रुचि भल्ला का संस्मरण 'दक्षिण भारत का आगरा : बीजापुर'।
इतिहास किताबों से अलग हट कर उस स्थापत्य में भी है जो अपने समय की यादों को आज भी जीवन्त बनाए हुए हैं। भारत में जगह जगह पर ये ऐतिहासिक विरासत बिखरी हुई मिल जाएगी। बीजापुर अपने गोल गुम्बद के लिए विश्वविख्यात है। कवयित्री रुचि भल्ला ने बीजापुर की यात्रा के बाद एक रोचक संस्मरण लिखा है। आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है रुचि भल्ला का संस्मरण 'दक्षिण भारत का आगरा : बीजापुर'।
दक्षिण भारत का आगरा : बीजापुर
रुचि भल्ला
तीन साल से फलटन में रहते हुए मेरा मन
कर आया था महाराष्ट्र की हद से बाहर जाने का। महाराष्ट्र की हद के पार ही कर्नाटक राज्य
की सीमा शुरु हो जाती है। कर्नाटक
तो दिख भी सकता है महाराष्ट्र में रहते हुए पर इन दो राज्यों के बीच सहयाद्रि पर्वत श्रृंखला की
चिलमन चली आती है। चिलमन के उस पार बीजापुर शहर झाँकते हुए ऐसे दिखता है जैसे चाँद
के चेहरे से धीरे-धीरे नक़ाब सरक रहा हो। बीजापुर का नाम लेने पर चाँद क्यों न याद
आए, इस सरज़मीं पर चाँद बीबी के चलते पाँवों की निशानियाँ रही हैं।
आदिल शाह की सल्तनत बीजापुर के
नाम से इतिहास की कौन सी किताब वाकिफ़ नहीं।
हिन्दोस्तान में आगरा उत्तर प्रदेश के शहर में ही नहीं, दक्षिण भारत का आगरा बीजापुर में भी है। इतिहास की
किताबों को पाठ दर पाठ पलटते हुए बीजापुर का नाम आता है, एक ऐसा शहर जिसे हर्फ़ों के बीच
पढ़ा हो, जिसकी तस्वीर किताब के पन्नों पर
देखी हो, उसे रूबरु देखना ख़्वाब से हकीकत
पर जाने का सफ़र रहा। फलटन से बीजापुर की दूरी लगभग 200 किमी. है। महाराष्ट्र की सड़कों से
गुज़रना शेषनाग की सवारी से कम नहीं होता। काली-सर्पीली सड़कें पठार के इर्द
-गिर्द जा कर ऐसे लिपट जाती हैं जैसे विष्णु का आसन बनने के लिए शेषनाग बिछ जाता
है। ऐसी सड़कों से गुज़रते हुए नाते-पुते गाँव के बाद जब मालशिरष गाँव आया, वहाँ सड़क के दोनों किनारों पर बरगद के घने दरख्त लगे
हुए हैं जिससे उतने हिस्से की सड़क भरी दोपहर में हरी हो आयी थी। यह जून की पहली तारीख थी। भरी
गर्मी में वे तपते दरख्त सड़क और राहगीरों को घनी छाँव दे रहे थे। दरख्तों का हरा रंग पत्तियों
से उतरते हुए देखने वालों की आँखों में चढ़ रहा था।
सड़क के दोनों किनारों पर लगे वे पेड़ झुक कर आपस में ऐसे गले मिल रहे थे जैसे दो
दिल ईद के त्योहार में मिलते हैं। यह मालशिरष गाँव था। पंढरपुर आने में अभी बहुत
