शीतेन्द्र नाथ चौधुरी का संस्मरण 'अतीत के झरोखे से'
शीतेंद्र नाथ चौधुरी |
शीतेंद्र नाथ चौधुरी
जन्म : 10 जून, 1943, मैमन सिंह, बांग्लादेश में
शिक्षा : एम एस सी पूर्व, एम.ए. (हिंदी) बी.एड.
प्रकाशित कृतियाँ : दो कथा संग्रह ‘हाते से बाहर’ (1986) और ‘छत्ता’ (2008), ‘कला में रूप और वस्तु की द्वंद्वात्मकता’ (मूल आवनर जिस), ‘उन्नत सभ्यताओं में कला और साहित्य का विद्रोह’ (मूल : गोल्ड्मान), ‘स्वामी विवेकानंद के सामाजिक एवं राजनीतिक विचार’ (मूल : बी.के. रॉय) सभी अनुवाद पुस्तिकाएँ। एलेन सॉकाल और ज्याँ ब्रिकमॉंट की किताब "फैशनेबल नॉनसेंस" का अनुवाद 'अनुभव कदम- अंक 38' मई 2018 में प्रकाशित।
सम्मान / पुरस्कार : ‘हाते से बाहर’ (कहानी संग्रह) पर म.प्र. साहित्य सम्मेलन का ‘बागीश्वरी पुरस्कार’ (1986) एवं परिमल प्रकाशन का ‘राजेश्वर सिंह स्मृति पुरस्कार (1988)
वर्तमान साहित्य द्वारा आयोजित ‘कृष्ण प्रताप स्मृति’ कहानी प्रतियोगिता (1987) में कहानी पुरस्कृत।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
अविभाजित भारत के पूर्व बंगाल प्रान्त का एक जिला मयमन सिंह हमारी स्मृतियों में इस तरह टंका है कि हमारे एक पड़ोसी का वहाँ पर जमा जमाया कारोबार हुआ करता था। विभाजन के समय कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी कि उन लोगों को अपना जमा जमाया कारोबार छोड़ छाड़ कर किसी तरह अपनी जान बचा कर भागना पड़ा। जब मैं छोटा था तो मयमनसिंह से जुड़ी उनकी तमाम स्मृतियों को सुनता रहता था। वे वहाँ के लोगों, उनके जनजीवन, वहाँ के खान पान, वहाँ की संस्कृति और व्यापार आदि के बारे में तमाम किस्से अक्सर साझा करते रहते थे। इस तरह मयमनसिंह से कुछ इस तरह का जुड़ाव हुआ कि लगता यह अपनी ही जमीन का हिस्सा है। कवि मित्र भास्कर चौधुरी से बात में जब यह पता चला कि वे लोग मयमनसिंह के ही मूल निवासी थे और विभाजन के समय भारत आए थे, तो वहाँ के बारे में मेरे मन में एक सहज जिज्ञासा जाग उठी। उसी क्रम में भास्कर जी ने बताया कि उनके लेखक पिता शीतेन्द्र नाथ चौधुरी ने अपने बचपन यानी मयमनसिंह के दिनों की स्मृतियों को एक संस्मरण के जरिए याद करने की कोशिश किया है। इसी क्रम में शीतेन्द्र जी का यह संस्मरण पहली बार को प्राप्त हुआ। इस संस्मरण में शीतेन्द्र जी ने वहाँ के जनजीवन, रहन सहन एवम परिवेश को शिद्दत से याद किया है।
बकौल शीतेन्द्र नाथ मेरा जन्म 1943 में तत्कालीन पूर्वी बंगाल (जो 1947 में पूर्वी पाकिस्तान बना और 1971 में बांग्लादेश) के एक गाँव में हुआ था। 1952 में जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ रहा था, बड़े भाई साहब के साथ कानपुर आ गया। अपनी जीवन कथा लिखते हुए बंगाल के गाँव कि मेरी 9 साल तक की उम्र के संस्मरण का अंश भेज रहा हूँ। आगे की यादें इस संस्मरण में।
आज पहली बार पर प्रस्तुत है शीतेन्द्र नाथ चौधुरी का संस्मरण 'अतीत के झरोखे से'।
अतीत के झरोखे से
(पूर्वी बंगाल उर्फ पूर्वी पाकिस्तान उर्फ बांग्लादेश के एक बाशिंदे की ज़ुबानी उसके गाँव की कहानी)
शीतेन्द्र नाथ चौधुरी
मैं भी कभी नौ साल का बच्चा था, माता पिता को छोड़ कर बंगला देश से ट्रेन में बैठ कर बड़े भईया और भाभी के साथ कानपुर आ गया। नहर, ताल तलैया छूटे, खेत-खलियान छूटे, एक पतंग के पीछे नंगे पैर दौड़ते वे सारे दोस्त वहीं रह गए। आज मैं नहीं जानता कि गुल्लू, बंटी, दीपू सब कहां है कैसे हैं। 1952 में मैं आर्मापुर स्कूल में भर्ती हो गया। दलवीर, मुकेश, कमल, परविन्दर दोस्त बन गए। मैं उनके साथ ही पैदल स्कूल जाता। स्कूल की दूरी 3-4 किलो मीटर तो जरूर रही होगी। उस समय टिफिन क्या होता मै नहीं जानता था। भाभी गरम दाल चावल और साथ में आलू का चोखा खाने को देती जो मुझे अमृत के समान लगता। मेरा बस्ता कई जगह से फटा रहता भाभी तुरपाई कर देती चप्पल के बध्धी के नीचे पिन लगा कर उसे दुरुस्त कर देती। फिर मेरे घने बालों पर ऊंगली फिरा कर कहती 'बस थोड़ा सा सबर कर ले इस बार तेरे भैया सब खरीद देंगे'। मैं दस साल का बच्चा जरूर था पर मैं सब थोड़ा-थोड़ा कर जान और समझ रहा था।
बचपन में जब हम चल रहे होते, खेल या दौड़ रहे होते हैं तो यह सोच कर नहीं करते कि वह हमारी सेहत के लिए अच्छा होगा वरन इसलिए कि वह हमारी आदत में अपने आप शुमार हो जाता है। जो बाद के जीवन में बड़े काम का होता है। मेरा छठी में पहला स्थान रहा। मैं खुशा-खुशी घर लौटा हमेशा की तरह, बस उस दिन नई बात यह थी कि रेजल्ट बस्ते के भीतर गणित किताब के बीच दबा हुआ था जिसे बड़े भैया को दिखाना था। बड़े भैया, झक गोरा सुतवा नाक, और कसरती बदन। रोंएदार हाथ और मशीन पर काम करने वाला वो मजबूत पंजा। उसकी मार दिन में तारे दिखा दे। मैंने रेजल्ट निकाला और उनके सामने रख दिया। गणित में 100 में 2 नंबर कम था। "2 नंबर कम क्यों है?" मैं चुप था। वे कुछ देर बाद बोले ''गधा कहीं का-जा भाग"। मैं सोचता रहा प्रथम स्थान पाने पर भी बड़े भैया हमें 'गधा' क्यों कहते हैं, थोड़ा बहुत बुरा तो लगता ही था। बचपन में हम जिस परिस्थिति में रहते हम उसके अनुकूल बनते जाते। बचपन इसी को ही तो कहते हैं।
हम कितनी जल्दी उन सारी चीज़ों को भूल जाते हैं जिनके बिना बचपन में एक पल भी गंवारा नहीं होता। गरमी की छुट्टी हो चुकी थी। फिर भी समय से उठना सोना, खेलना पढ़ना जारी था। इस बीच घर का छोटा मोटा काम करना सीख गया। सौदा लाना बाज़ार जाना। भतीजा को गोद में ले कर खिलाना भी उसमें शामिल था। उत्तर प्रदेश की तेज गरमी रात नौ-दस बजे तक लू के थपेड़े में आंगन में मच्छरदानी लगा कर सोता। तारों भरी रात में गांव की यादें भीड़ कर मुझे चारों ओर से घेर लेता। पिता की उंगली पकड़े गांव की गलियों मे घूमना, उनके कंधे पर बैठ कर उनके बालों के गुच्छे को मुठ्ठियों मे जकड़ लेना। पिता कविराज (वैद्य) थे। दोपहर पूजा करने के बाद जब वे आंगन में खड़े हो कर शंखध्वनि करते तब खेत में काम करने वाले किसान खाना खाने के लिए घर लौटते थे। पिता लम्बे और माँठिगने कद की थी माँउस समय की तीसरी कक्षा पास थी, वृत्ति (स्कॉलरशिप) परीक्षा भी पास थी। माँकी जब शादी हुई तब वह महज 10 साल की थीं। वे कहती थीं कि घर के सारे काम दादी की गोद में चढ़ कर ही सीखी थी। पिता सीधे सरल और घरमुखी थे। माँपास-पड़ोस रिश्तेदारों में बॅंटी हुई रहती थी। इसे ये देना उसे वो देना माँ को अच्छा लगता। पिता चाहते उनके द्वारा लाई गई सारी चीजें केवल बच्चे और घर के लोगों को ही दी जाएं।
