रूचि भल्ला की कहानी ‘आई डोंट हैव ए नेम’।
रूचि भल्ला ने इधर कविता के क्षेत्र में अपनी सशक्त
उपस्थिति दर्ज़ करायी है। समय-समय पर हम उनकी डायरी के पन्नों से भी रु ब रु होते
रहे हैं। इधर रूचि ने कहानी के क्षेत्र में भी अपना पहला कदम रख दिया है। उनकी पहली
कहानी परीकथा के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। इस कहानी में हम उनके कवि को
स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। इसे पढ़ कर, इसकी भाषा से गुजर कर हम महसूस कर सकते
हैं कि यह एक कवि द्वारा लिखी गयी कहानी है। रूचि के कहानीकार रूप का स्वागत करते
हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी पहली कहानी ‘आई डोंट हैव ए नेम’।
आई डोन्ट हैव ए नेम
रूचि भल्ला
समय सुबह साढ़े पाँच बजे का है । इस वक्त आसमान का रंग
वंशीधर के रंग सा हो आया है।
तारों की टिमटिमाती लौ धीमी पड़ती जा रही है ...मुर्गे की बाँग और कड़क। गिन
कर दस बार बाँग दे चुका है चार्ली का कलगीदार मुर्गा। सूरज की नींद कुम्भकर्ण
की नींद सी है जब तक सुबह की रानी माँ उसे जगाएगी नहीं, वह औंधे मुँह आसमानी बिस्तर पर पड़ा
सोता रहेगा। मुर्गे ने अब हार कर ग्यारहवीं बार बाँग दे दी है फान्टेनेन्स रोड को
जगाने के लिए। उसकी आवाज़ पर
जाग उठी है पठारी बुलबुल। हवा बह उठी है समन्दर की चाल सी। पूरब दिशा की ओर
बढ़ते हुए वह लाल सागर सी हुई जाती है। ऐसा लगता है उसे देख कर कि गोवा में
भोर... सुबह की दस्तक वाला नगाड़ा बजाती चली आ रही है।
सूरज के स्वागत में अब जाग उठा है चर्च का देश। उसे
जागते देख कर फान्टेनेन्स
रोड पर रहती नंदा मावशी ने रख दिया है अपने लक्ष्मी निवास में जला कर तुलसी चौरा के पास भोर
का दीपक। दीपक की लौ गली में लगे यूकेलिप्टस के दरख्त तक चली जा रही है जहाँ पोन्टी
बिल्ली टहनी से लटक कर अपनी
कलाबाज़ी का प्रदर्शन कर रही है सूरज को मुँह चिढ़ाते हुए। साठ वर्षीय रोज़लिन
आंटी पोन्टी बिल्ली को देखती हैं सेंट सेबेस्टियन चर्च के गेट से बाहर निकलते
हुए पर उन्हें पोन्टी की इन कलाबाज़ियों से हैरत नहीं होती। पोन्टी के हर रोज़ के इन करतबों से
वह बखूबी वाकिफ़ हैं। अपनी रस्ट हैट को सर पर संभालती हुईं वह अपने घर की ओर चल पड़ी हैं। घर
उनका दूर नहीं है। चर्च से
सोलह कदम की दूरी पर ही है पर पोन्टी के लिए ये सोलह कदम तो दो छलाँग भर
नाप के होते हैं। वह इस मोहल्ले की बिल्ली है। हर घर में साधिकार जाती है।
दूध-ब्रेड के लिए वह सैमियोना की बालकनी में अक्सर आपको दिख जाएगी ब्लैक मैटेल बाउल के पास
बैठी हुई ।
पीटर जो अब सत्तर साल के हो गए हैं, इसी मोहल्ले में रहते हैं। रोज़लिन
आंटी के घर से
पाँच घर छोड़ कर। पोन्टी को अपनी वाकिंग स्टिक से इशारा करते हुए जब भी
बुलाते हैं, भूरी आँखों
वाली यह बिल्ली फ़िर उस घड़ी उनकी ही हो जाती है। उनकी कुर्सी के नीचे जाकर बैठ जाती है चिकन
ड्रम स्टिक चबाते हुए। फ़्लोरा
अबकी बरस इक्कीस साल की हो गई है। उसकी हरे कंचे जड़ी आँखों में गुलाबी सपने
उड़ने लग गए हैं। आजकल वह चर्च के पीछे एलफ़ैन्ज़ो ट्री के नीचे अमावस की रातों में डेविड से
मिलने जाया करती है। डेविड हर अमावस उसके लिए पीला गुलाब ले कर आता है मस्टर्ड कोट की जेब में
मोहल्ले की नज़र से छिपा कर।
पीले गुलाब की खुशबू जो नहीं होती जैसे अमावस की रात की आँखें नहीं होती
हैं और इस बात का पता किसी को हो न हो, सेंट सेबेस्टियन चर्च यह राज़ बखूबी जानता है।
अरे! आपका परिचय तो मैंने चर्च से कराया ही नहीं । सबसे
पुराना सदस्य तो यह चर्च है
ओल्ड गोवा के फान्टेनेन्स रोड पर बना हुआ। आइए! मेरा हाथ थामिए। आपको चर्च की ओर ले जाता
हूँ। पंजिम के आकाश को अपने होठों से चूमता यह चर्च लगभग दो सौ साल से खड़ा हुआ है इस
सरज़मीं पर। सफेद पोशाक पहने यह खुद
भी गिरजे के पादरी सा ही नज़र आता है। गली के आखिरी मोड़ पर खड़ा यह चर्च सिर्फ़ अपनी ही
दास्तान नहीं सुनाता, सबकी सुनता
भी ज़रूर है। चर्च की ओर जाएँगे तो कुँए से बगैर मिले आप आगे नहीं बढ़ सकेंगे। लाल-सफेद ईंटों से रंगा यह विशिंग वैल
मोहल्ले के सभी राज़ जानता है पर गली में कोई आता-जाता हुआ पोन्टी बिल्ली की इजाज़त के बिना इस कुँए में झाँक नहीं सकता, उससे पहले ही इसके मुहाने पर वह
छलाँग लगाते हुए चली आती है। मज़ाल है जो आज तक उसका पाँव फिसला हो और वह जा गिरी
हो इसके भीतर। वैसे पोन्टी
बिल्ली को संभालने के लिए कुँए के मुहाने पर पत्थर के दो रूस्टर बिठा रखे
हैं जो मिस्टर ब्रिगैन्जा को रोज सुबह देखते हैं जब वह निकलते हैं इस गली में
सैर करने के लिए। पूरे छ: चक्कर लगाते हैं वह गिन कर। घर लौटते हुए एक अदद सिगरेट की तलब
उनके साथ हर रोज़ रहती है। नियम से वह सिगरेट सुलगाते हैं अपने घर के बाहर लगे पाम ट्री का
सहारा ले कर। उनकी जेब में पच्चीस
साल पुराना उनका लाइटर हरदम रहता है। सूरज की रौशनी में वह लाइटर ड्रैगन की शक्ल में नज़र आता
है। पच्चीस सालों से इस लाइटर की चमक ज़रा भी कम नहीं हुई। आज भी आग जलाने की वह पूरी हिम्मत
रखता है।