वक्त था पर द्वार पर सजे तोरण की तरह लगती उन बरगद की झूलती जटाएँ जैसे ‘गेट वे ऑफ़ पंढरपुर’ हों। बरगद के उन दरख्तों के नीचे गन्ने के रस
की तमाम दुकानें आपको मिल जाएँगी cane juice पी कर जब आप आगे बढ़ते हैं, आपके संग-संग सड़क के किनारे से
जुड़े गन्ने के खेत भी कदम मिलाते चलते जाते हैं। चलते जाते आप बेलापुर पहुँच जाते
हैं। जहाँ तक नज़र जाती है, विन यार्ड दिखाई देते हैं। ऐसे ही
कभी किसी इतालवी नज़र को ये विन यार्ड दिखाई दे गए थे और उन्होंने फ़िर फ़्रैट्री
वाइन्स की फ़ैक्टरी खोल ली थी। रंग और स्वाद की तमाम वाइन्स आपको वहाँ मिल जाएँगी काँच की खूबसूरत
बोतलों में बंद।
पंढरपुर विट्ठल की नगरी है। उन्हें पांडुरंग भी पुकारते हैं। कमर पर हाथ धरे
विट्ठल की मूर्ति की जो यहाँ मुद्रा है... वह मनमोहिनी है। यहाँ विट्ठल रुक्मणि के
साथ मंदिर में विराजमान हैं। महाराष्ट्र से ही नहीं देश भर से लोग पंढरपुर विट्ठल मंदिर के
दर्शनार्थ आते हैं। हम सबके दिल अज़ीज़ चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन ने तूलिका से
पंढरपुर को अपना रंग देने के लिए इस धरती पर जन्म लिया था। पंढरपुर की सड़क पर कार
अपनी रफ़्तार से दौड़ रही थी कि
तभी एक चरवाहा अपनी दर्जन भर महिष के साथ सड़क पार करते हुए दिखा। केसरी रंग से महिष के सींग
रंगे हुए थे। पंढरपुरी महिष अपने स्वरूप के कारण दूर से ही पहचान में आ जाती हैं। मूँठ वाली
लंबी तलवार जैसे इनके सींग होते
हैं। आजू-बाजू खेतों के बीच से गुज़रते हुए पठारी मैना हमें
रास्ते भर
मिलती रहीं। वे चहचहाते हुए उड़ रही थीं। गुलमोहर के पेड़ सड़क किनारे जब भी मिलते उनके शोख रंग को देख कर लगता कि
गुलमोहर को जाने किसे देख कर आग लग आयी है। शोलों के ये
फूल मई-जून महीने की रौनक होते हैं। इस रौनक को देखते हुए महाराष्ट्र की सड़क से अब हम
कर्नाटक की सड़क पर आ पहुँचे थे।
कर्नाटक की सड़क से हो कर गुज़रना भी यादगार अनुभव है।
चाँद में भी गड्ढे पड़ने से दाग बन जाते हैं
पर यहाँ की सड़कें बेदाग हैं। ढूँढें से भी एक गड्ढा नहीं दिखता इन सड़कों
पर। रात के काले आकाश सी ये सड़कें धरती पर ऐसे बिछ आयी हैं जैसे रात का नशा अब भी धरती की
आँखों में बाकी है।
बीजापुर अब मेरी आँखों के सामने था। सड़कों पर जहाँ तिल रखने की जगह नहीं,
वहाँ हर तरह
के छोटे-बड़े वाहन चल रहे थे। जून की कड़क धूप में स्त्री-पुरुष-युवा-वृद्ध-बच्चे-किशोर सब
अपने-अपने काम के लिए घर से निकले हुए थे। बाज़ार खचाखच भरा हुआ था। छोटी-बड़ी दुकानें,
जगमगाते
शो-रूम, शापिंग माल, होटल-रेस्टोरेंट, कार्यालय, विद्यालय, अस्पताल...