अंधेरी रात में आकाश और नदी की तुलना करना मुश्किल हो जाता है। आंगन में सोते हुए आकाश देखना और उसकी विशालता में खो जाना, बारिश के आने की सूचना हमें दे जाती। वह आशियाना बनाने में और हम आशियाना दुरुस्त करने में लग जाते। जिनके पास मज़बूत घर होता उस भयंकर उथल-पथल बारिश में बच जाता और जिनके पास नहीं होता उनका घर चाय में डूबे बिस्कुट की तरह (अरुण कमल) गलने लगता। बारिश में आंगन, पोखर बन जाता। बरसात में जल-थल मिल कर एकाकार हो जाता। हम आंगन पार के कमरे में बांस से बने सेतु पर चढ़ कर जाते। ये सेतु दो बांसो को क्रॉस करके दो-तीन जगह खंबे के रूप में लगा कर उन पर तीन-तीन लम्बे बांसों को बिछा कर बनाया जाता। नहर और नाले पर भी यह बनाया जाता था जिस पर चल कर लोग इस पार से उस पार पहुंचते थे। बारिश के पहले से जीवन उपयोगी सारा कुछ का जुगाड़ माँही करती थी। माँके पास कई तरह की पोटलियां और पान का बटुआ तो ज़रूर रहता था। वे कुछ देसी दवा भी रखा करती थी। गांव में पिता ही एक वैद्य थे और गांव के दूसरे छोर पर एक झोलाछाप डाक्टर जो वक्त जरूरत पर सुई वगैरा लगा देते थे। बारिश में जब पानी फर्श को डुबा देता था माँचूल्हा खाट पर ले जाती। वह चूल्हा बड़े से कड़ाही पर बना होता। बारिश में चूल्हा कभी ऊपर कभी नीचे नाचता रहता। घर था तो हम थे, हम थे तो आग थी रोशनी थी।
पिता की उंगली का, माँ की बांहों का वो जादू उम्र भर रह जाता है। तभी तो ज़रा सी चोट पाई नहीं कि उनके नाम हमारी ज़ुबां पर। बारिश के दिनों में जितनी स्याह रात होती थी, दिन भी कोई कम नहीं था। झोप-झाड़ियों से पटी रहती थीं गांव की पगडंडियां। कोई सड़क तो थी ही नहीं। बारिश में सूरज कई-कई दिनों क्या, कभी-कभी महीनों तक नदारद। अब जब सोचता हूं तो लगता है कि उन कठिन दिनों में माँआग कैसे बचा कर रखती रही होंगी। मयमनसिंह में जन्म हुआ था मेरा। वह एक जिला था जहां हम रहते थे वह एक साधनविहीन गांव जिसका नाम कृष्णजीवनपुर था पर उस नाम से उसे कोई नहीं बुलाता था। उसे झिकोराला नाम दिया गया था। मेरे अलावा मुझसे बड़े दो भाई और थे। सबसे बड़े भैया नेत्रोकोना टाउन में संझले चाचा के घर रह कर पढ़ते थे। संझले चाचा रामगोपालपुर जमींदार के तहसीलदार थे। बड़े भैया कक्षा एक से ही नेत्रोकोना में पढते थे। वे कभी-कभी ही घर आया करते थे। मैं और मझले भैया समाज नाम के एक बड़े गांव के स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। भैया पांचवी में और मैं पहली कक्षा में। हमारे गांव से लगभग दो मील की दूरी पर था स्कूल। हम पैदल ही जाते थे और कोई साधन नहीं था। रोज शाम को पिता मुझे गोद में बिठा कर याद कराते थे ''गांव का नाम -कृष्णजीवनपुर। तहसील-नेत्रकोना, जिला-मयमनसिंह, प्रदेश-पूर्व बंगाल, कमीशनरी-ढाका"।
बारिश का एक महीना बहुत मुश्किलों भरा होता था, स्कूल डूब जाता था। बाजार झिकोराला से दो मील की दूरी पर था नाजिरगंज में। मैं नांव में बैठ कर पिता के साथ अक्सर बाजार जाया करता था। घर और बाजार के बीच जहां पानी गहरा होता, वहां बांस का मचान बना रहता था उस पर मछुवारा चढ़ कर जाल फेंकता जिसे वहां की भाषा मे 'खरा' कहा जाता। मछली पकड़ने का एक और तरीका था, जब पानी कम यानी कमर तक का रहता, बांस के सींकचों से तकरीबन तीन फुट ऊँचा चौड़े घेरे वाला और ऊपर हाथ डालने के लिए छोटे मुंह वाला ''पोलो'' (वहां का नाम) डाल कर मछली पकड़ी जाती थी। यह काम एक तरह से उत्सव की तरह किया जाता था, जिसमें गांव के नौजवान लड़के नहर की चौड़ाई में एक कतार में उथले पानी में झुक कर पोलो डालते हुए तकरीबन आधे पौने मील तक आगे बढ़ते चले जाते थे। और पोलो के मुंह में हाथ डाल कर जब भी मछली उसमें कैद होती थी उसे निकाल कर पीठ में बंधी बांस की झांपी में डालते जाते। ये ठीक उसतरह से दिखता धा जैसे चाय-बागान में तोड़ते हुए चाय की पत्तियाँ रखी जाती हैं। पता नहीं मनुष्य अपना जीवन जीने के लिए ये सारे हुनर कहां से सीख कर आते हैं।
जहां जिस तरह की भौगोलिक संरचना होती है, खान-पान भी उसी तरह से बन जाता है। पानी का देश, इसलिए मछली और चावल मुख्य भोजन। जिस दिन पिता शहर से गोभी और टमाटर ले आते थे, घर अलग तरह की खुशबू से भर जाता। पानी-पानी हुए घर में सबसे मुश्किलात का सामना करना पड़ता था माँको, जहां पर बर्तन मांजती थीं उस घाट के पास रखा पत्थर भी डूब जाता था। हमारा नहाना-धोना उसी पानी से होता। उसी पानी को फिटकरी दे कर या बरसात में उबाल कर हम पीते थे। वहां की मिट्टी सफेद थी और ऐसी थी कि पानी में डूबने पर भी ज्यादा गलती नहीं थी। नदी या तालाब में तैरना बच्चे-बड़े सबको आता था। तीन-चार साल की उम्र से ही तैरना सिखा दिया जाता था। पिता नहाने से पहले सरसों तेल की मालिश किया करते थे। मुझे गोद में ले कर मालिश कर दिया करते थे। फिर हम दोनों घर के बाजू में कुछ कदम की दूरी में बरसात की उफनती नदी के किनारे पर कमर तक के पानी में खड़े हो कर पिता मुझे दोनों हाथों में ले कर पानी में उछाल देते थे। मैं हाथ-पांव पटक कर नाक-मुंह से पानी पी कर पिता को पकड़ने की कोशिश करता वे मुझे पानी में हाथ डाल कर संभाल लेते थे। इस तरह हाथ-पैर पटकते हुए कुछ ही दिनों में तैरना सीख गया।
घर में माँसंकटमोचक थीं। पिता बैठ जाते माँ उनके सामने सब रख देतीं। पिता कभी झूठ नहीं बोलते थे। पर कभी-कभी माँको बहाना बनाना पड़ता था, जब पिता पूछते ''कौन-आया था, तुमने फिर किसको अनाज दिया, किसको तेल दिया?''। असल में हमारे गांव में 5 या 6 साल के बाद अकाल पड़ता था। कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि की मार खेतिहर मजदूरों को झेलना पड़ता था। उन्हें पता होता कि हमारे पास अनाज की कोई कमी नहीं है, पर पिता को लगता अकाल में कहीं बच्चे भूखे न रह जाए।
मैं तैरना पूरी तरह से सीख गया। डाइव मारना भी सीख गया था। हमारे घर के बाजू में घाट के बांई ओर एक बहुत बड़ा आम का पेड़ था जिसका मोटा तना जड़ से आठ-दस फुट की लम्बाई तक कुछ इस तरह अधलेटा सा था जैसे कि कोई विशाल हाथी की पीठ हो। बरसात के दिनों में नदी का पानी उफन कर इतनी ऊंचाई पर आ जाता था कि पेड़ के उस तने से पानी का तल महज तीन-चार फीट नीचे होता था। हम चार-पांच बच्चे नहाते समय उस पेड़-हाथी की पीठ पर चढ़ जाते और हंसते-खिलखिलाते कभी सीधे पानी में छलांग लगा देते या सिर नीचा करके उल्टे डाइव मारते और ऊपर से जो पका हुआ आम हमारे आस-पास पानी में टप-टप गिरते उसमें से एक-एक आम ले कर हम ऊपर आ जाते। ये आम इतने बड़े और रस-भरे होते कि एक आम चूस लेने से ही हम अघा जाते। रसदार और बड़े साईज़ के होने के कारण इसका नाम ''नारियल आम'' था।
