां वह ‘पार्टिकल’ और कहां वह ‘वेब’ है

 

 

अपने समय के कहिए या ज़माने के ‘अंधेर-कारखाने’ में काम करते हुए मुक्तिबोध ने इन ज्ञान-क्षेत्रों द्वारा प्राप्त अनुभवों, नई खोजों के आधार पर अपनी कविताओं में न केवल नई बिम्ब मालाओं, प्रतीकों का निर्माण किया, बल्कि अमूर्त को मूर्त, अदृश्य को दृश्यमान करना संभव किया और अपने वैचारिक हथियारों को और अधिक धारदार, क्षिप्र, संवेदनाओं को तीक्ष्ण करने, उन्हें अधिकाधिक वैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने, साहित्य-सौंदर्य-आलोचना के स्थापित मानदंडों को परखने और अपने समय, समाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के बुनियादी चरित्र को उद्घाटित करने के लिए जरुरी नए टूल्स और सूत्रों को हासिल करने में उनका उपयोग किया

 

‘‘कलाकार से वैज्ञानिक

और वैज्ञानिक से कलाकार

तुम बनो यहां पर बार-बार.....

….

पूरा समेट शून्यावकाश,

ब्रह्मांड काल-दिक

करो विश्व का पूर्ण आत्मविश्वास प्राप्त।  

 

(भविष्यधारा, मुक्तिबोध रचनावली : 2)

 

इस सबकी जरुरत क्यों आन पड़ती है? जवाब है- ‘विश्व का पूर्ण आत्मविश्वास प्राप्त करने के लिए।’ अपने देश की ठोस हकीक़त के साथ मुक्तिबोध अपने अप्रस्तुत श्रोता, अनुपस्थित पाठक को अपनी कविता-प्रक्रिया में शरीक बनाना चाहते हैं, यह समझते हुए कि ‘तुम अकेले नहीं लड़ रहे हो, तुम्‍हारा पाठक भी लड़ेगा, यदि तुम उसमें लड़ाई के लिए उत्‍साह भरोगे। तुम अकेले ही समाधान नहीं ढूंढोगे, वह भी उसे ढूंढेगा। (बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट).

 

“ओ, अप्रस्तुत श्रोता,

ओ अनुपस्थित पाठक,

मैं अंधेर-कारखाने के

स्याह धुंए के बहाव में से निकल भागते

अंगारे-सा

उड़-तिरकर चुपचाप तुम्हारी छत पर

चोरी-चोरी आ पहुंचा हूँ;

पर जलाउंगा नहीं तुम्हें

मैं अपनी कविताओं से.

.......

मैंने चोरी-चोरी भीतर का रेडियम संभाल रखा है.

आज अकेले उसी एक कोने में तुमको पाने,

ले जाने के लिए

तुम्हारे घर आया हूँ

ओ मेरे प्रिय पात्र!      (ओ, अप्रस्तुत श्रोता, मुक्तिबोध रचनावली : 2)

 

 

इस कविता की ही तरह मुक्तिबोध की एक कविता है ‘भविष्य-धारा’ इस कविता में वे हमें-आपको अपनी भविष्य-धारा बताते हुए अपनी रचना की ‘वैज्ञानिक-प्रयोगशाला’ में ले जाते हैं वहां वे अपनी जीवन-प्रक्रिया, अनुभव-प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया को न केवल हमें बताते-दिखाते हैं बल्कि हमें उसमें शामिल भी करना चाहते हैं अपने समय में आविष्कृत नवीन वैज्ञानिक-गाणितिक अनुसंधानों के ज़िक्र, प्रयोग-विधि और अन्य कविताओं के मुक़ाबले सर्वाधिक वैज्ञानिक शब्दावली में रचित इस कविता में आप मुक्तिबोध की प्रामाणिक साहित्यिक-जीवनी, उस समय के समाजैतिहासिक, साहित्यिक-कलात्मक द्वंदों-संघर्षों की भी प्रामाणिक झलक पा सकते हैं यह तड़प से भरी एक अद्भुत और प्यारी कविता है इस दृष्टिकोण से भी अभी मुक्तिबोध के साहित्य का अध्ययन बाकी हैपता नहीं साहित्यालोचकों ने इस कविता पर नज़राशानी क्यों नहीं की! इस कविता की इस नुक्त़ेनज़र से व्याख्या करने की न मुझमें क्षमता है और न ही यहां उसकी आवश्यकता लेकिन इस नज़र से उद्धरणों के लम्बे हो जाने का खतरा उठाते हुए भी इस कविता के कुछ अंशों की एक झलक देखना शायद प्रासंगिक होगा-

 

“क्यों वैज्ञानिक सो गया

सतत प्रज्वलित गैस-स्टोव पास

स्वयं की प्रयोगशाला में?

क्यों वह अचेत हो गया?

कि कमरे में घूमने लगीं अदृश्य लहरें

वह महक अजीबोग़रीब द्रव्यों की

(अत्यंत उग्र) सर को चकरा देने वाली.

हैं खुली पड़ीं शीशियाँ, परिक्षण-नलिकाएं

क्यों हुई भयानक घटना यह?...”

 

 

यह हमसे-आपसे पूछा जा रहा सवाल है, आज भी सोचिए तो ये ‘खुली पड़ीं शीशियाँ, परिक्षण-नलिकाएं’ मुक्तिबोध की आधी-अधूरी कविताओं जैसी लगने लगेंगी और सर को चकरा देने वाली अजीबोग़रीब द्रव्यों की अत्यंत उग्र महक- रन्दों और बसूलों से निरंतर छीलछाल, निज पर ही वह निज का प्रयोग- तो खैर मुक्तिबोध की कविताओं की विशेषता ही रही आई खैर!

 

 

“अनवस्था के भ्रम-धूम-लोक में जाग उठी आत्मा

अनबूझे ऋण-एक राशि के वर्गमूल

की पातें चलती रहीं, भयानक गतियों में,

अत्यंत विचित्र अनंतों तक.

गणितिक ललाट की गहरी चिंतित रगें उठी हैं फूल वहां

ब्लाटिंग-पेपर पर बिम्बित अक्षर-वर्णों से

वे अंक दागवाले उलझे

हर भाव हृदय में फ़ैल दाग बन गया

खोये ही को खोजती हुई संत्रस्त सूझ

अभिनव कल्पित राशियों-राशियों द्वारा जब

जाती है करने भूल-सुधार कि कर आती

है एक दूसरी भूल

कि जिसके लिए कोसती रहती है

आत्मा निज को,

फटकार, चिड़चिड़ाहट, फिर गहरा उद्बोधन

भीषण एकांतों में अपना संशोधन

निज पर ही वह निज का प्रयोग

........

अपनी प्रयोगशाला में, वह वैज्ञानिक---

निज सूक्ष्म-तथ्य-मापन यंत्रों के बीच

अचेत अवस्था में

वह लुप्त समीकरणों की पंक्ति-अवली-माला

में उलझ रहा,

सूझ की गुंथन मन में थामे..”