जीवन की सभी ज़रूरतों से भरपूर शहर का
स्वरूप लिए बीजापुर स्वागत में खड़ा था। हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई सर से सर जोड़े बीजापुर में
दिखाई दे रहे थे। स्त्रियाँ या तो नक़ाब में थीं या
बालों में वेणी लगाए हुए मिलीं। फूलों का बाज़ार जून की धूप में ताजे फूल सा महक रहा था। बालों
में वेणी और गजरा स्त्रियाँ इसलिए भी लगाती हैं कि फूलों की नमी और
सुगन्ध बालों को मिल जाए, यह भी एक तरीका है बालों में इत्र
छिड़कने का। यह अनुभव मुझे खुद बालों में वेणी लगा कर बीजापुर में मिला। बाल दूसरे दिन तक
मोगरे की खुश्बू से महकते रहे।
बीजापुर की सड़कों पर आपको ताँगा भी मिल
जाएगा। हवा में ताँगे की सवारी करते हुए हम गोल गुम्बद तक आ पहुँचे थे। गर्मी के मौसम में गर्मी
का एहसास नहीं था। गोल गुम्बद
बीजापुर के आसमान को अपनी छाँव देते हुए मेरे सामने खड़ा था। यह गोल गुम्बद हिन्दोस्तान की सबसे
बड़ी खुली छतरी है जिसकी छाँव में बीजापुर शहर गर्मी के मौसम में भी सुकून की साँस लेता है। यह
वही गुम्बद है जिसकी तस्वीर इतिहास की किताबों में बचपन
से देखती आ रही थी मैं। सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता के लिए प्रश्न का
उत्तर रटा करते थे कभी कि गोल गुम्बद हिन्दोस्तान की सबसे बड़ी गुम्बद
है और विश्व में दूसरे नंबर पर इसका स्थान आता है। इस विशाल गुम्बद का व्यास 44 मीटर और ऊँचाई 51 मीटर है। इसके निर्माण में तीस वर्ष लग गये थे। इस
मक़बरे का एक आश्चर्य यह भी है कि इसमें सहारे के लिए एक भी कालम
नहीं है। इसकी वास्तुकला दक्खिन वास्तुकला का विजय स्तम्भ मानी जाती है।
मक़बरे के मुख्य हाल के भीतर चारों ओर
सीढ़ियों से घिरा हुआ एक चौकोर चबूतरा बना हुआ है। इस चबूतरे के मध्य कब्र का
पत्थर है जिसके नीचे असली कब्र बनी हुई है जो बीजापुर के सुल्तान मुहम्मद आदिल शाह की है।
मक़बरे के गुम्बद की आन्तरिक परिधि पर एक गोलाकार
गलियारा बना हुआ है। इस गोल-ए-गुम्बद को अंग्रेज़ों ने 'व्हिसपरिंग गैलरी' का नाम दिया था। इस गलियारे के
निर्माण में प्रयुक्त ध्वनि विज्ञान के वास्तु में सम्मिलन के
कारण यहाँ धीमे से बोला गया एक शब्द भी इसके व्यास के
ठीक दूसरी ओर एकदम स्पष्ट सुनाई देता है। इस गैलरी में आवाज़ सात बार गूँजती है। उस ज़माने
में गायक इस गैलरी में बैठ कर गाते थे ताकि उनकी
आवाज़ और संगीत प्रत्येक कोने तक पहुँच सके। दीवारों के भी कान होते हैं, यह सुनने के लिए आपको गोल गुम्बद
में आना होगा। इसे फ़ारसी वास्तुकार दाबुल
के याकूत ने 1626 ईस्वी में बनाया था। सारे बीजापुर
शहर को नज़र भर देखने के लिए गोल गुम्बद के ऊपर से जा कर देखा जा सकता है। इमारत के चारों कोनों
से जुड़ी हुई यहाँ चार मीनारें हैं। हर मीनार सात मंज़िल की है और ऊपर बुर्ज़ बने हैं।