गली में अब इस वक्त चहल-पहल बढ़ आयी है। बच्चे यूनिफ़ार्म
में निकल आये हैं घरों से
स्कूल जाने के लिए। यह कार्तिक का महीना है। हर मौसम में इस गली में ऐसी ही
हलचल रहती है पर चर्च के देश में ओल्ड गोवा के इस मोहल्ले में रोज़ की इन
सभी हलचलों से बेखबर कुँए के ठीक सामने बना हुआ एक अलग-थलग सा मकान है जो
सबके बीच में रह कर भी किसी से जुड़ा नहीं है। यह मकान जॉर्ज डी मैलो का है। यह नीला मकान वीरान
आँखों से बस चर्च को देखता रहता है। इसकी दो आँखों में अनकही कहानियाँ बसी हुई हैं जिसे
चर्च सुनता है रात के वीराने में।
पुर्तगाल से सदियों पहले यहाँ आ कर बस गया
था जॉर्ज का परिवार। पुश्तें बीत
गईं फ़िर रहते हुए। इस बात की गवाही नीली दीवारों वाला यह मकान खुद दे देता है।
पड़ोसी फ़्लोरिडा के घर से आती तलती हुई मैकरिल मछली की महक
भी इस मकान के भीतर प्रवेश नहीं
कर पाती है। जॉर्ज की अपनी दुनिया में यह चर्च, यह गली, यह कुँआ, पोन्टी बिल्ली, मिस्टर ब्रिगैन्ज़ा की जलती सिगरेट का धुँआ, अमावस की रात का टुकड़ा कोई भी शामिल नहीं
हो पाता। लक्ष्मी निवास की बालकनी से उतरती मधुमालती की बेल भी इस घर की दीवार को स्पर्श
नहीं कर पाती और पास जाने से
पहले ही झूल जाती है हवा में लटक कर। जॉर्ज की दुनिया में वह और उसका वायलिन
ही है और एक खत है नीलोफ़र के नाम लिखा जो ड्राईंग रूम की मेज़ पर पड़ा रहता है बरसों से
टेबिल लैम्प के नीचे दबा हुआ...जिसके पन्ने का रंग समय की गर्द चढ़ कर पीला नहीं अलबत्ता नीला
ज़रूर हो गया है इस मकान की नीली
छाँव में रह कर।
हम -आप चाहें भी
तो जॉर्ज से जाकर मिल नहीं सकते। उसके मकान का ठिकाना तो वहीं है चर्च के ठीक सामने पर जॉर्ज
किसी से मिलता नहीं है ... खुद से भी नहीं। वह अब किसी को नहीं जानता... जैसे मैं भी नहीं
जान पाया हूँ जॉर्ज को इस बात
के सिवा ...कि मैं कुछ समय पहले गोवा में अपनी नौकरी के सिलसिले में एक साल
के कान्ट्रैक्ट पर आ गया था अपने शहर चंडीगढ़ से। बचपन से पढ़ता हुआ आया था किताबों में कि
गोवा चर्च का देश है। सीपियों से भरा रहता है उसके समन्दर का दिल... जिसकी सतह पर रात-दिन
तैरती रहती हैं मछलियाँ और जहाज...।
साहिल तक चली आती हैं जहाँ आकाश को स्पर्श करती समन्दर की लहरें... और दोनों हाथों से
सीपियाँ लुटाती हैं खुले दिल से। धरती पर स्वर्ग सिर्फ़ कश्मीर में ही नहीं होता, गोवा का सौन्दर्य भी मंत्रमोहिनी
रखता है अपने
हाथों में। ऐसे हाथ से हाथ मिलाने की खातिर मैं ओल्ड गोवा तक चला आया था अपनी
नौकरी के सिलसिले में और लक्ष्मी निवास में पेइंग गेस्ट बन कर रह रहा हूँ
इन दिनों।
गुलाबी डिस्टैम्पर से रंगा हुआ यह बंगला छोटी सी पहाड़ी पर
बना हुआ है। जॉर्ज के मकान के
सामने से ही इस घर की सीढ़ियाँ जाती हैं जिसकी बालकनी सड़क की ओर हरदम
मुखातिब रहती है। लाल गमलों में लगे क्रोटन और देसी गुलाब बालकनी से उचक कर सड़क
को सुबह-शाम देखते रहते हैं। उन गमलों की कतार में पहला नंबर तुलसीचौरा का है जहाँ नंदा मावशी
रोज़ सुबह पूजा करने के बाद दीपक जला कर रख देती हैं। पहली बार लक्ष्मी-निवास खोजते हुए जब
मैं आया था यहाँ। यह तीन महीने
पहले की बात है । चर्च के ठीक सामने लाकर ऑटो रोक दिया था ड्राइवर ने। शोख चटक रंगों में बने यहाँ के
घरों ने पहली नज़र में ही आकृष्ट कर लिया था। प्राचीन यूरोपीय स्थापत्य कला की छाप दिखा
करती है इन घरों पर। बड़ी-बड़ी
लंबी बालकनी सड़क की ओर खुला करती हैं इन घरों की। रंग-बिरंगे घरों के आगे
हरे -भरे दरख्त लगे हुए हैं। हर घर के ऊपर पत्थर के रूस्टर बिठा रखे हैं
जैसे वे पहरेदार हों इन घरों के। उनकी तरफ़ देखते हुए पैंट की जेब से मैं अपना
पर्स निकाल ही रहा था कि तभी वायलिन पर बजती हुई धुन मेरे कानों में आ पड़ी। मून लाइट सोनाटा
सी वह बज रही थी...। मेरा हाथ वहीं रुक गया पैसे गिनते हुए और मैं उस धुन को तलाशने लगा ।
ठीक मेरी आँखों के सामने नीले रंग की दीवारों वाला एक
मकान था जो सड़क के छोर पर बना हुआ
था। वहाँ एक आदमी बड़ी सी खिड़की के पास खड़ा वायलिन बजा रहा था। यह साँझ का समय था। मैंने देखा
...उसकी नीली आँखें आकाश के तारों में उलझी हुई थीं और उसका हाथ वायलिन के तारों में। उस
मकान का नीला रंग था तो खूब चटक पर
उस पर उदासी का नीला गहरा रंग चढ़ा हुआ था। उस मकान की आधी दीवार तो खिड़की में ही तब्दील थी।
पैसे मेरे हाथ में ही रह गए और मेरी आँखें उस घर की खिड़की से जुड़ गईं।
पचपन साल का वह आदमी होगा। फटे-पुराने पैबन्द जुड़े रंगीन लाँग
कोट में खड़ा हुआ। मई
महीने की साँझ उसके चेहरे को स्पर्श कर रही थी। शाम की रौशनी में उसके बाल गहरे तांबई रंग के नज़र आ
रहे थे और उसके चेहरे पर पुर्तगाल का गोरा-गुलाबी रंग था। चेहरे पर झुर्रियाँ तो नहीं थीं
पर तनाव के बल अनगिनत थे। उस आदमी
में कुछ तो ऐसा था या फ़िर उसके उस रंगीन पैबन्द लगे कोट में कि ऑटो वाले के याद कराने पर ही
मुझे याद आया कि मुझे अपने ठिकाने पर भी जाना है। ऑटो वाला मुझसे कह रहा था, "आप मुझे पैसे दे दें तो मैं आगे जाँऊ..."