 

 

स्थिति जटिल और प्रश्न उलझे हुए हैं उन्हें सुलझाना है और वे सामान्य गणित के रीयल (वास्तविक) नम्बर्स (अंकों) द्वारा सुलझने वाले नहीं, शायद उन्हें इमेजनरी नम्बर्स (काल्पनिक राशियों, अंकों) द्वारा सुलझाया जाना संभव हो ‘भूत का उपचार’ नामक कहानी में मुक्तिबोध कहते हैं- “ऋण-एक का वर्गमूल निकाल कर जो ऋण-राशि निकलती है वह एक काल्पनिक संख्या है मेरे पात्र की यह धारणा है कि सृष्टि यानी प्रकृति इस काल्पनिक संख्या को मानती है और उसके गणित-शास्त्रीय नियमों के अनुसार बरताव करती है शुद्ध तार्किक भाव–-प्योर थाट में भी प्रतीक होते हैं—यहां ये सांख्यिक प्रतीक हैं” (मुक्तिबोध रचनावली, खंड 3, पृष्ठ 127) अक्षर-वर्णों से वे दाग वाले अंक उलझे पड़े हैं, गणितिक ललाट की रगें इस नाते फूली हुई हैं, किसी विकृत मन की गुप्त-भयद पाप-चिंताओं के कारण नहीं भूल-सुधार करने में फिर दूसरी भूल कर आने को आत्मा कोसती है, किसी अस्तित्ववादी ‘फर्स्ट सिन’ के लिए नहीं यह ‘निज पर ही निज का प्रयोग’ अपना ही पुनः-पुनः संशोधन त्रिआयामी संघर्षों में से एक वस्तु-तत्व के लिये संघर्ष है, किसी प्रयोगवाद के लिए नहीं। और कि इसमें एक ‘आब्जेक्टिव इमेजिनेशन’ है, और है एक अजीब विश्वात्मक रोमांस। ‘भूत का उपचार’ कहानी का पात्र अपने लेखक से कहता है- “आपको क्या मालूम कि शुद्ध तार्किक भावों के मैदान में भी एक बड़ा भारी रोमांस होता है। नयी-नयी संगतियों की वह खोज आप नहीं पहचान सकते तो मैं क्या करूँ। आइन्सटाइन ने दिक् को छोरहीन किंतु सांत बताया, अनंत नहीं। क्या यह सच है? जहां तारा-बिंदु गोल-गोल घूम रहे हैं वहां तो स्पेस या दिक् गोल मानी जा सकती है, किंतु सपाट फैले हुए ब्रहमांड—जैसे सुदूर एक नेब्युला में, जो मान लीजिए स्थिर भी है, जो कि वह नहीं है, दिक् का रूप क्या होगा? गोल होगा? मान लीजिए, हम आइन्स्टाइन की दिक्-सम्बन्धी धारणा का खंडन करना चाहते हैं, तो हमारे नये बीसियों महत्वपूर्ण तथ्यों को, हमारे सारे गणित के बावजूद बार-बार परीक्षित-सुपरीक्षित करना पडेगा। यह जांच कठोर है, लेकिन जांच और कठोरता, दोनों में एक अजीब विश्वात्मक रोमांस है! उसे आप क्या जानो!”

 

 

“मुख्य बात संगति है, किंतु उसका आधार होता है। उसी आधार से गाणितिक प्रतीक प्रस्तुत होते हैं।”

 

“मैंने खीझ कर पात्र से पूछा- आप मुझे अपना पांडित्य क्यों बता रहे हैं!”

 

पात्र ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया---मेरे भीतर का जीवन आप क्या जानो!......मेरी आत्मा आधी क्लासिकल है आधी रोमांटिक।....क्षमा कीजिये, लेकिन आप लोग मन की कुछ विशेष अवस्थाओं को ही अत्यंत महत्वपूर्ण मान कर चलते हैं—विशेषकर उन अवस्थाओं को जहां वह अवसन्न है, और बाहरी पीड़ाओं से दुखी है। मैं इस अवसन्नता और पीड़ा का समर्थक नहीं, भयानक विरोधी हूँ। ये पीड़ाएँ दूर होनी चाहिए। लेकिन उन्हें अलग हटाने के लिए मन में एक भव्यता लगती है---चाहे वह भव्यता पीड़ा दूर करने सम्बन्धी हो या गणितशास्त्रीय कल्पना की एक नई अभिव्यक्ति। उस भव्य भावना को यदि उतारा जाए तो क्या कहना!” (मुक्तिबोध रचनावली, खंड 3, पृष्ठ 128-29) मुक्तिबोध ‘गणित के सरहदों को लांघने’ का जोखिम उठाने के रोमांस और उस भव्यता के, जो पीड़ा दूर करने सम्बन्धी हो या गणितशास्त्रीय कल्पना की एक नई अभिव्यक्ति सम्बन्धी हो, दोनों को एकीभूत कर उसके अभिव्यक्ति की नई भव्यता रचने वाले रचनाकार ठहरते हैं।

 

 

बहरहाल, वैज्ञानिक के जो नव-आविष्कृत समीकरण के सूत्र कहीं खो गए थे, उसकी वह कॉपी एक नव बाल-मित्र के हाथो मिलती है-

 

“खुश रहो कि न सही श्वेत पत्र,

चिंदी ही हाथ लगी!!

ये हस्ताक्षर वैज्ञानिक के

काल्पनिक राशियाँ क्वांटम की

ये---पी.के.जे.

यह आर. रेडियस का

ये अंक-पंक्ति के चित्र अनेकों रूपों में!!

पर यह क्या है?

ये काव्यात्मक पंक्तियां अंक के जंगल में

कैसे सुलगीं!!

यह क्या है कुछ आत्मचरित्रात्मक गहरा,

अंकों पर भी मन के डंकों का पहरा है!!”

 

यहां ‘आत्मचरित्रात्मक’ शब्द और ‘अंकों पर भी मन के डंकों का पहरा है’ पंक्तियां अर्थगर्भी हैं और व्याख्या की मांग करती हैं मुक्तिबोध वस्तुगत सत्य के आग्रही थे और उसके शोध में निरंतर लगे रहते थे लेकिन वह वस्तुगतता प्रकृति विज्ञान की वस्तुगतता सरीखी नहीं है वे कवि थे और गाणितिक तर्कों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी वे दोनों को एक-दूसरे में घुला-मिला देते थे या कहिये वे आपस में घुल-मिल जाती थीं इसपर वे खुद भी विस्मित होते हैं और हमें भी विस्मित करते हैं- “ये काव्यात्मक पंक्तियां अंक के जंगल में/ कैसे सुलगीं!!”

‘एक साहित्यिक की डायरी’ में ‘एक मित्र की पत्नी का प्रश्नचिन्ह’ नामक निबंध में मुक्तिबोध लिखते हैं कि “व्यक्तित्व के निमार्ण की कार्य-कारण-परम्परा का यदि अध्ययन करें, तो आप देखेंगे कि व्यक्तित्व-निर्माण में चेतन-मन का रोल बहुत ही कम होता है, और उससे बहुत कम रोल संकल्प-शक्ति का दोनों के रोल निस्संदेह कम होते हैं, लेकिन होते हैं बहुत ही महत्वपूर्ण---इतने महत्वपूर्ण कि उन्हीं के कारण मनुष्य मनुष्य है फिर भी आप जिसे व्यक्तित्व या चरित्र कहते हैं, वह चेतन काम के बहुत बाहर की चीज है, मानो हीरे को धारण किये हुए एक शिला आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है, स्वयं का चरित्र-साक्षात्कार बहुत कठिन. ...यह चरित्र आत्म-निर्मित तथा परिस्थिति-निर्मित होने के कारण, हम निर्णायक महत्व किसे दें यह ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब, संतोषजनक और समाधानकारक रूप में, अब तक नहीं दिया जा सका है.....आत्म-पक्ष और परिस्थिति-पक्ष एक ही वास्तविकता के दो अंग हैं और इन दोनों में ऐसे गहरे अन्तःसंबंध हैं जिनका सही-सही पूरा ब्यौरा देना नामुमकिन है हमारी इतनी बड़ी विवशताएँ हैं कि हम व्यक्तित्व या चरित्र के वैज्ञानिक विश्लेषण पर शत-प्रतिशत भरोसा नहीं रख सकते हमें नहीं रखना चाहिए” इस नाते ‘कुछ गहरा आत्मचरित्रात्मक’ लगते हुए भी पूरा यकीन के साथ इसे कह पाना मुश्किल है क्योंकि अंकों (परिस्थिति-पक्ष के वैज्ञानिक-विश्लेषण का प्रतीक) पर भी ‘मन के डंकों (बाल्य-काल से बाह्य से प्रतिक्रया के मध्य निर्मित होता आया आत्म-पक्ष) का पहरा है’