तैरना जब खूब सीख लिया तब तैर कर नदी पार कर लेता, उसकी तेज़ धार से लड़ते हुए कुछ तिरछा हो कर उस पार पहुंच जाता। छै-सात साल की उम्र का वह रोमांच कभी नहीं भूलता। इतना ही नहीं उस पार ऊपर तट पर उल्टी दिशा में चलने के बाद फिर ऊंचाई से नदी में डाइव मारता और तैर कर वापस इस पार अपने घाट पर पहुंच जाता। घर में किसी को भी चिन्ता नहीं होती कि हम बच्चे इतनी देर तक नदी में क्या कर रहे थे। बच्चौं का नदी में नहाना-तैरना वहां के लिए एकदम स्वाभाविक बात थी। हमारे पास एक नाव थी लकड़ी की, जो करीब बीस फुट लम्बी और मध्य में करीब चार-पांच फुट चौड़ी थी। बरसात में सब काम नाव पर सवार हो कर करना पड़ता था़। बड़े भैया छुट्टियों में जब घर आते तो नाव ले कर छोटे चाचा के साथ नदी के बहाव में पूरब दिशा की ओर नीचे तक बंसी ले कर मछली पकड़ने जाते थे। एक बार शाम के धुंधलके में जब वे लौट रहे थे तो उस जगह पर जहां नदी-किनारे शव जलाए जाते थे वहां बड़े भैया को अंधेरे-उजाले के झिलमिल में नदी के तल से आसमान की ऊंचाई तक सामने कुछ दूरी पर ही एक बिराट छायामूर्ति दिखाई दी। पीछे बैठे नाव खेते हुए चाचा से जैसे ही भैया ने इस बात का ज़िक्र किया तो उन्होंने भैया को आँखें मूंद कर गायत्री मंत्र जपने को कहा। तेजी से नाव चला कर वे घर पहुंचे और चाचा ने भैया के डर जाने की बात माँसे बतलाई तो उन्होंने भैया को गुड़ खिलाया और निश्चिंत हो गई कि अब प्रेत के डर से भैया को बुखार नहीं आएगा।
हमारे गांव के मध्य भाग में मेरी बड़ी मौसी का घर था। हम जब भी वहां जाते मौसी बीते रात की घटना कुछ यों सुनाती--कल रात नीरद की बेटी मध्य रात्रि मे लघुशंका के लिए बाहर बांस-झाड़ के नीचे गई थी। जवान लड़की के बाल खुले हुए थे। भिनसारे बाप ने उठ कर देखा कमरे में बेटी नहीं है। उसके अन्दर के तांत्रिक ने आवाज़ दी ''बाहर जा कर ऊपर देखो''। नीरद ने देखा-बांस के सिरे पर बेटी के खुले बाल पत्तियों से बंधे हुए हैं और वो लटकी हुई है। उसने फौरन ज़मीन पर माँकाली का चित्र खींचा और उंगली घुमा कर कुछ मंत्र फूंके। मूंदी हुई आँखे खोलने पर बेटी को सामने बैठा पाया। दरअसल नीरद चाचा काली भक्त थे।
गांव के लोग उनके यहां रखी काली मूर्ति को जाग्रत देवी मानते थे। इसलिए नीरद चाचा के यहां घटी प्रेत कहानी को असली ही मानते थे। वैसे हम बच्चे जब भी आपस में गपियाते गांव के नौजवान लड़कों के पास से गुज़रते तो उस लड़की को मौसी के छोटे लड़के मेरे गोपाल दादा से जोड़ कर हंसते खिलखिलाते हुए सुनता। मौसी के घर से लौटते हुए एक सूखे नाले के पार वीरान में खड़े एक विशाल छतनार इमली के पेड़ के नीचे से जब मैं गुज़रता तो एकाएक रौंगटे खड़े हो जाते और मुंह से राम-राम निकलने के साथ-साथ चाल अपने-आप तेज हो जाती। लोगों से सुन रखा था कि उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। इसीलिए लोगों ने उस पर लोहे की एक कील गाड़ रखी थी।
माँ से सुनता था उन्हें मेरी दादी की मौत के बाद आंगन के पूर्वी छोर पर स्थित पूजा घर से चौथ के चन्द्रमा की धुंधली रौशनी में रात की वीरानी में सफेद धोती में लिपटी किसी औरत को निकलते हुए कई बार देखा था। यह छायामूर्ति कुछ दूर आगे जा कर पोखर के किनारे खड़े पीपल के पीछे गायब हो जाती है। एक बार माँ को मेरे ननिहाल में मध्य-रात्रि में नींद खुलने पर एकाएक कमरे के अन्दर छत के कोने में आग का गोला दिखाई दिया, जो ठीक से देखने पर एकाएक गायब हो गया। अगले दिन इस बात को सुन कर मेरे मामा ने इसे हाल ही में गुजरे किसी ओझा की आत्मा होने की बात बतलाई। लेकिन मेरे पिता जी रात-बिरात कितने ही बार शमशान घाट वाले रास्तों से गुज़रे पर उनसे कभी कोई भूत-प्रेत नहीं टकराया। पिता जी के मरीज और जजमान लोग उन्हें नारायण-भक्त मानते थे, इसलिए गांव के लोग निश्चिंत थे कि उन्हें कभी कोई प्रेत छू नहीं सकता, पर पिता जी भी एक बार बहुत घबरा गए थे। उन्हें मरीज़ देखने रात को एक दूर के गांव जाना पड़ा था, बीच में एक बहुत बड़ा मैदान पार करना पड़ा था। छिटकी चांदनी में मैदान के बीच से जाने वाली पगडंडी सफेद लकीर जैसी दिख रही थी। एकाएक उनकी नज़र पड़ी, दूर मैदान के दूसरे छोर पर घुंघट काढ़े एक औरत खड़ी है जिसकी हरी साड़ी हवा में लहरा रही है। न चाहते हुए भी उनके रोंगटे खड़े हो गए पर अब तक उन्हें इस तरह के प्रेतात्माओं ने कभी तंग नहीं किया था, वे साहस बटोर कर आगे बढ़ते रहे और उनकी निगाहें उस औरत पर टिकी रहीं। जब वे कुछ ही कदमों की दूरी पर थे तो उन्हें समझ आया - अरे यह तो केले का पेड़ है जिसकी लम्बी पत्ती हवा में लहरा रही थी।
आज जब सोचता हूं तो यह लगता है कि किस तरह गांव में लोग अंधेरे-उजाले के खेल में भूत-प्रेत का भ्रम पाल लेते हैं। हमारे घर के दक्षिण-पूर्वी छोर पर हमारे ही जमीन पर झोपड़ी बना कर निबारन चाचा रहते थे, उनका बेटा मेरे ही उम्र का था। हर दिन की तरह जब मैं उनके यहां गया तो चाचा बांस की खपचियों से चटाई बुन रहे थे और चाची उनकी मदद कर रही थी। अन्दर से निकल कर नरेश मुझे खींचते हुए चलने लगा और बोला- ''तुम्हारे मौसी के घर के आगे सरकार दादू की बहू पर देवी सवार हुई है, बहुत लोग देखने के लिए जा रहें हैं, आओ हम भी चलें''। हम दोनों घुड़दौड़ के स्टाईल में भागने लगे। वहां पहुंच कर देखा आसपास की औरतों से घिरी बरामदे में बैठी बहू जीभ निकाल कर लम्बी चीख मार रही है और साथ में उसका बदन ऐंठ कर धनुष की तरह हो रही है। हम डर गए और एका-एक उल्टे पांव घर की ओर दौड़ पड़े। बाद में पिता जी को माँ से कहते सुना था कि सरकार बहू को जचकी के बाद धनुषटंकार (टिटेनस) हो गया था। आज सोचता हूं कि गांव में भूत-प्रेत के चक्कर में और इलाज के अभाव में न जाने कितने ही लोग उन दिनों काल-कवलित हो जाते थे। हमारे गांव के ठीक मध्य में एक खास घर था जिसे हम 'चौधरी बाड़ी' कहते थे। जैसे उन लोगों के घर के भवन खास थे वैसे ही उस घर के आदमी भी विशिष्ट थे। वे तीन भाई थे - सबसे बड़े श्री सुरेश चन्द्र चौधुरी नेत्रोकोना टाऊन के दत्त हाईस्कूल में हेडमास्टर थे। उनकी लिखी मोटी ट्रांस्लेशन बुक पूरे बंगाल में मशहूर थी। मझले भाई योगेश चौधुरी ढाका हाईकोर्ट में एडवोकेट थे। छोटे भाई दिनेश चौधुरी मिलिटरी में डाक्टर थे। पहले दोनों भाई पिता जी से बड़े थे, इसलिए उन्हें हम ताऊ जी कहते थे। वे इतने खासम-खास थे कि हम दूर से ही देख कर संतोष कर लेते थे।
बात फैली है कि चौधुरी बाड़ी में कुछ अजूबा सा घट रहा है। लोग कहते हैं कि आसमान से उतर कर कोई बक्से में बैठे अजीब आवाज़ में बोलता है। मैंने नरेश का हाथ पकड़ा और पगडंडी पर उसी घुड़दौड़ की चाल में चौकड़ी भरी। रास्ते के बाजू में जाल फैलाए काम कर रहे टुन्ना माझी ने पुकारा- 'अरे कहां भागे जा रहे हो बच्चो'' 'लौट कर बताऊंगा माझी चाचा' और बिना मुड़े हम दोनों उतनी ही तेजी से आगे बढ़ गए। बाड़ी के बैठक घर के खुले बरामदे पर छोटे बड़े आठ-दस जनों के बीच में हम भी घुटनों के बल बैठ गए और उचक-उचक कर देखने लगे कि उस अद्भुत आवाज़ में कौन बोल रहा है। सामने के खुले दरवाजे से हमने देखा अन्दर दीवार के पास मेज पर एक लकड़ी का मझोले आकार का बक्सा रखा हुआ है और कुछ दूरी पर कुर्सी पर बैठे हेडमास्टर ताऊ जी ध्यान से सुन रहे हैं। बाजू में बैठे बड़े लड़के ने कहा- 'यह रेडियो है'। दूसरे ने सुधारा- 'बेतार है बे, ढाका से समाचार आ रहा है'। नरेश मुझे कोहनी मारने लगा और कान में फुसफुसाया- 'अन्दर जाके देख न, जरूर कोई पीछे बैठे बोल रहा है'। मैं चाहता जरूर था ऐसा करना लेकिन ताऊ जी के सामने अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुई। पाँच छै साल की उम्र में हम इस अचरज को ज्यादा देर तक बांध कर नहीं रख सकते थे और फौरन घर लौट कर पड़ोसियों को बता देना चाहते थे। लिहाजा हम लौट पड़े पर इस बार टुन्या माझी से मुखातिब होने के लिए रुक गए। टुन्या चाचा ने गीले गमछे में कमर और पेट पर चकत्ते से उभर आए दाद को खसर-खसर खजुवाते हुए हमारी ओर नज़रें ऊंठाई। हमने कहा 'चाचा, जाकर देखो, चौधुरी बाड़ी में एक अजीब बक्सा आया है जो आदमी की तरह जोर-जोर से बोल रहा है।‘ हमारे अन्दर और रुकने का धीरज नहीं था, हम केवल चाचा का ‘ऐं’ - सुन सके और उसी स्टाईल में घर की ओर भाग चले।