उसके टोकने पर याद आया कि मुझे तो ऑटो से अपना सामान भी उतारना है। सूटकेस
उतार कर मैंने उसे अपने हाथ में उठाया और दूसरे हाथ से हैंडबैग को बाँये
कंधे पर टिका कर मैं पता तलाशने लग गया। लक्ष्मी-निवास में जाना था मुझे पर
यह नाम मेरे अगल-बगल वाले घरों पर लिखा हुआ कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। घर
तलाशते हुए नज़र फ़िर उस नीले मकान की खिड़की पर जाकर अटक गई। वह आदमी अब
अपना सिर झुकाए हुए खिड़की के पास खड़ा था। वायलिन उसके हाथ में था जिसे अब वह रगड़ कर साफ कर
रहा था। गली की उस सड़क पर सिवा शाम के कोई और नज़र नहीं आता था...और मेरी आँखें थीं कि
लक्ष्मी -निवास खोजने से ज्यादा उस
पुर्तगाली के रंग में रंग रहीं थीं।
अब मैं सूटकेस
को उठा कर उसकी खिड़की की ओर बढ़ा। मेरे कदमों की आवाज़ से बेख्याल वह आदमी अपने वायलिन को ही
साफ़ करने में जुटा रहा। उसकी खिड़की के नज़दीक पहुँच कर मैंने उसे पुकारा, "सुनिए! यहाँ लक्ष्मी-निवास नाम का घर कहाँ है?" उसने अपनी तल्लीनता में मेरा सवाल
सुना नहीं। मैंने हाथ वाला सूटकेस
ज़मीन पर रख दिया और फ़िर से उसे पुकारा, "क्या आप बता सकेंगे ...लक्ष्मी-निवास का पता कहाँ मिल सकेगा ...?" खिड़की के उस पार से कोई जवाब नहीं
आया। पैंट की जेब से पाकेट डायरी निकाल कर फ़िर मैंने पता देखा। जगह तो यही
लिखी थी ...यही गली ...यही मोहल्ला, पर इस आदमी
के मकान पर भी घर का नंबर
लिखा हुआ दिख नहीं रहा था। उसने फ़िर से मेरी बात को अनसुना कर दिया। पता
जानने का कोई भी रास्ता न दिखते हुए मैंने अपनी नज़रों को इधर -उधर दौड़ाया। पॉकेट डायरी में
लक्ष्मी निवास का टेलीफोन नंबर भी तो लिखा हुआ था मेरे पास पर सफ़र में मोबाइल चार्ज न होने से
फोन बंद पड़ गया था। अब मेरी
दाँयी ओर सिर्फ़ एक खामोश कुँआ ही खड़ा था.... लाल-सफेद ईंटों से रंगा हुआ।
उसका रंग-रोगन तो ऐसा था कि अभी हाल-फिलहाल ही उसे नया रूप मिला हो। उसके
बगल में गर्व से शीष ताने चर्च की इमारत भी खड़ी हुई थी। जी में आया उससे जा
कर पूछ लूँ लक्ष्मी-निवास का पता पर वह भी नीले मकान में रहने वाले आदमी
सी ही लगी... अपनी धुन में खड़ी हुई।
मैं फिर से उसकी
खिड़की की ओर बढ़ा और इस बार अपनी आवाज़ को थोड़ा ऊँचा करके पुकारा, "सुनिये! क्या आप लक्ष्मी-निवास का
पता मुझे बता सकेंगे?" अचरज हुआ कि इस
बार उसने मेरी ओर देखा ...नीले मकान की नीली छाँव उसकी आँखों में साफ दिखाई दे रही थी। नीली
उदास उन आँखों ने मुझे यूँ देखा कि जैसे वह मुझे जानते हों। भरपूर निगाहों से मुझे देखने के बाद
वह फ़िर से अपने वायलिन को
रगड़ने में लग गए। उनका यह व्यवहार मुझे अचंभित कर रहा था पर अब सफ़र की
थकान मुझ पर हावी हो रही थी... और मुझे अब अपने ठिकाने पर किसी भी तरह से
पहुँचना था। इतना तो तय था कि यह आदमी कुछ भी करे पर मुझे मेरे ठिकाने का
पता तो बताने से रहा। वायलिन के तारों में उसके हाथ उलझे हुए थे और मैं यहाँ
पते की परेशानी में उलझ रहा था कि तभी नीली दीवारों वाले इस मकान से एक घर छोड़ कर थोड़ी ऊँचाई
पर बने सामने वाले बंगले की बालकनी में मुझे एक औरत दिखाई दे गईं। वह लगभग साठ बरस की होंगी
...गौर वर्णा ...हरी पैठणी साड़ी
पहने हुए.. माथे पर चन्द्रकोर बिंदी ...दोनों हाथों में दो -दो दर्जन हरी
चूड़ियाँ पहने वह बालकनी में खड़ी थीं... कंदील की पीली रौशनी के नीचे।
उन्हें देखते हुए मैं उनकी ओर बढ़ आया और उन्हें आवाज़ दी, "लक्ष्मी-निवास का पता क्या आप बता सकेंगी ...?" वह सुनते ही बोलीं, "यही लक्ष्मी -निवास है। आप बगल की
सीढ़ियों से ऊपर आ जाइए।"
ओह ! तो मैं अब तक लक्ष्मी- निवास के सामने ही खड़ा
था। सीढ़ी चढ़ते हुए मैंने देखा घर का पता सीढ़ी की रेलिंग के पास ही लिखा हुआ था,
पर मधुमालती के
गुलाबी फूलों ने अपनी लतर से उसे ढक रखा था। दस सीढ़ियाँ चढ़ते ही घर का मुख्य दरवाज़ा अब
मेरे स्वागत में खुला हुआ था। अंदर ड्राईंग रूम में आराम कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे
थे घर के मालिक मिस्टर अमोल
कुलकर्णी। अपनी ऐनक उतार कर टी पॉट पर रखते हुए बोले, "अरे! आ गए तुम शिरीष!.... घर ढूँढने में कोई परेशानी तो नहीं
हुई ...आओ! बैठो।" और मैं अभिवादन करते हुए वहीं दीवान पर उनके नज़दीक बैठ
गया। शोलापुरी चादर बिछी हुई थी
उनके दीवान पर। एक कोने में क्रोशिये से ढका हुआ रिकार्ड प्लेयर बज रहा था किशोरी अमोनकर के
गीत के साथ। मेरे लिए चाय के एक कप की ज़रूरत नंदा कुलकर्णी तुरंत ही जान गई थीं। वह चाय
बना कर ले आयीं। उन सबके साथ चाय
पीने के बाद मैं फ़िर चल पड़ा था मिस्टर कुलकर्णी के पीछे। वह मुझे मेरा
कमरा दिखाने ले कर जा रहे थे।
ड्राईंग रूम के बाहर से ऊपर जाती हुई आठ सीढ़ियाँ थीं उस कमरे
की ओर जिसके फ़ासले पर मेरा अब
नया ठिकाना था। मुझे मेरे कमरे में छोड़ कर मिस्टर कुलकर्णी फ़िर नीचे चले आए थे। सूटकेस और
हैंडबैग को कमरे की खिड़की के नीचे रख कर मैं फ़िर पलंग पर जा कर लेट गया। मई महीने की हवा खिड़की
से भीतर चली आ रही थी और पास आ
कर मेरे इर्द-गिर्द बैठ गई। सीलिंग फैन को गोल घूमते देख कर मैं हवा के संग कब नींद में चला
गया ....इस बात की खबर दरवाज़े पर हुई दस्तक से मिली। नंदा कुलकर्णी भोजन की थाली लिए हुए
मेरे सामने खड़ी हुई थीं। रात के
आठ बज रहे थे। बाजरे की भाकरी और कोकोनट एग करी खाते हुए मुझे ख्याल आया
कि ज़रूरत का कुछ सामान मैं नीचे जा कर किसी दुकान से ले आता हूँ। यही सोच कर
मैं खाना खत्म करते ही लक्ष्मी निवास की सीढ़ियों से नीचे उतर आया। नीचे
उतरते ही मेरा सामना फ़िर उस नीली दीवारों वाले मकान से हो गया। वहाँ अब
ज़ीरो वॉट का नीला बल्ब जल रहा था। उसकी नीली रौशनी मेज़ पर सीधी पड़ रही थी।
कमरे की दीवार से लगी मेज पर एक पीले रंग का बरसों पुराना टेबिल लैम्प रखा हुआ दिख रहा था।
उसके नीचे दबा हुआ कोई कागज़ था वहाँ। नीली रौशनी में मैंने देखा कुछ तस्वीरें फ्रेम जड़ी
दीवारों पर लटक रही थीं कील के
सहारे। केन की दो कुर्सियाँ भी थीं उस कमरे में। कार्निश पर कुछ किताबों का
ढेर लगा हुआ था। मेज से सटी आराम कुर्सी पर सड़क की ओर पीठ टिकाए वही आदमी बैठा हुआ दिखाई
दिया ...वायलिन अब भी उसके हाथ में था ...और वह किसी स्वप्न में डूबा हुआ सा दिखता था। ऐसा
उसकी पीठ को देख कर आभास होता
था। उसे देखते हुए मैं गली की सड़क पार कर गया। दूर सड़क पार चौराहे पर कुछ दुकानें दिख रही