इमारतों में बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ
और रौशनदान बने हुए हैं जिनसे गुज़र कर सूरज दालानों तक पहुँच जाता है। छत से गुम्बद में जाने के
लिए आठ दरवाज़े हैं। दरवाजों पर सागौन की लकड़ी से किया हुआ महीन
नक्काशीदार काम है। इस इमारत की सबसे बड़ी बालकनी को हमसा कहा जाता था।
डार्क ग्रे बेसाल्ट पत्थर से बना यह
मक़बरा दक्खिन भारतीय-मुगल वास्तुकला का अद्भुत नमूना है जो द्रविड़ वास्तु शैली से घुल-मिल
गया है। दक्खिन के राजा फ़ारसी-मुगल शैली से खूब प्रभावित
रहते थे। अष्टकोण यह इमारत नफ़ीस नक्काशी फूल-बूटे, आले-मेहराब से सजी हुई है। इमारत की दीवारों पर पत्तेनुमा आकार और ज्यामितीय आकार
उकेरे गये हैं। व्हिसपरिंग गैलरी में खड़े हो कर जब आप अंतः दीवार देखते हैं, वहाँ आपको डायमंड कट पैटर्न का काम दिखाई देता है।
गुम्बद की बाहरी दीवार पर हर ओर पत्थर की बड़ी पंखुरियाँ बाहर की ओर खिलते हुए इस तरह से
बनायी गई हैं कि शिल्पी ने कमल का फूल खिला दिया है। पत्थर पर किया ऐसा काम यकीन दिलाता है कि
पत्थर पत्थर नहीं होता, पत्थर में भी फूल खिला करते हैं।
खिलाने का हौसला और नज़र चाहिए जो उस वक्त के राजा... उसकी प्रजा और कारीगरों में थी। इस
गोल गुम्बद के चारों ओर हरी घास का
बिछा शनील वाला कालीन है। इस सुंदर उद्यान में चंपा के फूल खिले हुए थे। फूल पर्यटकों को देखते और
वे लोग गोल गुम्बद को अपलक देख रहे थे। गोल गुम्बद के उद्यान में खड़े हो कर मैंने सोचा कि
इतिहास को सिर्फ़ किताबों में ही नहीं पढ़ा जाता, इन इमारतों को स्पर्श कर के भी इतिहास पढ़ा जाता है
जहाँ अमिट इबारतें लिखी जा चुकी हैं। बीजापुर में खड़े होना इतिहास की किताब के
बीच में खुद को पाने जैसा लगा। कर्नाटक प्रान्त का यह शहर आदिलशाही सल्तनत की
राजधानी बहमनी साम्राज्य का हिस्सा रहा है। बंगलौर के उत्तर-पश्चिम में स्थित यह
प्राचीन नगर है। दक्षिण भारतीय वास्तुकला शैली में निर्मित यहाँ के स्मारक शहर का
आकर्षण तो हैं ही, कर्नाटक की कला -संस्कृति में बीजापुर का विशेष योगदान है।
गोल गुम्बद के सामने बनी उसी प्राँगण
में मालिक-इ-मैदान इमारत अब संग्रहालय में तब्दील हो गई है। जिसके द्वार पर पचपन टन की
विशाल तोप रखी है जिसके मुंह को शेर के सिर का आकार दिया है और जिसके दांतों में
हाथी फंसा है। कुछ भग्न मूर्तियाँ और अवशेष इस संग्रहालय में रखे हैं जो आठवीं
शताब्दी से ले कर सोलहवीं शताब्दी के जीवन
परिचय का उल्लेख देते हैं। आठवीं शताब्दी में पत्थर से बना हैंडिल वाला डम्बल हैरत
देता है कि लोग स्वास्थ्य और सौष्ठव के लिए कितने सजग रहा करते थे। शिव लिंग, गणपति, महावीर-बुद्ध
की मूर्तियाँ आस्था के प्रतीक सी वहाँ सुसज्जित हैं कि लोगों का
पूजा से नाता पुराना है। इस