चौधुरी बाड़ी से आते समय मेरी नज़र उनके बगीचे में खड़े बेर पर पड़ी। वह पके बेरों से लदा था। ये बेर बहुत मीठे होते थे। दो रोज़ के बाद पता चला हेड मास्टर ताऊ शहर वापस चले गये, मैंने नरेश को इशारे से बुलाया और चल पड़े बेर चुराने के मिशन पर। हम ढेला मार-मार कर बेर गिराते और बीन कर थैले में रखते जाते। तब तक आहट पा कर किसी ने अन्दर जा कर चौधुरी दादी को खबर कर दी। झक सफेद धोती में लिपटी ऊंची पूरी झुर्रीदार चेहरे वाली गोरी दादी अपनी सिलहटी बोली की तान वाले तलफ्फुज़ में कुछ इस तरह चीखती हुई बगीचे की ओर आने लगी- ''खाल पाइरा बाड़ीर जीबोनो बड़ई गुलो खाइया फाललो'' यानी कि नदी किनारे वाले घर के जीवन (घर का नाम) सारे बेरों को खा डाला। दादी को इस तरह आते देख हम पीछे मुड़ कर दे-दौड़ और पल भर में नौ दो ग्यारह। हम दोनों सीधे धान खेतों के पार मैदान में खड़े इकलौते कदम पेड़ के नीचे पहुंचे और थैले से निकाल कर बेर खाने लगे। पेड़ पर खिले कदम्ब के फूलों से भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी। नरेश तपाक से पेड़ पर चढ़ गया और दो-तीन फूल तोड़ कर ले आया। रोएंदार बॉल की तरह कदंब ले कर हम कैच-कैच खेलने लगे। जब धूप तेज होने लगी तो हम लौटते हुए पिछले साल तक हाट लगने वाले मैदान के छोर पर खड़े साएदार अरंडी के पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे, फिर नदी के किनारे-किनारे बेंत झाड़ों के पास से गुजरने वाली पगडंडी से घर की ओर चल पड़े।
घर पहुंच कर पता चला कि कल हम माँके साथ ननिहाल जा रहे हैं। मेरा ननिहाल आठ मील दूर बौराडी गांव में था। मामा के घर के पास से रेल लाईन गुज़रती थी। मैं खुश हो गया कि रोज सुबह-शाम छुक-छुक करती रेलगाड़ी देखने को मिलेगी। जब पिता जी के साथ जाते तब तो हम रेल ही से जाते पर माँके साथ जाने पर पालकी से जाना पड़ता था क्योंकि अतिथपुर स्टेशन जाने के लिए तीन मील पैदल चलना पड़ता था। पर बरसात में पूरा इलाका जलमग्न हो जाने के कारण हम नाव से ही ननिहाल जाते थे। पालकी बोहने के लिए बिहार से आए चार मज़दूर हमारी जमीन पर बने एक झोपड़ी में रहते थे, उनमें से दो के नाम मुझे अब तक याद हैं, एक मझोले कद का गठीले शरीर वाला गेहुंवे रंग का बाबू लाल और दूसरा ऊंचे-पूरे कद का सांवले रंग का पहलवाननुमा राम लाल। ये गांव-घर में मजदूरी के अलावा पालकी ढोने का काम भी खास तौर पर करते थे। मैं जब भी उनकी झोपड़ी में जाता तो इन्हे सत्तू सानते हुए पाता। प्याज और हरी मिर्च के साथ मगन हो कर इन्हें सत्तू खाते देख मुझे बड़ा मज़ा आता। राम लाल चाचा एक कटोरी में ला कर मुझे भी देते और कहते- 'अपने गांव से लाया हूं घर का पिसा सत्तू, खूब स्वाद है'। अगले दिन हमारे आंगन में पालकी रख कर बाबू लाल चाचा ने आवाज़ दी- 'चलिए माँजी, सूरज चढ़ आया है, दोपहर तक पहुंच जाना है'। सज-धज कर माँ पालकी में बैठी, मैं भी आ कर बैठ गया। पालकी को एक धोती से चारों ओर घेर दिया गया राम लाल, बाबू लाल चाचा और उनके दोनों साथियों ने अपने-अपने कंधे पर गमछे का पुलिंदा बना कर पालकी के ऊपर की ओर से दोनों ओर निकले हुए बल्ली के छोरों को आगे पीछे दो-दो, झुक कर उन लोगों ने कंधे पर थामा और ऊपर उठा कर, हैया हो-हैया हो' का संगीत निकालते हुए आगे की ओर एक लय में चलने लगे।
आधे रास्ते पर कहारों ने सुस्ताने के लिए एक साएदार पेड़ के नीचे पालकी उतारी। माँ ने मुझे एक डब्बे से निकाल कर चावल के आटे से बनी मठरी और ठेपली खाने को दी। कहारों ने फिर से पालकी उठाई और अपनी चाल पकड़ी - हु-हुमना का सुर हवा में तिरने लगा। ननिहाल में पहुंचते ही सामने मिलन खड़ी थी, वह मेरी छोटी ममेरी बहन है। मामा परछी में एक झूलन कूर्सी पर बैठे हुक्के का पाइप मुंह से लगाये कश खींच रहे थे। हमने उनके पांव छुए और मामी को खोजते हुए रसोई की ओर चल पड़े। माँमामी के साथ वहीं बैठ दुनिया भर की बातों में लग गई। मुझे रेल लाईन देखने की जल्दी थी। मैं मिलन का हाथ खींच कर बाजू वाले घर के सामने की पगडंडी से पचास गज की दूरी पार कर रेल-लाईन पर पहुंच गया। मैं बांई पटरी पर और मिलन दांई पटरी पर खड़े हो गए और यह कह कर दोनों बैलेंस करके चलने लगे कि देखें कौन बिना गिरे ज्यादा दूर तक चलता है। एक को तो पहले गिरना ही होता है, उस समय कौन पहले गिरा यह तो मुझे याद नहीं पर ज्यादातर मिलन ही गिरती थी। वापसी में हम लकड़ी के स्लीपर पर दौड़ते हुए आते थे, फिर पटरी पर कान लगा कर आवाज़ सुनते थे कि ट्रेन आ रही है कि नहीं। अगर मिलन कहती- 'कुछ ही देर में ट्रेन गुजरेगी' तो हम पटरी के नीचे खड़े हो कर इंतज़ार करते और सही में दूर से आती ट्रेन दिखाई पड़ जाती। जब सीटी बजाती हुई ट्रेन सामने से गुज़रती तो हम अचरज से खिड़की से झांकते चेहरों को तेजी से एक के बाद एक ओझल होते हुए देखते। साथ में यह भी महसूस करते कि पांव के नीचे की जमीन कांप रही है। घर लौटे तो मामा बोले- 'तुम लोग कहां चल दिए थे बिना खाए-पिए'। हम भी जल्दी हाथ मुंह धो कर अपने तीन दादाओं (शीतू, मधु व बरुन) के साथ खाने बैठ गए। हम खा कर उठ चुके पर मामा अभी भी आसन जमाए बैठे हुए थे कि उन्हें तली जा रही मछलियों का इंतजार था। मामी तंज कसती- 'ये तो बच्चों से भी गए गुजरे हैं, वे उठ गए पर इन्हें तो देखो' - लेकिन साथ ही मामी तली हुई मछलियां ला कर उन्हें देती भी जाती।