थीं। मिस्टर थॉमस की राशन की दुकान है यहाँ बरसों पुरानी। उस दुकान से मैंने लक्स साबुन की एक
टिकिया और एक छोटी कालगेट
ट्यूब खरीद ली। अब कल से दिनचर्या इस नये शहर में नये सिरे से शुरु होगी यही
सोचते हुए मैं कमरे की ओर लौटने लगा।
ऊपर आकाश में तारे रजनीगंधा फूल से खिल आए थे और चाँद
टियारा बन कर गिरजे के शीष पर आ
टिका था। अजनबी इस शहर में जहाँ रात समन्दर से बातें करके गुज़ारी जा सकती है, मैं चाँद को देखते हुए सीढ़ियाँ
चढ़ने लगा। नींद इस वक्त आँखों
से उतनी ही दूर चली गई थी जितना मैं अपने शहर चंडीगढ़ से चला आया था यहाँ। नींद आने के इंतज़ार
के साथ मैंने सिगरेट सुलगा ली और बालकनी में चला आया। जहाँ तक नज़र जाती थी, शहर का हर कोना अजनबी सा लगता था।
इस शहर का
आसमान और धरती भी। नीचे सड़क पर कुछ लोग टहल रहे थे। उनके आस-पास से कभी कोई
कार.... कोई स्कूटर आ कर निकल जाता था। सफेद एक बिल्ली उन वाहनों से बच कर
सामने अशोक के पेड़ पर चढ़ रही थी। पेड़ पर चढ़ कर उसने अब नीली दीवारों
वाले मकान की छत पर छलाँग लगा दी और पत्थर के बने रूस्टर के बगल में जा कर
बैठ गई । मैंने उस मकान की छत पर देखा। रात का गहरा रंग छत पर उतर रहा था।
तारे यूँ तो आसमान में टहल रहे थे पर उस घर की छत पर तारों की छाँव नहीं आ
रही थी। नीला बल्ब अब भी जल रहा था कमरे के अंदर। समय होगा रात के ग्यारह
बजे। सिगरेट बुझा कर मैं अपने कमरे के भीतर आ गया। गोवा की यह मेरी पहली
रात थी।
समन्दर को चूम कर आती तेज़ हवाएँ सुबह जब मेरे कमरे में चली
आयीं... तब चर्च की घंटी बज रही
थी। मैंने तुरंत बिस्तर छोड़ा और दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगा। रेलिंग पकड़ कर जब नीचे
उतर कर आया ...नीले मकान की तरफ़ फ़िर मेरी नज़र चली गई। सड़क की ओर चेहरा किये खड़ा वह
आदमी किसी तस्वीर में बनी कलाकृति सा लग रहा था और वह खिड़की जैसे उस तस्वीर का
फ़्रेम हो। वह अपने उसी वायलिन
के साथ एकदम स्थिर खड़ा हुआ था ...दुनिया की सारी हलचल से दूर। मेरे कदमों की आहट भी उसकी
बेख्याली में खलल नहीं डालती थी। न सड़क पर चलते जाते स्कूली बच्चों का शोर ही उसे सुनाई दे रहा
था। मैं उसे देख ही रहा था कि
गोरे रंग से भी ज्यादा गोरी एक बिल्ली सड़क पर दौड़ी चली आ रही थी और मेरे
नज़दीक आ कर कुँए के मुहाने पर बैठ गई। यह वही रात वाली बिल्ली थी ...उस
बिल्ली की भूरी आँखें तब तक मेरा पीछा करती रहीं जब तक मैं चौराहे पर जा कर बस
में नहीं चढ़ गया।
गोवा में मेरे दिन अब बीत रहे थे कि हफ्ते भर बाद पहले
रविवार की पहली छुट्टी आयी। गली में
आज बहुत चहल-पहल थी। कोंकणी ब्राह्मण यहाँ कम पुर्तगाली परिवार ज़्यादा रह
रहे हैं। संडे प्रेयर के लिए लोग चर्च में आ कर जमा हो रहे थे। मैं बालकनी
में आ कर खड़ा हो गया कि मिस्टर कुलकर्णी ने मुझे तभी आवाज़ लगा दी, "शिरीष! नीचे ही आ जाओ... आज साथ
बैठ कर चाय पी लेते हैं। "सरल से इस दम्पति के साथ हफ्ते भर में ही मेरा मन लग आया है।
बच्चे इनके विदेश में रहते हैं और
इनका मन अपने इस घर में ही बसा रह गया। अब मैं मिसेज़ नंदा को नंदा मावशी
पुकारने लग गया हूँ। रसोई से चाय के तीन प्याले ट्रे में रख कर वह हम सबके
लिए ला रही थीं। सेंटर टेबल पर अखबार खुला हुआ पड़ा था... वह अखबार पढ़ते हुए शायद बीच में ही
उठ गईं थीं चाय बनाने के लिए। मिस्टर कुलकर्णी वाश बेसिन के सामने खड़े हुए शेव बना रहे
थे। मुझे देखते ही बोले, "कैसा लग रहा
है अब गोवा में। आज तो तुम्हारी छुट्टी है ...शिरीष! गोवा घूम कर आ सकते हो।" मैं तुरंत
बोल पड़ा, "कोला बीच
जाने के बारे में ही सोच रहा हूँ
पर दिन ढले तक निकलूँगा।" और मैंने नंदा मावशी के हाथ से चाय का प्याला
थाम लिया। हमारी उन बातों के दरम्याँ बालकनी में लगे मनी प्लांट के पास एक
गोल्डफ़िंच चिड़िया उड़ी चली आ रही थी ...धूप का एक टुकड़ा उसके साथ -साथ
चला आया था और फैलता चला जा रहा था ड्राईंग रूम में रखे दीवान पर। उनके संग लंच पर
मैकरिल मछली खाने का वायदा कर ही रहा था कि घर से पिता जी का फोन आ गया। मैं मोबाइल पर
बात करते हुए बालकनी में चला आया। मेरे वहाँ आते ही वह गोल्डफ़िंच चिड़िया फुर्र से उड़ गई।
नीचे सड़क पर गोरे बच्चे दौड़ते हुए हाइड एंड सीक गेम खेल
रहे थे कि अचानक उन खेलते हुए
बच्चों का शोर सुनाई पड़ा। वे नीली दीवारों वाले मकान की बाँयी दीवार की
आड़ में जा छुपे थे। उनमें से एक बच्चा बाकी दोस्तों को इधर-उधर घूमते हुए
खोज रहा था कि तभी पुर्तगाली उस आदमी की आवाज़ सड़क पर आती हुई सुनाई थी, "गो अवे, गो अवे ....हट-हट...." उसकी
आवाज़ जैसे उन बच्चों को पत्थर मार
कर भगाती हुई आवाज़ हो। वे बच्चे थे कि अब भी उसके मकान की दीवार के साये में
खड़े हुए थे। शोर सुनते ही अपने दोस्तों को ढूँढता हुआ वह अकेला बच्चा अब नीले मकान की तरफ़
दौड़ा चला आ रहा था। उसके शोर से वह जान गया था कि उसके दोस्त इसी मकान के पीछे कहीं छिपे हुए
हैं। नीले मकान वाला आदमी उस
बच्चे को घर के पास आता देख कर अब और ज़ोर से चिल्लाने लग गया, "गो ... गेट लास्ट...।" सारे
बच्चे अब मिल कर उसकी खिड़की के सामने चले आए थे और मुँह चिढ़ाते हुए सड़क पर
भागने लग गए। फोन रख कर मैं अपने कमरे में चला आया। न चाहते हुए भी इस आदमी के बारे में सोचने
लग गया। इतना तो जान ही गया था
कि इस घर में उसके सिवा और कोई रहता नहीं है। हाँ! एक वायलिन ज़रूर है उसके पास जो अक्सर उसके
हाथ में रहता है। हाथ में किसी का भी हाथ हो... यह हाथ के लिए बहुत ज़रूरी होता है... फ़िर
चाहे वह हाथ वायलिन का ही क्यों न हो...
शाम को कोला बीच में जा कर भी मेरे ख्यालों में वह आदमी आता
रहा जिसका वायलिन रोज़ साफ करने पर
भी चमकता नहीं है। जाने कितने समय की धूल उस पर चढ़ गई है, मैं नहीं जानता...। इतना जानता हूँ
कि बच्चों को दूर भगाने की उसकी आवाज़ पत्थर मार कर भगाने जैसी आवाज़ थी। उसकी आवाज़ से यह
मेरा पहला परिचय था। बहते समन्दर
की लहरें भागती हुईं चली आ रही थीं मेरे पास ...आ कर मेरे पाँव को भिगो रही
थीं। गीली रेत पर बैठना बहुत सुखद लग रहा था। मेरे हाथ की अंगुलियाँ अब किसी का नाम लिखने लग
गई थीं साहिल की गीली रेत पर। काश! इस वक्त चैताली भी मेरे साथ होती। उसका ख्याल आते ही
मैंने जेब से मोबाइल निकाला और
चैताली को फोन लगा दिया। चैताली की शिकायती आवाज़ समन्दर पार करती हुई चली आ रही थी, 'शिरीष! गोवा जा कर तुम तो बस भूल
गए हो मुझे..."
