अशरफ़ अली बेग की ग़जलें


अशरफ़ अली बेग

आज पूरी दुनिया कोविड-19 वायरस के आतंक दूसरे शब्दों में कहें तो कोरोना महामारी के सामने लाचार दिख रही है। इस महामारी ने दिखा दिया है कि प्रकृति के सामने सब बौने हैं। जब से इस महामारी का पता चला है तब से अभी सौ दिन ही बीते हैं, और दुनिया भर में एक लाख से अधिक लोग अपनी जान गँवा बैठे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात दुनिया इतनी बड़ी त्रासदी से गुजर रही है। अमरीका से ले कर जापान तक लोग इससे बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का तरीका अपना रहे हैं। अधिकांश दुनिया में लॉक डाउन की स्थिति है। हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही हम इस महामारी के संकट से उबर जाएँगे और एक बार फिर जीवन की जीत होगी।

आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है अशरफ़ अली बेग की कुछ नयी ग़जलें।



अशरफ़ अली बेग की ग़जलें

1


टूटे तीर कमाँ भी टूटी दूर दूर तक फैला रन
बाहर भीतर सब यकजा हैं अनबन ही है सबका धन

दूकाँ ही अब ठौर ठिकाना घर में दूकाँ, दूकाँ घर
किस दिन भाव चढ़े कब लुढ़के सोच-सोच ये काँपा मन

निहुरे निहुरे ऊँट चुराया सोचा हमने किया तो कुछ
सारी बस्ती ही गुम पायी कहाँ धरें अब हम छाजन

किसकी पूछे कौन यहाँ तो लेन-देन में है दुनिया
चमकाते ही रहे रात-दिन घिस डाला तन का बासन

हाँडी चढ़ी काठ की फिर-फिर बोले बैन मधुर फिर-फिर
वक़्त का जादू जाने कैसा उजला दिखता मैला तन

कारोबारी इस मेले में नहीं तंज़ का कोई ठाँव
धूम धड़ाका, शोर-राबा घुटी सिसकियाँ टूटा मन

नाम भी जिसका डूब गया था फिर से उभरा वो अरफ़
चोट पुरानी फिर उभरी है देखो बैठे किस आसन