 

 

इसको आगे बढ़ाते हुए मुक्तिबोध कहते हैं- “साहित्य में... हमें सत्य नहीं, सत्य का एक पर्सपेक्टिव, एक दिशा-दृश्य, एक डायमेंशन, एक आभास ही मिलेगा, एक रोशनी ही मिलेगी---सिर्फ़ एक रोशनी सत्य का प्रकाश सत्य से भिन्न है साहित्य में प्रकाश ही प्रकाश है किंतु हमें प्रकाश में सत्यों को ढूंढना है हम केवल साहित्यिक दुनिया में नहीं, वास्तविक जीवन में रहते हैं इस जगत में रहते हैं साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा रखना मूर्खता है” इसको अल्थ्युसर और तरह से कहते है- “कला और विज्ञान दोनों ही एक उद्देश्य को अलग-अलग तरीके से प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। विज्ञान हमें किसी परिस्थिति का सैद्धांतिक ज्ञान देता है जबकि कला हमें उस परिस्थित का अनुभव कराती है जो कि विचारधारा के समान है। यह करते हुए कला विचारधारा, विचारधारा से परिचय और इस प्रकार उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी पाने की दिशा में हमें ले जाती है जो अपने आप में वैज्ञानिक ज्ञान से कम नहीं है।“ (अल्थ्युसर, मार्क्सवाद और साहित्यालोचन : अनुवाद वैभव सिंह, पृष्ठ : 35) आत्मपरकता को वस्तुपरकता और वस्तुपरकता को आत्मपरकता का स्पर्श देता हुआ मुक्तिबोध का साहित्य यह काम और भी अधिक जिम्मेदारी से करता है।

 

 

आइए वस्तु-तत्व का, उस ‘वास्तव’ का जो स्वयं में अविभेदित होता है- चित्रों और भाषा के परे का स्वयं में पूर्ण संसार- उसका अभिव्यक्ति सौंदर्य देखते हुए आगे बढ़ते हैं, जो एक ही साथ वस्तु-तत्व और अभिव्यक्ति-सौंदर्य दोनों है-

 

 

“एक-एक ध्वनि-तरंग अनुवादिता प्रकाश-तरंगों में

वे आसमान में रंग-बिरंगी प्रतीक शत

ज्यामितिक भिन्न रुपाकृतियों में नाच उठे

क्षण उद्भासित

क्षण विलयित

पुनः प्रकाशित वे..”

 

और इस सबके बीच से कोई रहस्य खुलता है, दाबे गये अर्थात जिनका दमन कर दिया गया, गुहावास दे दिया गया, उन भाव-अनुभवों की वेदनामयी महक फूट पड़ती है-

 

“कोई रहस्य

प्रस्फुटित हुआ...

कि दाबे गये भाव-अनुभव की गहन वेदनामयी महक

लेकर अपार दूरियाँ अतल विस्तार विचारात्मक

हैं फूट पड़ीं

शब्दाभिव्यक्ति, पर, मिल न सकी

इसलिए रंग-संकेत किरण-भाषा में नाच उठीं!!...

अब यह मेरा कर्तव्य

कि रंग-बिरंगी इन

शत किरण-तरंगों को

गणितिक भाषानुवादिता कर डालूं

फिर उनकी गणितिक अभिव्यक्ति

साहित्यिक शब्द-रंग-ध्वनि में बदलूँ.....

अनुवादित गणितिक अंक

यहां देना फ़जूल है,

वे क्वांटम की राशियाँ

कि मस्तक-शूल तुम्हारे लिए कठिन अत्यंत

प्लैंक्स कांस्टेंट-हाशिया

अंक यहां देना फ़जूल...

ज्यों वैज्ञानिक विचार-यात्रा

नव विद्युत्-चुम्बकीय जग से

अणु-केन्द्रीय जगत में पहुंची थी

त्यों आप भी सहज

केन्द्रीय जगत में जायेंगे

 

ध्वनि से छन किरण-तरंगों में

परिणत हो गणितिक अंकों में!!

उस वैज्ञानिक के स्वर भाषा में अनुवादित

मैं मात्र एक सम्पादक हूँ

यह निर्वैयक्तिक कार्य

 

कवि ने जब अपने को रोक लिया उस पूरी प्रक्रिया को देने से, तो इसे समझाने की न मुझमें क्षमता है, न उतना ज्ञान ही लेकिन कविता में जब क्वांटम राशियाँ, प्लैंक्स कांस्टेंट-हाशिया, आर. रेडियस, नव विद्युत्-चुम्बकीय जग और अणु केन्द्रीय जगत आदि के साथ जिस वैज्ञानिक विचार-यात्रा की बात हो रही है तो इससे इतना तो स्पष्ट है कि यह यात्रा शास्त्रीय भौतिकी से क्वांटम भौतिकी तक पहुंचने की यात्रा है

 

 

बीसवीं शदी के शुरूआती वर्षों के पहले तक यही माना जाता था कि परमाणु अखंडनीय ईकाई है बाद को रेडियो एक्टिविटी, थाम्सन के इलेक्ट्रान की खोज और रदरफोल्ड के अणु केंद्र के प्रयोगों ने इस मान्यता को विस्थापित कर दिया अणु केंद्र, अविभाज्य अणु का प्रभाग या कहिये उपमंडल, स्वयं भी अति लघु कणों (पार्टिकिल्स): न्युक्लोंस का समूह है संक्षेप में जहां शास्त्रीय भौतिकी बड़े आकारों पर लागू होती है वहां क्वांटम भौतिकी बहुत सूक्ष्म स्तर पर परमाणु (एटम) या मालिक्युल (अणु) के या मूल कणों के स्तर पर लागू होती है मनुष्य के सामान्य अनुभव से बाहर जो दुनिया पड़ती है जिसके लिये दूरबीन या खुर्दबीन की ज़रूरत पड़ती है, अणु-जगत उस सामान्य अनुभव या शास्त्रीय भौतिकी के क्षेत्र से बाहर पड़ता है  इसी नाते इसकी बहुत सारी बातें हमारा जो सहज बोध है उसके उलट पड़ती हैं इसलिए उलटी पड़ती हैं कि हमारा सामान्य ज्ञान हमारे सामान्य क्षेत्र या स्केल का ज्ञान है इससे इसे समझने में बहुत मुश्किल पड़ती है और इस नाते भी इसके नाम पर बहुत सारा रहस्यवाद भी खड़ा करने की सुविधा (अ)ज्ञानियों को मिल जाती है इसलिए इसकी अवधारणा और इसके इतिहास की मोटी-मोटी बातें जानना बहुत ज़रूरी होता है  

 

इस अणु केंद्र जगत के अपने भौतिक नियम हैं

 