और समन्दर के शोर में मैं चैताली को फिर सुनता रहा...। चाँद की नौका तैरने
लग गई थी लहरों पर। बीच पर अब इक्का -दुक्का लोग ही रह गए थे। मौसम कोई भी
हो, गोवा शहर
सैलानियों से हमेशा भरा रहता है। चैताली की इस बात पर कि तुम मेरे लिए सीपियाँ
बटोर कर लाना... मैंने कुछ सीपियाँ गीली रेत से उठा कर अपनी जेब में रख ली थीं
..और अब लौट पड़ा था लक्ष्मी-निवास में जाने के लिए।
दस बजे का समय हो चला था। शहर तो देर रात तक जागेगा पर ओल्ड
गोवा का यह मोहल्ला अब बत्तियाँ
बुझा कर सोने की तैयारी में लगा हुआ था। ऑटो से उतर कर मैं अब सीढ़ियों की
ओर चल पड़ा कि मेरे रास्ते में फ़िर से नीली दीवारों वाला वह मकान चला आया वायलिन की उदास धुन
के साथ। नीली आँखों वाला वह आदमी सड़क की ओर देखते हुए गीत गा रहा था... उसके हाथ में उसका
साथी वायलिन था जिसके तार बज रहे
थे... जैसे वह समन्दर की लहरों को आवाज़ दे रहा हो। वायलिन को संगत देते
उसके गीत के स्वर मैं अभी सुन ही रहा था कि उसकी निगाह मुझसे अचानक मिली और उसने वायलिन बजाना तुरंत
बंद कर दिया और अपना पैबन्द लगा कोट कंधे से उतारने लग गया। उसे देखते हुए मैं उसकी
खिड़की तक चला आया और कह उठा, "सुनिए ! आप गाइए न ...आप वायलिन
कितना अच्छा बजाते हैं।" उसने मेरी बात अनसुनी कर दी... और अपनी खिड़की का पर्दा
मेरे सामने खींच दिया। अब मेरे और उसके दरम्याँ परदा था ...परदे के उस पार
ज़ीरो वाट के बल्ब में डूबा उसका
नीला मकान। मैं उसके व्यवहार पर हैरान था। यह आदमी आम आदमी से एकदम जुदा
था। वैसे तो हर आदमी आदमी से जुदा होता है। मैं इसे समझ नहीं पा रहा था और
यह भी नहीं समझ पा रहा था कि इसे समझना मेरे लिए ज़रूरी क्यों है ..कि इस दौरान एक घटना कुछ यूँ घटी
...धनतेरस की छुट्टी का वह दिन था। मैं मिस्टर थॉमस की दुकान से शैम्पू की बाटल खरीद कर
लौट रहा था। समय होगा सुबह
के दस बजे। चर्च के ठीक सामने सफेद रंग की एम्बैसेडर टैक्सी एक खड़ी हुई
थी। उसका ड्राइवर अंदर बैठा हुआ था। चालीस साल का एक आदमी जो दिखने में सैलानी नज़र आता था, वह टैक्सी से उतर रहा था। उसने
अपने सर पर काले रंग का
हैट लगा रखा था और उसके गले में कैमरा लटका हुआ था। देखते-देखते वह चर्च के सामने जा खड़ा हुआ और कैमरे से
तस्वीर खींचने लग गया। सड़क पर
चलती जाती फ़्लोरिडा की भी उसने एक तस्वीर ली। यूकेलिप्टस दरख्त पर बैठी पठारी
बुलबुल को भी उसने अपनी तस्वीर में कैद कर लिया था कि तभी मैंने देखा उसकी निगाह नीली
दीवारों वाले मकान पर जा कर ठहर गई। नीली आँखों वाला वह आदमी अपने कमरे में खड़ा वायलिन
बजा रहा था ...फटा हुआ रंगीन पैबन्द लगा अपना वही कोट उसने पहन रखा था। तस्वीर
खींचने वाला सैलानी वायलिन की
धुन पर उसकी खिड़की के पास बढ़ चला। सैलानी को अपने पास आते देख कर उसने गीत
गाना बंद कर दिया। सैलानी उसके इस रूप पर शायद मुग्ध था कि वायलिन बजाते किसी पुर्तगाली की एक
तस्वीर ले ली जाए। उसकी तस्वीर खींचने के लिए उसने अपना कैमरा अभी सेट ही किया था कि नीली
आँखों वाले आदमी ने अपना एक हाथ
चेहरे के सामने रखा और उस पर चिल्लाया,"स्टौप इट। डोन्ट टेक पिक्चर।" सैलानी ने अपना स्वर
संयत किया और बोला, "मैं मैगज़ीन
के लिए फोटो शूट
करता हूँ ... आप वायलिन बजाते हुए इस रूप में इतने अच्छे लगे कि मैं खुद को
रोक ही नहीं सका। आप मुझे अपनी एक तस्वीर ले लेने दीजिए।" वह फ़िर से
चिल्लाया, "यू कान्ट
टेक इट। गो अवे फ़्राम हियर।" जाने क्या सैलानी के मन में आया, यह तो वह जाने ...पर उसने उससे कहा, "अच्छा! आप अपना नाम ही बता दीजिए ....आपका
नाम क्या है...?" नीली आँखों
वाला आदमी अब अपना गुस्सा
ज़ब्त नहीं कर पा रहा था। उसकी आँखों में लाल रंग उतर रहा था। वह सैलानी
पर पूरी ताकत से चिल्लाया, "आई डोन्ट
हैव ए नेम.... यू गो अवे" और अपनी खिड़की का पर्दा ज़ोर से खींच दिया।
सैलानी कुछ देर हकबका सा खड़ा रहा और फ़िर टैक्सी में जा कर
बैठ गया। नीली आँखों वाले आदमी
के इस अजीब बर्ताव का कारण क्या है? मुझे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे अब तक के जीवन में यह
पहली ऐसी घटना थी कि कोई किसी से उसका नाम पूछ रहा है और वह गुस्से में जवाब देता है, "आई डोन्ट हैव ए नेम।" क्या सच ही
इस आदमी का कोई भी नाम नहीं है? या यह आदमी
अपना नाम ही नहीं जानता... या
अपना नाम किसी को बताना नहीं चाहता ...या फ़िर कहीं खो बैठा है अपना
नाम...। अगर खो दिया है तो कहाँ खो दिया है इसने नाम... कैसे खो दिया है नाम ....
