शेखर जोशी की लम्बी कविता ‘विश्वकर्मा पूजा : एक काव्य रिपोर्ताज’, टिप्पणी -विजय गौड़
हाल ही में पहल -114 में शेखर जोशी की लम्बी कविता ‘विश्वकर्मा
पूजा : एक काव्य रिपोर्ताज’ प्रकाशित हुई है। इस कविता पर हमारे आग्रह पर कवि विजय गौड़ ने अपनी एक
टिप्पणी भेजी है। आज
पहली बार पर प्रस्तुत है शेखर जोशी की लम्बी कविता ‘विश्वकर्मा पूजा : एक काव्य
रिपोर्ताज’ और इस कविता पर विजय गौड़ की टिप्पणी।
विजय गौड़ की टिप्पणी
कविता
का विषय गत होना, यानी, वस्तुनिष्ठ होना और भावों का विषयिगत होना, यानी, आत्मगत होना एक ऐसी
प्रक्रिया है जिसके साथ निर्वैयक्तिक हो पाना थोड़ा मुश्किल ही होता है। बावजूद
वस्तुनिष्ठता और आत्मगतता के सामंजस्य के साथ ही निर्वैयक्ति संरचना की
अवधारणा कविता होती है। यानी अवधारणा के स्तर पर बात करें तो कविता-कर्म ना तो
नितांत वस्तुनिष्ठ कर्म है और ना ही नितांत आत्मगत तरह से किए गए विश्लेषण और उनसे
प्राप्त होने वाले परिणामों की प्रक्रिया। बल्कि वह साधारणीकरण की एक ऐसी
प्रक्रिया है जिसे कवि लोकदशा के धरातल पर उतर कर साधता है। स्वयं उदात होने और
किसी सहृरदय को उदात होने का अवसर प्रदान करने का कर्म।
पहल
114 में प्रकाशित वरिष्ठ रचनाकार शेखर जोशी की कविता ‘विश्वकर्मा पूजा: एक
काव्य रिपोर्ताज’ साधारणीकरण के ऐसे ही प्रतिमान रचते हुए सामने आती
है। यह कविता किसी भी हिंदुस्तानी कारखाने में वार्षिक आयोजन के रूप में होने
वाली विश्वकर्मा पूजा के घटनाक्रम का एक रिपोर्ताज प्रस्तुत करती है। किसी भी
तरह के धार्मिक आडम्बर से मुक्त अभिव्यक्ति के साथ। औजारों के देवता विश्मकर्मा
का दैवत्व नहीं बल्कि कारखाने के मजदूरों के उल्लास की अनुभूतियों को समेटता
इसका कलेवर एक गहरी विश्रांति की तरह प्रकट होता है।
फिर
अंतरंग मंत्रणा हुई
एक सौ
आठ ‘ओम भूर्भु’ की आहुतियों में लगेगा
टाइम बहुत
पन्द्रह-बीस
मिनट कह आए हैं साहब से
’अरे पांडे महाराज
संक्षेप में निपटा देंगे
वे
गांव के माने हुए कथावाचक हैं’ सुझाया अवध ने
तय
हुआ इस बार कथा ही होगी – हवन नहीं।
तथ्यों
की वैज्ञानिकता जहाँ सिर्फ प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के रूप में पहचानी जा सकती है उसी को आधार बना कर यह
भी कहा जा सकता है कि कि अभिव्यक्ति की वैज्ञानिकता निर्वैयक्तिक होने में ही
संभव है।
निजी अनुभव के गहरे कुंए में उतरने की जा प्रक्रिया कवि शेखर जोशी के यहां इस
कविता में दिखाई देती है, उसके कारण यह साफ दिखने
लगता है कि किन्हीं भावुक क्षणों का उद्वेग नहीं, अपितु अपने समकाल से
वार्तालाप करने की पहल के कारण यह काव्य
रिपोर्ताज सामने है। जब अपने अपने धर्म की श्रेष्ठता
को साबित करने का विधान रचती घृणित मानसिकता में
मनुष्यता जानवर विशेष के बरक्स तुच्छ बना दी जा रही है। इसी वजह से यह कविता
अपने पाठ में एक रिपोर्ताज भर होने की वस्तुनिष्ठता भर नहीं रह