संग्रहालय का आकर्षण एक विशाल शिलापट्ट है जहाँ अरबी-फ़ारसी और कन्नड़ लिपि में लिखा है, लिखावट के ऊपर शिवलिंग बनाया हुआ
है और साथ ही उसके चाँद है जो इस बात पर यकीन
दिलाता है कि धर्म-मज़हब एक सिक्के के दो पहलू रहे हैं। धर्म-मज़हब के नाम पर होते
विवाद तो राजनीतिक दाँव-पेंच होते हैं। हिन्दू-मुस्लिम के दिल तो आपस में कई
सभ्यताओं पहले से मिले हुए हैं जिसका प्रमाण वे शिलापट्ट हैं जहाँ लिपि भी साथ-साथ
है और शिवलिंग-चाँद भी। आदिलशाही सल्तनत के क्रियाकलाप, जीवन शैली, उनका योगदान .... संग्रहालय के साजो-सामान के रूप में सदियों से
सुरक्षित रखा हुआ है। आदिलशाही
सल्तनत के सिक्के आज भी उस संग्रहालय में बीते दिनों को याद कर के खनक उठते हैं।
संग्रहालय की बाहरी दीवार में ऊँचाई पर एक पत्थर टूटा हुआ था जो कि पठारी मैना के
जोड़े की अब सराय बन गया है। दोपहर की धूप में उड़ता हुआ वह जोड़ा सुस्ताने के लिए
अंदर जा बैठा था। संग्रहालय की इस इमारत का टूटा टुकड़ा भी पंछियों को पनाह दे देता है। पनाह तो
आदिलशाह की रूह को भी मिली है इसी प्राँगण में बनी गोल गुम्बद के तले... ।
'दक्षिण भारत का आगरा' बीजापुर को इसलिए कहा जाता है कि यहाँ पर बनी इमारत इब्राहिम रौजा शाहजहाँ के बनाये ताजमहल के डिज़ाइन को प्रेरित करने वाली है। इब्राहिम रौजा आदिल शाह द्वितीय और उनकी रानी का मक़बरा है। इसकी संरचना फ़ारसी-मुस्लिम वास्तुकला का अनूठा चमत्कार है जो कि चट्टान के एक स्लैब पर बनायी गई है। 360 फ़ीट ऊँची इस इमारत में की गई महीन नक्काशी का काम जिसकी छत, दर-दीवार पर अनगिनत कंगूरे और बेल बूटे बने हैं। कमल के फूल की पंखुरियाँ बनी हुई हैं इस इमारत में। इसकी स्थापत्य कला अचंभित करती है। नक्काशी का जालीदार काम तो ऐसा है जैसे पत्थर न हो कर कपड़े पर जालियाँ बनायी हों। उस पर उकेरे चित्र जैसे जालीदार कपड़े पर की गई कशीदाकारी हो। यहाँ एक खूबसूरत शाही तालाब भी बना हुआ है जिसका जल वक्त की बहती तेज हवाओं ने सुखा दिया है। इमारत की खिड़कियों और दरवाज़ों की लकड़ी पर किया काम और इमारत के पत्थर पर किये काम में जैसे बराबर की होड़ लगी हो। पत्थर ही लकड़ी और लकड़ी पत्थर होने का भ्रम देती है। मेहराब-आले-रौशनदान से सजी यह कलात्मक इमारत जैसे क्राऊनिंग ग्लोरी हो। इसके दरवाज़ों और खिड़कियों पर लिखी आयतें फूल-पत्तियाँ लगती हैं। इस इमारत में प्रवेश करने वाला फूल-पत्तियों के इस जंगल में खो जाता है। आयतों की लिपि न पढ़ पाने का उसे रंज नहीं रहता क्योंकि मोहब्बत की कोई ज़ुबान नहीं होती। इसकी मीनार पर डायमंड कट पैटर्न बने हुए हैं। निश्चित ही वे शासक कला प्रेमी रहे जिन्होंने पत्थर के कैनवेस पर उकेरी अनमोल कला को अमर कर दिया। इसकी मीनार पर धातु से बना चाँद आधा हो कर भी पूरा दिखाई देता है। पूरे चाँद की यह इमारत अगर सफेद