मेरे नाना ने दो शादियां की थीं। पहली पत्नी से चार बेटियां थीं। नानी के निधन के बाद उन्होने दूसरी शादी की जिससे मेरे मामा और मेरी माँहुए। मामा से बड़ी मेरी चारों मौसियां विधवा हो चुकी थीं। इन चारों में सबसे छोटी मौसी इसी गांव में रेल लाईन के उस पार दक्षिणी टोले में अपनी इकलौती बेटी के साथ रहती थीं। तीसरे पहर मैं मिलन के साथ मौसी के यहां जाने के लिए निकला। रास्ते में कच्ची सड़क के किनारे एक आंवले का पेड़ था। मिलन ने मुझे ऊपर उंगली उठा कर दिखाया - पत्तों के बीच से आंवले झांक रहे थे। उसने मुट्ठी खोल कर नमक की पुड़िया निकाली। मैं समझ गया और ढेला फेंक कर चार पांच आंवले गिराए। नमक से चटखारे ले कर आंवला खाने लगे। मौसी मुझे देख कर खुश हो गई- ''चारू भी आई है न!'' (चारु बाला मेरी माँ का नाम था) मेरे हामी भरने पर बोली ''कल जाऊंगी मिलने- एक जरूरी बात करनी है''। अन्दर से दीदी ने एक तश्तरी में गुड़ के बने नारियल और लाई के लड्डू ला कर दिए। काले घुंघराले बालों वाली बहुत गोरी और सुन्दर ज्योत्स्ना दीदी पर से हमारी आंखें हट नहीं रही थीं। मौसी को उनके ब्याह की चिन्ता थी, शायद इसी के बारे में बात करने माँसे मिलना चाह रही थी। छुटपन में इस मौसी से मुलाकात के बाद फिर कभी मिलने का मौका नहीं मिला। मुझे बड़े भाई साहब अपनी शादी के बाद कानपुर ले आए थे। चार साल बाद 1956 में मां-पिता जी भी कानपुर आ गए थे। आज पता नहीं कौन कहां है। मौसी का तो जिन्दा रहने का सवाल ही नहीं, ज्योत्स्ना दीदी कहीं होंगी भी तो जिन्दगी के आखिरी चरण में। हमने लड्डू खाए और पानी पी कर घर लौट आए। घर आते ही मामा ने कहा— ‘कल 'बारहट्टा' चलेंगे।’ मैं टाऊन में मामा की दूकान और स्टेशन पर रेलगाड़ी देखने की कल्पना में खो गया।
ननिहाल से लौटने पर मैं भी मझले भैया के साथ स्कूल जाने की बात करने लगा। पिछली सरस्वती पूजा के मौके पर दूध भरे दवात में नरकुल की कलम डूबो कर मेरी उंगलियों में थमाया गया और हाथ पकड कर बेल-पत्र पर कोई अक्षर लिखाया गया और ये काम करने वाले मेरे गुरु ने मुझ से कहा- 'बोलो, ओम् सरस्वत्यै नम:'। मेरे ऐसा उच्चारते ही मेरे विद्यारम्भ का अनुष्ठान सम्पन्न हो गया। लेकिन विद्यालय में प्रवेश के लिए मुझे बरसात के बाद दिसम्बर तक इंतज़ार करना पड़ा, तब तक पिता जी मुझे गोद में बिठा कर पहले बारहखड़ी और फिर ककहरा सिखाते। स्कूल जाने तक मुझे उन्होंने सौ तक बांग्ला गिनती भी सिखा दी थी। जनवरी के महीने में मुझे पिता जी ने स्कूल में पहली कक्षा में भर्ती करवा दी। मेरा स्कूल अपने गांव से तकरीबन डेढ़ मील (करीब ढाई किमी.) की दूरी पर समाज नाम के गांव में था। उस समय आस-पास के दस-बारह गांवों के बीच वही एक मात्र मिडिल स्कूल था। उस पूरे इलाके में समाज ही एक ऐसा बड़ा गांव था जहां पढ़े-लिखे लोग ज्यादा थे। यहीं डाकखाना था, जहां के पोस्टमास्टर शशि दत्त हमारे स्कूल के भी मास्टर थे। उनका बेटा चन्दन मेरे साथ ही पढ़ता था। इसी गांव में 'माधवबाड़ी' (कृष्ण मंदिर) भी था जिसके सामने बड़े से मैदान में 'रथयात्रा' निकलती थी और मेला लगता था। इसी गांव में एक जमीनदार का भी बहुत बड़ा पक्का मकान था। पर हमारा थाना इस गांव में न हो कर मोहनगंज में था। गांव में रहते तक मैने केवल एक बार ही एक सिपाही को किसी चोरी के सिलसिले में चोर पर बेतहाशा डंडे बरसाते हुए देखा था। बालों से पकड़ कर उसे इस तरह झकझोरते हुए लात घूसे चला रहा था कि वह ज़मीन पर लोटपोट हो कर उसके पांव पकड़ माफी मांग रहा था लेकिन उसे कोई दया नहीं आई।
हमारा स्कूल एक लम्बी सीधी पक्की इमारत में लगता था। जिसमें नौ कमरों के अलावा उनके बाहर एक लम्बा बरामदा था। शुरू का कमरा हेडमास्टर का था जिसमें बड़ी सी मेज के एक ओर हेडमास्टर साहब बैठते थे और बाकी तीन ओर लगी कुर्सियों पर दूसरे छै-सात शिक्षक बैठते थे। उसी कमरे के एक कोने में एक छटी मेज के एक ओर रखी कुर्सी पर शशि दत्ता मास्टर साहब बैठते थे जो शिक्षक होने के साथ-साथ स्कूल के क्लर्क भी थे और वे ही रिसेस के बाद घर जाकर डाकघर का पोस्टमास्टर भी बन जाते। मोटी मूंछों के कारण वे दूसरे शिक्षकों से अलग दिखते थे। शुरु में मैं उनसे डरता था पर अन्दर से वे बहुत नरम स्वभाव के थे और हम सभी को बहुत प्यार करते थे। हमारे हेडमास्टर श्री मति मजुमदार आई. ए. पास थे। वे मझोले कद के भरे-पूरे शरीर के थे। उनका रंग गेहुंआ था और मुखमंडल गोल। बड़ी-बड़ी आंखों पर सुन्दर फ्रेम का ऐनक, झक सफेद धोती कुर्ते मे उनका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था। उन्हें दूर से आते देखकर ही छात्र भाग कर कक्षा में घुस जाते थे। वे अपने कक्ष से जैसे ही बरामदे पर निकलते थे तो आस-पास की कक्षाओं का शोर थम जाता था। वे कक्षा आठ में अंग्रेजी ग्रामर पढ़ाते थे तो बरामदे से गुज़रते समय उनकी बुलंद आवाज में वाक्यों का उच्चारण हमें मुग्ध करता था। कुछ समय बाद गोरे चिट्टे सुन्दर युवा शिक्षक सन्तोष बनर्जी आए जो बी. ए. पास थे। अब मति मजुमदार की जगह हेडमास्टर सन्तोष बनर्जी हो गए, पर मजुमदार सर के सम्मान में कोई कमी नहीं हुई। बाद में हमें मालूम हुआ कि सन्तोष बनर्जी मजुमदार सर के भांजे थे। हमें गणित पढाते थे शमसुद्दीन सर्। सांवले रंग के दुबले-पतले लम्बे ये सर् जितना अच्छा पढ़ाते थे उतने ही गुस्सैल भी थे। गुणा-भाग का कोई सवाल देते तो मैं झट स्लेट पर हल कर सबसे पहले उनके सामने रख देता। वे खुश हो कर तारीफ में पीठ थपथपाते, वहीं मानस के सबसे आखिर में दिखाने पर जब गलत पाते तो उसे डांटने के साथ ही दो छड़ी भी रसीद करते। चार पीरियड की पढ़ाई होते ही रिसेस की घंटी बजती और हम शिक्षक के निकलने के साथ ही बाहर खेल के मैदान की ओर दौड़ पड़ते।
रिसेस का हमारा पूरा समय खेलने में बीतता क्योंकि हम टिफिन बॉक्स नहीं ले जाते थे, सभी छात्र छुट्टी के बाद घर लौट कर ही खाना खाते थे। इंटरवल में हमारा मुख्य खेल होता था ''गुल्ला छूट''। इसमें मैदान के एक तरफ छोटे से वृत्ताकार घेरे में एक लड़का खड़ा होता और उसकी टीम के बाकी छै लोग बाहर अपनी बारी के लिए इंतज़ार करते, सामने दूसरी टीम के लड़के फैल कर अलग-अलग जगह पर छेंकने के लिए खड़े होते। वृत्त में खड़े लड़के के छेंकने वाले लड़को के बीच से इस तरह आड़ा-तिड़छा भाग कर कि कोई उसे छूने न-पावे। दूसरे छोर पर खड़े गुलमोहर के पेड़ को छूना पड़ता। जिस टीम के ज्यादा खिलाड़ी इस काम में सफल होते वो टीम विजयी होती और सब लोग हिप-हिप हुर्रे चिल्लाते हुए शोर मचाते तब-तक इंटरवल खतम होने की घंटी बज जाती और हम मैदान के बाये कोने पर तालाब के किनारे पर स्थित हैंडपंप से एक-एक कर पानी पीते, फिर जल्दी से भाग कर क्लास में पहुंच जाते। हमारे बैठते ही मौलवी साहब क्लास में आ जाते और हम उनके कुर्सी पर बैठने तक खड़े रहते। यह हमारा उर्दू का पिरियड था। पिछली कक्षा में हम अलीफ बे पे ते आदि हरुफ़ सीख चुके थे अब हमारी किताब में शब्द और छोटे-छोटे वाक्यों के पाठ थे। सिर पर गोल सफेद टोपी कुर्ता पाजामे में सफेद दाढ़ी वाले गोल चेहरे के सांवले मौलवी साहब हमें बहुत प्यार से पढ़ाते थे। उर्दू लिपि में लिखे शब्दों को ठीक-ठीक पढ़ लेने पर वे खूब खुश होते और मेरी तारीफ करते और दूसरे बच्चों से कहते- “देखा, ऐसे पढ़ा जाता है''। छुट्टी की लम्बी घंटी बजते ही हम किताब-कापी समेट कर हो-हल्ला करते हुए बाहर निकलते। मझले भैया और खलील-जलील के आते ही हम चारों घर की ओर चल पड़ते। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने अपने उस स्कूल में कभी किसी लड़की को देखा हो। उस इलाके में लड़कियों का कोई स्कूल भी नहीं था। पता नहीं लड़कियां पढ़ती भी थीं या नहीं।