2

दिन की फ़ुरसत ख़ाब हो गयी सोने में
अपनी ही थी रात जो गयी रोने में

सुख की चादर ओढ़ पड़ गये हम कैसे
फिर तो सारी उम्र लो गयी धोने में

कैसे कोई नाज़ आपका उठा पाता
अपनी तो मरजाद खो गयी ढोने में

सबने परखा कौन प्रीत से बच निकला
बचना तो बस चाल हो गयी होने में

दिल अपना ज़रखे़ज़ और था जैसा है
फ़ितरत थी बिख-बेल बो गयी कोने में

भटका सारी रैन देस भी सारे ही
अशरफ़ थकना रीत हो गयी खोने में


3

ज़माना सुन रहा है जाने कब से
जमाने की अदा है जाने कब से

ख़मोशी भी कहीं यूँ बोलती है
निगाहों में वबा है जाने कब से

कभी दिल टूट जाता है कभी हम
मिलन कैसी बला है जाने कब से

चली आती है य इक याद जैसी
जिसे रोका गया है जाने कब से

जहाँ की जाँ-बलब रानाइयों में
फ़ुसूँ की इब्तदा है जाने कब से

उठे भी घूम आये चार सू भी
मुख़ालिफ़ सी हवा है जाने कब से

चलो उम्मीद जैसा कुछ नहीं जो
हिला जी को रहा है जाने कब से

जलाया खून हमने सोच कर ये
यही बस इरतिका है जाने कब से

कभी सच सामने आता नहीं यूँ
यही क़िस्सा रवा है जाने कब से

बहुत से राज़ हैं मत खोल अरफ़
जिन्हें जग जानता है जाने कब से




 4

ज़रा सी उम्र भी निकाली मर
करेंगे क्या भला दराज़ी पर

बचेगा क्या बचा लिया भी सर
ज़ुबाँ है खोल दे तबाही पर

अभी तो इम्तिहान कितने हैं
अड़ी है क़ौम संगबारी पर

तेरा भी हक़ ज़मीं प कुछ तो है
न दे तावान हुक्मे शाही पर

मसाइल हैं तो घेरते होंगे
कभी फु़रसत हो मिल लिया भी कर

नज़र में तू मेरी है कब से ही
कहा क्या देखता रहा जी भर

कभी बस यूँ ही जी में आता है
न तुझ बिन दिन ढले ख़राबी पर

उधर की मुश्किलें बुलाती हैं
इधर भी ख़ौफ सा है तारी पर

तेरे लब चूम ही न ले बढ़ के
चला जो जायेगा जु़बाँ सी कर

हदे इदराक तक रहा पसरा
हवा सा छल था कितना भारी पर

जमे जाते हैं पाँव भी अरफ़
निगाहें जैसे कम-निगाही पर


5

लिखना-पढ़ना छोड़ दिया है
दिल की कहना छोड़ दिया है

आखि़र को सब अफ़साने थे
हमने गढ़ना छोड़ दिया है

ज़ाती थीं सब बातें मुहमल
महफ़िल जाना छोड़ दिया है

क़तरा-क़तरा खूँ सा टपके
आँसू पीना छोड़ दिया है

कोई आये कुछ ना पूछे
शिकवे करना छोड़ दिया है

आखि़र मरने में क्या है जी
तिल-तिल जीना छोड़ दिया है

रफ़ का कहना-करना क्या
सबकी सुनना छोड़ दिया है




6


तुम हो, ताज़ादम हम भी हैं
शामिल दुनिया के ग़म भी हैं

जाड़े की दोपहरी जूँ हो
चाहत रमाती, हम भी हैं

कुछ तो बातों के सुर छेड़ो
बेताले हैं पर सम भी हैं

आँखों-आँखों में उलझन है
पलके ख़ाबीदा नम भी हैं

हर आँगन गुल उजले दिन से
घिरती रातों के तम भी हैं

मजनूँ, राँझा या ढोला हो
तूफ़ाँ सब जाते थम भी हैं

दौड़ा करते हर मंज़र में
उजलत में हैं सर ख़म भी हैं

रफ़ से ग़म की क्या पूछो
लफ़्जों में मानी कम भी हैं


7


तरंगें मन उठाये जोश में सपना ठगे है
समय भी रेत है बहता हुआ दरिया लगे है

जहाँगर्दी में बीती उम्र अपनी भाग देखो
गये मौक़ों के पीछे भागता फिरता लगे है

किसी कूचे, किसी बस्ती, कहीं घर है, किसी जा
करें हम क्या हमें सारा जहाँ अच्छा लगे है

कहीं से फूटती दिखती नहीं कोई किरन भी
फ़क़त उम्मीद है जो रात भर देख जगे है

किसी काँधे पे रक्खो बोझ तो फिर बोझ ही है
सफ़र लम्बा लगे है रास्ता ठहरा लगे है

कहाँ कैसे कि आँखें रो पड़ीं कब ख़ूँ के आँसू
जलावतनी हो जैसे हर बशर भटका लगे है

अभी हमने कहा भी क्या सुना भी क्या कि ऐसे
हमें बस देख कर सारा जहाँ डरता लगे है

गुज़ारी उम्र जस-तस चैन से बेचैन रह कर
इधर है या उधर है कश्मक बेजा लगे है

किधर से अब किधर को जा पड़ा अरफ़ भी देखो
न आशिक़ है, न सौदाई, न सूफ़ी सा लगे है


8

दूरी जो भी हो लाँघन तो हो भाई
अपनी ज़िद है अपनापन तो हो भाई

दिल है बेक़ीमत ही बेचा जायेगा
जो भी ले फैला दामन तो हो भाई

ग़म जितने हों आयें मेहमाँ बन जायें
अपना जैसा घर आँगन तो हो भाई

पारस आकर छू भी ले तो क्या होगा
लोहे में भी लोहापन तो हो भाई

सावन भादों धोका दे कर निकले हों
कुछ आँखों में गीलापन तो हो भाई

ख़ाने सब गिन-गिन कर चल भी ले अरफ़
चालों में कुछ पैनापन तो हो भाई




9

आज़माइ है इसमें क्या होगा
आँधियों में जला दिया होगा

देखते हैं चलो नया सपना
और फिर देखते हैं क्या होगा

बुतशिकन हो तो साथ आ जाओ
मंज़रों में नशा नया होगा

सर उठाओ तो देख लो जग को
हर क़दम कुछ नया नया होगा

यूँ तो कुछ भी कमी नहीं लगती
तुम जो आओ तो घर नया होगा

आज काजल तुम्हारी आँखों का
डाँट खाकर के धुल गया होगा

हर तरफ़ से घिरा हुआ अरफ़
सोचता है तुम्हारा क्या होगा



10

पशेमाँ है वो एक मुद्दत से
यहाँ-वहाँ है एक मुद्दत से

जो कुछ बुतों को बोलते देखा
तो चुप जुबाँ है एक मुद्दत से

ज़मीं जहाँ थी पाँव के नीचे
वहीं कुआँ है एक मुद्दत से

बियाबाँ सा है सामने कोई
अजब समाँ है एक मुद्दत से

फ़ना हो जो न आँख भर देखे
परेशाँ यूँ है एक मुद्दत से

कहे तो क्या भला अभी अरफ़
कि जाँ है कै़द एक मुद्दत से



सम्पर्क

मो. – 9450635688

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