संगमरमर से बनी होती तो शायद ताजमहल की खूबसूरती के मुकाबले बीस ठहरती। इस Past Glory पर अब मिट्ठुओं और कबूतरों का जमावड़ा रहता है। वे झुंड के झुंड में वहाँ आते हैं और गुफ़्तगू कर के दूर कहीं उड़ जाते हैं। मखमली घास के हरे लान से चढ़ती सीढ़ियों वाली इस इमारत को आप ‘ब्लैक ताजमहल ऑफ़ इंडिया’ भी पुकार सकते हैं। यह खूबसूरत इमारत पहले माले पर बनी है। इसके नीचे चापनुमा कई कमरे बने हुए हैं। एक के बगल में एक जुड़े उन कमरों के भीतर से हो कर गुज़रना आर्च गैलरी से गुज़रने जैसा लगा। एक आर्च के पीछे दूसरी, तीसरी, चौथी ...कई सारी आर्च को देखना जैसे बड़ी आर्च के भीतर से छोटी आर्च के निकल कर आने का तिलिस्म लगता है। आर्च की उस सुरंग से गुज़रना शताब्दियों पीछे इतिहास में जाने जैसा लगा। हरे-भरे उद्यान के पीछे बनी इस इमारत से बाहर आने के बाद भी, मेरा मन वहीं इब्राहिम रौजा के इर्द-गिर्द छूट गया।
बारा कमान अवशेष रूप में अब भी खड़ा है बीजापुर शहर के बीचों-बीच ऐतिहासिक
गाथा सुनाते हुए... वे बारह आर्च हैं जिन्हें
खड़ा करने में सीमेंट का उपयोग नहीं हुआ, लोहे के
छल्ले इस्तेमाल किये गये हैं। ‘गगन महल’ भी अपनी आकर्षक संरचना के लिए खूब
जाना जाता है। इसका दूसरा नाम ‘आकाश महल’ है। बीजापुर में स्थित ‘जामी मस्जिद’ दक्षिण भारत में सबसे पुरानी और
सबसे बड़ी मस्जिद है जिसका आंतरिक भाग चित्रों और मूर्तियों से सज्जित है। मस्जिद
के अंदर सामने की दीवार पर सोने से किया काम अंकित है। इस मस्जिद में सोने से लिखी
पवित्र कुरान की एक प्रति भी रखी हुई है। लगभग बीस हज़ार लोग यहाँ एक साथ नमाज़
पढ़ सकते हैं। मस्जिद की बाहरी दीवार पर फूल-पत्तियों, बेल-बूटों की बारीक नक्काशी का काम ऐसा लगता है जैसे
दीवार पर पत्थर के वाल हैंगिग बना कर टाँग दिये हों। यहाँ मुझे दो पालकियाँ भी रखी हुई
दिखाई दीं। लकड़ी की इन रंगीन पालकियों पर 786 लिखा हुआ था। पालकियों को देख कर
लगा ...धर्म-मज़हब पुकारने के लिए दो शब्द बने हैं ईश्वर-अल्लाह की तरह, व्यवहार-रूप तो एक ही है। पालकियाँ मंदिर में भी होती
हैं और मस्जिद में भी।
‘जोड़ गुम्बज’ मुहम्मद खान और अब्दुल रज़ाक
कादरी की जुड़वाँ मज़ारें हैं जो अब शहर में दरगाह के रूप में हैं। दूर-दराज़ से
लोग फ़रियाद के साथ वहाँ आते हैं।
ऊपली बुर्ज़ बीजापुर में बना वाच टावर है जहाँ से शहर का विस्तृत दृश्य दिखाई देता है ... मस्जिद-मंदिर सिर जोड़े साथ-साथ खड़े दिखाई देते हैं शहर में। बीजापुर का ‘आनंद महल’ अब जिमखाना क्लब में तब्दील हो गया है। कभी यह दो मंज़िल महल राजकीय परिवार की महिलाओं का गृह होता था। असर महल के भित्तिचित्र आपको मध्ययुग में ले जाएँगे जहाँ फूल-पत्तियों के अलावा स्त्री-पुरुष को अनेकों मुद्राओं में दर्शाया गया है। 