सापेक्षिकता और क्वांटम इन दोनों सिद्धांतों का बीसवीं सदी की दुनियां में क्रांतिकारी महत्त्व सिद्ध हुआ अब पार्टिकल (कण) के यानी कणों के विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा बनने और विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा के कणों में रूपांतरित होने की संभावना को जानने के लिये यांत्रिकी सामने आ गई। और इस तरह कण और ऊर्जा, कण और तरंग के द्वित का समाधान हुआ। मुक्तिबोध इसका उपयोग अपनी सृजन-प्रक्रिया को समझाने में करते लगते हैं- ‘मनस्तत्व कहां और कब पार्टिकल है और कहां व कब वेब।’

 

 

इस नई भौतिकी ने न सिर्फ चिर-सम्मत भौतिकी(classical physics) को बदलने के लिये मजबूर किया वरन् इसने विज्ञान की कई अन्य शाखाओं समेत कला, भाषा और दर्शन को भी अपने प्रभाव में लिया। इस और अन्य क्षेत्रों –भाषा शास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि- में हुई ऐसी ही खोजों ने सभी क्षेत्रों में सदा सर्वदा के लिए स्थिर मान्यताओं, विचारों और धारणाओं की स्थिरता को भी हिला दिया इसे ही कविता-अंश में ‘वैज्ञानिक विचार-यात्रा’ कहा गया है, जिसे विचार-जगत के स्तर पर मस्तिष्क की क्रांति कहते हैं

 

 

पूंजीवाद, जो आज कारपोरेट पूंजीवाद के रूप में हमारे सामने मौजूद है, वह दरअसल, आधुनिकता के भीतर पूर्वआधुनिकता की पुनर्स्थापना है, एक प्रतिक्रांति है, जो वैज्ञानिक क्रांति की राजनीतिक उद्धार की संभावना को प्रभावहीन कर देती है पूर्वआधुनिकता इस तरह हमारी विश्व-दृष्टि बनी रहती है, बजाय वैज्ञानिक क्रांति से सबक सीखने के अपने देश में आज के हालात देखकर इसे कल के मुकाबले सहज ही समझा जा सकता है वास्तविकता में निहित दरारों को भरने के जरिये यह विश्व-दृष्टि सम्पूर्णता, परिसीमितता और केन्द्रीयता के लक्षणों से पहचानी जाती है जो मनुष्य को आत्मबद्ध बनाए रखते हुए अनिवार्यतः एक फासीवादी राज्य की स्थापना की ओर जाती हैजबकि आधुनिक विश्व संयोग, अनंतता और अस्थिरता को धारण किये हुए है ये तीनों लक्षण विचार में गहरे धंसे आत्मबद्धता के खिलाफ़ पड़ते हैं मुक्तिबोध इस स्थिति और इसके भीतर समाए द्वंद्व को बखूबी जानते-समझते हैं उनके यहां कविताओं में जो बहुतायत में अचानक, सहसा, अनंतता आदि शब्द आते हैं वे आधुनिक विश्व के इन्हीं लक्षणों को अभिव्यक्त करते हैं आधुनिक विश्व के इस बोध के ज़रिये ही वे न केवल आतताई होते सत्ता के फासीवादी चरित्र को उद्घाटित करते हैं बल्कि उसके मस्तक की बिजलियाँ, सूरज गुल होने की प्रक्रिया के सूत्र भी विकसित करते और बताते हैं

 

 

यहां इससे ज्यादा कुछ कहा जाना जरुरी नहीं है हां, यह सब और ऐसे नए अनुसंधानों को जानना न केवल दिलचस्प होगा, बल्कि अपने ज्ञान-क्षितिज, सिद्धांत-व्यवस्था को नवीकृत-विस्तृत करने में और आज के जटिल यथार्थ को भेदने में सहायक भी होगा, इसमें संदेह नहीं

 

 

आगे कविता सीधे केन्द्रीय जगत का रुख करती है और ‘काल-दिक-नैरन्तर्य-शिखर से’ सबसे पहले किसे संबोधित करती है, उसकी एक झलक देख लेनी चाहिए-

 

“ओ विराट के कथित

खण्ड बनने वालो

आतताइयो

स्वयं-महत्वशालियो

अरे, तुम्हारी छाया दूर नेब्यूला में भी

मैंने नापी

और, वही पाया जो सचमुच तुम हो,

गटर-गिरे, मिट्टी के ढेले के स्पेक्ट्रम हो

.......

मेरा क्या था दोष?

यही कि तुम्हारे मस्तक की बिजलियाँ

अरे, सूरज गुल होने की प्रक्रिया

बता दी मैंने

सूत्रों द्वारा

 

आतताइयों की निगाह में उनके ‘मस्तक की बिजलियाँ, सूरज के गुल होने की प्रक्रिया को सूत्रों द्वारा बता दिया जाना’ ही वैज्ञानिक का वह दोष है, जिसके लिए उसे अचेत किया गया, मार डाला गया ऐसे आविष्कारों के लिए, चाहे वे जिस क्षेत्र में किये जा रहे हों, उनके आविष्कारकों की पहले उपेक्षा, फिर यातना और अंततः मार तक डालने की घटनाएं आज भी हो रही हैं 

 

 

आगे कविता आतताइयों के साथ-साथ उन अपनों को भी संबोधित करती है जो ‘लाभ-लोभ-यश-अहंकार के चक्कर में’ आतताइयों से जा जुड़े हैं फिर वह हमको-आपको, जो उसकी प्रिय-परम्परा, भविष्य-धारा हैं, उनसे मुखातिब होती है और हमें अपनी जिम्मेदारियों, उसे निभाने के लिए क्रियावान-वेदना से युक्त होने और इसके लिए किन रास्तों व मुश्किलों से गुजरना पड़ेगा इसका एहसास कराती है पूरी कविता पढ़े जाने लायक मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है और इसे पढ़ा-समझा और समझाया जाना चाहिए

 

 

इस सन्दर्भ को किंचित विस्तार देना शायद अप्रासंगिक न होगा, ताकि हम इसे, और साथ ही इस बात को समझ सकें कि मुक्तिबोध इस कदर विज्ञान, गणित, मनोविज्ञान आदि की ओर क्यों मुड़ते हैं, यहां तक कि उसकी शब्दावली तक का इतना प्रचुर प्रयोग क्यों करते हैं

 


 

 

2015 में टॉम्सिक (SAMO TOMŠIČ) की एक किताब THE CAPITALIST UNCONSCIOUS : MARX AND LACAN का आखिरी अध्याय ‘राजनीति और आधुनिकता’ इस प्रश्न पर गहरी रौशनी डालता है सुविधा और स्पष्टता के ख़याल से उसके आधार पर कुछ बातें यहां करना प्रासंगिक होगा राजनीति और आधुनिकता में समकालिकता के अलगाव पर टॉम्सिक गैलिलियो का एक कथन उद्धृत करते है- ‘एक अनंत विश्व में, जहां प्रकृति अरस्तू और दार्शनिकों की भाषा नहीं, बल्कि ज्यामितिक और गणित की भाषा अपना रही है लेकिन राजनीति मृत भाषा का उपयोग करना ही ज़ारी रक्खे हुए है ....अरस्तू और दार्शनिकों की भाषा अनिवार्यतः ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के माडल से जुड़ी है, गोलकों की प्रणाली से, जो अपने वाह्य को नहीं जानता जबकि गणित की भाषा तुरत आधुनिक अनंत विश्व को जताती है’ मुक्तिबोध की एक लम्बी कविता है ‘शब्दों का अर्थ जब’, उसके शुरू की ही पंक्तियां हैं -