जाती बल्कि मूल मानवीय भावनाओं, जिसका लक्षण विभिन्नता
से भरी सामाजिक समरसता में ही बनता है, का पाठ हो जाती है। कविता
का कथ्य, मात्र स्मृतियों में दर्ज
घटनाओं का प्रतिरूप भर नहीं है, वह ता जीवन की आंतरिक
हलचलो को सामने रख रहा है, बिना किसी महानता का
बखान करते हुए अपनी परिणति तक पहुंचता हुआ। यह साफ दिखने
लगता है कि हमारा वर्तमान एक कवि के वर्षों के जीवन अनुभव पर प्रहार करता हुआ है।
देख
सकते हैं कि जो वातावरण निर्मित किया जा रहा वह कैसे
संवेग को जन्म दे रहा है। उसके कारण ही कविता में आने वाले प्रसंग इकहरे नहीं रह जा रहे हैं। अभिव्यक्ति के
अनुशासन का यह संघातिक रूप उदात्त का
निर्माण करना चाहता है। उसके
कायम रहने की कामना से भरा है। संवेगों की सघनता उस वक्त चरम पर है जब पूजा
प्रार्थना और हवन का दृश्य संपन्न होना है, अनिच्छुक से साहब को भी वहाँ तक ले आने के लिए चिरौरी तक करनी पड़ रही है। तमाम जतनों से
की जा रही पूजा प्रक्रिया की निरर्थकता वहाँ स्वत: प्रकट हो जा रही है जब दूसरी
तरफ सुरती की फंकी तैयार करते हुए
हंसी ठट्टों की गूंज सुनना संभव होने लगता है। इस तरह के विवरणों में कवि
के आशय वस्तुगत स्थिति की ओर निगाहबानी के आग्रह पैदा करते हुए भी नहीं दिख रहे, बल्कि देख सकते हैं कि
यथार्थ की विश्वसनीयता को कायम रखने में ही वे मददगार हो रहे हैं। वह यथार्थ, जो परस्पर संबंधों की
अवश्यम्भाविता में ही अपनी संपूर्णता को प्राप्त करता है। साधारण सी दिखने वाली
बात कितनी असाधारण लगने लगती है जब पाठक अपने समकाल में चारों ओर वैमनस्य को
बढ़ाने वाले समूहों को ताकतवर होते हुए देखता है। यहीं पर कविता का उठान उस बिन्दु
पर पहुंचता है जहाँ काल्पनिक और अलौकिक विचारों की गिरफ्त से मुक्त होना संभव हो
पाता है और एक कवि की अभिव्यक्ति की यह निर्मिति घटना का रिपोर्ताज भर नहीं रह
जाती बल्कि काव्यात्मक व्यंजना के साथ सामने आती है। कविता का यह रिपोर्ताज इसी
कारण उल्लेखनीय है और वंदनीय भी।
शेखर जोशी
की लम्बी कविता
विश्वकर्मा
पूजा : एक काव्य रिपोर्ताज
वह आज आए
हैं
फूल पाती ले
कर
बूढ़े अधेड़
और जवान
कुछ नई
भर्ती वाले बछड़े भी
(जो आज
मनाएंगे अपनी पहली पूजा)
सभी
प्रफुल्लित
सभी उत्सवित
उतार लिए
हैं घरेलू कपड़े
पहन ली है
अपनी-अपनी डांगरियाँ,
अब सभी एक
सी वर्दी में फौजियों की तरह
उतर आए हैं
अपने-अपने ठिए बाटा गया है पेंट हरा
बाँटे गए
हैं ब्रश छोटे और बड़े
सफाई के लिए
कॉटन वेस्ट भीमाकार मशीनों को पोंछ कर शुरू हो रही है पुताई
शियरिंग, ब्रेकप्रेस, पावर प्रेस
कुछ मंझोली
खराद, मिल्लिंग, शेपर, ड्रिलिंग और ग्राइंडर
नटखट करेला
को टोक दिया फोरमैन महावीर ने
'ज्यादा
कलाकारी नहीं करेले
यह शमशाद
चचा का ट्रक नहीं कि हेडलाइट के ऊपर भंवें बना दो
और कारों पर
काजल, माथे पर
बिंदी
यह सरकारी
मशीनें हैं
सिर्फ ओ.