16 वीं शताब्दी का बना बीजापुर का किला अब हेरीटेज होटल बन चुका है। सकल नारायण गुफा और मंदिर, भद्रकाली मंदिर, भैरमदेव मंदिर, बन्नी माता, विजयपुर नरसिम्हा मंदिर, श्री शिद्देश्वर, शिवगिरि मंदिर, कुदाल संगम, इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान यहाँ के मुख्य पर्यटक स्थल हैं। कर्नाटक के अलमत्ती बाँध को विश्व बैंक पुरस्कार से नवाज़ा गया है जो कि बीजापुर में ही स्थित है। ‘लोटस झील’ भी इस शहर में बहती है। एक जून की साँझ अब इस झील में पाँव रख कर उतर रही थी। दोपहर ढलते ही आसमान अपना रंग बदलने लगा था। मस्जिद में शाम की नमाज़ का समय हो आया था। दिग-दिगन्त तक नमाज़ की आवाज़ पहुँचने लगी थी। उस आवाज़ को सुनते हुए तितलियों ने भी पंछियों के संग घर लौटने की राह पकड़ ली। गोधूलि के इस समय शहर की सभी मीनारें आकाश की ओर देख रही थीं। उनकी आँखों में रात का इंतज़ार उतरने लगा था। इससे पहले कि रात बीजापुर को अपने आगोश में ले लेती, ‘साठ कब्रगाह’ को मैंने साँझ की रौशनी में देखा। अफ़जल खान की साठ बीवियों की कब्रगाह ‘साठ कब्र’ के नाम से बीजापुर में बनी हुई है। साठ कहानियाँ सुनाती वे कब्रें काले पत्थर से बनी हैं।
ऐतिहासिक महत्व वाले इस शहर को देखना भारतीय-मुगलकालीन सभ्यता संस्कृति से
रूबरु होने जैसा लगा। ये कलात्मक मीनारें
श्रम के महत्व को तो बताती हैं साथ ही उन कारीगरों के हाथों की जादूगरी भी बयान
करती हैं कि पत्थर को कैसे तराशा गया है। कलाप्रेमी शासकों द्वारा बनवायी गईं इन
ऐतिहासिक धरोहरों को देख कर यकीन हुआ कि हीरे की पहचान जौहरी को ही होती है।
शिल्पकारों के नायाब हाथों से उन शासकों ने पत्थर को हीरा बनवा दिया था जिसका
प्रमाण उन इमारतों पर बने हुए डायमंड कट हैं। हीरे-जवाहरात से सुशोभित वे शासक अब
तो नहीं रहे पर विरासत रुप में वे महल-मक़बरे और मीनारें ऐसी सौंप गए हैं जिन पर हीरे
ही नहीं उकेरे, वे हीरे की तरह जगमगा रही हैं। सूरज की रौशनी हो या चाँद की चाँदनी ...दिन हो या रात, ये भव्य इमारतें कल-आज और कल की
कहानियाँ सुनाती जाती हैं।
कन्नड़ बोली बोलता यह शहर पर्यटकों का भरपूर स्वागत करता है।
हिन्दू-मुस्लिम संप्रदाय के यहाँ रहने से खान-पान
में आपको विविधताएँ मिलती हैं। मटन-चिकन के बने व्यंजन... ज्वार-बाजरे की भाकरी का
खूब उपयोग होता है। यह शहर ज़ायकों का शहर है। सुगंधित मसालों से इस शहर की गलियाँ
सुवासित रहती हैं। कई पल्या-लकु पल्या नाम से बनी सब्जियाँ
खासी लोकप्रिय हैं। दक्षिण भारतीय
व्यंजन बीजापुर का खास आकर्षण है। कामत रेस्टोरेंट में इडली चटनी और मसाला छाछ का मैंने लंच
लिया। हाट एंड स्टीमिंग इडली मुँह में रखते ही मक्खन सी पिघल गई थी। मसाला छाछ का
वह अदरकी स्वाद अब भी जिह्वा पर शेष है।
सूरजमुखी-मूँगफली-अंगूर-अनार-बेर-अमरूद-चीकू-नींबू के खेतों से सजा बीजापुर पाँच