मैं उसके नाम को लेकर बेचैन हो उठा। उसे हो न हो मुझे उसके नाम की तलाश
ज़रूरी लगने लग गई। मैं उसके नाम के बारे में सोचते हुए कमरे की सीढ़ियाँ
चढ़ने लगा। यही सोचता रहा कि किस गली, किस तालाब, किस नदी में, चाँद-तारों के पास, गोवा की सड़कों पर, चर्च के पीछे, सत्ता के किस गलियारे में, किस पेड़ के पीछे, कौन सी बुलबुल के पास आखिर कहाँ खो बैठा है यह अपना
नाम। उसके नाम की बेचैनी मेरे सर पर सवार होने लग गई और मैं अपने कमरे में
जाने की बजाय मिस्टर कुलकर्णी के घर के अंदर चला आया। मुझे देखते ही नंदा
मावशी ने मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहा और रसोई की ओर मुड़ गईं। मिस्टर
कुलकर्णी फोन पर अपने बेटे से बात कर रहे थे। फोन रखने के बाद मेरे पास चले आए
और आराम कुर्सी पर आ कर बैठ गए। और कहा, "सुनाओ! शिरीष! कैसी चल रही है तुम्हारी नई नौकरी
...कहाँ से आ रहे हो अभी ..." आज मैं खुद के बारे में बात करने से ज़्यादा इस
वक्त नीले मकान वाले के बारे में जानने के लिए व्यग्र हो रहा था। नीचे सड़क की ओर देख कर मैंने
नीले मकान की ओर इशारा करते
हुए मिस्टर कुलकर्णी से पूछा, "यहाँ कौन
रहता है..." और नीचे सैलानी के साथ घटी घटना उन्हें सुनाने लगा। मैं आज
उसका सच जान लेना चाहता था उसके
अजीब बर्ताव का कारण जो पहले दिन से मुझे भी हैरत में डालता जा रहा था।
नंदा मावशी भी ड्राईंग रूम में चली आयी थीं मेरा सवाल सुनते हुए। उनके हाथ
में चाय का प्याला थमा हुआ था। वह आराम कुर्सी खींच कर मेरे पास आ कर बैठ
गईं और मुझसे बोलीं, "उसका नाम जॉर्ज है। उसके जीवन की
पूरी कहानी सुनने
पर ही तुम उसे समझ सकोगे, शिरीष।
अच्छा यह बताओ! आज खाने के लिए क्या तैयार करूँ.... प्रान फ़्राई और कोकोनट राइस
चलेगा?" पर मुझे तो लंच से
ज्यादा नीली आँखों वाले की जीवन-गाथा सुनने में दिलचस्पी हो रही थी। खाना
खाने तक मुझे इंतज़ार तो करना ही था। मैं वहीं दीवान पर बैठ गया।
नंदा मावशी चाय खत्म कर के उठीं और रसोई में चली
गईं और वापस आते हुए थाली में प्याज-लहसुन रख कर काटने के लिए ले आयीं। अब वह प्रान बनाने के
लिए प्याज छील रही थीं और
साथ-साथ बताती जा रही थीं। उनकी बतायी हुई कहानी यहाँ बयान कर रहा हूँ। करीब
पचास साल पहले गोवा के ग्रीष्मकाल की ठंडी खामोशी में जॉर्ज डी मैलो का
जन्म हुआ था। मिस्टर एंड मिसेज डी मैलो की इकलौती संतान है जॉर्ज। वर्षों
पूर्व इस परिवार की पीढ़ी समन्दर पार करके आ बसी थी गोवा के इस इलाके में
व्यापार करने के बहाने। कुछ गिने-चुने कोंकणी ब्राहम्णों को अगर छोड़ दिया जाए तो यह सारा
इलाका पुर्तगालियों का ही बसाया हुआ है। बाहर चौराहे के सामने सड़क पार जो
मार्किट दिखती है, वहीं थी मिस्टर
एंड मिसेज डी मैलो की
डोनाल्ड बेकरी शाप। डोनट्स क्रीमरोल और केक की वह दुकान मशहूर होती चली गई
अपने समय में। संपन्न परिवार में जन्म लिया था जॉर्ज ने...। नीली आँखों वाला गोरा-गुलाबी
...कत्थई घुँघराले बालों वाला वह हर घर का प्यारा था। वे जॉर्ज की जवानी के दिन थे जब वह
मोहब्बत कर बैठा था नीली से। लड़की
का नाम तो नीलोफ़र था पर उसके अब्बू उसे नीली कह कर पुकारते थे। अपने दोस्त
की सगाई में देखा था जॉर्ज ने नीलोफ़र को पहली बार ...वह उसके दोस्त
रिज़वान की बहन रेहाना की सहेली थी। पहली नज़र का यह पहला प्यार था कि नीली की
आँखों में भी जॉर्ज की नीली आँखों का रंग चढ़ने लग गया था। हालाँकि नीली उसे देख नहीं सकती
थी। वह जन्म से अंधी थी। गोवा का सारा सौन्दर्य नीली के हाथों में था। वह उसे छू सकती थी।
महसूस कर सकती थी पर उसे देख
नहीं सकती थी। अंधी बच्ची को जन्म दे कर उसकी अम्मी चल बसी थीं। उसके अब्बू
ने ही उसे पाला-पोसा। गोवा के जीवन स्पन्दन ने उस पर अपना आशीष लुटाया। वह
समन्दर की गीली रेत पर चल कर बड़ी हुई। मछली पालन उसके अब्बू का व्यवसाय था पर मछलियाँ उसकी
सहेलियाँ बन गईं। उसने मछलियों से बात करने के लिए समन्दर की बोली सीखी। हवा के झोंके से वह
बदलते मौसम की आहट जान लेती थी। वह
जॉर्ज के मन की भाषा को भी पढ़ लेती थी पर इस बात से अनजान थी कि वह खुद
गोवा शहर जैसी खूबसूरत लगती थी।
अपनी दूसरी मुलाकात में जॉर्ज ने उसे बताया था कि तुम गोवा
शहर जैसी खूबसूरत हो ...तुम्हारी
आँखें समन्दर की सीपियों सी लगती हैं... तुम्हारी दंतपंक्ति तो सीपियों के सुच्चे मोतियों की
लड़ी है ...तुम्हारे बाल सुनहरे रेतकण से चमकते हैं और तुम्हारा जिस्म काजू फेनी की मदिरा सा
महकता है। यह बोलते हुए जॉर्ज ने
नीलोफ़र के गाल को चूम लिया था बहते समन्दर के सामने। यह अक्टूबर का महीना था। नीलोफ़र तब
अठारह साल की हो आयी थी और उसका पिता अब बूढ़ा हो रहा था। आयु और बीमारी उसे जकड़ती जा रही
थी। अंधी बेटी के बारे में सोच कर
दिन-रात वह दुखी रहता था। नीली के अपूर्व सौन्दर्य का क्या प्रयोजन था? उसकी अंधी बेटी से कौन विवाह
करेगा। यह चिन्ता उसे दिन-रात सताया करती। जॉर्ज को भी इस बात की खबर थी। इस खातिर
उसने एक रोज़ नीलोफ़र की बात अपने
माँ-पिता से की... पर उनके पास नीलोफ़र के अलग मज़हब और उसके अंधे होने की वजहें बहुत पुख्ता
थीं। उन्हें इस रिश्ते से सख्त ऐतराज़ था और जॉर्ज था कि वह नीलोफ़र की मोहब्बत में गिरफ़्तार
रहा करता। साँझ ढलते ही समन्दर
के साहिल पर चला जाता ...नीलोफ़र वहाँ उससे मिलने आया करती और वह उसे हर रोज़
वायलिन पर नई धुन बजा कर सुनाया करता था। नीलोफ़र और जॉर्ज के दिन वायलिन पर बजती धुन के संग
बीत रहे थे। नीलोफ़र के पिता इस बात से बिलकुल बेखबर थे कि चाँद को भी उनकी बेटी की मोहब्बत
की खबर है। नीलोफ़र मोहब्बत तो
समझती थी पर ब्याह के मायने नहीं जानती थी। उसने तो जॉर्ज की नीली आँखें भी नहीं देखी थीं.... न
उसके कत्थई घुँघराले बाल ही देखे थे.... वह तो बस वायलिन सुना करती थी। समन्दर के गीत
गाया करती थी उगते सूरज के साथ।
चाँद तो वह जॉर्ज की आँखों से देखा करती....। एक रोज़ कहा था उसने साहिल की गीली रेत पर बैठ कर, "जॉर्ज! तुम्हारी नीली आँखों से देख कर तो चाँद
भी नीला नज़र आता है.. क्या चाँद नीला होता है ...? यह सारी दुनिया नीली नज़र आती है ...क्या तुम्हारी आँखों का
रंग आसमान का रंग है? क्या यही
वजह तो नहीं कि मेरा नाम भी इसीलिए नीली है।" नीली बोलती चली जा रही थी खुद