 

 

“धरती की आँखों के सम्मुख अब

असंभव कि आगे आय

सूना वह हिस्सा जो पिछला है चन्दा का

अगला न हुआ हिस्सा वह

चाहे वह पूनो हो, मावस हो

तो अन्यों के नेत्रों से ओझल वह

आत्म-संज्ञ निज-संविद निज-चेतस

सूना वह गोल सिफ़र

बाहर पर, धरती पर फैलाये छिटकाये चाँदनी

तो कृत्रिम-स्मित मुस्काते चन्दा-सा

शब्दों का अर्थ जब

 

चंदा और छिटकी चांदनी शब्द से जो भावचित्र हमारे मन में आता है वह हम सबका सामान्य भावचित्र है लेकिन कविता पंक्तियां इसके उलट कोई और भाव-चित्र संकेतित करना चाहती हैं यह भी कि शब्द और अर्थ के बीच, संकेतक और संकेतित (सिग्निफायर और सिग्निफायड) के बीच अभिन्नता का संबंध नहीं है, वे दोनों अलग-अलग और स्वायत्त हैं बहरहाल, कविता की ये पंक्तियां यह तो स्पष्ट करती ही हैं कि चन्दा के कृत्रिम-स्मित मुस्काते रूप और उसके पिछले सूने हिस्से को दिखाने के लिए ही वे आधुनिक विज्ञान, गणित और ज्यामितिक की ओर जाते और उसकी भाषा को अपनाते हैं बल्कि इससे भी कहीं अधिक अर्थ इन पंक्तियों में हैं जो उस भाषा और प्रविधि को अपनाए बगैर -स्वातन्त्रोत्यर भारत में विकसित होते नए यथार्थ समेत- समकालीन यथार्थ का उदघाटन शायद संभव ही न हो इस सब पर आगे भी बात होती चलेगी खैर, गैलिलियो के कथन पर टिप्पणी करते हुए टॉम्सिक लिखते हैं- ‘समस्या यह नहीं है कि आधुनिक राजनीति मृत भाषा से अधिक जुड़ी है, बल्कि तथ्य यह है की राजनीति एक बहुत ही समस्याग्रस्त जीवित भाषा- पण्य (कमोडिटी) की भाषा से- एक नापाक समझौते के साथ बुरी तरह अंतर्ग्रथित है वह आर्थिक उदारतावाद और नवउदारवाद की भाषा से जुड़ी हुई है, जो असंदिग्ध रूप से आधुनिक और गणित की भाषा से किसी भी रूप में कम स्वायत्त नहीं है बेशक, राजनीति और आधुनिकता में समकालिकता के अभाव ने आर्थिक कपोल-कल्पनाओं के कार्यान्वयन के लिए जगह पूरी तरह खाली कर दी है आज अर्थव्यवस्था स्वयं को एक तरह से ‘विज्ञान की नई रानी’ कहलाने में सफल हो रहा है पूंजीवाद ने अपने को ‘आर्थिक-धर्मराज्य’ के रूप में निर्मित किया है और राजनीति और विज्ञान को खुद के अधीन कर लिया है धर्म के ईश्वर और दर्शन के ईश्वर की मौत हो चुकी, जो शेष है वह अर्थशास्त्रियों का ईश्वर है आर्थिक-धर्मराज्य की समाप्ति अनिवार्य आवश्यकता है ताकि राजनीति का आधुनिक विज्ञान, ब्रहमांड के साथ समकालिकता स्थापित हो सके

 

 

‘मार्क्स के लिए विज्ञान को श्रमिकों के लिए श्रम से मुक्ति दिलाने तक जाना चाहिए, जिसका अर्थ है स्वयं से अलग जा पड़ा आत्म, व्यक्ति- जो वस्तु-रूप हो गया है- को उस वस्तु-रूप से मुक्ति दिलाना फ्रायड के लिए विज्ञान को मनुष्य की आत्मबद्धता, आत्ममोह- (जिसे ही ‘आत्म-संज्ञ निज-संविद निज-चेतस’ पंक्ति संकेतित करती है)- को ख़त्म करने की ओर जाना चाहिए, जो वह कर भी सकता है इसका मतलब यह कि व्यक्ति को अहं, इन्द्रियानुराग और राजनीति को निजी स्वार्थ से वियोजित, अलग करने का अनिवार्य और महती काम हमारे सामने पड़ा हुआ है विज्ञान राजनितिक संघर्षों के केन्द्रीय क्षेत्रों में से एक है, क्योंकि यह पूंजीवाद का अब मुख्य उपकरण बन गया है राजनीतिक आधुनिकता के खिलाफ विज्ञान का भौतिकवादी पाठ अनिवार्यतः आत्मन के प्रश्न को अपने में समाहित करता है

 

 

इस तरह आप देखिए तो अलगाव, वस्तुकरण और आत्मबद्धता पूंजी की सभ्यता की सार्वभौम विशेषताएं हैं हमारे समय का यह कठोर सच है कि इन पूंजीवादी विशेषताओं से जीवन का कोई इलाका बचा ही कहां है- धन-अविभूत अंतःकरणमें ‘‘टूट-फूट, टूट-फूट, सब अस्त-व्यस्त। लेकिन इसे बचाये रखने के लिये पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों को ढंकने के लिए फंतासी भी रचता हैलेकां के अनुसार ‘मार्क्स लगातार दो भिन्न लेकिन आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े स्तरों पर गति करते हैं नंबर एक पर- उत्पादन का तर्क, जो यह स्पष्ट करता है कि मूल्यों के बीच अमूर्त और तटस्थ-सा दिखता संबंध कैसे ठोस और शत्रुतापूर्ण सामाजिक विरोधों को पोषित और पुनरुत्पादित करता है दूसरा -फैंटेसी का तर्क, जिसका काम मौजूद संरचनात्मक विरोधाभासों का दमन करना, विरूपित करना और रहस्यमय बनाना है

 

 

इसे दूसरी तरह से भी समझा जा सकता है वह यूं कि उपयोग-मूल्य के रूप में दो भिन्न वस्तुओं - एक किताब और एक खिलौने - का विनिमय मूल्य बराबर हो सकता है वह इसलिए कि दोनों के उत्पादन में एक बराबर अमूर्त श्रम खर्च हुआ है हम चाहे किताब खरीद लें या खिलौना हमें धन की सामान मात्र ही खर्च करनी पड़ेगी लेकिन इन दो वस्तुओं के जो दो भिन्न उपयोग-मूल्य हैं उनका अपवर्जन करके, इस नाते कि उनका उपयोग-मूल्य एक अमूर्त समतुल्य-रूप के अधीन हो गया है पूंजीवादी आर्थिक जगत का यह सिद्धांत समाज के ऊपरी ढांचों में भी अभिव्यक्त होता है राजनीतिक क्षेत्र में देखिये तो सभी स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब एक वोट और हर वोट के एक ही मूल्य के होने के बतौर अमूर्त रूप में बराबर और नागरिक हैं लेकिन राजनीतिक सन्दर्भ में यह अमूर्त सैद्धांतिक समानता दिखती तो है, किंतु सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ में असमानता को बरकार रखती है यही हाल ‘कानून के सामने सब बराबर हैं’ के अमूर्त सिद्धांत का भी है आज तक बुर्जुआ किसी एक देश में भी कानून के सामने सबको बराबर नहीं कर पाया तात्पर्य यह कि पूंजीवादी समाज की सारी संस्थाएं एक तरह की फंतासी रचती हैं ‘जिनका काम पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली द्वारा पैदा ठोस और शत्रुतापूर्ण सामाजिक विरोधों का दमन करना, विरूपित करना और रहस्यमय बनाना है  