मझले भैया ने कहा शुक्रवार को दोस्त ने बुलाया है। यहां जिस तरह रविवार छुट्टी का दिन होता है उसी तरह वहां शुक्रवार छुट्टी का दिन होता था। उस दिन सुबह नास्ते के बाद ही हम दोनों खलील-जलील के गांव आसला के लिए चले। पहले अपने गांव के अन्तिम छोर पर पहुंचे। यह घर सुरेश चौधुरी का था। ये गांव के एक-दो रईसों में गिने जाते थे। हमें एक-आध बार ही किसी दावत में उनके यहां आने का मौका मिला था। उनके बैठक घर के बाहर मैदान में गांव का एकमात्र हैन्डपंप था। इनके घर के अहाते के बाद से ही मियासी गांव शुरू हो जाता था। इस गांव के सभी घर मुसलमानों के थे, जिस तरह कि हमारे गांव में केवल हिन्दूओं के ही घर थे। मुसलमान मुर्गियां पालते थे जबकि हिन्दू गांव में बतख पाली जाती थी। हमारे गांव में कोई मुर्गी का अंडा नहीं खा सकता था। इसी तरह मियासी से कोई मुर्गी सुरेश चौधुरी के घर की सीमा में नहीं घुस सकती थी। दोनों कौमो का एक-दूसरे के गांव में आना-जाना तो होता था पर मुसलमान का हिन्दू घर के भीतरी आंगन में प्रवेश वर्जित था। मियासी से लगा अगला गांव सैलदा था वह भी मुसलमानों का ही गांव था। हम कभी उस गांव नहीं गए, केवल धान-खेतों के पार दूर क्षितिज में उत्तर से दक्षिण तक खिंचे काले-हरे चित्रवट् पट्टी को ही हम सैलदा गांव जानते थे। हालाकि मेरे पिताजी का मरीजों के इलाज के लिए वहां हरदम आना-जाना होता था और उनकी वहां खूब इज्जत भी थी। मियासी गांव के कुछ घरों के बाद ही एक पगडंडी पीछे की ओर निकलती थी, हम उस पर चल कर मैदान पर आ गये और तकरीबन मील भर चलने के बाद हम असला गांव पहुंच गए। मुसलमानों के इस गांव में जगह-जगह घर के बाहर गोबर के ढेर लगे हुए थे और आस-पास कूड़े-करकट के ढेर में मुर्गियां मुंह मार रही थी। हम इधर-उधर पूछते हुए जलील-खलील के घर पहुंच गए। हमें देख कर दोनों बहुत खुश हुए और चहकने लगे। वे हमें बहुत कुछ खिलाना चाहते थे पर उन्हें दोनों कौमों के बीच खान-पान की सीमाएं मालूम थीं, इसलिए उन्होंने हमारी खातिरदारी में केवल चना-मुर्रा और खीरा ही पेश किया।
जब से मैंने होश संभाला है, मुझे याद है कि हमारे घर में बहुत लोग रहते थे जैसे कि मझले चाचा का परिवार और छोटे चाचा का परिवार। संझले चाचा अपने परिवार के साथ नेत्रोकोना में रहते थे जहां वे नायब तहसीलदार थे। मझले चाचा घुमक्कड तबीयत के थे। वे कभी गारो पहाड, कभी गुवाहाटी, कभी ढाका, कभी आगरा और कभी मथुरा में होते थे और अचानक ही एक दिन घर में प्रकट हो जाते थे और दस पन्द्रह दिन के बाद फिर गायब हो जाते थे। वे कहां क्या करते थे किसी को पता नहीं होता था। मझली चाची और बच्चों के पालन-पोषण का भार मेरे पिता जी ही उठाते थे। उनका बड़ा बेटा मेरे बडे भइया से एक साल छोटे थे और नेत्रोकोना में उनसे एक क्लास नीचे पढ़ते थे। उनके अलावा शोभा दीदी, बादल व राखाल दादा, मुझसे एक साल छोटा शान्ति ये चारों घर में ही थे। ये कहीं पढ़ने जाते थे भी या नहीं मुझे याद नहीं पड़ता। बादल दादा मेरे मझले भइया से कुछ बड़े थे पर उनकी एक टांग कुछ छोटी थी और वे लंगड़ा के चलते थे। छुटपन में मझले भइया की तरह बादल दादा भी मुझे पीठ पर सवारी कराते थे। मझली चाची और मेरे चचेरे भाई-बहन दक्षिण वाले घर में रहते थे। पूरब वाले बड़े घर के आधे भाग में दो कमरे थे जिनमें छोटे चाचा, चाची और दो बच्चे यानी मेरे चचेरे भाई रनू और बहन टुकटुक रहती थी। टुकटुक बहुत गोरी और सुन्दर गुड़िया-सी लगती थी। रनू मुझसे तीन-चार माह बड़ा था, मैं उसे नाम से ही पुकारता, फिर वह टोकता मैं बड़ा हूं मुझे दादा - बोल। उस बार के लिए मैं उसे रनू दा कह देता पर बाद में फिर वही रनू। मेरी मझली चाची बहुत ही सीधी, मधुर भाषी और अच्छे स्वभाव की थी वह मेरी माँको बहुत मानती थी। उनके साथ मेरी माँ का कभी मन-मुटाव होते नहीं देखा। पर मेरी छोटी चाची को अपने सुन्दर होने का गुमान था और वह कुछ नकचढ़ी थीं। इसलिए उन्होंने अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया था। ढेकी पर धान कूटने के लिए भी माँका हाथ नहीं बँटाती थी।
एक दिन छोटे चाचा परिवार सहित अपने ससुराल नवपारा शिफ्ट हो गए। उनकी नवपारा के हाईस्कूल में संस्कृत शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गई थी। चाचा संस्कृत में शास्त्री थे। अब वे केवल फसल कटने पर अपना हिस्सा लेने ही घर आते थे। इस वक्त हमारे पिता जी के चाचा दुर्गा शंकर चौधुरी भी अपनी पत्नी व छोटे बेटे के साथ घर आते थे। उनका फसल का आधा हिस्सा होता था। मेरे ये दादा जी खूब गोरे और सुन्दर थे। वे गौरीपुर जमींदार के निजी चिकित्सक थे। घर में जब भी आते तो दस-पंद्रह दिन ठहरते। उन्हें अकसर मैं बाहरी बगीचे में खुरपी ले कर खर-पतवार साफ करते देखता। खाने के बाद हुक्का गुड़गुडाते हुए दादा जी को देख कर खूब मज़ा आता। दादा जी के बड़े बेटे हरी शंकर नेत्रोकोना दत्त हाईस्कूल में गणित के शिक्षक थे और उनका बड़ा नाम था, मझले बेटे मेरे गोपाल चाचा ढाका विश्वविद्यालय में छात्र नेता थे। उनसे छोटे नेपाल चाचा भी बी. ए. में पढ़ते थे। माँ कहती थी कि वे दोनों ही कम्यूनिस्ट थे। कुछ समय बाद एकाएक एक दिन मझले चाचा आ धमके और अपना पूरा परिवार ले कर चले गए। बाद में माँ से पता चला कि उन्होंने शोभा दीदी की शादी उडीसा के बालासोर जिले में कुचियाकुली के बिधुर उम्रदराज जमींदार श्याम सुंदर गंगोपाध्याय से कर दी है। जमींदार ने सपरिवार रहने के लिए अलग से एक घर भी दिया है।
मेरे बड़े भैया मेट्रिक पास करने के बाद घर आए हुए थे। एक दिन बड़े और मझले भैया गांव के दूसरे लड़कों को ले कर हमारे घर के पोखरपार के पूरब वाले परती खेतनुमा मैदान में जम्बूरा (मुसंबी से दुगुना बड़ा हरे रंग का फल) को गेंद बना कर फुटबॉल खेल रहे थे। मैं बाहर खड़ा देख रहा था। मझले भैया ने मैदान के दांए छोर पर भागते हुए गेंद को खूब कसके किक लगाई और अचानक पांव पकड़ कर बैठ गए। बड़े भइया उन्हें गोद में उठा कर घर ले गए। हम भी पीछे-पीछे पहुंचे और यह देख कर कांपने लगे कि मझले-भैया के दाएं पांव की पांचों उंगलियों के आर-पार एक छाते का स्कोप गड़ा हुआ था। माँदेख कर रोने लगी। बड़े भैया ने ताकत लगा कर खींचने की कोशिश की लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। तभी राजेन्द्र चाचा पहुंचे। गठीले शरीर वाले गांव के ये चाचा आजाद हिंद फौज में थे और कल ही गांव आए थे। हमारे यहां मिलने आए तो यह दृश्य देखा। वे झुक कर बैठ गए और बड़े भैया को परे हटा कर लोहे के स्पोक के निकले हुए सिरे को तनिक मोड़ कर बाएं हाथ से पांव को थाम कर दांए हाथ से मुड़े हुए सिरे को रूमाल से पकड़ कर एक झटके से खींच कर बाहर निकाल दिया, तब तक पिता जी आयोडीन और रुई ले कर आ गए। हमारी रुकी हुई सांसे चलने लगीं और राजेन्द्र चाचा हमारे हीरो बन गए।