नदियों को अपने आँचल में समेटे बैठा है। कृष्णा-दोनी-भीमा-घाटप्रभा-मालप्रभा
नदियाँ बीजापुर के हाथ की पाँच अंगुलियों सी हैं
जिन्हें देखते हुए कर्नाटक में पाँच नदियों वाले पंजाब की याद आँखों में तैरते हुई
चली आती है। यह शहर दसवीं-ग्यारहवीं सदी में कल्याणी-चालुक्यों द्वारा बसाया गया
था जो कि बाद में यादव वंश के सुपुर्द हो कर रहा। 1347 में बहमनी सल्तनत का राज्य स्थापित होने के बाद
आदिलशाही सल्तनत का यहाँ साम्राज्य रहा। आज इस शहर के चौक-चौराहों पर अश्व पर सवार आदिल शाह
की प्रतिमा दिख जाती हैं। भीमराव अंबेदकर की प्रतिमा भी चौक पर दिखती है। जय भीम
के ध्वज शहर में हवा के संग लहराते हैं। बीजापुर को विजयापुरा के नाम से अब जाना
जाता है जिसे City of
victory भी कहते हैं। महल-मक़बरे और मीनारों वाला यह शहर
इतिहास की किताब का वह पन्ना है जिसको वहाँ जा कर पढ़े बिना इतिहास की किताब का
मुकम्मिल होना मुमकिन नहीं ... ।
Norman
Cousins भी कहते हैं
–
"A
library is the delivery room for the birth of ideas, a place where history
comes to life."
(सभी चित्र गूगल इमेज से साभार।)
- [दोआबा पत्रिका में प्रकाशित]
परिचय
नाम : रुचि भल्ला
जन्म: 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद
प्रकाशन : दैनिक भास्कर, जनसत्ता, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, जनसंदेश, दैनिक ट्रिब्यून आदि समाचार-पत्रों
में कविताएँ प्रकाशित
तद्भव, पहल, हंस, नया
ज्ञानोदय, वागर्थ, आजकल, पाखी, कथाक्रम, लमही, कथादेश, दोआबा, सदानीरा, परिकथा, इंद्रप्रस्थभारती, उत्तर प्रदेश, युद्धरत आम आदमी, अहा ज़िन्दगी, पुनर्नवा, साक्षात्कार, प्रभात खबर विशेषाँक, गगनांचल, समावर्तन, अक्सर, सेतु, कृति ओर, हमारा भारत संचयन, परिंदे, ककसाड़, दुनिया इन दिनों, यथावत, पुरवाई, सृजन सरोकार, लोकस्वामी, शतदल, अक्खर, शब्दिता, अक्स, शब्द-संयोजन, पहले-पहल, सुसंभाव्य आदि पत्रिकाओं में।
ब्लाग में कविताएँ और संस्मरण...
कुछ कविताएँ साझा काव्य संग्रह में भी
कहानी परिकथा, गाथांतर, यथावत
पत्रिका में प्रकाशित।
प्रसारण : 'शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक ...' कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर।
आकाशवाणी के इलाहाबाद, सातारा तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण।
संपर्क :
Ruchi Bhalla,
Shreemant, Plot no. 51,
Swami Vivekanand Nagar,
Phaltan
Distt Satara
Maharashtra 415523
फोन नंबर 9560180202
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30.4.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3687 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
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