 

 

‘उत्पादन का तर्क और फैंटेसी का तर्क मार्क्स के पूंजीवाद की आलोचना की दो मूल अवधारणाएं हैं.... मार्क्स द्वारा जड़-पूजा, वस्तु-पूजा की आलोचना दरअसल, पूंजीवादी गतिमयता- जिसे जयशंकर प्रसाद कामायनी में इड़ा का वर्णन करते हुए ‘चरणों में थी गति भरी ताल’ द्वारा प्रतीकित करते हैं- की आलोचना है, उस गतिमयता की जो अबाध रूप से स्वाभाविक पूंजीवादी दर्शन है 

 

 

“मनोविज्ञान में प्रयोग किये जाने वाले शब्द नकारात्मकता (negativity) के लिए मार्क्सवाद में वर्गसंघर्ष शब्द का प्रयोग होता है, मार्क्सवाद का वही विख्यात, प्रमुख सिद्धांत जो व्यक्ति और समाज को बदल डालता है अगर हम मार्क्स द्वारा किये गए आर्थिक उदारतावाद की चार मूलभूत अवधारणाओं को याद करें- आज़ादी, बराबरी, संपत्ति और निजी स्वार्थ- तो हमारा सामना फिर-फिर बिना नकारात्मकता वाले यानी वर्गसंघर्ष से रहित, व्यक्ति और समाज की फंतासी से होता है।’ गौर करिए तो यहां आ कर ऊपर उद्धृत इन पंक्तियों का अर्थ साफ-साफ़ खुलता है-

 

‘अन्यों के नेत्रों से ओझल वह

आत्म-संज्ञ निज-संविद निज-चेतस

सूना वह गोल सिफ़र

बाहर पर, धरती पर फैलाये छिटकाये चाँदनी

 

 

मुक्तिबोध उस फैंटेसी/स्वप्न में घुसते हैं, और उस फैंटेसी/स्वप्न के बरक्स अपनी प्रति-फैंटेसी/ प्रति-स्वप्न रचते हैं- ‘उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते’।

 

पूंजीवादी जनतंत्र स्वयं को राजनितिक पदवी का एकमात्र उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं आज कहा जा रहा है कि नवउदारवाद ने दुनिया को बहुत नुक्सान पहुंचाया है और कि उसके दिन लद गये साथ ही आज दुनिया में अनुदार कहिये, फासीवादी या अधिनायकवादी कहिए प्रवृत्तियां सर उठा रही हैं दरअसल, यह पूंजीवाद जो संकट-दर-संकट की व्यवस्था है, ये दोनों ही उसके भिन्न लेकिन अभिन्न रूप से जुड़े गतिपथ हैं और कुछ नहीं ‘मार्क्स ने इस तथ्य की ओर पहले ही ध्यान आकर्षित किया कि फ्रांसीसी क्रांति के राजनीतिक निदेशकों- आज़ादी, समानता और बंधुत्व- को पूंजी और निजी स्वार्थ द्वारा बदल दिया गया है ‘इन राजनीतिक-आर्थिक निदेशकों ने बंधुत्व के विचार-भाव को नकार दिया है और आज़ादी व बराबरी के क्रांतिकारी चरित्र को आत्मबद्धता, खुदगर्जी के जरिये परिसीमित कर दिया है इस नाते सामाजिक सबंध बिखर गये हैं और अस्त-व्यस्त हो गए हैं मुक्तिबोध की कविता का एक अंश यहां द्रष्टव्य है-

 

झूलने लगे जब व्यक्ति-व्यक्ति के आस-पास

गहरे-गहरे लम्बे-लम्बे शून्यावकाश

तब शून्य तरंगों अदृश्य लहरों का

अध्ययन वेदना कारक है

मन की काली-सूनी अकादमी में

कोई दिलचस्पी नहीं आदमी में

इसलिए, मनोबल-ह्रास, भयानक-चारित्रिक

विघटन

से प्रेरित घोर कल्पनाएँ

विद्रूप कल्पनाओं से प्रेरित व्याख्याएं!!

सच तो यह है

इन्द्रियानुरागी जीवन के पथ पर चल पड़े सभी

विक्षुब्ध अहं, विक्षुब्ध उदर

विक्षुब्ध बुद्धि के मारक स्वर!!

 

(विक्षुब्ध बुद्धि के मारक स्वर, मुक्तिबोध रचनावली : 2)”

 

 

इन हालात में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के राजनीतिक निदेशकों को अपदस्थ कर उसकी जगह सुरक्षा (सेक्योरिटी) को ला बिठाया गया है

 

 

यही थी भूमिका हम-तुम मिले थे जब

 

 

लेकिन सब कुछ के बावजूद अपने देश भारत में पिछले कुछ सालों से आज़ादी-समानता-बंधुत्व की राजनीतिक अवधारणा ‘हम क्या चाहते आज़ादी’ के नारे के रूप में सुरक्षा की चिंता छोड़ सामाजिक वास्तव बनने लिये आन्दोलन की शक्ल धारण करने लगी है, जिसकी अगली कतार में और कोई नहीं छात्र-युवा और महिलाएं हैं। उसका दमन कर देने के लिये सत्ता कल के मुकाबले आज और अधिक खूंखार होती जा रही है। इन दोनों के बीच एक तुमुल छिड़ा हुआ है, यह एक अनिवार्य स्थिति है।

 

 

मार्क्स के अपने पाठ में लेकां इस बात पर जोर देते हैं कि ‘मार्क्स की पूंजीवाद की आलोचना आत्म (subject) की व्याख्या के भौतिकवादी सिद्धांत की ओर जाती है, जो राजनीतिक व्यवहार को एक नई दिशा प्रदान करती है जहां पूंजीवाद व्यक्ति को आत्मबद्ध, इन्द्रियानुरागी (narcissistic) जानवर के अलावा और किसी रूप में नहीं देखता है, मार्क्सावाद और मनोविश्लेषण शास्त्र इसे उद्घाटित करता है कि क्रांतिकारी राजनीति का विषय एलियनेटेड, अलगाव में पड़ा प्राणी है, जो अपने घनिष्ठ अभ्यंतर में अपने ‘अन्य’ को समाविष्ट किये हुए है, जो अपना समग्र तौर पर वस्तुकरण किये जाने, कमोडिटी बना दिये जाने के खिलाफ विद्रोह करता रहता है यह समाविष्टि ही एक आत्मबद्धता से मुक्त प्यार, साथ ही उस सामाजिक संबंध, जो आत्मबद्धता पर आधारित नहीं है, का मुख्य लक्षण या विशेषता है टाम्सिक लिखते हैं- मार्क्स ने जिसे ही कम्युनिस्ट समाज में स्वतन्त्र व्यक्तियों के संबंध के रूप में वर्णित किया है यह तभी संभव है जब आत्म का एक भौतिकवादी सिद्धांत भाववादी सिद्धांत को अपदस्थ कर दे, जिसके जरिये ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था राजनीति और समग्र सामाजिक संबंध को अपना बंधक बनाए हुए है केवल तभी राजनीति आधुनिक विज्ञान के समकाल में लगातार बनी रहेगी और दोनों समान संसार के बाशिंदे बने रह सकेंगे

 

 

मुक्तिबोध ने अपने लिये यही भूमिका तय की थी, अपने जीवन, रचना-आलोचना और वैचारिक राजनितिक लेखन के लिए इसी में साझेदारी के लिए उनका समस्त जीवन और रचनात्मक कर्म हमसे-आपसे संवाद करने की आत्मीय-आकुलता से भरा हुआ है मुक्तिबोध की शैली संवाद की शैली है, जहां वह शैली हमारी-आपकी चाहे जीतनी तीखी आलोचना से या स्वयं की आत्मालोचना-आत्मभर्त्सना-आत्मसंघर्ष से भरी हो वहां भी हार्दिक संवाद-धर्मिता उनकी मुख्य शैली है-

 

 

..वृथा की भद्रता औ’ शिष्टता के नियम सारे तोड़

........