हमारे घर के दक्षिण में दो घरों के बाद सिन्धुबाला बुआ का घर है। उनके पति कानपुर कॉटन मिल में काम करते थे। वे सपरिवार छुट्टी पर घर आए हुए थे। हमारे घर में घूमने आ कर बड़े भैया से उनकी बात हुई कि कानपुर में मैट्रिक पास युवाओं को फैक्ट्री में एप्रेएंटिस के रूप में लिया जाता है और ट्रेनिंग के बाद उनकी नौकरी भी लग जाती है। फिर क्या था, बड़े भैया कुछ ही दिनों बाद उनके साथ कानपुर चले गए। बाद में चिट्ठी आई कि उन्हें कानपुर के. यू. पी. मोटरवर्क्स में एप्रेंटिसशिप मिल गयी। हम सब बहुत खुश हुए।
नवापारा में मेरी सगी बुआ का घर था। वे पिता जी से बड़ी थीं। इस बरसात में उनका बुलावा आया। मुझे बड़ी खुशी हुई कि वहां अपने चचेरे भाई रोनू दा से भी मुलाकात होगी क्योंकि वो भी नवापारा स्थित अपने ननिहाल में रहता था। इस वक्त चारों तरफ पानी ही पानी होता था। लिहाज़ा मां, पिता जी, और मझले भैया के साथ हम चारों चटाई से बने तम्बू वाले नाव में सवार हुए। पतवार थामे हुए था गांव के तीरथ माझी और लग्गी लिए हुए दूसरे छोर पर था इसका बेटा भगा। पानी से गुज़रते हुए कितने ही दृश्य देखने को मिले। तकरीबन तीन घन्टा नाव खेने के बाद हम नवापारा पहुंचे। बुआ हमें देखते ही बहुत खुश हो गईं। हम सब उनके पांव छुए। खाना खाते ही मैं रोनू दा से मिलने उनके घर की ओर भागा। चाचा-चाची टुकटुक और रोनू दा को काफी दिनों के बाद देख रहा था। कुछ देर रुक कर मैं रोनू दा के साथ उनका स्कूल देखने को चला। यहां मुरम की सड़कें थीं। यहां का हाईस्कूल काफी बड़ा था। स्कूल के बाहर एक फुटबॉल का मैदान भी था जिसके दोनों छोर पर पाईप से बने गोल-पोस्ट बने हुए थे। कुछ ही देर में लड़के खेलने के लिए आने लगे। हम कुछ देर रुक कर वापस आ गए। रास्ते में रोनू दा ने गांव का प्रसिद्ध बड़ा तालाब दिखाया जिसमें अनगिनत कमल के फूल खिले हुए थे।
हम नवापारा से लौट आए थे। आज शाम दक्षिणबाड़ी के महिम दादू से कहानी सुनने जाना है। महिम दादू की झोली में ढेरों किस्से थे। प्रमथ काका के पिता जी महिम चक्रवर्ती उनके बाहर वाले घर में रहते थे। उनका कमरा हमेशा लिपा-पुता व साफ-सुथरा होता था। कमरे के एक ओर नक्काशीदार पलंग पर गद्दा और उसपर एकदम सफेद चादर, तकिया एवं गावतकिया होता था। पलंग से लगे एक मेज पर हुक्का टिका होता था, जिसकी नली पर लगी चांदी की टोंटी होठों के बीच दबाए गावतकिया के सहारे झक सफेद धोती-फतुए में लिपटे हल्के सांवले रंग के गोल-मटोल महिम दादू मजे से तम्बाकू का कश लेते और रुक-रुक कर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किस्सा शुरु करते : एक था राजा...। शाम ढलने तक किस्सा खतम न होता तो बाकी अगली बार के लिए मुलतबी रखते। मैं अक्सर दोपहर को दक्षिणबाड़ी के तालाब में घाट पर महिम दादू को नहाते देखने जाता। उस तालाब का घाट पक्की सीढ़ियों वाला होता था। तालाब का पानी एक-दम साफ हल्का नीला और पारदर्शी था। घाट के नीचे का पानी भी गहरा था। महिम दादू पानी में उतर कर घाट से कुछ ही दूरी पर एक ही जगह पानी को हाथों से पतवार की तरह दोनों ओर ढकेलते हुए इस तरह तैरते गोया पानी के अन्दर आसन लगा कर बैठे हों। अपनी इस क्रीड़ा के बीच में छिटपुट बातें भी करते जाते, फिर अचानक डुबकी लगा कर गायब हो जाते। मैं सांस रोक कर देखता कि एकाएक वे हुश्श से कुछ दूरी पर प्रकट हो जाते। नहाने की उनकी यह क्रिया तकरीबन पंद्रह-बीस मिनट में पूरी होती। वे ऊपर आते और मैं घर की ओर चल पड़ता। माँबरामदे में ढेकी पर धान कूट रही थी। ओखली के पास बैठी एक औरत अजनबी लगी। माँके पूछने पर उसने हेमचंद्र चाचा के घर की ओर इशारा किया। हेमचंद्र चाचा हमारे घर के पीछे वाली जमीन पर झोपड़ी डाल कर रहते थे। जब से मैंने होश संभाला, उन्हें अकेले ही रहते देखा। शायद उनकी घर वाली कुछ साल पहले गुज़र गई थी। माँके पूछने पर कि तुम हेमू के क्या लगती हो तो उसने हाथ उठा कर चूड़ियां दिखलाईं। ''ओ, वह तुम्हें चूड़ियां पहना कर लाया है।” उसने हामी भरी। माँखुश हो गईं, चलो हेमू का भी ठिकाना हुआ। हमारे यहां नमोशूद्रों में यह प्रथा थी।
पूरब पारा में महज़ चार-पांच घर ही थे। दक्षिण से पूरब की ओर पहला घर मनिया का और दूसरा घर अतुल यानी अतुल्या का था। मनिया की माँप्रफुल्ल चाची जितनी गोरी और सुन्दर थी उतनी ही अतुल्या की माँकाली थी। दोनों ही विधवाएं उजली सफेद धोती में चहकती रहती थी। इन दोनों में से एक प्रफुल्ल चाची की गैर-मौजूदगी में उनका नाम प्रमथ काका से जोड़ कर औरतों की बैठकी में काना-फूसी होती रहती थी। उनके आस-पास हम तीन-चार साल के बच्चे मंडराते रहते जिसकी हमारी माओं को ज्यादा परवाह नहीं थी। इनके हिसाब से इन छोटे बच्चों को ये बातें क्या समझ में आएंगी। पर उनका रस ले कर खिलखिलाना और तंज कसना हमें आकर्षित करता था। और हम इतना समझ जाते थे कि प्रमथ काका और प्रफुल्ल काकी के बीच कोई बुरी बात है। प्रमथ काका को मारने वाले का नाम अतुल्या का आया था क्योंकि 19-20 साल का अतुल्या पर जवानी की खुमारी तारी हो रही थी। उसकी बांहों की पेशियां बहुत मजबूत थीं। काली घनी मूछों वाले उसके आबनूसी चेहरे पर उसकी दो बड़ी-बड़ी आंखें इस तरह घूरतीं कि हम बच्चे उसे देख कर डर जाते। गांव में उसे अच्छे शिकारी के रूप में जाना जाता था। उसके पास एक ऐसा भाला था जिसके सिरे पर बने छेद में एक रस्सी बंधी होती थी। अतुल्या नाव ले कर मछली वाले इलाके में चला जाता और किसी जगह मछली का आभास पाते ही वह रस्सी के छोर को एक बांह में लपेट कर दूसरे हाथ से भाले को इस तरह फेंक कर अचूक निशाना लगाता कि उसकी फाल बड़ी मछली को भेद कर आर-पार हो जाती। इस तरह वह न जाने कितनी ही बार शिकार कर चुका था। अपने इस हुनर के कारण वह इतना मशहूर था कि एक बार रास्ते के किनारे एक पेड़ पर चिडिया के घोंसले में एक बहुत बड़े काले नाग को चढ़ते हुए देखकर लोग अतुल्या को बुला ले गये। खबर सुन कर हम सब बच्चे भी उस ओर दौड़े। हमने जा कर देखा अतुल्या भाले से निशाना लगा रहा है। और कुछ पलों में ही उसने इस तरह भाला फेंक कर मारा कि उस पेड़ के सिरे पर लिपटे सांप की देह के आर-पार हो गया और वह भाले के साथ ही धरती पर आ गिरा। अतुल्या ने लाठी से उसका सिर कुचल दिया और उसकी लम्बाई नापी जो छै: हाथ का था। इसी अतुल्या की नजर प्रमथ काका पर थी क्योंकि उनका अपने पड़ोस में इस तरह आना वह अपने टोले की बदनामी समझता था। गांव के लोगों को भी इस बात का एहसास था। इसलिए मन ही मन वे अतुल्या पर इस बात के लिए नाराज नहीं हुए और न ही उस पर कोई कानूनी कारवाही हुई और हां प्रमथ काका ज़रूर लम्बे उपचार के बाद ठीक हो गए। उनके घुटे सिर पर खिंचा घाव का लम्बा दाग बाल आने तक दिखाई पड़ता रहा। यह जरूर हुआ कि उनका पूरब पारा जाना बन्द हो गया।