जी. पेंट
हाँ, ग्रीज पॉइंट पर लाल गोला बना सकते
हो
फिटरों ने
अपने टूलकिट खाली कर लिए हैं
एक-एक औजार
को चमका रहे हैं प्लास, पेंचकस, छेनी, हथौड़ी स्पैनर, कई कई हैकशा
रेतियां
छोटी-बड़ी बर्मे, पंच और भी
बहुत कुछ
सजा रहे हैं
उन्हें कतार में रख कर अब रंगा जा रहा है खाली टूलकिट
लिखाया
जाएगा उस में अपना टोकन नंबर लाल गोले में
बढ़इयों ने
चमकाए हैं अपने औजार
आरियाँ, रंदे, वसूले, छेनियाँ, बर्मे और रुखानी।
रंगी जा रही
है दुल्हन की तरह बड़ी मशीनें
सर्कुलर और
बैण्डसा, प्लेनर और
और ग्राइंडर
दर्जी और
मोची शॉप में
चमकाई जा
रहीं हैं सिलाई मशीनें कतार में सजी हैं कैंचियाँ, रांपियाँ, सूए, नपने
वल्कनाइजर
शॉप में
अयूब मियां
के बंदों ने
चमकाया है
एयर कंप्रेसर
कतार में
सजाया दीगर सामान।
लोहारखाना
क्यों पीछे रहे
दूल्हे सा
सजा है पावर हैमर
दुलहिन सी
सजी है निहाई
भट्टियों की
चिमनियां भी
नई सी लग
रही हैं
चमचम कर रहे
हैं घनों और हथौड़ों के बेंट
राइफलों सी
कतार में रखी हैं सड़सियां
ड्राइवरों
ने गाड़ियों के आगे सजाए
जैक, लिवर, स्पेनर, पेचकश और ग्रीज़गन
जगमगा उठी
है वर्कशॉप
फूल
पत्तियों से प्रणति दी है कारीगरों ने
अपनी
अन्नदाता मशीनों, औजारों को।
उधर छोटे
ट्रक में
बाजार जा
चुके हैं इंतजामकार खाली कार्टन और थैले ले कर उन्हें विदा करते बोले टाइमकीपर चटर
बाबू
कादिर का
बादाम लौंज जरूर लाना
बड़ा चतुर
है चटोर है चटर बाबू, किसी ने
जुमला कसा
बड़ी भीड़
थी बाजार में ट्रक खड़ा कर दिया है घंटाघर में
एक दल गया
मिठाई बाजार की ओर
सैकड़ों की
संख्या में लेने हैं लड्डू, बालूशाही, खस्ता और बताशे
शर्मा जी
चले हवन सामग्री लेने
लाला जयदेव
पंचामृत का सामान
सकोरे, दोने और तुलसीदल, फूल, माला, कपूर
कादिर की
लौंज बड़ी महंगी है
बजट से बाहर
फिर भी ले
लें पाव भर
पंच मेल
प्रसाद के लिए
चटर बाबू की
बात भी रह जाएगी जा बैठे फटाफट गाड़ी में।
मंदिर कमेटी
वाले बहुत व्यस्त
ले आए हैं
बैजनाथ फ्रेम में मढ़ी हुई विश्वकर्मा जी की तस्वीर
बिछ रहे हैं
तिरपाल
किनारों पर
लगा दी गई हैं बेंचें
सुपरवाइजर
नेतागण और बाबू लोगों के लिए
आसन पर
जमेंगे कथावाचक
चौकी पर
साहब
टिक गई है
तिपाही पर विश्वकर्मा जी की तस्वीर।
बड़े साहब
को पूजा का समय बताने पहुंचे मंत्री
साहब की
अपनी हिचक :
'भई मैं
वर्दी में कैसे बैठूंगा हवन में छोटे साहब को ले जाओ
वही संपन्न
कर देंगे'
निराश लौटे
मंत्री
छोटे अफसर
को बताई पूरी बात छाई रही चुप्पी कुछ देर
लोगों की के
बीच से उठ कर
पहुंचा है
बड़ी कुर्सी तक छोटा अफसर
नीति निपुण, अच्छा अनुभवी सबका चहेता, सबका हितू
'ठीक है' कह कर विदा किया मंत्री को
फिर पठाये
अपने दो पैरोकार
दोनों ही
बड़े उस्ताद
शौकत अली और
भगवान दीन
बा अदब
पहुंचे दरबार में
'हुजूर आपसे
एक गुजारिश है' बोले शौकत
'कहिए?'