हमें था चाहिए कुछ वह

कि जो गंभीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले.

नया दिक्काल-थियोरम बन,

प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण

मन का

कि जो गहरी करे व्याख्या

अनाख्या वास्तविकताओं,

जगत की प्रक्रियाओं की

.......

कि पूरा सत्य

जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में

सहज ही दौड़ता आये----

.......

यह थी भूमिका हम-तुम मिले थे जब।“

 

(नक्षत्र-खण्ड, मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड 2)

 

 

ऊपर वर्णित सारे तथ्य और परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अल्थ्युसर ने कहा था- ‘मार्क्स और फ्रायड का आलोचनात्मक स्थिति ज्ञान -वर्ग संघर्ष के प्रश्न का सिद्धांत के क्षेत्र में भारी महत्व है’ विस्तार में गए बगैर यहां यह संकेत करना जरुरी है कि यह कहते हुए कि हमारे “चेतन में समाये ये साझे और समझौते किसी के मार्फ़त हैं...” उस ‘मार्फ़त’ को केंद्र बनाते हुए मुक्तिबोध इस वर्ग संघर्ष को साहित्य के क्षेत्र में ले आते हैं – जीवनगत, रचनात्मक और आलोचनात्मक तीनों स्तरों पर। और कहना होगा कि इस संघर्ष में प्राप्त ‘नये वास्तव’ की सबसे सफल और संभव पूर्ण उपलब्धि ‘चम्बल की घाटी में’ और ‘अँधेरे में’ इन दो कविताओं में हुई है

 

प्रसंगवश यह ज्ञात तथ्य है कि मुक्तिबोध ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ के प्रकाशन से पहले मृत्यु का इंतज़ार करते रोग-शैय्या पर पड़े थे उस अवस्था में भी उन्होंने श्रीकांत वर्मा को अपने कविता संग्रह को लेकर दो हिदायतें दीं एक तो यह कि ‘अँधेरे में’ कविता का जो पांडुलिपि में शीर्षक ‘आशंका के द्वीप अँधेरे में’ उन्होंने रखा था, उसमें से आशंका के द्वीप हटा कर सिर्फ़ ‘अँधेरे में’ रहने दिया जाए दूसरी यह कि ‘चम्बल की घाटी में’ और ‘अँधेरे में’ ये दोनों कविताएं एक के बाद एक दी जाएं पहले ‘चम्बल की घाटी में’ उसके बाद ‘अँधेरे में’ ऐसा उन्होंने क्यों कहा इसे समझा जा सकता है पहली बात को यूं कि ‘अँधेरे में’ कविता में जो कुछ है, जीवन के उस आखिरी क्षण में उसके होने में उन्हें अब किसी तरह की कोई आशंका मात्र भी नहीं रह गई दूसरी बात यूं कि ‘अँधेरे में’ जो कुछ घटित हो रहा है वह ‘सांवली हवाओं में टहलता काल, हमारा तत्कालीन समय है’ और यह काल जिस दिक्, देश (स्पेस) में टहल रहा है वह देश ‘चम्बल की घाटी में’ कविता है। सरल करते हुए हम यूं कहें कि ‘चम्बल की घाटी में’ दिक् है और ‘अँधेरे में’ काल तो ग़लत न होगा। और अब इसे ऐसे देखें कि यह दिक् और काल अलग-अलग नहीं एक नैरन्तर्य में हैं। दिक् काल का ही एक विस्तार है। आइन्स्टाइन के बाद काल की हमारी आधुनिक अवधारणा सापेक्षिकता के सिद्धांत पर आधारित है। जिसके अनुसार अलग-अलग जगहों पर समय भिन्न तरह से चलता है। अब ऐसी मान्यता नहीं रही कि समय कहीं भी और किसी के लिए भी एक रहता है। अब दिक् और काल एक में समाहित हैं, इसे ही दिग्काल नैरन्तर्य कहते हैं। मुक्तिबोध इसी ‘दिग्काल नैरन्तर्य शिखर’ से जो कुछ देखते-समझते, परिवर्तनकारी नयी शक्तियों के रूप में जो सत्य, जो नया वास्तव उपलब्ध करते हैं उनकी कविताएं उसी का अभिव्यक्ति-प्रयत्न हैं। इसकी संभव पूर्ण और सफल अभिव्यक्ति ‘चम्बल की घाटी में’ और ‘अँधेरे में’ कविताओं में हुई है, जो दो न रह कर एक मेनीफोल्ड में समाहित हैं। जिसमें ‘किसी स्पष्ट लक्ष्य का छवि-उत्कर्ष लिए, निर्णायक हस्तक्षेप करते ताज़ी-ताज़ी हवाओं के हज़ारों ज़ोरदार बहाव हैं’, जहां ‘डाकू की कुर्सी बने पत्थरी ढाँचे से छुटकारा पाने की छटपटाहट है’, जहां ‘बहस है, दिन में निकल आई रात पर’, जहां ‘लुटेरे इलाकों में आज जो गिरोह हैं, जन-साधारण को उनकी ही टोह है’।

 

 

वहां ‘इस तम-शून्य में वह रहस्यमय व्यक्ति’ है जो परिवर्तनकारी नयी शक्तियों का प्रातिनिधिक चरित्र, ‘आत्मा की प्रतिमा’ है। उसके द्वारा की हुई ‘जगत-समीक्षा है’, उसका ‘महान विवेक-विक्षोभ है’, उसके द्वारा दिया हुआ ‘द्युति-आकृति-सा भविष्य का नक्शा है’, जिन्हें सहना मुश्किल है लेकिन उसे छोड़ पाना भी संभव नहीं है, चाहे उसके लिए जो भी सहना पड़े। जहां ‘किसी जनक्रांति के दमन के निमित्त मार्शल ला है’, और है ‘सत्य के साथ सत्ता के युद्ध का रंग’, जहां ‘वेदना नदियों में डूबे हैं: युगानुयुग से पिताओं की चिंता के उद्विग्न रंग, विवेक-पीड़ा की बेचैन गहराई, डूबा है जिसमें श्रमिक का संताप, माँओं के आंसू’, जहां उस जल को पीकर युवकों में व्यक्तित्वंतर हो रहा है, और वे विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से लड़ रहे हैं’, जहां मजदूरों द्वारा ‘आत्मा के चक्के पर संकल्प-शक्ति के लोहे का मज़बूत ज्वलंत टायर चढ़ाया जा रहा है’ और यह सब कुछ हो रहा है ‘कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गई’ के बीच। कवि का यहां यह कहना यथार्थ-संगत लगता है- ‘अब युग बदला है वाकई।’ इससे पहले ‘ब्रह्म राक्षस’ कविता में भी एक युग के बदलने का ज़िक्र है लेकिन वह ‘कीर्ति-व्यवसायी’ युग का आना था। अब यह जो युग बदलने का यथार्थ-आधारित स्वप्न है, उस कीर्ति-व्यवसायी युग के खिलाफ़ ‘अन-खोजी निज समृद्धि के परम उत्कर्ष’ का वह युग लाने वाला है, जो हमारी युगों-युगों की अन्तर्निहित अभिलाषा है। ‘वाकई’ शब्द इसी को अभिव्यक्त करता है। इसमें युग परिवर्तनकारी शक्तियों की शिनाख्त है- “(फ़जूल है इस वक़्त कोसना खुद को)/ एकदम ज़रूरी दोस्तों को खोजूं/ पाऊं मैं नये-नये सहचर!!” यहां क्रांतिकारी शक्तियों में निहित अनंत शक्ति और ऊर्जा के विस्फोट में एकांतिक और अटूट विश्वास है। “...हमें अंत में जनता पर ही आना पड़ता है, क्योंकि वही हमें प्रहारों से बचाती है, हमें आश्रय देती है, और अपने तरीके से हमें जीवन-सुविधाएं भी देती है। उसको छोड कर हम कहां जायें! उसका अँधेरा विशाल है। किंतु उसमें अग्नि है, उससे उष्मा मिलती है, प्रकाश भी।” (मुक्तिबोध रचनावली, पृष्ठ : 115) यहां किसी तरह के रहस्यवाद की, किसी परा-शक्ति के आराधन-पूजन की कोई जगह नहीं। परिवर्तन की नई शक्तियों के नये दर्शन के आधार पर नये सिरे से सभ्यता-समीक्षा है-