अचानक एक दिन मझले चाचा अपने दो उड़िया साथियों के साथ आ धमके। उनका कहना था कि अब यहां पाकिस्तान हो गया है इसलिए परिवार हमेशा के लिए चलकर उडीसा में सेटल हो जाए। पिताजी ने उन्हें समझा बुझा कर लौटाया कि कुछ दिनों बाद हम जाएंगे। अगले दिन पिता जी हम सबको ले कर अपने शिष्य नेपाल घोष के यहां कमलपुर पहुंचे। कमलपुर समाज के पास पूरब की ओर एक गांव था। पिता जी नेपाल परिवार के कुलगुरु थे वे उन्हें बहुत पूजनीय मानते थे पर वे कायस्थ थे। इसलिए प्रथानुसार हम ब्राह्मण उनकी पत्नी के हाथ बना खाना नहीं खा सकते थे। लिहाजा उन्होने चावल-दाल, तेल, सब्जी आदि ला कर माँको दिया और माँने हम लोगों के लिए अलग से खाना बनाया। हम सब खा कर चलने लगे तो तय हुआ कि नेपाल दा मां, मझले भैया और मुझे उडीसा पहुंचाएंगे। अगर जगह पसन्द आई तो बाद में पिता जी जमीन-जायदाद की व्यवस्था कर तब जाएंगे। कुछ दिन बाद नेपाल दा के साथ हम (मां, मझले भैया और मैं) उडीसा के लिए चले। रेल की एक लम्बी यात्रा थी। मैं खुली खिड़की से बाहर का नजारा देखते हुए मगन था। पहली बार हम अपना जिला-सदर मयमनसिंह शहर से गुजर रहे थे। मेरे लिए सब एकदम नया अनुभव था। शाम तक हम फुलचरी घाट पहुंच गए थे। नदी पार करने के लिए हम स्टीमर पर चढ़े। भोंपू दे कर स्टीमर छोड़ा। कुछ समय बाद हम दूसरी ओर घाट पर पहुंचे। यहां स्टीमर से ज़मीन तक लकड़ी का एक पटा बिछा दिया गया। जिसके सहारे हम ऊपर पहुंच गए। थोड़ी दूर हम पैदल चल कर हम एक रेल स्टेशन पर पहुंचे। उसका नाम मुझे दर्शना जैसा कुछ याद आता है। वहां से ट्रेन में सवार हो कर हम कुछ घंटों बाद हावड़ा स्टेशन पहुंचे। माँने प्लेटफार्म पर चद्दर बिछा कर हमें बिठाला और डब्बे से निकाल कर कुछ खाने को दिया। अब याद नहीं पड़ता कि कितनी देर हमें वहां बैठना पड़ा था। अगली गाड़ी रात में ही रही होगी क्योंकि हम दूसरे दिन दस-ग्यारह बजे तक बालेसर स्टेशन पहुंच गए थे। अब याद नहीं पड़ता कि हम बालेसर से कुचियाकुली तक किस तरह पहुंचे थे। शायद रिक्शा या इक्के पर। वहां मैदान के एक छोर पर बने एक कच्चे मकान के सामने हमें उतारा गया। हमने देखा चाची और चचेरे भाई लोग बाहर आकर खड़े हुए थे। हम समझ गए थे कि हम पहुंच चुके है। नेपाल दादा हमें पहुंचा कर अगले दिन वापस चले गए।
कमरे से बाहर निकल कर मैं मैदान में भागने लगा। मैदान के दूसरे छोर पर एक मझोले आकार का तालाब था। तालाब के चारों किनारे हरी दूब की चादर सी बिछी हुई थी। थोड़ी-थोड़ी दूर चारों ओर ताड़ के पेड़ थे जिनमें खूब फल लगे हुए थे। एक आदमी पांव में रस्सी का फंदा डाल कर सीधा पेड़ की ऊंचाई में चला गया और पके ताड़ तोड़ने लगा। तालाब का पानी खूब साफ था, उसे देख कर मुझे खूब मजा आया कि अच्छा तैरने को मिलेगा। अगले दिन उस मैदान में साप्ताहिक बाजार लगा हुआ था। माँने मुझे तांबे के गोल छेद वाले एक पैसे के दो सिक्के दिए। मैं एक ठेले से मिठाई खरीद लाया जो चावल के आटे और गुड़ से बनी हुई थी। मैंने एक मझले भैया को भी दिया। अगले दिन सुबह हम सबको जमींनदारबाड़ी दीदी के यहां नास्ते पर बुलाया गया था। चचेरे भाइयों के साथ हम दोनों भाई भी चले। वहां आंगन में हलवाई इमरती और बूंदी छान रहा था। हमें पूड़ी के साथ मिठाइयां खाने को मिलीं। इसके बाद कई बार हम दीदी के यहां बुलाए जाते थे। एक बार पोखल (पानी में भींगा हुआ भात) के साथ हिलसा मछली के तले हुए टुकड़े खाने को मिले। हमारे जीजा लगभग पचास की उमर के लम्बे-गोरे सफेद बालों वाले सुपुरुष थे, नाम था श्री श्याम सुन्दर गंगोपाध्याय। यह उनकी दूसरी शादी थी। मेरी दीदी महज़ सोलह-सतरह साल की रही होंगी। जीजा जी के बाद उनके एक और छोटे भाई मझोले कद के तोंदुवल गंगा नारायण गंगोपाध्याय थे। जीजा जी के सबसे बड़े भाई दिवंगत हो चुके थे। उनका एक मात्र बेटा रमाकान्त घर का बड़ा बेटा था। बाईस-तेईस साल के गोरे छरहरे सुन्दर युवा रमाकान्त घर के नौकरों के काम की देखभाल करते थे। एक बार मैने देखा सुबह के वक्त रमाकान्त हाथ में छड़ी ले कर बैठे हैं और सामने सांवले गोल-मटोल नाटे कद के नौकर भगवान एक बड़े से कड़ाही भर सब के रात के खाने से बचा हुआ पानी में भिगोया भात और चार हरी मिर्च ले कर बैठा था। रमा उस पर छड़ी फटकारता और कहता क्या भैसे की तरह पगुरा रहा है, जल्दी-जल्दी खा, काम पर नहीं जाना है क्या! भगवान एक बडा सा कौर मुंह मे डालता और इतमीनान से एक हरी मिर्च कचरता। इस बीच एक और छड़ी पड़ती - सटाक। भगवान आंखों से सामने देखता और फिर उसी इतमीनान से एक और बड़ा सा कौर मुंह में डाल चबर-चबर चबाता। यह दृश्य मेरे बाल मन में इस तरह बैठ गया कि बड़े हो कर मैंने इसी पर केंद्रित एक कहानी लिखी ''चाबुक''। (“हाते से बाहर'' संग्रह में संकलित)
क्या बात है. अद्भुत संस्मरण है चौधुरी जी. इसके आगे की किस्त पढ़ने की भी प्रबल इच्छा है.
जवाब देंहटाएंक्या बात है. अद्भुत संस्मरण है चौधुरी जी. इसके आगे की किस्त भी पढ़ने की प्रबल इच्छा है.
जवाब देंहटाएंनंदकुमार कंसारी
रायपुर
एक सांस में पढ़ गया। इस संस्मरण की विशेष बात यह है कि बच्चों की बातें भी बहुत बारीकी से दर्ज की गई हैं। लेख की भाषा हमे उस देश और दौर में ले जाती है। मन मे ख्याल आता है कि देशों के नक्शे क्यों बनाये गए। ये रेखाएं क्यों खींचीं गईं...
जवाब देंहटाएंउम्दा संस्मरण।
एक सांस में पढ़ गया। इस संस्मरण की विशेष बात यह है कि बच्चों की बातें भी बहुत बारीकी से दर्ज की गई हैं। लेख की भाषा हमे उस देश और दौर में ले जाती है। मन मे ख्याल आता है कि देशों के नक्शे क्यों बनाये गए। ये रेखाएं क्यों खींचीं गईं...
जवाब देंहटाएंउम्दा संस्मरण।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
रोचक ही नहीं रोमांचक भी है सर।पता तो था कि बंगाल का बड़ा इलाक़ा हर साल बाढ़ और तूफान की आपदा झेलता है, मगर वास्तविक तस्वीर यह संस्मरण पढ़कर ही जान पाया। क़िस्सगोई आपकी बेमिसाल है और याददाश्त कमाल। एक मुक़म्मल क़िताब ही लिख डालें अतीत की यादों पर .....🍀🌿🍀🌿🌷
जवाब देंहटाएंरोचक ही नहीं रोमांचक भी है सर।पता तो था कि बंगाल का बड़ा इलाक़ा हर साल बाढ़ और तूफान की आपदा झेलता है, मगर वास्तविक तस्वीर यह संस्मरण पढ़कर ही जान पाया। क़िस्सगोई आपकी बेमिसाल है और याददाश्त कमाल। एक मुक़म्मल क़िताब ही लिख डालें अतीत की यादों पर .....🍀🌿🍀🌿🌷
जवाब देंहटाएंबेमिसाल संस्मरण कथा।
जवाब देंहटाएंsir यह संस्मरण एक ही सांस में पढ़ लिया ,पूरा का संस्मरण चल चित्र जैसे चलने लगे
जवाब देंहटाएंबाबा यह संस्मरण आपको पूरा करना ही है ताकि बिना देरी के किताब आ सके और हमारे बहुत सारे साथी पढ़ सकें। हम सब को आपके जल्द स्वस्थ होने का इंतज़ार है।
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