'सरकार, बाप के रहते चाचा पूजा में बैठे
आज के दिन
यह शोभा नहीं देता', बोले भगवान
दीन
साहब ने
दुहराई अपनी हिचक
'नहीं सर, आज तो हमारा ख़ास पर्व है
पूजा आपके
ही हाथों शोभा देगी' भगवान दीन
अड़े रहे।
पशोपेश में
पड़ गए साहब
'वर्दी में
इतनी देर...' अपनी हिचक
दोहराई साहब ने'
'बहुत देर
नहीं होगी सर।
पन्द्रह या
बीस मिनट, बस
आप चौकी पर
बैठेंगे आराम से पैर लटका कर
बस जूते
उतारने होंगे, मोजे भी
नहीं।'
हामी भरनी
ही पड़ी जजमानी के लिए
मन में शंका
उठी - यह रचना छोटे की है
तत्काल मन
को आश्वस्त किया
नहीं, पक्का भरोसेमंद है सहायक हम वर्दी
वालों से ज्यादा समझता है अपने लोगों के मानस को
मेरे हित
में ही सोचा होगा
फिर अंतरंग
मंत्रणा हुई
एक सौ आठ 'ओम भूर्भु' की आहुतियों में लगेगा टाइम बहुत
पन्द्रह बीस
मिनट कह आए हैं साहब से
'अरे पांडे
महाराज संक्षेप में निपटा देंगे
वह गांव के
माने हुए कथावाचक हैं' सुझाया अवध
ने
तय हुआ इस
बार कथा ही होगी - हवन नहीं
आर्य समाजी
शर्मा जी भुनभुनाए 'यहां भी
साली पॉलिटिक्स'
पांडे अवध
के गोल के हैं और वे समर के।
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मंत्री ले
आए साहब को
उतारे अपने
जूते ही नहीं मोजे भी
कर
प्रक्षालन कराया पांडे ने
स्वयं सिर
पर बांधा अपना रुमाल
बैठे चौकी
पर आराम से
पैर लटका
कर।
टिन टिन टिन
बजी घंटी
अब भई कथा
शुरू
आज के इस
पावन पर्व में
हम स्मरण
करते हैं
उन सभी देवी
देवताओं को
जो बचाते
हैं हमें चोट चपेट से
दुर्घटना से, हारी बीमारी से
हम बंदगी
करते हैं अपने उस्तादों को
जिन्होंने
हमें अपना हुनर सिखाया किसी लायक बनाया।
बंदगी करते
हैं अपने पुरखों को
जिन्होंने
यह कारखाना आबाद किया
अपना खून
पसीना बहाया
और सौंप गए
अपनी विरासत हमें
हम बंदगी
करते हैं विश्वकर्मा महाराज की
बनी रहे हम
पर उनकी किरपा... ...
चतुर
कथावाचक ने छेड़ा
कृष्ण और
सुदामा की मैत्री का प्रसंग
बचपन की कथा
खाते पीते
घर के किशन
गरीबी में
पला सुदामा
संदीपन गुरु
के आश्रम के दिन
कभी सूरदास
के पद
कभी नरोत्तम
दास का कवित्त कभी गद्य
में कभी पद्य में
कभी नागर
भाषा में
तो कभी गँवई
गांव की बोली में माखन चोरी भी
चीरहरण भी
कालिया
मर्दन भी
गोवर्धन
पर्वत भी
उधर सुदामा
की दीन दशा
अधपेट भोजन
और
भरपेट
लंतरानियां
ऐसे थे ऐसे
थे ऐसे थे हमारे सखा अब बैठे हैं राजगद्दी पर द्वारिका में।
ऊब गई बामणी
सुनते-सुनते खींज कर कहा जाते क्यों नहीं द्वारिका
क्या निहाल
करते हैं तुम्हें
एक दिन चल
पड़े सुदामा द्वारका की दिशा में
मियां भाई
लोग नहीं बैठे थे तिरपाल पर
उनका गोल
जमा था सामने रैंप पर
लोहारखाने
के आगे
पीपल की
छांव में
बतियाते
गपियाते
पान पत्ता
चबाते
सुरती खैनी
फांकते
अचानक बोले
शरीयत के पाबन्द शमीउल्ला
'ए भाई, ई बतावा तबर्रुक लेना जायज है?