पर मंत्र मुग्ध हो कर...जॉर्ज उसकी प्रेम धुन में साहिल पर बैठा वायलिन
बजाता रहा चाँद के शामियाने तले। समन्दर की सीपियाँ वायलिन की धुन पर नृत्य
करने लगी थीं उन दोनों के साथ....। मतवाली लहरें दौड़ कर उन दोनों के पास चली आ रहीं थीं
समन्दर से अपना हाथ छुड़ा कर। साल बीत रहा था।
यह मार्च का महीना था। एक दिन रत्नागिरी से आम का
व्यापारी रहमान नीलोफ़र के पिता से मिलने
चला आया। वह पैंतीस वर्ष का था। उसकी एक बीवी थी। एक बेटा भी। उसने नीलोफ़र के अब्बू से कहा, "मैं नीलोफ़र को ब्याहने की बात सोच रहा हूँ। घर
के काम-काज संभालने के लिए मेरे पास बीवी है। आपकी नीलोफ़र को मैं घर की
रानी बना कर निहारता रहूँगा।" पिता को लगा जैसे जीवन का एक बड़ा भार हल्का
हो गया हो। एक लंबी साँस लेकर वह बोले, "मुझे खुशी
है।" नीलोफ़र
अंदर कमरे में बैठी सब सुन कर घबरा रही थी। जॉर्ज तक इस बात की खबर
पहुँचाने की उसके पास कोई सूरत नहीं दिखती थी। रहमान के विदा लेते ही वह अब्बू के
पास आयी और उनकी गोद में सर रख कर फूट-फूट कर रोते हुए बोली, "मैं उसके साथ नहीं जाऊँगी। मुझे वह आदमी नहीं चाहिए।
उसके मुँह से शराब की बू आती
है।" अब्बू ने नीली के माथे को सहलाते हुए दयनीय स्वर में कहा, "ज़िन्दगी के बारे में तुझे कुछ मालूम नहीं है। मेरे
मरने के बाद तेरा क्या होगा।
रहमान अच्छा आदमी है। तुझे जीवन के सब सुख देगा।" अब्बू की पलकों से
आँसू की बूँदे नीली के माथे पर जा गिरीं।
नीलोफ़र और रहमान का निकाह हो गया। जॉर्ज ने अपनी मोहब्बत का
अंजाम अपने खामोश होठों से पी
लिया और दूर एक यूनिवर्सिटी में जा कर नौकरी कर ली और किताबों की दुनिया
में जा कर डूब गया। अपने दोस्त रिज़वान से उसे नीलोफ़र की खबर खत के ज़रिये
मिलती रहती थी। रिज़वान उससे कहता था कि अब वह नीली को भूल जाए और वहाँ
किसी लड़की के साथ अपना घर बसा ले पर जॉर्ज के मन में सोचते हुए भी घर का
सपना नहीं ठहरता था। मिस्टर एंड मिसेज़ डी मैलो अपने बेटे जॉर्ज के इस फैसले
से खुश नहीं थे कि उनका बेटा अपना घर नहीं बसा रहा...। वे अब उदास रहा करते थे। उन्हें अब
उम्मीद भी नहीं थी कि जॉर्ज उनकी पसंद की लड़की से ब्याह करेगा। समय उदासी में बीतता जा रहा
था। वे बूढ़े होते जा रहे थे। जॉर्ज
अब किसी दूसरे शहर में रह कर नौकरी करता था। रिज़वान के खतों से उसे नीलोफ़र के बारे में
खबर मिलती रहती थी ...। शुरुआती खतों में तो नीलोफ़र की खैरियत की खबर हुआ करती जिससे जॉर्ज को
इतनी तसल्ली तो थी कि नीली
अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी में बस गई है पर रिज़वान ने जब नीलोफ़र के अब्बू के न
रहने की खबर उसे एक रोज़ खत में लिख कर भेजी और लिखा कि नीलोफ़र अपने अब्बू
के आखिरी वक्त पर भी उनके पास नहीं आ सकी थी। उन्हें देखने का उसे रंज ही
रह गया और जब वह मायके आयी, अब्बू नहीं
रहे थे...। वह अब बहुत बीमार
रहा करती है। दमे की मरीज़ हो आई है। उसका शौहर एक ज़ालिम आदमी है जो उसे
मारता-पीटता है। अब वह पहले जैसी नीली नहीं रह गई...। रेहाना से गले मिल कर
वह सिर्फ़ रोती रही...। रेहाना के बहुत पूछने पर उसने अपने वैवाहिक जीवन के बारे में उसे
बताया कि पहली रात से ही नीलोफ़र को रहमान से घृणा होने लगी थी। रहमान ने उस
अन्धी लड़की से ब्याह एक खास मकसद से किया था। जब एक शाम रहमान ने नीलोफ़र से कहा, "आज रात मैं व्यापार के सिलसिले में शोलापुर जा रहा हूँ। मेरा एक
साहब इधर रात को आएगा। उसके साथ तुम ठीक से पेश आना।" उस रात अपने बिस्तर पर एक पराये
पुरुष की गन्ध नीलोफ़र ने महसूस की। वह उस आदमी की भाषा समझ नहीं सकी थी। शराब
की गंध की उसे रोज़ आदत पड़ गई
थी। ऐसा सिलसिला फ़िर अक्सर चलता रहा। कुछ दिन बीते। रहमान फिर एक नया
मेहमान घर ले आया। उससे मिल कर नीलोफ़र को ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी देह की गंध
पुर्तगाली हो जो उसे बहुत पसन्द थी। रेशम के धागे जैसे उसके सिर के बाल लग
रहे थे... जो जॉर्ज के कत्थई बालों की याद दिला रहे थे....। मछली जैसी उस आदमी की नाक थी जिसे
उसने हाथ से स्पर्श करते हुए पूछा था, "क्या तुम्हारी आँखें नीली हैं?" नीलोफ़र को वह गोरा फ़िर जॉर्ज की
ही याद दिलाता
रहा। रात भर वह जॉर्ज के ख्यालों के संग रही। खून से भरे वस्त्रों के साथ अगली सुबह वह
रहमान के सीने से लगी हुई घर लौटी थी। ऐसे ही वह जीती रही। रोज़ रात मरती रही।
समन्दर की पवित्रता और लहरों की ताज़गी भरी नीलोफ़र कीचड़ भरे नाले में दम घोंट कर जी रही थी।
फ़िर कुछ दिन बाद एक रोज़ रिज़वान का खत जॉर्ज को मिला इस
खबर के साथ कि अपने इस नये धंधे
से मिले लाभ से रहमान ने खूब दौलत कमायी। इस बीच नीलोफ़र गर्भवती हो आई थी। भय और नफ़रत के
बीच भी उसने एक नये आनन्द का अनुभव किया। पूरे चाँद की वह रात थी जब उसने एक लड़के को
जन्म दिया। बच्चे का बाप कोई भी हो, बच्चा उसकी कोख से जन्मा है। इस
एहसास ने उसे नये जीवन से भर दिया था। वह उसकी नीली आँखों को चूमा करती। कत्थई
नर्म बालों में अंगुलियाँ फिराती हुई वह स्वप्न लोक में समन्दर देखा करने लगी
थी... उस नन्हें जॉर्ज की नीली
आँखों से...। उसे लगता उसकी नन्ही अंगुली थामे वह साहिल की गीली रेत पर चल
रही है। उसे समन्दर अपने पास बुलाने लगता वायलिन की धुन पर ...और उसे जॉर्ज का ख्याल आने लगता
...उसकी देह फ़िर काजू फेनी की गंध सी महकने लगती थी। नारकीय जीवन जीते हुए भी वह स्वर्ग के
सौन्दर्य को स्पर्श कर रही थी
इस बच्चे के जन्म के साथ...। मातृत्व के सुख से उसकी छातियाँ दूधिया हो आयीं थी...कि तभी रहमान
ने ऐलान कर दिया कि यह नीली आँखों वाला... कत्थई बालों वाला बच्चा उसका नहीं है, यह तो किसी गोरे का बच्चा है और यह इस घर
में हरगिज़ नहीं रह सकेगा। इससे पहले कि नीलोफ़र उससे कुछ कहती, रहमान ने नीलोफ़र की गोद से बच्चा
छीना और उसे लेकर घर से दूर कहीं निकल गया...।
यह नीलोफ़र की दूसरी बार हुई मौत थी। वह अंधी आँखों से अपनी
मृत्यु को देख रही थी। रहमान बच्चे
को लेकर घर से दूर जा चुका था। उसने उस बच्चे को बीस हज़ार रुपये में जा कर किसी क्रिश्चियन
परिवार के हाथ में बेच दिया और कमाये हुए उन रुपयों से अपने लिए सोने की एक अँगूठी खरीद ली।
शराब के नशे में जब वह देर रात घर