 

 

“न बन प्रतीकात्मक, रहस्य-भावानुभूति

बन चल मानव-पथ-विपथों की

चित्रात्मक गहन समीक्षा-सी

हो जा समीक्षिता मानव-वीथी का अनुभव”

 

(मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2] घर की तुलसी, पृष्ठ 59)

  

यह ‘नया वास्तव’ - जिसमें राजनीतिक-दार्शनिक-वैचारिक-रचनात्मक और अभिव्यक्ति के धरातल पर आत्म का, जगत का, ‘आत्मसम्भवा अन-खोजी निज समृद्धि का और परम अभिव्यक्ति का, कुल मिला कर आत्म के भाववादी सिद्धांत को अपदस्थ करता हुआ, क्रांतिकारी बदलाव के एक द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी सिद्धांत से अपने को लैस करता ‘फटे-हाल रूप जगत की गलियों में घूमता प्रतिपल’ नया इंसान हमारे सामने प्रत्यक्ष होता है, जिसके बगैर क्रांतिकारी बदलाव संभव ही नहीं है। वही “अन-खोजी निज समृद्धि का परम उत्कर्ष” का कर्ता है उसी की अभिव्यक्ति “परम अभिव्यक्ति” है यहां अभिव्यक्त और अभिव्यक्ति एकाकार हो जाते हैं जिसे मौलिक रूप-रंग और भाव-गाम्भीर्य में स्थापित और प्रकट करने के लिये नये शब्द-संयोग बनाने-लाने, नवीन वक्रोक्तियों और भंगिमाओं का सहारा लेने के साथ ही कल्पना-शक्ति द्वारा नव-नवीन रूप-बिम्बों के विधान करने का अभिव्यक्ति-संघर्ष अलग से नहीं, कविता में अंगीभूत रूप में अनुस्युत है - जड़ीभूत कला-सौंदर्य को चुनौती देता हुआ- “अरे इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा/ काम नहीं चलेगा/ ...अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे...” वही गुरु है, जिसकी अभिव्यक्ति के लिए सारे खतरे उठाए जा रहे हैं, कविता का ‘मैं’ जिसका शिष्य है जो-

 

 

“...जगत की गलियों में घूमता है प्रतिपल

वह फटे-हाल रूप

.....

उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह

सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता

वही फटे-हाल रूप!!

परम अभिव्यक्ति

अविरत घूमती है जग में

पता नहीं जाने कहां, जाने कहां वह है

इसीलिए मैं हर गली में

और हर सड़क पर

झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा

प्रत्येक गतिविधि,

प्रत्येक चरित्र,

व हर एक आत्मा का इतिहास,

हर एक देश व राजनितिक स्थिति और परिवेश

प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श

विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!

खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर

जहां मिल सके मुझे

मेरी वह खोयी हुई

परम अभिव्यक्ति अनिवार

आत्म-संभवा।”

 

 

अंततः समय बदलता रहता है नये-नये साधन और सिद्धांत विकसित होते रहते हैं सवाल है इससे भौतिक और मानसिक जगत में पैदा होनेवाले ‘नये वास्तव’ के उत्खनन, उत्खनन के लिए नये औजारों, टूल्स को विकसित करने की लगन और श्रम की, अपने लक्ष्य के प्रति हार्दिकता की यह देखने-परखने की कि प्राप्त ‘नये वास्तव’ का पुनः-पुनः परीक्षण-संशोधन-पुनर्संगठन के लिये संघर्ष, आत्मभर्त्सना की हद तक जाकर आत्मालोचन और आत्मसंघर्ष की जरुरी कठिन-कठोर प्रक्रिया से हम गुज़रते हैं या नहीं क्योंकि “बहुतेरी बाधाएं, स्वयं के बनाए जाल, वर्ग की खाइयां, अहं आदि मन को रास्ते से भटकाते रहते हैं और इसके वशीभूत हो जाने पर संपादित आत्मसंशोधन आत्मा के प्रयोजन से हट जा सकता है, यहां तक कि विकृत भी हो सकता है।“ (मुक्तिबोध)

 

 

यह कठिन-कठोर प्रक्रिया व्यक्तित्वांतरण/ वर्गान्तरण का मूल है। इससे गुज़रे बगैर आप क्रांतिकारी बदलाव के न बौद्धिक हो सकते हैं, न रचनाकार और न ही क्रांतिकारी कार्यकर्ता। मार्क्स क्रांति के लिये जिस तरह के ‘रिगरस वर्कर’ (कार्यकर्ता) की मांग करते हैं, वह ऐसा ही है आदमी में स्वार्थ, भय, संशय-द्वंद्व सब रहता है लेकिन वही आदमी संघर्ष करता है, खुद को बदलता है और पूरी दुनिया को भी यह प्रक्रिया रचनागत नहीं, शुद्ध जीवनगत है-

 

“मूर्ख वे कि दावा जो करते हैं

भुगता न झोल कभी

बुद्धिमान वे सच हैं

भुगतते व पार चले जाते हैं

मैं भी स्वयमात्म रूपान्तर क्रियाओं में

लीन हूँ.

पार चला जाउंगा निश्चित है!!”

 

(मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, ‘एक टीले और डाकू की कहानी’ कविता, पृष्ठ 236)

 

 

मुक्तिबोध अपने जीवन और रचना में न केवल ‘स्वयमात्म रूपान्तर क्रियाओं में लीन हैं’ बल्कि उनकी कविताएं-रचनाएं हमसे भी इन क्रियाओं में लीन होने, क्रियावान वेदना से युक्त हो, उसे क्रियागत-परिणति तक पहुंचाने के लिए निरंतर संवाद छेड़े रहती हैं। जब हम मुक्तिबोध से मिलते हैं, उन्हें गहरे और गहरे जानने लगते हैं तो हम भी कह उठते हैं –‘यही थी भूमिका हम तुम मिले थे जब!

 

 


 

 

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