चटख गए बी.
पी. के मरीज वेल्डर नईम
'ए समीउलवा, तैं बड़ा आलिम बनत है मैं
विश्वकर्मा
जी कौनों पीर-पैगंबर रहे का?
वह तो रहे
हमा सुमा की तरै कारीगर
बड़े आला
दर्जे के कारीगर'
'जैसन अपने
मोईन भाई, पत्ता लगाया
नचनिया ओम प्रसाद ने
जो आ बैठा
था इस गोल में पान पत्ते के चक्कर में।
संकोच में
पड़ गए
सौम्य शालीन
मोईन भाई
जिनकी शोहरत
है दूर-दूर तक जमाया एक धौल नचनिया की पीठ पर
'बहुत बोले
लगे हो आजकल।'
उधर अब
समापन पर है कथा
सुदामा
पहुंचे द्वारकापुरी
खूब स्वागत
किया किशन जी ने
फटी बिवाई
वाले सखा के पैर देखकर रोए भी।
नया कुर्ता, धोती, दुशाला पहनाया पहनाया
चार दिन खूब
खातिर की
राज काज
छोड़ कर बतियाते रहे रात दिन
फिर विप्र
को विदा किया
पर एको धेला
नहीं दिहिन राहखर्ची के बदे
(स्रोताओं ने
लगाया लगाया ठहाका)
लौटे मुँह
लटका कर
उधर किशन जी
ने संदेश भेजा विश्वकर्मा जी को
'बना दें एक
आलीशान भवन
पंडित की
कुटिया के आगे' विश्वकर्मा
जी जुट गए रात दिन
कुछ ही
दिनों में बन गया आलीशान भवन
किशन जी ने
पठाए बिछावन, कपड़े-लत्ते, बर्तन-राशन
जम गई
गृहस्थी
सज गई
ब्राह्मणी
कई दिन बाद
लौटे सुदामा जी
हैरान
परेशान
खोज रहे हैं
अपनी कुटिया को
नजर पड़ गई
बाट जोहती पत्नी की
फूट गई
रुलाई
बाँह थाम कर
ले गई अंदर। जयकारा लगा, विश्वकर्मा
महाराज की जै।
कुछ आवाज
उठी रैंप पर से भी सब आए
पाया प्रसाद
लिया
पंचामृत भक्ति भाव से।
साहब ने
आरती की थाली में रखा एक खजूर छाप नोट
जूते पहन
चले ऑफिस की ओर
प्रसाद का
दोना ले कर चल रहे हैं साथ में भगवानदीन
न रहा गया, पूछ ही लिया साहब से
'सर, कैसी लगी पूजा आपको?' 'वंडरफुल' थैंक्स अलॉट' गदगद भाव से बोले सर।
हो गई
छुट्टी
लौटे
अपने-अपने घर को सब लोग
बचे रहे कुछ
इंतजामकार
समेटना है
सब कुछ
लाला जय देव
के चमचे सालिग ने
अपने झोले
से निकाला गिलास पंचामृत के तलछट में जमा चिरौंजियों खातिर
हर साल ले
आता है गिलास घर से।
संपर्क
शेखर जोशी
डी 8, रेडियो कालोनी,
सेक्टर 8 इंदिरा नगर, लखनऊ
पिन 226016
फोन : 91 61 91 68 40
सम्पर्क -
विजय गौड़
फोन - 09474095290
ई-मेल : vggaurvijay@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (05-01-2019) को "साक्षात्कार की समीक्षा" (चर्चा अंक-3207) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'