लौट कर आया तो अपनी जीत की खुशी मनाता हुआ नीलोफ़र की झोली में उसने वह
अंगूठी डाल दी... और नशे में उससे अपना सारा सच बयान कर बैठा पर यह सब सुनने के
लिए नीलोफ़र अब वहाँ हो कर भी नहीं थी...। वह अब आँखें ही नहीं, अपना सब कुछ खो बैठी थी। उसके पास
जीने की कोई उम्मीद नहीं रही ....वह गोरा बच्चा जो उसे जॉर्ज की याद दिलाया करता था। उसके
कत्थई घुँघराले बाल ....गुलाबी
नाज़ुक होंठ ....नीली आँखें....जिसे वह जॉर्ज कह कर पुकारना चाहती थी। उसे जॉर्ज का नाम देना
चाहती थी। उसके पुकारने से पहले ही वह नाम रहमान ने उसके हाथ से ले कर खो दिया था। वह अपना
बच्चा खो चुकी थी। दूसरी बार
उसने जॉर्ज को खो दिया था...। वह कुछ पाना नहीं जानती थी पर खोने का मतलब जानती थी। उसने बचपन
में ही जान लिया था कि खोना किसे कहते हैं जब आँखें खोली थी पहली बार... तब ही खो दी थीं
उसने आँखें। खो दी थी अपनी अम्मी
भी। नीलोफ़र रो रही थी पर रहमान तो नशे में धुत्त सो रहा था बेखबर कि तभी अचानक वह उठी और मुँह
अंधेरे ही घर छोड़ कर अपने बच्चे की तलाश में कहीं निकल गई।
सुना है कि लोगों ने फ़िर उसकी परछाईं ही देखी थी आखिरी
बार समन्दर की लहरों की ओर जाते हुए।
इस बात की सच्चाई का गवाह सिर्फ़ अकेला एक समन्दर है पर वह किसी से कुछ बताता नहीं, वह नीलोफ़र का दोस्त है...। दोस्त
तो दोस्तों के राज़ समन्दर
की अतल गहराईयों में छुपा लेते हैं। वह तबसे खामोश रहता है। किसी से भी बताता नहीं कि अब
नीलोफ़र कहाँ है...। लोग कहते हैं जो वह समन्दर के भीतर होती तो लहरें उसे सीपियों की तरह
ज़रूर किनारे पर छोड़ने आतीं पर
लहरों की आगोश ने शायद उसे अपने सीने से लगा लिया है... पर यह सच भी समन्दर किसी
से बयान नहीं करता। समन्दर की मछलियाँ नीलोफ़र की कसम दे कर उसे सच कहने से रोक लेती हैं।
जॉर्ज की आँखों के आगे अब रिज़वान के लिखे खत के लफ़्ज़
धुँधले पड़ते जा रहे थे... उसका
खत जॉर्ज के हाथ में थमा नहीं रह गया। वह कुर्सी के नीचे जा गिरा था। उसके हाथ से छूटते ही
उसका हाथ हवा में लहरा कर रह गया। नंदा मावशी बताती जा रहीं थीं कि मिस्टर एंड मिसेज डी मैलो
यह खबर पाते ही अपने बेटे के पास
चले गए थे और उसे अपने साथ घर ले आए थे। गोवा में उसका बहुत इलाज़ करवाया पर जॉर्ज तबसे अपनी
ही दुनिया में रहा करता है। वह दुनिया जिसमें उसकी नीलोफ़र थी ...उसके सपने थे....उसका वायलिन...।
अब वह पूरी तौर पर
खामोश रहता है ...बस अपनी धुन में...। वायलिन को चमकाता रहता है तो कभी उसे
बजाते हुए गीत गाता है। कभी-कभी उसके कमरे से आवाज़ें आती हैं जब वह खुद
से बात करता है। उन बातों में नीलोफ़र का ज़िक्र होता है ...वह पुकारता है
-नीली और अपनी पुकार के पीछे वायलिन ले कर अक्सर चाँद रात में घर से निकल
जाता है समन्दर के किनारे। उसे अपने रहने खाने पीने का अब कुछ होश नहीं
रहता। बूढ़ी मार्था अब भी उसके घर आती है और जॉर्ज का और उसके घर का कुछ काम
सँवार देती है। गवर्नेस मार्था सब सच जानती है। जबसे मिस्टर एंड मिसेज डी मैलो नहीं रहे, वह ही है जो उसे जॉर्ज कह कर
पुकारती है ...नहीं तो वह
तो अपना नाम भी भूल चुका है। समन्दर की लहरों में खो चुका है नाम।
यही है जॉर्ज की जीवन गाथा। नंदा मावशी उठ कर अब रसोई
में जा चुकी थीं। टाइगर प्रान्स को उन्होंने कढ़ाई में डाल दिया...। कोकोनट राइस पैन में
खदबदाने लग गए थे। मैं उठ कर
बालकनी में चला आया। फान्टेनेन्स रोड पर वायलिन की धुन बिखरने लगी थी।
नीली उस दोपहर में मैंने देखा समन्दर की फेनिल लहरें तटबंध तोड़ कर हाँफ़ती चली
आ रही थीं फान्टेनेन्स रोड पर और नीली दीवारों वाले मकान में प्रवेश करने लग गईं...। समन्दर
की उन लहरों के बीच तभी मुझे नीली एक परछाईं दिखाई दी... वह नीलोफ़र ही थी। उससे मिलने के
लिए मैं दौड़ते हुए सीढ़ियों से
नीचे उतर आया...। नीले मकान का दरवाज़ा बंद था। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा.... जॉर्ज कुर्सी
पर बैठा हुआ वायलिन बजा रहा था...। नीलोफ़र उसके पास खड़ी हुई उसके ताँबई बालों में अपनी
अंगुलियाँ फिरा रही थी...। चलते-चलते
फ़िर वह मेज के पास जा कर रुक गई और टेबिल लैंप के नीचे रखा हुआ खत उठा कर पढ़ने लगी...।
मैंने देखा.... उसकी सीपियों वाली कत्थई आँखों में दो सुच्चे मोती चमक रहे थे। वह खत पढ़ सकती
थी ...वह जानती थी कि प्रेम
अंधा होता है ...। वह खत पढ़ रही थी लफ़्ज़ दर लफ़्ज़। वायलिन की धुन और
समन्दर के शोर के बीच मैं उसे पढ़ते हुए सुन रहा था नीले मकान की नीली छाँव
के नीचे –
सुनो नीलोफ़र!
तुम्हें देखा था जब मैंने पहली बार। तुम थी रंग-ए-आसमानी में।
खुले आसमान की नीली छतरी
के नीचे तुम बालकनी में खड़ी हुई थी। होठों पर तुम्हारे सत्रहवें साल का रंग
गुलाबी था और शफ़्फ़ाक संगमरमरी जिस्म पर पहन रखा था तुमने आसमान की हद पर उड़ने वाला रंग।
हवा के संग उड़ते तुम्हारे कत्थई गेसू कुछ कहते जाते थे तुम्हारे कानों में और तुम शरारती हँसी
का दामन थाम झटक रही थी उन बातों
को अपनी उड़ती ज़ुल्फ़ों से ...तब ... तुम्हारे हाथों में पहनी आसमानी
चूड़ियाँ और कानों में पहनी साँवली बालियाँ ऐसे मिल कर बज उठी थीं जैसे समन्दर
में गिर रही हों बारिश की बूंदों वाली लड़ियाँ। तुम्हें याद हो न हो नीलोफ़र ...पर मेरे हाथ
में आज भी थमा हुआ है वह गीली रुई सा लम्हा तुम्हारी यादों के इत्र में लिपटा हुआ। मेरी हथेली
तुम्हारी गीली याद से महकती रहती
है नीलोफ़र ... ।
सम्पर्क
मोबाईल : 09560180202
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-01-2019) को "कटोरे यादों के" (चर्चा अंक-3231) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आलेख का रंग गहरा कीजिए तभी पढ़ने में आनन्द आयेगा।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 28/01/2019 की बुलेटिन, " १२० वीं जयंती पर फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंBest chance to convert your writing in book form publish your content book form with bestbook publisher in India with print on demand services high royalty, check our details publishng cost in India
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर ! दिल को छूने वाली कहानी
जवाब देंहटाएं